सूर्य के अवसान के बाद भी कुछ ग्रह साबुत रहेंगे

नासा की जेडब्ल्यूएसटी अंतरिक्ष दूरबीन ने एक असाधारण खोज की है जिससे सौर मंडल की बहुमूल्य जानकारी प्राप्त हो सकती है। जैसा कि हम जानते हैं, सूर्य लगभग 5 अरब वर्षों में एक लाल दानव में बदल जाएगा और अपने नज़दीकी ग्रहों को निगल जाएगा। लेकिन इस नई खोज से पता चला है कि इस प्रक्रिया के दौरान दूर स्थित ग्रह या तो सौर मंडल में अंदर की ओर खिंच जाएंगे या बाहर फेंक दिए जाएंगे लेकिन वे साबुत बना रह सकते हैं।

पहली बार, खगोलविदों ने कुछ श्वेत वामन तारों के आसपास सौर मंडल जैसी कक्षाओं में ग्रहों की प्रत्यक्ष छवि ली है। ये श्वेत वामन तब अस्तित्व में आते हैं जब सूर्य जैसे तारे पहले लाल दानव के रूप में फैलते हैं और फिर सिकुड़कर अंतत: पृथ्वी की साइज़ के रह जाते हैं।

वैसे तो ऐसे साबुत ग्रहों के संकेत पहले भी देखे गए हैं। ये ग्रह बाहरी सौर मंडल के बड़े ग्रहों से जैसे होते हैं जो इतने बड़े होते हैं कि अपने मूल तारों के विस्फोट को सहन कर पाएं।

श्वेत वामन सूर्य के प्रकाश की केवल 1 प्रतिशत रोशनी उत्सर्जित करते हैं और इस वजह से ये अवलोकन के लिए बढ़िया उम्मीदवार हैं। जेडब्ल्यूएसटी दूरबीन का उपयोग करते हुए, खगोलविदों ने नज़दीक के (लगभग 75 प्रकाश वर्ष दूर के) चार श्वेत वामनों का अध्ययन किया, जिसमें दो पिंड ऐसे दिखे जो ग्रह जैसे लगते हैं। इनमें एक बृहस्पति से 1.3 गुना वज़नी है और शनि की तरह परिक्रमा करता है जबकि दूसरा, बृहस्पति से 2.5 गुना वज़नी है और नेपच्यून की तुलना में थोड़ी बड़ी कक्षा में परिक्रमा करता दिखा।

स्पेस टेलीस्कोप साइंस इंस्टीट्यूट की खगोलशास्त्री सूज़न मुलाली का विचार है कि यह एक वास्तविक संकेत है कि बृहस्पति और शनि जैसे ग्रह अपने सूर्य के श्वेत वामन में परिवर्तित होने के बाद भी अपने वजूद को बनाए रखे हैं। हालांकि, शोधकर्ता इस बारे में और अधिक अवलोकन पर ज़ोर देते हैं ताकि यह स्पष्ट हो सके कि ये ग्रह ही हैं, पृष्ठभूमि की कोई अन्य आकाशगंगा नहीं। अलबत्ता शोधकर्ताओं के अनुसार गलत व्याख्या की संभावना 0.03 प्रतिशत ही है।

इस खोज के धरातल पर वैज्ञानिक ऐसे ग्रहों का एक समूह बनाने में सक्षम हो जाएंगे जो हमारे सौर मंडल के शनि और बृहस्पति जैसे दिखते हैं। चूंकि ऐसे ग्रह अपने श्वेत वामन तारों की तुलना में काफी चमकीले होते हैं, इसलिए उनके वायुमंडल का अध्ययन करना तथा सौर मंडल के विशाल ग्रहों से उनकी समानता या अंतर को समझना अपेक्षाकृत आसान होना चाहिए।

यह खोज न केवल मरणासन्न तारों के आसपास ग्रहों के लचीलेपन की एक झलक पेश करती है, बल्कि ग्रह प्रणालियों के बारे में हमारी समझ का विस्तार करने के लिए एक समृद्ध अवसर भी प्रदान करती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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निकटवर्ती निहारिका का ब्लैक होल सचमुच है

र्ष 2023 में इवेंट होरिजन टेलीस्कोप (ई.एच.टी.) द्वारा हमारी नज़दीकी निहारिका M87 में स्थित ब्लैक होल की पहली तस्वीर प्राप्त हुई थी। तस्वीर के बीच में एक गहरा काला धब्बा था, और उसके चारों ओर प्रकाश का चमकीला छल्ला नज़र आ रहा था।

अब, ई.एच.टी. द्वारा ली गई इसी निहारिका की ताज़ा छवियों में ऐसा ही साया दिख रहा है, जो इस निहारिका में शक्तिशाली ब्लैक होल होने की पुष्टि करता है। यह ब्लैक होल सूर्य से तकरीबन 6.5 अरब गुना वज़नी है। लेकिन एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स में प्रकाशित ताज़ा छवियों में साए के चारों ओर का चमकदार छल्ला थोड़ा घूमा हुआ नज़र आ रहा है, जो संभवत: यह बताता है कि गैसें ब्लैक होल के चारों ओर कैसे घूमती हैं। नई और पुरानी छवियों के विश्लेषण में यह भी देखा गया है कि दोनों ही तस्वीरों में कैद छायादार केंद्र का दायरा एक बराबर ही है, जिससे पुष्टि होती है कि वहां वास्तव में कोई ब्लैक होल है। ब्लैक होल का द्रव्यमान एक साल में उल्लेखनीय रूप से नहीं बढ़ा होगा, इसलिए तस्वीरों की तुलना इस विचार का भी समर्थन करती है कि ब्लैकहोल की साइज़ सिर्फ उसके द्रव्यमान से निर्धारित होती है।

हालांकि, ताज़ा तस्वीरों में ब्लैक होल के चारों ओर के छल्ले का सबसे चमकीला हिस्सा घड़ी की उल्टी दिशा में लगभग 30 डिग्री घूमा नज़र आ रहा है। ऐसा ब्लैक होल की विषुवत रेखा के चारों ओर के पदार्थ के बेतरतीब मथे जाने के कारण हो सकता है। ऐसा ब्लैक होल के ध्रुवों से निकलने वाली ज़ोरदार फुहारों में कमी-बेशी के कारण भी हो सकता है – इससे ऐसा लगता है कि ये फुहारें ब्लैक होल की धुरी की सीध में नहीं होती हैं, बल्कि इसके चारों ओर डोलती रहती हैं।

ब्लैक होल को देखने के लिए हमारी दूरबीन इनसे होने वाले रेडियो उत्सर्जन पर निर्भर हैं। वास्तव में ई.एच.टी. दूरबीन में आठ रेडियो टेलिस्कोप हैं जो पृथ्वी पर एक-दूसरे से दूर-दूर ऊंचे स्थानों पर स्थापित हैं। एक मायने में यह पृथ्वी के बराबर की दूरबीन है। इन्हीं के मिले-जुले डैटा से छवियां बनाई जाती है।

लेकिन ब्लैक होल के और बारीक अवलोकन एवं स्पष्ट तस्वीरों और दूर स्थित ब्लैक होल के अवलोकन के लिए शोधकर्ता दूरबीनों के इस नेटवर्क में और अधिक दूरबीनें जोड़ना चाहते हैं: चार स्थानों – व्योमिंग, कैनरी द्वीप, चिली और मैक्सिको में 9-9 मीटर की रेडियो डिश और एमआईटी स्थित हेस्टैक वेधशाला में 37 मीटर की डिश। डैटा प्रोसेसिंग को तेज़ करने के लिए नए हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर की भी ज़रूरत है, ताकि वर्षों की बजाय कुछ ही दिनों में परिणाम हासिल किए जा सकें। इसके लिए तकरीबन 7.3 करोड़ डॉलर की आवश्कता होगी।

अवलोकन में सटीकता और विश्लेषण में तेज़ी लाने से यह समझने में मदद मिलेगी कि ब्लैक होल का धुरी पर घूर्णन, उसका चुंबकीय क्षेत्र और पदार्थ की घूमती हुई डिस्क मिलकर किस तरह सुदूर अंतरिक्ष में कणों की फुहार फेंकते हैं।

ब्लैक होल के इर्द-गिर्द बने प्रकाशमान छल्लों के सूक्ष्म अवलोकन के लिए पृथ्वी से भी बड़ी एक आभासी रेडियो डिश की ज़रूरत है। क्योंकि पृथ्वी बराबर दूरबीन से अवलोकन की सीमा आ चुकी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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2023 की रोमांचक वैज्ञानिक खोजें – ज़ुबैर सिद्दिकी

पिछला वर्ष विज्ञान के क्षेत्र में असाधारण उपलब्धियों वाला रहा। विज्ञान सम्बंधी कई आश्चर्यजनक सफलताएं हासिल हुईं। पेश है पिछले वर्ष हुई कुछ अहम वैज्ञानिक खोजों की झलक।

गुरुत्व तरंगें

पिछले वर्ष वैज्ञानिकों ने पहली बार आकाशगंगा में निम्न आवृत्ति वाली गुरुत्वाकर्षण तरंगों का पता लगाया। ऐसा माना जाता है कि ये ब्रह्मांडीय हलचल अरबों प्रकाश-वर्ष दूर अतिविशाल ब्लैक होल की अंतर्क्रिया और विलय से उत्पन्न हुई हैं, जिन्हें पल्सर पिंडों से निकलने वाले रेडियो संकेतों के सटीक माप के माध्यम से पहचाना गया था। इस खोज से प्रारंभिक ब्रह्मांड में अनुमान से अधिक ब्लैक होल की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं। गुरुत्वाकर्षण तरंगों का अध्ययन ब्रह्मांड की उत्पत्ति से सम्बंधित अधिक जानकारी देने के अलावा ब्रहमांड को शक्ति देने वाले अदृश्य पदार्थ और घटनाओं को समझने में मदद कर सकता है।

विचारों को पढ़ना

टेक्सास विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने एक ऐसी एआई-आधारित प्रणाली प्रस्तुत की है जो मस्तिष्क की गतिविधियों को इबारत में बदल सकती है और इसके लिए दिमाग में कोई यंत्र वगैरह भी नहीं घुसेड़ना पड़ते। एमआरआई स्कैन का उपयोग करते हुए यह नवाचार पॉडकास्ट या छवियों के प्रति मस्तिष्क की प्रतिक्रियाओं को पकड़ता है। शब्द-दर-शब्द प्रतिलेखन की बजाय, यह मस्तिष्क गतिविधि का पैटर्न बनाता है और विचारों को उन गतिविधियों के साथ जोड़ने के लिए एक शब्दकोश तैयार करता है। वैसे इस अध्ययन ने मानसिक गोपनीयता के लिहाज़ से नैतिक चर्चा को बढ़ावा दिया है लेकिन इन चिंताओं के बावजूद, यह आशाजनक संभावनाएं प्रदान करता है, विशेष रूप से संचार विकारों से जूझ रहे परिवारों को आशा की नई किरण देता है।

प्राचीन व्हेल: विशालतम जंतु

प्राचीन व्हेल जीवाश्मों के एक ताज़ा विश्लेषण से पता चला है कि 3.7 करोड़ वर्ष पहले पेरू के तट पर विचरने वाला जंतु पेरुसेटस कोलोसस पृथ्वी के इतिहास का सबसे बड़ा जीव रहा होगा। अनुमान है कि इसका वज़न 300 टन से अधिक और लंबाई लगभग 60 फीट रही होगी। यह वर्तमान ब्लू व्हेल से भी विशाल है क्योंकि वर्तमान ब्लू व्हेल की लंबाई तो लगभग 100 फीट है लेकिन वज़न मात्र 200 टन है।

टी-रेक्स की दिलचस्प विशेषता

पिछले वर्ष जीवाश्म विज्ञानियों ने टायरेनोसौरस रेक्स और इसी तरह के मांसाहारी डायनासौरों की एक दिलचस्प विशेषता को उजागर किया है। उनका दावा है कि टी-रेक्स के होंठ होते थे जो उनके पैने दांतों को ढंके रहते थे। यह निष्कर्ष डायनासौर की शारीरिक रचना के साथ-साथ पक्षियों और सरीसृपों जैसे आधुनिक प्राणियों के तुलनात्मक अध्ययन से निकला है। इन डायनासौरों के दांतों को ढंकने वाले नरम ऊतक उनके मुंह की सुरक्षा करते थे तथा शिकार और हमला करने के लिए दांतों की सही स्थिति सुनिश्चित करते थे।

लाखों वर्ष पुराने पाषाण औज़ार

दक्षिण-पश्चिमी केन्या में पुरातत्वविदों ने प्राचीन होमिनिन पैरेन्थ्रोपस के जीवाश्मों के साथ पत्थर के औज़ार भी खोजे हैं जो संभवत: 30 लाख वर्ष पुराने हैं। इस खोज से लगता है कि गैर-मानव होमिनिन ने भी पाषाण प्रौद्योगिकियों का विकास किया था। पूर्व में माना जाता था कि पैरेन्थ्रोपस के मज़बूत जबड़ों के कारण ऐसे औज़ार उनके आहार के लिए अनावश्यक रहे होंगे। इस नई खोज से मनुष्यों के प्राचीन रिश्तेदारों के बीच औज़ार अनुमान से भी पहले उभरने के संकेत मिलते हैं।

जटिल जीवन की उत्पत्ति

पिछले वर्ष ऑस्ट्रेलिया में प्राप्त प्राचीन चट्टानों के रासायनिक साक्ष्य 1.6 अरब से 80 करोड़ वर्ष पूर्व जटिल कोशिकाओं की उपस्थिति दर्शाते हैं। यह खोज जटिल जीवन रूपों के जल्दी उद्भव की धारणा से मेल खाती है। इस खोज के लिए शोधकर्ताओं ने यूकेरियोटिक (केंद्रक युक्त) कोशिका में झिल्ली बनाने के लिए ज़रूरी अणुओं का सहारा लिया और 1.6 अरब वर्ष पुराने रासायनिक चिंहों का पता लगाया, जो संभावित रूप से उस समय यूकेरियोट्स के अस्तित्व का संकेत देते हैं। यह खोज रासायनिक साक्ष्यों का तालमेल आनुवंशिक और सूक्ष्म जीवाश्म साक्ष्यों के साथ बनाती है।

बाह्य-ग्रहों की संख्या

पिछले वर्ष अगस्त में वैज्ञानिकों ने छह नए बाह्य-ग्रहों की खोज की है। अब हमारे सौर मंडल के बाहर ज्ञात ग्रहों की संख्या 5500 से अधिक हो गई। यह ट्रांज़िटिंग एक्सोप्लेनेट सर्वे सैटेलाइड (TESS) और जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप से संभव हो पाया है जो आकाशगंगा में विविध की खोज करती रहती हैं। इसमें एक मुख्य खोज के2-18बी नामक बाह्य-उपग्रह की है जो संभवत: घने वायुमंडल के नीचे एक विशाल महासागर को छिपाए है और आकार में पृथ्वी और नेपच्यून के बीच है।

चिम्पैंज़ी में रजोनिवृत्ति

काफी समय से जीवविज्ञानी यह समझने का प्रयास करते आए हैं कि क्यों कुछ जंतु मादाएं प्रजनन काल समाप्त होने (रजोनिवृत्ति) के बाद भी जीवित रहती हैं। यह स्थिति मनुष्यों, व्हेल और ओर्का जैसी मुट्ठी भर प्रजातियों में देखी गई है। युगांडा के किबले नेशनल पार्क में चिम्पैंज़ी के मूत्र में हार्मोन का विश्लेषण करने से पता चला है कि चिम्पैंज़ी भी रजोनिवृत्ति से गुज़रते हैं और 50 वर्ष की आयु के आसपास की मादाओं में प्रजनन रुक जाता है लेकिन वे जीवित रहती हैं। हालांकि, कुछ व्हेल प्रजातियों की बड़ी मादाएं संतान की देखभाल में सहायता करती हैं लेकिन ऐसा व्यवहार चिम्पैंज़ी में नहीं देखा जाता है। एक अनुमान है कि रजोनिवृत्ति प्राइमेट्स के बीच जंतुओं में प्रजनन प्रतिस्पर्धा को कम कर सकती है। वैज्ञानिकों का लक्ष्य आगे इस पर और अधिक अध्ययन करना है।

मगरमच्छों में वर्जिन जन्म

पिछले वर्ष कोस्टा रिका के क्वीन्स नेशनल मरीन पार्क में एक मादा मगरमच्छ (Crocodylus acutus) में पार्थेनोजेनेसिस (अलैंगिक प्रजनन का एक रूप जिसमें नर के बिना संतान पैदा होती है) देखा गया है। मगरमच्छों में यह दुर्लभ है लेकिन जनसंख्या तनाव के तहत अन्य प्रजातियों में देखा गया है। आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला कि भ्रूण सचमुच मां का आंशिक क्लोन था। बंदी अवस्था में ही सही, लेकिन यह खोज जंगली अमेरिकी मगरमच्छों के संरक्षण की दृष्टि से महत्व रखती है। गौरतलब है कि जंगली अमेरिकी मगरमच्छों को विलुप्तप्राय जानवरों की श्रेणी में रखा गया है।

सटीक चिकित्सा के लिए जीनोम

अमेरिकी राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान ने पुराने मानव जीनोम की सीमाओं को संबोधित करते हुए एक नया पैन-जीनोम प्रस्तुत किया है। यह नया मॉडल जीनोम विविध जातीय और नस्लीय पृष्ठभूमियों को शामिल करता है और माना जा रहा है कि इससे व्यक्तिगत चिकित्सा को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। वर्तमान में 47 व्यक्तियों के जीनोम अनुक्रम शामिल किए गए हैं, लेकिन लक्ष्य अंतत: 700 लोगों को शामिल करना है, जो पहले मुख्य रूप से युरोप-केंद्रित था। जीनोम समानताओं के बावजूद, व्यक्तिगत भिन्नताओं का विश्लेषण रोग के प्रति संवेदनशीलता को समझने में महत्वपूर्ण है, जो उचित चिकित्सा हस्तक्षेपों के लिए महत्वपूर्ण होगा।

शनि के चंद्रमा पर जीवन

शनि ग्रह का छठा सबसे बड़ा चंद्रमा एन्सेलाडस जीवन की संभावना के साक्ष्य दर्शाता है। हालिया विश्लेषण से जीवन के लिए आवश्यक कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन व सल्फर के साथ एक अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व फॉस्फोरस की उपस्थिति का पता चला है। कैसिनी अंतरिक्ष यान के कॉस्मिक डस्ट एनालाइज़र द्वारा बर्फीले कणों में पाए गए। ये तत्व एन्सेलाडस को पृथ्वी से परे जीवन के लिए एक आशाजनक स्थल के रूप में बताते हैं। ऐसा अनुमान है कि उपग्रह की बर्फीली परत के नीचे स्थित महासागर जीवन-निर्वाह की स्थिति पैदा कर सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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भारतीय विज्ञान: अंतरिक्ष में कामयाबियों का साल – चक्रेश जैन

साल 2023 विदा हो चुका है। पीछे मुड़ कर देखें तो पता चलता है बीता वर्ष भारतीय विज्ञान जगत, विशेष रूप से अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में सफलताओं का रहा। 23 अगस्त को चंद्रयान-3 चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के निकट सफलतापूर्वक उतरा। इसरो ने चंद्रमा पर जीवन की संभावना तलाशने और रहस्यों को समझने के उद्देश्य से 14 जुलाई को चंद्रयान-3 भेजा था।

इसी वर्ष भारत ने सूर्य का अध्ययन करने की दिशा में बड़ी छलांग लगाई। 2 सितंबर को पहली सौर मिशन वेधशाला आदित्य-L1 को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया गया। आदित्य-L1 चार महीने का सफर पूरा कर अपनी मंज़िल लैगरांजे बिन्दु पर पहुंच चुका है। यह वेधशाला पांच वर्षों तक सूर्य की विभिन्न गतिविधियों, जैसे सौर तूफानों, सौर लहरों और गर्म हवाओं का अध्ययन करेगी।

फरवरी में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने स्मॉल सैटेलाइट लॉन्चिंग व्हीकल (एसएसएलवी डी-2) प्रक्षेपण यान के ज़रिए तीन उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित किया। इसके साथ ही भारत ने छोटे उपग्रहों के प्रक्षेपण बाज़ार में प्रवेश कर लिया। 30 जुलाई को इसरो ने सिंगापुर के सात उपग्रहों को एक साथ सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित किया। 21 अक्टूबर को मानव अंतरिक्ष उड़ान की ओर पहला कदम बढ़ाया गया और गगनयान मिशन के तहत पहला परीक्षण सफल रहा।

जनवरी के प्रथम सप्ताह में 108वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस का सालाना अधिवेशन राष्ट्रसंत तुकादोजी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय में संपन्न हुआ। सम्मेलन का मुख्य विषय था ‘महिला सशक्तिकरण के साथ सतत विकास के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी’। पहली बार जनजातीय विज्ञान कांग्रेस हुई, जिसमें जनजातीय मुद्दों पर विचार मंथन किया गया।

21-24 जनवरी के दौरान आठवां अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव भोपाल में आयोजित किया गया। यह महोत्सव विलक्षण था, जिसमें वैज्ञानिकों से लेकर स्कूली बच्चों, जन सामान्य से लेकर विशिष्टजनों और नीति निर्माता से लेकर कारीगरों और किसानों तक ने भाग लिया।

भारत सहित विश्व भर में साल 2023 ‘इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स’ के रूप में मनाया गया। इसका उद्देश्य आम लोगों में मोटे अनाज के महत्व को उजागर करना था। मोटा अनाज पोषक तत्वों से भरपूर होता है। वैसे भारत हर साल 170 लाख टन मोटे अनाज का उत्पादन करता है – 12 में से 10 प्रकार के मोटे अनाज भारत में उगाए जाते हैं। अहम बात यह कि इसकी खेती आसान और जलवायु अनुकूल है व इसके लिए कम पानी की ज़रूरत होती है।

साल 2023 के पूर्वार्द्ध में सीएसआईआर ने ‘वन वीक-वन लैब’ कैम्पैन शुरू किया। इस कैम्पैन का उद्देश्य आम लोगों और विद्यार्थियों को देश की प्रगति और विकास में सीएसआईआर की राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के योगदान और उपलब्धियों से परिचित कराना था।

इसी वर्ष फरवरी में जम्मू-काश्मीर के रियासी ज़िले में वैष्णो देवी पहाड़ियों की तलहटी और राजस्थान में डेगाना स्थित रेंवत पहाड़ियों में लीथियम खनिज के प्रचुर भंडार का पता चला। लीथियम धातु का उपयोग मोबाइल फोन, लैपटॉप, इलेक्ट्रिक वाहनों आदि में हो रहा है।

वर्ष 2023 में विज्ञान मंत्रालय के वार्षिक बजट में दो हज़ार करोड़ रुपए की बढ़ोतरी की गई। बजट में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस में रिसर्च के लिए नए केंद्र स्थापित करने का प्रावधान किया गया। इस वर्ष केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय क्वांटम मिशन को मंज़ूरी प्रदान कर दी। इसके अंतर्गत आगामी छह वर्षों तक क्वांटम प्रौद्योगिकी पर आधारित रिसर्च को बढ़ावा दिया जाएगा।

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 4 जनवरी को 19,744 करोड़ रुपए के राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन को मंज़ूरी दे दी। इस मिशन का उद्देश्य भारत में ग्रीन हाइड्रोजन पारिस्थितिकी तंत्र स्थापित करना है। 25 सितम्बर को नई दिल्ली में देश की पहली हरित हाइड्रोजन ईंधन सेल चालित बस को रवाना किया गया। देश में नैरो गेज के धरोहर मार्गों पर हाइड्रोजन ट्रेनें चलाने की तैयारी जारी रही।

बीते साल भारत ने जी-20 की अध्यक्षता की, जिसके झण्डे तले साइंस-20 की बैठक हुई। अब जी-20 आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के साथ ही समाज से जुड़े वैज्ञानिक मुद्दों के विचार मंथन का मंच भी बन गया है।

इसी साल मध्यप्रदेश के शहडोल ज़िले से राष्ट्रीय सिकल सेल उन्मूलन मिशन का शुभारंभ हुआ। यह एक गंभीर आनुवंशिक बीमारी है। इस बीमारी में लाल रक्त कोशिकाएं हंसिए का आकार ग्रहण कर लेती हैं। केंद्र सरकार ने वर्ष 2047 तक देश से इस बीमारी को विदा करने का लक्ष्य निर्धारित किया है।

11 मई को राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस पर 5800 करोड़ रुपए की वैज्ञानिक परियोजनाएं राष्ट्र को समर्पित की गईं। इनमें लेज़र इंटरफेरोमीटर ग्रेवीटेशनल वेव ऑब्ज़रवेटरी शामिल है। इसे महाराष्ट्र स्थित हिंगोली में स्थापित किया जाएगा।

सेंट्रल मरीन फिशरीज़ रिसर्च इंस्टीट्यूट, कोच्चि के वैज्ञानिकों की टीम ने इंडियन ऑइल सार्डीन मछली (Sardinella longiceps) के संपूर्ण जीनोम को डीकोड करने में सफलता प्राप्त की। इस शोध से मछली के पारिस्थितिकी तंत्र और विकास की व्याख्या में मदद मिलेगी और आगे चलकर संरक्षण के लिए प्रबंधन रणनीति बनाना संभव हो सकेगा।

इसी साल 7 अगस्त को लोकसभा ने राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान विधेयक पारित कर दिया। विधेयक में गणित, इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी, पर्यावरण और भूविज्ञान के क्षेत्र में शोध, नवाचार और उद्यमिता के लिए उच्च स्तरीय मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान की स्थापना का प्रावधान है। इसी वर्ष संसद द्वारा जैव विविधता संशोधन विधेयक पारित किया गया। यह विधेयक 2002 के जैविक विविधता अधिनियम को संशोधित करता है। इस विधेयक में किए गए महत्त्वपूर्ण परिवर्तन औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देते हैं।

14 सितंबर को भारत सरकार ने पद्म पुरस्कारों की तर्ज पर राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कार शुरू करने की घोषणा की। राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कारों को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया है। विज्ञान रत्न पुरस्कार विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में की गई जीवन भर की उपलब्धियों के लिए दिया जाएगा। विज्ञानश्री पुरस्कार विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिया दिया जाएगा। विज्ञान युवा शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार 45 वर्ष की आयु तक के उन युवा वैज्ञानिकों को प्रदान किया जाएगा जिन्होंने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में असाधारण योगदान किया है। साइंस टीम पुरस्कार तीन अथवा उससे अधिक वैज्ञानिकों की उस टीम को संयुक्त रूप से दिया जाएगा जिसने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशेष योगदान दिया है। इन चार श्रेणियों में 56 पुरस्कार दिए जाएंगे, जिनमें नकद धनराशि का प्रावधान नहीं किया गया है।

दिसम्बर के उत्तरार्द्ध में अहमदाबाद स्थित साइंस सिटी परिसर में भारतीय विज्ञान सम्मेलन आयोजित किया गया। इस बार सम्मेलन का मुख्य विषय ‘भारत का विकास, भारतीय मूल्यों और नवप्रवर्तन के साथ’ चुना गया था। बीते वर्ष नई दिल्ली में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर वैश्विक साझेदारी शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें इस बात पर विचार मंथन किया गया कि दुनिया आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को लेकर क्या सोच रही है और भारत इसमें क्या योगदान कर रहा है।

साल 2023 के लिए गणतंत्र दिवस पर घोषित पद्म पुरस्कारों के लिए चुने गए वैज्ञानिकों में विख्यात चिकित्सक डॉ. दिलीप महालनोबिस को पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया। उन्हें यह सम्मान मरणोपरांत प्रदान किया गया। उनका जीवन रक्षक ओआरएस घोल की खोज में विशेष योगदान रहा है। इसी साल जाने-माने सांख्यिकीविद सी. आर. राव को इंटरनेशनल प्राइज़ इन स्टैटिस्टिक्स से सम्मानित किया गया। उन्हें यह अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार 75 वर्ष पहले सांख्यिकी विज्ञान में विशेष योगदान के लिए दिया गया है।

विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर ने दिसंबर में वर्ष 2023 के टॉपटेन वैज्ञानिकों की सूची में भारत की अंतरिक्ष वैज्ञानिक कल्पना कलाहेस्टी को शामिल किया है। उन्हें यह विशिष्ट सम्मान चन्द्रयान-3 के प्रक्षेपण में एसोसिएट परियोजना निदेशक के रूप में अहम भूमिका निभाने के लिए दिया गया है।

इसी वर्ष लोकप्रिय विज्ञान पत्रिका साइंस रिपोर्टर के संपादक हसन जावेद खान ने 18 वर्षों तक संपादन का दायित्व संभालने के बाद विदाई ले ली।

इसी साल एनसीईआरटी ने नौवीं और दसवीं कक्षाओं के विज्ञान पाठ्यक्रम से डार्विन के जैव विकास के सिद्धांत और मेंडेलीव की आवर्त सारणी को हटा दिया। देश के 1800 वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों ने इसका विरोध करते हुए एक खुला पत्र लिखकर सरकार के इस निर्णय की आलोचना की।

यह वही साल था, जब सरकार ने विज्ञान संचार की स्वायत्त संस्था ‘विज्ञान प्रसार’ को बंद करने का निर्णय लिया। इस संस्था की स्थापना 11 अक्टूबर 1989 को की गई थी। इसी साल अगस्त से लोकप्रिय विज्ञान पत्रिका ड्रीम-2047 का प्रकाशन बंद हो गया। इसका पहला अंक अक्टूबर 1998 में छपा था। दरअसल, इस पत्रिका को ‘ड्रीम-2047’ नाम इसलिए दिया गया था, ताकि स्वतंत्रता के सौ साल पूरे होने का उत्सव मनाने के पहले हम अपने सपनों को साकार करने की रूपरेखा बना लें।

वर्ष 2023 में हमने विज्ञान जगत की कई महान हस्तियों को खो दिया। 28 सितंबर को प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक और हरित क्रांति के प्रणेता एम. एस. स्वामीनाथन का 98 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने कृषि क्षेत्र की नीतियां बनाने में मार्गदर्शक की भूमिका निभाई। 22 अगस्त को विख्यात वैज्ञानिक और सांख्यिकीविद सी. आर. राव का 102 वर्ष की आयु में निधन हो गया। 17 जुलाई को प्रसिद्ध गणितज्ञ डॉ. मंगला जे. नार्लीकर का 80 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। उन्होंने मूलभूत गणित में विशेष योगदान के साथ विद्यार्थियों और आम लोगों में गणित को लोकप्रिय बनाने के क्षेत्र में भी योगदान किया था।

उम्मीद है हमारे देश के वैज्ञानिक साल 2023 की भांति 2024 को भी उपलब्धियों भरा बनाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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शनि के चंद्रमा पर जीवन की संभावना के प्रमाण

हाल ही में शनि के बर्फीले उपग्रह एन्सेलेडस के बारे में वैज्ञानिकों ने जीवन की उपस्थिति के संकेत दिए हैं। नेचर एस्ट्रोनॉमी में प्रकाशित एक अभूतपूर्व अध्ययन में एन्सेलेडस पर उपस्थित ऐसे रसायनों की उपस्थित का खुलासा किया गया है जो जीवन के लिए आवश्यक हैं। 

गौरतलब है कि बर्फीली परत से घिरे इस उपग्रह की सतह पर उपस्थित दरारों से पानी के फव्वारे छूटते रहते हैं। इसलिए लंबे समय से यह वैज्ञानिक आकर्षण का केंद्र रहा है। उपग्रह का अध्ययन करने के लिए भेजे गए अंतरिक्ष यान कैसिनी ने 2000 के दशक के मध्य में इन फव्वारों के पानी में कार्बन डाईऑक्साइड तथा अमोनिया जैसे अणुओं की पहचान की जो पृथ्वी पर जीवन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।

इस दिशा में बढ़ते हुए हारवर्ड विश्वविद्यालय और नासा की जेट प्रपल्शन प्रयोगशाला के जोनाह पीटर के नेतृत्व में एक टीम ने कैसिनी के डैटा का गहन विश्लेषण शुरू किया। जटिल सांख्यिकीय तरीकों की मदद से उन्होंने एन्सेलेडस से निकलने वाले फव्वारों के भीतर कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, अमोनिया और आणविक हाइड्रोजन के अलावा हाइड्रोजन सायनाइड, ईथेन तथा मिथेनॉल जैसे आंशिक रूप से ऑक्सीकृत पदार्थ पाए। और इन सबकी खोज सांख्यिकीय विधियों से हो पाई है। कैसिनी मिशन में शामिल ग्रह वैज्ञानिक मिशेल ब्लैंक ने इस खोज को अभूतपूर्व बताया है और शनि के छोटे उपग्रहों की रासायनिक गतिविधियों का अधिक अध्ययन करने का सुझाव दिया है।

गौरतलब है कि नए खोजे गए यौगिक सूक्ष्मजीवी जीवन के बिल्डिंग ब्लॉक्स और संभावित जीवन की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं। विशेष रूप से हाइड्रोजन सायनाइड है, जो नाभिकीय क्षारों और अमीनो एसिड का एक महत्वपूर्ण घटक है। शोधकर्ताओं की विशेष रुचि जीवन-क्षम अणुओं के निर्माण की दृष्टि से एन्सेलेडस के पर्यावरण को समझने की है। सिमुलेशन से पता चला है कि जीवन की उत्पत्ति के लिए महत्वपूर्ण कई अणु एन्सेलेडस पर बन सकते थे और आज भी बन रहे होंगे।

इसके अलावा, एन्सेलेडस से निकलते फव्वारों का विविध रासायनिक संघटन ऑक्सीकरण-अवकरण अभिक्रिया की संभावना दर्शाता है जो जीवन के बुनियादी घटकों के संश्लेषण की एक निर्णायक प्रक्रिया है। यह पृथ्वी पर ऑक्सी-श्वसन और प्रकाश संश्लेषण जैसी प्रक्रियाओं को बनाए रखने का काम करती है।

अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या वास्तव में ऐसा होता होगा, लेकिन इसके निहितार्थ काफी महत्वपूर्ण हैं। बहरहाल यह खोज न केवल एन्सेलेडस के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न करती है, बल्कि बृहस्पति ग्रह के चंद्रमा युरोपा जैसे समान समुद्री दुनिया की छानबीन के लिए भी प्रेरित करती है। आगामी युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का जूपिटर आइसी मून्स एक्सप्लोरर (जूस) मिशन यही करने जा रहा है।

बड़े अणुओं का अध्ययन करने में सक्षम उपकरणों से लैस वैज्ञानिक एन्सेलेडस की रासायनिक विविधता को उजागर करके देख पाएंगे कि वहां जीवन के योग्य परिस्थितियां हैं या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रहस्यमय धातुई क्षुद्रग्रह पर नासा की नज़र

नासा ने हाल में साइकी नामक एक रहस्यमय धातुई क्षुद्रग्रह की जांच के लिए ‘साइकी’ मिशन शुरू किया है। 220 किलोमीटर चौड़े खगोलीय पिंड साइकी के आकार और संरचना काफी समय से वैज्ञानिकों को आकर्षित करती रहे हैं।

चट्टानी क्षुद्रग्रहों के विपरीत, साइकी ‘एम-टाइप’ क्षुद्रग्रह है जिसका घनत्व और परावर्तकता असाधारण हैं। लंबे समय से शोधकर्ताओं का अनुमान रहा है कि साइकी एक बहुत बड़े प्रोटोग्रह की धात्विक कोर है। इस संकल्पना के अनुसार, अरबों साल पहले एक विशाल निर्माणाधीन ग्रह के भीतर गुरुत्वाकर्षण बल और रेडियोधर्मी तत्वों के कारण चट्टानें आंशिक रूप से पिघलकर अलग-अलग परतों में जम गई होंगी। ज़ाहिर है, सबसे भारी धातुएं (लौह-निकल) केंद्र में पहुंची होंगी। आगे चलकर किसी अन्य खगोलीय पिंड के साथ भयंकर टक्कर से बाहरी परतें अलग होकर बिखर गई होंगी और लौह-निकल से समृद्ध कोर उजागर हो गया होगा।

साइकी मिशन का उद्देश्य इस धातुई कोर की बारीकी से जांच करना है, ताकि ग्रहों के कोर की संरचना और इतिहास की जानकारी मिल सके। इस मिशन की सदस्य बिल बोटके के अनुसार पृथ्वी या शुक्र के कोर का अध्ययन करना काफी मुश्किल है, ऐसे में साइकी का अध्ययन एक सुनहरा अवसर है।

उम्मीद है कि 2029 तक अंतरिक्ष यान ‘साइकी’ इस क्षुदग्रह की कक्षा में होगा और वहां दो साल से अधिक समय बिताएगा। इस दौरान वैज्ञानिक पृथ्वी से प्रेषित रेडियो तरंगों में सूक्ष्म बदलाव करते हुए क्षुद्रग्रह के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र का मानचित्रण करेंगे। इस मानचित्र से यह जानने में मदद मिलेगी कि साइकी एक समान रूप से सघन धातु से बना है या फिर मलबे का ढेर है। यान में उपस्थित मैग्नेटोमीटर प्राचीन तरल धातु के अवशेषों की खोज करेगा, जबकि गामा किरणें और न्यूट्रॉन धातु कोर में निकल की उपस्थिति का पता लगाएंगे। उच्च-विभेदन इमेजिंग बास्केटबॉल कोर्ट जितने छोटे-छोटे इलाकों की छवियां कैप्चर करेंगे।

वैसे पृथ्वी से जुटाई गई दूरबीनी सूचनाओं ने धात्विक-कोर परिकल्पना पर कुछ संदेह पैदा किया है। ताज़ा अनुमान के अनुसार साइकी का घनत्व पूर्वानुमान की तुलना में कम है। इसके अतिरिक्त, इससे टकराकर आने वाला प्रकाश कार्बन-आधारित सामग्री और चट्टानी सिलिकेट खनिजों की उपस्थिति के संकेत देता है, जो खालिस धातुई क्षुद्रग्रह की धारणा को चुनौती देता है। इस डैटा के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि क्षुद्रग्रह का 30 से 60 प्रतिशत हिस्सा धातु से बना है जो संभवतः एक निर्माणाधीन ग्रह के कोर और मेंटल का मिश्रण है। इसका आकार अरबों वर्षों के दौरान अनेकों टकराव और कार्बनयुक्त धूल से ढंकने के कारण बदल गया है।

इस क्षुद्रग्रह के सम्बंध में एक अनुमान यह भी है कि इसमें एक पतले चट्टानी आवरण के नीचे धात्विक कोर है। चमकदार सतह के धब्बे प्राचीन ‘लौह-ज्वालामुखीय गतिविधियों’ का परिणाम हो सकते हैं, जिसमें सतह पर आयरन सल्फाइड द्रव रिसा होगा। या फिर साइकी प्रारंभिक सौर मंडल के धातु-समृद्ध क्षेत्र में गठित एक परत रहित पिंड भी हो सकता है।

हालांकि साइकी की धातु सामग्री उन दुर्लभ उल्कापिंडों से मिलती-जुलती है, जिन्हें एनस्टैटाइट कॉन्ड्राइट्स कहा जाता है। लेकिन साइकी की परिक्रमा कक्षा से लगता है कि इसकी उत्पत्ति बृहस्पति की कक्षा से बाहर हुई होगी। इस स्थिति में इसके गठन और क्षुद्रग्रह पट्टी तक पहुंचने के बारे में कई सवाल उठते हैं। बहरहाल, नासा साइकी के रहस्यों को उजागर करने के लिए प्रतिबद्ध है। नासा की इस परियोजना से क्षुद्रग्रहों और धूमकेतुओं के बारे में हमारे ज्ञान में काफी वृद्धि होने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अंतरिक्ष में कानूनी ब्लैक होल्स – सैमुअल स्टॉकवेल

30 अप्रैल 2020 के दिन नासा ने तीन निजी कंपनियों को 2024 का चंद्र अभियान पूरा करने के लिए 96.7 करोड़ डॉलर का एक संयुक्त ठेका दिया था। नासा के प्रशासक जिम ब्राइंडस्टोन ने दावा किया था कि यह वह अंतिम मोहरा है जिसकी ज़रूरत अमेरिका को चंद्रमा तक पहुंचने के लिए थी। इस बात को मीडिया में तो खूब प्रसारित किया गया था लेकिन इस बात पर बहुत कम चर्चा हुई थी कि अंतरिक्ष अभियानों को लेकर जो मौजूदा कानून/संधियां हैं वे निजी कंपनियों के उपक्रमों पर किस हद तक लागू होते हैं। दरअसल, कॉर्पोरेट जगत द्वारा धरती से बाहर कदम जमाने के चलते आशाओं और चिंताओं दोनों को हवा मिली है। चिंताएं और आशाएं अंतरिक्ष में बढ़ते पूंजीगत निवेश के संभावित लाभों को लेकर हैं।

1967 में राष्ट्र संघ बाह्य अंतरिक्ष संधि (OST) मंज़ूर की गई थी। यह यूएस के तथाकथित ‘नव-अंतरिक्ष’ किरदारों के उदय के संदर्भ में विश्लेषण का एक ढांचा माना गया था। इस लेख का तर्क है कि बाह्य अंतरिक्ष में निजी कंपनियों की मौजूदगी को लेकर कई महत्वपूर्ण कानूनी अस्पष्टताएं हैं। इन खामियों की वजह से ही यूएस सरकार को यह गुंजाइश मिली है कि वह OST के अंतर्गत अपने दायित्वों को दरकिनार कर सके और साथ ही संरचना को परिवर्तित करके अंतरिक्ष की ‘वैश्विक साझा संसाधन’ की धारणा को ठेस पहुंचा सके। OST के अंदर अंतरिक्ष के संसाधनों को लेकर निजी संपदा अधिकारों को लेकर विशिष्ट प्रावधान न होने के कारण यह जोखिम पैदा हो रहा है कि धरती के संसाधनों में जो गैर-बराबरी है वह, और अंतरिक्ष में यूएस का दबदबा दोनों अंतरिक्ष के संसाधनों पर भी लागू हो जाएंगे। इस तरह से, अंतरिक्ष के लाभ एक व्यापक विश्व समुदाय की बजाय मुट्ठी भर धनवान अमेरिकी निवेशकों के हाथों में सिमट जाएंगे।

इसके अलावा, OST में अंतरिक्ष निरीक्षण के नियमन को लेकर जो कमज़ोर प्रावधान हैं, उनके चलते यूएस उपग्रहों के नेटवर्क (global panopticon) को बढ़ावा मिलेगा। दोहरे उपयोग वाली टेक्नॉलॉजी के उभार की वजह से सैन्य और नागरिक अवलोकनों के बीच का अंतर धुंधला पड़ रहा है। इसके चलते यूएस द्वारा अंतरिक्ष-आधारित डैटा संग्रह की प्रकृति को लेकर गंभीर नैतिक चिंताएं पैदा हुई हैं।

और, अंतिम बात कि निजी उपग्रहों की बढ़ती संख्या इस बात की संभावना बढ़ा रही है कि अंतरिक्ष में फैले मलबे के बीच भयानक टक्करें होंगी और भू-राजनैतिक तनाव बढ़ेंगे। इस तरह के विकास की वजह से अंतरिक्ष में ऐसे अपमिश्रण की आशंका भी कई गुना बढ़ गई है, जिसकी कल्पना OST में नहीं की गई थी।

राष्ट्र संघ बाह्य अंतरिक्ष संधि और नवअंतरिक्ष किरदार

हालांकि OST 1967 में अस्तित्व में आई थी, लेकिन संभवत: आज भी यही एक प्रासंगिक उपकरण है जिसके तहत बाह्य अंतरिक्ष में राज्य तथा गैर-राज्य गतिविधियों का विश्लेषण किया जा सके। शीत युद्ध के चरमोत्कर्ष पर अंतरिक्ष के सैन्यकरण तथा राष्ट्रों द्वारा आकाशीय पिंडों पर कब्ज़े, दोनों की रोकथाम के संदर्भ में OST का प्रमुख स्थान है। 100 से ज़्यादा राष्ट्रों ने इसका अनुमोदन किया है – जिनमें यूएस, रूस व चीन जैसे प्रमुख अंतरिक्ष यात्री राष्ट्र शामिल हैं – और इस प्रकार से यह संधि एक अधिकारिक दस्तावेज़ के तौर पर व्यापक रूप से मान्य है और यही बाद में बनने वाली अन्य अंतरिक्ष संधियों का आधार रही है। यह संधि बाद के दस्तावेज़ों से इस मायने में भिन्न है कि कई देश इन पर हस्ताक्षर करने से कतराते रहे हैं। उदाहरण के तौर पर 1972 की चंद्रमा संधि जिसका उद्देश्य चंद्र अभियानों और विकास में सहयोग को बढ़ावा देना है।

बाह्य अंतरिक्ष के क्षेत्र में शामिल हो रहे अमेरिकी किरदारों में बहुत विविधता आई है। हालांकि ये 1950 के दशक से ही नासा के साथ काम करते रहे हैं, लेकिन तब व्यावसायिक उद्यम मूलत: रॉकेटों तथा अंतरिक्ष गतिविधियों से सम्बंधित अन्य पुर्ज़ों का उत्पादन किया करते थे। लेकिन, अपोलो 11 के चांद पर उतरने के बाद से नासा के बजट में कुल मिलाकर तेज़ गिरावट देखी गई और इसके साथ ही सरकारी कार्यों के निजीकरण की प्रवृत्ति भी बढ़ी। इसकी वजह से निजी अंतरिक्ष कंपनियों की क्षमताएं और नज़रिया दोनों बदले हैं।

एक ओर अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में विश्व स्तर पर विस्तार हो रहा है, वहीं 2012 से 2013 के दरम्यान सरकारों का खर्च 1.3 प्रतिशत कम हुआ है और व्यावसायिक क्षेत्र में लगभग 7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। निजी अंतरिक्ष क्षेत्र में विस्तार का प्रमुख ज़ोर तथाकथित ‘नव-अंतरिक्ष’ किरदारों से आया है। ये मूलत: यूएस स्थित उद्यमी हैं जो 30 से अधिक वर्षों से अंतरिक्ष को व्यावसायिक क्षेत्र बनाने का प्रयास करते आए हैं। अर्थव्यवस्था के उदारवादी नज़रिए से चालित और अंतरिक्ष खोजबीन में नासा की ऐतिहासिक पकड़ के आलोचक ये किरदार स्वयं को ‘अंतिम मोर्चे’ के अग्रणि किरदार कहते आए हैं जो निजी वित्तपोषित अंतरिक्ष अभियानों के ज़रिए मानवता को विलुप्ति से बचाएंगे।

पृथ्वी के नज़दीकी पिंड और संसाधन का खनन : अंतरिक्ष में यूएस की निजी संपत्ति

अपोलो अभियानों की मदद से प्राप्त चंद्रमा की चट्टानों के नमूनों में हीलियम-3 जैसे दुर्लभ तत्व हैं जो पृथ्वी पर पारंपरिक नाभिकीय परमाणु बिजली घरों की अपेक्षा ज़्यादा बिजली पैदा कर सकते हैं और इनमें कचरा भी कम पैदा होगा। ऐसे ही संसाधनों ने धरती से परे संसाधनों के खनन के लिए प्रलोभन-प्रोत्साहन प्रदान किया है। इस विचार को और बल मिला जब यह पता चला कि पृथ्वी के नज़दीकी पिंडों (जैसे तथाकथित एंटेरॉस क्षुद्र ग्रह) में शायद पांच खरब डॉलर मूल्य का मैग्नीशियम सिलिकेट और एल्युमिनियम मौजूद है।

अंतरिक्ष-यात्री राष्ट्रों द्वारा अंतरिक्ष के संसाधनों पर कब्ज़ा करने के ऐसे संभावित प्रयासों के मद्देनज़र राष्ट्र संघ OST के अनुच्छेद II में घोषित किया गया था कि: “बाह्य अंतरिक्ष पर राष्ट्रीय संप्रभुता के आधार पर, कब्ज़ा करके, उसका उपयोग करके या अन्य किसी तरीके से, अधिग्रहित करने की अनुमति नहीं है।” राष्ट्रीय संप्रभुता के दावों पर ज़ोर देने का मुख्य सरोकार उस समय जारी शीत युद्ध के माहौल से था, जब अंतरिक्ष गतिविधियां पूरी तरह सरकारी संस्थाओं का एकाधिकार थीं और इन्हें सैन्य वर्चस्व या राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के उद्देश्य से शुरू किया जाता था।

अलबत्ता, 1980 के दशक से अंतरिक्ष उद्योग के निजीकरण का अर्थ हुआ है कि उक्त कानून में अंतरिक्ष में संसाधनों के निजी दोहन के नियमन को लेकर कई कानूनी अस्पष्टताएं हैं और व्याख्या की गुंजाइश है। जैसा कि एम. शेयर ने दर्शाया है, अनुच्छेद II इस समस्या को संबोधित करने में असफल रहता है कि अंतरिक्ष का दोहन वित्तीय लाभ के लिए करने पर या निजी उद्योग द्वारा उस पर अपना अधिकार जताने पर क्या किया जाएगा।

बहरहाल, राष्ट्र संघ संधि का अनुच्छेद VI कहता है: “राष्ट्रीय अंतरिक्ष गतिविधियों के लिए राज्य ज़िम्मेदार होगा, चाहे वे गतिविधियां सरकारी एजेंसी द्वारा की जाएं या गैर-सरकारी एजंसियों द्वारा।” कई विशेषज्ञों का मानना है कि यह अनुच्छेद निजी अंतरिक्ष कॉर्पोरेशन्स की गतिविधियों पर काफी अंकुश लगा सकता है, क्योंकि इसके अंतर्गत निजी एजेंसियों की गतिविधियों का दायित्व भी राज्य पर होगा। अलबत्ता, यूएस सरकार ने हाल ही में एक कानून लागू किया है जिसमें इस अनुच्छेद का फायदा उठाया गया है ताकि अपने प्रतिबंधों को बायपास कर सके और अंतरिक्ष में यूएस के आर्थिक दबदबे को मज़बूत कर सके। 2015 के यूएस अंतरिक्ष कानून के पारित होने से “यूएस के नागरिकों को अंतरिक्ष से प्राप्त हुए संसाधनों को अपने पास रखने, उनके स्वामित्व, परिवहन और बिक्री” का अधिकार मिल गया है। अर्थात इसमें सावधानीपूर्वक राष्ट्रीय संप्रभुता के दावे को छोड़ दिया गया है।

तो, चाहे वह कोई अमेरिकी निजी कंपनी हो या सार्वजनिक उद्यम हो, यूएस अपने भू-राजनैतिक हितों की पूर्ति कर रहा है जिसके लिए वह अमेरिकी लाभ के लिए अंतरिक्ष के संसाधनों को समेट रहा है। इस तरह से राष्ट्र की सॉफ्ट शक्ति में चीन जैसे अंतरिक्ष-यात्री देशों की कीमत पर इजाफा हो रहा है।

दरअसल, नव-अंतरिक्ष किरदारों ने विधेयक के पारित होने से पहले इन सामरिक सरोकारों को चतुराई से उछाला था। जैसे अरबपति अंतरिक्ष उद्यमी रॉबर्ट बिजलो ने दावा किया था कि सबसे बड़ा खतरा चांद पर निजी उद्यमियों से नहीं है बल्कि इस बात से है कि “अमेरिका सोता रहे, कुछ न करे जबकि चीन आगे आए…सर्वेक्षण करे और [चांद पर] दावा ठोंक दे।”

यूएस सरकार द्वारा निजी कंपनियों को समर्थन से संभावना है कि संपदा में पृथ्वी-आधारित गैर-बराबरी को अंतरिक्ष में मज़बूत किया जाएगा। कई नव-अंतरिक्ष किरदार अंतरिक्ष में अपनी दीर्घावधि महत्वाकांक्षाओं को मानवीय सुर में ढालते हैं। जैसे, वे यह वादा करेंगे कि वे मानव जाति को आसन्न विलुप्ति के खतरे से बचाने के लिए अंतरिक्ष में बस्तियां बनाएंगे। अलबत्ता, इस तरह का विमर्श शायद ही उनकी खालिस निजी प्रकृति को छुपा सके। वे यह कहते नज़र आते हैं कि पूरे मामले में आम नागरिकों का हित जुड़ा है लेकिन हकीकत यह है कि ये अंतरिक्ष अग्रदूत वास्तव में एक छोटे से ब्रह्मांडीय आभिजात्य समूह के सदस्य हैं – Amazon.com, Microsoft, Pay Pal के संस्थापक और तरह-तरह के गेम डिज़ाइनर तथा होटल व्यवसायी।

वास्तव में, निजी अंतरिक्ष उद्यमियों ने स्वयं सुझाव दिया है कि उन पर कोई दायित्व नहीं होना चाहिए कि वे अंतरिक्ष से प्राप्त खनिज संसाधनों को विश्व समुदाय के साथ साझा करें। यह बात नाथन इंग्राहम (टेकसाइट EngadAsteroid mining के वरिष्ठ संपादक) के भाषण में साफ प्रतिबिंबित हुई थी। उन्होंने कहा था कि क्षुद्रग्रह खनन कैसा होगा यह इस बात पर निर्भर है कि  “अमेरिका अंतरिक्ष में कैसे आगे बढ़ता है और अगली वेगास स्ट्रिप कैसे विकसित करता है।” ऐसी टिप्पणियां उस चीज़ को रेखांकित करती हैं जिसे बीयरी ‘स्केलर पोलिटिक्स’ कहते हैं। जिस तरह से गैर-बराबर अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधों ने बाह्य अंतरिक्ष के साथ हमारे सम्बंधों को ‘वैश्विक साझा संपदा’ की आड़ में छिपाया है, उसी तरह निजी कंपनियां, अपनी मानवीय लफ्फाज़ी के ज़रिए, अंतरिक्ष से संसाधनों का दोहन करके पार्थिव गैर-बराबरियों और सामाजिक सम्बंधों को अंतरिक्ष में पहुंचा रही हैं। नव-अंतरिक्ष किरदार अपने उद्यमों की रचना इस तरह से करते हैं कि वे आम हित लुभाएं, और इसके पर्दे में यह बात छिपा लें कि वास्तव में व्यावसायिक संसाधन दोहन मात्र उनके निजी हितधारकों (शेयरहोल्डर्स) के हितों को पूरा करता है। और यह काम दुनिया के बहुसंख्य लोगों की कीमत पर किया जाता है।

निजी अंतरिक्ष कंपनियां और कक्षीय निगरानी : दोहरे उपयोग वाली टेक्नॉलॉजी

2013 से शुरू होकर, यूएस नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी के कर्मचारी एडवर्ड स्नोडेन के द्वारा लीक की गई गोपनीय सूचनाओं से पता चला था कि किस हद तक अमेरिकी गुप्तचर एजेंसियां निगरानी के व्यापक कार्यक्रमों में निजी एजेंसियों के साथ मिलकर काम कर रही हैं। इसे समाज के ‘सुरक्षाकरण’ (securitisation) का नाम दिया गया है और इसके तहत वर्तमान राज्य ‘राजनीति से निगरानी की ओर तथा शासन से (प्रजा के) प्रबंधन की ओर’ बढ़े हैं। और यह परिवर्तन नागरिकों की सहमति के बगैर किया गया है। हालांकि पारंपरिक रूप से ये क्रियाकलाप पृथ्वी-आधारित रहे हैं, लेकिन अंतरिक्ष ने उपग्रहों के ज़रिए निगरानी के रणनीतिक रूप से लाभदायक तरीके उपलब्ध करा दिए हैं।

यह सही है कि कई सारे व्यावसायिक उपग्रह पृथ्वी के पर्यावरण और इंटरनेट के लिहाज़ से महत्वपूर्ण क्षमताएं प्रदान करते हैं, लेकिन साथ ही ये राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से यूएस के दबदबे के लिए अत्यंत ज़रूरी हैं। इसीलिए उपग्रहों की प्रकृति को दोहरे उपयोग की प्रकृति कहा जाता है। इसमें नागरिक उपयोग और सैन्य उद्देश्य एक ही अवलोकन उपकरण में घुल-मिल जाते हैं और इन्हें ज़रूरत के अनुसार अलग-अलग कार्यों में तैनात किया जा सकता है। दोहरे उपयोग उपग्रह टेक्नॉलॉजी यूएस सेना के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण रही है और इसने जंग के मैदानों में विशेष लाभ दिया है। और इसमें से उपग्रह संचार की 80 प्रतिशत ज़रूरतों की पूर्ति व्यावसायिक उपग्रहों द्वारा की जाती है। इन नेटवर्क्स पर निर्भरता यूएस सैन्य दबदबे का एक प्रमुख घटक है जिसे ‘अंतरिक्ष नियंत्रण’ कहा जाता है। इसका एक लक्ष्य यह है कि व्यावसायिक उपग्रह डैटा के संचार को सुरक्षित रखा जाए जिसकी मदद से संवेदनशील सैन्य सूचनाएं उजागर न हों।

बाह्य अंतरिक्ष संधि में ऐसा कोई अनुच्छेद नहीं है जिसमें अंतरिक्ष में डैटा निगरानी के लिए नियम-कानून निर्धारित किए गए हों। फिर भी यह माना जा सकता है कि किसी भी रूप में बदनीयती या गैर-कानूनी ढंग से की गई निगरानी अनुच्छेद XI का उल्लंघन है। अनुच्छेद XI में राज्यों से अपेक्षित है कि वे “अपनी अंतरिक्ष गतिविधियों की प्रकृति, संचालन, भौगोलिक स्थिति और परिणामों के बारे में राष्ट्र संघ के महासचिव के अलावा आम लोगों तथा अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय को यथासंभव अधिक से अधिक तथा व्यावहारिक रूप से संभव सूचना प्रदान करेंगे।” कानूनी विशेषज्ञों ने मत व्यक्त किया है कि यह अनुच्छेद काफी कमज़ोर है क्योंकि राज्य अपनी अंतरिक्ष गतिविधियों की सूचना यह कहकर रोक सकते हैं कि उसे प्रसारित करना संभव या व्यावहारिक नहीं है। राष्ट्र संघ के किसी स्पष्ट दिशानिर्देश की अनुपस्थिति का मतलब यह भी रहा है कि अमेरिकी उपग्रह कंपनियां बढ़ते क्रम में अपनी मंशाएं उजागर करने से इन्कार कर पा रही हैं। वे यह भी बताने से इन्कार कर पा रही हैं कि उनके ग्राहक कौन हैं। यूएस सरकार ऐसे ही गुप्त ग्राहकों में है।

1994 में यूएस राष्ट्रपति के निर्णय क्रमांक 23 ने यूएस सरकार को यह अधिकार प्रदान किया था कि वह कंपनियों द्वारा कतिपय उपग्रह चित्र बेचने पर प्रतिबंध लगा सके या ऐसी बिक्री को सीमित कर सके। इस प्रक्रिया को ‘शटर कंट्रोल’ कहा जाता है। यह इस मायने में विवादास्पद है कि यह यूएस कार्यपालिका को यह अधिकार देती है कि वह कतिपय परिस्थितियों में सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारी को सीमित कर सके, जो संभवत: प्रथम संशोधन में प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन है। 2001 के अफगानिस्तान युद्ध के दौरान यूएस सरकार ने जियोआई उपग्रह से प्राप्त उन समस्त तस्वीरों के अधिकार खरीद लिए थे जो युद्धस्थल के ऊपर से ली गई थीं। इसका कारण राष्ट्रीय सुरक्षा बताया गया था। अलबत्ता, मीडिया समूहों ने सरकार के इस सौदे पर आरोप लगाया था कि इसके ज़रिए उन्हें आम लोगों को महत्वपूर्ण मामलों के बारे में सूचना देने से रोका जा रहा है, जिनमें राष्ट्रीय सुरक्षा का कोई मसला है भी नहीं। उदाहरण के लिए इसमें ऐसी सूचनाएं शामिल थीं कि सिविल इमारतों को कितना नुकसान पहुंचा है या कितने नागरिक मारे गए हैं। लिहाज़ा, इन कदमों ने OST के अनुच्छेद XI का उल्लंघन किया था क्योंकि इनके ज़रिए महत्वपूर्ण सूचनाएं जनता से छिपाई गई थीं जबकि यह व्यावहारिक रूप से संभव था और बहाना राष्ट्रीय सुरक्षा का बनाया गया था। इसके अलावा, इन कदमों से यूएस सरकार उन इलाकों के कवरेज के साथ भी छेड़छाड़ कर सकी जो उसे अफगानिस्तान युद्ध में जनता के समर्थन की दृष्टि से महत्वपूर्ण लगे, और साथ ही अंतरिक्ष में अपना दबदबा भी बढ़ाया। कई मायनों में इसे ‘वैश्विक पैनॉप्टिकल’ खुफिया नेटवर्क को सुगम बनाने की एक रणनीति भी माना जा सकता है।

बाह्य अंतरिक्ष में सार्वजनिक-निजी संकर ढांचे को बढ़ावा देकर कंपनियों और सरकारों को यह अवसर मिल जाता है कि वे किसी भी स्थान पर विश्व भर के करोड़ों नागरिकों की निगरानी, उनके जाने बगैर, कर सकें और इसके ज़रिए विशाल मात्रा में आंकड़े जुटा सकें। यह जानी-मानी बात है कि जियोआई को उसके आईकोनोस चित्रों के लिए यूएस सरकार से लगभग 20 लाख डॉलर मिले थे। इससे व्यावासायिक उपग्रह उद्योग को प्रलोभन मिलेगा कि वह ऐसी जानकारियों को छिपाकर रखे जो दुनिया भर में नागरिकों के हित में काम आ सकती है। इस मायने में, उपग्रह तस्वीरें एक किस्म के कक्षीय डैटा अधिग्रहण का रूप ले सकती हैं जहां कंपनियां अतंरिक्ष में निगरानी करेंगी और अपनी सूचनाएं सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को बेच देंगी। और इस प्रक्रिया में निजता वगैरह की कोई परवाह नहीं की जाएगी। कैम्ब्रिज एनालिटिका और फेसबुक से जुड़े मामलों में यह स्पष्ट रूप से सामने आ चुका है कि कंपनियां किस हद तक अपने उपभोक्ताओं की सूचनाओं का मौद्रिकरण कर रही हैं।

कॉर्पोरेट अंतरिक्ष मलबा, सुरक्षा सम्बंधी तनातनी और पर्यावरणीय संदूषण

अंतरिक्ष में विचरती मानव-निर्मित निरुद्देश्य वस्तुओं को अंतरिक्ष मलबा कहा जा सकता है। ये वस्तुएं पहले किए गए अंतरिक्ष अभियानों के निष्क्रिय टुकड़े हो सकते हैं, उपग्रहों के टुकड़े हो सकते हैं। पृथ्वी की कक्षा में लगभग 30,000 मलबा टुकड़े हैं। यह सही है कि अधिकांश मलबे का आकार सेंटीमीटर या मिलीमीटर में ही है लेकिन ये टुकड़े अक्सर बंदूक की गोली की रफ्तार से चलते हैं। अर्थात ऐसे दो टुकड़ों के बीच टक्कर काफी घातक हो सकती है – पर्यावरण, यांत्रिकी और वित्तीय दृष्टि से।

1978 में केसलर सिंड्रोम सिद्धांत का विकास हुआ था – यह सिद्धांत भविष्यवाणी करता है कि अंतरिक्ष मलबा इतना घना हो जाएगा कि एक टक्कर टक्करों के एक सिलसिले को जन्म दे देगी। ऐसा माना जाता है कि अंतरिक्ष मलबा तात्कालिक रूप से सैन्य-अंतरिक्ष गतिविधियों की अपेक्षा ज़्यादा बड़ा खतरा होगा। यह पता करना भी मुश्किल होगा कि कोई टक्कर मात्र एक हादसा थी या जानबूझकर करवाई गई थी। इस अनिश्चितता के चलते समस्या और विकराल हो जाती है क्योंकि कहते हैं कि ‘अंतरिक्ष की हर वस्तु शेष समस्त वस्तुओं के लिए खतरा है।’ इन्हीं बातों के चलते यूएस प्रशासन कक्षीय मलबे के संदर्भ में अधिक से अधिक सुरक्षाकरण का विमर्श अपनाने लगा है। इसका परिणाम यह हो सकता है कि भविष्य में अमेरिकी उपग्रहों की टक्कर के प्रति यूएस की प्रतिक्रिया सैन्य दृष्टिकोण से दी जाएगी।

कई सारे नव-अंतरिक्ष किरदार, हालिया उपग्रह प्रस्तावों के ज़रिए, शायद इस चिंता को और पेचीदा बनाएंगे। एक ओर तो बोइंग लगभग 3000 उपग्रहों का नक्षत्र प्रस्तावित कर रही है वहीं स्पेसएक्स की योजना तो और भी महत्वाकांक्षी है – वह तो 4425 उपग्रह प्रक्षेपित करने की योजना बना रही है और निकट भविष्य में इनकी संख्या 12,000 कर देगी। तुलना के लिए देखें कि फिलहाल पृथ्वी की कक्षा में मात्र करीब 1400 सक्रिय उपग्रह हैं। बताने की ज़रूरत नहीं है कि ये किस तरह के सुरक्षा सम्बंधी खतरों को जन्म दे सकते हैं।

इसके अलावा, व्यावसायिक उपग्रहों की यह बाढ़ महत्वपूर्ण पर्यावरणीय मुद्दे भी उठाती है। OST का अनुच्छेद IX कहता है: ‘राज्य अंतरिक्ष गतिविधियों को इस तरह करेंगे कि उनसे कोई हानिकारक संदूषण अथवा पृथ्वी पर कोई प्रतिकूल पर्यावरणीय परिवर्तन न हो।’ अलबत्ता, ‘हानिकारक’ या ‘प्रतिकूल परिवर्तन’ जैसे शब्दों के इस्तेमाल से इस मामले में अस्पष्टता झलकती है कि पर्यावरणीय परिवर्तन का ठीक-ठीक मतलब क्या है या किसे हानि से बचाया जाना चाहिए। इसमें अंतरिक्ष मलबे की समस्या को संबोधित करने में नाकामी दिखती है क्योंकि पूरा विमर्श रासायनिक प्रदूषण पर केंद्रित है और इसमें अंतरिक्ष में तैरते मलबे को हटाने का कोई ज़िक्र नहीं है।

अंतरिक्ष में पर्यावरणीय सरोकारों को उपयुक्त ढंग से संबोधित करने में OST की नाकामी को नव-अंतरिक्ष समुदाय ने आगे बढ़ाया है जहां पारिस्थितिक मसलों को नकारा गया है: “बाह्य अंतरिक्ष संसाधन विकास सम्बंधी सैकड़ों आलेख और पुस्तकें कभी-कभार ही यह ज़िक्र करती हैं कि ऐसी गतिविधियां पर्यावरण को इस तरह प्रतिकूल प्रभावित कर सकती हैं जो उनके अपने उद्यमों और उन्हें क्रियान्वित करने वाले मनुष्यों को नुकसान पहुंचा सकती हैं।” ऐसे वर्णन उन दिक्कतों को उजागर करते हैं जिनका सामना निजी कंपनियां पृथ्वी पर कर चुकी हैं – पूंजी और पर्यावरण का ऐसा तालमेल बनाना जो उनके मुनाफे को कम न करे। फिर भी ऐसा करते हुए अंतरिक्ष में मलबे का फैलाव अवश्यंभावी है जिसे संबोधित करने में ओएसटी नाकाम रही है। वैसे तो बाह्य अंतरिक्ष बहुत विशाल है लेकिन मानवीय उपयोग अथवा लाभ की दृष्टि से उसका बहुत छोटा हिस्सा ही काम आ सकता है। इसका मतलब होगा कि बढ़ते अंतरिक्ष मलबे के साये में विकासशील देशों के लिए अंतरिक्ष का उपयोग संभव नहीं रह जाएगा।

एलन मस्क की स्पेसएक्स कंपनी ने पृथ्वी पर बैठे खगोलशास्त्रियों की मुश्किलें बढ़ा भी दी हैं। अन्य उपग्रहों के मुकाबले उनके स्टारलिंक उपग्रहों की चमक इतनी है कि वह दूरबीन से ली जाने वाली तस्वीरों को धुंधला कर रही है। उससे भी ज़्यादा चिंता की बात यह है कि स्टारलिंक उपग्रह संभवत: उषाकाल में ज़्यादा नज़र आएंगे और इसका असर खतरनाक धूमकेतुओं के समय रहते अवलोकन करने पर पड़ेगा। इस मायने में, हालांकि निजी अंतरिक्ष उद्यम बड़े-बड़े उपग्रह समूह स्थापित करके अपना मुनाफा तो बढ़ा लेंगे लेकिन ये पृथ्वी पर शोधकर्ताओं के वैज्ञानिक काम को बरबाद कर देंगे।

निष्कर्ष : अंतरिक्ष बतौर एक वैश्विक माल

अंतत: यह लेख उजागर करता है कि कैसे OST निजी अंतरिक्ष उद्यमों का उपयुक्त ढंग से नियमन करने में असफल रही है। मूलत: यह संधि राज्य-केंद्रित नज़रिए से विकसित की गई थी, लेकिन राज्य और निजी क्षेत्र के बढ़ते मेलजोल का परिणाम है कि दोनों ही अपने अंतरिक्ष हितों को साधने में संधि की अस्पष्टताओं का फायदा उठा रहे हैं।

इन प्रक्रियाओं से एक बात और स्पष्ट होती है – कि बाह्य अंतरिक्ष संधि के निर्माताओं की संकल्पना और नव-अंतरिक्ष किरदारों की संकल्पना, दोनों ही पृथ्वी-आधारित सामाजिक सम्बंधों और शक्ति के ढांचों से जुड़ी हैं। चाहे संसाधनों को लेकर दावे-प्रतिदावे हों या पर्यावरण के मुद्दे हों, जो सरोकार पेश हुए हैं वे पृथ्वी पर चल रहे घटनाक्रम को प्रतिबिंबित करते हैं। जिस समय OST विकसित की गई थी, उस समय के अनुरूप यह राज्यों को एक-दूसरे द्वारा किए जा सकने वाले नुकसान से बचाने के लिए बनी थी। उस समय माहौल तीखे अंतर्राष्ट्रीय टकरावों का था और परमाणु युद्ध का खतरा मुंह बाए खड़ा था। तो उस समय अंतरिक्ष के पर्यावरण की रक्षा कोई सरोकार नहीं था। स्वयं को मानवता के रक्षक बताने वाले नव-अंतरिक्ष उद्यमियों का अंतरिक्ष में मुनाफा अधिकतम करने पर ज़ोर है और इसलिए आलोचना वही है जो पृथ्वी के संदर्भ में थी। नासा द्वारा 2020 में स्थापित नज़ीर का मतलब यह होगा कि भविष्य में निजी कंपनियां अंतरिक्ष ‘में सार्वजनिक पहुंच को और कम करेंगी। वास्तव में बाह्य अंतरिक्ष की धारणा ‘वैश्विक साझा संपदा’ से बदलकर ‘वैश्विक माल’ में तबदील होती जा रही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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इलेक्ट्रॉन अवलोकन का साधन: भौतिकी नोबेल पुरस्कार

र्ष 2023 का भौतिकी नोबेल पुरस्कार उन प्रायोगिक विधियों के लिए दिया गया है जिनकी मदद से प्रकाश की अत्यंत अल्प अवधि (एटोसेकंड) चमक पैदा करके पदार्थ में इलेक्ट्रॉन की गतियों का अध्ययन किया जा सकता है। पुरस्कार ओहायो विश्वविद्यालय के पियरे एगोस्टिनी, मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ क्वांटम ऑप्टिक्स के फेरेंक क्राउज़, तथा लुंड विश्वविद्यालय के एन एलहुइलियर को संयुक्त रूप से दिया गया है।

इन तीन भौतिक शास्त्रियों ने वैज्ञानिकों को ऐसे औज़ार उपलब्ध कराए हैं जिनकी मदद से परमाणुओं और अणुओं के अंदर इलेक्ट्रॉन्स का बेहतर अध्ययन संभव हो जाएगा। दरअसल, अणु-परमाणु में इलेक्ट्रॉन्स की गतियां बहुत तेज़ रफ्तार से होती हैं और उनकी गति या ऊर्जा में परिवर्तन का अध्ययन करने के लिए वैसे ही त्वरित अवलोकन साधन की ज़रूरत होती है। आम तौर पर इतनी तेज़ रफ्तार घटनाएं एक-दूसरे पर इस कदर व्याप्त हो जाती हैं कि उन्हें अलग-अलग देखना मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए, जब हम कोई फिल्म देखते हैं तो उनकी अलग-अलग तस्वीरें ऐसे घुल-मिल जाती हैं कि हमें एक निरंतर चलती तस्वीर का आभास होता है। इलेक्ट्रॉन के स्तर पर तो सब कुछ इतनी तेज़ी से होता है कि प्रत्येक परिघटना 1 एटोसेकंड के दसवें भाग में सम्पन्न हो जाती है। कहते हैं कि एक एटोसेकंड इतना छोटा होता है कि एक सेकंड में उतने ही एटोसेकंड होते हैं जितने सेकंड ब्रह्मांड की उत्पत्ति से लेकर अब तक बीते हैं।

इस वर्ष के नोबेल विजेता प्रकाश का ऐसा पल्स पैदा करने में सफल रहे हैं जो एक एटोसेकंड को नाप सकता है। इसकी मदद से हम अणु-परमाणु के अंदर चल रही प्रक्रियाओं की तस्वीरें प्राप्त कर सकते हैं।

बहरहाल उनके इस काम को वैज्ञानिक स्तर पर समझना काफी मुश्किल होगा और हमें इन्तज़ार करना होगा कि कोई भौतिक शास्त्री उसे हमारे स्तर पर समझाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आदित्य मिशन: सूरज के अध्ययन में शामिल होगा भारत

चंद्रयान के सकुशल अवतरण के बाद इसरो की तैयारी सूरज को पढ़ने की है। इसरो का आदित्य-L1 मिशन 2 सितंबर को प्रक्षेपित होने जा रहा है। इसे सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, श्री हरिकोटा से PSLV-XL रॉकेट द्वारा प्रक्षेपित किया जाएगा। यह अंतरिक्ष यान पृथ्वी से करीब 15 लाख किलोमीटर दूर सूर्य-पृथ्वी के बीच लैग्रांजे बिंदु-1 (L-1) की कक्षा में स्थापित किया जाएगा, जहां से यह सौर गतिविधियों की निगरानी करेगा। यह सूर्य का अध्ययन करने वाला पहला भारतीय अंतरिक्ष अभियान होगा। गौरतलब है कि फिलहाल विभिन्न देशों के 20 से ज़्यादा सौर अध्ययन अंतरिक्ष मिशन अंतरिक्ष में मौजूद हैं।

बताते चलें कि लैग्रांजे बिंदु अंतरिक्ष में दो पिंडों के बीच वे स्थान होते हैं जहां यदि कोई छोटा पिंड या उपग्रह रख दिया जाए तो वह वहां टिका रहता है। पृथ्वी-सूर्य प्रणाली के बीच ऐसे पांच बिंदु हैं। L1 बिंदु की कक्षा में स्थापित करने का फायदा यह है कि आदित्य-L1 बिना किसी अड़चन, ग्रहण वगैरह के सूर्य की लगातार निगरानी कर सकता है।

पृथ्वी से सूर्य की निगरानी और अवलोकन तो हम करते रहे हैं। लेकिन अंतरिक्ष से सूर्य के अवलोकन का कारण है कि पृथ्वी का वायुमंडल कई तंरगदैर्घ्यों और कणों को प्रवेश नहीं करने देता। इसलिए ऐसे विकिरण की मदद से होने वाले अवलोकन पृथ्वी से कर पाना संभव नहीं है। चूंकि अंतरिक्ष में ऐसी कोई बाधा नहीं है इसलिए अंतरिक्ष से इनका अवलोकन संभव है।  

आदित्य-L1 में सूर्य की गतिविधियां, सौर वायुमंडल (मुख्यत: क्रोमोस्फीयर और कोरोना) और अंतरिक्ष के मौसम का निरीक्षण करने के लिए सात यंत्र लगे हैं। इनमें से चार यंत्र बिंदु L1 पर बिना किसी बाधा के सीधे सूर्य का अवलोकन करेंगे, और शेष तीन यंत्र लैग्रांजे बिंदु L1 की स्थिति और कणों का जायज़ा लेंगे। आदित्य-L1 पर लगे विज़िबल एमिशन लाइन कोरोनाग्राफ (VELC) का काम होगा सूर्य के कोरोना और कोरोना से निकलने वाले पदार्थों का अध्ययन करना। कोरोना सूर्य की सबसे बाहरी सतह है जो सूर्य के तेज़ प्रकाश में ओझल रहती है। इसे विशेष उपकरणों से ही देखा जा सकता है। वैसे कोरोना को पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान देखा जा सकता है। सोलर अल्ट्रावॉयलेट इमेजिंग टेलीस्कोप (SUIT) पराबैंगनी प्रकाश में सूर्य के फोटोस्फीयर और क्रोमोस्फीयर की तस्वीरें लेगा और अल्ट्रावॉयलेट प्रकाश के नज़दीक सौर विकिरण विचलन मापेगा। फोटोस्फीयर या प्रकाशमंडल वह सतह है जहां से प्रकाश फैलता है। सोलर लो एनर्जी एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (SoLEXS) और हाई एनर्जी L1 ऑर्बाइटिंग एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (HEL1OS) सूर्य की एक्स-रे प्रदीप्ति का अध्ययन करेगा। आदित्य सोलर विंड पार्टीकल एक्सपेरिमेंट (ASPEX) और प्लाज़्मा एनालाइज़र पैकेज फॉर आदित्य (PAPA) सौर पवन, उसके आयन और ऊर्जा वितरण का अध्ययन करेगा। इसका एडवांस्ड ट्राय-एक्सिस हाई रिज़ॉल्यूशन डिजिटल मैग्नेटोमीटर L1 बिंदु पर मौजूद चुम्बकीय क्षेत्र का मापन करेगा।

प्रक्षेपण के करीब 100 दिन बाद आदित्य अपनी मंज़िल (L1) पर पहुंचेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शुक्र पर जीवन की तलाश – प्रदीप

पृथ्वी के अलावा अन्य ग्रहों पर जीवन की संभावना का विचार हमेशा से सभी को आकर्षित करता रहा है। जीवन की संभावना वाले ग्रहों की सूची में मंगल के अलावा शुक्र भी शामिल हो चुका है। इसका कारण पिछले डेढ़-दो दशक में शुक्र के वातावरण में घटित हो रही रासायनिक प्रक्रियाओं को लेकर हमारी समझ में हुई वृद्धि है। हाल ही में कार्डिफ युनिवर्सिटी के जेन ग्रीव्स की टीम ने खगोल विज्ञान की एक राष्ट्रीय गोष्ठी में शुक्र पर जीवन योग्य परिस्थितियों की मौजूदगी को लेकर एक शोध पत्र प्रस्तुत किया है। इस शोध पत्र का निष्कर्ष है कि शुक्र के तपते और विषैले वायुमंडल में फॉस्फीन नामक एक गैस है जो वहां जीवन की उपस्थिति का संकेत हो सकती है।

पूर्व में कार्डिफ युनिवर्सिटी के ही शोधकर्ताओं ने शुक्र के वातावरण में फॉस्फीन के स्रोतों का पता लगाकर हलचल मचा दी थी। हालांकि तब कई प्रतिष्ठित विशेषज्ञों ने शुक्र के घने कार्बन डाईऑक्साइड युक्त वातावरण, सतह के अत्यधिक तापमान व दाब और सल्फ्यूरिक अम्ल के बादलों जैसी बिलकुल प्रतिकूल परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इस शोध को खारिज कर दिया था। लेकिन अब हवाई स्थित जेम्स क्लार्क मैक्सवेल टेलीस्कोप (जेसीएमटी) और चिली स्थित एटाकामा लार्ज मिलीमीटर ऐरे रेडियो टेलीस्कोप की सहायता से ग्रीव्‍स को शुक्र के वायुमंडल के निचले क्षेत्र में फॉस्फीन की मौजूदगी के सशक्त प्रमाण मिले हैं। इससे शुक्र के अम्लीय बादलों में सूक्ष्म जीवों की मौजूदगी की उम्मीदें पुनर्जीवित हो गई हैं।

वैज्ञानिकों के मुताबिक शुक्र के वातावरण में 96 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड है, लेकिन फॉस्फीन का मिलना अपने आप में बेहद असाधारण बात है क्योंकि यह एक सशक्त बायो सिग्नेचर (जैव-चिन्ह) है। फॉस्फीन को एक बायो सिग्नेचर मानने का एक बड़ा कारण है पृथ्वी पर फॉस्फीन का सम्बंध जीवन से है। फॉस्फीन गैस के एक अणु में तीन हाइड्रोजन परमाणुओं से घिरे फॉस्फोरस परमाणु होते हैं, जैसे अमोनिया में तीन हाइड्रोजन परमाणुओं से घिरे नाइट्रोजन परमाणु होते हैं। पृथ्वी पर यह गैस औद्योगिक प्रक्रियाओं से बनती है। यह कुछ अनॉक्सी जीवाणुओं द्वारा भी निर्मित होती है जो ऑक्सीजन-विरल वातावरण में रहते हैं, जैसे सीवर, भराव क्षेत्र या दलदल में। सूक्ष्मजीव यह गैस ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में उत्सर्जित करते हैं। 

शुक्र पर फॉस्फीन की खोज के दो मायने हैं। एक, शुक्र पर जीवित सूक्ष्मजीव हो सकते हैं – शुक्र की सतह पर नहीं बल्कि उसके बादलों में, क्योंकि शुक्र की सतह किसी भी प्रकार के जीवन के अनुकूल नहीं है। उल्लेखनीय है कि फॉस्फीन या उसके स्रोत जिन बादलों में मिले हैं वहां तापमान 30 डिग्री सेल्सियस था। दूसरा, यह उन भूगर्भीय या रासायनिक प्रक्रियाओं से निर्मित हो सकती है, जो हमें पृथ्वी पर नहीं दिखती। ऐसे में इस खोज से यह दावा नहीं किया जा सकता कि हमने वहां जीवन खोज लिया है। लेकिन यह भी नहीं कह सकते कि वहां जीवन नहीं है। यह खोज अंतरिक्ष-अन्वेषण के लिए नए द्वार खोलती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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