लोग खुद के सोच से ज़्यादा ईमानदार होते हैं – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक और राष्ट्रीय विकास के लिए ईमानदारी अनिवार्य है। लेकिन आजकल हम देखते हैं कि कैसे लोग, कंपनियां और सरकार अपने मतलब और फायदे के लिए धोखाधड़ी कर रहे हैं। क्या दुनिया के सभी 205 देशों में ऐसा ही होता है? क्या लोग व्यक्तिगत लेन-देन में ईमानदारी को तवज़्जो देते हैं? यही सवाल ए. कोह्न और उनके साथियों के शोध पत्र का विषय था (कोह्न और उनके साथी जानकारी संग्रहण और विश्लेषण, अर्थशास्त्र और प्रबंधन विषयों के विशेषज्ञ हैं)। उनका शोध पत्र “civic honesty around the globeसाइंस पत्रिका के जून अंक में प्रकाशित हुआ है। यह अध्ययन उन्होंने 40 देशों के 355 शहरों में लगभग 17,000 लोगों के साथ किया, जिसमें उन्होंने लोगों में ईमानदारी और खुदगर्ज़ी के बीच संतुलन को जांचा। इस अध्ययन के नतीजे काफी दिलचस्प रहे। अध्ययन में उन्होंने पाया कि लोग व्यक्तिगत स्तर पर वास्तव में उससे ज़्यादा ईमानदार होते हैं जितना वे खुद अपने बारे में सोचते हैं।

यह प्रयोग उन्होंने कैसे किया। शोधकर्ताओं ने कुछ वालन्टियर चुने जो किसी बैंक, पुलिस स्टेशन या होटल के पास एक बटुआ गिरा देते थे। हर बटुए के एक तरफ एक पारदर्शी कवर लगा था, जिसके अंदर एक कार्ड रखा होता था। इस कार्ड पर बटुए के मालिक का नाम और उससे संपर्क सम्बंधी जानकारी होती थी। कार्ड के साथ घर के लिए खरीदने के कुछ सामान (जैसे दूध, ब्रोड, दवाई वगैरह) की एक सूची भी होती थी। इस जानकारी के साथ बटुओं के अलग-अलग सेट बनाए गए। जैसे, कुछ बटुए बिना रुपयों के थे, कुछ बटुओं में थोड़े-से रुपए (14 डॉलर या उस देश के उतने ही मूल्य की नगदी) और कुछ में अधिक (95 डॉलर या समान मूल्य की नगदी) रखे गए। अर्थात बटुओं के 5 अलग-अलग सेट थे। पहले सेट में नगदी नहीं थी, दूसरे सेट में मामूली रकम थी, तीसरे सेट में अधिक रकम थी, चौथे सेट में नगदी नहीं लेकिन एक चाबी रखी गई थी, और पांचवे सेट में नगदी के साथ एक चाबी रखी थी।

वालन्टियर्स ने इन बटुओं को किसी सार्वजनिक स्थल (जैसे पुलिस स्टेशन, होटल या बैंक के पास) पर गिराया और इस बात पर नज़र रखी कि जब बटुआ किसी व्यक्ति को मिलता है तो वह उसके साथ क्या करता है। क्या वह नज़दीकी सहायता काउंटर पर जाकर सम्बंधित व्यक्ति तक बटुआ वापस पहुंचाने को कहता है? अध्ययन के नतीजे क्या रहे?

अध्ययन में उन्होंने पाया कि उन बटुओं को लोगों ने अधिक लौटाया जिनमें पैसे थे, बजाए बिना पैसों वाले बटुओं के। सभी 40 देशों में उन्हें इसी तरह के नतीजे मिले।

और यदि बटुओं में बहुत अधिक रुपए रहे हों, तो? क्या वे बटुआ लौटाने के पहले उसमें से थोड़े या सारे रुपए निकाल लेते? क्या उन्होंने सिर्फ सज़ा के डर से बटुए लौटाए? या इनाम मिलने की उम्मीद में लोगों ने पूरे रुपयों सहित बटुआ लौटाया? या ऐसा सिर्फ परोपकार की मंशा से किया गया था? यह वाला प्रयोग उन्होंने तीन देशों (यूके, यूएस और पोलैंड) में किया, जिसके नतीजे काफी उल्लेखनीय रहे। 98 प्रतिशत से अधिक लोगों ने अधिक रुपयों से भरा बटुआ भी लौटाया। (यह अध्ययन उन देशों में करना काफी दिलचस्प होगा जो आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं हैं।)

अपने अगले प्रयोग में उन्होंने बटुओं के तीन सेट बनाए। पहले सेट में बटुए में सिर्फ थोड़े रुपए रखे, दूसरे सेट में बटुए में थोड़ी-सी रकम और एक चाबी रखी, और तीसरे सेट में बटुए में काफी सारे रुपए और चाबी दोनों रखे। इस अध्ययन में देखा गया कि बिना चाबी वाले बटुओं की तुलना में चाबी वाले बटुओं को अधिक लोगों ने लौटाया। इन नतीजों को देखकर लगता है कि लोग बटुए के मालिक को परेशानी में नहीं देखना चाहते। इसी तरह के नतीजे सभी देशों में देखने को मिले।

भारतीय शहर

इस अध्ययन में हमारे लिए दिलचस्प बात यह है कि शोधकर्ताओं ने भारत के दिल्ली, बैंगलुरू, मुंबई, अहमदाबाद, कोयम्बटूर और कोलकाता शहर में लगभग 400 लोगों के साथ यह अध्ययन किया। इन शहरों के नतीजे अन्य जगहों के समान ही रहे। एशिया के थाईलैंड, मलेशिया और चीन, और केन्या और साउथ अफ्रीका के शहरों में भी इसी तरह के परिणाम मिले।

शोधकर्ताओं के अनुसार “हमने यह जानने के लिए 40 देशों में प्रयोग किया कि क्या लोग तब ज़्यादा बेईमान होते हैं जब प्रलोभन बड़ा हो, लेकिन नतीजे इसके विपरीत रहे। ज़्यादा नगदी से भरे बटुओं को अधिक लोगों द्वारा लौटाया गया। यह व्यवहार समस्त देशों और संस्थानों में मज़बूती से देखने को मिला, तब भी जब बटुओं में बेईमानी उकसाने के लिए पर्याप्त रकम थी। हमारे अध्ययन के नतीजे उन सैद्धांतिक मॉडल्स से मेल खाते हैं जिनमें परोपकार और आत्म-छवि को स्थान दिया जाता है, साथ ही यह भी दर्शाते हैं कि बेईमानी करने पर मिलने वाले भौतिक लाभ के साथ गैर-आर्थिक प्रेरणाओं का भी प्रत्यक्ष योगदान होता है। जब बेईमानी करने पर बड़ा लाभ मिलता है तो बेईमानी करने या धोखा देने की इच्छा बढ़ती है, लेकिन अपने आप को चोर के रूप में देखने की कल्पना इस इच्छा पर हावी हो जाती है। …तुलनात्मक अध्ययन इस बात की ओर इशारा करता है कि आर्थिक रूप से अनुकूल भौगोलिक परिवेश, समावेशी राजनैतिक संस्थान, राष्ट्रीय शिक्षा और नैतिक मानदंडों पर ज़ोर देने वाले सांस्कृतिक मूल्यों का सीधा सम्बंध नागरिक ईमानदारी से है।”

ऐसे अध्ययन भारत के विभिन्न स्थानों, गांवों (गरीब और सम्पन्न दोनों), कस्बों, नगरों, शहरों और आदिवासी इलाकों में करना चाहिए और देखना चाहिए कि यहां के नतीजे उपरोक्त अध्ययन से निकले सामान्य निष्कर्षों से मेल खाते हैं या नहीं। भारत उन 40 देशों का प्रतिनिधित्व करता है जो आर्थिक और सामाजिक आदर्शों, मूल्यों और विश्वासों को साझा करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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