एनसीईआरटी चंद्रयान मॉड्यूल्स: ऑल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क का वक्तव्य

क्टूबर माह में एनसीईआरटी ने अंग्रेज़ी और हिंदी में चंद्रयान-3 पर 10 शैक्षिक मॉड्यूल्स जारी किए। इनका उद्देश्य लाखों स्कूली बच्चों को हालिया चंद्रयान मिशन की जानकारी प्रदान करना है। प्रेस और मीडिया में गंभीर आलोचना के बाद इन मॉड्यूल्स को एनसीईआरटी के वेबपेज से हटा लिया गया था, लेकिन सरकार द्वारा जारी विज्ञप्ति के बाद इसे पुन: अपलोड कर दिया गया। सरकारी विज्ञप्ति में मॉड्यूल्स का बचाव करते हुए कहा गया है कि “पौराणिक कथाएं और दर्शन विचारों को जन्म देते हैं और ये विचार नवाचार एवं अनुसंधान की ओर ले जाते हैं।”

गौरतलब है कि इन मॉड्यूल्स को नई शिक्षा नीति (एनईपी 2020) में वर्णित सीखने के विभिन्न चरणों (फाउंडेशनल, प्रायमरी, मिडिल स्कूल, सेकंडरी और हायर सेकंडरी) के अनुसार तैयार किया गया है। यह काफी हैरानी की बात है कि इन मॉड्यूल्स की सामग्री में कई वैज्ञानिक और तकनीकी त्रुटियां हैं जिनमें से कुछ का आगे ज़िक्र किया जा रहा है। इसके अलावा, इनमें छद्म वैज्ञानिक दावे किए गए हैं, भ्रामक वैज्ञानिक सामग्री है और यहां तक कि एक नाज़ी वैज्ञानिक का हवाला भी दिया गया है जो एनसीईआरटी सामग्री के सामान्य मानकों से मेल नहीं खाता है। अंग्रेज़ी संस्करण में व्याकरण सम्बंधी त्रुटिया तो हैं ही।

इस प्रकार की गलत जानकारी विद्यार्थियों तक पहुंचे तो काफी नुकसान कर सकती है। और तो और, सामग्री का घटिया प्रस्तुतीकरण विद्यार्थियों को इस रोमांचक क्षेत्र से विमुख कर देगा।

वैज्ञानिक समुदाय के सदस्यों और सभी तर्कसंगत सोच वाले नागरिकों को इस घटिया ढंग से तैयार की गई सामग्री को खारिज कर देना चाहिए। व्यापक आलोचना के बाद एनसीईआरटी द्वारा इस सामग्री को वेबसाइट से हटाना और सरकार द्वारा पौराणिक कथाओं का हवाला देते हुए उन्हें वापस प्रसारित करना न तो उचित है और न ही ऐसा दोबारा होना चाहिए। एआईपीएसएन मांग करता है कि एनसीईआरटी इन मॉड्यूल्स को स्थायी रूप से हटा दे। चंद्रयान पर एनसीईआरटी मॉड्यूल्स में वैज्ञानिक त्रुटियों, छद्म वैज्ञानिक दावों और मिथकों की बानगी –

1. बुनियादी स्तर (कोड 1.1एफ, केजी और कक्षा 1-2):

  • मॉड्यूल उवाच: (चंद्रयान-2 के संदर्भ में) …इस बार रॉकेट के पुर्ज़े में कुछ तकनीकी खामी के कारण उसका धरती से संपर्क टूट गया।
    टिप्पणी: लॉन्चर रॉकेट ने ठीक तरह से काम किया। जबकि लैंडर सतह पर उतरने में विफल रहा, लेकिन चंद्रयान का ऑर्बाइटर मॉड्यूल काम करता रहा और इससे इसरो को डैटा भी प्राप्त होता रहा।

2. प्राथमिक स्तर (कोड 1.2पी, कक्षा 3-5):

  • मॉड्यूल उवाच: इस रॉकेट के तीन प्रमुख हिस्से हैं – प्रोपल्शन मॉड्यूल, रोवर मॉड्यूल और लैंडर मॉड्यूल जो हमें चंद्रमा के बारे में जानकारी भेजता है।
    टिप्पणी: चंद्रयान-3 अंतरिक्ष यान को रॉकेट (एलएमवी3) अंतरिक्ष में लेकर गया था। अंतरिक्ष यान में एक ऑर्बाइटर और एक लैंडर था। रोवर को लैंडर के अंदर रखा गया था ताकि चंद्रमा की सतह पर उतरने के बाद उसे बाहर निकाला जा सके।

3. माध्यमिक स्कूल स्तर (कोड: 1.3एम, कक्षा 6-8):

  • मॉड्यूल उवाच: प्राचीन साहित्य में वैमानिक शास्‍त्र ‘विमान विज्ञान’ से पता चलता है कि उन दिनों हमारे देश में उड़ने वाले वाहनों का ज्ञान था (इस पुस्तक में इंजनों के निर्माण, कार्यप्रणालियों और जायरोस्कोपिक सिस्टम के दिमाग चकरा देने वाले विवरण हैं)।
    टिप्पणी: कई अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि बहुप्रचारित वैमानिक शास्त्र की रचना 20वीं शताब्दी की शुरुआत में हुई है और इसमें वर्णित डिज़ाइन, इंजन और उपकरण पूरी तरह से काल्पनिक, अवैज्ञानिक और नाकारा हैं।
  • मॉड्यूल उवाच: वेद भारतीय ग्रंथों में सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। इनमें विभिन्न देवताओं को पशुओं, आम तौर पर घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले पहिएदार रथों पर ले जाने का उल्लेख मिलता है। ये रथ उड़ भी सकते थे। उड़ने वाले रथों या उड़ने वाले वाहनों (विमान) का उपयोग किए जाने का उल्लेख भी मिलता है। ऐसी मान्यता है कि हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार सभी देवताओं के पास अपना वाहन था जिसका उपयोग वे एक स्थान से दूसरे स्थान जाने के लिए करते थे। माना जाता है कि वाहनों का उपयोग अंतरिक्ष में सहजता और बिना किसी शोर के यात्रा करने के लिए किया जाता था। ऐसे ही एक विमान – पुष्पक विमान (जिसका शाब्दिक अर्थ ‘पुष्प रथ’ है) का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में मिलता है।
    टिप्पणी: विभिन्न वैदिक ग्रंथों और महाकाव्यों में उड़ने वाले वाहनों के ये सभी उल्लेख कवियों की कल्पनाएं हैं। दुनिया भर की लगभग सभी प्राचीन सभ्यताओं के साहित्य में उनके देवताओं के आकाश में उड़ने का उल्लेख मिलता है। इन्हें प्राचीन काल में उड़ने वाले वाहनों के अस्तित्व का प्रमाण नहीं माना जा सकता है। 1961 में यूरी गागरिन द्वारा अंतरिक्ष की यात्रा करने से पहले किसी भी मानव द्वारा अंतरिक्ष यात्रा के लिए पृथ्वी छोड़ने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है।
  • मॉड्यूल उवाच: आधुनिक भारत ने वैमानिकी विज्ञान की विरासत को आगे बढ़ाते हुए अंतरिक्ष अनुसंधान में उल्लेखनीय प्रगति की है।
    टिप्पणी: जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, ऐसे साहित्यिक संदर्भ कई प्राचीन सभ्यताओं में पाए जा सकते हैं और भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए साराभाई और अन्य वैज्ञानिकों के प्रयास इन काव्यात्मक कथाओं का उत्पाद नहीं हैं। ऐसा दावा करना साराभाई की विरासत और कई समकालीन वैज्ञानिकों के अग्रणी कार्यों का अपमान होगा।
  • मॉड्यूल उवाच: चंद्रमा पर ऐसी चोटियां भी हैं जहां हर समय सूर्य का प्रकाश मौजूद होता है तथा ये चंद्र गतिविधियों की सहायता हेतु विद्युत उत्पन्न करने के उत्कृष्ट अवसर पैदा कर सकती हैं।
    टिप्पणी: भले ही चंद्रमा के घूर्णन की धुरी क्रांतिवृत्त (एक्लिप्टिक) तल के लगभग लंबवत है, लेकिन किसी भी पर्वत शिखर पर ‘निरंतर सूर्य का प्रकाश’ तभी हो सकता है जब वह लगभग दक्षिणी ध्रुव पर हो। चंद्रयान-3 का अवतरण स्थल चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव से 500 कि.मी. से अधिक दूर है। ऐसे में अवतरण स्थल के पास ऐसी पर्वत चोटियों का पता लगाना संभव नहीं है।
  • मॉड्यूल उवाच: (गतिविधि-1) चंद्रयान-3 बनाने में उपयोग की जाने वाली स्वदेशी सामग्रियों की सूची बनाएं जिसने चंद्रयान-3 को एक बजट अनुकूल मिशन बनाया।
    टिप्पणी: इसरो ने सार्वजनिक रूप से इस सम्बंध में कोई शैक्षिक सामग्री जारी नहीं की है और इसलिए यह गतिविधि केवल अटकलबाज़ी और बिना समझे इसरो की वेबसाइट से शब्दजाल को पुन: प्रस्तुत करने का खेल है।
  • मॉड्यूल उवाच: प्राचीन भारतीय ग्रंथों और विमर्शों में वैमानिकी सहित विभिन्न विषयों पर वैज्ञानिक ज्ञान के बाहुल्‍य हैं।
    टिप्पणी: जैसी कि ऊपर चर्चा की गई है, ये ग्रंथ या तो काव्यात्मक कल्पनाएं हैं या कदापि प्राचीन नहीं हैं।

4. माध्यमिक स्तर (कोड्स 1.4एस – 1.7एस, कक्षा 9-10):

  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.4एस): “चंद्रमा का दक्षिणी ध्रुव कहां है?” चंद्रमा का दक्षिणी ध्रुव चंद्रमा पर 90 डिग्री दक्षिण स्थित सबसे अंतिम दक्षिणी बिंदु है।
    टिप्पणी: यह टॉटोलॉजी (पुनरुक्ति) है, जो किसी भी शैक्षिक पाठ में अवांछनीय है।
  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.4एस): पहले के चंद्रमा मिशनों, यानी ‘ऑर्बिटल मिशन’ और ‘फ्लाईबाई मिशन’ के आधार पर यह पाया गया कि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव में कुछ गहरे गड्ढों…
    टिप्पणी: यदि कोई अंतरिक्ष यान किसी खगोलीय पिंड के चारों ओर की कक्षा में प्रवेश किए बिना उसके करीब से गुज़रता है, तो इसे ‘फ्लाईबाई मिशन’ कहा जाता है। इस परिभाषा से चलें, तो किसी भी फ्लाईबाई मिशन ने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की छानबीन नहीं की है।
  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.4एस): चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर कई ऐसे पहाड़ हैं जो पृथ्वी की ओर नहीं हैं और ग्राउंड रेडियो वेधशाला से ऐसे खगोलीय रेडियो सिग्नल प्राप्त करने के लिए ये आदर्श स्थान हैं।
    टिप्पणी: इसका चंद्रयान मिशन से कोई सम्बंध नहीं है। इसके अलावा, “ग्राउंड वेधशाला से संकेत प्राप्त करने” का कोई मतलब नहीं है।
  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.5एस): चैत्र महीने का नाम चित्रा नक्षत्र के नाम पर रखा गया है जो इस अवधि के दौरान चंद्रमा के सामने गोचर करता है।
    टिप्पणी: वास्तव में नक्षत्र पृष्ठभूमि है और चंद्रमा उसके सामने पारगमन करता है। इन मॉड्यूल में कई मान्यताओं व लोककथाओं का ज़िक्र है। जैसे भारतीय परंपराओं में चंद्रमा  चंद्रदेव के रूप में जाना जाता है जो दयालु देवता है और शांति और अनुग्रह का संचार करता है…। हालांकि लेखक इस मान्यता का श्रेय लोककथाओं को देते हैं, लेकिन यहां इससे बचना चाहिए। अव्वल तो ये अप्रासंगिक हैं और यदि इनका उल्लेख करना ही है तो यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि चंद्रमा की किरणों में शीतलता देने जैसे गुण वैज्ञानिक रूप से समर्थित नहीं हैं।
  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.6एस): (गतिविधि 1) ग्रह और उपग्रह सहित सौर मंडल का एक अनुकृति मॉडल बनाएं।
    सौर मंडल की एक अनुकृति बनाएं → सौर मंडल के केंद्र में सूर्य का पता लगाएं → सूर्य की परिक्रमा करने वाला अण्डाकार पथ बनाएं → प्रत्येक अण्डाकार पथ पर ग्रहों के नाम बताएं → प्रत्येक ग्रह के उपग्रह का पता लगाएं जो ग्रह की परिक्रमा करता है → हमारे ग्रह का चंद्रमा दिखाएं।
    टिप्पणी: भाषा का स्तर इतना खराब है कि पाठ का अर्थ ही नहीं बनता है। जैसेे “सूर्य की परिक्रमा करने वाला अण्डाकार पथ बनाएं”; ज़रा सोचिए पथ कैसे परिक्रमा करेंगे, या कैसे उपग्रह प्रत्येक ग्रह पर स्थित हो सकते हैं। दरअसल, यह उस गतिविधि का एक नया संस्करण है जो एनसीईआरटी की कक्षा 8 की पुस्तक में पहले से मौजूद है। यदि पुस्तक के उस अध्याय का वही हिस्सा लिख देते तो बेहतर होता।
  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.6एस): पृथ्वी से देखने पर चंद्रमा हमारे रात्रि आकाश का सबसे चमकीला और सबसे बड़ा खगोलीय पिंड दिखाई देता है। चंद्रमा से पृथ्वी को अनेक लाभ मिलते हैं। चंद्रमा पृथ्वी की धुरी के उतार-चढ़ाव को नियंत्रित करता है, जिससे अपेक्षाकृत स्थिर जलवायु बनती है। यह ज्वार भी बनाता है और पृथ्वी को सौर हवाओं से बचाता है, जो ब्रह्मांड के विभिन्न पहलुओं के अध्ययन के लिए आदर्श है।
    टिप्पणी: यह एक खराब तरीके से लिखा गया पैराग्राफ है जो बहुत सारी गलतफहमियां पैदा करता है। चंद्रमा सबसे बड़ा पिंड प्रतीत होता है, लेकिन ऐसा उसकी निकटता के कारण है। यह भी वैज्ञानिक रूप से गलत है कि चंद्रमा पृथ्वी को सौर हवाओं से बचाता है, और इसी वाक्य के दूसरा भाग “ब्रह्मांड के अध्ययन के लिए आदर्श” का पहले भाग से कोई सम्बंध नहीं है, और यह यहां अर्थहीन है।
  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.6एस): मिशन (चंद्रयान-2) ने चंद्र क्रेटर में एक बर्फ की चादर की खोज की।
    टिप्पणी: यह वैज्ञानिक परिणामों का पूर्णत: गलत प्रस्तुतिकरण है। मिशन ने पानी के अणुओं की मौजूदगी की पुष्टि की थी।, “बर्फ की चादर” से मतलब तो बर्फ की मोटी परत होती है, जबकि चंद्रमा के गड्ढों में मिली पानी की मात्रा एक चादर बनाने के लिए बहुत ही कम है।
  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.6एस): निकट भविष्य में ‘चंदा मामा दूर के’ नारे की जगह ‘चंदा मामा टूर के’ कहा जाएगा।
    टिप्पणी: यह निकट भविष्य में अंतरिक्ष अनुसंधान के विकास व दिशा का पूरी तरह भ्रामक चित्रण है। वाणिज्यिक अंतरिक्ष पर्यटन इसरो की प्राथमिकता नहीं है। और अंतरिक्ष पर्यटन (यहां तक कि पृथ्वी की कक्षाओं के निकट भी पर्यटन) कम से कम एक-दो पीढ़ी तक अधिकांश मानव आबादी के लिए अत्यधिक महंगा बना रहेगा।
  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.7एस): पृथ्वी को अपनी धुरी पर एक चक्कर लगाने में लगभग 24 घंटे लगते हैं। जिसमें ‍से हम 12 घंटे ‍सूर्य के संपर्क में रहते हैं और 12 घंटे अंधेरे में डूबे रहते हैं। यह पृथ्वी पर एक पूरे दिन का चक्र पूरा करता है। इ‍सी प्रकार, चंद्रमा का एक हिस्सा एक चंद्र दिव‍स के लिए ‍सूर्य के प्रकाश के ‍संपर्क में रहता है जो पृथ्वी पर लगभग 14 दिनों के बराबर होता है।
    टिप्पणी: एक चंद्र दिवस 27.3 पृथ्वी दिवस के बराबर होता है। 14 दिन की अवधि लगभग आधे चंद्र दिवस के बराबर होती है। इसे एक चंद्र दिवस कहना उसी पाठ में पृथ्वी दिवस (24 घंटे) की परिभाषा से मेल नहीं खाता है।
  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.7एस): 240.25 घंटे, या 10 दिन और 6 घंटे।
    टिप्पणी: 10 दिन 6 घंटे 246 घंटे होंगे, न कि 240.25 घंटे।

5. उच्च माध्यमिक स्तर (1.8एचएस-1.10एचएस, ग्रेड 11-12)

  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.8एचएस): एक बार जब कोई रॉकेट पृथ्वी से एक निश्चित ऊंचाई पर पहुंच जाता है तो यह उपग्रह या अंतरिक्ष यान को छोड़ देता है।
    टिप्पणी: सिर्फ यह कहना कि कोई उपग्रह छोड़ दिया गया है बिना यह कहे कि कक्षा में छोड़ दिया गया है, तो वाक्य का अर्थ पूरी तरह से बदल जाता है। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए: “एक बार जब कोई रॉकेट पृथ्वी से एक निश्चित ऊंचाई पर पहुंच जाता है, तो यह उपग्रह या अंतरिक्ष यान को वांछित कक्षा में पहुंचा देता है।”
  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.9एचएस): ये संचार उपग्रह सी-बैंड, विस्तारित सी-बैंड, केयू-बैंड, केए/केयू बैंड और एस-बैंड सहित विभिन्न आवृत्ति बैंड के ट्रांसपोंडरों से सुसज्जित हैं।
    टिप्पणी: क्या छात्र जानते हैं कि ये बैंड क्या हैं? स्पष्टीकरण के बिना शब्दों की बौछार शैक्षणिक रूप से उपयोगी नहीं है।
  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.9एचएस): एस्ट्रोसैट, भारत की पहली खगोलीय अंतरिक्ष वेधशाला है,…
    टिप्पणी: मज़ेदार बात यह है कि इसे “ग्रहों का अनुसंधान” शीर्षक के अंतर्गत रखा गया है।
  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.9एचएस): पृथ्वी पर हमारे पास 24 घंटे का एक दिन होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पृथ्वी 24 घंटे में एक चक्कर पूरा करती है। हालांकि, यही स्थिति चंद्रमा के लिए समान नहीं है। इसे एक चक्कर पूरा करने में लगभग 14 पृथ्वी दिवस लगते हैं। दिनांक, 23 अगस्त 2023, चंद्र दिवस (पृथ्वी के 14 दिनों के बराबर) की शुरुआत को चिह्नित करती है।
    टिप्पणी: पंक्तियों को इस प्रकार पढ़ा जाना चाहिए: “हालांकि, चंद्रमा पर स्थिति ऐसी ही नहीं है।” इसे एक चक्कर पूरा करने में लगभग 27.3 पृथ्वी दिवस लगते हैं, इसलिए चंद्रमा पर प्रत्येक स्थान को लगभग 14 पृथ्वी दिवसों तक लगातार सूर्य का प्रकाश प्राप्त होता है। दिनांक, 23 अगस्त 2023, अवतरण स्थान के लिए दिन के उजाले की अवधि की शुरुआत को चिह्नित करती है।
  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.10एचएस): जैसे-जैसे हम इस ब्रह्मांडीय यात्रा में गहराई से उतरते हैं, हम दूरदर्शी इंजीनियर वर्नर वॉन ब्रान (रॉकेट विज्ञान के जनक) की अदम्य भावना से प्रेरित हुए बिना नहीं रह पाते, जिन्होंने सितारों तक पहुंचने के सपनों को वायुमंडल के आर-पार जाने वाले मूर्त रॉकेट में बदल दिया। उनकी विशाल उपलब्धियों ने अंतरिक्ष के असीमित विस्तार को एक प्राप्य सीमा में बदल दिया, जहां अन्वेषण के लिए मानव की लालसा उड़ान भर सकती थी।
    टिप्पणी: और इस कथन को देकर हम आसानी से यूएस के साथ जुड़कर इस तथ्य पर लीपा-पोती कर देते हैं कि वॉन ब्रॉन एक नाज़ी वैज्ञानिक थे जिन्होंने हिटलर के लिए मिसाइल V2 का निर्माण किया था।
  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.10एचएस): वेलोड्रोम या मौत के कुएं का आकार एक छिन्नक की तरह है, सवार की कक्षा एक समतल की तरह है जो इस कुएं (शंकु) की धुरी को काटती है इस तरह सवार दीर्घ-वृत्ताकार पथ पर आगे बढ़ रहा है।
    टिप्पणी: क्या विद्यार्थी व्याकरण की दृष्टि से गलत संवेदनहीन विवरण को समझ पाएंगे?
  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.10एचएस): … अगर उसे चंद्र गमन करना है तो वांछित गति प्राप्त करने के लिए उसे भी अपनी गति बढ़ानी होगी ताकि यह चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र तक पहुंच सके।
    टिप्पणी: इसे इस तरह लिखना चाहिए था “… ताकि यह चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव क्षेत्र तक पहुंच सके”, गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र नहीं क्योंकि गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र तो अनंत तक फैला हुआ है।
  • मॉड्यूल उवाच (कोड 1.10एचएस): यदि किसी ग्रह के चारों ओर परिक्रमा करने वाला उपग्रह उस ग्रह के बराबर है, तो बाइनरी सिस्टम (जैसे पृथ्वी और चंद्रमा) उनके सामान्य केंद्रक (बैरीसेंटर) के चारों ओर घूमते हैं।टिप्पणी: पिंड हमेशा अपने सामान्य बैरीसेंटर के चारों ओर घूमेंगे। यदि एक पिंड दूसरे पिंड की तुलना में बहुत अधिक विशाल है, तो इस प्रणाली का बैरीसेंटर बड़े पिंड के केंद्र के करीब होगा और इसलिए इसकी गति नज़र नहीं आएगी। बात बस इतनी ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/aajtak/images/story/202311/ncert_chandrayaan_module_controversy-sixteen_nine.jpg?size=948:533

चैटजीपीटी और शिक्षा के लिए चुनौतियां व अवसर

कृत्रिम बुद्धि के युग में, चैटजीपीटी एक शक्तिशाली साधन के रूप में उभरा है। यह पलभर में आकर्षक लेख, सोशल मीडिया पोस्ट, निबंध, कोड और ईमेल सहित विभिन्न लिखित सामग्री तैयार कर सकता है। इन क्षमताओं को देखते हुए शिक्षाविदों को डर है कि छात्र इसका उपयोग अपने शैक्षणिक कार्यों में कर सकते हैं। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन के अनुसार इसके द्वारा निर्मित सामग्री कॉलेज छात्रों के काम की गुणवत्ता के बराबर या उससे भी बेहतर हो सकती है। इस प्रकार से चैटजीपीटी शिक्षकों को वर्तमान शिक्षण विधियों और मूल्यांकन मानदंडों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर करता है।

अबू धाबी स्थित न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के कंप्यूटर वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों ने विभिन्न विषयों में 233 मूल्यांकन प्रश्नों का अध्ययन किया। उन्होंने छात्रों और चैटजीपीटी दोनों से प्राप्त जवाबों का निष्पक्ष ग्रेडर्स द्वारा मूल्यांकन करवाया। आश्चर्यजनक रूप से लगभग 30 प्रतिशत पाठ्यक्रमों में चैटजीपीटी के जवाबों को मानव छात्रों के जवाबों के बराबर या बेहतर ग्रेड मिले। शोधकर्ताओं का ख्याल है कि कृत्रिम बुद्धि के विकास के साथ यह प्रतिशत बढ़ेगा।

इतना ही नहीं, जीपीटी-3.5 और जीपीटी-4 जैसे जनरेटिव एआई मॉडल ने एसएटी, जीआरई, बार और एलएसएटी जैसी पेशेवर परीक्षाओं में उत्कृष्टता का प्रदर्शन किया है। इन्होंने मेडिकल कॉलेज की प्रवेश परीक्षाओं और अमेरिका के उच्च स्तरीय आइवी लीग फाइनल में मानव औसत से भी बेहतर परिणाम दिए हैं। ये निष्कर्ष शिक्षा में एआई के बढ़ते प्रभाव को उजागर करने के साथ-साथ शिक्षकों को बदलते परिदृश्य के अनुरूप ढलने के लिए प्रेरित करते हैं।

शैक्षणिक बेईमानी के लिए चैटजीपीटी के उपयोग का मुकाबला करने के लिए कुछ शिक्षकों ने स्वयं एआई के साथ प्रयोग करना शुरू किए हैं। बर्लिन स्थित कंप्यूटर साइंस की प्रोफेसर डेबोरा वेबर-वुल्फ चैटजीपीटी के माध्यम से परीक्षा और होमवर्क प्रश्न तैयार करती हैं और फिर उन्हें इस तरह संशोधित करती हैं कि वे एआई के लिए चुनौतीपूर्ण बन जाएं। वैसे इस रणनीति की अपनी सीमाएं हैं और संभव है कि एआई तकनीकें इसका भी कोई हल निकाल लेंगी।

देखा जाए तो नकल या धोखाधड़ी का मामला एआई की पैदाइश नहीं है। पूर्व में भी कई जगहों पर निबंध-लेखन सेवाएं उपलब्ध होती थीं लेकिन एआई ने इसे अधिक सुलभ और सरल बना दिया है। एक तरह से यह शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य पर भी गंभीर सवाल उठाता है कि छात्र सीखने और दक्षता हासिल करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं या केवल अच्छे ग्रेड पाने का प्रयास कर रहे हैं।

यह ध्यान देने वाली बात है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली अक्सर विषय की वास्तविक समझ की बजाय ग्रेड पर अधिक ज़ोर देती है। ऐसे में छात्र ज्ञान अर्जन की बजाय बेहतर ग्रेड प्राप्त करने के लिए अनुचित रणनीति अपना रहे हैं। धोखाधड़ी में एआई का उपयोग इस बड़ी समस्या का एक लक्षण मात्र है। इसलिए, शिक्षकों को अपना ध्यान एआई-आधारित धोखाधड़ी से निपटने की बजाय अकादमिक बेईमानी के मूल कारणों पर केंद्रित करना चाहिए।

विशेषज्ञों का मानना है कि धोखाधड़ी और साहित्यिक चोरी की प्रवृत्ति सीखने के प्रति छात्रों के दृष्टिकोण से उत्पन्न होती है। यदि छात्रों को वास्तव में किसी कौशल में महारत हासिल करने के लिए प्रेरित किया जाए तो धोखाधड़ी की संभावना कम होती है। लेकिन जब उनका प्राथमिक लक्ष्य किसी भी कीमत पर उच्च ग्रेड प्राप्त करना हो तब वे एक साधन के रूप में एआई का सहारा क्यों नहीं लेंगे? इससे निपटने के लिए, ग्रेड की बजाय सीखने-समझने की संस्कृति को बढ़ावा देना चाहिए।

देखा जाए तो, एआई-आधारित धोखाधड़ी मूल्यांकन प्रक्रिया को कमज़ोर करने के अलावा छात्रों में लेखन कौशल के विकास में भी बाधा डालती है। लेखन विभिन्न व्यवसायों के लिए एक आवश्यक बुनियादी कौशल है और यह अवधारणाओं के बीच सम्बंध बनाने, समझ को बढ़ावा देने, स्मृति में सुधार और रिकॉल जैसी संज्ञान प्रक्रियाओं को बढ़ाता है। जो छात्र असाइनमेंट लिखने के लिए पूरी तरह से एआई पर निर्भर रहते हैं वे इन संज्ञान लाभों से भी चूक जाते हैं।

दरअसल, एआई को एक खतरे के रूप में देखने की बजाय, शिक्षक इसे अपनी शिक्षण रणनीतियों में शामिल कर सकते हैं। इसमें छात्र एआई ट्यूटर टूल का उपयोग करके घर पर सीखने के स्व-निर्देशित तरीके अपना सकते हैं और कक्षा के समय का उपयोग सहपाठियों के साथ परियोजनाओं पर काम के लिए कर सकते हैं।

इसके अतिरिक्त, व्यक्तिगत फीडबैक और प्रक्रिया-केंद्रित मूल्यांकन (जिसमें महत्व अंतिम उत्तर का नहीं बल्कि सीखने की प्रक्रिया का हो) अपनाकर एआई-आधारित धोखाधड़ी को कमज़ोर किया जा सकता है। ऐसे मूल्यांकन में समय तो लगेगा लेकिन इसमें एआई साधनों की मदद से रफ्तार बढ़ाई जा सकती है।

इसके अलावा, शिक्षक छात्रों को नैतिकतापूर्ण उपयोग और पारदर्शिता को प्रोत्साहित करते हुए विचार-मंथन और विचार निर्माण के लिए एआई टूल का उपयोग करना सिखा सकते हैं। उपरोक्त अध्ययन में यह भी सामने आया कि चैटजीपीटी तथ्य-आधारित प्रश्नों का उत्तर देने में उत्कृष्ट होता है लेकिन अवधारणात्मक मामलों में पीछे रहता है। इसलिए रटंत की बजाय विश्लेषण और संश्लेषण आधारित मूल्यांकन से एआई का गलत हस्तक्षेप कम हो सकता है।

ज़ाहिर है एआई सहायक और हानिकारक दोनों हो सकता है। लिहाज़ा यह सुनिश्चित करना होगा कि छात्र यह समझ पाएं  कि एआई का उपयोग अपने प्रयासों को कम करने में नहीं बल्कि सीखने के अनुभव को समृद्ध करने के लिए कब और कैसे किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.analyticsinsight.net/wp-content/uploads/2023/04/ChatGPT-in-Education-Sector-Benefits-and-Challenge.jpg

इस्राइल में विज्ञान रहित शिक्षा चिंता का विषय है

हाल ही में इस्रायली संसद द्वारा देश के धार्मिक स्कूलों का बजट बढ़ाने का निर्णय काफी चर्चा में है। चूंकि इन स्कूलों में विज्ञान और गणित विषय नहीं पढ़ाए जाते इसलिए शोध समुदाय का मानना है कि इस कदम से देश के युवा आवश्यक तकनीकी ज्ञान और कौशल प्राप्त नहीं कर पाएंगे जिसके बिना वैश्विक अर्थव्यवस्था में इस्राइल की हिस्सेदारी कम होने की आशंका रहेगी।

वर्तमान में इस्राइल में अति-रूढ़िवादी हरेदी (यहूदी) समुदाय की जनसंख्या लगभग 13 प्रतिशत है। लेकिन हरेदी स्कूलों में लगभग 26 प्रतिशत यहूदी छात्र और कुल इस्राइली छात्रों में से 20 प्रतिशत पढ़ते हैं। सरकार द्वारा वित्तपोषित इन स्कूलों में विशेष रूप से लड़कों को ताउम्र यहूदी धर्म ग्रंथ और कानून पढ़ने के लिए तैयार किया जाता है। इनमें से अधिकांश लड़के कभी भी धर्मनिरपेक्ष विषयों का अध्ययन नहीं करते हैं। हालांकि, हरेदी लड़कियों को राज्य-अनुमोदित पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है। इसमें धर्मनिरपेक्ष विषय होते हैं लेकिन गैर-हरेदी छात्राओं को पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम की तुलना में यह काफी निम्न स्तर का है।

हरेदी शिक्षा के समर्थकों का मत है कि ये स्कूल बौद्धिक रूप मज़बूत लोगों को तैयार करते हैं जो विश्व में यहूदी पहचान को मज़बूत करने का पवित्र दायित्व निभाते हैं। दूसरी ओर, आलोचकों के अनुसार इन स्कूलों से हरेदी समुदाय में गरीबी और बेरोज़गारी दर में वृद्धि होती रही है। वर्तमान में हरेदी समुदाय के लगभग आधे पुरुष बेरोज़गार हैं। इसके साथ ही गणित, विज्ञान और अंग्रेज़ी में इस्रायली छात्रों की औसत दक्षता अन्य विकसित देशों के औसत से काफी नीचे है। ऐसे में सरकार का यह निर्णय इस्राइल को तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्था बनने की राह पर ले जाएगा।

पूर्व में प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू हरेदी स्कूलों में विज्ञान, गणित और अंग्रेजी सहित धर्मनिरपेक्ष विषयों को पढ़ाने की इच्छा तो ज़ाहिर कर चुके हैं लेकिन गठबंधन सरकार (जिसमें धार्मिक कट्टरपंथी और राष्ट्रवादी दल शामिल है) के दबाव के कारण बजट प्रस्ताव में ऐसी कोई शर्त शामिल नहीं की जा सकी है। 

अलबत्ता, कुछ विज्ञान और प्रौद्योगिकी समर्थकों द्वारा हरेदी स्कूलों से उत्तीर्ण छात्रों को तकनीकी प्रशिक्षण प्रदान करने के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। 2021-22 के दौरान 5000 से अधिक हरेदी छात्रों को हाई स्कूल के बाद तकनीकी प्रशिक्षण कार्यक्रमों में दाखिला दिया गया है। इसके साथ ही लगभग 15,600 छात्रों ने कॉलेज डिग्री प्राप्त की है। बुनियादी धर्मनिरपेक्ष शिक्षा न मिलने के कारण हरेदी हाई स्कूल के छात्रों की गणित, विज्ञान और अंग्रेज़ी में पकड़ कमज़ोर होती है लेकिन उनकी कठोर धार्मिक शिक्षा में उन्हें रटना और विश्लेषण करना होता है जिससे उनमें ‘कैसे सीखें’ की समझ विकसित होती है। यह उनकी शैक्षिक खाई को पाटने का रास्ता बन सकती है। लेकिन स्पष्ट रूप से खाई तो है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adj5135/abs/_20230630_nid_israel_ultra_orthodox_school_new.jpg

क्या विज्ञान के अध्याय सोच-समझकर हटाए गए? – संजय कुमार

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा दसवीं की विज्ञान पाठ्यपुस्तक से जैव विकास के सिद्धांत और आवर्त सारणी को हटाने के निर्णय से एक बड़ी बहस छिड़ गई है। यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर की जानी-मानी और सबसे पुरानी विज्ञान पत्रिकाओं में से एक नेचर ने भी इस मुद्दे को अहम मानते हुए इस पर संपादकीय लिखा है।

एनसीईआरटी ने इन अध्यायों के विलोपन को यह कहकर उचित ठहराया है कि पाठ्यक्रम के ‘युक्तियुक्तकरण’ के लिए इन अध्यायों को हटाया गया है ताकि विद्यार्थियों पर बोझ कम हो जाए। लेकिन नए संस्करण और पिछले संस्करण की पाठ्यपुस्तकों को देखने के बाद ऐसा लगता है कि वास्तविक कारण बहुत अलग होंगे। इन अध्यायों का विलोपन स्कूलों में विज्ञान की शिक्षण पद्धति पर सवाल उठाता है। जिस तरीके से और जो अध्याय (या विषय) हटाए गए हैं उससे लगता है कि अध्यायों को सुविचारित तरीके से नहीं हटाया गया है बल्कि मात्र कैंची चलाई गई है।

ऐसा करने का संभावित कारण वर्तमान शासन की विज्ञान विरोधी विचारधारा को बताया जा रहा है। लेकिन, इस कतर-ब्योंत में अभिजात्य पूर्वाग्रह वाली एक टेक्नोक्रेटिक मानसिकता अधिक प्रभावी प्रतीत होती है। यह मानसिकता नई शिक्षा नीति की पहचान बनती जा रही है।

विलोपन के कारण

विलोपन के पहले यह पाठ्यपुस्तक पहली बार 2006 में प्रकाशित हुई थी जो राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा (NCF, 2005) के अनुरूप थी। प्रसिद्ध ब्रह्मांडविद और विज्ञान प्रचारक प्रोफेसर जयंत वी. नार्लीकर इसकी सलाहकार समिति के प्रमुख थे और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भौतिकी की प्रोफेसर रूपमंजरी घोष पाठ्यपुस्तक समिति की प्रमुख थीं। उस समय पाठ्यपुस्तक को किशोर विद्यार्थियों को बांधने वाली बनाने के संजीदा प्रयास किए गए थे। उस पाठ्यपुस्तक के अध्यायों में जगह-जगह पर पूर्व अध्यायों और खंडो में चर्चित सामग्री का ज़िक्र किया जाता था। यह एक ऐसा तरीका है जो न सिर्फ विद्यार्थियों को सीखी जा चुकी अवधारणाएं/विषय भलीभांति याद दिलाने में मदद करता है बल्कि विभिन्न टॉपिक/विषयों के बीच जुड़ाव बनाता है और पूरी पाठ्यपुस्तक में तारतम्य बनता है।

2023-24 के शैक्षणिक सत्र की तेरह अध्यायों वाली ‘युक्ति-युक्त’ पाठ्यपुस्तक में अपवर्तन और परावर्तन पर एक नए अध्याय को छोड़कर बाकी सामग्री लगभग वैसी ही है। पाठ्यपुस्तक से आवर्त सारणी का पूरा अध्याय, जैव विकास का आधा अध्याय, विद्युत मोटर और विद्युत चुम्बकीय प्रेरण वाले अध्याय के कुछ हिस्से, और ऊर्जा के स्रोत और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के अध्याय हटा दिए गए हैं।

पाठ्यपुस्तक की संरचना और हटाए गए अध्यायों का सम्बंध चौंकानेवाला है। आवर्त सारणी का विलोपित अध्याय विलोपन-पूर्व वाली पाठ्यपुस्तक के रसायन विज्ञान वाले खंड का अंतिम अध्याय था। जैव विकास का हटाया गया अध्याय जीव विज्ञान वाले खंड का अंतिम हिस्सा था। विद्युत चुम्बकीय प्रेरण वाला खंड भौतिकी का अंतिम से ठीक पहले वाला खंड था। यह जानते हुए कि पहले वाले खंडों और अध्यायों की सामग्री का ज़िक्र अक्सर बाद वाले अध्यायों में किया जाता है, यदि जल्दबाज़ी में पाठ्यपुस्तक के ‘युक्ति-युक्तकरण’ का काम किया जाएगा, तो अंतिम अध्यायों और खंडों को हटाना ठीक ही लगेगा। दूसरी ओर, बीच के खंडों या अध्यायों को हटाया जाता तो अन्य जगहों पर उनके ज़िक्र (या जुड़ाव) को ‘युक्ति-युक्त’ बनाने के लिए उन अध्यायों को दोबारा लिखना ज़रूरी हो जाता।

बहिष्कारी शिक्षण शास्त्र

हो सकता है कि अध्यायों या खंडों को हटा देने का यह पैटर्न सबसे आसान रहा हो, लेकिन इसने पाठ्यपुस्तक की शैक्षणिक दिशा को तोड़-मरोड़ दिया है। दसवीं कक्षा में विज्ञान अनिवार्य विषय है। इसलिए इसके पाठ्यक्रम में यह झलकना चाहिए कि दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले किसी भी भारतीय (विद्यार्थी) से क्या अपेक्षित है, भले ही वह आगे चलकर विज्ञान विषय न पढ़े या औपचारिक शिक्षा छोड़ दे।

कक्षा दसवीं की विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों को पढ़ने वाले विद्यार्थी समूह सर्वग्राही हैं। एक महत्वपूर्ण पैरामीटर उन विद्यार्थियों की संख्या है जो दसवीं के आगे विज्ञान की पढ़ाई नहीं करते, और जिनके लिए यह पाठ्यक्रम विज्ञान की अंतिम औपचारिक शिक्षा होगी।

भारत में औपचारिक शिक्षा में दाखिले का ढांचा पिरामिडनुमा है। 2018 के आंकड़ों के अनुसार, दसवीं कक्षा की परीक्षा देने वाले लगभग 20 प्रतिशत विद्यार्थियों ने अगले पड़ाव से पहले ही पढ़ाई छोड़ दी थी। उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं (ग्यारहवीं और बारहवीं) से उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज और विश्वविद्यालय की ड्रॉपआउट दर और भी अधिक है। सकल दाखिला अनुपात आंकड़ों के अनुसार, उच्चतर माध्यमिक स्तर पर उत्तीर्ण लगभग आधे विद्यार्थी आगे जाकर कॉलेज (स्नातक) में प्रवेश नहीं लेते हैं। दसवीं कक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक की कुल ड्रॉपआउट दर 60 प्रतिशत है।

विज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थियों का पिरामिडनुमा ढांचा और भी कठिन है। दसवीं पढ़ने वाले सभी विद्यार्थी विज्ञान पढ़ते हैं। इसके बाद मात्र लगभग 42 प्रतिशत विद्यार्थी ग्यारहवीं-बारहवीं कक्षा में विज्ञान विषय लेते हैं। लेकिन 26 प्रतिशत विद्यार्थी ही स्नातक स्तर पर, यानी बी.एससी, बी.टेक, बीसीए, बी.फार्मा, एमबीबीएस और बी.एससी. (नर्सिंग) में, विज्ञान पढ़ते हैं। शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर दर्ज विद्यार्थियों की संख्या और विज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या के डैटा को साथ देखने से पता चलता है कि दसवीं में पढ़ने वाले हर 10 में से सात विद्यार्थी अगली कक्षाओं में विज्ञान विषय नहीं लेते हैं, और इन्हीं दस में सिर्फ एक विद्यार्थी कॉलेज/युनिवर्सिटी स्तर पर विज्ञान की किसी शाखा में पढ़ाई जारी रखता है।

उपरोक्त अनुपात माध्यमिक कक्षाओं में विज्ञान शिक्षण की चुनौती को दर्शाता है। विज्ञान ज्ञान का एक संचयी निकाय है, और इसकी पढ़ाई बहुत ही क्रमबद्ध होती है। एक स्तर पर सरल अवधारणाओं को सीखे बगैर अगले स्तर की जटिल अवधारणाओं को नहीं समझा जा सकता है। इसलिए विज्ञान शिक्षण का कम से कम एक उद्देश्य विद्यार्थियों को अगले स्तर के अध्ययन के लिए तैयार करना है। वैसे यह उद्देश्य केवल दसवीं कक्षा के क्रमश: उन एक-तिहाई और दस प्रतिशत विद्यार्थियों के लिए है जो उच्चतर माध्यमिक या उच्च शिक्षा में विज्ञान की पढ़ाई जारी रखते हैं। बाकी बचे अधिकांश विद्यार्थियों, जिनके लिए दसवीं कक्षा तक की विज्ञान शिक्षा आखिरी औपचारिक विज्ञान शिक्षा है, के लिए विज्ञान शिक्षण का उद्देश्य यह नहीं हो सकता।

पहले समूह के (विज्ञान की पढ़ाई जारी रखने वाले) विद्यार्थियों को विज्ञान की अमूर्त अवधारणाओं और सिद्धांतों को समझने और वैज्ञानिक तकनीकों, यानी समस्या-समाधान और प्रयोगशाला विधियों, में महारत हासिल करने की आवश्यकता होती है। दूसरे समूह के (विज्ञान की पढ़ाई या पढ़ाई ही छोड़ देने वाले) विद्यार्थियों को व्यक्तिगत विकास और सामाजिक जीवन में विज्ञान के महत्व को आत्मसात करने की आवश्यकता है। उन्हें दुनिया के बारे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आम ज़िंदगी से विज्ञान के सम्बंध के बारे में जागरूक होने की आवश्यकता है।

ये दोनों उद्देश्य एक-दूसरे से पृथक नहीं हैं। दरअसल, बहुसंख्य विद्यार्थियों को भी प्रयोगशाला के तरीकों और समस्या-समाधान के कुछ अनुभव मिलने चाहिए। ये दोनों शैक्षणिक उद्देश्य और उन्हें हासिल करने के तरीके अलग-अलग हैं और हमेशा तना-तनी में रहते हैं। इनके बीच संतुलन बनाने की कोशिश को विद्यार्थियों के उपरोक्त दोनों समूहों की आवश्यकताओं को पूरा करने की दिशा में होना चाहिए।

पाठ्यचर्या बनाने वालों, पाठ्यपुस्तक लेखकों, शिक्षकों और प्रश्नपत्र तैयार करने वालों के लिए बहुत ही विविध आवश्यकताओं और प्रेरणाओं वाले विद्यार्थियों के लिए एकल पाठ्यक्रम और मूल्यांकन प्रणाली बनाना आसान काम नहीं है। सामान्य प्रवृत्ति होती है कि सरल से जटिलता की ओर बढ़ते हुए विभिन्न विषयों, अवधारणाओं, समस्याओं और प्रश्नों से लदी एक पाठ्यपुस्तक बना दें और उम्मीद करें कि जो विद्यार्थी विज्ञान की पढ़ाई जारी रखेंगे वे कठिन और सरल दोनों हिस्सों तक पहुंच बना लेंगे; जबकि अन्य विद्यार्थी जो आगे की कक्षाओं में विज्ञान नहीं पढ़ना चाहते हैं वे कठिन हिस्सों को सीखे बिना किसी तरह काम चला लेंगे।

शिक्षण शास्त्र की दृष्टि से यह तरीका गलत है। यह पहले समूह के विद्यार्थियों के उद्देश्य को तो पूरा कर सकता है लेकिन दूसरे समूह की आवश्यकताओं का अवमूल्यन करता है और उन्हें पिछड़े और असफल लोगों की श्रेणी में धकेल देता है।

उपरोक्त विचारों के प्रकाश में यह स्पष्ट होता है कि दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों के आनन-फानन किए गए ‘युक्तियुक्तकरण’ ने उन विद्यार्थियों के बड़े समूह की शैक्षणिक आवश्यकताओं को पूरा करना अधिक मुश्किल बना दिया है जो आगे विज्ञान की पढ़ाई जारी नहीं रखने वाले हैं। जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा संकट और प्रदूषण ने पर्यावरण विज्ञान के कुछ हिस्सों को आम चर्चा का अभिन्न अंग बना दिया है। सभी विद्यार्थी परिष्कृत सिद्धांतों और अवधारणाओं में महारत हासिल किए बिना जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार कारणों को खोजने और हरित ऊर्जा स्रोतों की ज़रूरत को समझने में विज्ञान की भूमिका समझ सकते हैं। दसवीं कक्षा की विज्ञान की पाठ्यपुस्तक से पर्यावरण विज्ञान के तीन में से दो अध्यायों के विलोपन ने आम विद्यार्थियों को वृहत सार्वजनिक सरोकार के लिए विज्ञान के महत्व को समझने के एक बहुत ही उपयोगी अवसर से वंचित कर दिया है।

जैव विकास का सिद्धांत और आवर्त सारणी विशिष्ट अवधारणाओं और अवलोकन पर आधारित हैं। अलबत्ता, जीव विज्ञान और रसायन विज्ञान के अन्य विषयों की तुलना में, इन विषयों में सामान्य विचार भी शामिल हैं जिन्हें आसानी से ग्रहण किया और समझा जा सकता है। तथ्य यह है कि ये दोनों विषय/अवधारणाएं पृथ्वी पर जीवन के इतिहास और रासायनिक गुणों के वितरण की एकीकृत छवि बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दरअसल, इनकी बारीकियों को समझे बिना भी दुनिया की वैज्ञानिक तस्वीर बनाने में इनकी भूमिका को आसानी से समझा जा सकता है।

विद्यार्थियों के सिर से बोझ कम करने के लिए ‘युक्तिसंगत’ बनाई गई वर्तमान पाठ्यपुस्तक की खासियतें विचित्र हैं। इसमें जीन हस्तांतरण के मेंडल के नियमों को तो यथावत रखा गया है, जो कि बहुत विशिष्ट और अमूर्त हैं और जिन्हें अधिकांश विद्यार्थी याद भर कर लेते हैं, लेकिन इसमें जैव विकास के लिए कोई जगह नहीं है जबकि इसकी मुख्य विचारों/बातों को सरल तरीके से बताया जा सकता है।

पर्यावरण विज्ञान, आवर्त सारणी और जैव विकास के अध्यायों को हटाने, और अपवर्तन एवं परावर्तन पर एक अध्याय, जिसमें लेंस और गोलीय दर्पणों के लिए प्रकाश किरण सम्बंधी नियम और सूत्र हैं, जोड़ने के साथ नई ‘युक्तिसंगत’ पाठ्यपुस्तक का संतुलन ज़ाहिर तौर पर अमूर्त और विशिष्ट विषयों की तरफ झुक गया है। इन विषयों में महारत हासिल करने के लिए बार-बार अनुभव और अभ्यास की आवश्यकता होती है, जो भारत में बड़े पैमाने पर स्कूल के बाहर कोचिंग में मिलता है। नई पाठ्यपुस्तक में क्षति उन सामान्य विषयों की हुई है जिन्हें सभी विद्यार्थी पढ़कर और चर्चा करके समझ सकते हैं।

जैसी कि ऊपर चर्चा की गई है, पारंपरिक सोच के अनुसार अपवर्तन और परावर्तन जैसे विषयों को ‘आसान’ माना जाता है। पर्यावरण विज्ञान, आवर्त सारणी और जैव विकास के अध्यायों का विलोपन उन अधिकांश विद्यार्थियों को शिक्षा से बहिष्कृत करने जैसा है जिनके आगे जाकर विज्ञान विषय पढ़ने की संभावना नहीं है।

चुनिंदा विषयों को हटाना निर्धारित वैचारिक प्रतिबद्धताओं का परिणाम नहीं बल्कि एक आसान समाधान लगता है। अलबत्ता, इसके शैक्षणिक निहितार्थ भारतीय शिक्षा प्रणाली में किए जा रहे परिवर्तनों के साथ फिट बैठते हैं। नई शिक्षा नीति को अपनाने के साथ ही भारतीय शिक्षा खुलकर तकनीकी दृष्टिकोण के अधीन आ गई है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य तकनीकी कर्मचारी तैयार करना है जिनकी क्षमताओं को आसानी से मात्रात्मक पैमाने पर नापा जा सके। देश भर में एक समान पाठ्यक्रम लागू करने की कोशिशें, बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक कौशल से लेकर विश्वविद्यालय में प्रवेश तक राष्ट्रव्यापी एकल परीक्षाओं को जबरन लागू करना, शैक्षणिक संस्थानों की रैंकिंग पर ज़ोर देना आदि सभी उस योजना का हिस्सा हैं जिसका प्राथमिक उद्देश्य बाज़ार के लिए कुशल और अकुशल कर्मचारियों की फौज बनाना है। पिरामिडनुमा परिणाम इस व्यवस्था के ढांचे में ही निहित हैं। इस व्यवस्था में विज्ञान शिक्षा एक आवश्यक कौशल आधार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस ढांचे का कोई अन्य उद्देश्य, जैसे कि विद्यार्थियों में दुनिया को देखने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक स्वभाव विकसित करने में मदद करना, प्राथमिकता नहीं है। इस ढांचे में उन विद्यार्थियों की शैक्षणिक आवश्यकताओं के लिए कोई जगह नहीं है जिनकी विज्ञान की पढ़ाई आगे जारी रहने की संभावना नहीं है। वैसे भी उन विद्यार्थियों पर विफल होने का ठप्पा लगा ही दिया गया है! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://mcmscache.epapr.in/post_images/website_350/post_33087266/full.png

संस्थानों द्वारा शोध अधिकार अपने पास रखना ज़रूरी – एस. सी. लखोटिया

शोध परिणामों का समकक्ष-समीक्षित पत्रिकाओं में प्रकाशन अनिवार्य है। इनके व्यापक प्रसारण के लिए ये सभी शोधकर्ताओं और इच्छुक पाठकों को मुफ्त और सुलभता से उपलब्ध होने चाहिए। पिछले कुछ दशकों में शोध प्रकाशन तंत्र में काफी परिवर्तन आए हैं। व्यावसायिक प्रकाशकों ने व्यापक स्तर पर अकादमिक संस्थानों और विद्वत सभाओं से जर्नल प्रकाशन का काम अपने हाथों में ले लिया है। इसके साथ ही आज के डिजिटल युग ने ऑनलाइन प्रकाशन को भी बढ़ावा दिया है। इन दोनों परिवर्तनों से उम्मीद थी कि वैश्विक स्तर पर शोध परिणामों तक पहुंच आसान हो जाएगी।

इसके विपरीत तथ्य यह है कि व्यावसायिक प्रकाशकों ने अपने व्यापारिक हितों के लिए शोध प्रकाशनों को भुगतान के पर्दे के पीछे छिपा दिया है। अतः लेखकों/वित्तपोषकों या पाठकों को शोध-पत्र प्रोसेसिंग फीस या ओपन एक्सेस शुल्क के रूप में भारी रकम का भुगतान करना पड़ता है। हालांकि सभी पत्रिकाएं इस तरह का शुल्क नहीं लगाती हैं, अधिकांश ‘प्रतिष्ठित’ या ‘उच्च प्रभाव’ पत्रिकाएं शोध पत्रों के प्रकाशन या प्रकाशित सामग्री को पढ़ने के लिए शुल्क की मांग करती हैं। डिजिटल-पूर्व युग में प्रकाशित सामग्री या तो पुस्तकालय/व्यक्तिगत सदस्यता से या फिर संस्थानों के बीच पत्रिकाओं के आदान-प्रदान या लेखकों द्वारा बिना किसी शुल्क के साझा की जाती थीं। वर्तमान में अकादमिक संस्थानों के बीच शोध पत्रिकाओं का आदान-प्रदान लगभग खत्म हो गया है। यहां तक कि अधिकांश लेखक कॉपीराइट अनुबंध उल्लंघन की गलत समझ के कारण अपने प्रकाशित शोध पत्रों की सॉफ्ट कॉपी तक अपने साथियों के साथ साझा करने में संकोच करते हैं।

डिजिटल ऑनलाइन सामग्री के ओपन या ‘ग्रीन’ एक्सेस का मतलब ऐसे शोध पत्रों से है जो निशुल्क हों और लगभग सभी कॉपीराइट और लाइसेंसिंग प्रतिबंधों से मुक्त हों। कई चर्चाओं और घोषणाओं के बाद भी ओपन या ‘ग्रीन’ एक्सेस की उम्मीद कम ही नज़र आती है क्योंकि हाल के दशकों में शोध उत्पादों पर व्यावसायिक प्रकाशकों की गिरफ्त काफी मज़बूत हो गई है। अधिकांश मामलों में कॉपीराइट अनुबंध में शर्त होती है कि लेखक पूर्ण कॉपीराइट अधिकार प्रकाशक को सौंपें। एकतरफा रूप से तैयार किए गए कॉपीराइट समझौतों के परिणामस्वरूप शोध उत्पाद आंशिक या पूर्ण रूप से तब तक प्रकाशक के स्वामित्व में रहते हैं जब तक लेखकों/वित्तपोषकों द्वारा भारी प्रकाशन शुल्क का भुगतान नहीं किया जाता। ऐसे में लेखक प्रतिबंधित अवधि (6-24 माह या अधिक) के दौरान ओपन या ग्रीन एक्सेस के तहत व्यक्तिगत या संस्थागत वेबसाइट पर शोध पत्र के प्रकाशित संस्करण को पोस्ट नहीं कर सकते और न ही उन्हें इसे अपने काम के लिए फिर से उपयोग करने की स्वतंत्रता होती है। और तो और, प्रकाशक को भुगतान किए बिना उन्हें अपने ही लेख को अनुवाद करने की भी अनुमति नहीं होती। दूसरी ओर, व्यावसायिक प्रकाशक लेखकों या पाठकों पर ओपन एक्सेस शुल्क लगाकर, लेखकों की अनुमति के बिना अन्य प्रकाशकों को री-पैकेजिंग/सब-लायसेंस देकर खूब मुनाफा कमा सकते हैं।

ओपन साइंस पर अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान परिषद की रिपोर्ट में इस दुष्चक्र को सटीकता से प्रस्तुत किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार ‘कॉर्पोरेट प्रकाशक नियमित रूप से प्रकाशित करने की शर्त के रूप में उन्हें कॉपीराइट सौंपने की मांग करते हैं। ऐसा करते हुए, शोधकर्ता स्वयं अपनी इच्छा से और प्रकाशक द्वारा बिना किसी खर्चे के एक सार्वजनिक सामग्री का निजीकरण करने में सहायता करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में प्रकाशकों की पहली ज़िम्मेदारी उनके शेयरधारकों के प्रति होती है, न कि विज्ञान के प्रति। कॉर्पोरेट वैज्ञानिक प्रकाशन कंपनियों का यह मॉडल घोर असंतुलित है जिसमें वैज्ञानिक अपना काम उन्हें तोहफे में दे देते हैं और फिर इसी काम को बढ़ी हुई कीमतों पर वापस खरीदते हैं – चाहे व्यक्तिगत रूप से या विश्वविद्यालयों/सरकारी संस्थाओं द्वारा भुगतान के ज़रिए।

प्रकाशकों के हाथों में तुरुप का इक्का यह है कि उन्होंने उच्च प्रभाव वाली पत्रिकाओं के बाज़ार पर कब्ज़ा कर लिया है और फिर वे जो कुछ प्रकाशित करते हैं, उसके पाठकों की संख्या तथा उद्धरण (साइटेशन) को बढ़ावा देते हैं तथा प्रभाव गुणांक में वृद्धि करते रहते हैं। उधर विश्वविद्यालय प्रभाव गुणांक और उद्धरण संख्या का उपयोग अपनी अकादमिक उन्नति के मानदंड के रूप में करते हैं। इस तरह के परस्पर सुदृढीकरण की वजह से शोधकर्ताओं और उनके संस्थानों को लगता है कि किसी उतनी ही गुणवत्ता वाले जर्नल में कम भुगतान करके प्रकाशन करने की बजाय बेहतर होगा कि किसी विशेष पत्रिका में प्रकाशन के लिए ज़्यादा भुगतान किया जाए। यह स्थिति सीमित संसाधनों वाले शोधकर्ताओं के लिए घोर अन्याय है। यह इस सामान्य सोच के भी विपरीत है कि सार्वजनिक धन का उपयोग मुख्य रूप से अनुसंधान और उसके परिणामों के प्रसार में किया जाना चाहिए, न कि व्यावसायिकता को बढ़ावा देने के लिए।

क्रिएटिव कॉमन्स एट्रिब्यूशन लायसेंस (CC-BY) या इसी तरह के ओपन लायसेंस के लिए ज़रूरी है कि सभी बौद्धिक-संपदा अधिकार लेखकों के पास रहे और केवल गैर-एक्सक्लूसिव प्रकाशन अधिकार ही प्रकाशकों को हस्तांतरित किए जाएं। यदि वित्तपोषक ओपन एक्सेस का दाम न चुका पाएं, तो लेखकों द्वारा प्रकाशकों को लगभग सभी कॉपीराइट अधिकार प्रकाशक को सौंप दिया जाना अन्यायपूर्ण है। प्रकाशकों द्वारा भुगतान की दीवार खड़ी कर देने के कारण विश्व भर में प्रकाशित अधिकांश शोध पत्र शोधकर्ताओं और अन्य पाठकों की पहुंच से दूर हो जाते हैं। इस प्रणाली के कारण विकासशील देशों और कम संसाधन वाली संस्थाओं के शोधकर्ताओं को कई तरह से नुकसान होता है। चूंकि प्रकाशन/ओपन एक्सेस की यह कीमत आम तौर पर पत्रिका के ‘प्रभाव गुणांक’ (इम्पैक्ट फैक्टर, आईएफ) के समानुपाती होती है, कम संसाधनों वाले शोधकर्ता ऐसी पत्रिकाओं की तलाश करते हैं जो कम या फिर कोई शुल्क नहीं लेती हैं। ऐसी कम ‘प्रतिष्ठित’ पत्रिकाओं को समकक्ष शोधकर्ताओं द्वारा पूरी तरह अनदेखा किया जाता है, भले ही शोध कार्य उच्च स्तरीय हो। आईएफ के उपयोग के खिलाफ कई दलीलों और सैन फ्रांसिस्को घोषणा पत्र में इसकी निंदा के बावजूद, जर्नल के आईएफ को शोध मूल्यांकन मानदंड के रूप में उपयोग किया जाना जारी है। उच्च आईएफ पत्रिकाओं में प्रकाशन नहीं होने से लेखक और संस्थान की रैंकिंग कम होती है जिसका प्रभाव उनके भावी शोध संसाधनों पर भी पड़ता है।        

कॉपीराइट अधिकार को अपने पास रखने की संस्थागत अधिकार प्रतिधारण नीति अथवा राइट्स रिटेंशन पॉलिसी (आरआरपी) को अपनाने से किसी संस्थान के शोध परिणाम पढ़ने के इच्छुक पाठकों को अबाधित मुफ्त पहुंच मिलती है क्योंकि –

(1) इस नीति से स्वीकृत लेखकीय पांडुलिपि (एएएम– प्रकाशक द्वारा अतिरिक्त संपादकीय प्रक्रियाएं न की गई समकक्ष समीक्षित और स्वीकृत संस्करण) पर लेखक के पास अपने शोध पत्र को, बिना प्रकाशक की अनुमति की आवश्यकता के, पुनः उपयोग करने का अधिकार होता है।

(2) विश्वविद्यालय अपने सदस्यों के शोध पत्रों तक सभी को मुफ्त पहुंच प्रदान करता है। आरआरपी नीति के अंतर्गत सदस्यों के लिए अपने शोध पत्रों के एएएम संस्करणों की सॉफ्टकॉपी संस्था के सर्वर पर उपलब्ध कराना अनिवार्य है।

विश्व के कई शैक्षणिक संस्थानों ने आरआरपी को अपनाया है। इस नीति के तहत शोध पत्रों के सार्वजनिक रूप से सुलभ संस्थागत संग्रहण की आवश्यकता होती है जहां संस्थान के सदस्यों को अपने शोध पत्रों के एएएम संस्करणों को खुले लायसेंस के तहत जमा करना होता है। लेखक अपने संस्थान को लायसेंस प्रदान करता है कि वह लेख से सम्बंधित सभी अधिकारों का उपयोग कर सके और अन्य सह-लेखकों को भी ऐसा करने के लिए अधिकृत कर सके। इस प्रक्रिया में लेखकों को कॉपीराइट का अधिकार मिल जाता है जिससे उन्हें प्रकाशन के बाद अपने स्वयं के काम को फिर से उपयोग करने की स्वतंत्रता मिलती है। आरआरपी के तहत यह आवश्यक है कि पांडुलिपि की पहली प्रस्तुति के दौरान उसके साथ एक शपथ पत्र हो जिसमें लेखक द्वारा ओपन एक्सेस की घोषणा की गई हो। यह अग्रिम रूप से संपादक और प्रकाशक को मेज़बान संस्थान/वित्तपोषक के आरआरपी के अस्तित्व की सूचना देता है। बाहरी शर्तों की बजाय संस्थागत नीतियों की प्राथमिकता  होती है। इससे भविष्य में किसी भी कानूनी समस्या से सुरक्षा मिलती है।

संस्थागत आरआरपी नीति व्यावसायिक प्रकाशकों के उस अनुचित एकाधिकार को खत्म करती है जो उन्हें शोध उत्पाद के अधिकार छीनने की अनुमति देता है। अकादमिक संस्थानों द्वारा आरआरपी अपनाने से एक डर यह बताया जाता है कि इससे संस्थान के सदस्यों के शोध के उच्च प्रभाव गुणांक पत्रिकाओं में प्रकाशन पर असर पड़ता है। इस दावे का खंडन किया जा चुका है। आरआरपी के तहत कुछ विशेष मामलों में लेखक को ओपन एक्सेस से छूट का प्रावधान रखा जा सकता है लेकिन यह छूट रिपॉज़िटरी में जमा करने से नहीं होनी चाहिए। विश्व के कई विश्वविद्यालयों के अनुभव बताते हैं कि जिन संस्थानों ने संस्थागत आरआरपी नीति को अपनाया है, वहां ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी प्रकाशक ने आरआरपी के कारण स्वीकृत पांडुलिपि को प्रकाशित करने से मना किया हो।

भारत सरकार ‘वन नेशन, वन सब्सक्रिप्शन’ (ओएनओएस) नीति पर विचार कर रही है ताकि भारतीय पाठकों के लिए निर्धारित प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित लेखों की पहुंच ग्रीन ओपन एक्सेस के तहत सुनिश्चित की जा सके। अगर यह नीति सफल भी हो जाती है, तब भी भारत के बाहर रहने वाले पाठकों के लिए भारत में प्रकाशित शोध लेखों का ग्रीन ओपन एक्सेस नहीं मिल पाएगा और भारतीयों की भी उन पत्रिकाओं तक पहुंच नहीं हो पाएगी जो ओएनओएस के दायरे के बाहर हैं। लेकिन यदि देश के संस्थानों द्वारा आरआरपी को अपनाया जाता है तो पूरे विश्व में देश के शोधकर्ताओं द्वारा प्रकाशित शोध उत्पाद तक मुफ्त पहुंच संभव होगी। भारत सरकार के जैव प्रौद्योगिकी तथा विज्ञान एवं टेक्नॉलॉजी विभागों की ‘ओपन साइंस पॉलिसी (2014)’ के तहत डीबीटी/डीएसटी द्वारा पूर्ण या आंशिक रूप से वित्तपोषित अनुसंधान परियोजनाओं से जारी होने वाली अंतिम स्वीकृत पांडुलिपियों को संस्थागत रिपॉज़िटरी या इंटरऑपरेबल इंस्टीट्यूशनल ओपन एक्सेस रिपॉजि़टरी या सेंट्रल हार्वेस्टर में जमा करना अनिवार्य है। इस नीति के सख्ती से क्रियान्वयन और देश के विभिन्न शैक्षणिक और अनुसंधान संस्थानों द्वारा आरआरपी को अपनाने से अपेक्षित ओपन साइंस के द्वार खुल जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

इस आलेख का  मूल अंग्रेज़ी संस्करण 25 फरवरी 2023 को करंट साइंस में प्रकाशित हुआ है और इसका हिंदी अनुवाद लेखक की अनुमति के साथ यहां प्रकशित किया गया है।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.avepoint.com/blog/wp-content/uploads/2018/05/Data-Retention_Blog-Header-01.jpg

तीन दशकों बाद ‘विज्ञान प्रसार’ अवसान के पथ पर – चक्रेश जैन

पूरे देश में संचार के प्रमुख माध्यमों और विभिन्न विधाओं के ज़रिए आम आदमी तक विज्ञान की उपलब्धियों को पहुंचाने और वैज्ञानिक जागरूकता के उद्देश्य से भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा अक्टूबर 1989 में ‘विज्ञान प्रसार’ नामक एक स्वायत्त संस्था स्थापित की गई थी। इसकी स्थापना के 33 वर्षों बाद नीति आयोग ने इसे बंद करने की सिफारिश की है।

आज़ादी के 75 सालों बाद जब विज्ञान संचार की गतिविधियों के विस्तार और सशक्तीकरण का अवसर आया है, तब इस तरह के चौंकाने वाले प्रस्ताव ने विचार मंथन और नीति आयोग तक अपनी बात पहुंचाने के लिए प्रेरित किया है।

इस संस्था ने आम आदमी, संचार माध्यमों, वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं को जोड़ने में अद्वितीय भूमिका निभाई है। विज्ञान की लोकप्रिय किताबों से लेकर पत्रिकाओं, टेलीविज़न, रेडियो, विज्ञान क्लबों, फिल्मों, हैम रेडियो, एडुसेट उपग्रह तक के माध्यम से विज्ञान को आम लोगों तक पहुंचाया है। हाल के वर्षों को छोड़कर ‘विज्ञान प्रसार’ की शानदार उपलब्धियों और गतिविधियों से सराबोर अतीत की सम्यक समीक्षा और विश्लेषण करें तो कहा जा सकता है कि नीति आयोग का निर्णय अनावश्यक और पूर्वाग्रहों से प्रेरित है।

दरअसल, भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने 1982 में राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद (एनसीएसटीसी) की स्थापना एक नोडल एजेंसी के रूप में की थी। एनसीएसटीसी की स्थापना के सात वर्षों बाद 1989 में ‘विज्ञान प्रसार’ का जन्म हुआ। डीएसटी ने विज्ञान प्रसार को स्वायत्त संस्था का दर्जा प्रदान करते हुए व्यापक स्तर पर विज्ञान को लोकप्रिय बनाने का कार्य सौंपा था।

एनसीएसटीसी ने अपनी स्थापना के साथ ही विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए कई नए कार्यक्रम शुरू किए। इनमें टीवी सीरियल ‘भारत की छाप’ और ‘क्यों और कैसे’ कार्यक्रम शामिल हैं। रेडियो के ज़रिए विज्ञान को श्रोताओं तक पहुंचाने के लिए ‘मानव का विकास’ नामक धारावाहिक बनाया गया था। यह विश्व का सबसे लंबा विज्ञान रेडियो धारावाहिक है।

एनसीएसटीसी ने ‘भारत जन विज्ञान जत्था’ का आयोजन किया। यह अपने ढंग का अनोखा आयोजन था, जिसमें ग्रामीण लोगों को विज्ञान और वैज्ञानिकों से सीधे संपर्क में आने का मौका मिला था। एनसीएसटीसी न्यूज़लेटर शीर्षक से मासिक प्रकाशन किया गया, जिसमें एनसीएसटीसी की गतिविधियां, भेंटवार्ताएं और पाठकों की प्रतिक्रियाएं होती थीं। किताबों में कहानी माप तौल की, गाएं गाना, खेलें खेल, हॉर्नबिल सीरीज़ आदि हैं।

आरंभ में एनसीएसटीसी और विज्ञान प्रसार ने कंधे से कंधा मिलाकर कुछ गतिविधियों को बढ़ावा दिया, जिनमें 1995 में ‘पूर्ण सूर्यग्रहण’ के अवसर पर जागरूकता कार्यक्रम था। यह कार्यक्रम विज्ञान संचार के इतिहास में अहम और उल्लेखनीय था। इस कार्यक्रम में एनसीएसटीसी ने संकल्पना में और विज्ञान प्रसार ने विभिन्न भारतीय भाषाओं में सॉफ्टवेयर के विकास में योगदान किया था।

वास्तव में, एनसीएसटीसी ने अपनी स्थापना के शुरुआती दौर में जहां सरकारी ढांचे की सीमाओं के भीतर योगदान दिया, वहीं विज्ञान प्रसार ने स्वायत्त संस्थान की आज़ादी का लाभ उठाते हुए नवीन कार्यक्रम और परियोजनाएं शुरू कीं और पहली बार देश में आम लोगों के लिए विज्ञान संचार की ज़रूरत और महत्व को उजागर किया। विज्ञान प्रसार के विस्तार के बाद एनसीएसटीसी के कार्यों का दायरा देश भर की विज्ञान संस्थाओं की परियोजनाओं के वित्त पोषण, राष्ट्रीय बाल विज्ञान कांग्रेस के सालाना आयोजन और विज्ञान संचार के राष्ट्रीय पुरस्कार तक सिमट कर रह गया है।

विज्ञान प्रसार के विज्ञान संचार कार्यक्रमों को मोटे तौर पर दस भागों में विभाजित किया जा सकता है – प्रकाशन, टेलीविज़न, रेडियो, विपनेट क्लब, खगोल विज्ञान, लिंग समानता एवं प्रौद्योगिकी संचार, हैम रेडियो, गतिविधि किट, फिल्मों के द्वारा विज्ञान और एडुसैट नेटवर्क।

विज्ञान प्रसार द्वारा प्रकाशन कार्यक्रम के अंतर्गत अभी तक लगभग 400 किताबें प्रकाशित की गई हैं। ये पुस्तकें विभिन्न शृंखलाओं के अंतर्गत हिन्दी और अंग्रेज़ी के अलावा तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, मराठी, पंजाबी, बांग्ला आदि विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित की गई हैं।

ड्रीम 2047 विज्ञान प्रसार की लोकप्रिय मासिक विज्ञान पत्रिका है। इसका प्रकाशन अक्टूबर 1998 में आरंभ हुआ था। इस द्विभाषी पत्रिका का प्रकाशन अनवरत जारी है। विख्यात और वरिष्ठ पत्रकार एवं मुंबई से प्रकाशित फ्री प्रेस जर्नल में लंबे समय तक नियमित स्तम्भकार रहे पद्मभूषण एम. वी. कामथ ने ड्रीम 2047 के सौवें अंक में प्रकाशित आलेख में इस पत्रिका को अनूठी विज्ञान पत्रिका बताया है। ड्रीम 2047 पत्रिका का इलेक्ट्राॅनिक संस्करण विज्ञान प्रसार की वेबसाइट पर उपलब्ध है।

विज्ञान प्रसार विपनेट न्यूज़ प्रकाशित कर रहा है। इस मासिक पत्र में खगोल विज्ञान, जैव विविधता, प्रकृति, जलवायु परिवर्तन जैसे विषयों से सम्बंधित आलेख होते हैं। यह पत्रिका विज्ञान क्लब के सदस्यों के बीच संवाद स्थापित करने में अहम भूमिका निभाती है।

विज्ञान प्रसार द्वारा भारतीय भाषाओं में विज्ञान संचार, लोकप्रियकरण एवं विस्तार (स्कोप) परियोजना आरंभ करने से देश में विज्ञान संचार को एक नई दिशा मिली है। इसके तहत विभिन्न भाषाओं में वैज्ञानिक जर्नल प्रकाशित हो रहे हैं। उर्दू में तजस्सुस शीर्षक से मासिक पत्र प्रकाशित हो रहा है। तजस्सुस का अर्थ है उत्सुकता। इसी प्रकार से बांग्ला में विज्ञान कथा का प्रकाशन जारी है। तमिल में अरिवियल पलागाई मासिक पत्रिका प्रकाशित हो रही है।

विज्ञान प्रसार ने भारत में टेलीविज़न को लोकप्रिय माध्यम के रूप में देखते हुए इसका उपयोग वैज्ञानिक जागरूकता और प्रसार के लिए करने का निर्णय लिया। इसरो की डेवलपमेंट एंड एजुकेशनल कम्युनिकेशन युनिट (डेकू) के साथ मिलकर विज्ञान सम्बंधी कार्यक्रम बनाए, जिनका विभिन्न भारतीय भाषाओं में दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल और क्षेत्रीय केंद्रों से प्रसारण किया गया। साइंस ऑन टेलीविज़न के माध्यम से टेलीविज़न पर विज्ञान कार्यक्रम लोकसभा और राज्यसभा टीवी, क्षेत्रीय दूरदर्शन केंद्रों और ज्ञान दर्शन के माध्यम से प्रसारित होते रहे हैं। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पर आधारित लगभग 2000 कार्यक्रमों को देश के लाखों दर्शकों ने पसंद किया। इस संस्था का इंटरनेट आधारित ओवर-दी-टॉप (ओटीटी) साइंस चैनल है। यह प्लेटफॉर्म 24X7 विज्ञान और प्रौद्योगिकी आधारित ज्ञान के लिए समर्पित है।

विज्ञान प्रसार ने विभिन्न विषयों और मुद्दों पर मेगा विज्ञान रेडियो धारावाहिकों का निर्माण किया है। इनमें पृथ्वी ग्रह, खगोल विज्ञान, गणित, जैव विविधता, दैनिक जीवन में रसायन विज्ञान, जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग आदि सम्मिलित हैं। 19 भाषाओं में निर्मित इन कार्यक्रमों को विभिन्न एफएम केंद्रों के साथ 117 मीडियम वेव केंद्रों से प्रसारित किया गया है।

रेडियो के ज़रिए जनजातियों और अन्य पिछड़े समुदायों में विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए चल रहे कार्यक्रमों के अंतर्गत जनजातीय भाषाओं में भी कार्यक्रम तैयार किए गए हैं।

हैम रेडियो का लोकप्रियकरण विज्ञान प्रसार की प्रमुख गतिविधियों में शामिल है। हैम रेडियो संचार किसी भी आपात स्थिति के दौरान महत्वपूर्ण बैकअप के रूप में उपयोगी सिद्ध हो सकता है। विज्ञान प्रसार हैम रेडियो स्टेशनों की स्थापना, ऑपरेटरों के प्रशिक्षण और रचनात्मक गतिविधियों के लिए अवसर उपलब्ध कराने के साथ ही विश्व भर के शौकिया ऑपरेटरों के साथ संपर्क स्थापित करने के लिए मार्गदर्शन और तकनीकी मदद प्रदान करता है। विज्ञान प्रसार स्कूली विद्यार्थियों और प्रौद्योगिकी संस्थानों में हैम रेडियो को बढ़ावा दे रहा है।

विज्ञान प्रसार का एक प्रमुख कार्यक्रम ‘नेशनल साइंस फिल्म फेस्टीवल’ भी है। इस फिल्म फेस्टीवल का उद्देश्य सिनेमा के माध्यम से विज्ञान की पहुंच का विस्तार और विज्ञान फिल्म निर्माण को प्रोत्साहन देना रहा है। इसमें पूरे देश से विभिन्न श्रेणियों के अंतर्गत वैज्ञानिक मुद्दों और विषयों पर फिल्में आमंत्रित की जाती हैं। चयनित फिल्मों का प्रदर्शन किया जाता है और पुरस्कार दिए जाते हैं।

विज्ञान प्रसार ने देश के दूरदराज़ इलाकों तक पहुंचने के लिए शैक्षणिक उपग्रह ‘एडुसैट’ का उपयोग करके इंटरएक्टिव टर्मिनलों का नेटवर्क बनाया है और देश के विभिन्न हिस्सों में 50 टर्मिनल स्थापित किए हैं। इस तकनीक का उपयोग विज्ञान प्रसार विभिन्न विज्ञान लोकप्रियकरण कार्यक्रमों के प्रसारण में कर रहा है।

विज्ञान प्रसार ने बीते वर्षों में देश भर में आम लोगों के बीच कई राष्ट्रीय जागरूकता अभियान चलाए हैं। इनमें पूर्ण सूर्य ग्रहण 1999, शुक्र पारगमन 2004, विज्ञान रेल: पहियों पर विज्ञान प्रदर्शनी 2003-04, पूर्ण सूर्यग्रहण 2009 आदि सम्मिलित हैं।

विज्ञान प्रसार द्वारा देश में विज्ञान क्लब कार्यक्रम को बढ़ावा देने के लिए 1998 में विज्ञान क्लब के देशव्यापी नेटवर्क ‘विपनेट’ की स्थापना की गई। वर्तमान में विज्ञान प्रसार का लगभग 3000 विज्ञान क्लबों का नेटवर्क है, जिसके माध्यम से विभिन्न गतिविधियां की जाती रही हैं। वास्तव में विपनेट विज्ञान प्रसार के उद्देश्यों की प्राप्ति में अहम भूमिका निभाता है। विज्ञान क्लब रोचक और ज्ञानवर्धन गतिविधियों का मंच है, जिसमें मित्रों को भी शामिल किया जा सकता है।

विपनेट देश के हर कोने में अच्छी तरह से जाना जाता है। अपनी स्थापना के दो वर्षों बाद मध्यप्रदेश का रतलाम ज़िला देश का सबसे अधिक सदस्यता (107) वाला ज़िला और उत्तरप्रदेश सबसे अधिक 350 विज्ञान क्लबों वाला राज्य बन गया था।

विज्ञान प्रसार के नेतृत्व में स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ के मौके पर देश के 75 स्थानों पर विज्ञान महोत्सवों का आयोजन किया गया था। इसका मुख्य विषय ‘विज्ञान सर्वत्र पूज्यते’ था। विज्ञान उत्सव के माध्यम से स्थानीय लोगों को वैज्ञानिक विरासत और प्रगति से परिचित कराया गया था। इस दौरान विज्ञान पुस्तक मेला, विज्ञान कवि सम्मेलन, विज्ञान प्रदर्शनी आदि कार्यक्रम आयोजित किए गए थे।

साल 2020 में विज्ञान प्रसार ने कोरोना वायरस से फैली कोविड-19 महामारी के दौरान देश के वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं के कार्यों से सबको परिचित कराने के लिए अनूठी कोविड-19 परीक्षण प्रयोगशाला पर वृत्तचित्र का निर्माण किया।

विज्ञान प्रसार अनेक वर्षों से खगोल विज्ञान के लोकप्रियकरण में जुटा हुआ है और विद्यार्थियों, अध्यापकों और शौकिया खगोल वैज्ञानिकों के लिए दूरबीन निर्माण सम्बंधी कार्यशालाओं का आयोजन करता रहा है।

विज्ञान को आम लोगों तक ले जाने की मुहिम की एक प्रमुख कड़ी है – ‘इंडिया साइंस वायर प्रोजेक्ट’। विज्ञान प्रसार इस प्रोजेक्ट के माध्यम से देश के समाचार पत्रों और वेब पोर्टल्स को विज्ञान समाचार और फीचर नियमित रूप से उपलब्ध करा रहा है।

विज्ञान प्रसार ने देश के 17 स्थानों पर ‘गांधी एट 150 प्रोजेक्ट’ शीर्षक से डिजिटल प्रदर्शनी का आयोजन किया था।

इसने ‘शोध अभिव्यक्ति के लिए लेखन कौशल को प्रोत्साहन’ परियोजना शुरू की, जिसके तहत विज्ञान विषयों में पीएच.डी. और पोस्ट डॉक्टरेट करने वाले व्यक्तियों को फैलोशिप के दौरान अपनी रिसर्च से सम्बंधित मुद्दे पर लोकप्रिय विज्ञान लेखन के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इस परियोजना का उद्देश्य भारतीय अनुसंधान कार्यों को जन साधारण के बीच रोचक अंदाज़ में प्रस्तुत करना है।

विज्ञान प्रसार ने वर्ष 2018-19 में विद्यार्थी विज्ञान मंथन (वीवीएम) परीक्षा के आयोजन में योगदान किया। डिजिटल उपकरणों की सहायता से आयोजित इस परीक्षा में कक्षा 6-11 के विद्यार्थी भाग लेते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों को विज्ञान के क्षेत्र में भारत की वैज्ञानिक और तकनीकी विरासत से परिचित कराना है।

क्रियाकलाप और खिलौना विकास एक निरंतर चलने वाला कार्यक्रम है। विज्ञान प्रसार ने पिछले एक दशक में लगभग 10 विषयों में विषयगत किट विकसित किए हैं। इनमें जैव विविधता, खगोल विज्ञान, भूकंप, मौसम आदि सम्मिलित हैं।

बीते दशकों के दौरान विज्ञान प्रसार ने महत्वपूर्ण दिवसों के अवसर पर उत्सव समारोह आयोजित किए हैं। इनमें मेघनाद साहा की 125वीं जयंती समारोह, राष्ट्रीय गणित दिवस समारोह, रामानुजन यात्रा आदि शामिल हैं।

कुल मिलाकर नीति आयोग द्वारा विज्ञान प्रसार को बंद करने के निर्णय से भारत में विज्ञान संचार के मैदान में पूरे उत्साह, लगन और समर्पण भाव से जुटे विज्ञान संचारकों को गहरा आघात पहुंचा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://secure.brighterkashmir.com//images/news/d25b8647-0937-4490-a056-5ddf19ea794c.jpg

सी. आर. राव को गणित का नोबेल पुरस्कार – मनीष श्रीवास्तव

भारतीय—अमेरिकी गणितज्ञ और सांख्यिकीविद सी. आर. राव (कल्यामपुडी राधाकृष्ण राव) को वर्ष 2023 के अंतर्राष्ट्रीय सांख्यिकी पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा की गई है। इसे गणित का नोबेल पुरस्कार भी कहा जाता है। पुरस्कार के लिए उनके नाम की घोषणा करते हुए इंटरनेशनल प्राइज़ इन स्टैटिस्टिक्स फाउंडेशन द्वारा कहा गया कि “वे गणित विज्ञान की दुनिया के लेजेंड है। उन्होंने लगभग 75 वर्ष पहले अपने काम के ज़रिए सांख्यिकी के क्षेत्र में क्रांति ला दी थी।” यह पुरस्कार हर दो साल में पांच प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के सहयोग से प्रदान किया जाता है।

आज उन्हीं राव को जुलाई माह में कनाडा के ओटावा शहर में आयोजित होने वाली विश्व सांख्यिकी कांग्रेस में पुरस्कार सहित 80 हज़ार अमेरिकी डॉलर की सम्मान राशि से सम्मानित किया जाएगा। आइए, सी. आर. राव से परिचय करें।

सी. आर. राव का जन्म कर्नाटक की हदगली नाम की जगह पर एक तेलुगु परिवार में 10 सितंबर 1920 को हुआ था। राव ने अपनी आरंभिक और उच्च शिक्षा आंध्रप्रदेश के गुदुर, नंदीगामा और विशाखापट्टनम में प्राप्त की। अध्ययन में गहरी रुचि रखने वाले राव ने गणित में एमएससी की और इसके बाद विशेष रूप से गणित की एक शाखा सांख्यिकी में एम.ए. किया। सांख्यिकी उनका प्रिय विषय रहा और इसी ने अंतत: उन्हें गणित का नोबेल सम्मान दिलाया।

भारत में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी वे गंभीरता से अध्ययन करते रहे और इंग्लैण्ड जाकर कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी के किंग्स कॉलेज से पीएच. डी. तथा बाद में कैम्ब्रिज से ही डीएससी की उपाधि प्राप्त की। इस तरह वे अपने ज्ञान के स्तर को उच्चतर आयाम तक लेकर गए और गणित विज्ञान के क्षेत्र में बेहद सम्मान पाया।

ज्ञानार्जन करते हुए राव ने समय—समय पर विविध संस्थानों में अपनी सेवाएं दीं। उन्होंने भारतीय सांख्यिकी संस्थान की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और फिर मानव विज्ञान संग्रहालय (कैम्ब्रिज) में सेवाएं दीं। इसके बाद अध्यापन करते हुए पिट्सबर्ग युनिवर्सिटी में प्रोफेसर और एबर्ली प्रोफेसर रहने के साथ ही अमेरिका के पेनसिल्वेनिया राज्य के एक एनालिसिस सेंटर के निदेशक पद पर रहकर कार्य किया। फिलहाल वे पेनसिल्वेनिया स्टेट युनिवर्सिटी में प्रोफेसर के पद पर सेवाएं दे रहे थे।

राव ने कम उम्र में ही अपने ज्ञान के उच्चतर स्तर से सभी को चकित कर दिया था। उन्होंने अध्ययन करते समय मात्र 25 वर्ष की आयु में ही महत्वपूर्ण शोध पत्र कलकत्ता मेथेमेटिकल सोसायटी के बुलेटिन में Information and accuracy attainable in the estimation of statistical parameters (सांख्यिकीय मापदंडों के अनुमान में पाने योग्य सूचना व सटीकता) प्रकाशित किया था। इस पेपर के महत्व का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसे स्टैटिस्टिक्स की महत्वपूर्ण पुस्तक ब्रेकथ्रूस इन स्टैटिस्टिक्स 1890—1990 में शामिल किया गया था। उनके इस शोध ने आधुनिक सांख्यिकी की स्थापना में विशेष योगदान दिया। उनकी महत्वपूर्ण खोजों ने न सिर्फ सांख्यिकी को प्रभावित किया बल्कि भू-गर्भविज्ञान, चिकित्सा, जैवमिति सहित उन सभी क्षेत्रों को लाभ पहुंचाया, जिनमें किसी न किसी तरह से सांख्यिकी का उपयोग होता है।

गणित का नोबेल सम्मान मिलने से पहले ही राव कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं। भारत सरकार द्वारा उन्हें 1968 में पद्म भूषण और 2001 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया जा चुका है। वे शांति स्वरूप भटनागर विज्ञान और प्रौद्योगिकी पुरस्कार (1963), नेशनल मेडल ऑफ साइंस सम्मान (2002) प्राप्त करने के साथ ही रॉयल सोसायटी के फेलो (1967) भी रह चुके हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया उन्हें 10 महान भारतीय वैज्ञानिकों में शुमार कर चुका है। आज उनकी उम्र 100 वर्ष से ज़्यादा है और आज भी वे सामाजिक जीवन में  सक्रिय हैं। अपनी ऊर्जा और विशिष्ट कार्यों के चलते वे वैश्विक प्रेरणास्रोत बन गए हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : http://nobelprizeseries.in/tbis/sites/default/files/projects/cr-rao.jpg

पाठ्यक्रम से जैव विकास को हटाने के विरुद्ध अपील

पिछले दिनों केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल द्वारा प्रस्तावित पाठ्यक्रम संशोधन को लेकर काफी बहस चली है। इन परिवर्तनों में यह भी शामिल है कि कक्षा 10 के पाठ्यक्रम में से जैव विकास सम्बंधी अंश को विलोपित कर दिया जाएगा। इस निर्णय को लेकर देश भर के वैज्ञानिकों, विज्ञान शिक्षकों और विज्ञान से सरोकार रखने वाले नागरिकों ने एक अपील जारी की है। इस अपील पर अनिकेत सुले (मुंबई), राघवेंद्र गडग्कर (बैंगलुरु), एल.एस शशिधर (बैंगलुरु), टी.एन.सी. विद्या (बैंगलुरु), एनाक्षी भट्टाचार्य (चेन्नै), डॉ. इंदुमति (चेन्नै), अमिताभ पांडे (दिल्ली), राम रामस्वामि (दिल्ली), टी.वी. वेकटेश्वर (दिल्ली), अनिंदिता भद्रा (कोलकाता), सौमित्र बैनर्जी (कोलकाता), एस. कृष्णास्वामि (मदुरै), एन. जी. प्रसाद (मोहाली), और्नब घोष (पुणे), सत्यजित रथ (पुणे), श्रद्धा कुंभोजकर (पुणे), सुधा राजमणि (पुणे), वीनिता बाल (पुणे) सहित 1800 लोगों ने हस्ताक्षर किए हैं। प्रस्तुत है उस अपील का हिंदी रूपांतरण….

हमें ज्ञात हुआ है कि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल (सीबीएससी) के उच्च व उच्चतर माध्यमिक कोर्स में व्यापक परिवर्तन का प्रस्ताव है। इन परिवर्तनों को पहले कोरोना महामारी के दौरान अस्थायी उपायों के रूप में लागू किया गया था और अब इन्हें तब भी जारी रखा जा रहा है जब स्कूल वापिस ऑफलाइन शैली में लौट रहे हैं। खास तौर से हम इस बात को लेकर चिंतित हैं कि कक्षा 10 के पाठ्यक्रम में से जैव विकास का डार्विनियन सिद्धांत हटाया जा रहा है, जैसा कि एनसीईआरटी की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी से पता चलता है (देखें: https://ncert.nic.in/pdf/BookletClass10.pdf पृष्ठ 21)।

शिक्षा के वर्तमान ढांचे में बहुत थोड़े से विद्यार्थी ही कक्षा 11 या 12 में विज्ञान को अपने अध्ययन की शाखा के रूप में चुनते हैं और उनमें से भी बहुत कम जीव विज्ञान को चुनते हैं।

लिहाज़ा, कक्षा 10 तक के पाठ्यक्रम में प्रमुख अवधारणाओं को हटा देने का मतलब है कि विद्यार्थियों की एक बड़ी संख्या इस क्षेत्र के एक महत्वपूर्ण अंश से वंचित रह जाएगी। उद्वैकासिक जीव विज्ञान का ज्ञान व समझ न सिर्फ जीव विज्ञान के उप-क्षेत्रों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह अपने आसपास की दुनिया को समझने के लिए भी ज़रूरी है। विज्ञान के एक क्षेत्र के रूप में जैव विकास जैविकी का एक ऐसा क्षेत्र है, जिसका इस बात पर गहरा असर होता है कि हम समाजों और राष्ट्रों के समक्ष उपस्थित विभिन्न समस्याओं से कैसे निपटने का निर्णय करते हैं। ये समस्याएं चिकित्सा, औषधियों की खोज, महामारी विज्ञान, पारिस्थितिकी और पर्यावरण, से लेकर मनोविज्ञान तक से सम्बंधित हैं। जैव विकास हमारी इस समझ को भी प्रभावित करता है कि हम मनुष्यों और जीवन के ताने-बाने के साथ उनके सम्बंधों को किस तरह देखते हैं।

हालांकि हममें से कई लोग यह बात स्पष्ट रूप से नहीं जानते लेकिन तथ्य यह है कि प्राकृतिक वरण के सिद्धांत हमें कई महत्वपूर्ण मुद्दों को समझने में मदद करते हैं, जैसे – कोई महामारी कैसे आगे बढ़ती है, या प्रजातियां क्यों विलुप्त हो जाती हैं।

जैव विकास की प्रक्रिया की समझ वैज्ञानिक मानसिकता और एक तर्कसंगत विश्वदृष्टि के निर्माण के लिए भी ज़रूरी है। जिस ढंग से श्रमसाध्य अवलोकनों और गहरी सूझ-बूझ ने डार्विन को प्राकृतिक वरण के सिद्धांत तक पहुंचने में मदद की थी, वह विद्यार्थियों को विज्ञान की प्रक्रिया और आलोचनात्मक सोच के महत्व के बारे में भी शिक्षित करता है। जो विद्यार्थी कक्षा 10 के बाद जीव विज्ञान नहीं पढ़ेंगे, उन्हें इस अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र से संपर्क से वंचित रखना शिक्षा की प्रक्रिया का मखौल होगा।

हम वैज्ञानिक, विज्ञान शिक्षक, विज्ञान को लोकप्रिय बनाने में जुटे लोग और सरोकारी नागरिक स्कूली विज्ञान शिक्षा में ऐसे खतरनाक परिवर्तनों से असहमत हैं और मांग करते हैं कि जैव विकास के डार्विनियन सिद्धांत को माध्यमिक शिक्षा में बहाल किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://m.timesofindia.com/thumb/msid-99786822,width-1200,height-900,resizemode-4/.jpg

शिक्षण में चैटजीपीटी का उपयोग

पिछले वर्ष नवंबर के अंत में एआई आधारित एक ऐसा आविष्कार बाज़ार में आया जिसने शोध और शिक्षण समुदाय से जुड़े लोगों को चिंता में डाल दिया। ओपनएआई द्वारा जारी किया गया चैटजीपीटी एक प्रकार का विशाल भाषा मॉडल (एलएलएम) एल्गोरिदम है जिसे भाषा के विपुल डैटा से प्रशिक्षित किया गया है।

कई शिक्षकों व प्रोफेसरों का ऐसा मानना था कि छात्र अपने निबंध और शोध सार लेखन के लिए चैटजीपीटी का उपयोग करके चीटिंग कर सकते हैं। छात्रों का कार्य मौलिक हो और उसमें शैक्षणिक बेईमानी न हो, इस उद्देश्य से कुछ विश्वविद्यालयों ने तो चैटजीपीटी आधारित टेक्स्ट को साहित्यिक चोरी की श्रेणी में रखा जबकि कई अन्य ने इसके उपयोग पर पूरी तरह प्रतिबंध ही लगा दिया। हालांकि युनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग (यू.के.) जैसे कई विश्वविद्यालय ऐसे भी हैं जिन्होंने इस सम्बंध में कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी नहीं किए हैं।

इस युनिवर्सिटी में पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर हांग यैंग चैटजीपीटी को पूरी तरह से प्रतिबंधित करने के पक्ष में नहीं हैं। यैंग के अनुसार इस तकनीक द्वारा लिखे गए काम का पता लगाना काफी मुश्किल है लेकिन छात्रों को अधुनातन टेक्नॉलॉजी से दूर रखना भी उचित नहीं है। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें ऐसी तकनीकों के साथ काम करना होगा। वे अभी इसका सही उपयोग करना नहीं सीखेंगे तो यकीनन पीछे रह जाएंगे। लिहाज़ा, इसे शिक्षण में एकीकृत करने का प्रयास तो किया ही जा सकता है। एक उदाहरण… 

वायु प्रदूषण के शिक्षक के रूप में यैंग ने अपने छात्रों से कॉलेज परिसर में वायु-गुणवत्ता डैटा एकत्रित करने के लिए छोटे समूहों में काम करने कहा। डैटा विश्लेषण और व्यक्तिगत निबंध लिखने के लिए उन्हें सांख्यिकीय तरीकों का उपयोग करना था। इस काम में कई छात्र कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का आकलन करने के लिए उपयुक्त विधि खोजने में संघर्ष कर रहे थे। तब यैंग ने प्रोजेक्ट डिज़ाइन करने के लिए चैटजीपीटी का उपयोग करने का सुझाव दिया। इस मॉडल की मदद से उन्हें कार्बन डाईऑक्साइड निगरानी उपकरणों के लिए स्थान की पहचान करने से लेकर उपकरण स्थापित करने, डैटा एकत्र करने और उसका विश्लेषण करने तथा परिणामों को प्रस्तुत करने के बेहतरीन सुझाव मिले। 

इस प्रोजेक्ट में छात्र-वैज्ञानिकों ने विश्लेषण और निबंध लिखने का सारा काम किया लेकिन उन्होंने यह भी सीखा कि कैसे एलएलएम की मदद से वैज्ञानिक विचारों को तैयार किया जाता है और प्रयोगों की योजना बनाई जा सकती है। चैटजीपीटी की मदद से वे सांख्यिकीय परीक्षण करने तथा प्राकृतिक और मानव निर्मित परिसर में कार्बन डाईऑक्साइड के स्तरों का विश्लेषण करने में काफी आगे जा पाए।                   

इस अभ्यास के बाद से यैंग ने मूल्यांकन के तरीकों में भी परिवर्तन किया ताकि छात्र शैक्षिक सामग्री को बेहतर ढंग से समझें और चोरी करने से बच सकें। निबंध लिखने की बजाय यैंग ने प्रोजेक्ट के निष्कर्षों को साझा करने के लिए छात्रों को 10 मिनट की मौखिक प्रस्तुति देने को कहा। इससे न केवल साहित्यिक चोरी की संभावना में कमी आई बल्कि मूल्यांकन प्रक्रिया अधिक संवादनुमा और आकर्षक हो गई।  

हालांकि, चैटजीपीटी के कई फायदों के साथ नकारात्मक पहलू भी हैं। उदाहरण के तौर पर यैंग ने ग्रीनहाउस गैसों के व्याख्यान के दौरान चैटजीपीटी से जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित किताबों और लेखकों की सूची मांगी। इसी सवाल में उन्होंने नस्ल और भाषा के पूर्वाग्रह को रोकने के लिए खोज में “जाति और भाषा का ख्याल किए बगैर” जैसे शब्दों को भी शामिल किया। लेकिन फिर भी चैटजीपीटी के जवाब में सभी किताबें अंग्रेज़ी में थीं और 10 में से 9 लेखक श्वेत और 10 में से 9 लेखक पुरुष थे।  

वास्तव में एलएलएम को प्रशिक्षित करने के लिए पुरानी किताबों और वेबसाइटों की जानकारी का उपयोग करने से हाशिए वाले समुदायों के प्रति पक्षपाती दृष्टिकोण नज़र आता है, जबकि वर्चस्वपूर्ण वर्ग की उपस्थिति बढ़ जाती है। मेटा कंपनी के गैलेक्टिका नामक एलएलएम को इसीलिए हटाया गया है क्योंकि यह नस्लवादी सामग्री उत्पन्न कर रहा था। गौरतलब है कि एलएलएम को प्रशिक्षित करने के लिए उपयोग किया जाने वाला अधिकांश डैटा अंग्रेज़ी में है, इसलिए वे उसी भाषा में बेहतर प्रदर्शन करते हैं। एलएलएम का व्यापक उपयोग विशेषाधिकार प्राप्त समूहों के अति-प्रतिनिधित्व को बढ़ा सकता है, और पहले से ही कम प्रतिनिधित्व वाले लोगों को और हाशिए पर धकेल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw1024/magazine-assets/d41586-023-01026-9/d41586-023-01026-9_25206324.jpg

सबसे नीरस संख्या

णितज्ञों को कई संख्याएं बहुत दिलचस्प लगती हैं जबकि कुछ संख्याएं नीरस लगती हैं। तो यह देखना दिलचस्प होगा कि गणितज्ञों को संख्याएं क्यों सरस और नीरस लगती हैं।

जैसे, पसंदीदा संख्या पूछे जाने पर गणित का कोई विद्यार्थी शायद पाई (π), या यूलर्स संख्या (e) या 2 का वर्गमूल कहे। लेकिन एक आम व्यक्ति के लिए कई अन्य संख्याएं दिलचस्प हो सकती हैं। जैसे सात समंदर, सातवां आसमान, सप्तर्षि में आया सात। तेरह को बदनसीब संख्या मानना उसे दिलचस्प बना देगा। चतुर्भुज में चार, या पंचामृत के चलते पांच को लोकप्रिय कहा जा सकता है।

इस संदर्भ में एक किस्सा मशहूर है। प्रसिद्ध गणितज्ञ गॉडफ्रे हैरॉल्ड हार्डी का ख्याल था कि 1729 एक नीरस संख्या है। वे इसी नंबर की टैक्सी में बैठकर अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ कर रहे अपने गणितज्ञ साथी श्रीनिवास रामानुजन से मिलने पहंुचे और उन्हें बताया कि वे एक नीरस नंबर की टैक्सी में आए हैं। रामानुजन ने तत्काल इस बात खंडन करते हुए कहा था, “यह तो निहायत दिलचस्प संख्या है; यह वह सबसे छोटी संख्या है जिसे दो संख्याओं के घन के योग से दो तरह से व्यक्त किया जा सकता है (1729 = 123 + 13 = 103 + 93)।”

है ना मज़ेदार – 1729 जैसी संख्या भी दिलचस्प निकली। तो सवाल यह उठता है कि क्या कोई ऐसी संख्या है, जिसमें कोई दिलचस्प गुण न हो। लेकिन गणितज्ञों ने ऐसा तरीका खोज निकाला है जिसकी मदद से किसी भी संख्या के दिलचस्प गुणों का निर्धारण किया जा सकता है। और 2009 में किए गए अनुसंधान से पता चला कि प्राकृत संख्याओं (धनात्मक पूर्ण संख्याओं) को तो स्पष्ट समूहों में बांटा जा सकता है – रोमांचक और नीरस।

संख्या अनुक्रमों का एक विशाल विश्वकोश इन दो समूहों की तहकीकात को संभव बनाता है। गणितज्ञ नील स्लोअन के मन में ऐसे विश्वकोश का विचार 1963 में आया था। वे अपना शोध प्रबंध लिख रहे थे और उन्हें ट्री नेटवर्क नामक ग्राफ में विभिन्न मानों का कद नापना होता था। इस दौरान उनका सामना संख्याओं की एक शृंखला से हुआ – 0, 1, 8, 78, 944….। उस समय उन्हें पता नहीं था कि इस शृंखला की संख्याओं की गणना कैसे करें और वे तलाश रहे थे कि क्या उनके किसी साथी ने ऐसी शृंखला देखी है। लेकिन लॉगरिद्म या सूत्रों के समान संख्याओं की शृंखला की कोई रजिस्ट्री मौजूद नहीं थी। तो 10 वर्ष बाद स्लोअन ने पहला विश्वकोश प्रकाशित किया – ए हैण्डबुक ऑफ इंटीजर सिक्वेंसेस। इसमें लगभग 2400 शृंखलाएं थीं और गणित जगत में इसका भरपूर स्वागत किया गया।

आने वाले वर्षों में स्लोअन को कई शृंखलाएं प्रस्तुत की गईं और संख्या शृंखलाओं को लेकर कई शोध पत्र प्रकाशित हुए। इससे प्रेरित होकर स्लोअन ने अपने साथी साइमन प्लाउफ के साथ मिलकर 1995 में दी एनसायक्लोपीडिया ऑफ इंटीजर सिक्वेंसेस प्रकाशित किया। इसका विस्तार होता रहा और फिर इंटरनेट ने आंकड़ों की इस बाढ़ को संभालना संभव बना दिया।

1996 में ऑनलाइन एनसायक्लोपीडिया ऑफ इंटीजर सिक्वेंसेस सामने आया जिसमें शृंखलाओं की संख्या को लेकर कोई पाबंदी नहीं थी। मार्च 2023 तक इसमें 3 लाख 60 हज़ार प्रविष्टियां थीं। इसमें कोई व्यक्ति अपनी शृंखला प्रस्तुत कर सकता है; उसे सिर्फ यह समझाना होगा कि वह शृंखला कैसे उत्पन्न हुई और उसमें दिलचस्प बात क्या है। यदि इन मापदंडों पर खरी उतरी तो उसे प्रकाशित कर दिया जाता है।

इस एनसायक्लोपीडिया में कुछ तो स्वत:स्पष्ट प्रविष्टियां हैं – जैसे अभाज्य संख्याओं की शृंखला (2, 3, 5, 7, 11…) या फिबोनाची शृंखला (1, 1, 2, 3, 5, 8, 13….)। किंतु ऐसी शृंखलाएं भी हैं – टू-बाय-फोर स्टडेड लेगो ब्लॉक्स की एक निश्चित संख्या (n) की मदद से एक स्थिर मीनार बनाने के तरीकों की संख्या। या ‘लेज़ी कैटरर्स शृंखला’ (1, 2, 4, 7, 11, 16, 22, 29,…) या किसी केक को n बार काटकर अधिकतम कितने टुकड़े प्राप्त हो सकते हैं।

यह एनसायक्लोपीडिया दरअसल सारी शृंखलाओं का एक संग्रह बनाने का प्रयास है। लिहाज़ा, यह संख्याओं की लोकप्रियता को आंकने का एक साधन भी बन गया है। कोई संख्या इस संग्रह में जितनी अधिक मर्तबा सामने आती है, उतनी ही वह दिलचस्प है। कम से कम फिलिप गुग्लिएमेटी का यह विचार है। अपने ब्लॉग डॉ. गौलू पर उन्होंने लिखा था कि उनके एक गणित शिक्षक ने दावा किया था कि 1548 में कोई विशेष गुण नहीं हैं। लेकिन ऑनलाइन एनसायक्लोपीडिया में यह संख्या 326 बार प्रकट होती है। थॉमस हार्डी ने जिस संख्या 1729 को नीरस माना था वह इस एनसायक्लोपीडिया में 918 बार नज़र आती है।

तो गुग्लिएमेटी सचमुच नीरस संख्याओं की खोज में जुट गए। यानी ऐसी संख्याएं जो एनसायक्लोपीडिया में या तो कभी नहीं दिखतीं या बहुत कम बार दिखती हैं। संख्या 20,067 की यही स्थिति पता चली। इस वर्ष मार्च तक यह वह सबसे छोटी संख्या थी जो एक भी शृंखला का हिस्सा नहीं थी। इसका कारण शायद यह है कि इस एनसायक्लोपीडिया में किसी भी शृंखला के प्रथम 180 पदों को शामिल किया जाता है। अन्यथा हर संख्या धनात्मक पूर्ण संख्याओं की सूची में तो आ ही जाएगी। इस लिहाज़ से देखा जाए तो संख्या 20,067 काफी नीरस लगती है जबकि 20,068 की 6 प्रविष्टियां मिलती हैं। वैसे यह कोई स्थायी अवस्था नहीं है। यदि कोई नई शृंखला खोज ली जाए, तो 20,067 का रुतबा बदल भी सकता है। बहरहाल, एनसायक्लोपीडिया संख्या की रोचकता का कुछ अंदाज़ तो दे ही सकता है।

वैसे बात इतने पर ही नहीं रुकती और यह एनसायक्लोपीडिया संख्याओं के अन्य गुणों की खोजबीन का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। लेकिन शायद वह गहन गणित का मामला है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/C2153300-5B7A-482E-8AEB009DB2786861_source.jpg?w=590&h=800&656AAAA1-1609-4D50-93AFBAE147A6F246