उम्मीद से भी अधिक गर्म रहा पिछला वर्ष

पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ते हुए वर्ष 2023 अब तक का सबसे गर्म साल रहा है। कॉपरनिकस जलवायु परिवर्तन सर्विस की हालिया रिपोर्ट में औसत सतही तापमान में लगभग 0.2 डिग्री सेल्सियस की अतिरिक्त वृद्धि दर्ज की गई है। 2023 का तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.48 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह झुलसा देने वाली गर्मी उस जलवायु से चिंताजनक प्रस्थान का संकेत देती है जिसमें हमारी सभ्यता विकसित हुई।

यह तो स्थापित है कि इस दीर्घकालिक वार्मिंग के प्रमुख दोषी जीवाश्म ईंधन हैं। लेकिन 2023 में हुई अतिरिक्त वृद्धि से वैज्ञानिक असमंजस में हैं। इस अतिरिक्त वृद्धि को मात्र जीवाश्म ईंधन दहन के आधार पर नहीं समझा जा सकता।

लगता है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि का एक कारक दो जलवायु पैटर्न के बीच अंतर है। 2020 से 2022 तक ला-नीना जलवायु पैटर्न रहा। इसके तहत प्रशांत महासागर की गहराइयों का ठंडा पानी सतह पर आ जाता है और वातावरण को ठंडा रखता है। लेकिन 2023 में ला नीना समाप्त हो गया और उसके स्थान पर एक अन्य पैटर्न एल नीनो प्रभावी हो गया जिसने प्रशांत महासागर पर गर्म पानी की चादर फैला दी और वातावरण गर्म होने लगा। आम तौर पर एल नीनो अपनी शुरुआत के एक वर्ष बाद वैश्विक तापमान पर असर दिखाता है। लेकिन इस बार 2023 में एल नीनो शुरू हुआ और इसी वर्ष असर दिखाने लगा। और तो और, प्रभाव एल नीनो क्षेत्र से दूर तक हुआ है – उत्तरी अटलांटिक और प्रशांत महासागरों से ऊपर तक।

2022 में हुए हुंगा टोंगा-हुंगा हपाई ज्वालामुखी विस्फोट को तापमान में वृद्धि का प्रमुख ज़िम्मेदार माना जा रहा था। यह दक्षिणी प्रशांत क्षेत्र में स्थित है। यह माना गया था कि इस विस्फोट ने समताप मंडल में भारी मात्रा में जलवाष्प छोड़ी जिसकी वजह से वातावरण गर्म हुआ। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि विस्फोट के साथ सल्फेट कण भी बिखरे होंगे और इन कणों ने प्रकाश को परावर्तित कर दिया होगा जिसके चलते वातावरण ठंडा हुआ होगा। गणनाओं के अनुसार इन सल्फेट कणों ने जलवाष्प द्वारा उत्पन्न वार्मिंग प्रभाव को काफी हद तक कम किया होगा। गणनाएं यह भी बताती हैं कि इन दो विपरीत घटनाओं के प्रभाव के चलते यह विस्फोट तापमान वृद्धि की दृष्टि से उदासीन ही रहा होगा।

2023 में अतिरिक्त तापमान वृद्धि की सर्वोत्तम व्याख्या शायद यह है कि वातावरण में प्रकाश अवरोधी प्रदूषण का स्तर कम हो गया है। इसका प्रमुख कारण स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों का बढ़ता उपयोग है।

नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर के वायुमंडलीय भौतिक विज्ञानी तियानले युआन के अनुसार प्रदूषण में कमी, विशेषत: जहाजों द्वारा उत्सर्जित सल्फर कणों में कमी, ने अनजाने में प्रकाश को वापिस अंतरिक्ष में परावर्तित करने वाले बादलों को कम किया है। उपग्रह अवलोकनों से पता चला है कि 2022 के बाद से इन बादलों में कमी आई है। सिर्फ इन बादलों का कम होना पिछले दशक में हुई तापमान वृद्धि का महत्वपूर्ण कारण हो सकता है।

प्रसिद्ध जलवायु वैज्ञानिक जेम्स हेन्सन द्वारा नवंबर 2023 में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार प्रदूषण में कमी से तापमान में 0.27 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की वृद्धि हुई है, जबकि 1970 और 2010 के बीच प्रति दशक वृद्धि 0.18 डिग्री सेल्सियस ही रही थी। यह वृद्धि अभी तक गहरे समुद्र के तापमान में नहीं देखी गई है। इसकी मदद से दीर्घकालिक रुझानों की अधिक सटीक जानकारी मिल सकती है।

बहरहाल, पिछले वर्ष की इन गुत्थियों ने भविष्य के अनुमानों पर अनिश्चितता पैदा की है। इसके साथ ही एल नीनो अस्थायी रूप से वैश्विक तापमान को पेरिस समझौते में निर्धारित 1.5 डिग्री सेल्सियस से आगे बढ़ा सकता है। लेकिन इस इन्तहाई गर्मी का उत्तरी महासागरों के तापमान में वृद्धि का रूप लेने में समय लगेगा और तभी पूरे विश्व के स्तर पर पेरिस सीमा का उल्लंघन होगा। फिर भी, दीर्घकालिक वार्मिंग पैटर्न की निरंतरता तब तक जारी रहेगी जब तक जीवाश्म ईंधन जलाना बंद नहीं हो जाता। यह निष्कर्ष कार्रवाई की ज़रूरत का आह्वान है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तापमान में रिकॉर्ड-तोड़ वृद्धि

वैश्विक तापमान में निरंतर वृद्धि हो रही है। पिछला वर्ष अब तक का सबसे गर्म वर्ष माना जा रहा है। एक गैर-मुनाफा संगठन, क्लाइमेट सेंट्रल, द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट के अनुसार इस वर्ष लगभग 7.3 अरब लोगों ने ग्लोबल वार्मिंग जनित तापमान वृद्धि का अनुभव किया जबकि एक-चौथाई आबादी को अत्यधिक गर्मी झेलनी पड़ी।

इस रिपोर्ट के आधार पर क्लाइमेट सेंट्रल के एंड्रयू पर्शिंग के अनुसार यदि कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस पर हमारी निर्भरता बनी रही तो आने वाले वर्षों में जलवायु प्रभाव और अधिक प्रचंड होंगे। इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने नवंबर 2022 से अक्टूबर 2023 तक 175 देशों और 920 शहरों में दैनिक वायु तापमान पर मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन किया है। उन्होंने पाया कि इस अवधि में औसत वैश्विक तापमान औद्योगिक युग (1850-1900) से पहले के तापमान से औसतन 1.32 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। इसने 2015-2016 के 1.29 डिग्री सेल्सियस के रिकॉर्ड को पछाड़ दिया है।

शोध में वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन के कारण अत्यधिक तापमान की संभावना दर्शाने के लिए क्लाइमेट शिफ्ट इंडेक्स का उपयोग किया। इसके परिणामों के अनुसार शुरुआत में इस भीषण गर्मी का सबसे अधिक खामियाज़ा दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और मलय द्वीपसमूह के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के निवासियों को भुगतना पड़ा है और समय गुज़रने के साथ इसका प्रभाव और अधिक भीषण होता गया।

जमैका, ग्वाटेमाला और रवांडा जैसे देशों में जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान वृद्धि चार गुना अधिक होने की संभावना है। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि 37 देशों के 156 शहरों को लंबे समय तक अत्यधिक गर्मी झेलनी पड़ी जिसमें ह्यूस्टन में रिकॉर्ड 22 दिनों तक गर्मी का सिलसिला जारी रहा जबकि जकार्ता, न्यू ऑरलियन्स, टैंगेरांग और क्विजिंग में लगातार 16 दिनों तक अत्यधिक गर्मी पड़ी।

गौरतलब है कि निरंतर बदलते जलवायु के दौर में अत्यधिक गर्मी सिर्फ असुविधाजनक नहीं बल्कि जीवन के लिए खतरा बन गई है। कई विशेषज्ञ इस बात पर ज़ोर देते हैं कि जीवाश्म ईंधन के उपयोग को जारी रखना अधिकतर वैश्विक आबादी के बुनियादी मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन है। इसके अलावा, अप्रैल 2024 तक जारी रहने वाली अल नीनो घटना तापमान को और भी अधिक बढ़ाने के लिए तैयार है।

विशेषज्ञ विनाशकारी वृद्धि को रोकने के लिए जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से बंद करने की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का मुकाबला करने के लिए तत्काल और निर्णायक कार्रवाई की आवश्यकता बताते हैं। केन्या के मौसम विज्ञान विभाग के जॉयस किमुताई गंभीर प्रभावों और जीवाश्म ईंधन के उपयोग में तेज़ी से कमी लाने के लिए आगामी कोप-28 जलवायु शिखर सम्मेलन में कुछ महत्वपूर्ण घोषणाओं की उम्मीद रखते हैं।

बहरहाल यह रिपोर्ट एक व्यापक चेतावनी है जो बताती है कि कैसे जलवायु परिवर्तन दुनिया के कोने-कोने को प्रभावित कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्माती दुनिया में ठंडक का इंतज़ाम

रती का तापमान बढ़ने के साथ कई जीवों को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। मधुमक्खियां भी इनमें शुमार हैं। एक ओर तो कीटनाशकों का बेइंतहा इस्तेमाल, प्राकृतवासों का विनाश, प्रकाश प्रदूषण तथा परजीवियों ने मिलकर वैसे ही उनकी आबादी को प्रतिकूल प्रभावित किया है और साथ में तापमान बढ़ने की वजह से मुश्किलें बढ़ी हैं। ज़ाहिर है मधुमक्खियों की मुश्किलें उन तक सीमित नहीं रहेंगी। इनमें से कुछ हमारी फसलों तथा आर्थिक महत्व के अन्य पेड़-पौधों की महत्वपूर्ण परागणकर्ता हैं।

सोसायटी फॉर इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बॉयोलॉजी की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत एक अध्ययन में बताया गया है कि तापमान में वृद्धि के चलते कुछ मधुमक्खियां जल्दी-जल्दी मगर उथली सांसें लेने लगी हैं। अध्ययन भौरों की कुछ प्रजातियों पर किया गया था।

वैसे तो पहले के अध्ययनों में पता चला था कि यूएस की भौरों की लगभग 45 प्रजातियां मुश्किलों से घिरी हैं लेकिन लगता है कि ज़्यादा दिक्कतें वे प्रजातियां भुगत रही हैं जिनकी जीभ लंबी होती है। आयोवा स्टेट विश्वविद्यालय के एरिक रिडेल और उनके साथी यही समझने का प्रयास कर रहे थे कि क्यों जलवायु परिवर्तन का ज़्यादा असर कुछ ही प्रजातियों पर हो रहा है। उन्होंने बॉम्बस ऑरिकोमस प्रजाति की मधुमक्खियों पर प्रयोग किए। इस प्रजाति की मधुमक्खियों की आबादी सबसे तेज़ी से घट रही है। तुलना के लिए बॉम्बस इम्पेशिएन्स प्रजाति को लिया गया था। शोधकर्ताओं ने इन प्रजातियों की रानी मधुमक्खियों को तब एकत्र कर लिया जब वे अपनी शीतनिद्रा से निकलकर नए छत्तों का निर्माण करने वाली थीं। इन्हें प्रयोगशाला में प्राकृतिक आवास जैसी परिस्थितियों में रखा गया।

फिर तापमान के प्रति रानियों की प्रतिक्रिया को देखने के लिए उन्हें कांच की नलियों में रखकर 18 डिग्री और 30 डिग्री सेल्सियस पर परखा गया। इस तरह से रिडेल और उनके साथियों ने यह जांच की कि बढ़ते तापमान का इन मधुमक्खियों की शरीर क्रिया पर क्या असर होगा।

18 डिग्री सेल्सियस तापमान पर तो दोनों ही प्रजातियों की रानियों ने प्रति घंटे लगभग एक बार सांस ली। लेकिन जब तापमान बढ़ाया गया तो दोनों में श्वसन में परिवर्तन देखा गया। जहां बॉम्बस इम्पेशिएन्स हर 10 मिनट में एक बार सांस लेने लेगी वहीं बॉम्बस ऑरिकोमस में सांस की गति 10 गुना अधिक तेज़ हो गई। श्वसन दर बढ़ने के साथ उनके शरीर से पानी की हानि भी अधिक हुई।

इस परिस्थिति में 3 दिन रखे जाने पर 25 प्रतिशत बॉम्बस इम्पेशिएन्स जबकि 50 प्रतिशत बॉम्बस ऑरिकोमस मारी गईं। कुछ प्रजातियों की बढ़ी हुई श्वसन दर से कुछ हद तक इस बात की व्याख्या हो जाती है कि क्यों कुछ मधुमक्खियों की आबादी तेज़ी से घट रही है और जलवायु परिवर्तन के साथ इसमें और भी तेज़ी आ सकती है।

अन्य प्रजातियों पर तापमान का असर परखने के लिए शोधकर्ता यह अध्ययन सात अन्य प्रजातियों पर भी करने को तैयार हैं। मानना है कि घटती आबादी वाली सारी मधुमक्खियां तापमान बढ़ने पर ज़्यादा रफ्तार से श्वसन करती होंगी। (स्रोत फीचर्स)
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चंद्रमा के डगमगाने से बाढ़ों की संभावना – सुदर्शन सोलंकी

पिछली शताब्दी में वैश्विक समुद्र स्तर में वृद्धि हुई है और हाल के दशकों में इसकी दर तेज़ी से बढ़ रही है। यूएस नेशनल ओशेनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएएस) के अनुसार वर्ष 1880 और 2015 के बीच औसत वैश्विक समुद्र स्तर लगभग 22 से.मी. बढ़ा है। इसमें से एक-तिहाई वृद्धि तो पिछले 25 साल में ही हुई।

विश्व के वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन को लेकर अध्ययन करके संभावित नुकसान से बचने के लिए चेतावनियां भी जारी करते हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण ही प्राकृतिक आपदाओं की दुर्घटनाएं एवं विनाशकारिता बढ़ी है। वर्तमान में पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रही है। परंतु अब इसमें एक नया कारक जुड़ गया है।

नेचर क्लाइमेट चेंज में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी के साथ-साथ चंद्रमा की कक्षा डगमगाने से भी पृथ्वी पर विनाशकारी बाढ़ें आ सकती है। इस अध्ययन में यह पूर्वानुमान लगाया गया है कि अमेरिकी तटीय इलाकों में 2030 के दशक में उच्च ज्वार के कारण बाढ़ के स्तर में बढ़ोतरी होगी। नासा के अनुसार ये विनाशकारी बाढ़ें लगातार और अनियमित रूप से जनजीवन को प्रभावित करेगी। अमेरिका में तटीय क्षेत्र जो अभी महीने में सिर्फ दो या तीन बाढ़ का सामना करते हैं, वे अब एक दर्जन या उससे भी अधिक का सामना कर सकते हैं। अध्ययन में यह चेतावनी भी दी गई है कि यह बाढ़ पूरे साल प्रभावित नहीं करेगी बल्कि कुछ ही महीनों में बड़े पैमाने पर अपना असर दिखाएगी।

ज्वार आने में चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण की भूमिका होती है। गुरुत्वाकर्षण में उथल-पुथल उसकी कक्षा के डगमगाने से होता है। चंद्रमा की कक्षा में होने वाली इस तरह की डगमग को मून वॉबल कहते हैं, जिसे सन 1728 में खोजा गया था। एनओएएस के अनुसार वर्ष 2019 में अटलांटिक और खाड़ी तटों पर बाढ़ की 600 से ज़्यादा इस तरह की घटनाएं देखी गई थीं।

समुद्र के स्तर के साथ चंद्रमा की कक्षा के डगमगाने का जुड़ना अत्यधिक खतरनाक है। शोधकर्ताओं के अनुसार, चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण खिंचाव, समुद्र के बढ़ते स्तर और जलवायु परिवर्तन का संयोजन पृथ्वी पर समुद्र तटों और दुनिया भर में तटीय बाढ़ को बढ़ाता है। इस अध्ययन के प्रमुख लेखक और हवाई विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर फिल थॉम्पसन ने कहा है कि चंद्रमा की कक्षा में इस डगमग को एक चक्र पूरा करने में 18.6 वर्ष लगते हैं। नासा के अनुसार 18.6 सालों की आधी अवधि में पृथ्वी पर नियमित दैनिक ज्वार कम ऊंचे हो जाते हैं और बाकी आधी अवधि में ठीक इसका उलटा होता है।

नासा ने यह भी कहा कि जलवायु चक्र में अल-नीनो जैसी घटनाएं भी बाढ़ को बढ़ावा देंगी। नासा की जेट प्रपल्शन लेबोरेटरी के वैज्ञानिक बेन हैमलिंगटन ने कहा कि इस तरह की घटनाएं पूरे महीने होंगी। यह भी संभावना है कि साल के किसी एक हिस्से में बहुत ज़्यादा बाढ़ें आ जाएंगी। यह सबसे ज़्यादा अमेरिका को प्रभावित करेगा क्योंकि इस देश में तटीय पर्यटन स्थल बहुत ज़्यादा हैं। शोधकर्ताओं ने आगाह किया कि अगर देशों ने अभी से इससे निपटने की योजना शुरू नहीं की, तो तटीय बाढ़ से लंबे समय तक जीवन और आजीविका बुरी तरह प्रभावित होगी। (स्रोत फीचर्स)

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गर्माती दुनिया में अलग-अलग जंतुओं पर प्रभाव

न्नीसवीं सदी की शुरुआत में, जोसेफ ग्रिनेल और उनके दल ने कैलिफोर्निया के जंगलों, पहाड़ों और रेगिस्तानों का और वहां के जंतुओं का बारीकी से सर्वेक्षण किया था। कैलिफोर्निया तट से उन्होंने पॉकेट चूहों को पकड़ा और गिद्धों की उड़ान पर नज़र रखी; मोजेव रेगिस्तान में अमेरिकी छोटे बाज़ (खेरमुतिया) को कीटों पर झपट्टा मारते देखा और चट्टानों के बीच छिपे हुए कैक्टस चूहों को पकड़ा। इसके अलावा भी उन्होंने वहां से कई नमूने-जानकारी एकत्रित कीं, विस्तृत नोट्स बनाए, तस्वीरें खीचीं और इन जगहों का नक्शा तैयार किया। इस तरह उनके द्वारा एकत्रित “ग्रिनेल-युग” का फील्ड डैटा काफी विस्तृत है।

और अब, आधुनिक सर्वेक्षणों के डैटा की तुलना ग्रिनेल-युग के डैटा से करके पारिस्थितिकीविदों ने बताया है कि जलवायु परिवर्तन सभी जीवों को समान रूप से प्रभावित नहीं कर रहा है। वैज्ञानिक मानते आए हैं कि तापमान में वृद्धि पक्षियों और स्तनधारियों को एक जैसा प्रभावित करती है क्योंकि दोनों को ही शरीर का तापमान बनाए रखना होता है। लेकिन लगता है कि ऐसा नहीं है।

पिछली एक शताब्दी में मोजेव के तापमान में लगभग दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है जिसके कारण वहां के पक्षियों की कुल संख्या और उनकी प्रजातियों की संख्या में नाटकीय कमी आई है। लेकिन इन्हीं हालात में छोटे स्तनधारी जीव (जैसे पॉकेट चूहे) अपने आपको बनाए रखने में सफल रहे हैं। शोधकर्ताओं ने साइंस पत्रिका में बताया है कि ये चूहे निशाचर जीवन शैली और गर्मी से बचाव के लिए सुरंगों में रहने की आदत के कारण मुश्किल परिस्थितियों में भी जीवित रह पाए हैं।

ग्रिनेल ने जिन जीवों का अध्ययन किया था, वे अब तुलनात्मक रूप से गर्म और शुष्क जलवायु में रहने को मजबूर हैं। पूर्व में प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित इन स्थलों के पुनर्सर्वेक्षण में पता चला था कि प्रत्येक स्थान पर रेगिस्तानी पक्षियों (जैसे अमरीकी छोटे बाज़ या पहाड़ी बटेर) की लगभग 40 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो गर्इं हैं। और अधिकतर स्थानों पर शेष प्रजातियों की सदस्य संख्या भी बहुत कम रह गई है। लेकिन आयोवा स्टेट युनिवर्सिटी के फिज़ियोलॉजिकल इकॉलॉजिस्ट एरिक रिडेल का अध्ययन चूहों, माइस, चिपमंक्स और अन्य छोटे स्तनधारियों के संदर्भ में थोड़ी आशा जगाता है।

उन्होंने अपने अध्ययन में पाया है कि ग्रिनेल के सर्वेक्षण के बाद से अब स्तनधारियों की तीन प्रजातियों के जीवों संख्या में कमी आई है, 27 प्रजातियां स्थिर है, और चार प्रजातियों की संख्या में वृद्धि हुई है। यह जानने के लिए कि बदलती जलवायु में पक्षी इतने अधिक असुरक्षित क्यों हैं, रिडेल ने रेगिस्तानी पक्षियों की 50 प्रजातियों और 24 विभिन्न छोटे स्तनधारी जीवों के संग्रहालय में रखे नमूनों के फर और पिच्छों में ऊष्मा स्थानांतरण और प्रकाश अवशोषण को मापा। फिर, इस तरह प्राप्त डैटा और सम्बंधित प्रजातियों के व्यवहार और आवास का डैटा उन्होंने एक कंप्यूटर प्रोग्राम में डाला, जो यह बताता था कि कोई जानवर कितनी गर्मी सहन कर सकता है, और विभिन्न तापमान वाली परिस्थितियों में कोई जानवर खुद को कितना ठंडा रख सकता है। जैसे पक्षी रक्त नलिकाओं को फैला कर, पैरों या मुंह के ज़रिए पानी को वाष्पित कर अपने शरीर का तापमान नियंत्रित रखते हैं। पक्षियों में खुद को ठंडा बनाए रखने की लागत स्तनधारियों की तुलना में तीन गुना अधिक होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अधिकांश छोटे स्तनधारी दिन के सबसे गर्म समय में ज़मीन के नीचे सुरंगों या बिलों में वक्त बिताते हैं। इस तरह के व्यवहार से वुडरैट जैसे स्तनधारी जीव को भी जलवायु परिवर्तन का सामना करने में मदद मिली है, जबकि वुडरैट रेगिस्तान में जीने के लिए अनुकूलित भी नहीं हैं। केवल वे स्तनधारी जो बहुत गहरे की बजाय ज़मीन में थोड़ा ऊपर ही अपना बिल बनाते हैं, वे ही बढ़ते तापमान का सामना करने में असफल हैं, जैसे कैक्टस माउस।

इसके विपरीत कई पक्षी, जैसे अमरीकी छोटा बाज़ और प्रैयरी बाज़ पर बढ़ते तापमान का बुरा असर है। यह मॉडल स्पष्ट करता है कि क्यों पक्षी और स्तनधारी जलवायु परिवर्तन पर अलग-अलग प्रतिक्रिया देते हैं।

परिणाम सुझाते हैं कि जलवायु परिवर्तन का रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र पर भी उसी तरह का खतरा है जैसा कि तेज़ी से गर्म होते आर्कटिक के पारिस्थितिकी तंत्र पर है।

भविष्य में स्तनधारियों को भी खतरा हो सकता है। मिट्टी की पतली परत केवल दो प्रतिशत रेगिस्तान में है, जिसके अधिक शुष्क होने की संभावना है। इसलिए अब विविध सूक्ष्म आवास वाले क्षेत्रों को संरक्षित करना चाहिए। ऐसे मॉडल संरक्षण की योजना बनाने में मदद कर सकते हैं। जो प्रजातियां जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से लड़ने में सक्षम हैं उनके संरक्षण की बजाय विलुप्त होती प्रजातियों को संरक्षित कर धन और समय दोनों की बचत होगी। (स्रोत फीचर्स)

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चीन के दुर्लभ पक्षियों के बदलते इलाके

चीन में शौकिया पक्षी प्रेमियों की बढ़ती संख्या ने जलवायु परिवर्तन के नए पहलू को उजागर किया है। एक नए अध्ययन में पिछले 2 दशकों से अधिक समय से चीन के नागरिक-वैज्ञानिकों द्वारा एकत्रित डैटा की मदद से पक्षियों की लगभग 1400 प्रजातियों का एक नक्शा तैयार किया गया है। इसमें लुप्तप्राय रेड-क्राउन क्रेन से लेकर पाइड फाल्कोनेट प्रजातियां शामिल हैं। इस डैटा के आधार पर शोधकर्ताओं ने 2070 तक के हालात का अनुमान लगाया गया है। इस नक्शे में प्रकृति संरक्षण के लिहाज़ से 14 क्षेत्रों को प्राथमिकता की श्रेणी में रखा गया है।    

गौरतलब है कि पक्षी प्रेमी नागरिकों द्वारा उपलब्ध कराए गए वैज्ञानिक डैटा का पहले भी शोधकर्ताओं ने उपयोग किया है लेकिन चीन में पहली बार इसका उपयोग राष्ट्रव्यापी स्तर पर किया जा रहा है। देखा जाए तो चीन में पिछले 20 वर्षों में पक्षी प्रेमियों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। कई विश्वविद्यालयों में भी इनकी टीमें तैयार की गई हैं। पक्षी प्रेमी अपने अनुभवों को bird report नामक वेबसाइट पर दर्ज करते हैं, जिसकी सटीकता और प्रामाणिकता की जांच अनुभवी पक्षी विशेषज्ञ करते हैं।

इस डैटा का उपयोग करते हुए पेकिंग युनिवर्सिटी के रुओचेंग हू और उनके सहयोगियों ने 1000 से अधिक प्रजातियों के फैलाव क्षेत्र के नक्शे तैयार किए। इसके बाद उन्होंने दो परिदृश्यों, वर्ष 2100 तक 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि और 3.7 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक की वृद्धि, के साथ उनके फैलाव में आने वाले बदलाव को देखने के लिए एक मॉडल तैयार किया। इस मॉडल में उन्होंने दैनिक और मासिक तापमान, मौसमी वर्षा और ऊंचाई जैसे परिवर्तियों को शामिल किया है। प्लॉस वन पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार तापमान में अधिक वृद्धि होने से कई पक्षी उत्तर की ओर या अधिक ऊंचे क्षेत्रों की ओर प्रवास कर जाएंगे। हालांकि लगभग 800 प्रजातियां ऐसी होंगी जिनके इलाके में विस्तार होगा, लेकिन इनमें से अधिकांश क्षेत्र सघन आबादी वाले और औद्योगिक क्षेत्र होंगे जो पक्षियों के लिए पूरी तरह से अनुपयुक्त हैं। मोटे तौर पर 240 प्रजातियों के इलाके में कमी आएगी।

ऐसे में सबसे अधिक प्रवासी पक्षी और सिर्फ चीन में पाए जाने वाली पक्षी प्रभावित होंगे। इस पेपर के लेखकों के अनुसार प्रतिष्ठित रेड-क्राउन क्रेन का इलाका भी सिमटकर आधा रह जाएगा। चीन के मौजूदा राष्ट्रीय आरक्षित क्षेत्र इन पक्षियों के प्राकृत वासों की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं है। इस विनाश से बचने के लिए अध्ययन में इंगित 14 प्राथमिकता वाले क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

नए आरक्षित क्षेत्रों के विकास में भी काफी चुनौतियों का सामना करना होगा। इसके लिए स्थानीय हितधारकों को आश्वस्त करना होगा और भीड़-भाड़ वाले क्षेत्रों में सीमाओं को तय करना होगा। विशेषकर ऐसे नए तरीकों का पता लगाना होगा जिससे शहरी उद्यानों और कृषि क्षेत्रों को पक्षियों के अनुकूल बनाया जा सके।(स्रोत फीचर्स)

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मौसम पूर्वानुमान की समस्याएं – नरेंद्र देवांगन

साल 2002 में औसत बारिश में कमी या सूखे का पूर्वानुमान भारत या विदेश का कोई भी संस्थान नहीं लगा पाया था। इसे मौजूदा मॉडल में पूरे विश्व में चुनौती माना गया। सवाल यह है कि गर्मी की शुरुआत में आज से 35-40 साल पहले भी आंधी-तूफान आते रहे हैं, जिसे पूर्वी भारत में काल बैसाखी कहते हैं। लेकिन पहले तूफान से तबाही नहीं मचती थी। फिर अब ऐसा क्या होता है कि एक दिन के तूफान से ही तबाही मच जाती है? इसे ठीक से समझने के लिए तीन बातों पर गौर करना होगा।

कोई भी आंधी-तूफान दो चीज़ों से ऊर्जा लेती हैं – गर्मी व हवा की नमी की मात्रा। ये दोनों चीजें जितनी ज़्यादा होंगी, तूफान की मारक क्षमता उतनी ही बढ़ेगी। पहले मई माह के बाद ही तेज़ गर्मी पड़ती थी। पर अब मार्च-अप्रैल महीने में ही उत्तर, पश्चिम और दक्षिण भारत के काफी बड़े हिस्से में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस या इससे ऊपर पहुंच जाता है। इससे हवा की गति बढ़ जाती है। साथ ही पश्चिमी विक्षोभ भी मौजूद रहता है और बंगाल की खाड़ी से नमी लेकर हवा भी आ पहुंचती है। इन सबकी वजह से तूफान आने की स्थिति बनती है।

पिछले तीन-चार दशक से तापमान लगातार बढ़ रहा है। यह हवा की गति को भी बढ़ा रहा है। 1979-2013 की अवधि में मौसम उपग्रह के रिकार्ड से पता चला कि धरती का ऊष्मा इंजन अब पहले से ज़्यादा सक्रिय हो चुका है। परिणामस्वरूप तूफान-बवंडर ज़्यादा शक्तिशाली बन रहे हैं। आज ज़रूरत है इनको समय से पूर्व जानकर देश की जनता और शासन-प्रशासन को सावधान करने की। 

मौसम का पूर्वानुमान तभी सफल हो पाता है जब उसे स्थान और काल की बारीकी से बताया जा सके। भारतीय मौसम विभाग अभी इस काम को करने में पूरी तरह से परिपक्व नहीं हो सका है। मानसून के बारे में मौसम विभाग का अनुमान हमारे किसी काम का नहीं होता क्योंकि वह सिर्फ औसत बताता है। औसत तो तब भी बरकरार रहेगा जब किसी इलाके में सूखा पड़े और किसी में अतिवृष्टि हो जाए। लेकिन दोनों स्थितियों में नुकसान तो हो ही जाएगा। उन्हें स्थानीय स्तर पर जल्दी-जल्दी पूर्वानुमान बताना चाहिए ताकि तैयारी करने का समय मिल सके।

मौसम के पूर्वानुमान के लिए अलग-अलग मॉडल पर आधारित 5 तरह के पूर्वानुमान का इस्तेमाल कृषि, यातायात, जल प्रबंधन आदि के लिए किया जाता है। सही मायने में 5 दिन का पूर्वानुमान 60 फीसदी तक सही हो पाता है। ये पांच तरह के हैं –

1. तात्कालिक (नाउकास्ट ) – अगले 24 घंटे का आकलन

2. लघु अवधि – 3 दिनों का पूर्वानुमान

3. मध्यम अवधि – 3-10 दिनों का पूर्वानुमान

4. विस्तारित अवधि – 10-30 दिनों का पूर्वानुमान

5. दीर्घ अवधि – मानसून का पूर्वानुमान

इस संदर्भ में मराठवाड़ा में कुछ किसानों ने पुलिस केस दर्ज कराया है। उनका कहना है कि मौसम विभाग द्वारा महाराष्ट्र या मराठवाड़ा (8 ज़िला क्षेत्र) के अनुमान से भी उन्हें लाभ नहीं होता, क्योंकि एक ज़िले में भी बारिश कभी एक समान नहीं होती। इसलिए कृषि के लिए ब्लॉक आधारित सूचना की ज़रूरत है। विशेषज्ञों के अनुसार मौसम विभाग को पूरे देश को छोटे-छोटे ज़ोन में बांटना चाहिए और हर ज़ोन के लिए दीर्घावधि पूर्वानुमान जारी करने चाहिए।

मौसम विभाग ज़िला आधारित पूर्वानुमान जारी करता है। हालांकि इनमें भी सफलता दर कम है। अगर मौसम विभाग पूर्वानुमान जारी करते हुए बताता है कि किसी ज़िले में अलग-अलग क्षेत्रों में बारिश होगी तो इसका अर्थ होता है कि उस जिले के 26-50 फीसदी हिस्से में बारिश होगी। इसमें भी उन क्षेत्रों की पहचान नहीं की जाती। मौसम विभाग तापमान, आद्र्रता, हवा की गति और वर्षण आदि के आंकड़े इकट्ठे करता है। देश में 679 स्वचालित मौसम केंद्र, 550 भू वेधशालाएं, 43 रेडियोसोंड (मौसमी गुब्बारे), 24 राडार और 3 सेटेलाइट हैं, जो दूसरे देश के सेटेलाइट आंकड़े भी जुटाते रहते हैं।

अति आधुनिक गतिशील मॉडल (डायनैमिक मॉडल) पर आधारित पूर्वानुमान भी भारत में गलत हो जाते हैं। ब्लॉक स्तर तक के मौसम पूर्वानुमान के लिए ज़रूरी है कि ब्लॉक स्तर तक के आंकड़े जुटाए जाएं। संसाधन काफी कम हैं। धूल, एरोसॉल, मिट्टी की आर्द्रता और समुद्र से जुड़े डैटा में भारी अंतर हैं। वर्षापात के आंकड़े जुटाने के लिए देश में कम से कम 20 और राडार चाहिए ताकि व्यापक आंकड़े जुटाए जा सकें।

मौसम पूर्वानुमान के मॉडल की विफलता के बड़े कारण घटिया यंत्र भी हैं। एक मौसम विज्ञानी के अनुसार पैसे बचाने के लिए कई स्वचालित मौसम केंद्र घटिया स्तर के खरीदे गए थे। दूसरा मौजूदा मॉडल के उचित रखरखाव में कमी भी बड़ी समस्या है। इन्हें थोड़े-थोड़े अंतराल पर साफ करके स्केल से मिलाना होता है। पर वास्तव में ऐसा हो नहीं पाता। इससे कई डैटा गलत आते हैं। पूर्वानुमान के लिए इस्तेमाल किए जा रहे अधिकतर मॉडल विदेशों में विकसित किए गए हैं जिनमें स्थानीय ज़रूरत के अनुसार बदलाव करके उपयोग किया जा रहा है।

ऊष्ण कटिबंधीय वातावरण बहुत तेज़ी से बदलता रहता है। यह कभी स्थिर नहीं रहता। दरअसल ऊष्ण कटिबंधीय मौसम के व्यवहार का अभी उचित अध्ययन हो ही नहीं सका है।

पर्याप्त संख्या में मौसम विज्ञानी नहीं हैं। एकमात्र आईआईएससी के स्नातक ही मौसम केंद्र से जुड़ते हैं। मौजूदा मॉडल और मौसम विज्ञानियों की उपलब्धता के आधार पर देखें तो एक दिन के पूर्वानुमान की गणना करने में 10 वर्षों का समय लग सकता है।

आमतौर पर माना जाता है कि मानसून के अप्रत्याशित व्यवहार के पीछे बढ़ता वैश्विक तापमान है। लेकिन इसके वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं मिले हैं।

तमाम आलोचनाओं के बीच मौसम विभाग द्वारा जारी आंकड़ों में सुधार आए हैं। पहले की तुलना में बेहतर तकनीक और नए मॉडलों का प्रभाव, धीरे-धीरे ही सही, दिखने लगा है। दीर्घावधि औसत में 2003-15 के दौरान मौसम के पूर्वानुमान में 5.92 प्रतिशत की अशुद्धता दर्ज की गई थी, जो 1990-2012 के बीच 7.94 प्रतिशत थी। 1988-2008 के बीच पूर्वानुमान 90 प्रतिशत सही रहा। यानी 20 में से 19 वर्षों में।

बढ़ते मौसमी खतरे को देखते हुए हमें अपने पूर्वानुमान की सूक्ष्मता को बढ़ाना होगा। तूफान और बवंडर के लिए डॉप्लर राडार ज़्यादा उपयोगी है। अफसोस इस बात का है कि इनकी देश में कमी है। 2013 की उत्तराखंड आपदा में भी इनकी कमी सामने आई। यदि डॉप्लर राडार होता तो ज़्यादा बारीकी से तूफान का पता लगाकर चेतावनी दी जा सकती थी। अगर आने वाले खतरे को नजरअंदाज करते रहेंगे तो भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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लॉकडाउन के बावजूद कार्बन उत्सर्जन में कमी नहीं

कोरोनावायरस को थामने के लिए विश्व भर के लगभग 4 अरब लोग तालाबंदी में हैं। इस विशाल संख्या को देखते हुए ग्रीनहाउस गैसों में कमी नगण्य जान पड़ रही है। यदि यह माना जाए कि सकल घरेलू उत्पाद और कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के बीच समानुपाती सम्बंध है तो वर्तमान अति-भयानक आर्थिक गिरावट के रूबरू कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में जिस कमी का अनुमान लगाया जा रहा है वह कुछ नहीं है।

भविष्यवेत्ताओं अनुसार वर्ष 2020 में उत्सर्जन में 5 प्रतिशत से अधिक गिरावट की उम्मीद है लेकिन यह लक्ष्य से काफी कम है। वैज्ञानिकों का मत है कि आने वाले दशक में पृथ्वी के तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए यह दर कम से कम 7.6 प्रतिशत वार्षिक की होनी चाहिए। तो यह सवाल स्वाभाविक है कि इतिहास की सबसे भयानक आर्थिक गिरावट के दौरान भी भविष्यवेत्ता कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर में काफी गिरावट की भविष्यवाणी क्यों नहीं कर रहे हैं?   

इसका उत्तर उत्सर्जन के पूर्वानुमान लगाने के तरीकों, हमारी ऊर्जा प्रणाली की संरचना और इस बात में निहित है कि कैसे यह महामारी अन्य मंदियों से अलग ढंग की आर्थिक गिरावट पैदा कर रही है।

कार्बन ब्राीफ नामक एक शोध समूह के अनुसार चीन में शुरुआती कामबंदी के 4 हफ्तों के दौरान कार्बन उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की गिरावट आई थी लेकिन दोबारा से सामान्य जीवन शुरू होने पर यह उत्सर्जन फिर से शुरू हो गया। इसी तरह रोडियम नामक संस्था के मुताबिक अमेरिका में भी 15 मार्च से 14 अप्रैल 2020 के बीच पिछले वर्ष उसी अवधि की तुलना में उत्सर्जन में 15-20 प्रतिशत की कमी आई थी।

फिर भी वार्षिक अनुमानों में किसी बड़ी कटौती की उम्मीद व्यक्त नहीं की जा रही है। अधिकांश भविष्यवेत्ताओं का मानना है कि इस वर्ष के उत्तरार्ध में अर्थव्यवस्था में पुन: उछाल आएगा और उत्सर्जन बढ़ सकता है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ) ने वैश्विक अर्थव्यवस्था में 3 प्रतिशत और अमेरिका के जीडीपी में 6 प्रतिशत की गिरावट की आशंका व्यक्त की है लेकिन उसके अनुसार भी 2020 की दूसरी छमाही में सुधार उम्मीद है।

हो सकता है कि यह आशावादी हो। अनुमान है कि दुनिया के कुछ हिस्सों में तालाबंदी 2020 में पूरे साल जारी रहेगी लेकिन कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में मार्च-अप्रैल जैसी गिरावट शायद जारी न रहे। 

ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के अनुसार 2010 से 2018 के बीच वैश्विक उत्सर्जन में औसत 0.9 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि हुई। अमेरिका में, 2005 से अब तक, उत्सर्जन में 0.9 प्रतिशत वार्षिक की कमी हुई है और 2019 में तो 2.1 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई। ऐसे में उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की गिरावट के परिदृश्य में भी तीन-चौथाई वैश्विक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन तो एक साल की तालाबंदी में भी जारी रहेगा।        

रोडियम समूह के जलवायु और ऊर्जा अनुसंधान के प्रमुख ट्रेवर हाउसर इस तालाबंदी और आर्थिक मंदी के बीच अंतर स्पष्ट करते हैं। आम तौर पर आर्थिक मंदी में कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में  गिरावट मैन्यूफेक्चरिंग (विनिर्माण) और शिपिंग में गिरावट के कारण होती है। लेकिन वर्तमान में इसका विपरीत हुआ है। शिपिंग गतिविधियों में तो कोई कमी नहीं आई और विनिर्माण कार्य काफी धीमा होने में वक्त लगा। तालाबंदी के दौरान भी चीन में कई स्टील और कोयला संयंत्र कम स्तर पर जारी रहे।

उत्सर्जन में कमी विशेष तौर पर भूतल परिवहन में रिकॉर्ड गिरावट के कारण आ रही है। यू.के. के यातायात में 54 प्रतिशत, अमेरिका में 36 प्रतिशत और चीन में 19 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। इसके साथ ही चीन में कोविड-19 के प्रथम 500 मामले सामने आने के बाद हवाई यात्रा में 40 प्रतिशत की गिरावट आई जबकि युरोप में 10 में से 9 उड़ानों को रोक दिया गया।

इसके परिणामस्वरूप जेट र्इंधन की मांग में 65 प्रतिशत की गिरावट आई। डिपार्टमेंट ऑफ एनर्जी स्टेटिस्टिक्स के अनुसार अमेरिका में 4 हफ़्तों में गैसोलीन की मांग में 41 प्रतिशत की गिरावट हुई। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार अप्रैल माह में प्रतिदिन गैसोलीन की मांग में 1.1 करोड़ बैरल और मई में 1 करोड़ बैरल की कमी आएगी। फिर भी वैश्विक अर्थव्यवस्था काफी अधिक तेल का उपभोग कर रही है।          

एजेंसी के अनुसार पूरे वि·ा में इस वर्ष की दूसरी तिमाही में 7.6 करोड़ बैरल प्रतिदिन का उपयोग किया जाएगा। गैसोलीन और जेट र्इंधन की मांग में कमी के बाद भी अमेरिका की तेल कंपनियों से पिछले 4 हफ्तों में 55 लाख बैरल तेल बाज़ार पहुंचाया गया। डीज़ल की मांग में भी कमी आई है लेकिन शिपिंग और मालवाहक जहाज़ों में उपयोग जारी रहने से केवल 7 प्रतिशत की गिरावट ही दर्ज की गई है। पेट्रोकेमिकल क्षेत्र में भी प्रभाव एकरूप नहीं हैं। ऑटो विनिर्माण में उपयोग होने वाले प्लास्टिक में तो कमी आई है लेकिन खाद्य सामग्री की पैकेजिंग में इसका उपयोग जारी है। कुल मिलाकर एजेंसी का मानना है कि ईथेन और नेफ्था जैसे प्लास्टिक फीडस्टॉक की मांग साल के अंत तक कम हो जाएगी लेकिन गैसोलीन और डीज़ल के समान नहीं। .

ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के अनुसार 2019 में उत्सर्जन 0.6 प्रतिशत बढ़कर कुल 36.8 गीगाटन हो गया है। कुल उत्सर्जन में परिवहन का हिस्सा लगभग 20 प्रतिशत था, जिसमें से आधा सड़क परिवहन का है। वैसे यह 20 प्रतिशत काफी बड़ी संख्या है लेकिन बाकी के 80 प्रतिशत में अभी भी कोई भारी कमी नहीं आई है। इससे पता चलता है कि तेल हमारी अर्थ व्यवस्था में किस कदर गूंथा हुआ है। सारी कारें खड़ी हो जाएं, फिर भी तेल की खपत होती रहेगी।  

इस महामारी में बड़ी कमी मात्र परिवहन के क्षेत्र में आई है। कोयले के उपयोग में कमी तो आई है लेकिन दुनिया भर में बिजली उत्पादन इसी पर निर्भर करता है। वैश्विक कार्बन डाईऑक्साइड का 40 प्रतिशत उत्सर्जन कोयले से होता है जो किसी अन्य र्इंधन की तुलना में सबसे अधिक है। भारत में नेशनल ग्रिड संचालन के दैनिक आंकड़ों से पता चलता है कि अप्रैल में कोयला-आधारित बिजली उत्पादन प्रतिदिन 1.9 गिगावॉट-घंटे था जबकि 24 मार्च (जिस दिन लॉकडाउन शुरू हुआ) के दिन 2.3 गिगावॉट-घंटे था। तेल की तरह यह भी आर्थिक उत्पादन में केंद्रीय भूमिका निभाता है।  

ब्रोकथ्रू इंस्टिट्यूट में जलवायु और उर्जा निदेशक ज़ेके हॉसफादर के अनुसार यह महामारी विश्व के विकासशील हिस्सों के लिए स्वच्छ उर्जा को सस्ती बनाने की आवश्यकता को रेखांकित करती है। अर्थव्यवस्था को कार्बन-मुक्त करने के लिए टेक्नॉलॉजी की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बढ़ते समुद्र से बचाव के लिए एक प्राचीन दीवार

आज से लगभग 7000 वर्ष पूर्व विश्व भर के महासागरों के जलस्तर में वृद्धि होने लगी थी। हिमयुग के बाद हिमनदों के पिघलने से भूमध्य सागर के तट पर बसे लोगों को इस बढ़ते जलस्तर से काफी परेशानी का सामना करना पड़ा। लेकिन इस परेशानी से निपटने के लिए उन्होंने एक दीवार का निर्माण किया जिससे वे अपनी फसलों और गांव को तूफानी लहरों और नमकीन पानी की घुसपैठ से बचा सकें। हाल ही में पुरातत्वविदों ने इरुााइल के तट पर उस डूबी हुई दीवार को खोज निकाला है जो एक समय में एक गांव की रक्षा के लिए तैयार की गई थी।    

इस्राइल स्थित युनिवर्सिटी ऑफ हायफा के पुरातत्वविद एहुद गैलिली के अनुसार इरुााइल की अधिकतर खेतिहर बस्तियां, जो अब जलमग्न हैं, उत्तरी तट पर मिली हैं। ये बस्तियां रेत की एक मीटर मोटी परत के नीचे संरक्षित हैं। कभी-कभी रेत बहने पर ये बस्तियां सतह पर उभर आती हैं।   

गैलिली और उनकी टीम ने इस दीवार को 2012 में खोज निकाला था। यह दीवार तेल हराइज़ नामक डूबी हुई बस्ती के निकट मिली है। बस्ती समुद्र तट से 90 मीटर दूर तक फैली हुई थी और 4 मीटर पानी में डूबी हुई थी। टीम ने स्कूबा गियर की मदद से अधिक से अधिक जानकारी खोजने की कोशिश की। इसके बाद वर्ष 2015 के एक तूफान ने उन्हें एक मौका और दिया। उन्हें पत्थर और लकड़ी से बने घरों के खंडहर, मवेशियों की हड्डियां, जैतून के तेल उत्पादन के लिए किए गए सैकड़ों गड्ढे, कुछ उपकरण, एक चूल्हा और दो कब्रों भी मिलीं। लकड़ी और हड्डियों के रेडियोकार्बन डेटिंग के आधार पर बस्ती 7000 वर्ष पुरानी है।        

प्लॉस वन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह दीवार 100 मीटर लंबी थी और बड़े-बड़े पत्थरों से बनाई गई थी जिनका वज़न लगभग 1000 किलोग्राम तक था। गैलिली का अनुमान है कि यह गांव 200-300 वर्ष तक अस्तित्व में रहा होगा और लोगों ने सर्दियों के भयावाह तूफान कई बार देखे होंगे। आधुनिक समुद्र की दीवारों की तरह इसने भी ऐसे तूफानों से निपटने में मदद की होगी। गैलिली के अनुसार मानवों द्वारा समुद्र पानी से खुद को बचाने का यह पहला प्रमाण है।

गैलिली का ऐसा मानना है कि तेल हराइज़ पर समुद्र का जल स्तर प्रति वर्ष 4-5 मिलीमीटर बढ़ रहा है। यह प्रक्रिया सदियों से चली आ रही है। कुछ समय बाद उस क्षेत्र में रहने वाले लोग समझ गए होंगे कि अब वहां से निकल जाना ही बेहतर है। समुद्र का स्तर बढ़ता रहा होगा और पानी दीवारनुमा रुकावट को पार करके रिहाइशी इलाकों में भर गया होगा। लोगों ने बचाव के प्रयास तो किए होंगे लेकिन अंतत: समुद्र को रोक नहीं पाए होंगे और अन्यत्र चले गए होंगे। (स्रोत फीचर्स)  

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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करीबी प्रजातियों पर जलवायु परिवर्तन का उल्टा असर

मानव बसाहट से दूर होने के बावजूद अंटार्कटिका की पारिस्थितिकी और जीवन मानव गतिविधियों से प्रभावित रहा है। जैसे व्हेल और सील के अंधाधुंध शिकार के चलते वे लगभग विलुप्त हो गर्इं थीं। व्हेल और सील की संख्या में कमी आने की वजह से क्रिल नामक एक क्रस्टेशियन जंतु की संख्या काफी बढ़ गई थी, जो उनका भोजन है। और अब, मानव गतिविधियों चलते तेज़ी से हो रहा जलवायु परिवर्तन सीधे-सीधे अंटार्कटिका के जीवन को प्रभावित कर रहा है। इस संदर्भ में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस में प्रकाशित अध्ययन कहता है कि जलवायु परिवर्तन से पेंगुइन की दो प्रजातियां विपरीत तरह से प्रभावित हुई हैं: पेंगुइन की एक प्रजाति की संख्या में काफी वृद्धि हुई है, वहीं दूसरी प्रजाति विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी है।

दरअसल, लुइसिआना स्टेट युनिवर्सिटी के माइकल पोलिटो और उनके साथी अपने अध्ययन में यह देखना चाहते थे कि पिछली एक सदी में अंटार्कटिका की पारिस्थितिकी में हुए मानव हस्तक्षेप के कारण पेंगुइन के मुख्य भोजन, अंटार्कटिका क्रिल, की संख्या किस तरह प्रभावित हुई है। चूंकि मानवों ने कभी पेंगुइन का व्यावसायिक स्तर पर आखेट नहीं किया और क्रिल पेंगुइन का मुख्य भोजन हैं इसलिए उन्होंने पेंगुइन के आहार में बदलाव से क्रिल की आबादी का हिसाब लगाने का सोचा। और, चूंकि अंटार्कटिका में पिछले 50 सालों में गेन्टू पेंगुइन (पाएगोसेलिस पेपुआ) की आबादी में लगभग 6 गुना वृद्धि दिखी है और चिनस्ट्रेप पेंगुइन (पाएगोसेलिस अंटार्कटिका) की आबादी में काफी कमी दिखी है इसलिए अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने इन दोनों प्रजातियों को चुना। पिछली एक सदी के दौरान इन पेंगुइन का आहार कैसा था यह जानने के लिए अध्ययनकर्ताओं ने म्यूज़ियम में रखे पेंगुइन के पंखों में अमीनो अम्लों में नाइट्रोजन के स्थिर समस्थानिकों की मात्रा पता लगाई।

उन्होंने पाया कि शुरुआत में, 1900 के दशक में, जब क्रिल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे तो दोनों ही प्रजाति का मुख्य आहार क्रिल थे। लेकिन लगभग पिछले 50 सालों में, तेज़ी से बदलती जलवायु के चलते समुद्र जल के बढ़ते तापमान और बर्फ-आच्छादन में कमी से क्रिल की संख्या में काफी कमी हुई। तब गेन्टू पेंगुइन ने अपना आहार सिर्फ क्रिल तक सीमित ना रखकर मछली और श्रिम्प को भी आहार में शामिल कर लिया। लिहाज़ा वे फलती-फूलती रहीं। दूसरी ओर, चिनस्ट्रेप पेंगुइन ने अपने आहार में कोई परिवर्तन नहीं किया और विलुप्ति की कगार पर पहुंच गर्इं। शोधकर्ताओं का कहना है कि पेंगुइन का यह व्यवहार दर्शाता है कि विशिष्ट आहार पर निर्भर प्रजातियां जैसे चिनस्ट्रेप पेंगुइन पर्यावरणीय बदलाव के प्रभाव की चपेट में अधिक हैं और अतीत में हुए आखेट और हालिया जलवायु परिवर्तन ने अंटार्कटिक समुद्री खाद्य शृंखला को प्रभावित किया है। पिछले कुछ सालों में व्हेल और सील की आबादी में सुधार देखा गया है और यह देखना रोचक होगा कि इसका पेंगुइन की उक्त दो प्रजातियों पर कैसा असर होता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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