खुजली तरह-तरह की – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पारंपरिक तौर पर खुजली को जिस तरह परिभाषित किया गया है उसके अनुसार खुजली एक असुखद एहसास (संवेदना) है जो खुजलाने की अनुक्रिया या अनैच्छिक प्रतिक्रिया पैदा करती है। खुजाने से उस कीड़े को भगाने में मदद मिलती है जो आपको कष्ट दे रहा था; लेकिन प्रुराइटस (खुजली का चिकित्सकीय नाम) यदि छह सप्ताह से अधिक समय तक बनी रहती है तो यह रोग की द्योतक है जो हर सात में से एक व्यक्ति के शारीरिक और/या मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डालती है। अनुसंधानों ने इस एक ही प्रतीत होती तकलीफ (खुजली) के पीछे के कई क्रियाविधियों का खुलासा किया है।

जीर्ण खुजली (यानी लंबे समय तक चलने वाली खुजली) कई कारणों से हो सकती है। जैसे यह त्वचा-सम्बंधी हो सकती है (अक्सर हिस्टेमीन के स्राव के कारण होती है, जिसका उपचार बेनेड्रिल जैसी एंटीहिस्टेमीन दवाओं से किया जाता है)। यह तंत्रिका विकार सम्बंधी हो सकती है (दाद, तंत्रिका संपीड़न और मस्तिष्क रक्तस्राव जैसी समस्या), या तंत्रगत हो सकती है (कमज़ोर गुर्दे जैसी समस्या) या मनोवैज्ञानिक भी हो सकती है (जैसे जुनूनी-बाध्यकारी गड़बड़ी यानी OCD)।

बुज़ुर्ग विशेष रूप से जीर्ण समस्याओं से ग्रसित होते हैं जो खुजली के रूप में प्रकट होती हैं। वर्ष 2018 में जर्नल ऑफ दी इंडियन एकेडमी ऑफ जेरिएट्रिक्स में मणिक्कम और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित दक्षिण भारत के एक अध्ययन में साठ साल से अधिक आयु वर्ग के 29 प्रतिशत लोगो में एक्ज़िमा की समस्या देखी गई थी। दिल्ली कैंट के बेस अस्पताल में इसी उम्र वर्ग पर हुए एक अन्य अध्ययन में 56 प्रतिशत लोगों ने प्रुराइटस की शिकायत बताई थी। यह अध्ययन वर्ष 2019 में इंडियन डर्मेटोलॉजी ऑनलाइन जर्नल में प्रकाशित हुआ था। 2019 में ही इंडियन जर्नल ऑफ क्लीनिकल एंड एक्सपेरिमेंटल डर्मेटोलॉजी में प्रकाशित एक विश्लेषण में जीर्ण खुजली की शिकायत करने वाले 100 रोगियों में से 62 लोगों की समस्या के सम्बंधित कारणों को पहचाना जा सका, और इनमें मधुमेह, हाइपोथायरायडिज़्म, कई तरह के कैंसर और लौह की कमी शामिल थे।

खुजली पैदा करने वाले कारकों को प्रुराइटोजेन्स कहा जाता है। खुजली के प्रति संवेदनशील ऊतकों में त्वचा, श्लेष्मा झिल्लियां और आंख का कॉर्निया शामिल हैं। इन ऊतकों में कुछ तंत्रिका ग्राही (प्रुरिसेप्टर) प्रुराइटोजेन्स द्वारा उत्तेजित होते हैं। इनके द्वारा उत्पन्न संदेश मेरु रज्जू में खुजली के संकेत देने वाली तंत्रिकाओं के ज़रिए मस्तिष्क तक ले जाए जाते हैं। प्रुराइटोजेन्स पर प्रतिक्रिया देने वाले कई अलग-अलग ग्राही और चैनल होते हैं। इनकी संख्या इतनी अघिक होती है कि चाहे जो भी हो, खुजली की अनुभूति आपके मस्तिष्क तक पहुंच ही जाती है।

जीर्ण खुजली का एक सामान्य उदाहरण है एटोपिक डर्मेटाइटिस। यह एक शोथ स्थिति है जो अक्सर एलर्जी के कारण होती है जिसमें त्वचा कटी-फटी दिखती है और खुजली होती है। उदाहरण के लिए, धूल में पाई जाने वाली घुन (हाउस डस्ट माइट) से होने वाली एलर्जी। यह घुन एक मिलीमीटर के एक तिहाई हिस्से के बराबर होती है, इसका भोजन हमारे शरीर से लगातार झड़ने वाली मृत त्वचा की पपड़ियां होती है। इस घुन के मल में एक तरह का प्रोटीन होता है जो एक शक्तिशाली प्रुराइटोजेन है। इस प्रुराइटोजेन के त्वचा के ग्राहियों से जुड़ने पर यह एटोपिक डर्मेटाइटिस या अस्थमा जैसी एलर्जी पैदा करता है। ये ग्राही उपचार के लिए अच्छे लक्ष्य हैं। इन ग्राहियों को लक्षित करके खुजली की संवेदना को मस्तिष्क तक पहुंचने से रोका जा सकता है। लेकिन साथ ही कोशिश करनी होती है कि शरीर की सुरक्षा के लिए ज़रूरी अन्य संवेदनाएं बाधित न हों।

खुजली और दर्द

खुजली और दर्द के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर खुजलाने की इच्छा का है। अचानक उठे तेज़ दर्द के कारण आप जल्दी से पीछे हट जाते हैं (या खुद को आगे बढ़ने से रोक लेते हैं) और इस तरह संभावित नुकसान से बच जाते हैं; लेकिन खुजलाना वास्तव में खुजली के कारण की ओर ध्यान दिलाता है। खुजलाना मेरु रज्जू में खुजली के संदेश देने वाली तंत्रिकाओं को अवरुद्ध करता है। इससे मस्तिष्क तक पहुंचने वाली खुजली संवेदना में कमी आती है और राहत मिलती है! लेकिन यह राहत क्षणिक ही होती है। खुजलाकर हम असल में हल्का दर्द पहुंचा रहे होते हैं, और यह दर्द पल भर को हमारे मस्तिष्क में खुजली की अनुभूति को दबा सकता है। खुजलाना मस्तिष्क में पारितोषिक तंत्र की तरह भी काम कर सकता है, और खुजलाना एक सुखद एहसास बन सकता है। लेकिन जीर्ण खुजली वाले रोगियों के लिए खुजलाना एक अभिशाप हो सकता है, इससे त्वचा को नुकसान पहुंच सकता है और खुजली बढ़ सकती है।

आभासी खुजली

जिन लोगों ने (दुर्घटनावश) अपने हाथ या पैर गंवा दिए हैं, उन्हें अक्सर लगता है कि उनके ‘गुमशुदा अंग’ (आभासी अंग) में बहुत खुजली हो रही है। असल में, उनका मस्तिष्क समय के साथ कुछ नए परिपथ बना लेता लेता है और इस कारण शरीर के किसी अन्य हिस्से से मिलने वाले संदेश मस्तिष्क के उस हिस्से को मिलने लगते हैं जो पूर्व में उस अंग से मिला करते थे जो अब नहीं है।

कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के तंत्रिका विज्ञानी वी. एस. रामचंद्रन ने कई ऐसे प्रयोग किए जो लगते तो सरल हैं लेकिन यह सरलता बस कहने को है। इन प्रयोगों की मदद से उन्होंने दर्शाया कि जिन लोगों ने हाल ही में किसी दुर्घटना में अपना कोई अंग को गंवाया है और अक्सर उन्हें अपने उस ‘अनुपस्थित अंग में असहनीय खुजली’ की शिकायत रहती है तो वे अपने चेहरे के विभिन्न हिस्सों को खुजला कर राहत महसूस कर सकते हैं – जैसे ऊपरी होंठ को खुजला कर वे कट चुकी तर्जनी उंगली में राहत महसूस कर सकते हैं।

जीर्ण खुजली से निपटने के लिए नए चिकित्सीय तरीके त्वचा से लेकर केंद्रीय तंत्रिका तंत्र तक कई अलग-अलग बिंदुओं पर आज़माए जा रहे हैं। टाइप बी अल्ट्रा वायलेट प्रकाश त्वचा में प्रतिरक्षा कोशिकाओं से हिस्टेमीन का स्राव कम करने के लिए जाना जाता है, इसलिए फोटोथेरेपी खुजली में उपयोगी साबित हुई है। रोगाणुरोधी यौगिकों से लेपित रेशम के कपड़े भी एक तरीका है। लंबे समय तक बनी रहने वाली खुजली मस्तिष्क में खुजली से जुड़े हिस्सों में कार्यात्मक विसंगतियां पैदा करती है, और इसमें मस्तिष्क के वांछित हिस्से को विद्युत धारा से उत्तेजित करके राहत पहुंचाई जा सकी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बैक्टीरिया संक्रमित कीट सर्दियों में ज़्यादा सक्रिय रहते हैं

यूएस के जंगलों में किलनियों (टिक) के माध्यम से लाइम रोग फैलने का खतरा होता है। इस रोग के डर से कई लोग यह सोचकर सर्दियों तक अपनी जंगल यात्राएं टाल देते हैं कि सर्दियों में किलनियां गायब हो जाएंगी। अब तक लोगों को यही लगता था, लेकिन हाल ही में सोसाइटी ऑफ इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बायोलॉजी की बैठक में शोधकर्ताओं ने बताया है कि लाइम रोग फैलाने वाले सूक्ष्मजीवों से संक्रमित किलनियां जाड़ों में भी सक्रिय रहती हैं और रोग फैला सकती हैं। ऐसा लगता है कि इनकी सक्रियता में वृद्धि जलवायु परिवर्तन के चलते जाड़ों के घटते-बढ़ते तापमान के कारण आई है।

यूएस में, हर साल लगभग पौने पांच लाख लोग इस रोग की चपेट में आते हैं और पिछले 20 वर्षों में मामले तीन गुना बढ़े हैं। वैसे तो बोरेलिया बर्गडॉर्फेरी बैक्टीरिया जनित यह रोग फ्लू की तरह होता है, जिसमें त्वचा पर आंखनुमा (बुल-आई) लाल चकत्ते पड़ जाते हैं। लेकिन कुछ मामलों में यह मस्तिष्क, तंत्रिकाओं, हृदय और जोड़ों को भी प्रभावित करता है, जिससे गठिया या तंत्रिका क्षति जैसी समस्याएं होती है।

किलनियों और किलनी वाहित रोगों से निपटने के तमाम प्रयासों के बावजूद इसमें कमी नहीं आई है। डलहौज़ी विश्वविद्यालय की इको-इम्यूनोलॉजिस्ट लौरा फर्ग्यूसन ने इस पर ध्यान दिया।

तीन सर्दियों तक, फर्ग्यूसन और उनके साथियों ने जंगल से 600 काली टांगों वाली किलनियां (Ixodes scapularis) और उसकी सम्बंधी पश्चिमी काली टांगों वाली किलनियां (I. pacificus) पकड़ीं। हरेक किलनी को एक-एक शीशी में रखा। शीशियों पर ढक्कन लगे थे और पेंदे में पत्तियां बिछी थीं। इन शीशियों को सर्दियों में बाहर छोड़ दिया, जहां पर तापमान -18 डिग्री सेल्सियस से 20 डिग्री सेल्सियस तक रहा। चार महीनों बाद उन्होंने देखा कि इनमें से कौन-सी किलनियां जीवित बचीं और इनमें से कौन-सी किलनियां बी. बर्गडोर्फेरी से संक्रमित हैं। उन्होंने पाया कि लगभग 79 प्रतिशत संक्रमित किलनियां ठंड में जीवित बच गईं थीं, जबकि केवल 50 प्रतिशत असंक्रमित किलनियां जीवित बची थीं। चूंकि सर्दियों में संक्रमित किलनियों के बचने की दर काफी अधिक रही, इसलिए आने वाले वसंत के मौसम में लाइम रोग अधिक फैलने की संभावना लगती है।

इसके बाद शोधकर्ता देखना चाहती थीं कि सर्दियों के दौरान तापमान में घट-बढ़, जैसे बे-मौसम का गर्म दिन और अचानक आई शीत लहर, किलनियों को किस तरह प्रभावित करती है। यह देखने के लिए उन्होंने अपने अध्ययन में संक्रमित और असंक्रमित किलनियों को तीन अलग-अलग परिस्थितियों में रखा: एकदम ठंडे तापमान (जमाव बिंदु) पर, 3 डिग्री सेल्सियस तापमान पर और घटते-बढ़ते तापमान पर (जैसा कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने की संभावना जताई गई है)। किलनियों की गतिविधि की निगरानी के लिए एक इंफ्रारेड प्रकाश पुंज की व्यवस्था थी; यदि किलनियां जागेंगी और शीशी से बाहर निकलने की कोशिश करेंगी तो वे इस इंफ्रारेड पुंज को पार करेंगी और पता चल जाएगा।

अध्ययन में पाया गया कि घटते-बढ़ते तापमान में संक्रमित किलनियां सबसे अधिक सक्रिय थीं। वे सप्ताह में लगभग 4 दिन जागीं बनिस्बत असंक्रमित या स्थिर तापमान पर रखी गईं किलनियों के जो सप्ताह में 1 या 2 दिन ही जागीं। इसके अलावा, संक्रमित किलनियां शीत लहर के प्रकोप के बाद असंक्रमित किलनियों की तुलना में अधिक सक्रिय देखी गईं। इससे लगता है कि बी. बोरेलिया बैक्टीरिया किलनियों को अधिक सक्रिय और काटने के लिए आतुर करता है। सर्दियों का मौसम संक्रमित किलनियों को संक्रमण को फैलाने में मदद करता है।

आम तौर पर ऐसा माना जाता है कि जब अधिक ठंड पड़ती है तो कुछ नहीं होता, सब निष्क्रिय से रहते हैं। लेकिन इस अध्ययन से ठंड में भी रोग संचरण की संभावना लगती है। बहरहाल इस तरह के और अध्ययन करने की ज़रूरत है ताकि यह पता लगाया जा सके कि ऐसे मौसम रोग संचरण पर क्या असर डालते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन से सबसे बड़े मत्स्य-भंडार को खतरा

क्षिण-पूर्वी प्रशांत महासागर में पाई जाने वाली पेरूवियन एंकोवी नामक मछली आकार में छोटी लेकिन काफी महत्वपूर्ण जीव है। एक उंगली के बराबर इस मछली का सबसे अधिक शिकार किया जाता है जो वैश्विक मत्स्याखेट का लगभग 15 प्रतिशत तक होता है। इन अत्यधिक पौष्टिक मछलियों का अधिकांश उपयोग सैल्मन और अन्य व्यावसायिक मत्स्य प्रजातियों के भोजन के रूप में किया जाता है जिनकी कीमत अरबों डॉलर है। प्राचीन तलछट और जीवाश्मों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने दर्शाया है कि किसी समय महासागरों की सतह के पानी के गर्म होने से इस मूल्यवान संसाधन का सफाया हो गया था। आशंका है कि वर्तमान जलवायु परिवर्तन के कारण एक बार फिर यह आपदा दोहराई जा सकती है। और यदि समुद्र ऐसे ही गर्म होते रहे तो समुद्री पक्षियों से लेकर समुद्री स्तनधारी शिकारियों के लिए एंकोवियों के बिना काफी कठिन समय होगा। इस स्थिति में कई प्रजातियों की विलुप्ति का जोखिम बढ़ जाएगा।      

शोधकर्ता लंबे समय से जंगली मछलियों की आबादी पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के बारे काफी चिंतित रहे हैं। गौरतलब है कि कुछ प्रजातियों को प्रजनन के लिए तापमान के एक निश्चित परास की आवश्यकता होती है। ज़्यादा सामान्य मुद्दा यह है कि जब पानी के तापमान में वृद्धि होती है तो उसमें ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। इस स्थिति में छोटी मछलियों की तुलना में बड़ी मछलियों को अधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है क्योंकि उन्हें तुलनात्मक रूप से अधिक ऑक्सीजन की ज़रूरत होती है। यदि ये प्रजातियां आसानी से ठंडे पानी की ओर नहीं जा पाएंगी तो उनकी आबादियों में छोटी मछलियों की संख्या बढ़ेगी जो मत्स्योद्योग के लिए एक बड़ी समस्या बन जाएगा।

अभी भी यह कहना मुश्किल है कि इस बदलाव के पीछे जलवायु परिवर्तन ही एकमात्र कारण है। इसका एक कारण अत्यधिक मत्स्याखेट भी हो सकता है जो जाल से बच निकलने वाली छोटी मछलियों की संख्या वृद्धि को प्रेरित कर सकता है।

इस समस्या को गहराई से समझने के लिए कीएल स्थित क्रिश्चियन-अल्ब्रेक्ट युनिवर्सिटी के मत्स्य जीवविज्ञानी रेनाटो साल्वाटेची ने अत्यधिक मत्स्याखेट के शुरू होने से पहले की गर्म अवधि का अध्ययन करने का निर्णय लिया। मछली की आबादी पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए उन्हें पेरू आदर्श स्थान लगा क्योंकि यहां समुद्र में तलछटीकरण की उच्च दर और प्रचुर मात्रा में मछलियों के कारण समुद्र तल में जीवाश्मों का अच्छा रिकॉर्ड मिलने की संभावना थी।

साल्वाटेची ने 14 मीटर लंबे एक तलछट स्तंभ का अध्ययन किया। इसे 2008 में एक शोध पोत द्वारा निकाला गया था। इसमें 1,16,000 से 1,30,000 वर्ष पहले जमा तलछट थी। यह नमूना उस समय का था जब पृथ्वी आज की तुलना में गर्म जलवायु का अनुभव कर रही थी। उस तलछट बनने के समय समुद्री जल का तापमान और ऑक्सीजन की सांद्रता का पता लगाने के लिए उन्होंने छोटे समुद्री जीवों के जीवाश्मों में नाइट्रोजन समस्थानिकों का मापन किया। शोधकर्ताओं ने पाया कि पानी आज की तुलना में 2 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म था और उसमें ऑक्सीजन की कमी थी। इस कार्य को आगे बढ़ाते हुए साल्वाटेची ने यह पता लगाने का प्रयास किया कि उस समय पानी में किस प्रकार की मछलियां रहती थीं। इसके लिए उन्होंने दो वर्ष तक मछलियों की 1,00,000 से अधिक रीढ़ की हड्डियों के जीवाश्मों और अन्य अवशेषों का अध्ययन किया।

साल्वाटेची ने पाया कि पिछली शताब्दी में जमा तलछट में अधिकांश हड्डियां एंकोवी मछलियों की थीं। साइंस पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पूर्व की गर्म अवधि के दौरान लगभग 60 प्रतिशत मछलियां अन्य छोटी प्रजातियों की थीं। इसमें गोबी मछली के आकार की मछलियां शामिल थीं जो एंकोवी से छोटी थीं और कम ऑक्सीजन में रहने के लिए बेहतर अनुकूलित थीं। इसके अलावा पनामा लाइटफिश जैसी गहरे पानी की प्रजातियां थीं जो कम ऑक्सीजन में पनप सकती थीं।

एंकोवीज़ की तुलना में ये प्रजातियां मत्स्योद्योग के लिए मुफीद नहीं हैं। छोटे आकार के कारण छोटे छिद्र वाले जालों की आवश्यकता होगी जिन्हें साफ करना मुश्किल होता है। ये मछलियां झुंड में भी नहीं रहती हैं इसलिए जहाज़ों को बड़ी संख्या में शिकार पकड़ने के लिए लंबी यात्रा की आवश्यकता होगी और अधिक ईंधन की खपत होगी। और तो और, ये मछलियां एंकोवी की तुलना में कम पौष्टिक होती हैं। एंकोवी की घटती आबादी का मतलब सैल्मन जैसी मछलियों का आहार महंगा और कम पौष्टिक हो जाएगा जिससे कीमतों में वृद्धि होगी। एंकोवी मैकेरल और अन्य जंगली प्रजातियों को भी सहारा देती हैं। एंकोवी की घटती आबादी से ये प्रजातियां दुर्लभ हो जाएंगी और इनको पकड़ना भी एक बड़ी चुनौती होगा।

पूर्व में, पानी के गर्म होने की स्थिति में कुछ एंकोवी दक्षिण में ठंडे पानी की ओर जा सकती थीं जहां वे आसानी से प्रजनन कर सकती थीं। लेकिन ये दक्षिणी क्षेत्र बड़ी आबादी का निर्वाह नहीं कर सकते। पेरू का तटीय क्षेत्र स्थानीय धाराओं से पोषित होता है जहां अधिक गहराई से भोजन प्राप्त होता है।

साल्वाटेची के अनुसार एंकोवी को अन्य मछलियों का आहार बनाने की बजाय सीधे एंकोवी का सेवन करने से स्थिति में सुधार हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19: वास्तविक मौतें आंकड़ों से कहीं अधिक

ह बात महामारी वैज्ञानिकों के बीच चर्चा का विषय रही है कि भारत में कोविड-19 की वजह से होने वाली मौतें वैश्विक आंकड़ों को देखते हुए काफी कम रही हैं। कुछ लोगों का मत था कि यही वास्तविक स्थिति है जबकि कुछ अन्य लोगों का मानना था कि यह अल्प-रिपोर्टिंग का परिणाम है। अब एक प्रमुख महामारी वैज्ञानिक टोरोंटो विश्वविद्यालय के प्रभात झा ने ताज़ा विश्लेषण के आधार पर बताया है कि संभवत: भारत में कोविड-19 मृत्यु दर शेष दुनिया के समान ही थी और इसकी वजह से भारत में लगभग 30 लाख मौंतें हुई थीं जो भारत सरकार द्वारा जारी की गई संख्या से छह गुना अधिक है। यदि यह सही है तो अन्य देशों के आंकड़ों की भी जांच की जा सकती है। मृतकों की वैश्विक संख्या डबल्यूएचओ द्वारा अनुमानित मृतकों की संख्या 54.5 लाख से भी अधिक हो सकती है। यह विश्लेषण साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

2021 के अंत तक भारत ने सार्स-कोव-2 संक्रमण से लगभग 4,80,000 मौतों की सूचना दी है। यानी 340 मौतें प्रति दस लाख आबादी। यह अमेरिका में प्रति व्यक्ति कोविड-19 मृत्यु दर का लगभग सातवां भाग है। झा और उनकी टीम ने शुरुआती अध्ययन में माना था कि भारत में कोविड-19 से मरने वालों की संख्या असामान्य रूप से कम है लेकिन अधिक गहराई से जांच करने पर हैरतअंगेज़ परिणाम प्राप्त हुए।

टीम ने एक स्वतंत्र पोलिंग एजेंसी से डैटा प्राप्त किया जिसने देश भर में 1,40,000 लोगों का टेलीफोन सर्वेक्षण कर उनके परिवार में कोविड से मरने वाले लोगों की संख्या का पता लगाया था। उन्होंने सरकारी रिपोर्टों का भी विश्लेषण किया और अधिकारिक तौर पर पंजीकृत मौतों का पता लगाया। नतीजे में टीम ने पाया कि सितंबर 2021 तक भारत में प्रति दस लाख आबादी में 2300 से 2500 मौतें हुई थीं।

झा के अनुसार उनके शुरुआती निष्कर्ष संक्रमण की पहली लहर पर आधारित थे जो डेल्टा संस्करण की तुलना में कम घातक थी। 2021 की वसंत ऋतु में डेल्टा संस्करण के मामलों में सबसे अधिक उछाल आया। टीम ने उस समय शहरी क्षेत्रों की ओर अधिक ध्यान केंद्रित किया था जहां मृत्यु दर ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में कम हो सकती है। वैसे भी देश में मृत्यु पंजीकरण का मामला महामारी से पहले भी काफी उबड़-खाबड़ रहा है। झा का मानना है कि कोविड-19 से मृत्यु के कम आंकड़ों के पीछे ये कारण हो सकते हैं लेकिन अभी काफी कुछ समझना बाकी है।               

राजनीति भी एक कारण हो सकता है। झा का मानना है कि प्रशासन ने महामारी की वास्तविक तस्वीर को ओझल रखा है और कोविड से मृत्यु की परिभाषा के ज़रिए भी संख्या को दबाने का प्रयास किया गया है। एक मुद्दा यह भी है कि नमूना पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस) के माध्यम से डैटा जारी नहीं किया गया जो नियमित रूप से जन्म और मृत्यु को ट्रैक करने के लिए भारत की आबादी के एक प्रतिशत का सर्वेक्षण करता है।

वैसे, प्रिंसटन युनिवर्सिटी के महामारी विज्ञानी और अर्थशास्त्री रमनन लक्ष्मीनारायण गणना में इस चूक को पूरी तरह से इरादतन नहीं मानते हैं। जैसे, एसआरएस डैटा तो 2018 से ही जारी नहीं किया गया है। वे यह भी मानते हैं कि लगभग हर देश कोविड-19 मृत्यु दर को कम दर्शाना चाहता है ताकि वैश्विक स्तर पर खुद को शर्मिंदगी से बचा सके। लिहाज़ा, लक्ष्मीनारायण भारत को अन्य देशों की तुलना में अलग नहीं देखते हैं। अलबत्ता, लक्ष्मीनारायण चैन्नै के एक अध्ययन के आधार पर लैंसेट में बता चुके हैं कि मौतें कम करके बताई गई हैं।

अशोका युनिवर्सिटी के वायरस वैज्ञानिक शहीद जमील के अनुसार झा की टीम का देशव्यापी अनुमान दो अन्य स्वतंत्र अध्ययनों से मेल खाता है। उनका कहना है कि आंकड़ों में इस चूक का खामियाजा अगली लहर की तैयारी में कमी के रूप में भुगतना पड़ा है।

डैटा और विश्लेषण पर काम करने वाली डबल्यूएचओ की सहायक महानिदेशक समीरा अस्मा के अनुसार यह अध्ययन काफी सुदृढ है और देश-विशिष्ट अनुमान तैयार करने के लिए इस दृष्टिकोण को अपनाने का सुझाव देती हैं। इसके मद्देनज़र डबल्यूएचओ भी अपने अनुमानों को अपडेट कर रहा है और जल्द ही उन्हें जारी करने की योजना बना रहा है।

ई-लाइफ में 6 महीने पहले प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक महामारी के पहले और उसके दौरान सभी कारणों से होने वाली मृत्यु दर को दुनिया भर में कम रिपोर्ट किया गया था। उदाहरण के लिए, रूस में आधिकारिक आंकड़ों से 4.5 गुना अधिक मौतें हुई हैं। (स्रोत फीचर्स)

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स्पिटलबग कीट का थूकनुमा घोंसला – हरेंद्र श्रीवास्तव

र्ष यदि आप ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं तो अक्सर खेतों-मेड़ों और सड़कों के किनारे उगी घास-फूस पर एक थूक अथवा झाग जैसी संरचना देखी होगी। ये झागनुमा रचना पौधों की पत्तियों, टहनियों और तनों पर मौजूद होती हैं। आखिर ये हैं क्या?

कई लोग अनुमान लगाते हैं कि ये किसी मनुष्य अथवा प्राणी की थूक है जिसके चलते इसका नाम कोयल थूक और सांप थूक भी पड़ गया। दरअसल यह झागनुमा संरचना एक कीट (स्पिटलबग कीट) द्वारा बनाया गया घोंसला है। हेमिप्टेरा वर्ग के इस कीट के अन्य नाम फ्रागहॉपर, स्पिट इन्सेक्ट और फिलिनस कीट वगैरह भी हैं।

मैंने अवलोकन के दौरान इस कीट के झागदार घोंसलों को गेंदे, तुलसी, गाजर घास और गुलाब आदि पौधों पर पाया है। यह कीट लगभग एक मीटर ऊंचे पौधों के तनों पर अपना आशियाना बनाता है। घोंसले बनाने की कला बेहद विशिष्ट है। ये स्पिटलबग कीट पहले पौधों के ज़ायलम जैसे ऊतकों में मौजूद कार्बोहाइड्रेट आदि पादप-रसों को चूसता है और फिर उसे अपने उदर में पाई जाने वाली ग्रन्थियों के रसों में मिश्रित कर शरीर के पश्च भाग से पौधे पर छोड़ता जाता है और इस तरह तैयार हो जाता है उसका एक शानदार कुदरती घर जिसमें वो प्रजनन करता है और अपने जीवन-चक्र की अवस्थाओं को पूरा करता है। इस कीट द्वारा बनाए गए घर को स्पिटलबग फोम कहा जाता है। यह कीट हरे, भूरे, नारंगी आदि कई रंगों में मिलता है जिसकी एशिया, अफ्रीका से लेकर अमेरिकी महाद्वीप तक विभिन्न प्रजातियां पाई जाती हैं।

इस कीट द्वारा निर्मित घोंसले में ताप और शीत सहन करने की विशेष क्षमता होती है। आप देखेंगे कि ये झागनुमा संरचना दोपहर की तेज़ धूप में भी नष्ट नहीं होती। मैंने सुबह से लेकर शाम तक स्पिटलबग के घोंसले का अवलोकन किया और पाया कि धूप इन्हें सुखा नहीं पाई। यह प्राकृतिक आशियाना इस जीव को शिकारी कीटभक्षी प्राणियों से भी सुरक्षा प्रदान करता है क्योंकि इस झागनुमा संरचना का स्वाद कीटभक्षियों को पसंद नहीं आता और इसमें छिपे रहने के कारण शिकारी इसे देख भी नहीं पाते।

वैसे तो स्पिटलबग जैसा नन्हा सा कीट पौधों को कोई विशेष नुकसान नहीं पहुंचाता लेकिन जब इनकी आबादी बढ़ जाती है तो इन्हें नाशी-कीट कहा जाता है। नियंत्रण हेतु पौधों पर पानी का तीव्र फुहारा फेंका जाता है जिससे स्पिटलबग फोम नष्ट हो जाते हैं। मादा कीट भोजन एवं सुरक्षा की दृष्टि से अनुकूल पौधों पर सैकड़ों अण्डे देती है और इन अण्डों से निम्फ निकलते हैं जो उन पौधों पर खूबसूरत घोंसले बनाते हैं।

स्पिटलबग को मैंने खेतों-मेड़ों पर घास-फूस व खरपतवारों पर अनेकों बार देखा है। आप भी अपने आसपास की वनस्पतियों, तितली, पक्षी, सरीसृपों आदि की गतिविधियों का अवलोकन करें क्योंकि पर्यावरण में घट रही प्राकृतिक घटनाओं और पौधों तथा जीव-जंतुओं की कुदरती गतिविधियों को जितना ज़्यादा देखेंगे-समझेंगे, उतना आनंद प्राप्त होगा और ज्ञान भी। (स्रोत फीचर्स)

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हरगोविन्द खुराना जन्म शताब्दी – नवनीत कुमार गुप्ता

कोरोना काल में अनेक वैज्ञानिक शब्द समाज में प्रचलित हो गए। उनमें से एक शब्द है जीनोम अनुक्रम। जीनोम अनुक्रम के द्वारा कोरोना वायरस के प्रकारों की पहचान करने में आसानी हुई। यह हम जानते हैं कि विज्ञान में अधिकतर सिद्धांतों और विधियों का विकास अनेक वैज्ञानिकों के योगदान से संभव हो पाता है। आधुनिक विज्ञान जगत में जिन भारतीय वैज्ञानिकों का योगदान अहम रहा है उनमें से प्रोफेसर हरगोविन्द खुराना प्रमुख हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

प्रोफेसर खुराना ने कोशिकाओं के अन्दर आनुवंशिक सूचनाओं के प्रोटीन में अनुदित होने की प्रक्रिया को विस्तार से समझाया था। इसी प्रक्रिया के ज़रिए कोशिकाओं में विभिन्न प्रक्रियाएं सम्पन्न होती हैं। खुराना को शरीर क्रिया विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार उनके इसी कार्य के लिए प्रदान किया गया था।

हरगोविन्द खुराना चार भाइयों और एक बहन में सबसे छोटे थे। उस समय उनके गांव में सिर्फ उनका परिवार ही साक्षर था। वर्तमान पश्चिमी पंजाब के मुल्तान (पाकिस्तान) में डी.ए.वी. कॉलेज से हाईस्कूल की पढ़ाई करने के बाद, हरगोविन्द खुराना ने पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से बी.एससी. और एम.एससी. की डिग्री प्राप्त की। वे जीवन भर अपने प्रारम्भिक शिक्षकों में से रतन लाल और महान सिंह को याद करते रहे। अपने शिक्षकों के प्रति उनका सम्मान ताउम्र रहा। 1945 में उन्हें इंग्लैंड में पढ़ाई करने के लिए छात्रवृत्ति मिली। इस प्रकार अपने शोध कार्य के लिए इंग्लैंड के लिवरपूल विश्वविद्यालय चले गए। वहां उन्होंने प्रसिद्ध वैज्ञानिक रॉजर एस. बीअर के निर्देशन में शोध कार्य किया। पोस्ट-डॉक्टरल अनुसंधान के लिए वे स्विट्ज़रलैंड गए। वहां 1948-1949 में उन्होंने प्रोफेसर व्लादिमीर प्रेलॉग के साथ काम किया। एक शोध छात्र के रूप में उन्होंने विज्ञान को काफी बारीकी से समझा, उन्हें विज्ञान के प्रति नया नज़रिया मिला। इसके चलते उन्होंने आजीवन बिना थके लगातार विज्ञान की सेवा की।

सन 1949 में कुछ समय के लिए वे भारत आए और 1950 में वे फिर इंग्लैंड चले गए, जहां उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रो. ए. आर. टॉड के साथ काम किया। यहीं पर उनकी रुचि न्यूक्लिक अम्लों और प्रोटीन्स में उत्पन्न हुई। 1952 में उन्हें काउंसिल ऑफ ब्रिटिश कोलम्बिया, कनाडा से नौकरी का प्रस्ताव आया और वे कनाडा चले आए। 1952 में ही उन्होंने अपने स्विटज़रलैंड के समय की दोस्त एस्थर सिब्लर से विवाह किया। 1960 में उनके जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ आया। इस वर्ष वे शोध कार्य के लिये विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, अमेरिका आ गए। नोबेल अनुसंधान उन्होंने अमेरिका स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ एंज़ाइम्स रिसर्च में किया था। वे निरंतर शोध कार्य में आगे बढ़ते गए। 1966 में उन्होंने अमेरिकी नागरिकता स्वीकार कर ली। वर्ष 1970 में उन्हें मेसाच्युसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में सम्मानित अल्फ्रेड स्लोअन प्रोफेसर ऑफ केमिस्ट्री एंड बायोलॉजी का पद मिला। इस संस्थान में शोध कार्य करते हुये प्रोफेसर खुराना ने आनुवंशिकी से सम्बंधित कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में कार्य किया। सन 2007 में वे सेवानिवृत्त हो गए। अंतिम वर्षों में वे एम.आई.टी. में एमेरिटस प्रोफेसर थे और अंतिम समय तक विद्यार्थियों से लगातार मिलते रहे।

10 नवंबर 2011 को 89 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। उस दिन मेसाच्युसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी ने अपनी वेबसाइट पर घोषणा की कि रसायन शास्त्र और शरीर क्रिया विज्ञान के शिखरों में से एक प्रोफेसर हरगोविन्द खुराना हमें हमेशा के लिए छोड़कर चले गए। प्रोफेसर हरगोविन्द खुराना का सफर शून्य से शिखर तक का सफर कहा जा सकता है। उनके काम से कोशिका और उसके अंगों और उपांगों की क्रियाविधि के बारे में समझ विकसित हुई। 1953 में वॉटसन और क्रिक ने डीएनए की दोहरी कुंडली संरचना की खोज की थी जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था। अलबत्ता, वॉटसन और क्रिक डीएनए से प्रोटीन निर्माण प्रक्रिया और अन्य आनुवंशिक और शारीरिक क्रियाविधियों में इसकी हिस्सेदारी के बारे में नहीं जानते थे। नीरेनबर्ग और प्रोफेसर हरगोविन्द खुराना ने पहली बार स्पष्ट किया कि कैसे न्यूक्लियोटाइड्स से बनी संरचना अमीनो अम्लों को पहचानती है जो कि प्रोटीन का एक अहम हिस्सा हैं। प्रोफेसर खुराना ने आरएनए में आनुवंशिक कोड की संरचना के बारे में विस्तार से बताया।

नोबेल पुरस्कार मिलने के चार साल बाद प्रोफेसर खुराना को रासायनिक विधियों द्वारा पूर्णतः कृत्रिम जीन का निर्माण करने में सफलता प्राप्त हुई। इसके बाद उन्होंने कई जीन्स का कृत्रिम तरीकों से निर्माण किया जिनमें से दृष्टिदोष से सम्बंधित जीन रोडोस्पिन का संश्लेषण प्रमुख था। इन खोजों ने मूलभूत विज्ञान और औद्योगिक क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। उनके कार्यों का उपयोग मूलभूत विज्ञान से लेकर औद्योगिक क्षेत्र में लगातार हो रहा है। प्रोफेसर खुराना एक सफल शिक्षक भी थे, वे हमेशा छात्रों से घिरे रहते थे। उनके एक शोध छात्र माइकल स्मिथ को 1993 में डीएनए में फेरबदल करने की तकनीक खोजने के लिए नोबेल मिला।

ऐसे महान वैज्ञानिकों और उनके कार्यों के बारे में जनमानस में जागरूकता का प्रसार करना आवश्यक है ताकि भावी पीढ़ियां इनसे प्रेरणा प्राप्त कर सके। इसी दिशा में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत विज्ञान प्रसार द्वारा प्रोफेसर खुराना सहित पांच अन्य प्रेरक वैज्ञानिकों की जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में पूरे वर्ष कई कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। इन वैज्ञानिकों में, प्रोफेसर खुराना के अलावा डॉ. जी. एन. रामचंद्रन, डॉ. येलावर्ती नायुदम्मा, प्रोफेसर बालसुब्रमण्यम राममूर्ति, डॉ. जी.एस. लड्ढा और डॉ. राजेश्वरी चटर्जी शामिल हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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केन-बेतवा लिंक परियोजना के दूसरे पक्ष पर भी ध्यान दें – भारत डोगरा

दिसंबर में केन-बेतवा लिंक परियोजना को भारत सरकार की स्वीकृति मिल गई। इस परियोजना के विषय में सरकार का दावा है कि इससे सिंचाई, पेयजल व ऊर्जा के महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त होंगे। पर संतुलित आकलन के लिए आवश्यक है कि परियोजना के सभी पक्षों पर समुचित ध्यान दिया जाए ताकि लगभग 44,000 करोड़ की इस महंगी परियोजना के लाभ-हानि पक्ष भली-भांति समझकर ही आगे बढ़ा जाए।

इस परियोजना में लगभग 21 लाख पेड़ कटने की बात सरकारी रिपोर्टों में स्वीकार की गई है तथा अच्छी गुणवत्ता के, सुरक्षित क्षेत्र के वनों के उजड़ने की बात है जिससे वन्य जीवों की बहुत क्षति होगी। हालांकि सरकार का दावा है कि वन्य जीवों की क्षति कम करने के प्रयास किए जाएंगे पर इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों के कटने की स्थिति बहुत कष्टदायक है। एक-एक वृक्ष को बहुत उपयोगी माना जाता है। वैसे तो वृक्षों की कितनी ही तरह की देन है, पर जल-संरक्षण में उनका विशेष महत्त्व है तथा जलवायु बदलाव के इस दौर में उनकी कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की क्षमता भी कोई कम महत्वपूर्ण नहीं है।

सरकारी पक्ष का कहना है कि बुंदेलखंड के जल संकट को दूर करने में इस परियोजना की महत्वपूर्ण भूमिका होगी, पर बुंदेलखंड पर हुए अध्ययन तो बताते हैं कि यहां के जल संकट के बढ़ने का एक प्रमुख कारण वनों का उजड़ना है। इस स्थिति में जल संकट का समाधान ऐसी परियोजना से कैसे हो सकता हे जिसमें 21 लाख पेड़ कट रहे हों? विज्ञान शिक्षा केंद्र व आईआईटी दिल्ली के एक अध्ययन में भी बताया गया है कि वन-विनाश से बुंदेलखंड का जल संकट विकट हुआ है।

इसके बावजूद सरकारी पक्ष का कहना है कि केन में अतिरिक्त पानी है और बेतवा में कम पानी है, अतः केन से बेतवा में पानी पहुंचाकर जल संकट का समाधान हो सकता है। यह दावा किन आंकड़ों के आधार पर किया जा रहा है, यह अभी तक अपारदर्शिता के माहौल में स्पष्ट नहीं है। दूसरी ओर, स्थानीय लोग व कई विशेषज्ञ तक कह चुके हैं कि केन नदी में अतिरिक्त पानी नहीं है। इतना ही नहीं, हाल के वर्षों में रेत खनन के कारण केन नदी व उसकी सहायक छोटी नदियों की बहुत क्षति हुई है। उनकी जल धारण व प्रवाह क्षमता कम हुई है। यह समय केन नदी की रक्षा का है, उससे पानी कहीं और भेजने का नहीं है।

केन और बेतवा क्षेत्र एक दूसरे से लगे हुए हैं। उनमें प्रायः एक सा मौसम रहता है। सूखा पड़ता है तो दोनों में; अतिवृष्टि होती है तो दोनों में। ऐसी स्थिति में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जल भेजकर जल संकट दूर करने की बात बेमानी ही प्रतीत होती है।

केन-बेतवा लिंक परियोजना में बांध बनेगा, 230 कि.मी. की जोड़-नहर बनेगी तो लाखों पेड़ कटेंगे, लोग विस्थापित होंगे। सवाल यह है कि इस क्षति से बचते हुए ही क्यों न जल संकट का समाधान किया जाए। यह संभव भी है। बुंदेलखंड व आसपास का क्षेत्र चाहे आज जल संकट से त्रस्त है, पर यहां जल संरक्षण का समृद्ध इतिहास रहा है। बांदा, महोबा, चित्रकूट, टीकमगढ़, छतरपुर आदि स्थानों के ऐतिहासिक तालाब व जल संरक्षण-संग्रहण एक बहुत बड़ी उपलब्धि के रूप में हमारे सामने मौजूद हैं। इनसे पता चलता है कि स्थानीय स्थितियों के अनुसार उच्च गुणवत्ता का जल-संरक्षण कार्य कैसे होता है। इस ऐतिहासिक धरोहर का बेहतर रख-रखाव तो ज़रूरी है ही, इससे सीखते हुए बहुत से कम बजट व उच्च गुणवत्ता के जल-संरक्षण कार्य हाल के वर्षों में भी सफलता से आगे बढ़े हैं।

अतः हमें जल संकट समाधान के ऐसे उपायों की ओर ध्यान देना चाहिए जिनसे पर्यावरण, वन व जनजीवन की क्षति न हो, विस्थापन का त्रास न हो तथा साथ में जल संरक्षण का टिकाऊ कार्य भी आगे बढ़े। ऐसे विकल्प निश्चित रूप से उपलब्ध हैं। यह तथ्यात्मक स्थिति केवल केन-बेतवा लिंक परियोजना की ही नहीं है अपितु अनेक अन्य नदी-जोड़ योजनाओं की भी है। इस तरह की लगभग 30 परियोजनाएं समय-समय पर चर्चा का विषय रही हैं। हमें सभी विकल्पों पर विचार करते हुए ऐसा निर्णय लेना चाहिए जो देश के लिए सबसे हितकारी हो।

अनेक विशेषज्ञों ने समय-समय पर रिपोर्ट तैयार कर, पत्र भेज कर, बयान जारी कर यह कहा है कि केन-बेतवा लिंक परियोजना व अन्य नदी-जोड़ परियोजनाओं के बेहतर विकल्प उपलब्ध हैं। सरकार को चाहिए कि वह इन सब पर उचित ध्यान देते हुए इनमें उठाए सवालों पर भी समुचित विचार करे ताकि अंत में वही निर्णय लिए जाएं जो व्यापक राष्ट्र हित में हों। (स्रोत फीचर्स)

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न्यूज़ीलैंड में सिगरेट बिक्री पर प्रतिबंध की तैयारी

न्यूज़ीलैंड में नया नियम यह बनने जा रहा है कि 2008 के बाद जन्मा कोई भी व्यक्ति आजीवन सिगरेट या अन्य तंबाकू उत्पाद नहीं खरीद सकेगा। मकसद यह है अगली पीढ़ी को तंबाकू उत्पाद न बेचे जा सकें। न्यूज़ीलैंड की स्वास्थ्य मंत्री आयशा वेराल का कहना है कि “हम चाहते हैं कि युवा लोग धूम्रपान शुरू ही न करें।” डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने सरकार के इस कदम का स्वागत किया है। बहरहाल, आलोचकों की भी कमी नहीं है।

आंकड़े बताते हैं कि वर्तमान में न्यूज़ीलैंड की लगभग 13 प्रतिशत वयस्क आबादी धूम्रपान करती है और अधिकारियों का लक्ष्य इसे घटाकर 5 प्रतिशत करना है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का अनुमान है कि हर चार में से एक कैंसर धूम्रपान की वजह से होता है और यह मृत्यु का एक प्रमुख कारण है।

तुलना के लिए देख सकते हैं कि भारत में लगभग 30 प्रतिशत वयस्क लोग (47 प्रतिशत पुरुष और 14 प्रतिशत महिलाएं) धूम्रपान करते हैं या तंबाकू चबाते हैं।

न्यूज़ीलैंड की आबादी 50 लाख से कुछ अधिक है और यहां सिगरेट बेचने के लिए अधिकृत दुकानें हैं। फिलहाल ऐसी अधिकृत दुकानों की संख्या 8000 है जिसे घटाकर 500 से कम करने का भी लक्ष्य रखा गया है।

सरकार ने इतना सख्त कदम उठाने का निर्णय पूर्व में किए गए उपायों (जैसे सिगरेट की कीमतें बढ़ाना) की सीमाओं के मद्देनज़र लिया है। इसके साथ ही यह व्यवस्था भी की जाएगी कि देश में मात्र कम निकोटिन वाली सिगरेटें ही बेची जा सकें।

जहां कई देश न्यूज़ीलैंड के इस कदम को सतर्कतापूर्वक देख रहे हैं, वहीं आलोचकों का कहना है कि इस निर्णय का परिणाम मात्र यही होगा कि सिगरेट का काला बाज़ार अस्तित्व में आ जाएगा और भ्रष्टाचार का एक नया अड्डा बन जाएगा। यह भी कहा जा रहा है कि इससे बेरोज़गारी भी बढ़ेगी।

दुनिया भर के स्वास्थ्य कार्यकर्ता न्यूज़ीलैंड के इस कदम के परिणामों की समीक्षा करके देखना चाहेंगे कि क्या यह शेष देशों के लिए एक मॉडल बन सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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पेटेंट पूलिंग से दवाइयों तक गरीबों की पहुंच

हाल ही में अमेरिका के खाद्य व औषधि प्रशासन ने कोविड-19 के लिए दो अलग-अलग मुंह से दिए जाने वाले (ओरल) उपचारों को आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी दी है। इस निर्णय का मतलब यह है कि अब घर पर ही गोलियों से गंभीर कोविड-19 का उपचार संभव हो सकेगा। गौरतलब है कि इस ओरल उपचार को तैयार करने वाली दवा कंपनियों, फाइज़र और मर्क, ने जेनेरिक दवा निर्माताओं को कम-लागत के संस्करण बनाने की भी अनुमति दी है ताकि इनकी पहुंच गरीब देशों तक सुनिश्चित की जा सके।

इन दोनों उपचारों में 5 दिन तक दवाइयां लेनी होंगी। अमेरिकी सरकार ने इन दवाओं को फाइज़र से 530 डॉलर प्रति उपचार और मर्क से 712 डॉलर प्रति उपचार की दर पर खरीदा है। ज़ाहिर है कि यह अधिकांश देशों के लिए काफी महंगा है लेकिन दोनों ही कंपनियों के मेडिसिन पेटेंट पूल (एमपीपी) में शामिल होने से जेनेरिक दवा निर्माताओं को इस दवा के सस्ते संस्करण बनाने की अनुमति मिल गई है।

गौरतलब है कि एमपीपी की स्थापना 2010 में एक गैर-मुनाफा संस्था के रूप में इस उद्देश्य से की गई थी कि बड़ी दवा कंपनियों को जेनेरिक निर्माताओं को जेनेरिक संस्करण तैयार करने और कम दाम पर बेचने की अनुमति देने को तैयार किया जा सके। शुरुआत में यह विचार काफी बेतुका और अव्यावहारिक लगता था लेकिन वर्तमान में यह विचार काफी प्रभावी प्रतीत होता है। जेनेरिक निर्माताओं से उम्मीद है कि उनके द्वारा तैयार किए गए उपचार की लागत 20 डॉलर प्रति उपचार होगी जबकि व्यवस्था यह है कि फाइज़र और मर्क महंगी दवाओं को धनी देशों में बेचना जारी रखेंगी।

एमपीपी ने सबसे पहले एचआईवी के लिए एंटीरेट्रोवायरल औषधियों को कम आय वाले देशों के लिए सुलभ बनाने का काम किया और बाद में हेपेटाइटिस सी और टीबी की दवाइयों के लिए भी इसका विस्तार किया गया।

एमपीपी के संस्थापक और विशेषज्ञ सलाहकार समूह के सदस्य एलेन टी होएन ने बताया कि हालांकि वर्तमान में इस संदर्भ में जो समझौते हुए हैं, वे आदर्श नहीं हैं लेकिन इन्होंने दवाइयों की सुगम उपलब्धता के कुछ रास्ते तो खोले हैं। (स्रोत फीचर्स)

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कुछ धूमकेतु हरे क्यों चमकते हैं?

र्ष 2014 में लवजॉय नाम का धूमकेतु (पुच्छल तारा) अपनी धुंधली हरी आभा के साथ दिखाई दिया था। ऐसी ही हरी चमक कुछ अन्य धूमकेतुओं में भी देखी गई है। अब, प्रयोगशाला में किए गए एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस रंगीन चमक का कारण पता लगाया है।

वैज्ञानिकों को यह तो अंदेशा था कि धूमकेतुओं के आसपास की हरे रंग की आभा डाईकार्बन (C2) नामक एक अभिक्रियाशील अणु के टूटने से आती है। इसकी पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने कार्बन क्लोराइड (C2Cl4) से अल्ट्रावायलेट लेज़र की मदद से क्लोरीन परमाणुओं को अलग कर दिया और फिर शेष रहे डाईकार्बन अणुओं पर उच्च-तीव्रता वाला प्रकाश डाला। नतीजतन हुई रासायनिक अभिक्रिया ने शोधकर्ताओं को आश्चर्यचकित कर दिया।

प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में शोधकर्ताओं ने बताया है कि डाईकार्बन अणु ने प्रकाश का एक फोटॉन अवशोषित करके हरा फोटॉन उत्सर्जित करने की बजाय दो फोटॉन अवशोषित किए, और फिर टूटकर हरे रंग का प्रकाश उत्सर्जित किया। पहले अवशोषित फोटॉन से डाईकार्बन अणु एक अर्ध-स्थिर अवस्था में पहुंचा, और दूसरे अवशोषित फोटॉन से और अधिक ऊर्जा लेकर यह अस्थिर अवस्था में पहुंचा और टूट गया। इस अभिक्रिया में हरे रंग का फोटॉन उत्सर्जित हुआ।

इस प्रक्रिया में डाईकार्बन अणु दो बार ऊर्जा लेकर अवस्था परिवर्तन (ट्रांज़िशन) करता है। आम तौर पर रसायनज्ञ मानते हैं कि ऐसे ट्रांज़िशन निषिद्ध है। हालांकि भौतिकी के नियम अनुसार ये ट्रांज़िशन पूरी तरह निषिद्ध भी नहीं हैं। ये ट्रांज़िशन प्रयोगशाला में नहीं देखे जाते क्योंकि प्रयोगशाला में अणु अपेक्षाकृत पास-पास होते हैं। लेकिन अंतरिक्ष में अणु काफी दूर-दूर होते हैं और शायद ही कभी अन्य अणुओं या परमाणुओं के संपर्क में आते हैं।

डाईकार्बन अणु का जीवनकाल दो दिन से भी कम समय का होता है। प्रयोगों के दौरान एकत्रित डैटा से पता चलता है कि सूर्य से पृथ्वी की दूरी के मुताबिक, इससे यह समझने में मदद मिलती है कि अणु के टूटने से जुड़ी हरी चमक केवल धूमकेतु के सिर के आसपास ही क्यों दिखाई देती है, इसकी पूंछ में यह कभी क्यों दिखाई नहीं देती। (स्रोत फीचर्स)

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