पक्षी भी करते हैं ‘पहले आप!’, ‘पहले आप!’

हाथ हिलाकर विदा कहना, झुककर अभिवादन करना, ठेंगा दिखाना, ऐसे कई इशारे या भंगिमाएं हम अभिव्यक्ति के लिए इस्तेमाल करते हैं। हाल ही में वैज्ञानिकों ने आपस में इसी तरह मेलजोल करते एक ‘शिष्ट’ पक्षी जोड़े को देखा है।
जापान के नागानो में लिए गए वीडियो में दो जापानी टिट पक्षी (Parus minor) कैद हुए हैं। वीडियो में दिखता है कि जब पक्षियों का ये जोड़ा अपने चूज़ों के लिए भोजन लेकर घोंसले को लौटता है तो मादा घोंसले के पास वाली डाल पर जाकर बैठ जाती है और पंख फड़फड़ा कर अपने साथी को पहले घोंसले में जाने का इशारा करती है। जब साथी घोंसले के अंदर चला जाता है तो उसके पीछे-पीछे वह भी घोंसले मे चली जाती है।
करीब 8 पैरस माइनर जोड़ों के 300 से अधिक बार घोंसले में लौटने के अवलोकनों से पता चला कि मादाओं का फड़फड़ाना अधिक था; वे फड़फड़ा कर ज़ाहिर करती हैं कि उनके साथी पहले घोंसले में जाएं और वे उनके अंदर जाने तक रुकी रहती हैं। लेकिन जब मादा पंख नहीं फड़फड़ाती तो इसका मतलब होता है वह पहले घोंसले में जाना चाहती है। पक्षियों में ‘पहले आप’ की शिष्टता उजागर करते ये नतीजे करंट बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं।
मादा पंख फड़फड़ाते हुए अपने साथी की ओर मुखातिब थी, न कि घोंसले की ओर। इससे पता चलता है वह केवल घोंसले का पता नहीं बता रही थी बल्कि कोई संदेश भी दे रही थी। रुचि की किसी चीज़ की ओर ध्यान आकर्षित करने का व्यवहार कौवों सहित अन्य पक्षियों में देखा गया है, लेकिन सांकेतिक इशारों को अधिक जटिल माना जाता है। इस तरह से संदेश देने के व्यवहार इसके पहले प्रायमेट्स के अलावा अन्य किसी प्राणि में नहीं देखे गए हैं।
इसका वीडियो यहां देख सकते हैं: https://www.science.org/content/article/after-you-female-bird-s-flutter-conveys-polite-message-her-mate (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डिप्रेशन की दवाइयां और चूहों पर प्रयोग

जब डिप्रेशन यानी अवसाद के लिए कोई दवा विकसित होती है तो उसका परीक्षण कैसे किया जाता है? पिछले कुछ दशकों से वैज्ञानिकों के पास एक सरल सा परीक्षण रहा है। 1977 में निर्मित इस परीक्षण को जबरन तैराकी परीक्षण (forced swim test FST) कहते हैं। यह परीक्षण इस धारणा पर टिका है कि कोई अवसादग्रस्त जंतु जल्दी ही हाथ डाल देगा। लगता था कि यह परीक्षण कारगर है। देखा गया था कि डिप्रेशन-रोधी दवाइयां और इलेक्ट्रोकंवल्सिव थेरपी (ईसीटी या सरल शब्दों में बिजली के झटके) देने पर जंतु हार मानने से पहले थोड़ी ज़्यादा कोशिश करते हैं। यह परीक्षण इतना लोकप्रिय है कि हर साल लगभग 600 शोध पत्रों में इसका उल्लेख होता है।
जबरन तैराकी परीक्षण में किया यह जाता है कि किसी चूहे को पानी भरे एक टब में छोड़ दिया जाता है और यह देखा जाता है कि वह कब तक तैरने की कोशिश करता है और कितनी देर बाद कोशिश करना छोड़ देता है। ऐसा देखा गया है कि अवसाद-रोधी दवा देने के बाद चूहे ज़्यादा देर तक तैरने की कोशिश करते हैं।
परीक्षण में कई अगर-मगर होते हैं। जैसे चूहे के प्रदर्शन पर इस बात का असर पड़ता है कि वह पहले से कितने तनाव में था। यह भी देखा गया है कि चतुर चूहे समझ जाते हैं कि अंतत: शोधकर्ता उन्हें सुरक्षित बचा लेंगे। और सबसे बड़ी बात यह है कि चूहों पर असर के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह दवा मनुष्यों पर भी काम करेगी। इन दिक्कतों के चलते जंतु अधिकार कार्यकर्ता (जैसे पीपुल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स यानी पेटा) इस परीक्षण पर सवाल उठाते रहे हैं।
कुछ समय से शोधकर्ताओं के बीच भी इस परीक्षण को लेकर शंकाएं पैदा होने लगी हैं। खास तौर से इस बात को लेकर संदेह जताए जा रहे हैं कि क्या यह परीक्षण इस बात का सही पूर्वानुमान कर पाता है कि कोई अवसाद-रोधी दवा मनुष्यों पर कारगर होगी। इस परीक्षण का विरोध बढ़ता जा रहा है। एक चिंता यह है कि जबरन तैराकी परीक्षण निहायत क्रूर है और परिणाम सटीक नहीं होते।
2023 में ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय स्वास्थ्य व चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने कह दिया था कि वह जबरन तैराकी परीक्षण करने वाले अनुसंधान के लिए पैसा नहीं देगी। यू.के. में निर्देश है कि यदि इस परीक्षण का उपयोग करना है तो उसे उचित ठहराने का कारण बताना होगा। फिर ऑस्ट्रेलिया के प्रांत न्यू साउथ वेल्स ने इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया। कम से कम 13 बड़ी दवा कंपनियों ने कहा है कि वे इस परीक्षण का उपयोग नहीं करेंगी। यूएस में प्रतिबंध तो नहीं लगाया गया है किंतु इसे निरुत्साहित करने की नीति बनाई है।
इस सबका एक सकारात्मक असर यह हुआ है कि शोधकर्ता अब नए वैकल्पिक परीक्षणों की तलाश कर रहे हैं। खास तौर से यह देखने की कोशिश की जा रही है कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े व्यवहारों की पड़ताल की जाए। जैसे जीवन का आनंद, नींद का उम्दा पैटर्न, तनाव के प्रति लचीलापन वगैरह। सोच यह है कि अवसाद को एक स्वतंत्र तकलीफ न माना जाए बल्कि कई मानसिक विकारों के हिस्से के रूप में देखा जाए। अलबत्ता, तथ्य यह है कि 2018 से 2020 के बीच अवसाद से सम्बंधित 60 प्रतिशत शोध पत्रों में जबरन तैराकी परीक्षण का उपयोग किया गया और बताया गया कि ‘यह अवसादनुमा व्यवहार’ का उपयुक्त द्योतक है।
बहरहाल, नए परीक्षणों की तलाश जारी है। जैसे फरवरी में न्यूरोसायकोफार्मेकोलॉजी जर्नल में प्रकाशित एक शोध पत्र में औषधि वैज्ञानिक मार्को बोर्टोलेटो ने ऐसे ही परीक्षण की जानकारी दी है। इस परीक्षण में चूहे को यह सीखना होता है कि वह पानी से बाहर निकलने के लिए वहां बने प्लेटफॉर्म्स पर चढ़ सकता है लेकिन जब वह उन पर चढ़ता है तो वे डूब जाते हैं। परीक्षण में यह देखा जाता है कि चूहा एक स्थिर प्लेटफॉर्म ढूंढने की कोशिश कब तक जारी रखता है। एक परीक्षण में पता चला कि चूहों को अवसाद-रोधी दवा प्लोक्ज़ेटिन देने पर या उन्हें कसरत कराने पर वे देर तक कोशिश करते रहे।
ऐसा ही एक विकल्प तंत्रिका वैज्ञानिक मॉरिट्ज़ रोसनर भी विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। अपने परीक्षण का उपयोग करते हुए उन्होंने दर्शाया है कि बायपोलर तकलीफ की दवा लीथियम देने पर चूहों का प्रदर्शन बेहतर रहा। उनके परीक्षण में एक नहीं बल्कि 11 व्यवहारों का अवलोकन किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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परवाने रोशनी के आसपास क्यों मंडराते हैं?

ह तो हम भली-भांति जानते हैं कि तरह-तरह के कीट-पतंगे मोमबत्ती, बल्ब-टूयबलाइट जैसी कृत्रिम रोशनियों की ओर खिंचे चले आते हैं। दिए जलते ही वे उनके आसपास मंडराने लगते हैं। शायद इसी अनुभव से प्रेरित होकर किसी शायर ने कहा है –

कितने परवाने जले राज़ ये पाने के लिए,

शमा जलने के लिए है या जलाने के लिए।

लेकिन हाल ही में परवानों यानी कीट-पतंगों पर किया गया अध्ययन इस राज़ का खुलासा करता है कि क्यों वे कृत्रिम रोशनियों की ओर खिंचे चले आते हैं और उनके चक्कर काटते हैं।

इस बात की पड़ताल तो लंबे समय से चली आ रही थी जिसने हमें इसकी कई व्याख्याएं भी दीं; जैसे वे इन रोशनियों के स्रोत को चंद्रमा समझ कर दिशा निर्धारण के लिए इनका उपयोग करते हैं, या वे रोशनी नहीं बल्कि गर्मी से आकर्षित होते हैं। शोधकर्ता उनके बारे में थोड़ा गहराई से समझना चाहते थे। इसलिए उन्होंने रोशनी के आसपास मंडराते कीट-पतंगों की हरकतों को मोशन-कैप्चर कैमरा और स्टीरियो वीडियोग्राफी से रिकॉर्ड किया।

उनकी फुटेज देखने से पता चला कि कीट-पतंगे अपनी पीठ हमेशा रोशनी की ओर रखने का प्रयास करते हैं – यह प्रयास पृष्ठीय प्रकाश प्रतिक्रिया कहलाती है। पीठ हमेशा रोशनी की ओर झुकाने के प्रयास में वे रोशनी के चक्र में फंस जाते हैं और उसी के आसपास मंडराते रहते हैं। गौरतलब है कि पृष्ठीय प्रकाश प्रतिक्रिया कीट-पतंगों को ऊपर-नीचे का निर्धारण करने और सही उन्मुखीकरण में बने रहने में मदद करती है। इसका मुख्य कारण यह है कि सामान्यत: परिवेश का ज़्यादा चमकीला हिस्सा ऊपर की ओर होता है। लेकिन कृत्रिम प्रकाश में यही चमक उन्हें भ्रम में डाल देती है। (स्रोत फीचर्स)

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यह उभयचर अपने शिशुओं को ‘दूध’ पिलाता है

शिशु के विकास और पोषण के लिए जन्म के बाद अपने शरीर में बनने वाले पोषक द्रव का शिशु को पान कराना स्तनधारी प्राणियों का प्रमुख लक्षण माना जाता है। लेकिन स्तनधारियों के अलावा भी चंद जीव ऐसे हैं जो अपने शिशुओं को अपने शरीर में बनने वाले पोषक द्रव पिलाते हैं; जैसे कुछ मछलियां, मकड़ियां, कीट और पक्षी। हाल ही में पोषकपान कराने वालों की इस फेहरिस्त में अब एक सेसिलियन (नेत्र विहीन कृमिनुमा उभयचर) जीव साइफोनॉप्स एनुलैटस भी जुड़ गया है जो अंडे से बाहर निकली अपनी नवजात संतानों के लिए ‘दूध’ बनाता है और पिलाता है।

उपोष्णकटिबंधीय इलाकों में पाए जाने वाले ये नीले-काले रंग के उभयचर कृमि सरीखे दिखते हैं। और अपना अधिकांश समय भूमि के अंदर बिताते हैं। चूंकि ये अधिकांश समय अंधकार में रहते हैं तो इनमें तथाकथित ‘देखने’ की क्षमता नहीं होती है।

पूर्व में वैज्ञानिकों ने पाया था कि सेसिलियन की कुछ प्रजातियों के शिशुओं में दांत आते हैं, और वे लगभग हर सातवें दिन अपनी मां की पोषक तत्वों से भरपूर त्वचा परत को खाते हैं – नई पोषक त्वचा बनने में इतना समय तो लग ही जाता है। लेकिन बुटान्टन इंस्टिट्यूट के प्रकृतिविद मार्टा एंटोनियाज़ी और कार्लोस जेरेड को यह बात थोड़ी अजीब लगी कि नवजात हफ्ते में केवल एक बार पोषण पाते हैं। जबकि उन्हें विकास के लिए समय-समय पर भरपूर पोषण चाहिए होता है। हफ्ते में एक बार का भोजन तो विकास के लिए पर्याप्त नहीं लगता।

इसलिए उन्होंने इन शिशु उभयचरों के विचित्र भोजन व्यवहार को विस्तार से जानना तय किया। उन्होंने ब्राज़ील के अटलांटिक वन से साइफोनॉप्स एनुलैटस प्रजाति के 16 जच्चा और उनके नवजात बच्चों को एकत्र किया, और वीडियो के माध्यम से उनकी गतिविधियों पर नज़र रखी।

200 घंटे से अधिक लंबे फुटेज के विश्लेषण से पता चला कि नवजात पोषण के लिए अपनी मां की त्वचा को तो कुतरते ही हैं, साथ-साथ वे मां के क्लोएका से निकलने वाले वसा और कार्बोहाइड्रेट युक्त पोषक पदार्थ का सेवन भी करते हैं। क्लोएका शरीर के पीछे की ओर स्थित आहार नाल और जनन मार्ग का साझा निकास द्वार होता है। मां उनके लिए इस तरल का स्राव करे, इसके लिए शिशु तेज़ आवाज़ें निकालते हैं, और अपना सिर मां के क्लोएका में घुसाकर ‘दूध’ पीते हैं।

साइंस पत्रिका में प्रकाशित ये अप्रत्याशित नतीजे सेसिलियन जीवों पर और अधिक अध्ययन की ज़रूरत को भी रेखांकित करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जंतु भी घात लगाकर शिकार करते हैं

घोंघों की पीठ पर कैल्शियम कार्बोनेट से बनी खोल एक कवच का काम करती है और उन्हें शिकारियों से बचाती है। लेकिन उनके शिकारी भी कोई कम शातिर नहीं हैं; वे शिकार के तरीके ढूंढ निकालते हैं। हालिया अध्ययन में ऐसा ही एक तरीका पता चला है, जिसमें घोंघों का शिकारी – क्लिक बीटल (भृंग) का लार्वा – अपने मांदनुमा घोंसले में घात लगाए बैठा होता है। क्लिक बीटल में शिकार की यह रणनीति पहली बार देखी गई है।

क्लिक बीटल एलाटेरिडे कुल के सदस्य है और जुगनुओं के सम्बंधी हैं। क्लिक बीटल अपनी ‘क्लिक’ की आवाज़ के लिए प्रसिद्ध हैं। ये बीटल्स वक्ष पर मौजूद कांटे का लीवर की तरह उपयोग कर हवा में उछलते हैं और कांटे से चटकने (क्लिक) की आवाज़ पैदा होती है।

देखा गया है कि क्लिक बीटल की कई प्रजातियां लार्वा अवस्था में शिकारी होती हैं। ब्राज़ील में पाई जाने वाली इनकी एक प्रजाति शिकार को फांसने के लिए अपनी नैसर्गिक जैवदीप्ति का सहारा लेती है, और फ्लोरिडा में पाई जाने वाली एक अन्य प्रजाति कछुए के अंडों को तोड़ कर उन्हें चट कर जाती है।

एक तरह का क्लिक बीटल, ड्रिलिनी, घोंघों का शिकार करता है। घोंघों का शिकार करने के लिए ड्रिलिनी पहले तो घोंघा द्वारा पीछे छोड़े गए चिपचिपे पदार्थ की लकीर का पीछा करके उनके ठिकाने का पता लगाता है, और वहां पहुंच जाता है। जब उसे घोंघा मिल जाता है तो वह अपने डंकनुमा मुखांग से उसके कठोर कवच में छेद करके उस पर काबू कर लेता है और शिकार बना लेता है। कई बार वह एक विष का भी उपयोग करता है।

लेकिन इकॉलॉजी में प्रकाशित हालिया अध्ययन में शिकार करती पाई गई क्लिक बीटल की प्रजाति एन्थ्राकेलौस साकागुची के पास कोई विशिष्ट हथियार नहीं होता बल्कि वह नीचे से वार करके चौंकाने की मदद लेता है।

जापान के ऋयुक्युस द्वीप पर रहने वाले क्लिक बीटल का लार्वा भूमि के नीचे बनी अपनी मांद में बैठा रहता है, और ऊपर से घोंघों के गुज़रने का इंतज़ार करता है। जैसे ही घोंघा ऊपर से गुज़रता है, लार्वा नीचे से उसके नरम और कवच-विहीन शरीर को पकड़ लेता है और अंदर खींचकर खा जाता है। घोंघे का खाली-खोखला कवच भूमि के ऊपर पड़ा रह जाता है।

दरअसल इन घोंघों के बारे में तब पता चला जब टोक्यो मेट्रोपोलिटन युनिवर्सिटी के कीटविज्ञानी नोज़ोमु सातो और उनके एक सहयोगी ऋयुक्युस के कुमे द्वीप पर घोंघा सर्वेक्षण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि कई घोंघे मृत पड़े हैं और उनका नरम शरीर नीचे ज़मीन में बने बिलों में खींचा गया है। इन बिलों को खोदने पर उन्हें लार्वा मिले। लेकिन उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि ये लार्वा क्लिक बीटल के हैं, वे तो इन्हें जुगनुओं के लार्वा समझ रहे थे। खैर, इन्हें वे अपनी प्रयोगशाला में ले आए और पाला। जब वे विकसित हुए तो पता चला कि ये तो ए. साकागुची क्लिक बीटल के लार्वा थे।

शोधकर्ता अब यह जानना चाहते हैं कि क्या ए. साकागुची के लार्वा घोघों को ऊपर से गुज़रने के लिए कोई प्रलोभन देते हैं या रंग वगैरह से आकर्षित करते हैं, या बस घात लगाए बैठे रहते हैं। साथ ही वे यह भी देखना चाहते हैं कि मृत पड़े झींगुर और तिलचट्टे भी क्या ए. साकागुची का शिकार बनते हैं या सिर्फ घोंघे ही इनका शिकार बनते हैं। हालांकि झींगुर और तिलचट्टों के मृत शरीर साबुत पड़े थे, किसी के द्वारा खाए नहीं गए थे।

इस अध्ययन से एक बात यह प्रकाश में आती है कि कीटों की वयस्क अवस्था पर तो काफी अध्ययन हुए हैं और उनके बारे में हमें मालूमात है, लेकिन उनके लार्वा अनदेखे ही रहे हैं और उनके बारे में हम बहुत कम जानते हैं। इन पर अधिक अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

लार्वा का हमला देखने के लिए इस लिंक पर जाएं – https://www.science.org/content/article/watch-beetle-larva-ambush-snails-below-dragging-them-their-demise

उसकी उछाल देखने और क्लिक की आवाज़ सुनने के लिए इस लिंक पर जाएं – https://youtu.be/uH4roWTUMoA?si=FOs7uzaSq6xiXlTQ

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ऊदबिलाव की पूंछ पर शल्क पैटर्न ‘फिंगरप्रिंट’ जैसा है

युरेशियाई ऊदबिलाव (Castor fiber) की चपटी और चमड़े सरीखी पूंछ उनको तैरने में काफी मदद करती है। पूंछ उनके लिए पतवार का और दिशा देने का काम करती है। उनकी पूंछ की शल्कों का आवरण जहां पूंछ को उपयोगी बनाता है वहीं यह उनकी शिनाख्त में मदद भी कर सकता है और ‘फिंगरप्रिंट’ की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। ‘फिंगरप्रिंट’ पहचान कृत्रिम बुद्धि (एआई) के पैटर्न पहचान एल्गोरिद्म द्वारा पूंछ के शल्कों के पैटर्न देखकर की गई है।

एआई की यह सफलता ऊदबिलाव को उन पर पड़ रहे उस दवाब, तनाव या परेशानी से मुक्त कर सकती है जो उन्हें उनकी पहचान के लिए उन पर टैग और कॉलर-आईडी लगाते वक्त झेलना पड़ता है। दरअसल युरेशियाई ऊदबिलाव 19वीं सदी में लगभग विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए थे। उनका शिकार उनके फर और कैस्टोरियम (एक खूशबूदार पदार्थ) के लिए खूब किया जाता था। विलुप्ति की कगार पर पहुंचाने के बाद जब इन्हें बचाने की मुहिम चली तो इनके कानों पर टैग और रेडियो कॉलर लगाकर इनकी आबादी पर नज़र रखना शुरू हुआ। लेकिन इस काम के लिए उन्हें पकड़कर निशानदेही करना उनको परेशान कर सकता है।

इसलिए शोधकर्ताओं ने शिकार हो चुके 100 युरेशियन ऊदबिलावों की पूंछ की तस्वीरें खींचीं और इनसे एआई को पैटर्न सीखने के लिए प्रशिक्षित किया। जब एआई की परीक्षा ली गई तो 96 प्रतिशत बार एआई ने उन्हें सटीक पहचाना था। ये नतीजे इकोलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित हुए हैं।

किंतु एक दिक्कत यह है कि वैज्ञानिकों ने ये तस्वीरें प्रयोगशाला में अच्छी रोशनी की परिस्थिति में ली थीं और उन्हीं के आधार पर एआई को प्रशिक्षित करके जांचा है। किंतु प्राकृतवास में विचरते हुए जो तस्वीरें मिलेंगी वे संभवत: इस तरह उजली और इतनी साफ नहीं होंगी। और वास्तव में तो प्राकृतवास में खींची गई (पूंछ की) तस्वीरों से ही एआई को ऊदबिलावों में भेद करने में सक्षम होना चाहिए। बहरहाल, शोधकर्ताओं का कहना है कि इन क्षेत्रों में तस्वीर खींचने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले स्वचालित कैमरों में एक छोटा प्लास्टिक लेंस जोड़ने से तस्वीर की गुणवत्ता चार गुना बढ़ाई जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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शार्क व अन्य समुद्री जीवों पर संकट – सुदर्शन सोलंकी

मानवीय गतिविधियां समस्त जीव-जंतुओं के लिए संकट उत्पन्न कर रही हैं। समुद्री जीवों के शिकार व इंसानों द्वारा फैलाए गए प्रदूषण के कारण समुद्र के तापमानन में भी वृद्धि हुई है। नतीजतन समुद्री जीवों की कई प्रजातियां समाप्ति की ओर बढ़ रही हैं।

वर्ष 2019 में नेचर पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार वैज्ञानिकों ने दो अलग-अलग वातावरण में शार्क की एक प्रजाति की वृद्धि और उनकी शारीरिक स्थिति की तुलना करके पाया था कि बड़े आकार की रीफ शार्क के शिशुओं का विकास कम हो रहा है। शार्क अपने वातावरण में हो रहे परिवर्तनों के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रही हैं।

नेचर साइंटिफिक रिपोर्ट में छपे एक शोध से पता चला है कि समुद्री तापमान में होने वाले परिवर्तन के कारण शार्क के बच्चे समय से पहले ही जन्म ले रहे हैं, साथ ही उनमें पोषण की कमी भी देखी गई है। इस कारण से उनका ज़िंदा रहना चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है एवं वे दुबले-पतले/बौने रह जाते हैं।

वर्ष 2013 में डलहौज़ी युनिवर्सिटी द्वारा किए एक शोध के अनुसार हर साल करीब 10 करोड़ शार्क को मार दिया जाता है। अनुमान है कि यह दुनिया भर में शार्क का करीब 7.9 फीसदी है। वर्ष 2016 में भारत को सबसे अधिक शार्क का शिकार करने वाला देश घोषित किया गया था।

शार्क और रे की 24 से 31 प्रजातियों पर विलुप्ति का संकट मंडरा रहा है जबकि शार्क की तीन प्रजातियां संकटग्रस्त श्रेणी में आ गई है। शोधकर्ताओं ने चिंता जताई है कि हिंद महासागर में वर्ष 1970 के बाद शॉर्क और रे की संख्या लगातार कम हो रही है। यहां तक कि अब तक इनकी आबादी में कुल 84.7 फीसदी तक की कमी आ चुकी है।

सिमोन फ्रेज़र युनिवर्सिटी और युनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर के वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन से पता लगाया कि हिंद महासागर में वर्ष 1970 से अब तक मत्स्याखेट का दबाव 18 गुना बढ़ गया है जिसके कारण निश्चित ही समुद्र के पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव पड़ा है और कई जीव विलुप्त हो रहे हैं। अधिक मात्रा में मछली पकड़े जाने से न केवल शार्क बल्कि रे मछलियों पर भी विलुप्ति का खतरा बढ़ गया है।

दरअसल शार्क शिशुओं को प्रजनन करने लायक होने में सालों लग जाते हैं। अपने जीवन काल में ये कुछ ही बच्चों को जन्म दे पाते हैं। ऐसे में अत्यधिक मात्रा में इन्हें पकड़े जाने से स्वाभाविक रूप से इनकी आबादी में गिरावट आ रही है।

शार्क की विशेष पहचान उसके हमलवार स्वभाव के कारण है, जो समुद्र के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यदि ये शिकारी न हों तो इनके बिना पूरा पारिस्थितिकी तंत्र ही ध्वस्त हो सकता है। बावजूद इसके हमारा ध्यान इनकी सुरक्षा और संरक्षण पर नहीं है।

इनके संरक्षण के लिए वैश्विक स्तर पर कदम उठाने की ज़रूरत है। इनके प्रबंधन के लिए आम लोगों को सहयोग करना होगा ताकि समुद्री प्रजातियों और उनके आवासों को लंबे समय तक संरक्षित किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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जब जीवन के चंद दिन बचें हो…

दि आपको पता चले कि आपकी ज़िंदगी के बस तीन हफ्ते बचे हैं तो आप अपने आखिरी समय में क्या करना चाहेंगे? ऑस्ट्रेलियाई मार्सुपियल जंतु एंटेकिनस के नर का अपने आखिरी समय में उद्देश्य स्पष्ट होता है – अधिक से अधिक संभोग। हालिया अध्ययन में पता चला है कि इस समय में वे अधिक से अधिक प्रणय करने के लिए अपनी नींद तक दांव पर लगा देते हैं।

यह तो हम जानते हैं कि नींद लगभग हर जंतु के लिए ज़रूरी है। मनुष्यों में नींद की कमी से स्मृति ह्रास, पकड़ पर नियंत्रण में कमी जैसी समस्याएं हो सकती है। लेकिन ऐसा देखा गया है कुछ परिस्थितियों में उत्तरजीविता के लिए कुछ प्रजातियां अपनी नींद से समझौता कर सकती हैं। 2012 में ला ट्रोब युनिवर्सिटी के निद्रा विशेषज्ञ जॉन लेस्कु ने देखा था कि पेक्टोरल सैंडपाइपर नामक पक्षी के नर अपने तीन हफ्ते के प्रजनन काल में अधिकतर समय (95 प्रतिशत) जागते रहते हैं। नींद से समझौते का उन्हें फल भी मिलता है: जो पक्षी कम सोते हैं उनकी अधिक संतानें होती हैं।

इन नतीजों ने लेस्कू को एंटेकिनस के बारे में यह जानने के लिए प्रेरित किया कि क्या वे भी प्रजनन सफलता को अधिकतम करने के लिए नींद से समझौता करते हैं?

गौरतलब है कि चूहे जैसे दिखने वाले छोटे, झबरीले नर एंटेकिनस (Antechinus swainsonii) का जीवनकाल मात्र एक साल का होता है। जिसमें उनके जीवन के आखिरी तीन हफ्ते उनका प्रजनन काल होता है, इसके बाद नर एंटेकिनस मर जाते हैं। मादा एंटेकिनस का जीवन नर से थोड़ा लंबा होता है वे अपने शिशुओं की देखभाल के लिए करीब 2 महीने और जीवित रहती हैं, लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में कुछ मादाएं दो प्रजनन काल यानी दो साल तक जीवित रह सकती हैं।

शोधकर्ताओं ने 15 एंटेकिनस का प्रजनन काल से पहले और प्रजनन काल के दौरान प्रयोगशाला में अध्ययन किया।  उनकी गतिविधि समझने के लिए उन पर कॉलर आईडी लगाए, मस्तिष्क गतिविधियों (खासकर नींद) पर नज़र रखने के लिए उनमें सेंसर प्रत्यारोपित किए और टेस्टोस्टेरॉन में परिवर्तन को देखने के लिए उनके रक्त के नमूने लिए। नरों को अलग-अलग रखा गया था, इसलिए उनमें वास्तविक संभोग नहीं हुआ।

टीम ने पाया कि नर एंटेकिनस ने प्रजनन काल में अपनी नींद में प्रति दिन औसतन 3 घंटे की कटौती की थी, यहां तक कि एक नर ने अपनी दैनिक नींद आधी कर दी थी। यह भी पाया गया कि नींद की कमी से उनका टेस्टोस्टेरॉन का स्तर बढ़ गया था, जिससे लगता है कि उनके अधिकाधिक प्रजनन की प्रवृत्ति में यह हारमोन मदद करता है।

इसके अलवा, शोधकर्ताओं ने एंटेकिनस एजिलिस नामक एक अन्य प्रजाति के प्राकृतवास में रह रहे 38 नर और मादा के प्रजनन काल के दौरान रक्त के नमूने लिए। करंट बायोलॉजी में उन्होंने बताया है कि इन जीवों में ऑक्सेलिक अम्ल का स्तर कम पाया गया, जो नींद की कमी का द्योतक है। और तो और, प्रेम-आतुर नर मादाओं को भी सोने नहीं दे रहे होंगे।

हालांकि टीम ने यह नहीं देखा है कि क्या वास्तव में नींद गंवाकर अधिकाधिक संभोग करने से नर की अधिक संतान पैदा हुई या नहीं, लेकिन उनका ऐसा अनुमान है कि इस व्यवहार का संभवत: यही कारण होगा।

फिर भी, नींद में कटौती करने के बावजूद एंटेकिनस दिन का लगभग आधा समय सोते हुए बिता रहे थे जो इस बात का प्रमाण है कि नींद कितनी महत्वपूर्ण है।

बहरहाल, कुछ अनसुलझे सवालों के जवाब पाने के लिए अधिक अध्ययन की ज़रूरत है। जैसे क्या प्रकृति में रह रहे एंटेकिनस को भी उतनी ही नींद की ज़रूरत होती है जितनी प्रयोगशाला में पल रहे एंटेकिनस को, प्रजनन काल के दौरान, नींद की कमी से नर और मादा के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ते हैं, और वे इससे निपटने के लिए क्या करते हैं?

इस संदर्भ में यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि नींद लेने का हमारा तरीका ही एकमात्र तरीका नहीं है। विभिन्न तरह के जंतुओं ने नींद लेने के अपने तरीके विकसित किए हैं। और हमें इस बारे में बहुत कुछ सीखने-समझने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चींटियों ने शेरों की नाक में किया दम

क्सर यह सुनने में आता है कि चींटी अगर हाथी की सूंड में घुस जाए तो वह हाथी को पस्त कर सकती है। यह बात तो ठीक है लेकिन हालिया अध्ययन में यह बात सामने आई है कि चींटियों ने परोक्ष रूप से शेरों की नाक में दम कर दिया है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में यह बात सामने आई है कि अफ्रीकी सवाना जंगलों में मनुष्यों द्वारा पहुंचाई गई बड़ी सिर वाली चींटियों ने वहां की स्थानीय चींटियों का सफाया कर दिया है; ये स्थानीय चींटियां वहां मौजूद बबूल के पेड़ों को हाथियों द्वारा भक्षण से बचाती थीं। इन रक्षक चींटियों के वहां से हटने से हाथियों को बबूल के पेड़ खाने को मिल गए। फिर पेड़ खत्म होने के कारण शेरों को घात लगाकर ज़ेब्रा का शिकार करने की ओट खत्म होती गई। नतीजतन शेरों के लिए ज़ेब्रा का शिकार करना मुश्किल हो गया, और उन्हें ज़ेब्रा की जगह भैंसों को अपना शिकार बनाना पड़ा।

पूर्वी अफ्रीका के हज़ारों वर्ग किलोमीटर में फैले जंगलों में मुख्यत: एक तरह के बबूल (Vachellia drepanolobium) के पेड़ उगते हैं। इस इलाके का अधिकतर जैव पदार्थ (70-99 प्रतिशत) यही पेड़ होता है। और इनकी शाखाओं पर नुकीले कांटे होते हैं। साथ ही साथ इनकी शाखाओं पर खोखली गोल संरचनाएं बनती हैं, जिनमें स्थानीय बबूल चींटियां (Crematogaster spp.) रहती हैं और बबूल का मकरंद पीती हैं। बदले में ये चींटियां शाकाहारी जानवरों, खासकर हाथियों, से पेड़ों को बचाती हैं – कंटीले पेड़ों को खाने आए अफ्रीकी जंगली हाथियों की सूंड में चीटियां घुस जाती हैं, जिसके चलते वे इन्हें खाने का इरादा छोड़ देते हैं।

लेकिन 2000 के दशक की शुरुआत में, हिंद महासागर के एक द्वीप की मूल निवासी बड़े सिर वाली चींटियां (Pheidole megacephala) केन्या में पहुंच गईं – संभवत: मनुष्यों ने ही उन्हें वहां पहुंचाया था। केन्या पहुंचकर इन चींटियों ने बबूल पर बसने वाली चीटिंयों पर हमला करना शुरू किया और उनके शिशुओं को खाने लगीं। जब पेड़ों के रक्षक ही सलामत नहीं बचे, तो फिर पेड़ कैसे सलामत बचते। नतीजतन हाथी अब मज़े से कंटीले पेड़ खाने लगे और सवाना जंगलों में इन पेड़ों की संख्या गिरने लगी।

पेड़ों के इस विनाश को देखते हुए व्योमिंग विश्वविद्यालय के वन्यजीव पारिस्थितिकीविज्ञानी जैकब गोहेन जानना चाहते थे कि इस विनाश ने अन्य प्राणियों को कैसे प्रभावित किया होगा, खासकर शेर को। क्योंकि शेर पेड़ों की ओट में घात लगाकर अपना शिकार बड़ी कुशलता से कर लेते हैं। तो क्या इस कमी ने शेरों के लिए ज़ेब्रा का शिकार करना मुश्किल बनाया होगा?

इसके लिए उन्होंने 360 वर्ग किलोमीटर से अधिक के क्षेत्र में फैले सवाना जंगलों में, ढाई-ढाई हज़ार वर्ग मीटर के एक दर्ज़न अध्ययन भूखंड चिन्हित किए। हर अध्ययन भूखंड पर शोधकर्ताओं की एक टीम ने वहां के परिदृश्य में दृश्यता, मैदानी ज़ेब्रा का आबादी घनत्व, बड़े सिर वाली चींटियों का आगमन और शेरों द्वारा ज़ेब्रा के शिकार पर नज़र रखी। साथ ही छह शेरनियों पर जीपीएस कॉलर भी लगाए ताकि यह देखा जा सके कि इन भूखंडों में उनकी हरकतें कैसी रहती हैं।

तीन साल की निगरानी के बाद शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन पेड़ों से वहां की स्थानीय बबूल चींटियां नदारद थीं, हाथियों ने उन पेड़ों का सात गुना अधिक तेज़ी से विनाश किया बनिस्बत उन पेड़ों के जिनमें स्थानीय संरक्षक चींटियां मौजूद थीं। जहां पेड़ और झाड़ियों का घनापन नाटकीय रूप से छंट गया है, वहां शेरों के लिए ज़ेब्रा पर हमला करना मुश्किल हो गया है। इसके विपरीत, बड़े सिर वाली चींटियों से मुक्त क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में कंटीले पेड़ और उनकी झुरमुट थी, जहां शेर छिप सकते थे। नतीजतन इन जगहों पर शेर ज़ेब्रा के शिकार में तीन गुना अधिक सक्षम थे।

इन निष्कर्ष से यह बात और स्पष्ट होती है कि कोई भी पारिस्थितिकी तंत्र आपस में कितना गुत्थम-गुत्था और जटिल होता है – यदि आप इसकी एक चीज़ को भी थोड़ा यहां-वहां करते हैं तो पूरा तंत्र डगमगा जाता है।

लेकिन इन नतीजों से यह सवाल उभरा कि जब कम घने क्षेत्र में शेर अपने शिकार (ज़ेब्रा) से चूक रहे हैं तब भी उनकी आबादी स्थिर कैसे है? इसी बात को खंगालने वाले अन्य अध्ययनों ने पाया है कि 2003 में 67 प्रतिशत ज़ेब्रा शेरों के शिकार के कारण मरे थे, जबकि 2020 में केवल 42 प्रतिशत ज़ेब्रा शिकार के कारण मरे। इसी दौरान, शेरों द्वारा अफ्रीकी भैंसे का शिकार शून्य प्रतिशत से बढ़कर 42 प्रतिशत हो गया। यानी शेरों ने अपना शिकार बदल लिया है।

फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि यह परिवर्तन टिकाऊ है या नहीं। क्योंकि शेरों के लिए भैंसों को मारना बहुत मुश्किल है। ज़ेब्रा की तुलना में भैसों में बहुत अधिक ताकत होती है, और भिड़ंत में कभी-कभी भैंस शेरों को मार भी डालती है।

यह भी समझने वाली बात है कि यदि भैसों का शिकार जारी रहा तो क्या उनकी संख्या घटने लगेगी, और यदि हां तो तब शेरों का क्या होगा? और ज़ेब्रा की संख्या बढ़ने से जंगल की वनस्पति किस तरह प्रभावित होगी? साथ ही यह भी देखने की ज़रूरत है कि बड़े सिर वाली चींटियां कैसे फैलती हैं ताकि उनके प्रसार को रोकने के प्रयास किए जा सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टार्डिग्रेड के ‘अमृत तत्व’ का पता चला

न्हें टार्डिग्रेड्स की खासियत है कि वे अति दुर्गम परिस्थितियों – निर्वात से लेकर परम शून्य के तापमान – में जीवित रह सकते हैं। अब वैज्ञानिकों ने टार्डिग्रेड्स में इस खासियत के कारण की पहचान कर ली है – यह एक प्रकार का आणविक स्विच है जो दुर्गम परिस्थितियों में सुप्तावस्था को शुरू करता है।

दरअसल जब मार्शल युनिवर्सिटी के रसायनज्ञ डेरिक कोलिंग ने एक ऐसी मशीन, जो ‘मुक्त मूलकों’ या अयुग्मित इलेक्ट्रॉन से लैस परमाणुओं का पता लगाती है, में टार्डिग्रेड को डाला तो उन्होंने टार्डिग्रेड में मुक्त मूलक उत्पन्न होते देखे। हालांकि टार्डिग्रेड में मुक्त मूलक दिखना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी क्योंकि जीवों की सामान्य चयापचय प्रक्रिया और धुआं व अन्य प्रदूषक जैसे पर्यावरणीय तनाव के कारण कोशिकाओं में मुक्त मूलक बनते ही हैं।

जब बहुत सारे मुक्त मूलक जमा हो जाते हैं तो स्थिरता प्राप्त करने के लिए वे अपने आसपास से इलेक्ट्रॉनों को हड़प लेते हैं। इस प्रक्रिया में, ये मुक्त मूलक कोशिकाओं और डीएनए एवं प्रोटीन जैसे यौगिकों को नुकसान पहुंचाते हैं। लेकिन यदि यही मुक्त मूलक कम मात्रा में मौजूद हो तो ये संकेतक की तरह काम कर सकते हैं।

दूसरी ओर, रसायनशास्त्री लेसली हिक्स अपने अध्ययन में देख रही थीं कि जब इन मूलकों को विभिन्न प्रकार के प्रोटीन के साथ जोड़ा और हटाया जाता है तो ये कोशिका के व्यवहार को किस तरह प्रभावित करते हैं।

टार्डिग्रेड में मुक्त मूलक के कोलिंग के अवलोकन ने हिक्स को यह जानने की दिशा में मोड़ा कि क्या दुर्गम परिस्थितियों में ऐसे ही मुक्त मूलक टार्डिग्रेड को जीवित रहने में मदद करते हैं? इसके लिए शोधकर्ताओं ने टार्डिग्रेड के लिए एक अस्थायी दुर्गम, तनावपूर्ण और मुक्त मूलक बनाने वाला वातावरण बनाया। और टार्डिग्रेड पर नज़र रखी कि क्या इन परिस्थितियों में टार्डिग्रेड्स ने सुरक्षात्मक स्थिति में प्रवेश किया, और यदि किया तो क्या जीवन परिस्थितियां बहाल होने पर वे वापस सामान्य स्थिति में लौट सके और अपनी सामान्य गतिविधि शुरू कर सके?

साथ ही देखा कि क्या मुक्त मूलकों और सिस्टीन (प्रोटीन का एक अमीनो अम्ल) के बीच संकेतन तंत्र निष्क्रियता में भूमिका निभाता है? यह देखने के लिए शोधकर्ताओं ने टार्डिग्रेड का ऐसे विभिन्न प्रकार के अणुओं से संपर्क कराया जो सिस्टीन ऑक्सीकरण को अवरुद्ध करते हैं। उन्होंने पाया कि तनावपूर्ण परिस्थितियों में जब मुक्त कणों के लिए सिस्टीन मौजूद नहीं था तब टार्डिग्रेड निष्क्रिय नहीं हो सके।

ये नतीजे पूर्व अध्ययन के नतीजों को समर्थन देते हैं जो बताते हैं कि निर्जलीकरण सहनशील कीट मिज में सिस्टीन ऑक्सीकरण की भूमिका है। इससे लगता है कि दूभर स्थितियों में निष्क्रिय होने या ऐसे ही अन्य अवस्थाओं में जाने के लिए जीवों में एक साझा ट्रिगर हो सकता है।

बहरहाल, टार्डिग्रेड्स में मुक्त मूलकों के कार्य को समझने के लिए अधिक अध्ययन की ज़रूरत है। वहीं दूभर स्थिति से निपटने में निष्क्रिय हो जाने के अलावा अन्य रणनीतियों पर भी गहन अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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