प्रतिरक्षा व्यवस्था और शरीर की हिफाज़त – 4 – विनीता बाल, सत्यजीत रथ

प्रतिरक्षा तंत्र हर चीज़ को कैसे पहचान लेता है?

प्रतिरक्षा तंत्र यह कैसे सुनिश्चित करता है कि उसके पास दुनिया के हर ताले की चाभी हो?

हम पहले बता चुके हैं कि लक्ष्य की पहचान का क्लोनल विविधरूपी मॉडल या अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र रीढ़धारी प्राणियों में हिफाज़त का प्रमुख आधार है। लेकिन इस तरह की डिज़ाइन में कुछ बड़ी-बड़ी समस्याएं आती हैं। पहली समस्या तो यह है कि विकसित होते प्रतिरक्षा तंत्र को पता नहीं होता कि इस विशाल बुरी दुनिया में उसका सामना किस-किस चीज़ से होने वाला है। पता नहीं, उसकी मुठभेड़ शायद किसी मंगलवासी कीटाणु से हो जाए। चूंकि इस तंत्र को हर संभव लक्ष्य के लिए तैयार रहना है, इसलिए विकास का पूर्व अनुभव यहां काम नहीं आएगा क्योंकि वैकासिक अनुभव तो सिर्फ यह बताता है कि तंत्र अतीत में किन चीज़ों से टकरा चुका है। लेकिन इससे इस बात की कोई गारंटी नहीं मिलती कि भविष्य में कोई नई चीज़ सामने नहीं आ सकती। लिहाज़ा, संभावित लक्ष्यों के मामले में विविधता की कोई सीमा नहीं है।

ऐसा भी कोई तरीका नहीं है जिससे प्रतिरक्षा तंत्र (या जीव) नए दुश्मनों से संपर्क को सीमित कर सके। आखिर बाहरी पर्यावरण तो कमोबेश जीव के नियंत्रण से परे है। हां, मनुष्य काफी हद तक अपने पर्यावरण पर नियंत्रण करता है।

बहरहाल, यदि संभावित लक्ष्यों की तादाद अनगिनत है, तो स्वाभाविक है कि इन लक्ष्यों (एंटीजन्स) को पहचानने की संरचनाएं (ग्राही) भी अनगिनत होना चाहिए। लेकिन किसी भी जीव के जीनोम में असंख्य ‘रेडीमेड’ जीन्स तो नहीं हो सकते। तो सवाल है कि यह विविधतापूर्ण फौज या पहचान का खजाना कैसे पैदा होता है। ग्राहियों की ऐसी अनंत संख्या तैयार करने का एकमात्र तरीका है कि एक बुनियादी ग्राही आकृति के जीन को लिया जाए, और उसमें बेतरतीबी से काट-छांट, फेरबदल करके विभिन्न आकृतियों के जीन्स बनाए जाएं। और यह काम हर जीव में हर बार नए सिरे से किया जाए। यह प्रक्रिया प्रतिरक्षा तंत्र की एक और विशेषता की व्याख्या करती है, जिसकी चर्चा हमने शुरू में की थी – कि प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं विकास के दौरान अपने डीएनए को पुन:संयोजित करती रहती हैं।

ग्राही निर्माण: जीनोम की काट-छांट

ग्राही के पूरे जीन की इस तरह की काट-छांट का परिणाम यह होगा कि ग्राही के उस हिस्से में तो परिवर्तन नहीं होगा जो लक्ष्य अणु (एंटीजन) से जुड़ता है बल्कि अन्य हिस्सों में होगा – जैसे किसी ऐसे हिस्से में जो ग्राही को कोशिका की झिल्ली पर जमने में मदद करता है। लिहाज़ा, बेहतर होगा कि काट-छांट की प्रक्रिया को ग्राही अणु के कुछ हिस्सों तक सीमित रखा जाए। 

इसके अलावा, इस काट-छांट के अंतर्गत डीएनए के सम्बंधित अनुक्रम में बेतरतीबी से जोड़ना, हटाना या फेरबदल करना शामिल होगा। डीएनए में ऐसा बेतरतीब परिवर्तन किसी कोशिका के लिए काफी जोखिम भरा काम हो सकता है। तो बेहतर होगा कि कोशिका ऐसे परिवर्तनों का कम से कम उपयोग करे। इसलिए यह बेहतर और सुरक्षित होगा कि ग्राहियों का विशाल भंडार तैयार करने के लिए उत्परिवर्तनों का सहारा कम से कम लिया जाए।

इस सबके लिए सबसे पहले तो हमें ग्राही को उसकी बुनियादी कामकाजी इकाइयों में तोड़ना होगा ताकि पुन:संयोजन की मशीनरी को पूरे ग्राही की बजाय ग्राही के बहुत छोटे हिस्से के साथ छेड़छाड़ करनी पड़े। हमें ज़रूरत इस बात की है कि प्रत्येक बी-कोशिका और प्रत्येक टी-कोशिका पर ऐसे ग्राही हों जो किसी अलग एंटीजन को पहचानते हों। लेकिन एक बार अपने अनोखे लक्ष्य को पहचानने के बाद ग्राही को अपनी कोशिका (बी या टी) को इस बात का संदेश प्रेषित करना चाहिए। यह संदेश हरेक ग्राही के मामले में एक जैसा होगा जो कोशिका को अपने काम के लिए तैयार कर दे। कुल मिलाकर, चाहे प्रत्येक ग्राही का लक्ष्य अनोखा होगा लेकिन कोशिका से जुड़ने और संदेश प्रेषण का काम सारी बी-कोशिकाओं के मामले में एक जैसा और सारी टी कोशिकाओं के संदर्भ में एक जैसा होगा। तो सारी बी-कोशिकाओं के ग्राहियों की रचना एक जैसी और सारी टी-कोशिकाओं के ग्राहियों की रचना एक जैसी होगी।

संदेश प्रेषण ग्राहियों का वह बुनियादी तत्व है जो कई ग्राहियों में एक जैसा होगा। अर्थात यह ‘स्थिर’ क्षेत्र है जबकि लक्ष्य को पहचानने वाला तत्व ‘परिवर्ती’ क्षेत्र है। तो अब हमारे पास जीन के दो हिस्से हो सकते हैं – ग्राही जीन का एक्सॉन जो स्थिर क्षेत्र का कोड होगा जिसे विविधता उत्पन्न करने की प्रक्रिया में अछूता छोड़ दिया जाएगा। जीन का दूसरा भाग परिवर्ती क्षेत्र का कोड होगा।

उत्परिवर्तन के बगैर विविधता

अब सवाल यह उठता है कि क्या जीन अनुक्रम में स्थायी परिवर्तनों का सहारा लिए बगैर विविधता उत्पन्न की जा सकती है। यानी क्या जीन में उत्परिवर्तन न करके मात्र पुन:संयोजन करके यह काम संभव है?

एक तरीका यह है कि परिवर्ती क्षेत्र के लिए कुछ निर्माण इकाइयों को लिया जाए और उन्हें अलग-अलग क्रम में जोड़ दिया जाए। ऐसे पुन:संयोजन से अधिकतम विविधता प्राप्त करने के लिए अच्छा होगा कि परिवर्ती क्षेत्र में कई घटक हों।

सबसे पहले तो यह देखिए कि बी-कोशिका किसी भी लक्ष्य की आकृति को पहचानेगी जबकि टी-कोशिका लक्ष्य को तभी पहचानेगी जब वह एमएचसी अणु से जुड़ा कोई पेप्टाइड हो। इसके अलावा इन दो कोशिकाओं में एक अंतर यह है कि ये ग्राही द्वारा मिलने वाले अलग-अलग किस्म के संदेश पर प्रतिक्रिया देती हैं।

लिहाज़ा, इन दो के संदर्भ में स्थिर क्षेत्र अलग-अलग किस्म के होने चाहिए। अर्थात बेहतर होगा कि बी-कोशिका और टी-कोशिका के ग्राहियों के निर्माण हेतु अलग-अलग जीन्स हों।

दूसरा, यह भी फायदेमंद होगा कि ग्राही दो प्रोटीन शृंखलाओं से बना हो – शृंखला-1A और शृंखला-2B एक किस्म के ग्राही बनाएंगी जबकि शृंखला-1A और शृंखला-2B मिलकर अलग गुणों वाला ग्राही बनाएंगी। कई जैविक तंत्रों में दोहरी शृंखला ग्राहियों का उपयोग किया जाता है। तो यह कोई बड़ी दिक्कत नहीं है। लिहाज़ा बी और टी दोनों कोशिकाओं के ग्राहियों में 2-2 शृंखलाएं होती हैं – छोटी वाली शृंखला को अल्फा (या हल्की) शृंखला तथा बड़ी शृंखला को बीटा (या भारी) शृंखला कहते हैं।

तीसरा, प्रत्येक शृंखला के लिए परिवर्ती क्षेत्र के छोटे से भंडार (जिसमें से प्रत्येक बी व टी कोशिका के ग्राही को बनाने के लिए लॉटरी निकाली जाएगी) का उपयोग करने की बजाय बेहतर यह होगा कि परिवर्ती क्षेत्र को छोटे-छोटे खंडों में विभक्त कर दिया जाए। अब ऐसे प्रत्येक छोटे खंड के लिए बेतरतीबी से लॉटरी निकाली जाए। वास्तव में बड़ी वाली शृंखला के लिए जीन्स के ऐसे तीन मिनी जीन संग्रह होते हैं – वी समूह, डी समूह और जे समूह। छोटी वाली शृंखला के लिए ऐसे दो समूह होते हैं – वी समूह और जे समूह।

अर्थात इनमें से प्रत्येक मिनी-जीन एक-एक र्इंट जोड़ता है जिसके परिणामस्वरूप ग्राही के परिवर्ती क्षेत्र की एक प्रोटीन शृंखला की विविधतापूर्ण रचना बन जाती है। प्रत्येक मिन-जीन समूह में कई वैकल्पिक र्इंटें उपलब्ध होती हैं और प्रत्येक कोशिका में प्रत्येक समूह में से इन्हें बेतरतीबी से चुना जाता है। यह दूसरे समूह के अपने समकक्ष प्रोटीन से जुड़कर पूरा परिवर्ती क्षेत्र बना देता है। इनमें से प्रत्येक र्इंट के अंतिम छोर पर एक निशान होता है। इसके चलते इनके आपस में जुड़ने का क्रम कुछ हद निश्चित होता है – जैसे भारी शृंखला के वी समूह का प्रोटीन भारी शृंखला के जे समूह के घटक से सीधे नहीं जुड़ सकता, बीच में डी समूह का घटक होना ज़रूरी होता है। पुनर्मिश्रण की यह प्रक्रिया काफी क्रमबद्ध ढंग से विविधतापूर्ण खजाना पैदा कर देती है।

लेकिन अभी भी यह खजाना अनंत तो कदापि नहीं है क्योंकि सारी सूचना तो जीनोम से ही आ रही है और जीनोम तो सीमित ही है ना! तो सवाल है खजाना निर्माण की इस प्रक्रिया में वास्तविक खुलापन कैसे हासिल किया जाता है। और खजाने में सचमुच की बेतरतीबी के जिन्न को सक्रिय करने की समस्याएं क्या हैं? अगली बार हम इसी सवाल पर विचार करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान की उपेक्षा की मानवीय कीमत

कुछ सप्ताह पूर्व ब्राज़ील में कोविड से होने वाली मौतों ने 4 लाख का आंकड़ा पार कर लिया। कुछ ऐसी ही स्थिति भारत में भी देखी जा सकती है जहां प्रतिदिन लगभग 3500 लोगों की मृत्यु हो रही है। इसके चलते विश्व भर से ऑक्सीजन, वेंटीलेटर, बेड और अन्य आवश्यक वस्तुओं के माध्यम से सहायता के प्रयास किए जा रहे हैं। हालांकि, ये दो देश हज़ारों किमी दूर हैं लेकिन दोनों के संकट राजनैतिक विफलताओं के परिणाम हैं। दोनों ही देशों के नेताओं ने या तो शोधकर्ताओं की सलाह की उपेक्षा की या कार्रवाई में कोताही की। परिणाम: मानव जीवन की अक्षम्य क्षति।

ब्राज़ील के राष्ट्रपति जेयर बोल्सोनारो कोविड-19 को साधारण फ्लू कहते रहे और मास्क के उपयोग और शारीरिक दूरी जैसी वैज्ञानिक सलाह को भी शामिल करने से इन्कार करते रहे। यही स्थिति ट्रंप प्रशासन के दौरान यूएस में बनी थी जहां 5,70,000 जानें गर्इं।

नेचर में प्रकाशित एक लेख के अनुसार सितंबर में कोविड-19 के प्रतिदिन 96,000 मामले और उसके बाद गिरकर मार्च 2021 में लगभग 12,000 मामले प्रतिदिन रह जाने के बाद भारत के नेता मुगालते में आ गए। कारोबार पहले की तरह खोल दिए गए, बड़ी संख्या में सभाओं के आयोजन होने लगे, विवादास्पद कृषि कानून के विरोध में हज़ारों किसान दिल्ली की सीमाओं पर एकत्रित हो गए और मार्च-अप्रैल में चुनावी रैलियां और धार्मिक आयोजन भी होते रहे।  

एक समस्या और भी रही – भारत में वैज्ञानिकों के लिए शोध के आंकड़ों तक पहुंच आसान नहीं रही। ऐसे में उनको सटीक अनुमान और साक्ष्य-आधारित सुझाव देने में काफी परेशानी होती है। फिर भी इस तरह के डैटा के अभाव में शोधकर्ताओं ने पिछले वर्ष सितंबर में सरकार को कोविड-19 प्रतिबंध में ढील देने के प्रति सतर्क रहने की चेतावनी दी थी। उन्होंने अप्रैल माह के अंत तक प्रतिदिन लगभग एक लाख मामलों की चेतावनी भी दी थी।  

इस संदर्भ में, 29 अप्रैल को 700 से अधिक वैज्ञानिकों ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा था जिसमें अस्पतालों में कोविड-19 परीक्षण के परिणामों और रोगियों के स्वास्थ्य सम्बंधी नतीजों जैसे डैटा तक बेहतर पहुंच की मांग की गई थी। इसके अलावा, नए संस्करणों की पहचान करने के लिए बड़े स्तर पर जीनोम-निगरानी कार्यक्रम शुरू करने का भी आग्रह किया था। इसके अगले दिन सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार कृष्णस्वामी विजयराघवन ने इन चिंताओं को स्वीकार करते हुए यह स्पष्ट किया कि सरकार के बाहर के शोधकर्ताओं को आंकड़ों तक पहुंच कैसे मिल सकती है। इस कदम का सभी ने स्वागत किया, लेकिन डैटा प्राप्त करने के कुछ पहलू अभी भी अस्पष्ट हैं। गौरतलब है कि पूर्व में भी सरकार ने नीतियों के आलोचक शोधकर्ताओं की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। दो वर्ष पूर्व, 100 से अधिक अर्थशास्त्रियों और सांख्यिकीविदों ने एक पत्र में आधिकारिक आंकड़ों में राजनीतिक हस्तक्षेप समाप्त करने का आग्रह किया था जिस पर अधिकारियों ने अच्छी प्रतिक्रिया नहीं दी थी।

सामान्य स्थिति में भी अनुसंधान समुदाय और सरकार के बीच इस तरह के कठिन सम्बंध उचित नहीं होते। महामारी के दौरान तो फैसले त्वरित और साक्ष्य आधारित होने चाहिए। तब इस तरह की स्थिति काफी घातक हो सकती है। विज्ञान और वैज्ञानिकों की उपेक्षा से भारत और ब्राज़ील सरकारों ने जीवन की हानि को कम करने का एक महत्वपूर्ण अवसर खो दिया है। अपर्याप्त जानकारी के कारण त्वरित निर्णय लेने में परेशानी होती है। अत: शोधकर्ताओं और चिकित्सकों दोनों को स्वास्थ्य डैटा सुलभता से प्राप्त होना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

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कार्बन चोर सूक्ष्मजीव

दुनिया पृथ्वी की सतह के नीचे भी सूक्ष्मजीवों का एक संसार बसता है। हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि इनमें से कुछ सूक्ष्मजीव पृथ्वी के अंदर जाकर ज़ब्त होने वाले कार्बन में से काफी मात्रा में कार्बन चुरा लेते हैं और नीचे के प्रकाश-विहीन पर्यावरण में र्इंधन के रूप में उपयोग करते हैं। सूक्ष्मजीवों की इस करतूत का परिणाम काफी नकारात्मक हो सकता है। जो कार्बन पृथ्वी की गहराई में समा जाने वाला था और कभी वापस लौटकर वायुमंडल में नहीं आता, वह इन सूक्ष्मजीवों की वजह से कम गहराई पर ही बना रह जाता है। यह भविष्य में वायुमंडल में वापस आ सकता है और पृथ्वी का तापमान बढ़ा सकता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि पृथ्वी की गहराई में चल रहे कार्बन चक्र को समझने में अब तक इन सूक्ष्मजीवों की भूमिका अनदेखी रही थी।

वैसे तो मानव-जनित कार्बन डाईऑक्साइड पृथ्वी के भावी तापमान में निर्णायक भूमिका निभाएगी लेकिन पृथ्वी में एक गहरा कार्बन चक्र भी है जिसकी अवधि करोड़ों साल की होती है। दरअसल, धंसान क्षेत्र में पृथ्वी की एक प्लेट दूसरी प्लेट के नीचे धंसती हैं और पृथ्वी के मेंटल में पहुंचती हैं। धंसती हुई प्लेट अपने साथ-साथ कार्बन भी पृथ्वी के अंदर ले जाती हैं। यह लंबे समय तक मैंटल में जमा रहता है। इसमें से कुछ कार्बन ज्वालामुखी विस्फोट के साथ वापस वायुमंडल में आ जाता है। लेकिन पृथ्वी के नीचे पहुंचने वाला अधिकतर कार्बन वापस नहीं आता, और क्यों वापस नहीं आता यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं था।

2017 में कोस्टा रिका के 20 विभिन्न गर्म सोतों से निकलने वाली गैसों और तरल का अध्ययन करते समय युनिवर्सिटी ऑफ टेनेसी की सूक्ष्मजीव विज्ञानी केरेन लॉयड और उनके साथियों ने पाया था कि पृथ्वी के नीचे जाने वाली कुछ कार्बन डाईऑक्साइड चट्टानों में बदल जाती है, जो मैंटल की गहराई तक कभी नहीं पहुंचती और वापस वायुमंडल में भी नहीं आती। ये सोते उस धंसान क्षेत्र से 40 से 120 किलोमीटर ऊपर स्थित है जहां कोकोस प्लेट सेंट्रल अमेरिका के नीचे धंस रही है। इसके अलावा उन्हें यह भी संकेत मिले थे कि जितनी कार्बन डाईऑक्साइड चट्टान में बदल रही है उससे अधिक कार्बन डाईऑक्साइड कहीं और रिस रही है।

नमूनों का बारीकी से विश्लेषण करने पर शोधकर्ताओं ने ऐसी रासायनिक अभिक्रियाओं के संकेत पाए हैं जिन्हें केवल सजीव ही अंजाम देते हैं। उन्हें नमूनों में कई ऐसे बैक्टीरिया मिले हैं जिनमें इन रासायनिक अभिक्रियाओं को अंजाम देने वाले आवश्यक जीन मौजूद हैं। नमूनों से प्राप्त कार्बन समस्थानिकों के अनुपात से पता चलता है कि सूक्ष्मजीव इन धंसती प्लेटों से कार्बन डाईऑक्साइड चुरा लेते हैं और इसे कार्बनिक कार्बन में बदलकर इसका उपयोग करके फलते-फूलते हैं।

नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ कोस्टा रिका के नीचे रहने वाले सूक्ष्मजीव हज़ारों ब्लू व्हेल के द्रव्यमान के बराबर कार्बन प्रति वर्ष चुरा लेते हैं, जो कभी न कभी वापस वायुमंडल में पहुंच जाएगा और पृथ्वी का तापमान बढ़ाएगा। हालांकि अभी इन नतीजों की पुष्टि होना बाकी है, लेकिन यह अध्ययन भविष्य में पृथ्वी के तापमान में होने वाली वृद्धि में सूक्ष्मजीवों की भूमिका को उजागर करता है और ध्यान दिलाता है कि यह पृथ्वी के तापमान सम्बंधी अनुमानों को प्रभावित कर सकती है।

इसके अलावा शोधकर्ताओं को वे सूक्ष्मजीव भी मिले हैं जो कार्बन चुराने वाले बैक्टीरिया के मलबे पर निर्भर करते हैं। शोधकर्ता यह भी संभावना जताते हैं कि कोस्टा रिका के अलावा इस तरह की गतिविधियां अन्य धंसान क्षेत्रों के नीचे भी चल रही होंगी। (स्रोत फीचर्स)

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अमेरिकी शहद में परमाणु बमों के अवशेष

हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार लगभग पांच दशक पूर्व किए परमाणु बम परीक्षणों के अवशेष आज भी दिखाई दे रहे हैं। शोधकर्ताओं ने शहद में रेडियोधर्मी तत्व मौजूद पाया है। हालांकि शहद में रेडियोधर्मी तत्व का स्तर खतरनाक नहीं है, लेकिन अंदाज़ है कि 1970-80 के दशक में यह स्तर काफी अधिक रहा होगा।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका, पूर्व सोवियत संघ और अन्य कई देशों ने सैकड़ों परमाणु बम परीक्षण धरती की सतह पर किए थे। इन बमों से रेडियोधर्मी सीज़ियम निकला और ऊपरी वायुमंडल में पहुंचा। हवाओं ने इसे दुनिया भर में फैलाया, हालांकि हर जगह यह एक समान मात्रा में नहीं फैला था। उदाहरण के लिए, क्षेत्रीय हवाओं और वर्षा के पैटर्न के कारण अमेरिका के पूर्वी तट पर बहुत अधिक रेडियोधर्मी कण पहुंचे।

रेडियोधर्मी सीज़ियम पानी में घुलनशील है, और चूंकि इसके रासायनिक गुण पोटेशियम के समान हैं इसलिए पौधे इसे पोटेशियम मानकर उपयोग कर लेते हैं। यह देखने के लिए कि क्या अब भी पौधों में यह परमाणु संदूषण पहुंच रहा है, विलियम एंड मैरी कॉलेज के भूविज्ञानी जेम्स कास्ट ने विभिन्न स्थानों के स्थानीय खाद्य पदार्थों में रेडियोधर्मी सीज़ियम की जांच की।

उत्तरी कैरोलिना से लिए गए शहद के नमूनों के परिणाम आश्चर्यजनक थे। उन्हें इस शहद में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर अन्य खाद्य पदार्थों की तुलना में 100 गुना अधिक मिला। यह जानने के लिए कि क्या पूर्वी यूएस में मधुमक्खियां पौधों से मकरंद लेकर शहद बना रही हैं, और सीज़ियम का सांद्रण कर रही हैं, उनकी टीम ने पूर्वी यूएस के विभिन्न स्थानों से शहद के 122 नमूने एकत्रित किए और उनमें रेडियोधर्मी सीज़ियम का मापन किया। उन्हें 68 नमूनों में प्रति किलोग्राम 0.03 बेकरेल से अधिक रेडियोधर्मी सीज़ियम मिला (यानी लगभग एक चम्मच शहद में 8,70,000 रेडियोधर्मी सीज़ियम परमाणु)। सबसे अधिक (19.1 बेकरेल प्रति किलोग्राम) रेडियोधर्मी सीज़ियम फ्लोरिडा से प्राप्त नमूने में मिला।

नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक परमाणु बम परीक्षण स्थल से हज़ारों किलोमीटर दूर और बम परीक्षण के 50 साल बाद तक रेडियोधर्मी तत्व पौधों और जानवरों के माध्यम से पर्यावरण में घूम रहा है। हालांकि अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने स्पष्ट किया है यह स्तर चिंताजनक नहीं है। यह सुरक्षित स्तर (1200 बेकरेल प्रति किलोग्राम) से बहुत कम है।

समय के साथ रेडियोधर्मी तत्वों की मात्रा कम होती जाती है। इसलिए भले ही वर्तमान में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर कम है, लेकिन पूर्व में यह स्तर काफी अधिक रहा होगा। पूर्व में यह मात्रा कितनी होगी यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने दूध के नमूनों में सीज़ियम का स्तर मापा, और संग्रहालय में रखे पौधों के नमूनों का विश्लेषण किया। शोधकर्ताओं ने पाया कि 1960 के दशक के बाद से दोनों तरह के नमूनों में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर बहुत कम हुआ है, और कमी आने की यही प्रवृत्ति शहद में भी रही होगी। अनुमान है कि 1970 के दशक में शहद में सीज़ियम का स्तर मौजूदा स्तर से 10 गुना अधिक रहा होगा। सवाल उठता है कि पिछले 50 सालों में रेडियोधर्मी सीज़ियम ने मधुमक्खियों को किस तरह प्रभावित किया होगा? कीटनाशकों के अलावा अन्य मानव जनित प्रभाव भी इनके अस्तित्व को खतरे में डाल सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 के उपचार में नई दवाओं से उम्मीद

कोविड-19 के उपचार के लिए कई औषधियों के विकास पर काम चल रहा है। हाल ही में भारत में दो औषधियों को इलाज में आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी मिली है, व एक औषधि को क्लीनिकल परीक्षण की मंज़ूरी मिली है।

इनमें से एक औषधि है 2-डिऑक्सी-डी-ग्लूकोज़ (2-डीजी), जिसे डीआरडीओ के इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर मेडिसिन एंड एलाइड साइंसेज़ ने डॉ. रेड्डीस लैब के साथ मिलकर विकसित किया है। पावडर के रूप में उपलब्ध इस दवा को ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया ने कोविड-19 के उपचार में आपात उपयोग की मंज़ूरी दे दी है।

प्रारंभिक परीक्षणों में यह दवा शरीर में सार्स-कोव-2 वायरस के प्रसार को कम करने में कारगर पाई गई थी। क्लीनिकल परीक्षणों में यह दवा मध्यम और गंभीर रूप से पीड़ित कोविड-19 मरीज़ों पर अन्य मानक उपचारों के साथ प्रभावी पाई गई है। मरीज़ों में इसके कोई साइड इफेक्ट भी दिखाई नहीं दिए हैं। द्वितीय चरण के परीक्षण में इससे मरीज़ों के स्वस्थ होने की दर अधिक देखी गई और तृतीय चरण के परीक्षण में पाया गया कि इस दवा के उपयोग ने बाहरी ऑक्सीजन पर निर्भरता भी कम कर दी।

ग्लूकोज़ के समान 2-डीजी भी पूरे शरीर में फैलकर वायरस संक्रमित कोशिकाओं तक पहुंचता है, और वायरस संश्लेषण को अवरुद्ध करके तथा वायरस प्रोटीन निर्माण प्रणाली को ध्वस्त करके वायरस की वृद्धि को रोक देता है। यह फेफड़ों में फैले संक्रमण को भी रोकता है, जिससे ऑक्सीजन पर निर्भरता कम हो जाती है। जल्दी ही यह दवा देश भर के अस्पतालों में उपलब्ध हो जाएगी।

दूसरी औषधि – रोश और रीजेनेरॉन द्वारा विकसित एंटीबॉडी ड्रग-कॉकटेल – को सेंट्रल ड्रग्स स्टैण्डर्ड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइज़ेशन ने आपात उपयोग के लिए मंज़ूरी दी है। भारत में उपयोग के लिए कैसिरिविमैब और इमडेविमैब के इस कॉकटेल को मंज़ूरी अमेरिका में प्रस्तुत आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी के आवेदन और युरोपीय संघ की कमेटी फॉर मेडिकल प्रोडक्ट फॉर ह्यूमन यूज़ के डैटा के आधार पर दी गई है। इस मंज़ूरी के बाद रोश इंडिया और सिप्ला मिलकर इसे भारत में आयात और वितरित कर सकेंगे।

दवा के इस कॉकटेल का परीक्षण 12 वर्ष से अधिक उम्र के कोविड-19 के हल्के और मध्यम लक्षणों वाले उन लोगों पर किया गया था, जिनमें कोविड-19 का संक्रमण गंभीर रूप लेने की संभावना थी। पाया गया कि इसके उपयोग से इन लोगों में कोविड-19 का संक्रमण गंभीर रूप नहीं ले पाया था। उम्मीद है कि इस औषधि से उच्च जोखिम वाले लोगों को गंभीर स्थिति में पहुंचने से बचाया जा सकेगा।

तीसरी दवा है, पीएनबी वेस्पर लाइफ साइंस प्राइवेट लिमिटेड द्वारा विकसित PNB-001 – बेलाडोल। ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया द्वारा कोविड-19 के मरीज़ों पर इसे द्वितीय चरण के क्लीनिकल परीक्षण करने की मंज़ूरी मिली है। प्रारंभिक क्लीनिकल परीक्षणों में इसके सकारात्मक परिणाम मिले हैं, जिसमें यह फेफड़ों की सूजन और उग्र श्वसन संकट सिंड्रोम (ARDS) को कम करने में कारगर पाई गई है। अब, द्वितीय चरण में पुणे स्थित बीएमजे मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन सहायता के साथ कोविड-19 के मध्यम रूप से पीड़ित 40 मरीज़ों पर इसकी प्रभाविता जांची जाएगी। इसके बाद 350 मरीज़ों पर तृतीय चरण का परीक्षण किया जाएगा।

कोविड-19 के मुख्य लक्षण हैं बुखार, शरीर में दर्द और फेफड़ों में सूजन। कोविड-19 से मृत्यु का मुख्य कारण साइटोकाइन आक्रमण और उग्र श्वसन संकट है। पूर्व-क्लीनिकल परीक्षणों में बेलाडोल बुखार, शरीर के दर्द और फेफड़ों की सूजन को कम करने में प्रभावी पाई गई है, और इससे मृत्यु दर में 80 प्रतिशत तक की कमी देखी गई है। इसके विपरीत, वर्तमान में दुनिया भर में कोविड-19 से बचने के लिए इस्तेमाल की जा रही दवा, डेक्सामेथासोन, मृत्यु दर में केवल 20 प्रतिशत की कमी लाती है। उम्मीद है क्लीनिकल परीक्षणों में भी इसके अच्छे परिणाम मिलेंगे और इसकी मदद से मृत्यु दर में कमी लाई जा सकेगी।

इसके अलावा, बुखार और बदन दर्द को कम करने में यह दवा एस्पिरिन की तुलना में भी 20 गुना अधिक प्रभावी पाई गई है। यह भी देखा गया है कि साइटोकाइन आक्रमण को घटाने और तिल्ली की साइज़ को कम करने में भी यह कारगर है।

उम्मीद है कि इन दवाओं से कोविड-19 के हालातों को बेहतर करने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

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अमेरिका कोविड-19 टीकों से पेटेंट हटाने के पक्ष में

कोविड-19 के टीकों के पेटेंट के सम्बंध में हाल ही में अमेरिका ने एक ऐतिहासिक कदम उठाया है। दुनिया भर में टीकों की आपूर्ति बढ़ाने के उद्देश्य से अमेरिकी सरकार ने कोविड-19 के टीकों से पेटेंट हटाने का समर्थन किया है। विश्व व्यापार संगठन की दो दिवसीय बैठक में अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि कैथरीन ताई ने कहा है कि हमें असाधारण परिस्थितियों में असाधारण कदम उठाने की ज़रूरत है।

पूर्व में यूएस, युरोपीय संघ, यूके और जापान ने भारत और दक्षिण अफ्रीका द्वारा कोविड-19 टीकों के जेनेरिक संस्करण के निर्माण के प्रस्ताव का विरोध किया था। अमेरिका हमेशा से बौद्धिक संपदा अधिकारों को बचाने के पक्ष में रहा है, इसलिए राष्ट्रपति बाइडेन प्रशासन द्वारा उठाए गए इस कदम से प्रस्ताव के समर्थक और विरोधी दोनों ही अचंभित हैं।

यह फैसला सार्वजनिक स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। अमीर और गरीब देशों में कोविड-19 टीकाकरण दर के बीच बहुत अधिक अंतर है। गरीब देशों में एक प्रतिशत से भी कम लोगों को कोविड-19 का टीका मिल पाया है।

विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड-19 टीकों का पेटेंट हटाना तो टीका आपूर्ति में तेज़ी लाने का पहला कदम भर होगा। इसके बाद यह सुनिश्चित करना होगा कि टीका बनाने की जानकारी जेनेरिक निर्माताओं तक पहुंचे, और बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए निवेश मिले।

विश्व व्यापार संगठन पेटेंट हटाने की मंज़ूरी तब तक नहीं देगा जब तक सभी सदस्य सहमत नहीं हो जाते। वैसे स्वास्थ्य-नीति विश्लेषकों का अनुमान है कि अन्य देश भी अमेरिका के नक्शेकदम पर चलेंगे और टीकों से पेटेंट हटाने से सहमत होंगे।

दक्षिण अफ्रीका और भारत ने न सिर्फ टीकों के पेटेंट को बल्कि कोविड-19 सम्बंधी चिकित्सा उपकरणों, दवाइयों वगैरह के पेटेंट को हटाने की मांग भी की थी। लेकिन अमेरिका ने सिर्फ टीकों से पेटेंट हटाने की बात की है।

दवा कंपनियों का कहना है कि पेटेंट हटाने से कंपनियों को टीका विकास में किए भारी निवेश पर नुकसान झेलना पड़ेगा। पेटेंट रहने से कंपनियां टीकों की कीमत तय करके निवेश की रकम वसूल सकती हैं। पेटेंट हटने से बाज़ार में जेनेरिक निर्माताओं द्वारा निर्मित टीके कम दाम पर लोगों को उपलब्ध होंगे।

पेटेंट हटाने के विरोध में सिर्फ दवा कंपनियां नहीं हैं। बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन के बिल गेट्स भी पेटेंट हटाने के विरोध में हैं। वे कहते हैं कि जेनेरिक निर्माता उत्पादन में तेज़ी नहीं ला सकेंगे और उनके द्वारा निर्मित टीकों की गुणवत्ता का भी सवाल रहेगा। उद्योग समूह फार्माश्यूटिकल रिसर्च एंड मैन्युफैक्चरर्स ऑफ अमेरिका का भी कहना है कि यह कदम महामारी के प्रति हमारी प्रतिक्रिया को कमज़ोर करेगा और यह सुरक्षा से समझौता होगा।

पेटेंट हटाने के समर्थकों का कहना है कि जेनेरिक निर्माता वर्षों से पूरे विश्व में उच्च गुणवत्ता वाले टीकों और दवाइयों की आपूर्ति कर रहे हैं। कई कोविड-19 टीकों के विकास में करदाताओं का भी पैसा लगा है; इस संकट की घड़ी में दवा कंपनियों का सिर्फ लागत वसूलने के बारे में सोचना अनुचित है।

बहरहाल, कई अन्य बाधाओं को भी दूर करने की ज़रूरत है। जैसे यह सुनिश्चित किया जाए कि टीकों का समान रूप से वितरण हो। कोविड-19 के लिए विकसित ये टीके विज्ञान के क्षेत्र में एक अद्वितीय विजय हैं, लेकिन अगर इनसे दुनिया की केवल 20-30 प्रतिशत आबादी को ही लाभ मिलेगा तो फिर इतनी मेहनत कर इस नवाचार को करना निरर्थक होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जैव विविधता संरक्षण में मनुष्यों का योगदान

जैव विविधता को बचाने के लिए 1960 के दशक से ही संरक्षणवादी एक मानक समाधान देते आए हैं – प्राकृतिक क्षेत्रों को मानव दखल से बचाया जाए। लेकिन हाल ही में हुआ अध्ययन संरक्षणवादियों के इस मिथक को तोड़ता है और पिछले 12,000 सालों के दौरान मनुष्यों द्वारा भूमि उपयोग के विश्लेषण के आधार पर बताता है कि मनुष्यों ने नहीं बल्कि संसाधनों के अति दोहन ने जैव विविधता को खतरे में डाला है। अध्ययन के अनुसार 12,000 साल पूर्व भी भूस्थल का मात्र एक चौथाई हिस्सा मनुष्यों से अछूता था जबकि वर्तमान में 19 प्रतिशत है। हज़ारों वर्षों से स्थानीय या देशज लोगों और उनकी कई पारंपरिक प्रथाओं ने जैव विविधता का संरक्षण करने के साथ-साथ उसे बढ़ाने में मदद की है।

यह जानने के लिए कि इन्सानों ने जैव विविधता को कैसे प्रभावित किया है, दुनिया भर के विश्वविद्यालयों के शोधकर्ताओं के दल ने एक मॉडल तैयार कर अतीत के भूमि उपयोग का अंदाज़ा लगाया। मॉडल में उन्होंने वर्तमान भूमि उपयोग के पैटर्न को चित्रित किया – जिसमें उन्होंने जंगली इलाके, कृषि भूमि, शहर और खदानों को दर्शाया। फिर इसमें उन्होंने पूर्व और वर्तमान की जनसंख्या के आंकड़े भी शामिल किए। पिछले 12,000 वर्षों के दौरान 60 विभिन्न समयों पर मनुष्यों द्वारा भूमि उपयोग किस तरह का था, यह पता लगाने के लिए उन्होंने मॉडल में पुरातात्विक डैटा भी जोड़ा। इन जानकारियों के साथ उन्होंने रीढ़धारी जीवों की विविधता, विलुप्तप्राय प्रजातियां और संरक्षित क्षेत्र और सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त देशज निवासी क्षेत्र सम्बंधी वर्तमान आंकड़े रखकर विश्लेषण किया।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में शोधकर्ता बताते हैं कि 12,000 साल पहले पृथ्वी का लगभग एक-चौथाई हिस्सा ही मनुष्यों से अछूता था, यानी अधिकतर उन जगहों पर मनुष्यों का दखल था जिन्हें संरक्षणवादी आज ‘प्राकृतिक’, ‘अछूता’ या ‘जंगली’ भूमि कहते हैं। दस हज़ार साल पहले तक 27 प्रतिशत भूमि मनुष्यों से अछूती थी, और अब 19 प्रतिशत भूमि मनुष्यों से अछूती है। उन्होंने यह भी पाया कि प्राचीन मनुष्यों ने जैव विविधता हॉट-स्पॉट को संरक्षित करने में ही नहीं बल्कि इन हॉट-स्पॉट को बनाने में भी भूमिका निभाई है।

यह अध्ययन इस धारणा को तोड़ता है कि प्रकृति मनुष्यों से मुक्त होनी चाहिए। अध्ययन में देखा गया कि विगत 12,000 वर्षों तक भूमि उपयोग काफी हद तक स्थिर रहा था, लेकिन 1800 से 1950 के दौरान इसमें तेज़ी से परिवर्तन हुए। जैसे सघन कृषि होने लगी, शहरीकरण बढ़ा, बड़े पैमाने पर खनन कार्य हुए, और वनों की अंधाधुंध कटाई होने लगी।

मानव विज्ञानियों और पुरातत्वविदों का कहना है कि हमारे लिए ये नतीजे कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह तो हम पहले से ही जानते हैं कि जंगल जलाकर खेती जैसे कार्य कर मनुष्य सदियों से भूमि प्रबंधन कर रहे हैं। देशज निवासियों के अधिकारों के संरक्षण अभियान, सर्वाइवल इंटरनेशनल, के प्रमुख फियोर लोंगो इन नतीजों पर सहमति जताते हुए कहते हैं कि यह अध्ययन हमारी उस बात की पुष्टि करता है जो हम वर्षों से कहते आए हैं – जंगलों को निर्जन रखे जाने की धारणा एक औपनिवेशिक और नस्लवादी मिथक है जिसके पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, और इस धारणा का उपयोग अन्य लोग अक्सर इन भूमियों को हड़पने के लिए करते हैं।

लेकिन मानव विज्ञानी कहते हैं कि हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हर मूल निवासी या स्थानीय समूह जैव विविधता कायम नहीं रखता। जैसे कुछ प्राचीन लोगों के कारण ही मैमथ और प्रशांत द्वीप के उड़ान रहित पक्षी विलुप्त हो गए। लेकिन यह बात भी उतनी ही सच है कि अन्य लोगों की तुलना में स्थानीय लोग प्रकृति का बहुत अच्छे से ख्याल रखते हैं और संरक्षक की भूमिका निभाते हैं। यदि स्थानीय लोगों की प्रथाएं जैव विविधता के लिए सकारात्मक या हितकारी हैं, तो विलुप्त होती प्रजातियों को बचाने के लिए हमें उन लोगों को जंगलों से बेदखल करने की ज़रूरत नहीं है। बल्कि हमें उनकी भूमि को संरक्षित करने के लिए इन लोगों को सशक्त बनाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नए वायरस संस्करणों से सुरक्षा देते हैं टीके

कोविड-19 महामारी के संदर्भ में एक चिंता यह व्यक्त हुई है कि क्या वर्तमान टीके वायरस के नए-नए संस्करणों के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करेंगे। खाड़ी के देश कतर से प्राप्त जानकारी से पता चलता है कि फाइज़र का टीका वायरस के नए संस्करणों के खिलाफ भी सुरक्षा प्रदान करता है। गौरतलब है कि महामारी की दूसरी लहर में खाड़ी देशों में यूके में पहचाना गया बी.1.1.7 संस्करण प्रमुख रूप से पाया गया था। फिर बी.1.351 संस्करण भी पाया गया जो पुन: संक्रमण और टीके के प्रभाव को कम करने के लिए जाना जाता है। महामारी रोग विशेषज्ञ इस संस्करण को सबसे खतरनाक मानते हैं।

इस लहर के दौरान शोधकर्ताओं ने ऐसे मज़बूत साक्ष्य प्रदान किए हैं कि वर्तमान टीके बी.1.351 को रोकने में सक्षम हैं। इससे पहले दक्षिण अफ्रीका में किए गए क्लीनिकल परीक्षणों में टीकों ने ऐसे संस्करणों के विरुद्ध अच्छे परिणाम दिए थे। नए प्रमाण दर्शाते हैं कि कतर में जिन लोगों को फाइज़र-बायोएनटेक टीके की दो खुराकें प्राप्त हुई हैं उनमें बिना टीकाकृत लोगों की तुलना में बी.1.351 के कारण कोविड से ग्रसित होने की संभावना 75 प्रतिशत कम है। इसके अलावा टीके ने गंभीर बीमारी के विरुद्ध लगभग पूर्ण सुरक्षा भी प्रदान की है।  

दी न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान आरएनए आधारित टीके प्रतिरक्षा को भेदने वाले सबसे घातक संस्करणों के विरुद्ध काफी प्रभावशाली साबित हुए हैं। फिर भी कंपनियां बी.1.351 स्ट्रेन के विरुद्ध अधिक विकसित आरएनए टीका बनाने की कोशिश कर रही हैं।     

गौरतलब है कि दक्षिण अफ्रीका के शोधकर्ताओं ने 2020 के अंत में बी.1.351 की पहचान की थी जो अब वहां प्रमुख स्ट्रेन है। अध्ययनों से पता चला है कि इस स्ट्रेन में ऐसे उत्परिवर्तन हुए हैं जो वायरस-रोधी एंटीबॉडी को कमज़ोर कर सकते हैं। परीक्षणों के आधार पर कहा जा रहा है कि कुछ कोविड-19 टीके अन्य स्ट्रेन की तुलना में इस स्ट्रेन के विरुद्ध कम प्रभावशाली हैं। अप्रैल में दक्षिण अफ्रीका में कंपनियों द्वारा किए गए एक छोटे से परीक्षण में इन टीकों को बी.1.351 के विरुद्ध प्रभावी बताया गया था हालांकि 800 लोगों पर किए गए अध्ययन में प्लेसिबो समूह में भी बी.1.351 के कारण सिर्फ छह संक्रमण पाए गए थे। यानी काफी लोग बगैर टीके के भी सुरक्षित रहे थे।             

अबू-रदाद की टीम ने कतर में दिसंबर के अंत में शुरू हुए टीकाकरण अभियान से लेकर मार्च के अंत तक जीनोम अनुक्रम के आधार पर इस अवधि के दौरान बी.1.1.7 और बी.1.351 प्रमुख संस्करण के रूप में पाए और फरवरी के मध्य से तो देश के आधे से अधिक मामलों में यही संस्करण देखे गए हैं।      

शोधकर्ताओं ने टीकाकृत लोगों में सार्स-कोव-2 संक्रमण दर की तुलना गैर-टीकाकृत लोगों से की। इस्राइल, यूके और अन्य देशों के परिणामों के अनुसार जिन लोगों को टीके की दो खुराकें प्राप्त हुई हैं उनमें बी.1.1.7 के कारण संक्रमण की संभावना लगभग 90 प्रतिशत कम पाई गई। शोधकर्ताओं ने टीकाकृत लोगों में बी.1.351 संस्करण के 1500 ‘ब्रेकथ्रू’ मामलों की पहचान की है जिनमें से सिर्फ 179 मामले ही टीके की दूसरी खुराक लगने के दो हफ्तों के बाद हुए थे। पूर्ण रूप से टीकाकृत लोगों में बी.1.1.7 या बी.1.351 के कारण कोविड-19 का कोई गंभीर मामला सामने नहीं आया यानी उनके अस्पताल में भर्ती होने या मृत्यु के मामले न के बराबर पाए गए।       

कतर से प्राप्त नतीजे काफी आशाजनक हैं। आरएनए टीकों की दो खुराकों से वायरस-रोधी एंटीबॉडी के तुलनात्मक रूप से उच्च स्तर से यह पता चलता है कि अन्य टीकों (जैसे ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका टीके) की तुलना में आरएनए आधारित टीके बी.1.351 के विरुद्ध बेहतर सुरक्षा प्रदान करते हैं। लेकिन वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि अन्य टीके भी इस संस्करण के कारण होने वाली गंभीर बीमारी को रोकने में सक्षम होंगे। न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार नोवावैक्स द्वारा निर्मित टीके ने दक्षिण अफ्रीका में कोविड-19 के जोखिम को 60 प्रतिशत तक कम किया। इसी तरह पता चला है कि यह टीका बी.1.351 के कारण होने वाले कोविड-19 के गंभीर मामलों के खिलाफ अत्यधिक प्रभावी रहा है हालांकि ये आंकड़े अभी प्रकाशित नहीं हुए हैं।     

वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि टीकों की प्रभाविता बी.1.351 के विरुद्ध कम है तो इस स्ट्रेन से प्रभावित देशों में अत्यधिक सफल टीकाकरण कार्यक्रम उस हद तक मामलों को नियंत्रित नहीं कर पाएंगे जिस हद तक कम क्षमता वाले संस्करणों को नियंत्रित कर पा रहे हैं। फिर भी उच्च जोखिम वाले लोगों की रक्षा करके हम सामान्य जीवनशैली की ओर कुछ हद तक तो लौट ही सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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टीका: जोखिम बेहतर ढंग से समझाने की ज़रूरत

ज़ारों-लाखों वालंटियर्स पर किसी नई दवा या टीके को कारगर और सुरक्षित पाए जाने के बाद जब वही दवा या टीका करोड़ों को दिया जाता है तो सुरक्षा सम्बंधी कई मुद्दे सामने आते हैं। इस दृष्टि से कोविड-19 के जॉनसन एंड जॉनसन (जे-एंड-जे) या एस्ट्राज़ेनेका टीके से चंद लोगों में दुर्लभ समस्या देखा जाना कोई अनहोनी नहीं है।

लेकिन ऐसे दुर्लभ किंतु खतरनाक साइड इफेक्ट स्वास्थ्य महकमे के सामने दुविधा खड़ी कर सकते हैं। गौरतलब है कि जे-एंड-जे के टीके से दस लाख टीकाकृत व्यक्तियों में से दो व्यक्तियों में रक्त का थक्का बनने की समस्या देखी गई है, वहीं एस्ट्राज़ेनेका टीके में एक लाख में से एक व्यक्ति में यही समस्या देखी गई है। लेकिन दोनों ही टीकों के ये साइड इफेक्ट कोविड-19 के जोखिम की तुलना में बहुत कम हैं: कोविड-19 से एक लाख लोगों में से 200 व्यक्तियों की मौत हो जाती है।

एक तरफ तो, संभावित साइड इफेक्ट को लेकर जनता के साथ पारदर्शिता रखना बहुत महत्वपूर्ण है। साथ ही यह भी पता होना चाहिए कि इन समस्याओं को कैसे पहचानें और इलाज करें। दूसरी ओर, ऐसा करने पर टीकों को लेकर संदेह पैदा हो सकते हैं औरटीके के प्रति हिचक और मज़बूत हो सकती है।

यदि यह बताया जाए कि जोखिम बहुत कम (दस लाख लोगों में एक) है, तो कुछ लोग फौरन यह सोचने लगते हैं कि शायद वह एक व्यक्ति मैं ही हूं। सवाल है कि लोग किस हद तक बहुत दुर्लभ लेकिन गंभीर दुष्प्रभावों को व्यावहारिक रूप में समझ पाएंगे? अध्ययन बताते हैं कि साधारण लोग किसी दवा या टीके के जोखिम की संभावना या लाभ-हानि के अनुपात को समझ नहीं पाते। यदि कोई दुष्प्रभाव नया और घातक है तो लोग उसकी संभावना को अधिक मान कर चलते हैं। वैसे मनोविज्ञानियों का मानना है कि यदि लोगों को स्पष्ट और सही तरह से जानकारी दी जाए तो इस तरह के भ्रम बनने से रोका जा सकता है।

मार्च के अंत तक युरोपीय मेडिसिन एजेंसी (ईएमए) को युरोप और यूके में एस्ट्राज़ेनेका से टीकाकृत ढाई करोड़ लोगों में से 86 लोगों में रक्त का थक्का बनने के मामले दिखे, जिनमें से 18 लोगों की मृत्यु हुई थी। अधिकांश मामले 60 साल से कम उम्र की महिलाओं में देखे गए थे। फिर अमेरिका में जे-एंड-जे से टीकाकृत अस्सी लाख में से 15 लोगों में रक्त का थक्का जमने की समस्या सामने आई, और तीन मामले गंभीर स्थिति में पहुंचे थे। ये मामले भी 60 से कम उम्र की महिलाओं में देखे गए थे।

इन मामलों के चलते अमेरिका और युरोप ने दोनों टीकों के वितरण पर रोक लगा दी। फिर दोनों ने निष्कर्ष निकाला कि टीकों का लाभ इन जोखिमों से कहीं अधिक है, इसलिए इनका वितरण फिर से शुरू किया जाए।

यह बहस का मुद्दा है कि महामारी को थामने के प्रयासों के मद्देनज़र टीकों पर हफ्ते भर लंबी रोक लगाना कितना उचित था? आकंड़ों को देखें तो जवाब है – बिल्कुल नहीं। लाखों लोगों को टीका देने पर सिर्फ कुछ ही लोग इस जोखिम से पीड़ित होंगे, लेकिन टीका न दिए जाने पर लाखों संक्रमित लोगों में से हज़ारों की जान जा सकती है।

अधिकतर लोग आंकड़ों की भूलभुलैया में उलझ जाते हैं। लिहाज़ा, ज़रूरी है कि बात को ठीक तरह से प्रस्तुत किया जाए। यह भी समझना ज़रूरी है कि कोई भी औषधि या टीका जोखिमों से पूरी तरह मुक्त नहीं होता।

वैसे ज़्यादा चिंता विकसित देशों में नज़र आ रही है लेकिन भारत को इनसे पूरी तरह मुक्त नहीं माना जा सकता। बेहतर होगा कि समय रहते इस मुद्दे को संबोधित किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

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क्या सार्स-कोव-2 हवा से फैलता है?

मार्च 2021 में डबल्यूएचओ द्वारा वित्तपोषित एक व्यवस्थित समीक्षा (कार्ल हेनेगन और साथी) के आधार पर निष्कर्ष निकाला गया है कि कोविड वायरस हवा के माध्यम से नहीं फैलता। यह निष्कर्ष जन स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

यदि यह वायरस श्वसन के दौरान संक्रमित ड्रॉपलेट्स से फैलता है, जो काफी तेज़ी से नीचे बैठ जाती हैं, तो इनको नियंत्रित करने के लिए शारीरिक दूरी, मास्क का उपयोग, श्वसन स्वच्छता, सतहों की सफाई, और मात्र उन स्वास्थ्य प्रक्रियाओं के दौरान सुरक्षा देने वाले साधनों का उपयोग करना होगा जिनमें एयरोसोल उत्पन्न होते हैं। इस स्थिति में खुली और बंद जगहों में कोई अंतर नहीं होगा क्योंकि दोनों जगहों पर संक्रमित बूंदें एक समान समय में ज़मीन पर गिर जाएंगी।

लेकिन यदि कोई संक्रामक वायरस हवा के माध्यम से फैलता है तो किसी संक्रमित व्यक्ति द्वारा सांस छोड़ने, बोलने, चिल्लाने, गाने, छींकने-खांसने के बाद वहां की हवा में सांस लेने से अन्य लोग संक्रमित हो सकते हैं।

इस स्थिति में संक्रामक एयरोसोल को सांस के माध्यम से शरीर में प्रवेश करने से रोकना ज़रूरी है। इसमें हवा की आवाजाही, फिल्टरेशन, भीड़-भाड़ और अंदर रहने से बचना, अंदर रहें तो मास्क का उपयोग और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के लिए उच्च-स्तरीय सुरक्षा साधनों का उपयोग करना शामिल होगा।

हवा के माध्यम से न फैलने सम्बंधी उक्त निष्कर्ष इस तथ्य पर आधारित है कि किसी जगह की हवा में वायरस नहीं मिले हैं। इस अध्ययन की विस्तृत समीक्षा विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा की गई है। त्रिशा ग्रीनहैलाग और उनके साथियों का मत है कि इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि यह वायरस हवा के माध्यम से भी फैलता है। उनके तर्कों का सार प्रस्तुत है।

वैसे तो यह दर्शाना मुश्किल होता है कि कोई श्वसन सम्बंधी वायरस हवा के माध्यम से फैलता है। दशकों से हुए शोध, जिनमें जीवित रोगजनक कीटाणुओं को हवा में प्राप्त करने के प्रयास नहीं किए गए थे, यह दर्शाते हैं कि जिन रोगों को श्वसन ड्रॉपलेट्स द्वारा फैलने वाला माना गया था, वे दरअसल हवा-वाहित थे। यहां दस ऐसे प्रमाण प्रस्तुत हैं जो सार्स-कोव-2 वायरस को मुख्य रूप से हवा-वाहित होना दर्शाते हैं।

पहला, सार्स-कोव-2 संचरण में सुपर स्प्रेडिंग की घटनाएं काफी प्रमुख होती हैं। ऐसी घटनाओं के दौरान मानव व्यवहार और अंतर्क्रियाओं के अलावा कमरे के आकार, हवा की आवाजाही और अन्य कारकों के विश्लेषण से ऐसे पैटर्न (लंबी दूरी के संचरण और प्रजनन संख्या में वृद्धि) मिले हैं जो सार्स-कोव-2 के हवा-वाहित होने के संकेत देते हैं। इन पैटर्न्स को मात्र ड्रॉपलेट्स या संक्रमित वस्तुओं के माध्यम से प्रसार के आधार पर नहीं समझा जा सकता।

दूसरा, क्वारेंटाइन होटलों में पास-पास के कमरों में रह रहे लोगों के बीच लंबी दूरी के सार्स-कोव-2 संचरण के मामले दर्ज किए गए हैं जबकि वे कभी एक-दूसरे के प्रत्यक्ष संपर्क में नहीं आए।

तीसरा, संभावना है कि सार्स-कोव-2 का एक-तिहाई (शायद 59 प्रतिशत तक) संक्रमण बिना खांसने या छींकने वाले (लक्षण-हीन या लक्षण-पूर्व) लोगों से हुआ है। यह सार्स-कोव-2 के फैलने का प्रमुख कारण है। यह मुख्य रूप से हवा के माध्यम से वायरस के फैलने का समर्थन करता है। प्रत्यक्ष मापन से यह पता चलता है कि मात्र बोलने से बड़ी संख्या में एयरोसोल कण उत्पन्न होते हैं जबकि ड्रॉपलेट्स की संख्या बहुत कम होती है। यह तथ्य भी हवा के माध्यम से वायरस का फैलाव दर्शाता है।

चौथा, सार्स-कोव-2 का संचरण बाहर की तुलना में घर के अंदर (इनडोर) अधिक होता है, और इसे उचित वेंटिलेशन से कम किया जा सकता है। यह तथ्य भी वायरस के हवाई मार्ग से फैलने का समर्थन करता है।

पांचवां, ऐसी परिस्थितियों में अस्पताल-जनित संक्रमण रिकॉर्ड किए गए हैं जहां ड्रॉपलेट्स से संपर्क से बचने के लिए सख्त उपाय लागू किए गए हैं। गौरतलब है कि ये उपाय एयरोसोल से बचाव करने में सक्षम नहीं होते हैं।

छठा, सक्रिय सार्स-कोव-2 हवा में पाया गया है। प्रयोगशाला में किए गए प्रयोगों से पता चला है कि सार्स-कोव-2 हवा में 3 घंटे तक संक्रामक रहता है। सक्रिय सार्स-कोव-2 वायरस कोविड-19 रोगियों के कमरों से प्राप्त हवा के नमूनों में पाया गया है जहां एयरोसोल उत्पन्न करने वाली स्वास्थ्य सेवा प्रक्रियाएं प्रयुक्त नहीं की गई थीं। संक्रमित व्यक्ति द्वारा उपयोग की गई कार से लिए गए हवा के नमूने में भी वायरस प्राप्त हुए हैं। वैसे हवा के नमूने में सक्रिय वायरस प्राप्त करना काफी चुनौतीपूर्ण होता है।

सातवां, सार्स-कोव-2 वायरस कोविड-19 रोगियों का उपचार करने वाले अस्पतालों के एयर फिल्टर और विभिन्न परिवहन नलियों में भी पाए गए हैं जहां ये सिर्फ एयरोसोल के माध्यम से ही पहुंच सकते हैं।

आठवां, पिंजरे में कैद संक्रमित जीवों से संक्रमण दूसरे पिंजरों में रखे गए असंक्रमित जानवरों में भी पहुंच गया जिनके बीच संपर्क मात्र वायु नलियों के माध्यम से था। यह एयरोसोल द्वारा वायरस के संचरण का प्रमाण है।

नौवां, अब तक किसी भी अध्ययन ने सार्स-कोव-2 के हवा से फैलने की परिकल्पना का खंडन नहीं किया है। कुछ लोग अवश्य संक्रमित लोगों के साथ हवा साझा करते हुए भी सार्स-कोव-2 वायरस से बच पाए हैं। लेकिन इसकी व्याख्या कई परस्थितियों के आधार पर की जा सकती है। जैसे संक्रमित व्यक्ति द्वारा छोड़े गए वायरसों की मात्रा और विभिन्न पर्यावरणीय कारक ज़िम्मेदार हो सकते हैं।

दसवां, देखा जाए तो संक्रमण के अन्य संभावित रास्तों जैसे श्वसन ड्रॉपलेट्स या संक्रमित वस्तुओं के माध्यम से संचरण के समर्थन में प्रमाण सीमित हैं। निकट संपर्क में रहने वाले लोगों में संक्रमण के पीछे सार्स-कोव-2 वायरस की श्वसन ड्रॉपलेट्स के संचरण को कारण बताया गया है। लेकिन अधिकांश मामलों में निकट संपर्क से संचरण में संक्रमित व्यक्ति द्वारा सांस के साथ छोड़े गए एयरोसोल की अधिक संभावना प्रतीत होती है। दूर-दूर बैठे लोगों के बीच संक्रमण कम फैलने का कारण सिर्फ इतना हो सकता है कि एयरोसोल बहुत दूर तक नहीं पहुंचते।

यह धारणा गलत है कि निकट संपर्क से संक्रमण का फैलाव मात्र श्वसन की बूंदों या संक्रमित वस्तुओं के माध्यम से होता है। कई दशकों तक टीबी और खसरा के बारे में यही माना जाता था कि ये श्वसन बूंदों के माध्यम से फैलते हैं। चिकित्सा के क्षेत्र में यह एक रूढ़ि बन गई जिसमें एयरोसोल और ड्रॉपलेट्स के प्रत्यक्ष मापन को अनदेखा किया गया। मापन के अभाव में यह पता ही नहीं चला कि श्वसन के दौरान भारी मात्रा में एयरोसोल उत्पन्न होते हैं। इसके अलावा एयरोसोल और ड्रॉपलेट्स के बीच की सीमा रेखा को मनमाने ढंग से 5 माइक्रोमीटर तय कर दिया गया जबकि यह 100 माइक्रोमीटर होनी चाहिए। कई बार यह तर्क भी दिया जाता है कि ड्रॉपलेट्स एयरोसोल की तुलना में बड़ी होती हैं इसलिए उनमें वायरसों की संख्या अधिक होगी। हालांकि, उन रोगों में जहां कण के आकार के आधार पर रोगजनकों की सांद्रता की मात्रा निर्धारित की गई है उनमें ड्रॉपलेट्स की तुलना में एयरोसोल में रोगजनकों की सांद्रता अधिक पाई गई है।

देखा जाए तो सार्स-कोव-2 के हवा से फैलने के सशक्त साक्ष्य मौजूद हैं। इसके फैलने के अन्य रास्ते भी हो सकते हैं, लेकिन हवा से फैलने की संभावना काफी अधिक है। इन संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए जन स्वास्थ्य समुदाय को बिना देर किए उसके अनुसार कार्य करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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