चिकित्सा में महत्व के चलते जोंक पतन – ज़ुबैर सिद्दिकी

धुनिक युरोप के इतिहास में जाने-माने ट्यूलिप उन्माद और रियल एस्टेट का जुनून सवार होने के बाद 19वीं सदी में जोंक चिकित्सा की एक नई सनक सवार हुई थी। लेकिन खून चूसने वाले ये अकशेरुकी प्राणि, युरोपीय चिकित्सकीय जोंक (Hirudo medicinalis), चिकित्सा सम्बंधित उन्माद के चलते विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए थे। वैसे इन नन्हें जंतुओं ने मौसम की भविष्यवाणी में भी अपना नाम दर्ज कराया था।

वास्तव में चिकित्सीय उपचार के लिए जोंक का उपयोग सबसे पहले मिस्र में किया गया और आगे चलकर यूनान, रोम और भारत में भी इनका उपयोग होने लगा। जोंक को मुख्य रूप से शरीर के विभिन्न द्रवों को संतुलित करने के उद्देश्य से खून चुसवाने के लिए उपयोग किया जाता था। जबकि यूनानी चिकित्सक, विभिन्न अन्य रोगों, जैसे गठिया, बुखार और बहरेपन, के इलाज में भी जोंक का उपयोग किया करते थे। ये नन्हें जीव बड़ी आसानी से अपने तीन बड़े जबड़ों से त्वचा पर चिपक जाते थे और लार में प्राकृतिक निश्चेतक और थक्कारोधी गुण की मदद से रक्त चूसने लगते थे। इस तरह से रोगी को बिलकुल दर्द नहीं होता था और उपचार के बाद बस एक हल्का निशान रह जाता था जो समय के साथ  ठीक हो जाता था। 

लंबे समय से चली आ रही यह पद्धति उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में तब काफी सुर्खियों में रही जब पेरिस स्थित वाल-डी-ग्रे के प्रमुख चिकित्सक डॉ. फ्रांस्वा-जोसेफ-विक्टर ब्रूसे ने युरोपीय चिकित्सकीय जोंक उपचार को एक रामबाण उपचार के रूप में प्रचारित किया। ब्रूसे का मानना था कि सभी बीमारियों का मूल कारण है सूजन, और इसके इलाज के लिए रक्तस्राव सबसे उचित उपचार है। चूंकि यह सुरक्षित था और इसके लिए किसी विशेष कौशल की आवश्यकता भी नहीं थी, इसलिए जोंक की मांग में निरंतर वृद्धि होती गई। यहां तक कि कैंसर से लेकर मानसिक बीमारी सहित विभिन्न बीमारियों के इलाज में जोंक का खूब उपयोग किया जाने लगा।

इनकी मांग इतनी अधिक थी कि 1830 से 1836 तक फ्रांस्वा ब्रूसे के अस्पताल में ही 20 लाख से अधिक जोंकों का उपयोग किया गया जबकि फ्रांस के अन्य अस्पतालों में चरम लोकप्रियता के वर्षों में सालाना 5,000 से 60,000 जोंकों का उपयोग किया गया।

जोंक को रक्त निकालने के लिए एक बार में 20 से 45 मिनट तक चिपकाया जाता था। चूंकि एक जोंक केवल 10 से 15 मिलीलीटर तक ही खून चूस सकती है, इसलिए विभिन्न प्रकार के उपचार के लिए अलग-अलग डोज़ भी तय किए जाते थे – जैसे निमोनिया के लिए 80 जोंक और पेट की सूजन के लिए 20 से 40 जोंक।

यह काफी दिलचस्प बात है कि विक्टोरिया युग में जोंक ने चिकित्सा के साथ फैशन और कला को भी प्रभावित किया था। महिलाओं की पोशाकों पर जोंक के चित्र काढ़े जाते थे और औषधालय बड़े-बड़े पात्रों में जोंक का प्रदर्शन करते थे। और तो और, ब्रिटेन के सर्वोच्च अधिकारी लॉर्ड चांसलर थॉमस एर्स्किन जोंक को अपने सबसे प्रिय पालतू जानवर के रूप में पालने लगे थे।

जोंक के प्रति यह दीवानगी जोंक की आबादी को गंभीर रूप से प्रभावित करने लगी। कुछ सरकारों ने इन्हें विलुप्ति से बचाने के लिए वन्यजीव संरक्षण कानून लागू किया और जोंक के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के साथ इनके संग्रहण को भी नियंत्रित किया। 1848 में, रूस ने जोंक के प्रजनन काल के दौरान जोंक संग्रह पर प्रतिबंध लगाया था। जोंक को कृत्रिम रूप से पालने व संवर्धन की भी कोशिशें की गईं।

लेकिन इनके संवर्धन तथा व्यावसायीकरण में कई चुनौतियां थीं। आम तौर पर उपयोग की गई जोंक को खाइयों या तालाबों में फेंक दिया जाता था, जिससे प्रजातियों का अत्यधिक दोहन होता था। इसी के साथ कृषि के लिए जल निकासी और दलदली भूमि के पुनर्विकास ने उनकी आबादी को और कम कर दिया। कई प्रयासों के बावजूद, 20वीं सदी की शुरुआत तक कई स्थानों पर चिकित्सीय जोंक लुप्तप्राय हो गए थे।

दरअसल, जोंक उपचार से कुछ फायदे थे तो कुछ नुकसान भी थे। जहां इस उपचार के बाद रोगी दर्द से राहत, सूजन में कमी और रक्त परिसंचरण में सुधार महसूस करते थे, थ्रम्बोसिस जैसी समस्याओं में राहत पाते थे, वहीं इससे खून की कमी, एनीमिया, संक्रमण और एलर्जी जैसी समस्याओं की संभावना रहती थी। इससे सिफिलस, तपेदिक और मलेरिया जैसी बीमारियां भी फैल सकती थी। इसके अलावा, कई रोगियों ने जोंक के प्रति भय और घृणा के कारण मनोवैज्ञानिक समस्याओं का अनुभव किया।

जोंक के लुप्तप्राय होने को छोड़ भी दिया जाए तो इनके उपयोग में कमी का एक कारण चिकित्सा विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास है जिसने कई बीमारियों के लिए अधिक प्रभावी उपचार प्रदान किए। इसके अलावा रोगाणु सिद्धांत तथा चिकित्सा विज्ञान में सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छता के उदय होने से संक्रामक रोगों की घटनाओं और प्रसार में कमी आई। हालांकि 20वीं सदी के मध्य तक जोंक उपचार को काफी हद तक छोड़ दिया गया था लेकिन कुछ देशों में वैज्ञानिक अनुसंधान और विनियमन के साथ जोंक उपचार को एक मूल्यवान पूरक चिकित्सा के रूप में देखा जा रहा है। आजकल जोंक का प्रजनन युरोप और यूएसए की कुछ प्रयोगशालाओं में किया जा रहा है। 

मौसम भविष्यवाणी

दरअसल, जेनर ने अपनी कविता में बारिश के आगमन कई ऐसे कुदरती संकेतों का ज़िक्र किया था – जैसे मोर का शोर मचाना, सूर्यास्त का पीला पड़ जाना वगैरह। लेकिन मेरीवेदर का ध्यान कविता के उस हिस्से पर गया जहां जेनर ने कहा था, “जोंक परेशान हो जाती है, अपने पिंजड़े के शिखर पर चढ़ जाती है।

जॉर्ज मेरीवेदर नामक एक ब्रिटिश चिकित्सक और आविष्कारक ने जोंक को औषधीय उपयोग से परे देखा। एडवर्ड जेनर की कविता से प्रेरित होकर उन्होंने एक ऐसा उपकरण (टेम्पेस्ट प्रोग्नॉस्टिकेटर) बनाया जो जोंक की कथित रहस्यमयी क्षमता का उपयोग कर तूफानों की भविष्यवाणी करता था।

मेरीवेदर द्वारा तैयार किए गए तूफान-सूचक में बारह बोतलों को एक घेरे में जमाया गया था। प्रत्येक बोतल में कुछ इंच बारिश का पानी भरा गया था और प्रत्येक बोतल में एक-एक जोंक रखी गई थी। जोंक को इस तरह रखा गया था कि वे एक-दूसरे को देख सकती थीं और एकांत कारावास की पीड़ा से मुक्त रहती थीं।

सामान्य परिस्थितियों में सभी जोंक बोतल में नीचे पड़ी रहती थीं लेकिन बारिश आने से पहले वे ऊपर चढ़ने लगती थीं। और ऊपर चढ़कर जब वे बोतल के मुंह तक पहुंच जाती थीं, तब वहां लगी एक छोटी व्हेलबोन पिन सरक जाती थी और उपकरण के केंद्र में लगी घंटी बजने लगती थी। जितनी अधिक जोंकें ऊपर की ओर बढ़ती थीं उतनी ही अधिक बार घंटी बजती थी। वैसे मेरीवेदर ने यह भी देखा कि कुछ जोंक बढ़िया संकेत देती थीं जबकि अन्य निठल्ली पड़ी रहती थीं और अपनी जगह से टस से मस नहीं होती थीं।

मेरीवेदर ने महीने भर अपने उपकरण का परीक्षण किया और व्हिटबाय फिलॉसॉफिकल सोसाइटी को आसन्न तूफानों की सूचना भेजते रहे। हालांकि उन्होंने अपनी असफलताओं की सूचना नहीं दी थी। एक अखबार के मुताबिक इस उपकरण ने अक्टूबर 1850 के विनाशकारी तूफान की सटीक भविष्यवाणी की थी, जिसके बाद इसे मान्यता मिली और 1851 में हाइड पार्क में इसे सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया गया।

हालांकि, मेरीवेदर का यह तूफान सूचक उतना व्यावहारिक नहीं था जितना वे सरकार को विश्वास दिला रहे थे। यह उपकरण न तो तूफान की दिशा बताता था और न ही इससे तूफान आने का सटीक समय पता चलता था। इसके अलावा, उपकरण की सबसे बड़ी कमी थी जोंक के लिए मासिक आहार की व्यवस्था और हर पांचवे दिन इसके पानी को बदलना। ऐसे में इसका नियमित रखरखाव थोड़ा मुश्किल काम था और विशेष रूप से जहाज़ों पर मौसम पूर्वानुमान के लिए यह अव्यावहारिक था। इसकी तुलना में स्टॉर्म ग्लास अधिक व्यावहारिक विकल्प के रूप में उभरा।

स्टॉर्म ग्लास एक कांच का उपकरण है जिसमें आम तौर पर कपूर, कुछ रसायन, पानी, एथेनॉल और हवा का मिश्रण होता है। ऐसा माना जाता था कि तरल में क्रिस्टल और बादल के बनने से मौसम में आगामी बदलावों का संकेत मिलता है। हालांकि, यह जोंक की तुलना में कम प्रभावी था लेकिन उपयोग में अधिक व्यवहारिक होने के कारण इसे दशकों तक उपयोग किया जाता रहा। मेरीवेदर का मूल तूफान भविष्यवक्ता तो शायद कहीं खो गया है, लेकिन लगभग एक सदी बाद 1951 में प्रदर्शनी के लिए इसकी कई प्रतिकृतियां बनाई गई थीं।

युरोपीय औषधीय जोंक और तूफान सूचक की आकर्षक कथाएं 19वीं सदी के विज्ञान और सामाजिक विचित्रताओं को एक बहुआयामी दृष्टिकोण प्रदान करती हैं। विलुप्त होने की कगार से लेकर मौसम के भविष्यवक्ता के एक संक्षिप्त कार्यकाल तक, जोंक ने उन क्षेत्रों का भ्रमण किया जिन्होंने इतिहास को आकार दिया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या मनुष्य हमेशा से इतना ही हिंसक था

मानवविज्ञानियों के बीच यह बहस का विषय रहा है कि क्या मनुष्य सदा से इतना ही क्रूर और हिंसक था, या पहले कम हिंसक था और अब अधिक हो गया है। और इस मामले में दो मत रहे हैं: पहला, खेती की शुरुआत होने के पहले तक मानव सभ्यताएं शांत-स्वभावी थीं और मैत्रीपूर्ण माहौल था; दूसरा, कृषि के पहले मानव बस्तियां क्रूर थीं और लड़ने को तत्पर थीं, और जब उन्होंने मिल-जुल कर खेती करना शुरू किया तो शांतिपूर्ण हो गईं।

लेकिन इनमें से किसी भी मत के पक्ष में ठोस सबूत नहीं मिले थे, और दोनों ही मतों पर संदेह बना रहा। हालिया अध्ययन इसी सवाल पर कोई मत बनाने का प्रयास है, और निष्कर्ष है कि इतिहास में मनुष्य की प्रवृत्ति को किसी एक खांचे, अधिक शांत या अधिक हिंसक, में नहीं रखा जा सकता। कोई मानव समाज कब-कितना हिंसक रहा इसे एक सीधी ऊपर जाती या सीधी नीचे उतरती रेखा से नहीं दर्शाया जा सकता है।

बार्सिलोना विश्वविद्यालय के आर्थिक इतिहासकार जियोकोमो बेनाटी और उनके साथियों द्वारा नेचर ह्यूमन बिहेवियर में प्रकाशित नतीजों के अनुसार, दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग कारणों से कई बार हिंसा भड़की और शांति बनी।

इन निष्कर्षों तक पहुंचने के लिए शोधकर्ताओं ने वर्तमान तुर्की, ईरान, इराक, सीरिया, लेबनान, इस्राइल और जॉर्डन में खुदाई में पाए गए कंकालों का विश्लेषण किया। अध्ययन में इन स्थानों पर 12,000 ईसा पूर्व से 400 ईसा पूर्व काल तक के 3500 से अधिक मानव कंकालों को देखा गया। उन्होंने पाया कि मानव समाज में सामाजिक-आर्थिक उथल-पुथल और बदलती जलवायु के दौर में पारस्परिक हिंसा अधिक दिखती है – मुख्य रूप से सिर पर आघात के मामले काफी मिलते हैं।

फिर शोधकर्ताओं ने उन खोपड़ियों को ध्यान से देखा जो ‘टोपी-किनारे की रेखा’ के ऊपर क्षतिग्रस्त हुई थीं। टोपी-किनारे की रेखा कपाल पर एक ऐसी काल्पनिक रेखा है जिसके आधार पर मानवविज्ञानी बताते हैं कि चोट किसी दुर्घटना के कारण लगी है या इरादतन प्रहार किया गया था। मसलन गिरने के कारण लगने वाली चोटें आंख, नाक और भौंह के आसपास लगती हैं, जबकि खोपड़ी के ऊपरी हिस्से पर चोट किसी प्रहार के कारण लगती है।

इसके अलावा उन्होंने हथियार से सम्बंधी चोटों की पुष्टि के लिए कंकाल के अन्य हिस्सों की भी जांच की, जैसे कि घोंपने के निशान या बचाव करते समय हड्डी में आया फ्रैक्चर वगैरह। हालांकि, शोधकर्ताओं ने चोट के इन निशानों पर कम भरोसा किया, क्योंकि इनमें यह पहचानना मुश्किल है कि ये निशान प्रहार के नतीजे हैं या दुर्घटना के। फिर भी विश्लेषण से यह पता चलता है कि प्राचीन मध्य पूर्व में हिंसा 6500 से 5300 साल पहले तक ताम्रपाषाण युग के दौरान चरम पर थी। इसके बाद प्रारंभिक और मध्य कांस्य युग के दौरान यह बहुत कम हो गई क्योंकि समूहों ने आक्रामक व्यवहार को नियंत्रित करने की अपनी क्षमता को मज़बूत कर लिया था। लौह युग की शुरुआत में, करीब 3000 साल पहले, फिर से बढ़ गई थी।

मध्य पूर्वी क्षेत्र में ताम्रपाषाण काल एक संक्रमणकाल था। बस्तियां फैल रही थीं, राज्य बनने लगे थे, और लकड़ी व पत्थर के औज़ारों की जगह धातु के औज़ार लेते जा रहे थे। बढ़ती आबादी, अधिक हकदारी तथा बेहतर हथियारों के चलते हिंसा बढ़ने लगी।

इसी तरह, लौह युग में हथियारों की गुणवत्ता कांस्य युग से बेहतर हो गई थी और असीरियन साम्राज्य के सत्ता में आने के साथ ही राजनैतिक पुनर्गठन भी हुआ था। और तो और, राजनैतिक और तकनीकी उथल-पुथल के अलावा यह क्षेत्र एक बड़े जलवायु परिवर्तन से भी गुज़रा – करीब 300 साल लंबा सूखा पड़ा, जिसने हज़ारों लोगों को विस्थापित कर दिया और भीषण अकाल पड़ा।

ये निष्कर्ष वर्तमान जलवायु परिवर्तन सम्बंधी चुनौती के लिए एक कड़ी चेतावनी देते हैं। कई विशेषज्ञों की चिंता है कि जैसे-जैसे पृथ्वी का तापमान बढ़ेगा, वैसे-वैसे मनुष्यों में हिंसक संघर्ष भी बढ़ेगा। लेकिन साथ ही शोधकर्ता अपने नतीजों के बारे मे आगाह भी करते हैं कि ये नतीजे समूह के व्यवहार को दर्शाते हैं, ये एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति से बर्ताव के बारे में नहीं हैं। अलबत्ता, इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि चरम जलवायु घटनाओं से संघर्ष उपज सकता है। लेकिन इस बात के भी प्रमाण हैं कि जब ऐसी संस्थाएं मौजूद होती हैं जो हिंसा को कम कर सकती हैं तो संघर्ष को कम किया जा सकता है।

बहरहाल, इतिहास से सबक लेकर ऐहतियात बरतने और संघर्षों को टालने की योजना बनाने में कोई बुराई नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सबसे प्राचीन काष्ठकारी

गभग पांच लाख साल पहले मध्य अफ्रीका के प्राचीन मनुष्यों ने पेड़ों को काटकर खुदाई के औज़ार, फच्चर और अन्य चीज़ें बनाई थीं। 1950-60 के दशक में ज़ाम्बिया के कलाम्बो फॉल्स नामक पुरातात्विक स्थल पर खुदाई के दौरान लकड़ी की ऐसी वस्तु मिली थी जो किसी बड़े ढांचे का हिस्सा लगती थी। लेकिन तब यह पता नहीं चल पाया था कि यह कितनी पुरानी है, इसे किसने बनाया था, और ना ही यह समझ आया था कि वह पूरा ढांचा क्या रहा होगा। लेकिन हो सकता है कि यह एक चौपाल था, या आश्रय था, या कुछ और।

ढांचा चाहे जो रहा हो लेकिन नेचर पत्रिका की एक रिपोर्ट बताती है कि हमसे बहुत पहले अस्तित्व में रहे होमिनिन लोग लकड़ी का काम कर रहे थे, शायद होमो सेपिएन्स के आगमन से एक लाख साल पहले।

युनिवर्सिटी ऑफ लिवरपूल के पुरातत्वविद लैरी बरहैम और उनकी टीम ने 2000 के दशक में आधुनिक तकनीकों के साथ पुन: इस स्थल पर खुदाई शुरू की। हालांकि वे लकड़ी के औज़ारों का विश्लेषण करने की मंशा से नहीं बल्कि पत्थर के औज़ार खोजने गए थे। बहरहाल, खुदाई में उन्हें लकड़ी के कई ऐसे टुकड़े मिले जिन्हें, लगता था कि तराशा गया है। साथ ही उन्हें लकड़ी का एक 1.4 मीटर लंबा लट्ठा भी मिला, जिसके सिरे संकरे थे और सिरों को एक ओर से काट-छील कर एक खांचा बनाया गया था, जिस पर एक अन्य बड़ी लकड़ी टिकी हुई थी।

वहां मिली कई लकड़ी की वस्तुओं पर इरादतन तराशने के निशान मिले थे (जैसे खुरचने के)। ये निशान वैसे ही थे जैसे होमो सेपियन्स द्वारा उपयोग किए जाने वाले अन्य जल-जमाव वाले स्थानों पर मिली लकड़ी की वस्तुओं पर मिले थे। इनमें से एक छोटी लकड़ी ऐसी लग रही थी जैसे वह खुदाई के लिए हो; दूसरी फच्चरनुमा आकृति लग रही थी।

लेकिन खुदाई में मिलीं लकड़ी की दो बड़ी वस्तुएं क्या होंगी यह अस्पष्ट था। ये काष्ठकृतियां कुछ लिंकन लॉग्स खिलौने जैसी थीं जिनके सिरों पर चौड़े खांचे होते हैं, जिनके ज़रिए उन्हें एक-दूसरे में लंबवत फंसाया जा सकता है। बरहैम का कहना है कि खुदाई में मिली लकड़ियों पर खांचे भी शायद इसी उद्देश्य से बनाए गए होंगे। शायद वे मछली पकड़ने के लिए मचान बना रहे होंगे या कोई ऊंचा रास्ता या आश्रय स्थल बना रहे होंगे। फिलहाल ये सिर्फ अनुमान हैं, और सामग्री मिले तो बेहतर अनुमान लगाए जा सकेंगे।

ल्यूमिनिसेंस डेटिंग से पता चलता है कि ये बड़ी लकड़ियां कम से कम 4,76,000 वर्ष पुरानी हैं, और कुछ छोटे औज़ार इनसे थोड़ बाद के हैं। हालांकि कलाम्बो फॉल्स में होमिनिन के कोई अवशेष नहीं मिले हैं, लेकिन एक अन्य स्थल से तीन लाख साल पुरानी एक खोपड़ी मिली है जिसकी पहचान होमो हाईडलबरजेंसिस के रूप में की गई है।

वैसे अन्य पुरातत्वविदों को होमिनिन द्वारा काष्ठकारी पर अचरज नहीं हुआ है। इसी समय के आसपास, अफ्रीका और दुनिया के अन्य हिस्सों से लकड़ी पर जुड़े पत्थर के औज़ार मिले हैं। इस स्थल की और अधिक खुदाई से यह भी पता चल सकता है कि क्या लकड़ी का परिरक्षण किया जाता था।(स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन मानव मज़े के लिए भी पत्थर तराशते थे

वैज्ञानिकों को 1960 के दशक में उत्तरी इस्राइल के 14 लाख साल पुराने एक पुरातात्विक स्थल ‘उबेदिया’ की खुदाई में पत्थरों के औज़ारों (जैसे कुल्हाड़ी वगैरह) के साथ कंचे जितने बड़े करीब 600 पत्थर के गोले भी मिले थे। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि ये गोले कैसे और किसलिए बनाए गए थे। कुछ लोगों का अनुमान था कि ये गोले औज़ार बनाते वक्त बचे हुए पत्थर हैं। कुछ का विचार था कि, हो न हो, ये जानबूझकर बनाए गए होंगे।

इस गुत्थी को सुलझाने के लिए हिब्रू युनिवर्सिटी ऑफ जेरूसलम के कंप्यूटेशनल पुरातत्वविदों के एक दल ने इन ‘गोलाभों’ की त्रि-आयामी आकृति का विश्लेषण किया। इसके लिए उन्होंने एक नया, परिष्कृत सॉफ्टवेयर विकसित किया। यह सॉफ्टवेयर गोलाभ की सतह की कटानों के ढलानों (कोण) को माप सकता था, सतह की वक्रता की गणना कर सकता था, और संहति केंद्र पता कर सकता था। इस सॉफ्टवेयर की मदद से उन्होंने उबेदिया से प्राप्त 150 गोलाभों का विश्लेषण किया। इस आधार पर शोधकर्ता रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में लिखते हैं कि उबेदिया से प्राप्त गोलाभ इरादतन की गई शिल्पकला हैं, ना कि औज़ार बनाने के सहत्पाद। उन्हें प्रत्येक कंचे में एक बड़ी ‘प्राथमिक सतह’ मिली है जो आसपास से कई छोटे कटानों से घिरी है, इससे समझ आता है कि पहले किसी चट्टान से एक टुकड़ा काटकर अलग किया गया और फिर उस टुकड़े को चारों ओर से तराशकर गोल स्वरूप दिया गया।

शोधकर्ता बताते हैं कि इस बात की संभावना बहुत कम है कि ये कंचे प्राकृतिक क्रियाओं द्वारा बने होंगे। प्राकृतिक क्रियाओं से बनी संरचनाओं की सतह काफी चिकनी होती है। उदाहरण के लिए, नदियों में पाए जाने वाले पत्थर पानी द्वारा कटाव के कारण अत्यधिक चिकने हो जाते हैं, और वे पूर्ण गोलाकार भी नहीं होते। उबेदिया में पाए जाने वाले गोलाभों की सतह वैसी खुरदरी है जैसे किसी पत्थर को तराशने में होती है। और उनमें से कई कंचे तो एकदम गोल हैं, जो केवल कोई सोच-समझकर ही बना सकता है।

शोध के प्रमुख लेखक एंटोनी मुलर बताते हैं कि ऐसा लगता है कि 14 लाख साल पहले होमिनिन्स के पास अपने मन (दिमाग) में एक गोले की कल्पना करने और उस कल्पना को तराशकर आकार देने की क्षमता थी। ऐसा करने के लिए एक योजना और दूरदर्शिता के साथ-साथ मानवीय निपुणता और कौशल लगते हैं। इसके अलावा यह उनमें सुंदरता और सममिति की सराहना के उदाहरण भी पेश करता है।

अपने सॉफ्टवेयर से शोधकर्ता यह तो पता कर पाए कि प्राचीन मनुष्यों ने इन्हें कैसे बनाया लेकिन वे यह गुत्थी नहीं सुलाझा पाए कि इन्हें क्यों बनाया। लेकिन उनका अनुमान है कि उन्होंने ये गोले महज़ मज़े के लिए बनाए होंगे।

अन्य वैज्ञानिकों की टिप्पणी है इन गोलाभ की सतह पर बने कई निशानों से यह जानना असंभव हो जाता है कि निर्माण के शुरुआती चरणों में गोलाभ कैसे दिखते होंगे। उनका सुझाव है कि शोधकर्ता यदि अंतिम रूप ले चुके गोलाभों की आपस में तुलना करने की बजाय उन गोलाभों से करते जिन्हें गोलाभ बनाने की प्रक्रिया में अधूरा छोड़ दिया गया था तो अधिक स्पष्ट तस्वीर बन सकती थी।

इसके अलावा इस नई तकनीक की विश्वसनीयता परखने के लिए इसे अन्य पुरानी कलाकृतियों, जैसे अफ्रीका के खुदाई स्थलों से प्राप्त 20 लाख साल पुराने गोलाभों पर लागू करके देखना फायदेमंद होगा। (स्रोत फीचर्स)

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किसी समय मानव प्रजाति विलुप्ति की कगार पर थी

गभग 9 लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका में रहने वाले मनुष्यों के पूर्वजों को एक खतरनाक दौर का सामना करना पड़ा था। साइंस में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार हमारी प्रजाति (होमो सेपियन्स) के उद्भव से काफी पहले प्राचीन होमो पूर्वजों की जनसंख्या में इतनी गंभीर गिरावट हुई थी कि उनकी विलुप्ति का संकट पैदा हो गया था। उस समय जनसंख्या घटकर मात्र 1280 रह गई थी जो लगभग 1 लाख 17 हज़ार वर्षों तक स्थिर रही।

युनिवर्सिटी ऑफ चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के जनसंख्या आनुवंशिकीविद और इस अध्ययन के सह-लेखक हैपेंग ली के अनुसार इतिहास में एक लंबा दौर रहा जब 98.7 प्रतिशत मानव पूर्वजों की आबादी का खात्मा हो चुका था। उनका कहना है कि अफ्रीका और युरेशिया में 9.5 लाख से 6.5 लाख वर्ष के बीच जीवाश्मों की बहुत कमी दिखती है। उक्त खोज इस कमी की व्याख्या कर सकती है।

3 लाख साल के इस अंतराल में जनसंख्या तो काफी कम थी ही लेकिन आश्चर्यजनक बात यह है कि इतनी छोटी-सी आबादी इतने लंबे समय तक जीवित रही। अनुमान है कि इस समूह में सामाजिक बंधन मज़बूत रहे होंगे और यह पर्याप्त संसाधनों और न्यूनतम तनाव वाले एक छोटे क्षेत्र में रहती होगी।

मानव इतिहास के इस छिपे हुए अध्याय को उजागर करने के लिए शोधकर्ताओं ने नई आनुवंशिक विधियां विकसित कीं। जीनोम अनुक्रमण की आधुनिक तकनीकों ने हालिया मानव आबादियों के आकार के अध्ययन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है लेकिन प्रारंभिक पूर्वजों के बारे पद्धतिगत सीमाएं और प्राचीन डीएनए की कमी बाधा रही हैं। इस नई तकनीक ने शोधकर्ताओं को आधुनिक मनुष्यों के जीन्स के डैटा की मदद से प्राचीन जनसंख्या के उतार-चढ़ाव को समझने का मौका दिया। टीम ने जीन्स के एक विस्तृत वंशवृक्ष का निर्माण करते हुए 8 से 10 लाख साल पहले की अवधि पर ध्यान केंद्रित किया और महत्वपूर्ण वैकासिक घटनाओं का निर्धारण करने में सफल रहे।

यह काल प्रारंभिक-मध्य प्लायस्टोसिन संक्रमण का हिस्सा था जब पृथ्वी गंभीर जलवायु परिवर्तन से गुज़र रही थी और हिमनद चक्र लंबे-लंबे व भीषण हो रहे थे। ऐसा अनुमान है कि इस अवधि में अफ्रीकी क्षेत्र में काफी समय तक सूखा रहा होगा जिसने संभवतः हमारे पूर्वजों के पतन और नई मानव प्रजातियों के उद्भव में प्रमुख भूमिका निभाई होगी। ये नई प्रजातियां अंततः आधुनिक मानव, निएंडरथल और डेनिसोवन्स में विकसित हुई।

लगभग 8,13,000 साल पहले मानव-पूर्वज जनसंख्या में फिर से वृद्धि शुरू हुई। हालांकि इस पुनरुत्थान के कारण तो स्पष्ट नहीं हैं लेकिन इस लंबे अंतराल ने मनुष्यों की आनुवंशिक विविधता पर गहरा प्रभाव डाला होगा जिसका असर कई लक्षणों (जैसे मस्तिष्क का आकार) पर पड़ा होगा। ऐसा अनुमान है कि इस अवधि में दो-तिहाई आनुवंशिक विविधता नष्ट हो गई थी।

इस शोध अध्ययन से लगता है कि यह मानव विकास में एक महत्वपूर्ण चरण रहा होगा और यह कई सवाल उठाता है। लेकिन कई पुरातत्वविद इन निष्कर्षों की पुष्टि के लिए अतिरिक्त पुरातात्विक और जीवाश्म साक्ष्य की अपेक्षा करते हैं। जैसे, इस अध्ययन में वैश्विक जनसंख्या में भारी कमी की जानकारी दी गई है लेकिन अफ्रीका के बाहर स्थित पुरातात्विक स्थलों की प्रचुर संख्या इस निष्कर्ष की पुष्टि नहीं करती। अन्य विशेषज्ञों के अनुसार यह कोई विश्वव्यापी परिघटना न होकर मात्र एक छोटे से क्षेत्र में सीमित थी। (स्रोत फीचर्स)

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अचानक होने वाले जेंडर असंतोष के दावों में दम नहीं है

ई देशों में आजकल ट्रांस-जेंडर लोगों के खिलाफ कानून बनाने की वकालत की जा रही है। इसके पीछे प्रमुख तर्क यह दिया जा रहा है कि अपने कुदरती लिंग के प्रति असंतोष की भावना छूत की तरह फैलती है और इसलिए ऐसे लोगों से दूर ही रहना बेहतर है। यह दावा एक अध्ययन के आधार पर किया गया था। इस अध्ययन में 1600 ऐसे ट्रांस-जेंडर मामलों का विवरण दिया गया था जो संभवत: सामाजिक छूत के परिणाम हैं। लेकिन इस अध्ययन को संस्थागत समीक्षा समिति ने नैतिकता सम्बंधी स्वीकृति नहीं दी और इसे वापिस ले लिया गया है।

उक्त सर्वेक्षण में अचानक प्रारंभ होने वाले जेंडर असंतोष की छानबीन की गई थी, जिसे सामाजिक रूप से छूत की संज्ञा दी गई है। इस धारणा में माना जाता है कि किशोरों में अपने कुदरती जेंडर के प्रति असंतोष की भावना दोस्तों या सोशल मीडिया के ज़रिए ट्रांस-जेंडर लोगों से संपर्क से पैदा हो सकती है। इस तरह के ‘रोग’ की उपस्थिति ट्रांस-जेंडर लोगों के अधिकारों के विरुद्ध एक प्रमुख दलील रही है, हालांकि चिकित्सा विशेषज्ञ ऐसे किसी सिंड्रोम को खारिज कर चुके हैं।

वर्ष 2021 में अमेरिकन सायकोलॉजिकल एसोसिएशन तथा 61 स्वास्थ्य प्रदाता संगठनों ने एक पत्र के माध्यम से ऐसे किसी सिंड्रोम के अस्तित्व को खारिज कर दिया था। इस सम्बंध में वैज्ञानिक प्रमाण बढ़ते जा रहे हैं कि यह ट्रांस-जेंडर किशोरों के अनुभवों को प्रतिबिंबित नहीं करता और आज यदि ज़्यादा युवा लोग जेंडर सम्बंधी मशवरे की तलाश कर रहे हैं तो इसका कारण सामाजिक छूत नहीं है। फिर भी इस धारणा का इस्तेमाल यूएस में ट्रांस विरोधी कानूनों के समर्थन में किया जा रहा है।

वर्ल्ड प्रोफेशनल एसोसिएशन फॉर ट्रांस-जेंडर हेल्थ के पूर्व अध्यक्ष एली कोलमैन का कहना है कि आज की स्थिति में तो इस सिंड्रोम को एक परिकल्पना भी नहीं कहा जा सकता।

कई ट्रांस-जेंडर लोग जेंडर असंतोष महसूस करते हैं। अर्थात जन्म के समय उनकी घोषित लैंगिक पहचान और उनकी जेंडर पहचान आपस में मेल नहीं खाती। जेंडर पहचानों के बीच इस गफलत को 2018 में ब्राउन विश्वविद्यालय की लिसा लिटमैन ने त्वरित स्थापित जेंडर असंतोष (रैपिड ऑनसेट जेंडर डिसफोरिया यानी आरओजीडी) का नाम दिया था।

लिटमैन ने एक सर्वेक्षण में ट्रांस-जेंडर किशोरों के पालकों से अपने बच्चे में जेंडर असंतोष के अचानक प्रकट होने को लेकर सवाल किए थे और पूछा था कि क्या इसका सम्बंध सोशल मीडिया के अत्यधिक इस्तेमाल अथवा बच्चे के दोस्तों में ट्रांसजेंडरों की उपस्थिति से था। गौरतलब है कि इन पालकों का चुनाव ज़्यादातर ट्रांस-जेंडर विरोधी वेबसाइट्स या मंचों से किया गया था।

बाद में लिटमैन ने त्रुटि सुधार किया था जिसमें बताया गया था सर्वेक्षण में पालकों का चुनाव किस तरह की वेबसाइट्स और मंचों से किया गया था। इसमें उन्होंने कहा था कि आरओजीडी कोई औपचारिक निदान नहीं है। लेकिन तब तक यह धारणा व्यापक तौर पर घर कर चुकी थी। राजनीतिज्ञों ने भी यह प्रचारित करना शुरु कर दिया था कि दोस्तों का दबाव और सोशल मीडिया बच्चों को ट्रांस-जेंडर बना रहा है या ट्रांस-जेंडर होना एक मनोरोग है। यूएस के कई राज्यों में इस धारणा का उपयोग ट्रांस-जेंडर विरोधी कानूनों के समर्थन में किया गया और युवा लोगों के लिए जेंडर सम्बंधी देखभाल को सीमित किया गया। अलबत्ता, वर्ल्ड प्रोफेशनल एसोसिएशन फॉर ट्रांस-जेंडर हेल्थ का कहना है कि यह मात्र भय-दोहन का मामला है जिसमें लोगों को डराकर विकल्प चुनने के कहा जाता है।

इस संदर्भ में ताज़ा शोध पत्र आर्काइव्स ऑफ सोशल बिहेवियर में प्रकाशित हुआ था जिसे अब वापिस ले लिया गया है। इसके लिए भी ट्रांसजेंडर बच्चों के पालकों से उनके बच्चे के अनुभव के बारे में सवाल किए गए थे। इस अध्ययन को वापिस लेने का कारण यह था कि शोधकर्ताओं ने पालकों से उनके जवाबों को प्रकाशित करने की अनुमति नहीं ली थी।

2018 और 2023 दोनों वर्षों के अध्ययनों में सहभागियों का चयन ऐसे ऑनलाइन समुदायों से किया गया था जो ट्रांस-जेंडर बच्चों के लिए जेंडर सम्बंधी देखभाल या परामर्श के आलोचक थे। वैसे लिटमैन इस बात से असहमत हैं कि इस बात का असर पालकों के जवाबों पर पड़ा होगा।

कई विशेषज्ञों का मत है कि इस अध्ययन में एक बड़ी समस्या यह है कि इसमें बच्चों के अनुभव जानने की बजाय पालकों के सर्वेक्षण को निष्कर्षों का आधार बनाया गया है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दक्षिण पूर्व एशिया में सालन 2000 साल पहले आया था

हाल ही में दक्षिणी वियतनाम स्थित ओसीरियो नामक प्राचीन गांव से प्राप्त 2000 वर्ष पुरानी एक सिल (सिल-लोढ़ा वाली) ने कई रहस्यों को उजागर किया है। लगता है कि इस सिल का उपयोग मसाले पीसने के लिए किया जाता था; इस पर आज भी जायफल की गंध महसूस की जा सकती है। साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह दक्षिण पूर्व एशिया में मसाले पीसने का ज्ञात सबसे पहला उदाहरण है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि भारत और इंडोनेशिया से आए लोगों ने हज़ारों वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में अपनी व्यंजन परंपराओं को प्रचलित किया होगा।

ओसीरियो में सबसे पहली खुदाई 1940 के दशक में हुई थी। खुदाई से प्राप्त सामग्री से मालूम चलता है कि यह शहर एक समय में विशाल व्यापार नेटवर्क का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा होगा जो भूमध्य सागर तक फैला हुआ था। वियतनामी पुरातत्वविद कान ट्रंग किएन नुयेन को हालिया खुदाई में ऐसे उपकरण मिले हैं जिनका उपयोग आज भी मसाले पीसने के लिए किया जाता है। भारत के प्राचीन स्थलों में भी इसी तरह की वस्तुएं पाई गई थीं।

सूक्ष्मदर्शी से जांच और 200 से अधिक प्रजातियों के नमूनों से तुलना करने के बाद टीम ने सिल पर हल्दी, अदरक, लौंग, दालचीनी और जायफल सहित आठ अलग-अलग मसालों की पहचान की है। सिल पर मसालों के अवशेष जिस तरह से संरक्षित थे उससे हैरानी होती थी और कहना मुश्किल था कि ये 2000 वर्ष पुराने हैं। विशेषज्ञों के अनुसार वियतनाम की जलवायु ने इन्हें संरक्षित रखा होगा। ये मसाले आज भी दक्षिण पूर्वी एशिया में उपयोग किए जाते हैं।

वास्तव में लौंग और जायफल जैसे कई मसाले मात्र दक्षिण एशिया और पूर्वी इंडोनेशिया में पाए जाते हैं। इस प्राचीन वियतनामी शहर में इन अवशेषों के मिलने से यह स्पष्ट होता है कि पहली शताब्दी के दौरान भारत और इंडोनेशिया से आए यात्रियों के साथ से ये मसाले यहां पहुंचे होंगे। इन निष्कर्षों से कुछ हद तक दक्षिण एशिया और फुनान के बीच प्रारंभिक व्यापार की भी पुष्टि होती है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि व्यापारियों द्वारा लाए गए व्यंजनों पर स्थानीय लोगों ने अपने मसालों के साथ एक अनूठी पाक परंपरा विकसित की है। ओसीरियो में पाए जाने वाले कई मसाले संभवत: आयात किए गए थे। अदरक की किस्में अभी भी कुछ थाई और अन्य दक्षिण पूर्व एशियाई व्यंजनों में उपयोग की जाती हैं लेकिन भारत में उन्हीं व्यंजनों में नहीं डाली जातीं। नुयेन की टीम को सिल पर नारियल भी मिला है जिससे पता चलता है कि ओसीरियो में मसालों को नारियल के दूध से गाढ़ा किया जाता था। इसी तकनीक को वर्तमान दक्षिण पूर्व एशिया में सालन बनाने के लिए उपयोग किया जाता है। यानी 2000 वर्ष पुरानी परंपराएं आज भी जारी हैं। (स्रोत फीचर्स)

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क्या वाकई भलाई का ज़माना नहीं रहा?

ह काफी सुनने में आता है कि अब लोग पहले जैसे भले नहीं रहे, ज़माना खराब हो गया है, भलाई का ज़माना नहीं रहा, लोग विश्वास के काबिल नहीं रहे वगैरह-वगैरह। तो क्या वाकई ये बातें सच हैं? अपने अध्ययन में कोलंबिया युनिवर्सिटी के मनोविज्ञानी एडम मेस्ट्रोइनी और उनके दल ने इसी सवाल के जवाब की तलाश की है।

उन्होंने दशकों के दौरान किए गए विभिन्न सर्वेक्षणों के नतीजों और विभिन्न अध्ययनों के डैटा का विश्लेषण किया और पाया कि पिछले सत्तर सालों में पूरी दुनिया के लोगों ने नैतिकता के पतन की बात कही है। लेकिन इन्हीं आंकड़ों में यह भी दिखता है कि नैतिकता के व्यक्तिगत मूल्यांकन के मुताबिक तब से अब तक उनके समकालीन लोगों की नैतिकता वैसी ही है। और नेचर पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि लोगों का यह मानना कि लोगों में नैतिकता में गिरावट आई है, महज एक भ्रम है।

इन नतीजों पर पहुंचने के लिए शोधकर्ताओं ने 1949-2019 के बीच अमेरिका में नैतिक मूल्यों पर किए गए सर्वेक्षण खंगाले। और पाया कि 84 प्रतिशत सवालों के जवाब में अधिकतर लोगों ने कहा कि नैतिकता का पतन हुआ है। 59 अन्य देशों में किए गए अन्य सर्वेक्षणों में भी कुछ ऐसे ही नतीजे देखने को मिले।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने अमेरिका के प्रतिभागियों के साथ 2020 में स्वयं कई अध्ययन किए। अध्ययन में विभिन्न राजनीतिक विचारों, नस्ल, लिंग, उम्र और शैक्षणिक योग्यता के लोग शामिल थे। इसमें भी लोगों ने कहा कि उनके बचपन के समय की तुलना में लोग अब कम दयालु, ईमानदार और भले रह गए हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने उन सवालों को भी देखा जिनमें लोगों से अपने और अपने साथियों की वर्तमान नैतिकता का हाल बताने को कहा गया था। शोधकर्ताओं ने विश्लेषण के लिए उन अध्ययनों को चुना जो कम से कम दस साल के अंतराल में दोहराए गए हों ताकि एक अवधि में प्रतिभागियों के जवाबों की तुलना की जा सके।

यदि वास्तव में समय के साथ लोगों की नैतिकता का पतन हुआ होता तो प्रतिभागी पहले की तुलना में बाद वाले सर्वेक्षण में अपने साथियों के बारे में अधिक नकारात्मक कहते। लेकिन उनके जवाब बताते थे कि अपने साथियों के बारे में प्रतिभागियों के विचार समय के साथ नहीं बदले। इस आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि नैतिक पतन के बारे में लोगों की धारणा मिथ्या है।

भला लोग ऐसा क्यों सोचते हैं कि ज़माना खराब हो रहा है? शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इसका ताल्लुक चुनिंदा स्मृति जैसे कारकों से है; अक्सर अच्छी यादों की तुलना में बुरी यादें जल्दी धुंधला जाती हैं।

शोधकर्ताओं का कहना है कि नैतिक पतन की भ्रामक धारणा के व्यापक सामाजिक और राजनीतिक अंजाम हो सकते हैं। मसलन 2015 के एक सर्वेक्षण में अमेरिका के 76 प्रतिशत लोगों ने कहा कि सरकार की प्राथमिकता देश को नैतिक पतन की ओर जाने से बचाने की होनी चाहिए।

बड़ी चुनौती लोगों को यह स्वीकार कराने की है कि यह भ्रम है जो सर्वव्याप्त है। (स्रोत फीचर्स)

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ऊंचे पहाड़ों पर जीवन के लिए अनुकूलन – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

मुद्र तल से 4570 मीटर की ऊंचाई पर बसा लद्दाख का कर्ज़ोक गांव हमारे देश की सबसे ऊंची बस्ती है। आबादी है तकरीबन 1300। हिमाचल प्रदेश के कोमिक और हानले गांव भी समुद्र तल से 4500 मीटर से अधिक की ऊंचाई बसे हैं।

अनुमान है कि पूरी दुनिया में लगभग 64 लाख लोग (विश्व जनसंख्या के लगभग 0.1 प्रतिशत) समुद्र तल से 4000 मीटर या अधिक की ऊंचाई पर रहते हैं। इनमें से अधिकतर लोग 10,000 से अधिक वर्षों से दक्षिणी अमेरिका के एंडीज़ और एशिया के तिब्बत के ऊंचे मैदानी इलाकों में रहते आए हैं। कम ऊंचाई पर रहने वाले लोग जब अधिक ऊंचाई पर पहुंचते हैं तो वहां की अधिक ठंड और कम वायुमंडलीय दाब, जिसके कारण यहां ऑक्सीजन कम होती है, से तालमेल बनाने में कठिनाई होती है। तो सवाल यह है कि वहां रहने वाले लोग इसके प्रति कैसे अनुकूलित हैं और उन्हें क्या मुश्किलें पेश आती हैं?

उसमें जाने से पहले आर्थिक हालात पर एक नज़र डालते हैं। हिमालय जैसी जगहों पर बहुत कम लोगों के बसने का एक मुख्य कारण है अवसरों की कमी। अव्वल तो खेती के लिए खड़ी पहाड़ी ढलानों को सपाट या सीढ़ीदार आकार देने की आवश्यकता होती है। फिर, सिंचाई के लिए पानी एक बड़ी चुनौती है। इसके अलावा, जैसे-जैसे आप ऊंचाई पर जाते हैं तो मिट्टी को पोषण प्रदान करने वाले जीव (जैसे कवक और कृमि) कम होते जाते हैं।

ऊंचे इलाकों में मवेशियों, जैसे हिमालय में याक और एंडीज़ में लामा, अलपाका और विकुना, की चराई साल के केवल गर्म महीनों में संभव है। जहां संसाधन मिलते हैं वहां खनन किया जाता है। दुनिया की सबसे ऊंची बस्ती पेरु स्थित ला रिकोनेडा (ऊंचाई समुद्र तल से 5100 मीटर) में सोने की खान पता चलने के बाद हज़ारों लोग वहां बसना चाहते हैं। आजकल एडवेंचरस पर्यटन भी जीविका प्रदान करता है – समुद्र तल से 4950 मीटर की ऊंचाई पर स्थित नेपाल का लोबुचे गांव माउंट एवरेस्ट फतह करने की कोशिश करने वाले पर्वतारोहियों को आश्रय देता है।

फेफड़ों की क्षमता

कम ऊंचाई पर रहने वाले लोग जब अधिक ऊंचाई पर जाते हैं तो उनकी आधारभूत चयापचय दर 25-30 प्रतिशत बढ़ जाती है। आधारभूत चयापचय दर कैलोरी की वह मात्रा है जो तब खर्च होती है जब आप कुछ ना करें, पूरे दिन बिस्तर पर पड़े रहें। उच्च आधारभूत चयापचय का मतलब है कि शरीर को अधिक ऑक्सीजन चाहिए होती है जबकि हवा कम है और ऑक्सीजन भी कम है। ऐसे कम ऑक्सीजन वाले माहौल में अनुकूलित होने में कुछ हफ्ते लगते हैं।

दिलचस्प बात यह है कि अधिक ऊंचाई के लिए अनुकूलित तिब्बतियों और एंडियन्स की आधारभूत चयापचय दर मैदानों में रहने वाले लोगों के बराबर ही होती है। फोर्स्ड वाइटल केपेसिटी (FVC) श्वसन सम्बंधी एक आंकड़ा होता है। यह हवा की वह अधिकतम मात्रा है जिसे आप गहरी सांस खींचने (फेफड़ों में भरने) के बाद ज़ोर लगाकर बाहर छोड़ सकते हैं। ऊंचाई पर रहने के लिए अनुकूलित पुरुषों में यह फोर्स्ड वाइटल कैपेसिटी 15 प्रतिशत अधिक और महिलाओं में 9 प्रतिशत अधिक होती है। और प्रति सेंकड श्वास के साथ छोड़ी गई हवा भी अधिक होती है।

दक्षिण अमेरिका के मूल निवासी केचुआ जाति (इन्का लोग इसी समूह के हैं) के लोगों का सीना गहरा होता है। अधिक ऊंचाई पर पैदा हुए और पले-बढ़े इन लोगों की फोर्स्ड वाइटल कैपेसिटी समुद्र के करीब रहने वाले इनके वंश के लोगों और रिश्तेदारों की तुलना में अधिक होती है।

लगता है कि जीवन की कठिन परिस्थितियां फिटनेस सुनिश्चित करती हैं। हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जि़ले में हुए अध्ययनों से पता चलता है कि 70-74 वर्ष की आयु में भी औसत रक्तचाप 120/80 बना रहता है।

अधिक ऊंचाई पर रहने से जुड़ी कठिनाइयों के साथ कुछ फायदे भी हो सकते हैं। मई 2023 में प्लॉस वन बायोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन में मूलत: कम जीवनकाल वाले चूहों की एक नस्ल के साथ काम करते हुए शोधकर्ताओं ने पाया कि एवरेस्ट बेस कैंप जैसी कम ऑक्सीजन वाली आबोहवा में ये चूहे 50 प्रतिशत ज़्यादा जीवित रहे! (स्रोत फीचर्स)

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घुड़सवारी के प्रथम प्रमाण

नुष्य ने सबसे पहले घुड़सवारी कब की थी? इस सवाल के जवाब कई तरह से खोजने की कोशिश हुई है क्योंकि घोड़े पर सवारी करना मानव इतिहास का एक अहम पड़ाव माना जाता है।

ऐसा माना जाता है कि आजकल के रूस और यूक्रेन के घास के मैदानों (स्टेपीज़) से निकलकर लोग तेज़ी से युरेशिया में फैल गए थे। यह कोई 5300 वर्ष पहले की बात है। जल्दी ही इन यामानाया लोगों के जेनेटिक चिंह मध्य युरोप से लेकर कैस्पियन सागर के लोगों तक में दिखने लगे थे। आजकल के पुरावेत्ता इन लोगों को ‘पूर्वी चरवाहे’ कहते हैं।

लेकिन इनमें घुड़सवारी के कोई लक्षण नज़र नहीं आते थे। इसके अलावा, यामानाया स्थलों पर मवेशियों की हड्डियां भी मिली हैं और मज़बूत गाड़ियों के अवशेष भी। लेकिन घोड़ों की हड्डियां बहुत कम मिली हैं। इस सबके आधार पर पुरावेत्ताओं ने मान लिया था कि लोगों ने घोड़ों पर सवारी 1000 साल से पहले शुरू नहीं की होगी।

अब अमेरिकन एसोसिएशन फॉर एडवांसमेंट ऑफ साइन्सेज़ (AAAS) के सम्मेलन में प्रस्तुत एक अध्ययन में दावा किया गया है कि घुड़सवारी के प्रमाण प्राचीन घोड़ों की हड्डियों में नहीं, बल्कि यामानाया सवारों की हड्डियों में मिले हैं। हेलसिंकी विश्वविद्यालय के वोल्कर हेड का कहना है कि सब लोग घोड़ों को देख रहे थे और हमने मनुष्यों को देखा।

आनुवंशिक व अन्य प्रमाण बताते हैं कि घोड़ों को 3500 ईसा पूर्व में पालतू बना लिया गया था। लेकिन ऐतिहासिक स्रोतों या चित्रों में घुड़सवारी के प्रमाण इसके लगभग 2000 वर्षों बाद मिलने लगते हैं। तो कई पुरावेत्ता मानने लगे थे कि पूर्वी चरवाहे घोड़ों पर सवारी करने की बजाय अपने पशुधन के साथ पैदल ही चलते रहे होंगे।

अब यामानाया फैलाव को समझने के उद्देश्य से हेलसिंकी के मानव वैज्ञानिक मार्टिन ट्रॉटमैन और उनके साथियों ने रोमानिया, हंगरी और बुल्गारिया की कब्रों से खोदे गए डेढ़ सौ से ज़्यादा मानव कंकालों का विश्लेषण किया है। यह क्षेत्र यामानाया लोगों के फैलाव की पूर्वी सीमा पर है। विश्लेषण से पता चला कि ये लोग सुपोषित, तंदुरुस्त और अच्छे कद वाले थे। उनकी हड्डियों के रासायनिक विश्लेषण से यह भी लगता है कि इनका भोजन प्रोटीन प्रचुर था। लेकिन एक दिक्कत थी – इनके कंकालों में विशिष्ट किस्म की क्षतियां और विकृतियां नज़र आईं।

कई कंकालों में रीढ़ की हड्डियां दबी हुई थीं। ऐसा तब हो सकता है जब बैठी स्थिति में व्यक्ति को दचके लग रहे हों। कंकालों की जांघ की हड्डियों में कुछ मोटे स्थान भी नज़र आए जो टांगें मोड़कर लंबे समय तक बैठक का परिणाम हो सकते हैं। और तो और, टूटी हुई कंधे की हड्डियां, पैरों की हड्डियों में फ्रेक्चर और कशेरुकों में दरारें ऐसी चोटों से मेल खाती थीं जो या तो घोड़े द्वारा मारी गई लातों से हो सकती थीं या वैसी हो सकती थीं जो आजकल घुड़सवारों को घोड़ों पर से गिरने के कारण होती हैं।

इन लक्षणों की तुलना उन्होंने बाद के समय के ऐसे कंकालों से की जिन्हें घुड़सवारी के उपकरणों और घोड़ों के साथ दफनाया गया था जो इस बात का परिस्थितिजन्य प्रमाण है कि ये पक्के तौर पर घुड़सवार रहे होंगे। और इन लक्षणों में समानता देखी गई। लेकिन अन्य पुरावेत्ता अभी अपने विचारों को लगाम दे रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि जब तक घोड़ों की हड्डियां न मिल जाएं, जिन पर सवारी के चिंह हों, तब तक निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता।

एक समस्या यह भी है कि पुरावेत्ताओं को यामानाया स्थलों से गाड़ियां, बैल और जुएं तो मिले हैं लेकिन लगाम और ज़ीन जैसे घुड़सवारी के साधन नहीं मिले हैं। तो मामला अभी खुला है कि मनुष्यों ने घुड़सवारी कब शुरू की थी। (स्रोत फीचर्स)  

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