जीवन ज़मीन पर कैसे आया

गभग 700 साल पहले, एक डच प्रकृतिविद जैकब वान मेरलैन्ट ने एक ऐसी मछली की कल्पना की थी जिसके हाथ रहे होंगे और जो पानी से निकलकर ज़मीन पर जीवन की शुरुआत करने को तैयार होगी। और लगता है उनकी कल्पना में कुछ वास्तविकता थी।

शोधकर्ताओं ने उंगली के बराबर की ज़ेब्राफिश (Danio rerio) में एक ऐसा उत्परिवर्तन पाया है जिससे ज़ेब्राफिश के सामने के फिन (मीनपक्ष) में अतिरिक्त हड्डियां पैदा होने लगती हैं। यही उत्परिवर्तन मनुष्यों में उन जीन्स को सक्रिय करता है जिनसे हमारी भुजाएं बनती हैं। इससे पता चलता है कि शुरुआती जीवों में भी भूमि पर छलांग लगाने की संभावनाएं मौजूद थीं।

वैज्ञानिक लंबे समय से यह जानने की कोशिश करते रहे हैं कि जीवन जल से निकलकर ज़मीन पर कैसे पहुंचा था। मीनपक्ष हाथों में कैसे रूपांतरित हो गए? पुराजीव विज्ञानी तो इन सवालों का जवाब जीवाश्मों में खोजते रहे हैं। लेकिन हारवर्ड मेडिकल स्कूल के एम. ब्रेंट हॉकिन्स ने ज़ेब्राफिश के विकास का अध्ययन करते हुए कुछ सुराग देखे हैं।

दरअसल, हॉकिन्स बोस्टन चिल्ड्रन्स अस्पताल की एक प्रयोगशाला में ज़ेब्राफिश के डीएनए में उत्परिवर्तन करके यह पता करने की कोशिश कर रहे थे कि कौन-से जीन कंकाल में गड़बड़ियों के लिए ज़िम्मेदार हैं। आम तौर पर ये उत्परिवर्तन हड्डियों की विकृति या हड्डियां न बनने का कारण बनते हैं। विचार यह था कि मनुष्यों में भी इसी तरह की गड़बड़ियों के जीन्स खोजे जाएं। इस प्रयोग के दौरान एक ज़ेब्राफिश के सामने (वक्ष) वाले हिस्से में मीनपक्ष के साथ अतिरिक्त हड्डी देखकर वे हैरान रह गए।

यह जानने के लिए कि इस उत्परिवर्तन के लिए कौन-सा जीन ज़िम्मेदार है, उन्होंने जीन संपादन विधि क्रिस्पर की मदद ली। शोधकर्ताओं ने पाया कि फिन में अतिरिक्त हड्डी के लिए दो अलग-अलग गुणसूत्रों पर उत्परिवर्तित दो जीन vav2 और waslb ज़िम्मेदार हैं। सेल पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि ये जीन सिर्फ हड्डियां नहीं बनाते बल्कि हड्डियों के काम करने के लिए ज़रूरी रक्त वाहिकाएं, जोड़ और मांसपेशियों का भी निर्माण करते हैं। ज़ेब्राफिश में हड्डियों के निर्माण की यह प्रक्रिया हमारे बांह की एक लंबी हड्डी के निर्माण की प्रक्रिया जैसी है।

ये दोनों जीन्स Hox11 नामक प्रोटीन की गतिविधि को नियंत्रित करने वाले प्रोटीन को कोड करते हैं। स्तनधारियों में यह प्रोटीन भुजाओं की दो हड्डियों के निर्माण को दिशा देता है। मछलियों में आम तौर पर Hox11 प्रोटीन अन्य प्रोटीन द्वारा निष्क्रिय रखा जाता है, लेकिन यदि इन प्रोटीन्स के जीन में उत्परिवर्तन हो जाए तो फिर Hox11 उनमें भी इन्हीं भुजाओं का निर्माण शुरू कर देता है। लगभग 40 करोड़ वर्ष पूर्व मछलियों का विकास दो भिन्न दिशाओं में होना शुरू हुआ था – एक ओर मछलियों से भूमि पर रहने वाले जीव विकसित हुए, तथा दूसरी ओर जिनसे आज की ज़ेब्राफिश व अन्य जीव विकसित हुए। इससे लगता है कि यह जीन वर्तमान की लगभग सभी अस्थियुक्त मछलियों के पूर्वजों में भी मौजूद था। और जब इस जीन को सक्रिय होने का मौका मिला तो इसने पानी से ज़मीन पर जीवन संभव बनाया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अधिक संक्रामक कोविड-19 वायरस से खलबली

डेनमार्क में कोविड-19 संक्रमण दर में कमी राहत के संकेत देते हैं। देशव्यापी लॉकडाउन से दैनिक मामलों में काफी कमी आई है। दिसंबर 2020 के मध्य में प्रतिदिन 3000 मामले अब घटकर कुछ सौ रह गए हैं। लेकिन महामारी मॉडलिंग विशेषज्ञों की प्रमुख कैमिला होल्टन मोलर के अनुसार ये परिणाम आने वाले समय में एक तूफान से पहले की शांति के संकेत हो सकते हैं।

कोविड-19 का ग्राफ वास्तव में दो महामारियों को दर्शाता है। पहली तो वह है जो सार्स-कोव-2 के पुराने संस्करण के कारण हुई और अब तेज़ी से खत्म भी हो रही है। लेकिन यूके में पहली बार पहचाने गए बी.1.1.7 संस्करण का प्रकोप धीरे-धीरे बढ़ रहा है और तीसरी लहर के रूप में नज़र आ रहा है। यदि बी.1.1.7 संस्करण डेनमार्क में इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो यह इस माह के अंत तक वायरस का एक प्रमुख संस्करण बन जाएगा और एक बार फिर कोविड-19 मामलों की संख्या में वृद्धि होने लगेगी।      

ऐसे में अन्य देशों में भी इसी तरह के हालात की संभावना जताई जा रही है। तथ्य यह है कि 58 लाख आबादी वाले डेनमार्क में अन्य देशों की तुलना में व्यापक वायरस-अनुक्रमण तकनीक से कोविड-19 के नए संस्करण का पता चल सका। इन परिणामों के बाद सभी की नज़रें फिलहाल डेनमार्क पर हैं। डैनिश वैज्ञानिकों का अनुमान है कि बी.1.1.7 संस्करण पिछले संस्करणों की तुलना में 1.55 गुना तेज़ी से फैलता है। इस परिस्थिति में जब तक पर्याप्त लोगों को टीका नहीं लग जाता तब तक देश में एक बार फिर लॉकडाउन या अन्य नियंत्रण उपायों को अपनाना होगा। स्थितियों को देखते हुए कुछ महामारी विज्ञानियों का तो मत है कि समाज के अत्यधिक कमज़ोर वर्ग के टीकाकरण के बाद लॉकडाउन खोल देना चाहिए, भले नए मामलों में वृद्धि क्यों न होती रहे।

इस सम्बंध में जनवरी माह के परिणाम काफी चिंताजनक रहे। जनवरी की शुरुआत में ही हर सप्ताह बी.1.1.7 के मामलों में दुगनी रफ्तार से वृद्धि होती गई। इस स्थिति के पहले ही स्कूल और रेस्तरां बंद कर दिए गए, इस नए खतरे से बचने के लिए 10 लोगों के एक साथ इकट्ठा होने की अनुमति को कम करके 5 कर दिया गया, सामाजिक दूरी भी एक मीटर की बजाय दो मीटर कर दी गई। इन सावधानियों से कुल प्रसार दर 0.78 रह गई जो एक अच्छा संकेत है। लेकिन बी.1.1.7 की अनुमानित प्रसार दर 1.07 है जो तेज़ी से बढ़ रही है। इस बीच कुल संक्रमितों में नए संस्करण से संक्रमितों का प्रतिशत दिसंबर 2020 में 0.5 प्रतिशत था और जनवरी के अंत तक बढ़कर 13 प्रतिशत हो गया है।       

फिलहाल डेनमार्क में एक बार फिर लोगों को घर से काम करने के आदेश जारी किए जा सकते हैं और साथ ही कांटेक्ट ट्रेसिंग भी की जा सकती है। इसके साथ ही त्वरित परीक्षण और रोगियों को स्वयं आइसोलेट होने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। वैज्ञानिकों को ऐसी उम्मीद है कि इस तरह की सावधानियों से बी.1.1.7 लहर को रोका जा सकता है। हालांकि कई लोगों का ऐसा मानना है कि इस लहर को रोका नहीं जा सकता है। यूके में बी.1.1.7 के मामलों में कमी का कारण लोगों का पहले से ही इस वायरस से संक्रमित होना है जो अब इस संस्करण के प्रति अतिसंवेदनशील नहीं हैं। फिलहाल डेनमार्क को इस संस्करण के लिए प्रसार दर को एक से कम रखने की कोशिश करना होगा जिससे उम्मीद है कि अप्रैल तक स्थिति को पूरी तरह से नियंत्रण में किया जा सकता है। उस समय तक मौसम भी मददगार होगा।

लेकिन लंबे समय तक देश भर में लॉकडाउन लगाना काफी कठिन हो सकता है। वर्तमान में जनता ने नए मामलों में कमी आने के बाद भी सरकार के लॉकडाउन के फैसले को स्वीकार कर लिया है लेकिन भविष्य में इसे खत्म करने का दबाव आने की संभावना है। ऐसे में 8 फरवरी से कक्षा 1 से लेकर 4 तक के स्कूल शुरू करते हुए लॉकडाउन में ढील देने की शुरुआत की जा चुकी है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार लॉकडाउन को देर से खत्म करना काफी महंगा पड़ सकता है। इसकी बजाय वैज्ञानिकों का सुझाव है कि 50 वर्ष से अधिक और अन्य अतिसंवेदनशील समूहों के टीकाकरण के बाद लॉकडाउन को खत्म करना अधिक उचित होगा। इस स्थिति में कोविड के मामलों में वृद्धि तथा कुछ लोगों की मौत की भी संभावना रहेगी।     

लेकिन इस तरीके को कुछ वैज्ञानिकों ने अभी भी पसंद नहीं किया है। उनका मानना है कि इस तरह से मामलों में वृद्धि होने देना सही उपाय नहीं है। अधिक संक्रमण का मतलब और अधिक उत्परिवर्तित वायरसों के खतरे को बढ़ाना है। ऐसे में हल्के संक्रमण वाले लोगों में दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कुत्तों को पालतू किसने, कब बनाया?

पिछले हिमयुग के अंत में मनुष्यों के समूह उत्तर-पूर्वी साइबेरिया के विशाल घास के मैदानों में नुकीले पत्थर-जड़े भालों के साथ बाइसन और मैमथ का शिकार किया करते थे। भेड़िये जैसा एक जीव भी उनके साथ दौड़ा करता था। ये भेड़िए अपने पूर्वजों की तुलना में अधिक सौम्य थे तथा अपने मनुष्य-साथियों की मदद करने को तैयार रहते थे – शिकार करने में भी और शिकार को वापस अपने शिविर तक लाने में भी। ये जीव ही विश्व के सबसे पहले कुत्ते थे जिनके वंशज युरेशिया से लेकर अमेरिका और दुनिया में सभी ओर फैलते गए।  

इस परिदृश्य ने कुत्तों और मनुष्यों, दोनों के डीएनए डैटा के एकसाथ अध्ययन का रास्ता सुझाया। दी प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित विश्लेषण का उद्देश्य कुत्तों के पालतू बनाए जाने के स्थान और समय की लंबी बहस का समापन करना है। इससे यह भी समझने में मदद मिल सकती है कि कैसे सतर्क भेड़िए मनुष्य के वफादार साथी में बदल गए।

अध्ययन के महत्व को देखते हुए वैज्ञानिकों ने विभिन्न सुझाव दिए हैं। युनिवर्सिटी ऑफ केंसास की मानव आनुवंशिकी विज्ञानी जेनिफर रफ के अनुसार निष्कर्षों की पुष्टि करने के लिए प्राचीन कुत्तों और लोगों के अधिक से अधिक जीनोम की आवश्यकता होगी।

इस अध्ययन की शुरुआत इस बात से हुई थी कि कुछ आनुवंशिक और पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि उत्तरी अमेरिका के प्राचीन कुत्तों की उत्पत्ति 10,000 वर्ष पुरानी है। तो इनकी उत्पत्ति कहां व कब हुई थी। इस संदर्भ में सदर्न मेथोडिस्ट युनिवर्सिटी के पुरातत्व विज्ञानी डेविड मेल्टज़र ने सुझाव दिया कि कुत्तों और मनुष्यों के डीएनए की तुलना करना उपयोगी होगा। इसके लिए यह पता करना भी ज़रूरी है कि कैसे और कब साइबेरिया में रहने वाले मनुष्य विभिन्न समूहों में बंटने के बाद उत्तरी अमेरिका पहुंच गए। इसी तरह से यदि कुत्तों के डीएनए में समान पैटर्न मिलते हैं तो कुत्तों के पालतूकरण की शुरुआत का पता लगाया जा सकता है।         

अपने इन अनुमानों की बारीकी से जांच करने के लिए शोधकर्ताओं की टीम ने विश्व भर के 200 से अधिक कुत्तों के माइटोकॉन्ड्रियल जीनोम का विश्लेषण किया जिनमें से कुछ 10,000 साल पूर्व के थे। गौरतलब है कि माइटोकॉण्ड्रिया नामक कोशिकांग का अपना डीएनए होता है जो किसी जीव को सिर्फ उसकी मां से मिलता है।

अध्ययन से पता चला कि सभी प्राचीन अमरीकन कुत्तों में एक जेनेटिक चिंह पाया जाता है। इसे A2b नाम दिया गया। और ये कुत्ते लगभग 15,000 वर्ष पूर्व चार समूहों में उत्तरी अमेरिका के विभिन्न हिस्सों में फैल गए। टीम ने पाया कि कुत्तों के ये समूह और इनकी भौगोलिक स्थिति प्राचीन मूल अमरीकियों के समूहों से मेल खाती है। ये सभी लोग एक ऐसे समूह के वंशज हैं जिन्हें वैज्ञानिक पैतृक मूल अमरीकी कहते हैं। यह समूह लगभग 21,000 वर्ष पहले साइबेरिया का निवासी था। टीम का निष्कर्ष है कि मनुष्य 16,000 वर्ष पूर्व अमेरिका में प्रवेश करते समय कुत्तों को भी अपने साथ लाए होंगे। ऐसा अनुमान है कि प्राचीन अमेरिकी कुत्ते अंतत: गायब हो गए। जब युरोपवासी अमेरिका आए तब वहां के कुत्ते अमेरिका में फैल गए।

शोधकर्ताओं द्वारा आनुवंशिक अतीत का और गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि A2b कुत्ते 23,000 वर्ष पूर्व साइबेरिया में पाए जाने वाले कुत्तों के वंशज हैं। टीम का अनुमान है कि प्राचीन कुत्ते संभवत: उन मानव समूहों के साथ रहते थे जिन्हें प्राचीन उत्तर साइबेरियाई के रूप में जाना जाता है। 31,000 वर्ष पूर्व में पाया जाना वाला यह मानव समूह हज़ारों वर्षों से पूर्वोत्तर साइबेरिया के अपेक्षाकृत समशीतोष्ण इलाकों में रहता था। सख्त मौसम के कारण ये समूह बहुत अधिक पूरब या पश्चिम में नहीं जा पाए। वे यहां आज पाए जाने वाले कुत्तों के सीधे पूर्वज मटमैले भेड़िये के साथ रहा करते थे।

कुत्तों के पालतूकरण का आम सिद्धांत तो यह है कि मटमैले भेड़िये भोजन की तलाश में मानव शिविरों के अधिक से अधिक करीब आते गए। इनमें से कुछ दब्बू भेड़िये सैकड़ों से हज़ारों वर्षों में विकसित होते-होते पालतू कुत्ते बन गए। अलबत्ता, यह प्रक्रिया उस स्थिति की व्याख्या नहीं करती जब मनुष्य काफी दूर-दूर यात्रा करने लगे। ऐसे में उनको हमेशा भेड़ियों की नई आबादी का सामना करना होगा। यदि टीम के निष्कर्षों को सही माना जाए तो इन दोनों प्रजातियों ने साइबेरिया में काफी लंबा समय साथ-साथ बिताया है।    

इसके अलावा कुछ आनुवंशिक साक्ष्य यह सुझाव देते हैं कि प्राचीन उत्तर साइबेरिया के लोग अमेरिका प्रवास करने से पहले पैतृक मूल के अमरीकियों के संपर्क में आ चुके थे। ऐसा अनुमान है कि प्राचीन कुत्तों के प्रजनकों ने मूल अमरीकी लोगों के साथ इस जीव का लेन-देन किया होगा। यही कारण है उत्तरी अमेरिका और युरोप दोनों जगह कुत्ते 15,000 वर्ष पूर्व से ही पाए जाने लगे थे। पूर्व में वैज्ञानिकों का ऐसा मानना था कि कुत्तों को एक से अधिक बार पालतू बनाया गया था जबकि टीम के अनुसार सच तो यह है कि सभी कुत्ते 23,000 वर्ष पूर्व के साइबेरियाई कुत्तों के वंशज हैं।  

रॉयल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी, स्टॉकहोम के आनुवंशिकीविद पीटर सवोलैनेन यह तर्क देते रहे हैं कि कुत्तों का पालतूकरण दक्षिण पूर्व एशिया में हुआ है। लिहाज़ा वे इस अध्ययन के निष्कर्षों को लेकर शंकित हैं। पीटर के अनुसार A2b चिंह, जिसके बारे में टीम ने दावा किया है कि वह विशिष्ट रूप से अमरीकी कुत्तों में पाया जाता है, वह विश्व में अन्य जगहों पर भी पाया गया है। यह तथ्य उपरोक्त आनुवंशिक विश्लेषण पर सवाल खड़े करता है। अत: सवोलैनेन के मुताबिक इस अध्ययन के आधार पर कुत्तों के पालतूकरण के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है।

लेकिन जेनिफर रफ के अनुसार प्राचीन लोगों के बारे में वे जितना जानती हैं उस आधार पर यह अध्ययन मूलत: सही मालूम होता है। लेकिन माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए किसी जीव के जीनोम का छोटा-सा अंश होता है। रफ का कहना है कि बिना नाभिकीय डीएनए की मदद से पूरी जानकारी प्राप्त करना मुश्किल है। गौरतलब है कि मूल अमेरिकी पूर्वजों के लिए भी यही बात सही हो सकती है जिन्होंने कुत्तों को अमेरिका के कोने-कोने तक फैलाया है। कई वैज्ञानिक इस अध्ययन को एक अच्छी प्रगति के रूप में तो देखते हैं लेकिन मानते हैं कि निष्कर्ष अधूरे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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पर्यावरणीय न्याय: मरीचिका की तलाश – रिनचिन

पिछले साल 27 सितंबर को छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले के तमनार में अडानी समूह द्वारा आयोजित एक पर्यावरणीय जन सुनवाई के विरोध में सुनवाई स्थल के बाहर एक हज़ार से भी ज़्यादा लोगों ने प्रदर्शन किया। अडानी समूह को महाजेनको कोयला खदान के गारे सेक्टर-2 में कोयला खनन करने की मंज़ूरी (माइन डेवलपमेंट ऑर्डर) मिल गई है। उक्त जन सुनवाई जबरन आयोजित की जा रही थी जबकि स्थानीय लोग पर्यावरण कानूनों का घोर उल्लंघन कर किए जा रहे खनन कार्यों से होने वाले खतरनाक प्रदूषण का विरोध पिछले कुछ सालों से कर रहे हैं। खनन कार्यों के खिलाफ क्षेत्र की ग्राम सभाओं द्वारा कई प्रस्ताव पारित किए गए हैं, रैलियां निकाली गर्इं हैं व विरोध प्रदर्शन भी हुए हैं।

स्थानीय समुदायों के जीवन, आजीविका और उनके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को अधिकारियों के संज्ञान में लाया गया, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। इस इलाके के वायु गुणवत्ता परीक्षण में PM-2.5 (2.5 माइक्रॉन से छोटे कण) के महीन कणों का स्तर 200-400 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर के बीच पाया गया है जो कि स्वीकृत मानक स्तर (60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) से कई गुना ज़्यादा है। इसके अलावा कई अध्ययनों में पाया गया है कि इन इलाकों की हवा, पानी और मिट्टी में भारी धातुएं और कैंसरजनक पदार्थ उपस्थित हैं। इसके साथ ही, यहां के तेज़ी से गिरते भूजल स्तर और वन आच्छादन में आ रही कमी और लोगों के स्वास्थ्य में तेज़ी से हो रही गिरावट के कारण लोग सविनय अवज्ञा को बाध्य हुए हैं। इसमें समुदाय के कई लोगों को झूठे आरोप और नाजायज़ कारावास झेलना पड़ा है।

समुदाय के लोगों ने न्याय के लिए कानूनी लड़ाई भी लड़ी। इस लड़ाई में उन्होंने पर्यावरण और स्वास्थ्य क्षति, और खनन कंपनियों द्वारा पर्यावरण कानूनों के घोर उल्लंघन के आधार पर राहत की मांग की।

मार्च 2020 में, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने डुकालू राम और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में पर्यावरण को क्षति पहुंचाने के लिए जिंदल स्टील एंड पॉवर लिमिटेड और साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड पर 160 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया था। यह केस छह साल चला था।

एक अन्य मामले – शिवपाल भगत व अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया – में एनजीटी द्वारा नियुक्त समिति ने जनवरी 2020 में इस क्षेत्र का दौरा किया था। एनजीटी को सौंपी अपनी अंतिम रिपोर्ट में समिति ने कहा था –

“…कोयला भंडारों की उपस्थिति के चलते पिछले दो-तीन दशकों में इस क्षेत्र में कई कोयला खदानें और कोयला आधारित ताप बिजली घर लगाए गए हैं। कई पर्यावरणीय नियम मौजूद होने के बावजूद भी इन गतिविधियों ने कई तरह का भारी प्रदूषण फैलाया है, जो अब भी जारी है।”

समिति ने यह भी माना कि खनन कार्यों के कारण यहां की हवा, पानी, मिट्टी पर ज़हरीले प्रभाव पड़े हैं और इसके कारण भूजल स्तर में भारी गिरावट आई है, वन आच्छादन कम हुआ है और कृषि को नुकसान पहुंचा है। इतने बड़े पैमाने पर और इतने भीषण असर को देखते हुए समिति ने कहा कि वह यह निष्कर्ष निकालने को मजबूर है कि

“ऊपर दिए गए साक्ष्यों के आधार पर समिति की राय है कि तमनार-घरघोड़ा ब्लॉक का क्षेत्र अपनी पर्यावरणीय वहन क्षमता को पार करने के करीब है। अलबत्ता, एक विस्तृत और व्यापक पर्यावरणीय भार वहन क्षमता अध्ययन के ज़रिए वर्तमान पर्यावरणीय भार की सटीक सीमा और भावी खनन और औद्योगिक गतिविधियों के संभावित प्रभावों का आकलन किए जाने की आवश्यकता है, जो किसी प्रतिष्ठित पर्यावरण अनुसंधान संस्थान या इसी तरह की संस्थाओं के किसी संघ द्वारा 24 महीनों के भीतर किया जाए।”

एनजीटी ने समिति की सिफारिशों को स्वीकार किया और 27 फरवरी 2020 के अपने आदेश में कहा:

“जैसा कि रिपोर्ट बताती है, गंभीर खामियां पाई गई हैं और पर्यावरण को और अधिक नुकसान पहुंचने की संभावना भी देखी गई है; हम मानते हैं कि ‘ऐहतियात’ और ‘निर्वहनीय विकास’ सिद्धांतों के लिए आवश्यक है कि गहन मूल्यांकन और स्वास्थ्य देखभाल प्रबंधन सहित उपचारात्मक उपायों का तंत्र स्थापित होने के बाद ही किसी नई परियोजना को शुरू करने या परियोजना का विस्तार करने की अनुमति दी जाए।”

हालांकि ये महत्वपूर्ण कानूनी जीत हैं जो समुदाय में एक उम्मीद भी भरती हैं, लेकिन राज्य प्रशासन की निष्क्रियता दर्शाती है कि सिर्फ (सकारात्मक) आदेश पर्याप्त नहीं हैं। असल जंग तो इन आदेशों को लागू करवाने और कानूनों का पालन करवाने की है।

कोविड-19 की आड़ में कंपनियों ने एनजीटी द्वारा निर्देशित सुधारात्मक कार्यों को करने में ढिलाई बरती है, लेकिन ज़रूरी सेवाओं के नाम पर कंपनियों की खनन गतिविधियां बाकायदा जारी रहीं। एनजीटी ने निचले इलाकों में उड़न-राख की अवैध डंपिंग पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया था और कंपनियों को मौजूदा सारे राख-डंप को हटाने के आदेश दिए थे। लेकिन कोविड-19 के चलते लगाई गई तालाबंदी के बहाने यह कार्य भी नहीं किया गया। उड़न-राख जनित प्रदूषण ऊपरी और निचले श्वसन तंत्र के कई रोगों के लिए ज़िम्मेदार है, और इसका पीएम-2.5 कणों के प्रदूषण में महत्वपूर्ण योगदान है। अध्ययनों में वायु प्रदूषण बढ़ने पर कोविड-19 से होने वाली मौतों की संख्या में वृद्धि देखी गई है।

कोविड-19 और वायु प्रदूषण के बीच इस सम्बंध को देखते हुए, उड़न-राख डंप हटा दिए जाने चाहिए थे और प्रभावित क्षेत्रों में युद्ध स्तर पर उपचारात्मक कार्रवाइयां की जानी चाहिए थीं। लेकिन दुर्भाग्य है कि प्रशासन इस तरह काम नहीं कर रहा। अब समुदायों को अपना इंतज़ाम खुद करने के लिए छोड़ दिया गया है, उन्हें अदालत के आदेशों और भूमि कानूनों को लागू करवाने के तरीके खोजने हैं, वह भी तब जब कोविड-19 के कारण लगाए प्रतिबंधों ने नागरिक स्वतंत्रता पर रोक लगा दी है।

मामले को और भी बदतर करने के लिए सितंबर 2020 में भारत सरकार ने नई कोयला खदानें लगाने के लिए नीलामी की घोषणा की है। इसमें रायगढ़ क्षेत्र में तीन नई खदानें लगनी हैं – दोलेसारा, जारेकेला और झारपलम-तंगारघाट। ये प्रस्तावित इलाके ऐसे क्षेत्र हैं जो मौजूदा खनन कार्यों और अन्य गतिविधियों के कारण प्रदूषण से तबाह हो चुके हैं, और अब कुछ ही हिस्सों में घने जंगल बचे हैं जो इस प्रस्ताव के कारण खतरे में हैं।

12 आदिवासी सरपंचों ने हाल ही में पर्यावरण मंत्री को लिखकर पूछा है कि जब अध्ययनों का डैटा और स्वयं राज्य की रिपोर्ट इस क्षेत्र में खनन कार्यों पर रोक की सिफारिश करती है तो वाणिज्यिक खनन सूची में उनके क्षेत्र में नई खदानें लगाना क्यों शामिल किया गया है। गांवों के मुखियाओं ने भी इस क्षेत्र में नई खदानें लगाने पर रोक और एनजीटी के निर्देशानुसार प्रदूषित भूमि के उपचार और बहाली की मांग की है।

रायगढ़ का अनुभव दर्शाता है कि पर्यावरणीय न्याय और अर्थव्यवस्था की लड़ाई में जीत अर्थव्यवस्था की ही होती है। न्यायिक और प्रशासनिक प्रणालियों ने खनन कार्यों से होने वाली गंभीर मानवीय क्षति को स्वीकार तो किया है लेकिन इस मामले में उनकी निष्क्रियता यह साबित करती है कि पर्यावरणीय न्याय सैद्धांतिक रूप से तो मौजूद है लेकिन व्यवहारिक रूप में नहीं, और इस न्याय के लिए लड़ने वालों को बहुत कठिन लड़ाई लड़नी पड़ती है। लेकिन कोयला खदानों के आसपास रहने वाले आदिवासी समुदायों के लोगों के पास कोई सिद्धांत नहीं है, उनके पास तो केवल जीवंत अनुभव हैं। और स्वच्छ पर्यावरण के लिए उनकी लड़ाई, ताकि आने वाली पीढ़ियों का स्वास्थ्य सुरक्षित रहे, भी जीवित रहने के लिए एक संघर्ष है। यह संघर्ष इस जवाब में बहुत अच्छे से झलकता है: जब एक अधिकारी ने पूछा कि आप यह संघर्ष क्यों कर रहे हैं तो एक महिला का जवाब था, “लड़बो नहीं तो मरबो” – “अगर हम लड़ेंगे नहीं तो हम मर जाएंगे!” यह अस्तित्व के लिए संघर्ष है। (स्रोत फीचर्स)

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दूध पचाने की क्षमता से पहले दूध का सेवन

नुष्यों द्वारा दूध के सेवन का इतिहास मुर्गी और अंडा की पहेली जैसा है। मनुष्य दूध का सेवन तब से करते आ रहे हैं जब उनमें इसे पचाने की व्यवस्था भी नहीं थी। लेकिन डीएनए में उपयुक्त परिवर्तन के लिए ज़रूरी था कि वे दूध का सेवन करें। तो सवाल है कि क्या दूध पीने की शुरुआत पहले हुई या दूध पचाने के लिए ज़रूरी उत्परिवर्तन?    

ताज़ा अध्ययनों के अनुसार आधुनिक केन्या और सूडान के लोग कम से कम 6000 वर्षों से दुग्ध उत्पादों का सेवन कर रहे हैं। यानी वे दूध को पचाने वाले जीन के अस्तित्व में आने से भी पहले से दूध का सेवन करते आ रहे हैं। गौरतलब है कि सभी मनुष्य बचपन में दूध पचाने की क्षमता रखते हैं। लेकिन लगता है कि व्यस्कों में यह क्षमता पिछले 6000 वर्षों में ही विकसित हुई है। कुछ उत्परिवर्तनों से वयस्कों में भी लैक्टेस एंज़ाइम का उत्पादन होने लगा जो दूध में उपस्थित लैक्टोस शर्करा को पचाने में मदद करता है। वयस्क अवस्था में भी इस एंज़ाइम के बने रहने को लैक्टेस निरंतरता कहते हैं।

आधुनिक अफ्रीका की बड़ी जनसंख्या में लैक्टेस निरंतरता के लिए चार उत्परिवर्तन हुए हैं जबकि युरोपीय लोग सिर्फ एक ऐसे उत्परिवर्तन पर निर्भर है। फिर भी यह उत्परिवर्तन काफी तेज़ी से फैल गए जिससे लगता है कि ये काफी फायदेमंद रहे होंगे।

दूध सेवन के इतिहास को और गहराई से समझने के लिए शोधकर्ताओं ने अफ्रीका का अध्ययन किया, जहां का समाज पिछले 8000 वर्षों से गाय, भेड़ और बकरी पालन करता आ रहा है। वैज्ञानिकों ने खुदाई में मिले सूडान और केन्या के 2000 से 6000 वर्ष पुराने 8 कंकालों के दांतों की कठोर परतों में दुग्ध-सम्बंधी प्रोटीन की उपस्थिति देखी, जिससे लगता है कि ये लोग लगभग 6000 वर्ष पहले से डेयरी उत्पादों का सेवन कर रहे थे। नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित यह अध्ययन अफ्रीका और विशेष रूप से विश्व की डेयरी खपत का प्राचीनतम प्रमाण है। अध्ययन से यह भी पता चला है कि अफ्रीका में डेयरी उद्योग युरोप के डेयरी उद्योग जितना या उससे भी अधिक पुराना है।          

और तो और, 2020 में कुछ अफ्रीकी कंकालों के डीएनए के अध्ययन के अनुसार प्राचीन अफ्रीकी लोगों में उस समय दूध को पचाने वाले किसी जीन का विकास भी नहीं हुआ था। वे लोग लैक्टेस निरंतरता से पहले से ही दूध का सेवन करते आ रहे थे। कंकालों में मिला प्रोटीन दूध, पनीर या दही जैसे किण्वित उत्पादों से आया होगा। कई संस्कृतियों में किण्वन का उपयोग दूध का सेवन करने से पहले उसकी शर्करा को तोड़ने के लिए किया जाता रहा है ताकि लैक्टेस की अनुपस्थिति में भी दूध उत्पादों का सेवन कर सकें। अंतत: वह उत्परिवर्तन हुआ होगा जिसने लोगों को दूध से अधिक से अधिक पोषण प्राप्त करने में मदद की। वाशिंगटन युनिवर्सिटी की पुरातत्वविद फियोना मार्शल के अनुसार, जिन अफ्रीकी लोगों में लैक्टेस निरंतरता अधिक थी वे लोग अधिक समय तक जीवित रहते थे और उनके बच्चे भी ज़्यादा होते थे।

वैज्ञानिकों का मानना है कि लैक्टेस निरंतरता के चयन का कारण पर्यावरणीय भी हो सकता है। गौरतलब है कि दूध मुश्किल परिस्थितियों में आबादी का प्रबंधन करने का एक बढ़िया तरीका है जिसमें चरवाहे जानवरों की हत्या किए बिना ही उनसे पोषण प्राप्त कर सकते थे। सूखे के समय में भी ये चौपाए उनके लिए पानी के फिल्टर और भंडारण का काम किया करते थे। जब तक ये जीव ज़िंदा रहते थे, तरल, प्रोटीन और पोषण का स्रोत हुआ करते थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वॉम्बेट की घनाकार विष्ठा

नाकार चीज़ें हमें आकर्षक लग सकती हैं लेकिन प्रकृति में घनाकार चीज़ें बहुत कम पाई जाती हैं। लिहाज़ा यदि कोई जंतु घनाकार विष्ठा त्यागे तो सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर उसकी विष्ठा घनाकार क्यों है। इसकी व्याख्या के लिए पहले एक टीम को इगनोबल पुरस्कार मिल चुका है लेकिन वह व्याख्या गलत पाई गई थी।

वॉम्बेट एक झबरीले शरीर वाला मार्सूपियल है जो घनाकार विष्ठा त्यागता है। मार्सूपियल उन स्तनधारी प्राणियों को कहते हैं जो अल्प-विकसित शिशु को जन्म देते हैं और उनका शेष विकास शरीर के बाहर एक थैली में होता है। कंगारू सबसे जाना-माना मार्सूपियल है। हाल ही में, जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के बायोमेकेनिक्स शोधकर्ता डेविड हू ने स्पष्ट किया है कि वॉम्बेट की घनाकार विष्ठा के लिए उसका गुदा द्वार नहीं बल्कि आंत की रचना ज़िम्मेदार होती है। और संभवत: 10 मीटर लंबी आंत का अंतिम 17 प्रतिशत हिस्सा ही विष्ठा को घनाकार बनाने में भूमिका निभाता है।

वॉम्बेट (वोम्बेटस अरसीनस), ऑस्ट्रेलिया के घास के मैदानों और युकेलिप्टस के जंगलों में रहते हैं। ये रात में चरते हैं और दिन का समय भूमिगत सुरंगों में बिताते हैं। 35 किलोग्राम तक के वज़न वाले ये वॉम्बेट अपना इलाका बनाते हैं, और इस इलाके की निशानदेही उनकी विष्ठा से होती है।

दरअसल, पूर्व में एक्सीडेंट में मारे गए वॉम्बेट की आंत का अध्ययन कर वैज्ञानिक यह तो पता लगा चुके थे कि उनकी आंत की दीवार में उस जगह दो खांचे होते हैं जहां आंत अधिक लचीली होती है।

वर्तमान अध्ययन में शोधकर्ताओं ने दो और वॉम्बेट की आंतों का अध्ययन किया। इसमें उन्होंने आंत की मांसपेशियों और ऊतक की परतों का अध्ययन कर विभिन्न स्थानों पर आंत की मोटाई और कठोरता पता की। फिर उन्होंने एक ऐसा 2-डी गणितीय मॉडल बनाया जो दर्शाता था कि पाचन के साथ आंत के ये हिस्से किस तरह फैलते-सिकुड़ते हैं। सॉफ्ट मैटर नामक पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि आंत कई दिनों तक सिकुड़ती-फैलती रहती है। इस संकुचन के चलते मल को निचोड़ा जाता है और आंत की दीवारें उसमें से पोषक तत्व और पानी सोख लेती हैं। दरअसल, वॉम्बैट की आंतें पानी व पोषक तत्वों को सोखने में सिद्धहस्त होती हैं। यहां विष्ठा में से अधिकांश पानी सोख लिया जाता है। विष्ठा का सूखापन उसके आकार को बनाए रखने में मददगार होता है।

आंत के कठोर हिस्से तने हुए रबर बैंड की तरह कार्य करते हैं – ये नर्म हिस्सों की तुलना में तेज़ी से सिकुड़ते हैं। आंत के नर्म हिस्से धीरे-धीरे सिकुड़ते हैं और घनाकार विष्ठा के किनारों को सपाट करते हैं। अन्य स्तनधारियों में, आंत की मांसपेशियों का फैलना-सिकुड़ना हर जगह समान रूप से होता है। लेकिन वॉम्बेट की खांचेदार आंत और उसका असमान रूप से फैलना-सिकुड़ना विष्ठा को घनाकार बना देता है।

एक सवाल अभी भी है कि वॉम्बेट की घनाकार विष्ठा क्यों विकसित हुई। हू का अनुमान है कि चूंकि वॉम्बेट चट्टानों पर चढ़ते हैं और विष्ठा से अपना इलाका चिन्हित करते हैं, इसलिए यदि विष्ठा घनाकार होगी तो उसके ढलान से लुढ़कने की संभावना कम होगी।

शोधकर्ताओं का कहना है कि आंतों के इस तंत्र से इंजीनियरों को कीमती या संवेदनशील सामग्रियों को आकार देने के लिए बेहतर डिज़ाइन बनाने में मदद मिल सकती है। इसके अलावा यह जानकारी चिड़ियाघर में रखे गए वॉम्बेट के बेहतर पालन करने में मदद कर सकती है। कभी-कभी चिड़ियाघर के वॉम्बेट का मल जंगली वॉम्बेट की तुलना में कम घनाकार होता है, और विष्ठा जितनी अधिक घनाकार है वॉम्बेट उतना ही स्वस्थ है। (स्रोत फीचर्स)

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नग्न मोल रैट की बोलियां

बिना बालों वाले नग्न मोल रैट दिखने में भले ही आकर्षक न लगें लेकिन इनकी विचित्र खूबियां वैज्ञानिकों को खूब आकर्षित करती हैं। जैसे इन्हें शायद ही कभी कैंसर होता है, ये अन्य कृंतकों की तुलना में काफी लंबे समय तक जीवित रहते हैं, और इनकी दर्द सहन करने की क्षमता भी काफी अधिक होती है। ऐसे ही इनकी एक विशेषता यह भी है कि अन्य स्तनधारियों के विपरीत, ये नग्न मोल रैट मधुमक्खियों-तितलियों की तरह कॉलोनी बनाकर रहते हैं। कॉलोनी में एक रानी होती है और बाकी सदस्य मज़दूर। और अब, शोधकर्ताओं ने पाया है कि मनुष्यों और कई पक्षियों की तरह नग्न मोल रैट की प्रत्येक कॉलोनी की अपनी बोली होती है, जो समूह की रानी द्वारा जीवित रखी जाती है। कृंतकों में ध्वनि-उच्चारण सीखने यह का पहला प्रमाण मिला है।

वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि नग्न मोल रैट (हेटरोसेफेलस ग्लैबर) लगभग अंधे और (अधिकांश आवृत्तियों के लिए) बहरे होते हैं, और ये आपस में संवाद उच्च तारत्व (पिच) में किकिया कर करते हैं। लेकिन इस बारे में अब तक पता नहीं था कि उनका ध्वनि-उच्चारण कितना जटिल होता है?

यह जानने के लिए मैक्स डेलब्रुक सेंटर फॉर मॉलीक्यूलर मेडिसिन की न्यूरोलॉजिस्ट एलिसन बार्कर और उनके साथियों ने अध्ययन की शुरुआत में नग्न मोल रैट के मेलजोल के समय उत्पन्न की जाने वाली ध्वनियों को रिकॉर्ड किया, जो एक धीमी किकियाने की ध्वनि होती है। इस तरह दो वर्षों में उन्होंने जर्मनी और दक्षिण अफ्रीका की प्रयोगशालाओं की सात कॉलोनियों से 166 नग्न मोल रैट  की 36,000 से अधिक किकियाने की ध्वनियों को रिकॉर्ड कर लिया।

ध्वनियों को समझने के लिए टीम ने एक ऐसा सॉफ्टवेयर बनाया जो ध्वनियों को उनकी ध्वनिक विशेषताओं के आधार पर वर्गीकृत करता था। यह सॉफ्टवेयर ध्वनि तरंगों के पैटर्न और ध्वनि तारत्व के आधार पर प्रत्येक नग्न मोल रैट की आवाज़ पहचान सकता था। इसकी मदद से पता चला कि प्रत्येक कॉलोनी का किकियाने का अपना विशिष्ट तरीका होता है। साइंस पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि जब उन्होंने यही ध्वनियां कुछ नग्न मोल रैट को सुनाई तो उन्होंने उन ध्वनियों पर अधिक प्रतिक्रिया दी जो उनके अपने समूह की थीं।

फिर शोधकर्ताओं ने प्रत्येक कॉलोनी की बोली में एक कृत्रिम ध्वनि बनाई और यह सुनिश्चित किया कि नग्न मोल रैट ने अपनी कॉलोनी की बोली पर प्रतिक्रिया दी थी या परिचित आवाज़ के प्रति? जब कृत्रिम ध्वनि इन कृंतकों को सुनाई गई तो पाया कि नग्न मोल रैट ने उस कृत्रिम ध्वनि पर अधिक प्रतिक्रिया दी जो उनकी अपनी कॉलोनी की बोली में थी। इससे पता चलता है कि वे अपनी बोली पहचान सकते हैं।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि कॉलोनियों की अपनी-अपनी बोली का विकास घुसपैठियों या बाहरी शख्स की पहचान के लिए हुआ होगा। नग्न मोल रैट अजनबियों से काफी डरते हैं। इसलिए वे यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि वे अपने समूह के बीच ही हैं। चूंकि वे अंधेरे में रहते हैं और लगभग अंधे होते हैं, तो अपरिचित की पहचान के लिए ध्वनि का उपयोग सबसे अच्छा तरीका है। अजनबी पहचाने जाने पर ये उन्हें मार ही डालते हैं।

यह भी पाया गया कि छुटपन में ही ये जीव अपनी कॉलोनी की बोली सीख लेते हैं। जब नवजातों को पराई कॉलोनियों में रखा तो पाया गया कि उन्होंने छह महीने के भीतर ही नई कॉलोनी की बोली सीख ली थी। इसके अलावा मनुष्यों की तरह इनकी भी बोली लुप्त हो सकती है। देखा गया कि रानी के मरने या हटा दिए जाने पर उनकी कॉलोनी की बोली लुप्त हो गई और नई रानी के बनने पर कॉलोनी की नई बोली बन गई। रानी-विहीन समूह के कुछ सदस्य स्वतंत्र हो गए और पुरानी बोली छोड़कर नए तरीके से किकियाने लगे। हालांकि यह अब तक पता नहीं लगा है कि रानी भाषा पर नियंत्रण कैसे करती है।

कुछ शोधकर्ता नवजात नग्न मोल रैट्स में अध्ययन करके देखना चाहते हैं कि उनकी ध्वनि का कौन-सा हिस्सा जेनेटिक है और कौन-सा सीखा गया है। इससे यह समझने में मदद मिल सकती है कि विभिन्न जानवरों में सीखा गया ध्वनि संवाद कैसे विकसित हुआ होगा। (स्रोत फीचर्स)

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डैटा मुहाफिज़ के रूप में विद्युत वितरण कंपनियां – नरेंद्र पई, आदित्य चुनेकर

र्जा मंत्रालय के स्मार्ट मीटर नेशनल प्रोग्राम (राष्ट्रीय स्मार्ट मीटर कार्यक्रम) के तहत वर्ष 2022 तक 25 करोड़ घरों में पारंपरिक बिजली मीटर के स्थान पर स्मार्ट मीटर लगाने की योजना है। उम्मीद है कि स्मार्ट मीटर स्वत: रीडिंग लेकर, बिल बनाकर, और समय से भुगतान न करने वाले उपभोक्ताओं का दूर से ही कनेक्शन काटकर या कनेक्शन कटने का भय पैदा कर समय पर बिल भुगतान सुनिश्चित करेंगे और इस तरह विद्युत वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) का राजस्व बढ़ाने में मदद करेंगे। स्मार्ट मीटर, विद्युत वितरण और भुगतान के क्षेत्र में लंबे समय से चली आ रही कुछ समस्याओं के समाधान के लिए ऊर्जा मंत्रालय द्वारा किए गए कुछ प्रयासों में से एक है।

देश भर में लगभग 21 लाख स्मार्ट मीटर लगाए चुके हैं और वे काम भी करने लगे हैं। और लगभग 91 लाख स्मार्ट मीटर लगाए जाने की तैयारी है। ऐसे में ज़रूरत है कि अविलंब इतनी बड़ी संख्या में स्मार्ट मीटर लगाए जाने के अनुभव को पारदर्शिता के साथ दर्ज और अच्छी तरह विश्लेषित किया जाए। यह लेख इसके ऐसे ही एक पहलू – डैटा गोपनीयता के मुद्दे – पर प्रकाश डालता है। स्वचालित बिलिंग और दूर से कनेक्शन काटने के अलावा स्मार्ट मीटर हर आधे घंटे या उससे भी कम समय अंतराल में उपभोक्ताओं की छोटी से छोटी बिजली खपत के आंकड़े भी एकत्रित कर सकते हैं। यदि इस डैटा का प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाता है तो यह विद्युत वितरण कंपनियों को बुनियादी विद्युत वितरण ढांचा बनाने, बिजली की खरीद और उपभोक्ताओं को मूल्य-वर्धित-सेवा देने में मदद कर सकता है। इससे वितरण कंपनियों की वित्तीय स्थिति और भी बेहतर हो सकती है।

लेकिन, कम समय अंतराल पर बिजली खपत का डैटा एकत्रित करने के अलावा स्मार्ट मीटर बिजली उपभोक्ता की निजी जानकारियां भी पता कर सकते हैं। जैसे परिवारजनों के घर में बिताने वाले समय का पैटर्न, उपकरणों के स्वामित्व और उनके उपयोग का पैटर्न, और यहां तक कि विश्लेषण और अनुमान के आधार पर उपभोक्ता की मनोरंजन आदतें और प्राथमिकताएं।

सर्वोच्च न्यायालय निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार मानता है। इसलिए पर्याप्त सुरक्षा उपायों और उपयुक्त सहमति के बिना इस तरह व्यक्तिगत उपभोग के डैटा का उपयोग करना और उसे साझा करना निजता के अधिकार का उल्लंघन माना जाएगा। इसके अलावा, डैटा प्रबंधन और डैटा साझा करने की कम सुरक्षित प्रणाली गैर-कानूनी गतिविधियों को भी न्यौता दे सकती है। जैसे, धोखाधड़ी, सेंध लगाना या तांक-झांक करना। दुनिया के कई देशों में इस तरह की गोपनीयता और सुरक्षा सम्बंधी चिंताओं को स्मार्ट मीटर-विशिष्ट डैटा सुरक्षा तंत्र के माध्यम से दूर किया जा रहा है, जो सामान्य डैटा सुरक्षा तंत्र के पूरक की तरह कार्य करता है।

यह भारतीय संदर्भ में दो सवाल उठाता है: मौजूदा मीटर में डैटा सुरक्षा और गोपनीयता सुनिश्चित करने वाला तंत्र कितना प्रभावी है; और आगामी निजी डैटा संरक्षण अधिनियम (पर्सनल डैटा प्रोटेक्शन एक्ट) के नियम-निर्देशों का पालन करने के लिए वितरण कंपनियां कितनी तैयार हैं? इन सवालों के जवाब काफी हद तक निराशजनक ही हैं।

सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (आईटी एक्ट) और 2011 के ‘उचित सुरक्षा उपाय और प्रक्रिया एवं संवेदनशील निजी डैटा अथवा सूचना’ के नियम, स्मार्ट मीटर और साधारण मीटर बिलिंग, दोनों से हासिल डैटा पर लागू होते हैं। लेकिन वितरण कंपनियों द्वारा आईटी एक्ट के पालन के बारे में सार्वजनिक तौर पर कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। जैसे, एक नियमानुसार इलेक्ट्रॉनिक तरीके से संग्रहित सभी तरह के डैटा को संभालने के संदर्भ में अपनाई गई गोपनीयता नीति प्रकाशित करना अनिवार्य है। लेकिन अधिकांश विद्युत वितरण कंपनियां यह मानती हैं कि ये नियम सिर्फ उनकी वेबसाइटों के माध्यम से एकत्रित डैटा पर लागू होते हैं।

विद्युत सम्बंधी तकनीकी और नीतिगत मसलों पर सरकार को सलाह देने वाले वैधानिक निकाय, केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए), ने उन्नत मीटरिंग की मूलभूल व्यवस्था (एएमआई) के सम्बंध में विस्तृत कार्यात्मक शर्तें/अनिवार्यताएं जारी की हैं। स्मार्ट मीटर लगाए जाने के कुछ अनुबंधों में वितरण कंपनियों द्वारा इन दिशानिर्देशों को शब्दश: अपनाया गया है, लेकिन अफसोस कि इन दिशानिर्देशों में उपभोक्ता की गोपनीयता सम्बंधी कोई निर्देश नहीं हैं।

अच्छी बात यह है कि उन्नत मीटरिंग (एएमआई) सेवा प्रदाताओं को नियुक्त करने के लिए ऊर्जा मंत्रालय द्वारा जारी किए गए मानक निविदा पत्र में गोपनीयता सम्बंधी नियम शामिल हैं। हालांकि, वितरण कंपनियों द्वारा इन्हें अपनाए जाने के बारे में अभी भी कोई जानकारी नहीं हैं। यदि मौजूदा स्मार्ट मीटर डैटा सुरक्षा तंत्र शिथिल है भी, तो निजी डैटा सुरक्षा विधेयक 2019 के लागू होने के बाद स्थिति काफी बदल सकती है।

निजी डैटा का आर्थिक उपयोग करने और किसी व्यक्ति की निजता के अधिकार को बनाए रखने के बीच संतुलन बनाने के लिए सरकार ने निजी डैटा सुरक्षा विधेयक 2019 का प्रस्ताव रखा था। यह महत्वपूर्ण बिल वर्तमान में संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष है और कानून बनने से बस कुछ ही कदम दूर है। वास्तव में, निजी डैटा सुरक्षा विधेयक में उल्लेखित नियमों से मिलते-जुलते नीति-नियमों को पहले ही सम्बंधित क्षेत्रों में लागू किया जाने लगा है। मसलन, राष्ट्रीय स्वास्थ्य डैटा प्रबंधन नीति के ज़रिए सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में।

निजी डैटा सुरक्षा विधेयक लागू होने के बाद यह आईटी अधिनियम के नियमों को बदल देगा। और मासिक बिलिंग और स्मार्ट मीटर डैटा सहित सभी वितरण कंपनियों और सभी उपभोक्ताओं के डैटा को इस अधिनियम के दायरे में ले आएगा। चाहे स्मार्ट मीटर द्वारा डैटा लिया हो या पारंपरिक मीटर द्वारा, सभी वितरण कंपनियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके द्वारा की जा रही डैटा हैंडलिंग और इसमें शामिल तीसरे पक्ष द्वारा व्यक्तिगत गोपनीयता का उल्लंघन नहीं किया जाएगा। इसके अलावा नए कानून के तहत, डैटा सुरक्षा प्राधिकरण को डैटा नियामक के रूप में नियुक्त किया जाएगा और वितरण कंपनियां इसके नियमों से बंधी होंगी। इस कानून के तहत कंपनियों द्वारा नियमों का पालन न किए जाने की स्थिति में तय दंड काफी अधिक है। यह राशि उनके वार्षिक वैश्विक व्यापार का चार प्रतिशत तक हो सकती है। प्रस्तावित डैटा सुरक्षा प्राधिकरण सेक्टर नियामकों से परामर्श करके सेक्टर विशेष नियम भी बना सकता है।

विद्युत क्षेत्र सम्बंधी विशेष नियम व्यापक डैटा सुरक्षा फ्रेमवर्क पर आधारित होने चाहिए जो खासकर स्मार्ट मीटर डैटा को ध्यान में रखकर बनाए गए हों। उसमें स्पष्ट निर्देश होना चाहिए कि विद्युत अधिनियम 2003 के तहत स्मार्ट मीटर किस तरह का डैटा एकत्र कर सकते हैं, डैटा संग्रहण की अवधि कितनी होगी और डैटा का किस तरह का उपयोग किया जा सकता है। डैटा संग्रह और उसके उपयोग के मुताबिक उपभोक्ता सहमति का प्रारूप बनाया जाना चाहिए। प्रारूप में डैटा और उसके सार तक उपभोक्ता की पूर्ण पहुंच की, उपभोक्ता द्वारा अपनी सहमति की शर्तों को बदलने की व्यवस्था होनी चाहिए, और स्पष्ट व सरल शब्दों में गोपनीयता नीति उपलब्ध होनी चाहिए। इसके अलावा, डैटा शेयरिंग के नियम और उत्तरदायी तंत्र (ऑडिट अपेक्षाएं और सार्वजनिक रिपोर्ट) इस प्रणाली का हिस्सा होना चाहिए।

स्मार्ट मीटर लगाए जाने की प्रक्रिया की तेज़ रफ्तार देखते हुए, ऊर्जा मंत्रालय को केंद्रीय विद्युत प्रधिकरण, केंद्रीय और राज्य नियामकों, वितरण कंपनियों, स्मार्ट मीटर निर्माताओं, सिविल सोसाइटी संगठनों और अन्य हितधारकों के साथ परामर्श करके इस तरह का फ्रेमवर्क तत्काल बनाना चाहिए और इसे श्वेत पत्र के रूप में प्रकाशित करना चाहिए। ऊर्जा मंत्रालय को इस पर सार्वजनिक टिप्पणियां भी मांगना चाहिए। यह फ्रेमवर्क, विशिष्ट नियमों को विकसित करने हेतु बिजली नियामकों के साथ विचार-विमर्श करने के लिए प्रस्तावित डैटा सुरक्षा प्राधिकरण की दिशा में एक अच्छी शुरुआत हो सकती है। तब तक, वितरण कंपनियों की ज़िम्मेदारी बनती है कि डैटा मुहाफिज़ों के रूप में वे अपनी भूमिका समझें और उपभोक्ता और कंपनी, दोनों के हित में उपभोक्ता की गोपनीयता को सुरक्षा देने की तैयारी शुरू कर दें। (स्रोत फीचर्स)

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आईबीएस का दर्द: स्थानीय प्रतिरक्षा की भूमिका

दुनिया में लाखों लोग इरीटेबल बॉवेल सिंड्रोम (IBS) से पीड़ित हैं। इस समस्या से पीड़ित लोगों को अक्सर पेट में मरोड़, अतिसार, या कब्ज़ का एहसास होता है। स्थिति तब और भी बुरी हो जाती है जब डॉक्टर कहते हैं कि ऐसा किसी चिंता की वजह से हो रहा है, या यह परेशानी महज उनके दिमाग की उपज है।

के.यू. ल्युवेन के गैस्ट्रोएन्टरोलॉजिस्ट गाय बोक्सटेन्स डॉक्टरों के इन तर्कों को नज़रअंदाज करके, वर्षों से आईबीएस के एक महत्वपूर्ण लक्षण को समझने की कोशिश कर रहे थे। लक्षण यह है कि इससे पीड़ित लोगों को पेटदर्द अक्सर खाने के बाद शुरू होता है। हाल ही में उन्होंने और उनके साथियों ने नेचर पत्रिका में बताया है कि आईबीएस से पीड़ित लोगों को दर्द का यह एहसास आंत में खाद्य पदार्थ के प्रति स्थानीय एलर्जी के कारण होता है।

तकरीबन 15 साल पहले बोलोग्ना विश्वविद्यालय के गैस्ट्रोएन्टेरोलॉजिस्ट जियोवानी बारबरा ने अपने अध्ययन में इस सिंड्रोंम से पीड़ित लोगों का प्रतिरक्षा तंत्र थोड़ा भिन्न पाया था। उन्होंने पीड़ितों की आंतों के ऊतकों की बायोप्सी करने पर इनमें मास्ट कोशिका नामक प्रतिरक्षा कोशिकाएं सक्रिय पाई थीं। आम तौर पर मास्ट कोशिकाएं शरीर के लिए एक चेतावनी प्रणाली की तरह कार्य करती हैं – संक्रमण होने पर या परजीवी जैसे किसी घुसपैठिए के हमले पर हिस्टेमीन जैसे रसायन पैदा करती हैं। उन्होंने यह भी देखा कि आईबीएस से पीड़ित लोगों में (जिनमें वास्तव में कोई संक्रमण नहीं था) न सिर्फ मास्ट कोशिकाएं सक्रिय थीं बल्कि वे असामान्य रूप से तंत्रिका कोशिकाओं के नज़दीक थीं और उन्हें अत्यधिक सक्रिय होने के लिए उकसा रही थीं। तब, कई वैज्ञानिकों ने उनकी इस बात पर यकीन नहीं किया कि आईबीएस का दर्द आंत के जीव विज्ञान के कारण हो सकता है।

लेकिन बोक्सटेन्स ने इस पर और विस्तार से अध्ययन करना शुरू किया। उन्होंने आईबीएस की शुरुआत करने वाले ट्रिगर का अध्ययन किया। कतिपय लक्षणहीन संक्रमण या फूड पॉइज़निंग आईबीएस को शुरू कर सकते हैं। पाया गया कि 10 प्रतिशत लोग आंतों के संक्रमण से तो उबर गए थे लेकिन आईबीएस से पीड़ित हो गए थे। इस आधार पर उन्होंने सोचा कि हो सकता है संक्रमण के बाद आंतों में थोड़ी सूजन बनी रहती हो, जो आईबीएस के जीर्ण दर्द का कारण बनती हो। लेकिन आईबीएस से पीड़ित लोगों की आंतों के ऊतक की बायोप्सी में सूजन नहीं दिखी।

तब शोधकर्ताओं ने सोचा कि आंत का संक्रमण इस बात पर असर डालता है कि वह खाद्य पदार्थों में मौजूद एंटीजन नामक प्रोटीन अवशेषों को कैसे बरदाश्त करेगी। संक्रमण होने पर आंत की प्रतिरक्षा प्रणाली जाग जाती है और हो सकता है कि खाद्य पदार्थ में मौजूद एंटीजन को अपना शत्रु समझने लगे। यदि संक्रमण खत्म होने के बाद भी आंत में प्रतिरक्षा प्रणाली की यही प्रतिक्रिया बनी रहती है तो हो सकता है कि यही आईबीएस दर्द का कारण बन जाए।

अपनी इस परिकल्पना को जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने कुछ चूहों को आंत के लिए हानिकारक बैक्टीरिया से संक्रमित किया, और साथ में उन्हें अंडे की सफेदी (एंटीजन के स्रोत के रूप में) खिलाई। आंत का संक्रमण खत्म होने के बाद इन चूहों को फिर वही एंटीजन खिलाया गया। ऐसा करने पर चूहों को पेट में दर्द का अनुभव हुआ, जो पेट की मांसपेशियों के संकुचन से नापा गया। दूसरी ओर, नियंत्रण समूह के चूहे, जिन्हें संक्रमण के समय अंडे की सफेदी नहीं खिलाई गई थी, उन्हें संक्रमण ठीक होने का बाद सफेदी खिलाने पर कोई परेशानी नहीं हुई।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि संक्रमण के बाद अंडे के सफेद हिस्से का प्रोटीन उसी तरह की शृंखला अभिक्रिया शुरू कर देता है जैसी किसी खाद्य पदार्थ से एलर्जी के समय होती है। सफेद हिस्से का प्रोटीन मास्ट कोशिकाओं के इम्युनोग्लोबुलिन ई (IgE) एंटीबॉडी से जुड़ जाता है। चूहों में भी मास्ट कोशिकाएं सक्रिय हो जाती हैं और अपने रसायन रुाावित करती हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि चूहों में अंडे के प्रोटीन के प्रति प्रतिक्रिया चार सप्ताह तक बनी रही। उन्होंने यह भी देखा कि मास्ट कोशिकाओं की नज़दीकी तंत्रिकाएं अतिसंवेदनशील और उत्तेजित हो जाती हैं जिससे दर्द का एहसास होता है।

शोधकर्ता बताते हैं कि यह फूड एलर्जी नहीं है क्योंकि प्रतिरक्षा प्रणाली की प्रतिक्रिया आंत तक ही सीमित थी। खाद्य पदार्थों से होने वाली एलर्जी, जैसे मूंगफली या गाय के दूध से एलर्जी, में लोगों में IgE एंटीबॉडीज़ रक्त प्रवाह में प्रवेश कर पूरे शरीर में एलर्जी के लक्षण पैदा कर सकती है। लेकिन इन चूहों के रक्त में IgE नदारद थे।

इस संभावना को मनुष्यों में जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने गाय के दूध, ग्लूटेन, गेहूं और सोयाबीन की एलर्जी से मुक्त लेकिन संभवत: आईबीएस से पीड़ित 12 लोगों को ये चार एलर्जीजनक गुदा के माध्यम से दिए। पाया गया कि प्रत्येक प्रतिभागी ने इन चारों में से कम से कम एक तरह के एंटीजन के प्रति स्थानीय प्रतिक्रिया दी। जबकि आठ स्वस्थ प्रतिभागियों पर यही परीक्षण करने पर सिर्फ दो लोगों की आंत में सोयाबीन या ग्लूटेन के प्रति आंशिक प्रतिक्रिया दिखी। (लगता है कि कई लोगों में हल्की प्रतिक्रिया होती है जो उनकी आंत सहन कर जाती है।)

लेकिन ये निष्कर्ष कई नए सवाल उठाते हैं। जैसे क्या यह स्थिति कुछ ही खाद्य पदार्थों के साथ बनती है या सामान्य है? वर्तमान के आईबीएस उपचार लक्षणों से राहत दिलाने के लिए होते हैं। लेकिन अगर सिंड्रोम मास्ट कोशिकाएं और IgE प्रतिक्रिया के कारण हो रहा है तो कुछ मामलों में ही सही, इम्यून थेरपी उपयोगी साबित हो सकती है। इसके अलावा, संक्रमण से प्रेरित आईबीएस तो मात्र एक प्रकार है, इसके अन्य प्रकार भी हैं। जैसे तनाव जनित आईबीएस। तो सवाल है कि क्या यह स्थानीय प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया सिर्फ संक्रमण-जनित आईबीएस का मामला है या सामान्य रूप से पाई जाती है। फिलहाल शोधकर्ता इसी सवाल का जवाब पता करने की कोशिश कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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नए साल की नई प्रौद्योगिकियां

ह वर्ष प्रौद्योगिकी विकास के लिए आशा भरा साबित हो सकता है। टीकों से लेकर गंध संवेदना के क्षेत्र में और तंत्रिका विज्ञान से लेकर मास स्पेक्ट्रोमेट्री तक कई नवीन तकनीक और उपकरण विकसित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। यहां ऐसी ही सात प्रौद्योगिकियों के बारे में बात की जा रही है।

ताप-सह टीके

संक्रामक रोगों के खिलाफ टीके की प्रभाविता और सुरक्षा के आकलन को गति देने, टीका उत्पादन बढ़ाने और असुरक्षित आबादी तक टीकों की पहुंच बढ़ाने के उद्देश्य से वर्ष 2017 में कोलीशन फॉर एपिडेमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशन (CEPI) नामक वैश्विक संगठन की स्थापना की गई थी।

कोविड-19 महामारी से पहले कभी बहुत कम समय में टीका विकसित करने की ज़रूरत नहीं पड़ी थी। फिर भी, मॉडर्ना और फाइज़र कंपनी ने कोविड-19 के खिलाफ mRNA (संदेशवाहक आरएनए) आधारित टीके को महज़ चार महीनों में अनुक्रमण के चरण से लेकर प्रथम चरण के परीक्षण तक पहुंचा दिया।

लेकिन ये टीके और भी बेहतर बनाए जा सकते हैं। चूंकि mRNA बहुत नाज़ुक अणु होता है, यदि इसे सीधे कोशिका में प्रवेश कराया जाए तो हमारे शरीर के एंज़ाइम इसे छिन्न-भिन्न कर देंगे। एक नवीन टेक्नॉलॉजी में mRNA को आयनीकरण-योग्य नैनोपार्टिकल लिपिड के भीतर सुरक्षित किया जाता है। mRNA का यह लिपिड कवच शरीर की पीएच में तो उदासीन रहता है, लेकिन जब यह कोशिका के एंडोसोम में प्रवेश करता है तो वहां के अम्लीय वातावरण में आवेशित हो जाता है और कवच खुल जाता है। इस तरह mRNA कोशिका में पहुंच जाएगा। और अब, नैनोपार्टिकल लिपिड को और भी बेहतर तरीके से कार्य करने के लिए विकसित किया जा रहा है। इसमें नैनोपार्टिकल को ग्राहियों से जुड़कर किन्हीं विशिष्ट ऊतकों या कोशिकाओं को लक्षित करने के लिए तैयार किया जा रहा है।

टीकों के क्षेत्र में अन्य नवाचार टीकों की पहुंच बढ़ाने के लिए किए जा रहे हैं। जैसे कुछ तरीकों में टीके की परिष्कृत संरचना को नुकसान पहुंचाए बिना प्रभावी तरीके से फ्रीज़-ड्राय (कम तापमान पर शुष्क) करने के लिए शर्करा अणुओं का उपयोग किया जा रहा है। इससे टीकों को भंडारित करना और उनका परिवहन करना आसान हो जाएगा।

टीकों की पहुंच बढ़ाने का एक अन्य प्रयास है पोर्टेबल आरएनए-प्रिंटिंग तकनीक का विकास। कुछ ही देशों के पास बड़े पैमाने पर उच्च-गुणवत्ता वाले टीके उत्पादन करने के लिए पूंजी और विशेषज्ञता दोनों हैं। लेकिन सीमित संसाधन वाले क्षेत्र या देश भी स्वयं mRNA आधारित टीका निर्माण कर पाएं, इसके लिए फरवरी 2019 में क्कघ्क्ष् ने पोर्टेबल आरएनए-प्रिंटिंग इकाई विकसित करने के लिए CureVac कंपनी में लगभग साढ़े तीन करोड़ डॉलर का निवेश किया है। उम्मीद है कि इसकी बदौलत अगली किसी महामारी में तैयारी बेहतर होगी।

मस्तिष्क में होलोग्राम

ऑप्टोजेनेटिक्स चिन्हित मस्तिष्क कोशिकाओं और सर्किट (परिपथों) की गतिविधि को नियंत्रित करने की एक तकनीक है। इस तकनीक के उभरने के बाद से तंत्रिका विज्ञान के क्षेत्र में काफी उत्साह पैदा हुआ है। ऑप्टोजेनेटिक्स वर्ष 2005 में विकसित एक तकनीक है जिसमें न्यूरॉन्स में एक प्रोटीन (ऑप्सिन) का जीन जोड़ दिया जाता है। इस जीन से बने प्रोटीन की बदौलत वह न्यूरॉन अब प्रकाश मिलने पर सक्रिय हो उठता है। इसकी मदद से वैज्ञानिक विशिष्ट न्यूरॉन्स के साथ छेड़छाड़ तो कर पाते हैं लेकिन इसकी मदद से अभी भी कोशिकाओं की परस्पर संवाद की भाषा को समझना संभव नहीं हुआ है।

इस प्रयास में, कुछ तंत्रिका वैज्ञानिकों ने नए प्रकाश-संवेदी प्रोटीन विकसित किए हैं। इनकी मदद से किसी तंत्रिका-मार्ग को सक्रिय करने के लिए प्रकाश के विशिष्ट रंग का उपयोग किया जा सकता है। कुछ संशोधित प्रोटीन द्वि-फोटोन उद्दीपन की मदद से न्यूरॉन्स को अधिक सटीकता से सक्रिय कर सकते हैं। लेकिन लेज़र बीम कितने कम समय में किसी विशिष्ट न्यूरॉन को सक्रिय कर पाती है, इसकी सीमा है। और इसलिए नैसर्गिक गतिविधि का हू-ब-हू उद्दीपन पैटर्न बनाना मुश्किल होता है।

पिछले कुछ सालों में, किसी एक न्यूरॉन में बदलाव करने के लिए होलोग्राफी और अन्य प्रकाशीय तरीके विकसित हुए हैं। इनकी मदद से लेज़र प्रकाश को इतने सूक्ष्म पुंजों में विभाजित किया जा सकता है कि वह न्यूरॉन्स का आकार ले ले। इस तरह न्यूरॉन्स को सटीक रूप से उद्दीपन देने के लिए होलोग्राम के ज़रिए त्रि-आयामी जटिल पैटर्न बनाना संभव हुआ है।

जहां एक अकेले लेज़र पुंज से किसी एक न्यूरॉन को उद्दीप्त करने में 10-20 मिलीसेकंड का समय लगता है, होलोग्राफी की मदद से एक मिलीसेकंड से भी कम समय में यह किया जा सकता है। और एक साथ कई होलोग्राम बनाए जा सकते हैं।

लेकिन ऐसा कर पाना अब तक विशेष प्रयोगशालाओं तक ही सीमित था क्योंकि इसे अंजाम देने के लिए यह पता होना चाहिए कि विशिष्ट सूक्ष्मदर्शी कैसे बनाया जाए। और अब, कुछ कंपनियों ने अपनी द्वि-फोटॉन इमेजिंग प्रणाली में होलोग्राफी को भी जोड़ दिया है। अब तंत्रिका विज्ञानी माइक्रोस्कोप से तस्वीर खींचकर जिस न्यूरॉन को सक्रिय करना है उस विशिष्ट न्यूरॉन्स को चिन्हित कर सकते हैं, और सॉफ्टवेयर की मदद से इसे उद्दीपन देने वाले पैटर्न जैसा होलोग्राम बना सकते हैं।

बेहतर एंटीबॉडी निर्माण

1990 के मध्य दशक से ही एंटीबॉडी का उपयोग उपचार में किया जा रहा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ही एंटीबॉडी की संभावनाओं के बारे में पता चला है। अधिकांश एंटीबॉडी-आधारित उपचार में सामान्य, असंशोधित एंटीबॉडी का उपयोग किया जाता है जो किसी वांछित लक्ष्य, जैसे वायरस या ट्यूमर कोशिका की सतह पर मौजूद किसी प्रोटीन से जाकर जुड़ जाती हैं। लेकिन कई एंटीबॉडी प्रतिरक्षा कोशिकाओं को सक्रिय करने में अप्रभावी रह जाती हैं। अब, आणविक जीव विज्ञान में हुई प्रगति की मदद से हम एंटीबॉडी को संशोधित कर सकते हैं और इसके ज़रिए शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को रोग के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार कर सकते हैं।

इस दिशा में किंग्स कॉलेज, लंदन की प्रयोगशाला ने एक तीव्र और कुशल आणविक-क्लोनिंग विधी, PIPE (पोलीमरेज़ इनकंप्लीट प्राइमर एक्सटेंशन), की मदद से किसी भी एंटीबॉडी में मनचाहे परिवर्तन संभव कर दिए हैं। इस तरह संशोधित एंटीबॉडी किलर कोशिकाओं के साथ आसानी से जुड़ सकती हैं। इन संशोधित एंटीबॉडी द्वारा चूहों के स्तन कैंसर का उपचार करने पर पाया गया कि इनसे अधिक कैंसर कोशिकाओं की मृत्यु हुई।

इसके अलावा, इम्युनोग्लोबुलिन ई (IgE) आधारित एंटीबॉडी पर भी अध्ययन शुरू हुए हैं। चूंकि लोगों को लगता था कि IgE एलर्जी सम्बंधित एंटीबॉडी है इसलिए अधिकांश चिकित्सकीय एंटीबॉडी इम्युनोग्लोबुलिन जी (IgG) पर आधारित होती हैं। लेकिन IgE एंटीबॉडी कैंसर कोशिकाओं को लक्षित करने का शानदार ज़रिया हो सकती हैं।

वांछित संशोधन कर संशोधित एंटीबॉडी द्वारा कैंसर से लेकर ऑटो-इम्यून बीमारियों और एलर्जी का इलाज और कोविड-19 सहित कई संक्रामक रोगों के खिलाफ प्रतिरक्षा हासिल की जा सकती है।

एकल-कोशिका अध्ययन

हमारे शरीर की कोशिकाएं विभिन्न तरह के कार्य करती हैं। लेकिन इन सभी कोशिकाओं का जन्म एक कोशिका और एक जीनोम से ही होता है। सवाल है कि कैसे एक कोशिका इतनी सारी विभिन्न कोशिकाओं को जन्म देती है?

इस सवाल का जवाब पता करने के लिए पिछले कुछ समय से एकल-कोशिका को अनुक्रमित करने की तीन नई तकनीकों पर काम हो रहा है। इनमें से एक तकनीक है हाइ-सी (Hi-C) विधि, जिसकी मदद से जीनोम की त्रि-आयामी संरचना का अध्ययन किया जा सकता है। इसकी मदद से चूहे के भ्रूण के प्रारंभिक विकास के विभिन्न चरणों के दौरान एकल-कोशिका में मातृ और पितृ गुणसूत्रों का अध्ययन करने पर पाया गया कि मातृ और पितृ जीनोम निषेचन के तुरंत बाद मिश्रित नहीं होते, एक कोशिका से 64 कोशिका बनने के चरणों के बीच एक ऐसा क्षण आता है जहां मातृ जीनोम की संरचना पितृ जीनोम से अलग दिखती है। हालांकि अब तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि कुछ समय की यह विषमता क्यों होती है। लेकिन अनुमान है कि आगे जाकर लिंग-विशिष्ट जीन अभिव्यक्ति को शुरू करने में इसकी भूमिका होगी।

दूसरी तकनीक है कट एंड टैग (या काटो-निशान लगाओ) तकनीक। इसकी मदद से जीनोम के विशिष्ट जैव-रासायनिक ‘चिन्हों’ को पहचान कर यह पता किया जा सकता है कि किस तरह इन रसायनों में परिवर्तन प्रत्येक जीवित कोशिका में किसी जीन को चालू-बंद करता है।

और तीसरी तकनीक है SHARE-seq। यह तकनीक दो अनुक्रमण विधियों का मिश्रण है। इसकी मदद से जीनोम के उन हिस्सों की पहचान की जा सकती है जहां अनुलेखन सक्रिय करने वाले अणु हो सकते हैं।

इन तकनीकों से विकासशील भ्रूण का अध्ययन कर पता किया जा सकता है कि जीनोम की कुछ खास विशेषताएं भ्रूण विकास में कैसे किसी कोशिका का भाग्य लिखती हैं।

कोशिका में बल संवेदना

वृद्धि कारकों और अन्य अणुओं के अलावा कोशिकाएं भौतिक बल भी महसूस करती हैं। बल का प्रभाव जीन अभिव्यक्ति, कोशिका संख्या वृद्धि, विकास और संभवत: कैंसर को नियंत्रित कर सकता है।

बल का अध्ययन करना मुश्किल है क्योंकि यह केवल एक प्रभाव के रूप में दिखता है – जब हम किसी चीज़ को धक्का लगाते हैं तो उसमें विकृति या हलचल होती है। लेकिन अब, दो उपकरणों की मदद से जीवित कोशिकाओं में बल को समझा जा सकता है और उसमें बदलाव किया जा सकता है। और इस तरह भौतिक बल और कोशिकीय कार्यों के बीच कार्य-कारण सम्बंध पता किया जा सकता है।

इंपीरियल कॉलेज, लंदन द्वारा विकसित GenEPi दो अणुओं को जोड़ सकता है। इनमें से एक अणु है पीज़ो-1। यह एक आयन मार्ग है जो कोशिका झिल्ली पर तनाव महसूस होने पर अपने छिद्रों से कैल्शियम आयनों का संचार करता है। दूसरा अणु इन आयनों की पहचान करता है – यह कैल्शियम से जुड़ने के बाद और अधिक चमकता है।

पूर्व में कोशिकाओं पर बल के प्रभाव को पता करने के लिए भौतिक या भेदक उपकरणों का उपयोग किया जाता था। लेकिन GenEPi की मदद से वास्तविक वातावरण में बदलाव किए बिना कोशिकाओं का अध्ययन किया जा सकता है। सभी तरह के कोशिका द्रव्य कैल्शियम पर नज़र रखने वाले पूर्व के सेंसरों के विपरीत, GenEPi केवल उन कैल्शियम गतिविधियों पर नज़र रखता है जो पीज़ो-1 के ज़रिए बल संवेदना से जुड़ी होती हैं। इस तरह वैज्ञानिकों ने परमाणु बल सूक्ष्मदर्शी कैंटीलीवर से ह्मदय की मांसपेशियों की कोशिकाओं में उद्दीपन देकर GenEPi प्रतिदीप्ति में बदलाव करने में सफलता प्राप्त की है।

दूसरा उपकरण है ActuAtor। इसे रोगजनक सूक्ष्मजीव लिस्टेरिया मोनोसाइटोजीनस के प्रोटीन ActA की मदद से बनाया है। जब यह बैक्टीरिया किसी स्तनधारी कोशिका को संक्रमित करता है तो ActA प्रोटीन मेज़बान कोशिका की मशीनरी पर अपना नियंत्रण कर लेता है ताकि बैक्टीरिया की सतह पर एक्टिन पोलीमराइज़ेशन शुरू कर सके। इससे बल उत्पन्न होता है जो कोशिका द्रव्य में बैक्टीरिया को इधर-उधर धकेलता है।

बैक्टीरिया की इस नियंत्रण प्रणाली का उपयोग हम अपने उद्देश्य के लिए कर सकते हैं। ActA प्रोटीन में बदलाव करके, प्रकाश या रासायनिक उद्दीपन देकर कोशिका के भीतर किसी भी वांछित स्थान पर एक्टिन पॉलीमराइज़ेशन किया जा सकता है। ActuAtor की मदद से कोशिका के बहुत अंदर तक बल लगाया जा सकता। जैसे, ActuAtor को माइटोकॉन्ड्रिया की सतह पर छोड़ने पर यह इसे छोटे-छोटे हिस्सों में तोड़ सकता है। इस तरह क्षतिग्रस्त माइटोकॉन्ड्रिया चयनित रूप से तोड़ा जा सकता है, और माइटोकॉण्ड्रिया द्वारा एटीपी संश्लेषण भी अप्रभावित रहता है।

पूर्व में ऐसे कामों को अंजाम देना मुश्किल था क्योंकि हमारे पास जीवित कोशिका को भेदे बिना कोशिकांग को क्षतिग्रस्त करने वाले उपकरण नहीं थे। ActuAtor ऐसा करने में सक्षम पहला उपकरण है।

नैदानिक मास स्पेक्ट्रोमेट्री

मास स्पेक्ट्रोमेट्री जटिल नमूनों में से भी सैकड़ों-हज़ारों तरह के अणुओं के बारे में तुरंत और सटीकता से पता कर सकती है। कुछ वैज्ञानिक मास स्पेक्ट्रोमेट्री की मदद से जैविक ऊतकों की बारीकी से पड़ताल करने के लिए बेहतर तकनीक विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। और कुछ शोधकर्ता मास स्पेक्ट्रोमेट्री को सरल बनाने का प्रयास कर रहे हैं ताकि चिकित्सकीय नैदानिक कार्यों में इसका इस्तेमाल हो सके।

MALDI (मैट्रिक्स-असिस्टेड लेज़र डीसॉर्प्शन/ऑयनाइज़ेशन) एक मास स्पेक्ट्रोमेट्री इमेजिंग तकनीक है जिसका उपयोग जैविक ऊतकों का विश्लेषण करने में किया जाता है। लेकिन अणुओं को ऊतकों से निकालना और निर्वात में उन्हें आयनित करना मुश्किल काम होता है। इसलिए 2017 में MALDI में किए गए कुछ बदलावों ने निर्वात के बजाय हवा की उपस्थिति में ही आयन में बदलाव करना संभव बनाया। इस बदलाव से MALDI प्रणाली और भी सरल हुई। और इस कारण मिश्रित सूक्ष्मदर्शी, जैवदीप्ति चित्रण, ब्लॉकफेस इमेजिंग और एमआरआई जैसी अन्य तकनीकों के साथ इसका उपयोग संभव हुआ। इतनी विविध कार्यक्षमता के कारण ही सूक्ष्मजीव और मेज़बान की अंत:क्रिया, और आणविक और ऊतकीय सटीकता के साथ चयापचय परिवर्तनों का बारीकी से अध्ययन संभव हो सका।

इसके अलावा शोधकर्ताओं ने एक MasSpec पेन बनाया है, जिसे हाथ से पकड़कर मास स्पेक्ट्रोमेट्री की जा सकती है। इसकी मदद से सर्जन ट्यूमर ऊतकों और उनके फैलाव को देख सकते हैं। यह उपकरण शरीर के चयापचय उत्पादों पर आधारित है जिसमें अभिक्रिया में बने उत्पादों के आधार पर यह पेन सामान्य ऊतक और ट्यूमर ऊतक की पहचान करता है। इस प्रक्रिया में ऊतक पर पानी की एक बूंद डाली जाती है जिसमें चयापचय उत्पाद घुल जाते हैं और फिर इनकी मास स्पेक्ट्रोमेट्री की जाती है। यह हमें पता चल गया है कि प्रयोगशाला में सामान्य ऊतक और ट्यूमर ऊतक के चयापचय उत्पाद में कौन-कौन से अणु होते हैं। अब वास्तविक परिस्थिति में परीक्षण किया जा रहा है। इस साल स्तन कैंसर, गर्भाशय के कैंसर और अग्नाशय कैंसर, या रोबोटिक प्रोस्टेट कैंसर सर्जरी में MasSpec पेन को जांचने की योजना है।

सूंघ कर बीमारी पता करना

दृष्टि, श्रवण और स्पर्श के विपरीत, गंध के रासायनिक संवेदक काफी जटिल हैं। वे सैकड़ों-हज़ारों रसायनों के मिश्रण की पहचान करते हैं। कोरिया युनिवर्सिटी के शोधकर्ता कृत्रिम घ्राण प्रणाली को बेहतर बनाने की कोशिश में हैं।

इनमें से एक तरीका है द्वि-स्तरीय डिज़ाइन कर गैस-संवेदी पदार्थों की विविधता को बढ़ाना। मसलन, गैस-संवेदना को बेहतर करने के लिए 10 विभिन्न संवेदी पदार्थों पर 10 विभिन्न उत्प्रेरक पदार्थों की परत चढ़ाना, जिससे 100 विभिन्न सेंसर बन सकते हैं। यह 100 अलग-अलग संवेदी पदार्थों के उपयोग से कहीं अधिक आसान होगा।

इसके अलावा, सेंसरों को त्वरित प्रतिक्रिया देने के लिए तैयार करने की भी आवश्यकता है। प्रकृति से सीखकर हम सेंसरों को त्वरित प्रतिक्रिया के लिए तैयार कर सकते हैं। जैसे संवेदी सतह का क्षेत्रफल बढ़ाना।

कृत्रिम घ्राण-तंत्र का उपयोग निदान में भी किया जा सकता है। जैसे दमा से पीड़ित लोगों की सांस में नाइट्रिक ऑक्साइड की उच्च सांद्रता का पता करने के लिए। इसके अलावा वायु प्रदूषण, खाद्य गुणवत्ता जांचने में और पौधों के हार्मोन संकेतों के आधार पर स्मार्ट खेती करने में कृत्रिम घ्राण-तंत्र का उपयोग किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/w1172/magazine-assets/d41586-021-00191-z/d41586-021-00191-z_18782774.jpg