नया कोरोनावायरस और सामान्य फ्लू

या कोरोनावायरस कुछ समय से विश्व भर में सुर्खियों में छाया है, लेकिन एक ऐसा वायरस संक्रमण भी है जो कई देशों में फैला हुआ है जिसे हम मौसमी फ्लू कहते हैं। तो इनकी तुलना करना उपयोगी होगा।

इस नए कोरोनावायरस को अब नाम मिल गया है – COVID-19। इससे अब तक चीन में 427 लोगों की मौत हो चुकी है जबकि 20,000 लोग बीमार हैं। लेकिन यह संख्या मौसमी फ्लू की तुलना में कुछ भी नहीं है। यूएस के सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार अमेरिका में इस मौसम में फ्लू के कारण 10,000 लोगों की मौत हो चुकी है और लगभग 2 करोड़ लोग इससे संक्रमित हुए हैं। इनमें से 1.8 लाख लोग इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती किए गए हैं। 

वैज्ञानिक कई दशकों से मौसमी फ्लू का अध्ययन कर रहे हैं, इसलिए इसके बारे में काफी जानकारी है और हम यह तय कर पाते हैं कि आने वाले मौसम में हमें क्या करना है। लेकिन इसके विपरीत COVID-19 एक नए प्रकार का वायरस है। वैज्ञानिक COVID-19 को अच्छी तरह से जानने और समझने की कोशिश कर रहे हैं। उपलब्ध जानकारी के आधार पर नए कोरोनावायरस की तुलना फ्लू से की गई है।    

दोनों ही प्रकार के वायरस संक्रामक हैं जो श्वसन सम्बंधी बीमारी को जन्म देते हैं। साधारण फ्लू के लक्षण बुखार, खांसी, गले में खराश, मांसपेशियों में दर्द, सिरदर्द, बंद नाक, थकान और कभी-कभी उल्टी और अतिसार वगैरह होते हैं। वैसे तो फ्लू से ग्रस्त अधिकांश लोग दो सप्ताह से भी कम समय में ठीक हो जाते हैं लेकिन कुछ लोगों में फ्लू निमोनिया का रूप लेकर काफी जटिल हो जाता है।

COVID-19 के लक्षणों और गंभीरता को समझने की कोशिश जारी है। चूंकि इसके अधिकतर लक्षण मौसमी फ्लू से मिलते-जुलते हैं, इसको विभिन्न श्वसन सम्बंधी वायरसों से अलग करना काफी मुश्किल है। 100 लोगों पर किए गए एक अध्ययन में बुखार, खांसी और सांस लेने में तकलीफ जैसे लक्षण पाए गए थे। केवल 5 प्रतिशत लोगों में गले की खराश और बंद नाक के लक्षण पाए गए, 1-2 प्रतिशत लोगों में अतिसार और उल्टी जैसे लक्षण पाए गए। WHO के अनुसार चीन में 20,000 दर्ज मामलों में से 14 प्रतिशत लोगों की स्थिति को गंभीर माना गया है।        

सीडीसी के अनुसार अमेरिका में इस वर्ष फ्लू ग्रस्त लोगों में से 0.05 प्रतिशत लोगों की मौत हुई है। जबकि COVID-19 के कारण मृत्यु दर अभी भी स्पष्ट नहीं है, फिर भी फ्लू की तुलना में यह अधिक प्रतीत होती है। इसकी शुरुआत से लेकर अब तक के आंकड़ों के अनुसार लगभग 2 प्रतिशत की मृत्यु दर दर्ज की गई है। 

वायरस फैलने की तेज़ी को मापने के लिए वैज्ञानिक यह देखते हैं कि औसतन कोई व्यक्ति कितनों को संक्रमित करता है। दी न्यू यॉर्क टाइम्स के अनुसार फ्लू के लिए यह संख्या 1.3 है। न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन के अनुसार COVID-19 के लिए यह संख्या 2.2 है (यानि एक संक्रमित व्यक्ति से 2.2 लोगों में यह वायरस फैलता है)।   फिलहाल श्वसन सम्बंधी वायरस से बचने के लिए कुछ सुझाव दिए गए हैं: पानी और साबुन से कम से कम 20 सेकंड तक हाथ धोना, बिना धुले हाथों से नाक और आंखों को छूने से बचना, जो लोग बीमार हैं उनसे निकट संपर्क से बचना। इसके अलावा बीमार होने पर घर पर रहना तथा अक्सर उपयोग होने वाली चीज़ों को साफ रखना भी महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पोषण कार्यक्रमों की कितनी पहुंच है ज़रूरतमंदों तक – भारत डोगरा

कुपोषण व अल्प-पोषण की समस्या को देखते हुए भारत में पोषण योजनाओं व अभियानों का विशेष महत्व है। इस संदर्भ में भारत सरकार का हाल का बहुचर्चित कार्यक्रम ‘पोषण अभियान’ है। इस अभियान के अंतर्गत वित्तीय संसाधनों का आवंटन तो काफी हद तक उम्मीद के अनुरूप हुआ है, पर वास्तविक उपयोग में काफी कमी के कारण इसका समुचित लाभ प्राप्त नहीं हो पा रहा है।

एकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव (सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च) के एक आकलन के अनुसार वित्तीय वर्ष 2017-18 से 2019-20 वित्तीय वर्ष में 30 नवंबर तक, इस कार्यक्रम के लिए जारी किया गया मात्र 34 प्रतिशत धन वास्तव में खर्च हुआ। इस अभियान में नई दिशा दिखाने वाली सफल प्रयोगात्मक परियोजनाओं के लिए विशेष अनुदान का प्रावधान है। इसका उपयोग 30 नवंबर 2019 तक मात्र 12 राज्यों में ही हो सका। वित्तीय वर्ष 2019-20 में नवंबर तक इस अभियान के लिए 15 राज्यों में कोई धन रिलीज़ ही नहीं हुआ।

इस अभियान के बारे में यह भी समझना ज़रूरी है कि इसमें सूचना तकनीक, स्मार्टफोन खरीदने, सॉफ्टवेयर, मॉनीटरिंग, व्यवहार में बदलाव सम्बंधी आयोजनों आदि पर अधिक खर्च होता है और एकाउंटिबिलिटी इनिशिएटिव के अनुसार 72 प्रतिशत खर्च ऐसे मदों पर है। यह बताना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि पोषण अभियान से लोग यही समझते हैं कि इसके अंतर्गत अधिकतर धन का उपयोग भूख व कुपोषण से पीड़ित लोगों व बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन की व्यवस्था करने में खर्च होता है।

इस कार्यक्रम के लिए धन भारत सरकार के अतिरिक्त राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों से आता है और विश्व बैंक व बहुपक्षीय बैंक अंतर्राष्ट्रीय सहायता भी उपलब्ध करवाते हैं।

बच्चों के लिए पोषण का सबसे बड़ा कार्यक्रम आई.सी.डी.एस. (आंगनवाड़ी) है। इस कार्यक्रम पर वर्ष 2014-15 में 16,664 करोड़ रुपए खर्च हुए थे व 2019-20 का संशोधित अनुमान 17,705 करोड़ रुपए है। अर्थात महंगाई का असर कवर करने लायक भी वृद्धि नहीं हुई है जबकि 5 वर्षों में इसके कवरेज में आने वाले बच्चों की संख्या तो निश्चय ही काफी बढ़ी है।

वर्ष 2019-20 में इसके लिए बजट अनुमान 19,834 करोड़ रुपए था व वर्ष 2020-21 का बजट अनुमान 20,532 करोड़ रुपए है, जिससे पता चलता है कि बहुत मामूली वृद्धि है जो महंगाई के असर की मुश्किल से पूर्ति करेगी।

इतना ही नहीं, वर्ष 2019-20 में इस स्कीम के लिए मूल आवंटन तो 19,834 करोड़ रुपए का था, पर संशोधित अनुमान तैयार करते समय ही इसे 17,705 करोड़ रुपए पर समेट दिया गया था यानि 2129 करोड़ रुपए की कटौती इस पोषण के कार्यक्रम में की गई जो बहुत चिंताजनक है।

इसी तरह किशोरी बालिकाओं के स्वास्थ्य व पोषण की स्कीम ‘सबला’ के लिए 2019-20 के मूल बजट में 300 करोड़ रुपए का प्रावधान था जिसे संशोधित बजट में मात्र 150 करोड़ रुपए कर दिया गया यानी इसे आधा कर दिया गया। वर्ष 2020-21 के बजट में 250 करोड़ रुपए का प्रावधान है।

प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना को सरकार ने स्वयं विशेष महत्व की योजना माना है। किंतु वर्ष 2018-19 के बजट में इसके लिए जो मूल प्रावधान था, वास्तव में उसका मात्र 44 प्रतिशत ही खर्च किया गया। ज़्यां ड्रेज़ और रीतिका खेरा के एक अध्ययन में बताया गया है कि इस योजना के लिए योग्य मानी जाने वाली मात्र 51 प्रतिशत माताओं तक ही इसका लाभ पहुंच सका। जिनको लाभ मिला उनमें से मात्र 61 प्रतिशत को तयशुदा तीनों किश्तें प्राप्त हो सकीं (कुल 5000 रुपए)।

वर्ष 2019-20 में इस योजना के लिए 2500 करोड़ रुपए का मूल प्रावधान था। इसे संशोधित अनुमान में 2300 करोड़ रुपए कर दिया गया।

स्कूली बच्चों के लिए मिड-डे मील का कार्यक्रम महत्वपूर्ण है। इस पर वर्ष 2014-15 में वास्तविक खर्च 10,523 करोड़ रुपए था। वर्ष 2019-20 का इस कार्यक्रम का संशोधित अनुमान 9,912 करोड़ रुपए है यानि 5 वर्ष पहले के बजट से भी कम, जबकि महंगाई कितनी बढ़ गई है।

वर्ष 2019-20 के बजट में इस कार्यक्रम का मूल प्रावधान 11,000 करोड़ रुपए का था, पर संशोधित अनुमान में इसे 9,912 करोड़ रुपए कर दिया गया। वर्ष 2020-21 के बजट में फिर 11,000 करोड़ रुपए का प्रावधान है।

इस तरह पोषण कार्यक्रमों पर कम आवंटन, बड़ी कटौतियों, समय पर फंड जारी न होने आदि का प्रतिकूल असर पड़ता रहा है। इस स्थिति को सुधारना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोरोनावायरस: क्या कर सकते हैं वैज्ञानिक? – डॉ. सुशील जोशी

पिछले दिनों कोरोनावायरस सुर्खियों में रहा है। चीन के समुद्री खाद्य पदार्थों के बाज़ार वुहान से निकला यह वायरस एक आतंक का पर्याय-सा बन गया है। शुरू-शुरू में इसे अस्थायी नाम 2019- nCoV दिया गया था लेकिन अब इसे एक स्थायी नाम भी मिल गया है – COVID-19।

इसके संक्रमण से लगभग फ्लू जैसे लक्षण पैदा होते हैं – बुखार, खांसी, जुकाम, थकान, और कभी-कभी उल्टी-दस्त हालांकि COVID-19 कुछ ही मरीज़ों में नाक बहना तथा और भी कम मरीज़ों में उल्टी-दस्त की शिकायत रिपोर्ट हुई है। साधारण फ्लू और COVID-19, दोनों ही मामलों में मृत्यु की भी आशंका रहती है।

COVID-19 वायरस मनुष्य से मनुष्य में फैलता है। फ्लू वायरस के बारे में कहा जाता है कि यदि रोकथाम के कोई उपाय (जैसे मास्क लगाना वगैरह न किए जाएं) तो कोई भी फ्लू संक्रमित व्यक्ति औसतन 1.3 व्यक्तियों तक यह वायरस पहुंचा पाता है। यानी यदि 100 लोग फ्लू वायरस से संक्रमित हैं तो वे 130 लोगों को संक्रमित कर देंगे। COVID-19 के बारे में एक अनुमान है कि 100 संक्रमित व्यक्ति 220 लोगों को यह संक्रमण संचारित करेंगे। वैसे इन सब मामलों में मुख्य दिक्कत यह है कि COVID-19 एक नया वायरस है और इसके बारे में अनुमान दिन-ब-दिन बदलते जाएंगे। अभी तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे अंतर्राष्ट्रीय चिंता का स्वास्थ्य संकट घोषित किया है।

इसी नवीनता की वजह से वैज्ञानिक अभी असमंजस में हैं कि COVID-19 से निपटने के सबसे कारगर तरीके क्या होंगे। इसलिए फिलहाल मोटे तौर पर यही सलाह दी जा रही है कि लोगों से ज़्यादा निकट संपर्क से बचें, खांसते-छींकते समय मुंह और नाक को ढंककर रखें, पास में कोई खांसता-छींकता हो, तो अपनी नाक पर कपड़ा रख लें, हाथों को बार-बार धोएं वगैरह।

COVID-19 की प्रमुख चुनौती उसकी नवीनता है। उदाहरण के लिए जहां फ्लू के खिलाफ टीका उपलब्ध है (जो रोकथाम का एक प्रमुख उपाय है), वहीं COVID-19 के खिलाफ हमारे पास फिलहाल कोई टीका नहीं है। लेकिन यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑॅफ हेल्थ के शोधकर्ता COVID-19 के खिलाफ टीका विकसित करने की दिशा में काम कर रहे हैं और उम्मीद है कि तीन महीने के अंदर टीके का परीक्षण शुरू हो जाएगा।

इलाज के उपाय

अब तक हमारे पास COVID-19 का कोई विशिष्ट इलाज नहीं है। अत: फिलहाल लक्षणों का ही इलाज किया जा रहा है। इसका मतलब यही है कि मरीज़ को सांस लेने में सहायता मिले, बुखार पर नियंत्रण रखा जाए और पर्याप्त तरल शरीर में पहुंचाए जाएं। फिर भी विशेषज्ञों ने कुछ उपाय सुझाए हैं और कुछ प्रगति की है। इस मामले में दो रास्ते अपनाए जा रहे हैं।

पहला रास्ता है कि पुरानी वायरस-रोधी दवाइयों को COVID-19 के उपचार में इस्तेमाल करने की कोशिश करना। वैसे भी अभी हाल तक हमारे पास सचमुच कारगर वायरस-रोधी दवाइयां बहुत कम थीं। खास तौर से ऐसे वायरसों के खिलाफ औषधियों की बहुत कमी थी जो जेनेटिक सामग्री के रूप में डीएनए की बजाय आरएनए का उपयोग करते हैं, जिन्हें रिट्रोवायरस कहते हैं। कोरोनावायरस इसी किस्म का वायरस हैं। और COVID-19 तो एक नया वायरस या किसी पुराने वायरस की नई किस्म है। लेकिन हाल के वर्षों में अनुसंधान की बदौलत हमारे वायरस-रोधी खज़ाने में काफी वृद्धि हुई है।

लेकिन फिर भी सर्वथा नई दवा का निर्माण करना कोई आसान काम नहीं है। इसके लिए पैसा और समय दोनों की ज़रूरत होती है। तो यह तरीका ठीक ही लगता है कि नई दवा का इन्तज़ार करते हुए पुरानी दवाओं को आज़माया जाए।

दी न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक वॉशिंगटन में COVID-19 से संक्रमित एक व्यक्ति के उपचार के लिए वायरस-रोधी औषधि रेमडेसिविर का उपयोग किया गया। यह दवा मूलत: एबोला वायरस के उपचार के लिए विकसित की गई थी और इसे COVID-19 के संदर्भ में मंज़ूरी नहीं मिली है। विशेष मंज़ूरी लेकर यह दवा दी गई और वह व्यक्ति स्वस्थ हो गया।

वैज्ञानिकों ने रेमडेसिविर को प्रयोगशाला में जंतु मॉडल्स में अन्य कोरोनावारस के खिलाफ भी परखा है। लेकिन यह नहीं दर्शाया जा सका है कि यह दवा सुरक्षित है और न ही यह कहा जा सकता है कि यह कारगर है।

हाल ही में कुछ शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में कई सारी वायरस-रोधी दवाइयों का परीक्षण COVID-19 पर किया है। यह पता चला है कि रेमडेसिविर कम से कम प्रयोगशाला की तश्तरी में तो इस वायरस को प्रजनन करने से रोक देती है। इसी प्रकार से यह भी पता चला है कि आम मलेरिया-रोधी औषधि क्लोरोक्वीन प्रयोगशाला में COVID-19 को मानव कोशिकाओं में आगे बढ़ने से रोकती है। ऐसा माना जा रहा है कि ये दोनों दवाइयां आगे परीक्षण के लिए उपयुक्त उम्मीदवार हैं।

जहां तक नई दवा खोजने का सवाल है, तो कुछ प्रगति तो हुई है लेकिन इसमें कई दिक्कतें हैं। जब कोई वायरस शरीर में प्रवेश करता है तो उसे कोशिकाओं के अंदर पहुंचना पड़ता है। कोशिकाओं में प्रवेश पाने के लिए वह कोशिका की सतह पर किसी प्रोटीन से जुड़ता है। यह प्रोटीन ग्राही-प्रोटीन कहलाता है। इसके बाद कोशिका की झिल्ली पर एक थैली-सी (एंडोसोम) बनती है जिसमें समाकर वायरस कोशिका के अंदर पहुंच जाता है। इसी थैली में बैठे-बैठे वायरस अपना आरएनए कोशिका के कोशिका द्रव्य में पहुंचा देता है। इसके बाद इस आरएनए की मदद से वायरस कोशिका पर पूरा कब्जा कर लेता है और उससे वह वायरस प्रोटीन बनवाता है जो खुद उसकी प्रतिलिपि बनाने के लिए ज़रूरी होते हैं। इस प्रोटीन का उपयोग करके वह अपने एंज़ाइम की मदद से अपने आरएनए की प्रतिलिपियां बना लेता है। अंत में प्रोटीन और आरएनए इस तरह पैकेज होते हैं कि वायरस उस कोशिका से बाहर निकलकर किसी अन्य कोशिका में घुसने को तैयार हो जाता है।

कुल मिलाकर देखा जाए तो पूरी प्रक्रिया में कई चरण होते हैं और हम इनमें से किसी भी चरण में बाधा पहुंचाकर वायरस का प्रसार रोक सकते हैं। उदाहरण के लिए क्लोरोक्वीन के बारे में पता चला है कि वह वायरस को एंडोसोम में से अपना आरएनए बाहर भेजने से रोकती है। दूसरी ओर, रेमडेसिविर वायरस के आरएनए से जुड़ जाती है और वहां ऐसी त्रुटियां पैदा कर देती है कि आरएनए किसी काम का नहीं रहता।

2003 के सार्स प्रकोप के समय वायरस के लिए स्वीकृत एक दवा का उपयोग किया गया था। दरअसल यह दवाइयों का एक समूह है जिसे प्रोटिएस इनहिबिटर कहते हैं। इसे अब COVID-19 के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए परीक्षण चल रहे हैं।

चीन सरकार ने इसी समूह की दो अन्य दवाइयों के उपयोग का सुझाव दिया था। सुझाव था कि COVID-19 से संक्रमित व्यक्तियों को रोज़ाना लोपिनेविर/राइटोनेविर की दो गोलियां दी जाएं और उन्हें दिन में दो बार अल्फा-इंटरफेरॉन सूंघने को कहा जाए। ये दवाइयां कोशिकाओं को ऐसे रसायन स्रावित करने को उकसाती हैं जो अन्य कोशिकाओं के लिए चेतावनी का काम करते हैं कि शरीर में कोई संक्रमण मौजूद है।

वायरसों के साथ दो समस्याएं और भी हैं। पहली है कि वायरस में बहुत विविधता पाई जाती है। दूसरी दिक्कत है कि वायरस आपकी अपनी कोशिका की मशीनरी का उपयोग करते हैं। इस वजह से वायरस के कामकाज में बाधा डालते हुए खतरा यह भी रहता है कि कहीं आपकी कोशिकीय मशीनरी प्रभावित न हो। इस मामले में अनुसंधान ज़ोर-शोर से जारी है कि कोशिका की सतह के उन अणुओं की पहचान की जाए जो COVID-19 को कोशिका से जुड़ने और प्रवेश करने में मदद करते हैं। वैसे कई अन्य समूह COVID-19 के लिए टीका बनाने का प्रयास भी कर रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक ऐसी किसी दवा के विकास में कम से कम दो साल का समय लगेगा।

इस बीच भारत सरकार के आयुष मंत्रालय ने 29 जनवरी को एक स्वास्थ्य सलाह जारी की है जिसमें COVID-19 के उपचार हेतु होम्योपैथी तथा अन्य पारंपरिक औषधियों के उपयोग की वकालत की गई है। इसके अंतर्गत होम्योपैथी औषधि आर्सेनिकम एल्बम 30-सी लेने तथा रोज़ाना सुबह दोनों नथुनों में 2-2 बूंद तिल का तेल डालने को कहा गया है। इसके अलावा, यूनानी औषधियों के उपयोग की भी सलाह दी गई है। आयुष मंत्रालय की केंद्रीय होम्योपैथी अनुसंधान परिषद (सीसीआरएच) के अध्यक्ष अनिल खुराना का कहना है कि 2009 में आर्सेनिकम एल्बम 30-सी को स्वाइन फ्लू की रोकथाम में उपयोगी पाया गया था। वैसे उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि मात्र आर्सेनिकम एल्बम लेने से काम नहीं चलेगा, बाकी के रोकथाम के उपाय जारी रखने होंगे और लक्षण प्रकट होते ही अस्पताल जाना बेहतर होगा। वैसे चिकित्सा समुदाय के कई लोगों ने इस सलाह की आलोचना की है।

कुल मिलाकर स्थिति यह है कि COVID-19 तेज़ी से फैल रहा है, कोई पक्का इलाज उपलब्ध नहीं है और यह भी स्पष्ट नहीं है कि आने वाले दिनों में यह बीमारी क्या रुख अख्तियार करेगी। अत: इसे फैलने से रोकने के उपाय करना ही बेहतर होगा। एक अच्छी बात यह है कि बीमारी के लक्षण वाले व्यक्तियों में बच्चों की संख्या कम है। आंकड़े बताते हैं कि अधिकांश मरीज़ 49 से 56 वर्ष के बीच हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वैकल्पिक र्इंधन की ओर भारत के बढ़ते कदम – नरेन्द्र देवांगन

रसों से दुनिया जिन ऊर्जा स्रोतों को र्इंधन के रूप में उपयोग करती आ रही है, वे सीमित हैं। जहां एक ओर उनको बनने में लाखों साल लग जाते हैं, वहीं उनके अत्यधिक दोहन से समय के साथ-साथ वे चुक जाएंगे। ऐसे में आशा की एक नई किरण वैकल्पिक र्इंधन के रूप में सामने आई है। वैकल्पिक र्इंधन देश के कच्चे तेल के आयात बिल को कम करने में मदद कर सकते हैं। वर्तमान में भारत की अर्थव्यवस्था के मुख्य चालक डीज़ल और पेट्रोल हैं अर्थात भारत की अधिकतम ऊर्जा ज़रूरतें डीज़ल और पेट्रोल से पूरी होती हैं। अब स्थिति को बदलने की दिशा में काम हो रहा है।

वैश्विक स्तर पर वैकल्पिक र्इंधन के रूप में मेथेनॉल का उत्पादन और उपयोग बढ़ रहा है। इसके मुख्य कारण हैं कोयले और प्राकृतिक गैस जैसे सस्ते माल की कमी, तेल की कीमतों में वृद्धि, तेल आयात बिल में कमी करने की ख्वाहिश और प्रदूषण तथा जलवायु परिवर्तन जैसे पर्यावरणीय मुद्दे।

र्इंधन के रूप में और रासायनिक उद्योग में मध्यवर्ती पदार्थ रूप में मेथेनॉल का उपयोग ऑटोमोबाइल और उपभोक्ता क्षेत्रों में तेज़ी से बढ़ रहा है। मेथेनॉल अपने उच्च ऑक्टेन नंबर के कारण एक कुशल र्इंधन माना जाता है और यह गैसोलीन की तुलना में सल्फर ऑक्साइड्स (एसओएक्स), नाइट्रोजन ऑक्साइड्स (एनओक्स) और कणीय पदार्थ व गैसीय प्रदूषक तत्व कम उत्सर्जित करता है।

‘मेथेनॉल अर्थव्यवस्था’ का शाब्दिक अर्थ ऐसी अर्थव्यवस्था से है जो डीज़ल और पेट्रोल की बजाय मेथेनॉल के बढ़ते प्रयोग पर आधारित हो। मेथेनॉल अर्थव्यवस्था की अवधारणा को सक्रिय रूप से चीन, इटली, स्वीडन, इस्राइल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और कई अन्य युरोपीय देशों द्वारा लागू किया गया है। वर्तमान में चीन में लगभग 9 प्रतिशत परिवहन र्इंधन के रूप में मेथेनॉल का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके अलावा इस्राइल, इटली ने पेट्रोल के साथ मेथेनॉल के 15 प्रतिशत मिश्रण की योजना बनाई है।

भारतीय र्इंधन में मेथेनॉल की शुरुआत अप्रत्यक्ष रूप से हुई थी, जब बॉयोडीज़ल, मेथेनॉल और गैर खाद्य पौधों से बने तेल जैसे रतनजोत तेल को 2009 में जैव र्इंधन हेतु राष्ट्रीय नीति में शामिल किया गया था। मेथेनॉल अर्थव्यवस्था बनाने के पीछे मुख्य उद्देश्य देश की अर्थव्यवस्था के विकास को टिकाऊ बनाना है ताकि वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भावी पीढ़ियों की ज़रूरतों के साथ कोई समझौता न हो।

गैसोलीन में 15 प्रतिशत तक सम्मिश्रण के लिए मेथेनॉल अपेक्षाकृत एक आसान विकल्प है। यह वाहनों, स्वचालित यंत्रों या कृषि उपकरणों में कोई बदलाव किए बिना वायु गुणवत्ता सम्बंधी तत्काल लाभ प्रदान करता है। हालांकि दो अन्य अनिवार्यताओं, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी और र्इंधन आयात से विदेशी मुद्रा के बहिर्वाह में कमी के संदर्भ में भारत में अधिक मेथेनॉल क्षमता स्थापित करना आवश्यक होगा।

मोटे तौर पर देखा जाए तो मेथेनॉल र्इंधन हो या आजकल का मूल स्रोत हाइड्रोकार्बन हो इनमें वनस्पति जगत का मुख्य योगदान है। स्पष्ट है कि तमाम कार्बनिक पदार्थों के विश्लेषण से मेथेनॉल प्राप्त करना संभव है। जैव पदार्थ का बेहतरीन उपयोग कर 75 प्रतिशत तक मेथेनॉल प्राप्त किया जा सकता है। धरती की हरियाली से प्राप्त मेथेनॉल की उपयोगिता को भारतीय वैज्ञानिकों ने समझा और उसका उपयोग वाहनों को गति देने के लिए कर दिखाया। परीक्षणों में पाया गया है कि मेथेनॉल को 12 प्रतिशत की दर से मूल र्इंधन में मिलाकर वाहन चलाना संभव है।

वर्ष 1989 में नई दिल्ली स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में वैज्ञानिकों ने पेट्रोल में मेथेनॉल मिलाकर एक स्कूटर पहले आईआईटी कैम्पस में बतौर परीक्षण और फिर दिल्ली की सड़कों पर चलाया। इस सफलता से प्रेरित होकर भारतीय पेट्रोलियम संस्थान के वैज्ञानिकों ने मेथेनॉल-पेट्रोल के मिश्रण से पहली खेप में 15 स्कूटर और बाद में कई स्कूटर चलाए। इससे प्रभावित होकर कई निजी कंपनियां सामने आर्इं। वड़ोदरा में तो इनकी प्रायोगिक तौर पर बिक्री भी की गई।

पेट्रोल के अलावा मेथेनॉल को डीज़ल में मिलाकर भी कुछ सफलता प्राप्त हुई है। डीज़ल-मेथेनॉल के इस रूप को ‘डीज़ोहॉल’ नाम दिया गया है। भारतीय पेट्रोलियम संस्थान द्वारा डीज़ल में 15 से 20 प्रतिशत तक मेथेनॉल मिलाकर बसें भी चलाई जा चुकी हैं। भारत सहित कई अन्य देशों में डीज़ोहॉल को लेकर व्यावसायिक परीक्षण भी किए जा रहे हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि डीज़ोहॉल अधिक ऊर्जा क्षमता वाला र्इंधन होने के अलावा प्रदूषण भी कम पैदा करता है। कहना न होगा कि यह आर्थिक रूप से बेहतर और पर्यावरण हितैषी भी है।

वर्तमान में भारत को प्रति वर्ष 2900  करोड़ लीटर पेट्रोल और 9000 करोड़ लीटर डीज़ल की ज़रूरत होती है। भारत दुनिया में छठवां सबसे ज़्यादा तेल उपभोक्ता देश है। 2030 तक यह खपत दुगनी हो जाएगी और भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता देश बन जाएगा।

इसके अलावा भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जक देश है। दिल्ली जैसे शहरों में लगभग 30 प्रतिशत प्रदूषण वाहनों से होता है और सड़क पर कारों और अन्य वाहनों की बढ़ती संख्या प्रदूषण की इस स्थिति को आने वाले दिनों में और भी विकट बनाएगी। इसलिए बढ़ते आयात बिल और प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिए भारत का नीति आयोग देश की अर्थव्यवस्था को मेथेनॉल अर्थव्यवस्था में बदलने पर विचार कर रहा है।

हमारे देश में मेथेनॉल अर्थव्यवस्था एक व्यावहारिक, आवश्यक और किफायती रूप लिए उभर रही है। गर्व की बात है कि हमने प्रति वर्ष दो मीट्रिक टन मेथेनॉल पैदा करने की क्षमता हासिल कर ली है। उम्मीद की जा रही है कि वर्ष 2030 तक भारत के र्इंधन बिल में 30 प्रतिशत तक की कटौती हो जाएगी, जो मेथेनॉल के दम पर ही संभव होगी। भारत द्वारा मूल र्इंधन में 15 प्रतिशत मेथेनॉल मिलाए जाने का कार्यक्रम बनाया जा रहा है। इसके लिए इस्राइल जैसे देशों से मदद लेने की भी संभावना है। नीति आयोग द्वारा मेथेनॉल अर्थव्यवस्था फंड भी निर्धारित करने की योजना है जिसमें मेथेनॉल आधारित परियोजनाओं के लिए चार-पांच हज़ार करोड़ रुपए का प्रावधान है।

देश में बढ़ते प्रदूषण और कच्चे तेल के बढ़ते आयात बिल को देखते हुए भारत के लिए मेथेनॉल का उपयोग न सिर्फ ज़रूरी है बल्कि पर्यावरण की मांग भी है। यदि मेथेनॉल का उपयोग भारत में व्यापक पैमाने पर शुरू कर दिया जाता है तो भारत में होने वाला विकास टिकाऊ विकास हो जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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आसान नहीं है चीतों का पुनर्वास – प्रमोद भार्गव

भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में औद्योगिक विकास और बढ़ते शहरीकरण के चलते वन्य जीवों के सामने चुनौतीपूर्ण हालात उत्पन्न हो गए हैं। उनके संरक्षण एवं पुनर्वास की अनेक कोशिशों के बावजूद न तो संरक्षण की स्थिति संतोषजनक हुई है और न ही गिरवन के सिंह जैसे दुर्लभ प्राणियों का पुनर्वास कूनो-पालपुर अभयारण्य में संभव हो पाया है।

सर्वोच्च न्यायालय ने 74 साल पहले भारत में पूरी तरह लुप्त हो चुके चीते के पुनर्वास की अनुमति मध्यप्रदेश सरकार के वन विभाग को दी थी। टाइगर स्टेट का दर्जा प्राप्त मध्यप्रदेश में इन चीतों को दक्षिण अफ्रीका के नमीबिया से लाकर सागर जिले के नौरादेही अभयारण्य में नया ठिकाना बनाया जाएगा। यहां पिछले एक दशक से चीतों को बसाने के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाई जा रही हैं। दरअसल, चीते को घास के मैदान वाले जंगल पसंद हैं और नौरादेही इसी के लिए जाना जाता है। हालांकि इन्हें बसाने के विकल्प के रूप में श्योपुर ज़िले का कूनो-पालपुर अभयारण्य और राजस्थान के शाहगढ़ व जैसलमेर के थार क्षेत्र भी तलाशे गए थे, लेकिन इन वनखंडों में चीतों के अनुकूल प्राकृतिक आहार, प्रजनन व आवास की सुविधा न होने के कारण नौरादेही को ज़्यादा श्रेष्ठ माना गया। यह अनुमति राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की याचिका पर दी गई है।

एक समय था जब चीते की रफ्तार भारतीय वनों की शान हुआ करती थी। लेकिन 1947 आते-आते चीतों की आबादी पूरी तरह लुप्त हो गई। 1948 में अंतिम चीता छत्तीसगढ़ के सरगुजा में देखा गया था जिसे मार गिराया गया था। चीता तेज़ रफ्तार का आश्चर्यजनक चमत्कार माना जाता है। अपनी विशिष्ट लोचपूर्ण देहयष्टि के लिए भी इस हिंसक वन्य जीव की अलग पहचान थी। शरीर में इसी चपलता के कारण यह सबसे तेज़ धावक था। इसलिए इसे जंगल की बिजली भी कहा गया।

मध्यप्रदेश में चीतों की बसाहट की जाती है तो नौरादेही के 53 आदिवासी बहुल ग्रामों को विस्थापित करना होगा। इस अभयारण्य के विस्तार के लिए 1100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र प्रस्तावित है। यह इलाका सागर, नरसिंहपुर एवं छतरपुर ज़िलों में फैला हुआ है। सबसे ज़्यादा विस्थापित किए जाने वाले 20 गांव सागर ज़िले में हैं। इनमें से 10 गांवों का विस्थापन पहले ही किया जा चुका है। शेष छतरपुर व नरसिंहपुर ज़िलों के राजस्व ग्राम हैं, जिनका विस्थापन होना है। अर्थात जितना कठिन चीतों का पुनर्वास है, उससे ज़्यादा कठिन व खर्चीला काम गांवों का विस्थापन है। देश में चीतों एवं सिंहों के पुनर्वास के प्रयत्न अब तक असफल ही रहे हैं। 

दरअसल, 1993 में चार चीते दक्षिण अफ्रीका के जंगलों से दिल्ली के चिड़ियाघर में लाए गए थे। वैसे चीतों द्वारा चिड़ियाघरों में प्रजनन अपवाद घटना होती है लेकिन चिड़ियाघर में इनके आवास, परवरिश व प्रजनन के पर्याप्त उपाय किए गए थे। लिहाज़ा उम्मीद थी कि ये वंशवृद्धि करेंगे और इनकी संतानों को देश के अन्य चिड़ियाघरों व अभयारण्यों में स्थानांतरित किया जाएगा। बदकिस्मती से, प्रजनन से पहले ही चीते मर गए।

बीती सदी में चीतों की संख्या एक लाख तक थी, लेकिन अफ्रीका के खुले घास वाले जंगलों से लेकर भारत सहित लगभग सभी एशियाई देशों में पाए जाने वाला चीते अब पूरे एशियाई जंगलों में गिनती के रह गए हैं। राजा चीता (एसिनोनिक्स रेक्स) जिम्बाब्वे में मिलता है। अफ्रीका के जंगलों में भी गिने-चुने चीते रह गए हैं। तंजानिया के सेरेंगटी राष्ट्रीय उद्यान और नमीबिया के जंगलों में भी गिनती के चीते ही हैं।

प्रजनन के तमाम आधुनिक व वैज्ञानिक उपायों के बावजूद जंगल की इस फुर्तीली नस्ल की संख्या बढ़ाई नहीं जा पा रही है। ज़ुऑलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन की रिपोर्ट की मानें तो दुनिया में 91 प्रतिशत चीते 1991 में ही समाप्त हो चुके थे। अब पूरी दुनिया में केवल 7100 चीते बचे हैं। एशिया के ईरान में केवल 50 चीते शेष हैं। अफ्रीकी देश केन्या के मासाईमारा क्षेत्र को चीतों का गढ़ माना जाता था, लेकिन अब वहां इनकी संख्या गिनती की रह गई है।  

इस सदी के पांचवे दशक तक चीते अमेरिका के चिड़ियाघरों में भी थे। प्राणि विशेषज्ञों की अनेक कोशिशों के बाद इन चीतों ने 1956 में शिशुओं को जन्म भी दिया था। पर किसी भी शिशु को बचाया नहीं जा सका। चीते द्वारा किसी चिड़ियाघर में जोड़ा बनाने की यह पहली घटना थी, जो नाकाम रही। जंगल के हिंसक जीवों का प्रजनन चिड़ियाघरों में आश्चर्यजनक ढंग से प्रभावित होता है, इसलिए शेर, बाघ, तेंदुए व चीते चिड़ियाघरों में जोड़ा बनाने की इच्छा नहीं रखते हैं।

भारत में चीतों की अंतिम पीढ़ी के कुछ सदस्य 1947 में बस्तर-सरगुजा के घने जंगलों में देखे गए थे। प्रदेश अथवा भारत सरकार इनके संरक्षण के ज़रूरी उपाय करने हेतु हरकत में आती, इससे पहले ही चीतों के इन अंतिम वंशजों को भी शिकार के शौकीन राजा-महाराजाओं ने मार गिराया। इस तरह भारतीय चीतों की नस्ल पर पूर्ण विराम लग गया।

हमारे देश के राजा-महाराजाओं को घोड़ों और कुत्तों की तरह चीते पालने का भी शौक था। चीता-शावकों को पालकर इनसे जंगल में शिकार कराया जाता था। राजा लोग जब जंगल में आखेट के लिए जाते थे, तो प्रशिक्षित चीते को बैलगाड़ी में बिठाकर साथ ले जाते थे। उसकी आंखों पर पट्टी बांध दी जाती थी, ताकि वह किसी मामूली वन्य जीव पर न झपटे। जब शिकार राजाओं की दृष्टि के दायरे में आ जाता, तो चीते की आंखों की पट्टी खोलकर शिकार की दिशा में हाथ से इशारा कर दिया जाता था। पलक झपकते ही शिकार चीते के कब्जे में होता। शिकार का यह अद्भुत करिश्मा देखना भी रोमांच की बात रही होगी।

भारत के कई राजमहलों में पालतू चीतों से शिकार करवाने के अनेक चित्र अंकित हैं। मुगल काल में अकबर ने सैकड़ों चीतों को बंधक बनाकर पाला। मध्यप्रदेश में मांडू विजय से लौटने के बाद अकबर ने चंदेरी और नरवर (शिवपुरी) के जंगलों में चीतों से वन्य प्राणियों का शिकार कराया। नरवर के जंगलों में अकबर ने जंगली हाथियों का भी खूब शिकार किया। ग्वालियर रियासत में सिंधिया राजा ने भी चीते पाले हुए थे, लेकिन चीतों को पाले जाने का शगल ग्वालियर रियासत में उन्नीसवीं सदी के अंत तक ही संभव रहा।

मार्को पोलो ने तेरहवीं शताब्दी के एक दस्तावेज़ के हवाले से बताया है कि कुबलई खान ने अपने कारोबारी पड़ाव पर एक हज़ार से भी अधिक चीते पाल रखे थे। इन चीतों के लिए अलग-अलग अस्तबल थे। चीते इस पड़ाव की चौकीदारी भी करते थे। बड़ी संख्या में चीतों को पालतू बनाने से इनके प्रकृतिजन्य स्वभाव और प्रजनन क्रिया पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ा। गुलामी की ज़िंदगी व सईस के हंटर की फटकार की दहशत ने इन्हें मानसिक रूप से दुर्बल बना दिया। जब चाहे तब भेड़-बकरियों की तरह हांक लगा देने से भी इनकी सहजता प्रभावित हुई। चीतों की ताकत में कमी न आए इसके लिए इन्हें मादाओं से अलग रखा जाता था। बैलों की तरह नर चीतों को बधिया करने की क्रूरताएं भी राजा-महाराजाओं ने खूब अपनार्इं।

चीते की लंबाई साढ़े चार से पांच फीट होती है। बिल्ली प्रजाति के प्राणियों में चीते की पूंछ सबसे ज़्यादा लंबी होती है। पूंछ की लंबाई तीन से साढ़े तीन फीट होती है। इसकी टांगें लंबी और कमर पतली होती है। पूरे तन पर छोटे-बड़े काले गोल-गोल धब्बे होते हैं। इसकी आंखों की कोरों से काली धारियां निकलकर इसके मुख तक आती हैं। ये धारियां बिल्ली प्रजाति के अन्य प्राणियों में नहीं होतीं। इसके गालों का हिस्सा उभरा हुआ होता है तथा सिर शरीर के अनुपात में थोड़ा छोटे होने के साथ धनुषाकार होता है, जिससे दौड़ते वक्त फेफड़ों से छोड़ी गई हवा के आवागमन कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती।

चीते की तेज़ गति में सबसे ज़्यादा सहायक है इसकी छल्लों युक्त रीढ़ की हड्डी। इन्हीं छल्लों के कारण रीढ़ की हड्डी में ज़बरदस्त लोच होता है। गति पकड़ने के लिए अगले व पिछले पैर फेंकते वक्त यह आश्चर्यजनक ढंग से झुक जाती है व स्प्रिंग की तरह फैल जाती है। इसी विशिष्टता के कारण चीता जब दौड़ने की शुरुआत करता है, तो दो सेकंड के भीतर 72 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार पकड़ लेता है। बाद में इसकी यह रफ्तार 115 से 120 किलोमीटर प्रति घंटा तक पहुंच जाती है। यह क्षमता जंगल के किसी अन्य प्राणी में नहीं पाई जाती। लेकिन चीते की यह रफ्तार कुछ गज़ की दूरी तक ही स्थिर रह पाती है। अपनी इसी रफ्तार के कारण चीता काला हिरण को दबोचने वाला एकमात्र हिंसक प्राणी था। काला हिरण शाकाहारी प्राणियों में सबसे तेज़ दौड़ने वाले प्राणी है। अब खुले जंगल में काले हिरण को पकड़ने का बीड़ा बिल्ली प्रजाति का कोई भी प्राणि नहीं उठाता।

चीता बिल्ली प्रजाति के अन्य प्राणियों की तरह अपना शिकार रात में न करके दिन में करता है। इसके ज़्यादातर शिकार छोटे प्राणी होते हैं। शिकार दृष्टिगत होते ही चीता शिकार की तरफ दबे पैरों से आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता है और जैसे ही शिकार इसकी तूफानी गति के दायरे में आ जाता है, यह तत्परता से गति में आकर शिकार को दबोच लेता है। यह कार्रवाई इतनी आनन-फानन में होती है कि शिकार संभल भी नहीं पाता। चीता अपनी कोशिश में यदा-कदा ही नाकाम होता है। इसके प्रिय शिकार काला हिरण और चिंकारा हैं। शिकार से उदरपूर्ति करने के बाद चीता चट्टानों की गहरी गुफाओं अथवा घने जंगलों में आराम फरमाता है।

चीते दो-तीन के झुंडो में भी रह लेते हैं, और अकेले भी, लेकिन ज़्यादातर अकेले रहना पसंद करते हैं। इनके जोड़ा बनाने का समय तय नहीं होता। ये पूरे साल जोड़ा बनाने में सक्षम होते हैं।

शिशुओं की उम्र तीन माह की हो जाने के बाद ही इनके बदन पर काले धब्बे उभरना शुरू होते हैं। चिड़ियाघरों में चीतों की आयु 15-16 वर्ष तक देखी गई है। इनकी औसत आयु 20 साल तक होती है।

दरअसल, एक ओर तो हम विलुप्त होते प्राणियों के संरक्षण में लगे हैं, वहीं दूसरी तरफ आधुनिक विकास इनके प्राकृतिक आवास उजाड़ रहा है। पर्यटन से हम आमदनी की बात चाहे जितनी करें, लेकिन पर्यटकों को बाघ, तेंदुआ व अन्य दुर्लभ प्राणियों को निकट से दिखाने की सुविधाएं, इनके स्वाभाविक जीवन को बुरी तरह प्रभावित करती है। यहां चीते जैसे प्राणियों के आचार-व्यवहार के साथ संकट यह भी है कि ये नई जलवायु में आसानी से ढल नहीं पाते हैं। अत: यह आशंका बरकरार है कि कहीं कूनो-पालपुर की तरह करोड़ों रुपए खर्च करने और 22 ग्रामों को विस्थापित करने के बाद भी नौरादेही में चीते की चाल स्वप्न बनकर ही न रह जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्राचीन मिस्र के पुजारियों की कब्रगाह मिली

मिस्र के पुरावशेष मंत्रालय द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार हाल ही में पुरातत्वविदों ने एक विशाल कब्रगाह खोज निकाला है। इस कब्रगह में प्राचीन मिस्र के मुख्य पुरोहितों के साथ उनके सहायकों की कब्रें पाई गई हैं। अभी तक पुरातत्वविद 20 पाषाण-ताबूत निकाल पाए हैं जो उच्च कोटि के चूना पत्थर से तैयार किए गए थे। मिस्र की सुप्रीम काउंसिल ऑफ एंटीक्विटीज़ के महासचिव मुस्तफा वज़ीरी के अनुसार यह स्थान काहिरा से लगभग 270 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है।

इसके अलावा खुदाई में सोने और कीमती पत्थर से बने 700 तावीज़, चमकदार मिट्टी से बनी 10,000 से अधिक शाबती (ममीनुमा) मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं। प्राचीन मिस्रवासियों का ऐसा मानना था कि शाबती मूर्तियां मरणोपरांत मृतकों की सेवा करती हैं। शोधकर्ताओं को अभी तक इन ममियों की कुल संख्या के बारे में तो कोई जानकारी नहीं है लेकिन अभी भी खुदाई का काम जारी है और आगे इस तरह के और ताबूत मिलने की संभावना है।       

ऐसा माना जा रहा है कि यह प्राचीन कब्रें ‘उत्तर काल’ (664-332 ईसा पूर्व) के दौर की हैं जब प्राचीन मिस्र के लोग नूबियन, असीरियन और ईरानी लोगों से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। ये कब्रें इस काल के शुरुआत की लगती हैं (लगभग 688 से 525 ईसा पूर्व) जिस समय उन्होंने नूबियन शासन से स्वतंत्रता प्राप्त की थी।

यह उत्तर काल 332 ईसा पूर्व में सिकंदर की सेनाओं के मिस्र में प्रवेश करने के साथ समाप्त हुआ। सिकंदर की मृत्यु के बाद 323 ईसा पूर्व में सिकंदर के एक जनरल टोलेमी प्रथम और उसके वंशजों ने लगभग तीन शताब्दियों तक मिस्र पर शासन किया। इसके बाद 30 ईसा पूर्व से रोम साम्राज्य ने मिस्र पर शासन किया।   भले ही कई विदेशी शक्तियों ने मिस्र पर राज किया था फिर भी वहां की धार्मिक परंपरा लगातार फलती-फूलती रही। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि रोमन सहित विभिन्न विदेशी शासकों ने मिस्र की प्राचीन धार्मिक परंपराओं का हमेशा से सम्मान किया था। (स्रोत फीचर्स)

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कयामत से मात्र 100 सेकंड दूर कयामत की घड़ी

बुलेटिन ऑफ दी एटॉमिक साइंटिस्ट्स ने इस साल कयामत की घड़ी के कांटों को मध्यरात्रि से बस 100 सेकंड की देरी पर सेट किया है। जब 1947 में इस घड़ी की शुरुआत हुई थी तब से यह कयामत के सबसे नज़दीक रखी गई है। यह इस बात की चेतावनी है कि पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष हम विनाश के और करीब आ गए हैं। पिछले वर्ष घड़ी के कांटे मध्यरात्रि से दो मिनट (120 सेकंड) की दूरी पर थे।

कयामत की घड़ी (डूम्सडे क्लॉक) बुलेटिन ऑफ दी एटॉमिक साइंटिस्ट्स द्वारा संचालित एक प्रतीकात्मक घड़ी है, जिसके कांटों का ठीक मध्यरात्रि पर होना सर्वनाश या कयामत का प्रतीक माना जाता है। घड़ी के कांटों को हर साल विश्व में बढ़ती गंभीर समस्याओं को देखते हुए सेट किया जाता है।

इस वर्ष बढ़ते सूचना संग्राम और अंतरिक्ष हथियारों की होड़ से बढ़ते खतरों को देखते हुए वैज्ञानिकों ने घड़ी को मध्यरात्रि से 100 सेकंड की देरी पर सेट करना तय किया। इसके अलावा परमाणु हथियारों के तनाव को कम करने में विफलता और जलवायु परिवर्तन की बढ़ती चिंता ने भी घड़ी को मध्यरात्रि के और करीब ला दिया है।

इस दौरान, अमेरिका और ईरान के बीच सैन्य टकराव बढ़ा है, उत्तर कोरिया ने अमेरिका के साथ परमाणु समझौता तोड़ दिया है, और अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प ने रूस के साथ मध्यम रेंज परमाणु बल संधि तोड़ दी है, जिसके चलते लोगों की चिंताएं और बढ़ गई हैं। जॉर्ज वाशिंगटन युनिवर्सिटी से परमाणु हथियार का अध्ययन करने वाली शेरन स्केवसनी का कहना है कि परमाणु हथियारों के मामले में असमंजस बहुत तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। साथ ही, हथियार विकास के लिए अंतरिक्ष एक नया क्षेत्र बनता जा रहा है। भारत, रूस और अमेरिका द्वारा उपग्रह-भेदी हथियारों को विकसित करने के कदम अंतरिक्ष हथियारों को बढ़ावा दे सकते हैं। इसके अलावा भ्रामक और झूठी खबरें, अनियंत्रित जेनेटिक इंजीनियरिंग और अमेरिका और रूस द्वारा हायपरसोनिक हथियारों के विकास से उत्पन्न संभावित खतरों ने घड़ी के कांटों को आधी रात के और नज़दीक ला दिया है।

इन हालात पर कैलिफोर्निया के पूर्व गवर्नर और वर्तमान में बुलेटिन के कार्यकारी अध्यक्ष जेरी ब्राउन ने आव्हान किया है, “जागो अमेरिका, जागो विश्व, हमें बहुत कुछ करने की ज़रूरत है…  अभी कयामत की घड़ी आई नहीं है। हम अभी भी वक्त को पीछे खींच सकते हैं।” वे आगे कहते हैं कि हमारे पास अभी भी वक्त है कि हम परमाणु हथियारों की होड़, कार्बन उत्सर्जन और खतरनाक और विनाशकारी टेक्नॉलॉजी छोड़ दें और इस धरती को बचा लें। हम सब कुछ ना कुछ तो कर ही सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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नया कोरोना वायरस कहां से आया?

ज चीन सहित दुनिया में एक नया कोरोना वायरस तेज़ी से फैल रहा है। वैज्ञानिक इस नए वायरस का स्रोत का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं। हाल ही में किए गए एक अध्ययन के अनुसार इस वायरस के स्रोत के बारे में कुछ सुराग प्राप्त हुए हैं। दी लैंसेट में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं ने चीन में नौ संक्रमित लोगों से प्राप्त इस नए वायरस (2019-nCoV) के 10 जीनोम अनुक्रमों का विश्लेषण किया।   

अध्ययन में पाया गया कि सभी 10 जीनोम अनुक्रम एकदम समान थे। चूंकि वायरस काफी तेज़ी से उत्परिवर्तित और विकसित होते हैं, और यदि यह वायरस मानव शरीर में काफी समय से होता तो अनुक्रमों में भिन्नता होती। लेकिन इस शोधपत्र के सह-लेखक और युनिवर्सिटी ऑफ शैनडांग प्रॉविंस के प्रोफेसर वीफेंग शी के अनुसार इन अनुक्रमों में 99.98 प्रतिशत समानता पाई गई। इससे पता चलता है कि मानव शरीर में इस वायरस ने हाल ही में प्रवेश किया है।

मनुष्यों में हाल ही में उभरने के बावजूद यह वायरस अभी तक हज़ारों लोगों को संक्रमित कर चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार यह चीन सहित 15 अन्य देशों में फैल चुका है और चीन में इससे अब तक 700 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। इसके शुरुआती मामले चीन के वुहान शहर स्थित हुआनन सीफूड बाज़ार के संपर्क में रहे लोगों में पाए गए, जहां कई तरह के जंगली जीव बेचे जाते हैं।  

वायरस के मूल स्रोत के बारे में जानने के लिए शोधकर्ताओं ने 2019-nCoV के जेनेटिक अनुक्रमों की तुलना जीनोम संग्रहालय में उपलब्ध कोरोना वायरस से की। जो दो वायरस 2019-nCoV सबसे नज़दीक पाए गए वे चमगादड़ से उत्पन्न हुए थे। इन दोनों वायरसों के आनुवंशिक अनुक्रम का 88 प्रतिशत हिस्सा 2019-nCoV से मेल खाता है।

इन परिणामों के आधार पर शोधकर्ता चमगादड़ को इसकी उत्पत्ति का संभावित स्रोत कह रहे हैं। चूंकि हुआनन सीफूड बाज़ार में चमगादड़ नहीं बेचे जाते, इससे लगता है कि इस वायरस के चमगादड़ से मनुष्य में पहुंचने की कड़ी में एक और मध्यस्थ जीव होगा। कुल मिलाकर यह बात तो स्पष्ट है कि वन्य जीवों में वायरस का एक छिपा भंडार है जो मनुष्यों में फैलने की क्षमता रखता है।

एक अध्ययन में कोरोना वायरस का संभावित स्रोत हुआनन बाज़ार में बिकने वाले सांपों को बताया गया था। लेकिन कई वैज्ञानिकों ने कहा है कि सांपों में कोरोना वायरस का संक्रमण होने का कोई प्रमाण नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

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बिल्ली को मिली कृत्रिम पैरों की सौगात

हाल ही में रूस के नोवोसिबर्स्क चिकित्सालय के पशु चिकित्सकों ने अपने चारों पैर गंवा चुकी एक बिल्ली में 3-डी प्रिंटिंग की मदद से बनाए गए कृत्रिम पैर सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित कर दिए हैं। इनकी मदद से वह चल-फिर सकती है, दौड़ सकती है और यहां तक कि सीढ़ियां भी चढ़ सकती है।

भूरे बालों वाली डाइमका नामक यह बिल्ली दिसंबर 2018 में साइबेरिया के नोवाकुज़नेत्स्क नाम की जगह पर एक मुसाफिर को बर्फ में दबी हुई मिली थी। उसने उसे वहां से निकालकर नोवोसिबर्स्क चिकित्सालय पहुंचा दिया था। डाइमका तुषाराघात की शिकार हुई थी और अपने चारों पैर, कान और पूंछ गंवा चुकी थी।

तुषाराघात यानी फ्रॉस्ट बाइट तब होता है जब अत्यंत कम तापमान त्वचा व अंदर के ऊतकों को जमा देता है। खासकर नाक, उंगलियां और पंजे ज़्यादा प्रभावित होते हैं। पैरों की हालात देखकर पशु चिकित्सक सर्जेई गोर्शकोव ने उसे कृत्रिम पैर लगाना तय किया। उन्होंने टोम्स पॉलिटेक्निक युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर डाइमका के लिए कृत्रिम पैर तैयार किए।

इसके लिए उन्होंने कंप्यूटेड टोमोग्राफी (सीटी) एक्स-रे स्कैन की मदद से डाइमका के पैरों की माप लेकर टाइटेनियम रॉड की त्रि-आयामी प्रिंटिंग करके कृत्रिम पैर बनाए। प्रत्यारोपण के बाद डाइमका में संक्रमण और रिजेक्शन की संभावना कम करने के लिए टाइटेनियम से बने पैरों पर कैल्शियम फॉस्फेट की परत चढ़ाई गई। जुलाई 2019 में डाइमका को सामने के दो और उसके बाद पीछे के दो कृत्रिम पैर प्रत्यारोपित किए गए। प्रत्यारोपण के सात महीने बाद जारी किए गए वीडियो में डाइमका अंगड़ाई लेती, चलती और कंबल के कोने से खेलती दिखाई दी।

गोर्शकोव ने दी मास्को टाइम्स को बताया कि साइबेरिया के हाड़-मांस गला देने वाले ठंड के मौसम के दौरान उनके चिकित्सालय में हर साल ऐसी पांच से सात बिल्लियों का उपचार किया जाता है जो तुषाराघात के कारण अपने पैर, नाक, कान और पूंछ गंवा देती हैं।  

डाइमका अब दुनिया की दूसरी बिल्ली है जिसे धातु से बने चारों पैर सफलतापूर्वक लगाए जा चुके हैं। इसके पहले साल 2016 में भी इसी प्रक्रिया से एक नर बिल्ली को चारों पैर लगाए गए थे। (स्रोत फीचर्स)

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तीन हज़ार साल पुराना शव बोला!

शायद यह बात सुनने में अटपटी लगे कि कोई मुर्दा बोला। लेकिन हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक ऐसी ऑडियो क्लिप रिलीज़ की है जिसमें उन्होंने मृत व्यक्ति की आवाज़ रिकॉर्ड की है। और यह जिस मृत व्यक्ति की आवाज़ है वह एक 3000 साल पुरानी मिस्र की ममी है जिसका नाम नेसियामुन रखा गया है।

चूंकि हर व्यक्ति की भिन्न आवाज़ के लिए वोकल ट्रैक्ट (ध्वनि मार्ग) की लंबाई-चौड़ाई ज़िम्मेदार होती है, इसलिए वैज्ञानिकों ने ममी की आवाज़ को पुन: निर्मित करने के लिए ममी का कंप्यूटेड टोमोग्राफी स्कैन (सी.टी. स्कैन) किया और ममी के ध्वनि मार्ग के आकार की माप हासिल कर ली। और इसकी मदद से उन्होंने नेसियामुन के ध्वनि मार्ग का एक त्रि-आयामी मॉडल बनाया। फिर इसे इलेक्ट्रॉनिक स्वर यंत्र (कृत्रिम लैरिंक्स) से जोड़ा जिसने ध्वनि मार्ग के लिए ध्वनि के स्रोत की तरह कार्य किया। इस सेटअप से वैज्ञानिकों ने नेसियामुन की आवाज़ पैदा की। हालांकि जो आवाज़ वे पैदा कर पाए हैं वो सुनने में भेड़ के मिमियाने जैसी सुनाई पड़ती है लेकिन इससे नेसियामुन के आवाज़ कैसी होगी इसका अंदाज़ लगता है।

नेसियामुन के ताबूत पर लिखी जानकारी और उसके साथ दफन चीज़ों के आधार पर वैज्ञानिक बताते हैं कि वह एक मिस्री पादरी और मुंशी थे, जो संभवत: गुनगुनाते रहे होंगे और भगवान से बातें करते रहे होंगे। यह उनके धार्मिक कामकाज का ही हिस्सा रहा होगा। उनके ताबूत पर लिखी इबारत से पता चलता है कि नेसियामुन की इच्छा थी कि वे भगवान के दर्शन करें और उससे बातचीत करें, जैसा कि वे अपने जीवनकाल में भी करते रहे थे। शुक्र है आधुनिक टेक्नॉलॉजी का, अब मरने के बाद, वे हम सबसे बातें कर पा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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