जलवायु परिवर्तन और भारत की चुनौतियां – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

न्यूयॉर्क में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर हाल ही में आयोजित बैठक में स्वीडिश छात्रा ग्रेटा थनबर्ग ने सौ से भी अधिक देशों के प्रतिनिधियों को दो तीखे बयान दिए। पहला, “आपने अपनी खोखली बातों से मुझसे मेरा बचपन छीन लिया।” और दूसरा, “आप सभी, हम युवाओं के पास (पर्यावरण को पहुंचे नुकसान को कम करने की…) उम्मीद लेकर आए हैं। आप लोगों की हिम्मत कैसे हुई?” जैसा कि ग्रेटा के वक्तव्य पर दी हिंदू के 1 नवंबर के अंक में कृष्ण कुमार का संवेदनशील विश्लेषण कहता है, वहां मौजूद (देश के प्रतिनिधि) श्रोताओं ने यह नहीं स्वीकारा कि जलवायु परिवर्तन के लिए उनके उद्योग ज़िम्मेदार हैं; इसकी बजाय वे इस बात पर सहमत हुए कि वे आने वाले दशक में कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के सुविधाजनक लक्ष्यों को पूरा करेंगे। कृष्ण कुमार अपने लेख में आगे बताते हैं कि ना सिर्फ हर अमीर देश, बल्कि सभी देशों में रहने वाले प्रत्येक अमीर व्यक्ति को अब भी यह लगता है कि वे अपने और अपनी संतानों के लिए जलवायु परिवर्तन की समस्याओं से राहत खरीद सकते हैं और उन्हें जलवायु परिवर्तन के परिणामों से बचा सकते हैं।

कार्बन-प्रचुर जीवाश्म र्इंधन को जला-जलाकर, जो 1750 के दशक में औद्योगिक क्रांति के साथ शुरू हुआ था, ही पृथ्वी का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। तापमान में यह वृद्धि मानव जीवन, जानवरों, पेड़-पौधों और सूक्ष्मजीवों को प्रभावित कर रही है। समुद्र गर्म हो रहे हैं, बर्फ पिघल रही है, और इसलिए ग्रेटा का यह आरोप पत्र है।

भारत की चुनौतियां

2015 में दुनिया भर के देश पेरिस में इकट्ठे हुए थे और तब 197 देशों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे कि वे साल 2030 तक वैश्विक तापमान को उद्योग-पूर्व स्तर से 1.5 डिग्री से अधिक नहीं होने देंगे। इन हस्ताक्षरकर्ता देशों में भारत भी शामिल था। विष्णु पद्मनाभन ने अपने ब्लॉग में भारत के समक्ष तीन बड़ी जलवायु चुनौतियों का ज़िक्र किया है। भारत ने वादा किया है कि वह साल 2015 की तुलना में, साल 2030 तक अपने कार्बन उत्सर्जन को 33-35 प्रतिशत तक कम करेगा। ऐसा लगता है कि यह ज़रूरी है और इसे पूरा भी किया जा सकता है। लेकिन इसे पूरा करने में भारत के सामने पहली चुनौती यह है कि भारत का ज़्यादातर कार्बन उत्सर्जन (लगभग 68 प्रतिशत) ऊर्जा उत्पादन से होता है, जो अधिकतर कोयला आधारित है। इसके बाद उद्योगों (लगभग 20 प्रतिशत) और खेती, खाद्य और भूमि उपयोग (10 प्रतिशत) का नंबर है। इसलिए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम ऊर्जा के अन्य साधनों या रुाोतों का उपयोग करें, जैसे पनबिजली, पवन, सौर, नाभिकीय ऊर्जा वगैरह। भारत को उम्मीद है कि वह अपनी 40 प्रतिशत ऊर्जा इस तरह के गैर-कोयला रुाोतों से प्राप्त कर पाएगा।

दूसरी चुनौती: खेती, भूमि उपयोग और जल संसाधनों की बात करें तो ये भी जलवायु परिवर्तन में योगदान देते हैं। कैसे? न्यूनतम समर्थन मूल्य, सब्सिडी (रियायतें), 24 घंटे मुफ्त बिजली प्रदाय और अधिक पानी की ज़रूरत वाली फसलें इसके कुछ कारण हैं। समय आ गया है कि हमें इन्हें रोकें और जांचे-परखे तरीकों को अपनाएं और नवाचारी तरीकों पर काम करें। इनमें से कुछ तरीके हैं ड्रिप या टपक सिंचाई (जैसा कि इरुााइल ने किया है), एयरोबिक खेती (जो पानी की बचत के लिए खेती का एक तरीका है और इसमें खास गुणधर्मों के विकास पर शोध किया जाता है ताकि जड़ें अच्छे से फैलें और ज़मीन में गहराई तक जाएं (जैसा कि बैंगलुरू की युनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंस ने किया है), बेहतर और अधिक पौष्टिक अनाज। भारत की सबसे अधिक पानी की खपत करने वाली फसल धान पर इस तरीके को आज़मा कर पानी की बचत की जा सकती है। किसानों के बीच अधिक पौष्टिक किस्मों (जैसे सीसीएमबी और एनआईपीजीआर द्वारा विकसित साम्बा मसूरी) को बढ़ावा देना चाहिए। इत्तफाकन इस किस्म में कार्बोहाईड्रेट भी कम है तो यह डायबिटीज़ के मरीज़ों के लिए अच्छी भी है। नरवाई (पराली) जलाना पूरी तरह बंद होना चाहिए, हमें इसके बेहतर रास्ते तलाशने होंगे। इसके लिए किसी रॉकेट साइंस की ज़रूरत नहीं है, भारतीय वैज्ञानिक और तकनीकी विशेषज्ञ यह कर सकते हैं। उन्हें इससे निपटने के बेहतर और सुरक्षित तरीके ढूंढने चाहिए।

और तीसरी चुनौती है प्राकृतिक तरीकों से वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर को कम करना। इसके लिए वनीकरण और स्थानीय किस्मों के पौधारोपण बढ़ाना चाहिए। यहां फिलीपींस सरकार द्वारा उठाए गए कदमों का अनुसरण करना फायदेमंद होगा। फिलीपींस में प्रत्येक छात्र/छात्रा को अपना स्कूली प्रमाण पत्र या कॉलेज की डिग्री प्राप्त करने के पहले 10 स्थानीय पेड़ लगाकर उनकी देखभाल करनी होती है। दरअसल स्थानीय पेड़ पानी सोखकर उसे जमीन में पहुंचाते हैं। भारत ने वृक्षारोपण और वनीकरण के माध्यम से अतिरिक्त ‘कार्बन सोख्ता’ बनाने की योजना बनाई है ताकि ढाई से तीन अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड कम की जा सके।

स्वास्थ्य के मुद्दे

कई अध्ययन बताते हैं कि कैसे जलवायु परिवर्तन और बढ़ता वैश्विक तापमान धीरे-धीरे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बन गए हैं। 2010 में दी न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एमिली शुमैन का पेपर – वैश्विक जलवायु परिवर्तन और संक्रामक रोग (Global climate change and infectious diseases) – बताता है कि जब हम जीवाश्म र्इंधन जलाते हैं तो तापमान में वृद्धि होती है, जिससे ग्रीष्म लहर (लू) चलती है और भारी वर्षा होती है। यह कीटों (और उनमें पलने वाले जीवाणुओं और वायरस) के पनपने के लिए माकूल वातावरण होता है। गर्म होती जलवायु की बदौलत ही हैजा, डायरिया जैसे जल-वाहित रोगों के अलावा मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसी बीमारियां भी बढ़ी हैं। ये बीमारियां हर भौगोलिक परिवेश में बढ़ रही हैं: पहाड़ी इलाके, ठंडे इलाके, रेगिस्तान जैसे गर्म इलाके और तटीय इलाके। इसी संदर्भ में वी. रमना धारा द्वारा साल 2013 में इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में प्रकाशित एक अन्य महत्वपूर्ण पेपर – जलवायु परिवर्तन और भारत में संक्रामक रोग: स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के लिए निहितार्थ (Climate change and infectious diseases in India: implications for health care providers) – बताता है कि किस तरह समुद्र की सतह के बढ़ते तापमान के कारण ऊष्णकटिबंधीय इलाकों में चक्रवात और तूफानों की संख्या बढ़ रही है जिससे बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के तटीय इलाकों में प्रदूषित पानी, अस्वास्थ्यकर परिस्थितियां, जनसंख्या का विस्थापन, विषैलापन, भूख और कुपोषण जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं। कुछ बीमारियां जानवरों से मानवों में फैलती हैं और कुछ मानव से मानव में। इसका सबसे हालिया उदाहरण है निपाह वायरस जो चमगाड़ों से मानव में फैलता है। इस मामले में केरल सरकार द्वारा उठाए गए त्वरित कदम सराहनीय हैं जिसमें सरकार ने संक्रमित लोगों को अलग-थलग करने की फौरी व्यवस्था की थी।

सौभाग्य से, हमारी कई प्रयोगशालाएं और दवा कंपनियां, अन्य बीमारियों के लिए स्थानीय वनस्पति रुाोतों से दवाइयों और टीकों का निर्माण करने में स्वयं व अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर अनुसंधान कर रही हैं। हम इस कार्य को बखूबी कर सकते हैं और विश्व में इस क्षेत्र के अग्रणी भी बन सकते हैं। ध्यान रखने वाली बात है कि हमारी दवा कंपनियां विश्व भर में लोगों को वहनीय कीमत पर दवाइयां उपलब्ध कराती रही हैं, हमारी दवा कंपनियां विश्व के लगभग 40 प्रतिशत बचपन के टीके उपलब्ध कराती हैं और इनमें से कुछ दवा कंपनियां मौजूदा महामारियों के टीके बनाने के लिए प्रयासरत हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल – एस. अनंतनारायण

तीत में हुर्इं जलवायु परिवर्तन से जुड़ी आपदाओं ने बड़ी संख्या में प्रजातियों को खत्म कर दिया था, लेकिन उस वक्त कई प्रजातियों को इतना वक्त मिला था कि वे इस परिवर्तन के साथ तालमेल बना सकीं और बेहतर समय आने तक अपने वंश को जीवित रख सकीं। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग की हालिया रफ्तार को देखते हुए एक सवाल यह उठता है कि क्या वर्तमान जलवायु परिवर्तन प्रकृति को इतनी गुंजाइश देगा।

इस संदर्भ में विक्टोरिया रैडचक और जर्मनी, आयरलैंड, फ्रांस, नेदरलैंड, यू.के., चेक गणतंत्र, बेल्जियम, स्वीडन, कनाडा, स्पेन, यू.एस., जापान, फिनलैंड, नॉर्वे, स्विटज़रलैंड और पोलैंड के 60 अन्य वैज्ञानिकों ने नेचर कम्युनिकेशंस जर्नल में प्रकाशित पेपर में इस सवाल का जवाब देने का प्रयास किया है। यह पेपर 58 पत्रिकाओं में प्रकाशित 10,090 अध्ययनों के सार और 71 अध्ययनों के डैटा पर आधारित है। इसमें उन्होंने इस बात का आकलन किया है कि जीवों में हो रहे शारीरिक बदलाव क्या जलवायु परिवर्तन के साथ अनुकूलन बनाने की दृष्टि से हो रहे हैं। अध्ययन के अनुसार कई प्रजातियों में तो अनुकूलन हो रहा है लेकिन अधिकांश प्रजातियां इस दौड़ में हारती नज़र आ रही हैं।

अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन प्रजातियों के जीवित रहने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है और प्रजातियों की विलुप्ति के चलते पारिस्थितिक तंत्र में प्रजातियों के परस्पर समर्थक संतुलन में कमी आती है। जीव अपनी आबादी को तब ही बनाए रख सकते हैं जब उनमें जलवायु परिवर्तन की प्रतिक्रिया स्वरूप इस तरह के शारीरिक या व्यावहारिक  बदलाव हों, जो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करते हों या उसके अनुकूल हों। ऐसा या तो शारीरिक अनुकूलन के द्वारा हो सकता है (जैसे आहार में परिवर्तन के साथ-साथ पाचक रसों में परिवर्तन) या विकास के छोटे-छोटे कदमों से हो सकता है, या फिर किसी अन्य क्षेत्र में प्रवास करने से संभव हो सकता है। लेकिन शारीरिक अनुकूलन में भी वक्त लगता है। जैसे पर्वतारोही अधिक ऊंचाइयों पर चढ़ने के पहले बीच में रुककर खुद को पर्यावरण के अनुरूप ढालते हैं, तब आगे चढ़ाई करते हैं। किसी प्रजाति में वैकासिक परिवर्तन पर्यावरण के प्रति ज़्यादा अनुकूलित किस्मों के चयन द्वारा होता है, और ऐसा होने में तो कई पीढ़ियां लग जाती हैं। पेपर के अनुसार, प्रजातियों की संख्या का पूर्वानुमान लगाने और योजनाबद्ध तरीके से हस्तक्षेप करने के लिए यह पता करना महत्वपूर्ण है कि पिछले कुछ दशकों में प्रजातियों में आए बदलावों में से कितने ऐसे हैं जो जलवायु परिवर्तन के जवाब में हुए हैं।

अनुकूलन का एक उदहारण है  – प्रजनन करने या अंडे देने का समय इस तरह बदलना कि उस समय संतान को खिलाने के लिए भोजन के स्रोत प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हों। लेखकों ने एक अध्ययन का हवाला देते हुए बताया है कि यूके में पिछले 47 वर्षों में पक्षियों की एक प्रजाति के अंडे देने का समय औसतन 14 दिन पहले खिसक गया है। अध्ययन के अनुसार यह एक ऐसा मामला है जहां “पर्यावरण के हिसाब से एक-एक जीव के व्यवहार में बदलाव ने पूरी प्रजाति को तेज़ी से बदलते परिवेश के साथ बारीकी से समायोजन करने में सक्षम बनाया है।”

एक अन्य अध्ययन में, प्रतिकूल-अनुकूलन का एक मामला सामने आया है। एक पक्षी प्रजाति है जो आर्कटिक ग्रीष्मकाल के दौरान प्रजनन करती है। जब ये पक्षी जाड़ों में उष्णकटिबंधीय इलाके की ओर पलायन करते हैं तब वे काफी अनफिट साबित होते हैं। गर्मियों में जन्मे चूज़ों में अनुकूलन यह होता है कि वे छोटे आकार के होते हैं ताकि शरीर से अधिक ऊष्मा बिखेरकर गर्मियों का सामना अधिक कुशलता से कर सकें। लेकिन छोटे पक्षियों की चोंच भी छोटी होती है जिससे उनको सर्दियों में प्रवास के दौरान काफी नुकसान होता है क्योंकि इन इलाकों में भोजन थोड़ा गहराई में दबा होता है और छोटी चोंच के कारण वे पर्याप्त भोजन नहीं जुटा पाते।

रेनडियर जैसे शाकाहारी ऐसे मौसम में संतान पैदा करने के लिए विकसित हुए थे जब पौधे उगने का सबसे अच्छा मौसम होता है। प्रजनन काल तो दिन की लंबाई से जुड़ा होने के कारण यथावत रहा जबकि पौधों की वृद्धि का मौसम स्थानीय तापमान से जुड़ा था। जलवायु परिवर्तन के साथ यह समय बदल गया (जबकि दिन-रात की अवधि नहीं बदली)। एक अध्ययन के अनुसार इन प्राणियों में मृत्यु दर तो बढ़ी ही है, साथ-साथ जन्म दर में चार गुना कमी आई है।

वैसे तो समय के साथ सभी प्रजातियों के रूप और व्यवहार में परिवर्तन होते हैं, लेकिन इस अध्ययन का उद्देश्य उन परिवर्तनों की पहचान करना था जो जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन के उदाहरण हों। इस पेपर के अनुसार ऐसा तभी माना जा सकता है जब तीन चीज़ें हुई हों। पहली यह कि जलवायु परिवर्तन हुआ हो। दूसरी यह कि जीवों की शारीरिक विशेषताओं में बदलाव सिर्फ जलवायु परिवर्तन के कारण हुआ हो, किसी अन्य कारण से नहीं। और तीसरी यह कि परिवर्तन उन लक्षणों के चयन के कारण हुआ हो जो जीवों को जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करते हैं।

लेखकों के अनुसार तीसरी स्थिति के परीक्षण के लिए ऐसे डैटा की आवश्यकता होगी जो किसी एक प्रजाति की निश्चित आबादी की कई पीढ़ियों के लिए एकत्रित किए गए हों। शोधकर्ताओं की इस विशाल टीम ने उन अध्ययनों को खोजा है जो इस बात की पड़ताल करते हैं कि तापमान और वर्षा या दोनों विभिन्न जीवों की शारीरिक बनावट या जीवन की घटनाओं को किस तरह प्रभावित करते हैं। विशाल उपलब्ध डैटा में से उन्हें पक्षियों के सम्बंध में उपयोगी जानकारी मिली। और यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि पक्षियों के बारे में लंबी अवधियों की जानकारी प्राप्त करना अपेक्षाकृत आसान है – घोंसला बनाने का समय, अंडे देने और उनके फूटने का समय, और गतिशीलता।

पेपर के अनुसार, जलवायु परिवर्तन पर जीवों की प्रतिक्रिया सम्बंधी कई पूर्व में किए गए अध्ययन प्रजातियों के फैलाव और उनकी संख्या में आए बदलाव पर केंद्रित थे। जलवायु परिवर्तन के चलते जीवों के व्यवहार, आकार या शरीर विज्ञान में हो रहे परिवर्तनों का अध्ययन बहुत कम किया गया है। और प्रजातियों के फैलाव तथा आबादी की गणना करने वाले मॉडल्स में इस संभावना को ध्यान में नहीं रखा गया था कि प्रजाति में अनुकूलन भी हो सकता है। लिहाज़ा, लेखकों के अनुसार उनके वर्तमान “अध्ययन ने बदलते पर्यावरण में प्रजातियों की प्रतिक्रियाओं के समयगत पहलू पर ध्यान केंद्रित करके महत्वपूर्ण योगदान दिया है।” उनके अनुसार “हमने दर्शाया है कि कुछ पक्षियों ने गर्म जलवायु के मुताबिक अपने जीवनचक्र की घटनाओं के समय को बदल लिया है। अध्ययन इस बात को रेखांकित करता है कि प्रजातियां अपनी ऊष्मा सम्बंधी ज़रूरतों का समाधान उसी स्थान पर खोज सकती हैं और इसके लिए भौगोलिक सीमाओं में बदलाव ज़रूरी नहीं है। अलबत्ता, हमें सभी प्रजातियों में जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन के प्रमाण नहीं मिले हैं, और इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि अनुकूल परिवर्तन करने वाले जीव भविष्य में बने ही रहेंगे।”

लेखक आगे बताते हैं कि जिन प्रजातियों का अध्ययन किया गया है वे सुलभ और काफी संख्या में उपलब्ध हैं और इनके बारे में डैटा आसानी से एकत्रित किया जा सकता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि “हमें डर है कि दुर्लभ और लुप्तप्राय प्रजातियों की आबादियों की निरंतरता का पूर्वानुमान अधिक निराशाजनक होगा।”

निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि इस सदी के अंत तक बहुत-सी प्रजातियों के विलुप्त होने की संभावना है जो काफी चिंताजनक है। ऐसे कई लोग हैं जो यह मानते हैं कि जैव तकनीक ही वह नैया है जो हमें 21 सदी पार करा देगी।

सच है, उपरोक्त अध्ययन वनस्पति प्रजातियों पर नहीं हुए हैं। जलवायु परिवर्तन से पेड़-पौधे भी प्रभावित होते हैं। और जंतु वनस्पतियों पर निर्भर होते हैं। इस अध्ययन के परिणाम शायद बैक्टीरिया और सूक्ष्मजीवों के मामले में भी सच्चाई से बहुत दूर न हों। इसलिए जैव विविधता में भारी गिरावट वनस्पति जगत में भी दिखाई देगी और आने वाले दशकों में यह पौधों की भूमिका के लिए ठीक नहीं होगा जिसको लेकर हम इतने आश्वस्त हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बैटरी चार्जिंग मात्र 10 मिनट में

कार कंपनियां काफी संख्या में बिजली-चालित वाहन (ईवी) बेच रही हैं। इलेक्ट्रिक वाहन की सबसे बड़ी समस्या इसके चार्ज होने का समय है। पेट्रोल-डीज़ल से चलने वाले वाहनों में जहां कुछ ही मिनटों में र्इंधन भरा सकता है, वहीं बिजली से चलने वाले वाहनों को सुपरचार्जर की मदद से चार्ज होने में भी 50 मिनट तक का समय लग जाता है। लेकिन एक नई तकनीक के उपयोग से इसमें बदलाव आ सकता है। 

बैटरी चार्जिंग की गति को बढ़ाने का एक तरीका तो यह है कि चार्जिंग के दौरान बैटरी का तापमान बढ़ाकर रखा जाए। तापमान बढ़ने पर बैटरी के अंदर की रासायनिक अभिक्रियाएं तेज़ हो जाती हैं। लेकिन उच्च तापमान पर बैटरी के घटक जल्दी खराब हो सकते हैं।

अब शोधकर्ताओं ने एक नई तकनीक खोज निकाली है। उनके अनुसार यदि चार्जिंग के दौरान बैटरी का तापमान बीच-बीच में कुछ समय के लिए बढ़ाया जाए तो घटकों के बिगड़ने की प्रक्रिया को रोका जा सकता है और चार्जिंग भी तेज़ी से किया जा सकता है। एक चार्जिंग उपकरण को केवल 10 मिनट के लिए 60 डिग्री सेल्सियस तक गर्म करके वे लीथियम आयनों को ग्रेफाइट की परतों में शामिल करने में कामयाब रहे। एनोड का संघटन यही होता है। यह बैटरी को रिचार्ज करने का प्रमुख चरण होता है। जूल पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यदि इस प्रक्रिया को बड़े पैमाने पर लागू किया जा सके तो पारंपरिक लीथियम आयन बैटरियों की ड्राइविंग रेंज को 320 किलोमीटर बढ़ाया जा सकता है। परीक्षण के दौरान गर्म की गई बैटरियां काफी स्थिर रहीं और 1700 बार चार्ज-डिस्चार्ज करने के बाद भी उनमें ज़्यादा बिगाड़ नहीं हुआ।  

आगे शोधकर्ता चार्जिंग समय को और कम करके आधा करने की कोशिश कर रहे हैं ताकि बिजली चालित वाहनों को 5 मिनट में चार्ज किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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नन्हे ब्लैक होल भी संभव हैं

ब्लैक होल विशाल खगोलीय पिंड हैं जो आसपास की हर चीज़ को निगल जाते हैं। इनका गुरुत्वाकर्षण इतना अधिक होता है कि प्रकाश तक इससे बच नहीं सकता। ब्लैक होल मूलत: विशाल तारे ही थे जो विस्फोटक अंत के बाद ब्लैक होल में परिवर्तित हुए हैं, इसलिए इनके अध्ययन से ब्रह्मांड के कामकाज और तारों के जन्म और मृत्यु की गाथा तैयार करने में मदद मिलती है।

तारों के ऐसे विस्फोटक अंत और पतन के बाद दो अलग-अलग तरह के पिंड बन सकते हैं। यदि मूल तारा पर्याप्त विशाल था, तो विस्फोट के बाद वह ब्लैक होल बन जाता है, अन्यथा वह एक छोटे न्यूट्रॉन तारे में परिवर्तित हो जाता है।

ब्लैक होल जब अपने आसपास के तारों से पदार्थ चूसते हैं तब एक्स किरणों का उत्सर्जन होता है। इन्हीं एक्स किरणों की मदद से ब्लैक होल का पता चलता है। दूसरी ओर, दूर की निहारिकाओं में, दो ब्लैक होल के विलय या न्यूट्रॉन तारों की टक्कर से उत्पन्न होने वाली गुरुत्व तरंगें इनका सुराग देती हैं। 

शोधकर्ताओं के एक समूह ने सोचा कि क्या अपेक्षाकृत कम द्रव्यमान वाले ब्लैक होल भी हो सकते हैं जो लाक्षणिक एक्स-किरणों का उत्सर्जन नहीं करेंगे। एक संभावना यह है कि ऐसा कोई (फिलहाल काल्पनिक) ब्लैक होल किसी अन्य तारे के साथ बाइनरी तंत्र में मौजूद हो। इसमें वह दूसरे तारे से इतना दूर हो सकता है कि वह उसके पदार्थ को ज़्यादा न निगल सके। ये छोटे ब्लैक होल इतनी एक्स-किरणों का उत्सर्जन नहीं करेंगे जिन्हें देखा जा सके। तो ये खगोलविदों की नज़रों से अदृश्य रहेंगे।  

थॉमसन की टीम ने ऐसे संभावित ब्लैक होल की तलाश में बाइनरी सिस्टम के उस दूसरे पिंड में सबूत खोजने की कोशिश की है। शोधकर्ताओं ने एपोजी दूरबीन में उपलब्ध प्रकाश वर्णक्रम की जानकारी को खंगाला। यहां आकाशगंगा के 1 लाख से अधिक तारों द्वारा उत्सर्जित विभिन्न तरंग लंबाइयों के प्रकाश सम्बंधी जानकारी थी।   

इस सर्वेक्षण से प्राप्त जानकारी से प्रत्येक तारे के बदलते वर्णक्रम यानी उनसे निकलने वाले प्रकाश में बदलती तरंग लंबाइयों का पता चला। यदि शोधकर्ता वर्णक्रम में किसी भी प्रकार का बदलाव देखते यानी यदि उसकी तरंग लंबाइयां लाल या नीले रंग की ओर खिसकती दिखती तो इसका मतलब यह होता कि वह तारा एक अनदेखे साथी के साथ परिक्रमा कर रहा है।

इसके बाद, शोधकर्ताओं ने एक अन्य सर्वेक्षण आल-स्काई ऑटोमेटेड सर्वे फॉर सुपरनोवा की मदद से उन तारों की चमक में बदलाव को देखा जिनके बारे में संदेह था कि वे ब्लैक होल की परिक्रमा कर रहे हैं। उन्होंने उन तारों की खोज की जिनका प्रकाश लाल और नीले की ओर सरकने के साथ-साथ तेज़-मद्धिम भी हो रहा था।  

इस प्रकार शोधकर्ताओं ने पाया कि आकाशगंगा में 10,000 प्रकाश वर्ष दूर औरिगा तारामंडल के पास एक तारा है जो किसी एक विशाल अदृश्य पिंड के साथ गुरुत्वाकर्षण से बंधा लगता है। अनुमान है कि उस अदृश्य पिंड का द्रव्यमान सूर्य से 3.3 गुना अधिक होगा। यह एक न्यूट्रॉन तारे की तुलना में काफी बड़ा है लेकिन इतना भी बड़ा नहीं कि इसकी तुलना किसी ज्ञात ब्लैक होल से की जा सके। सबसे बड़े ज्ञात न्यूट्रॉन स्टार का द्रव्यमान सूर्य से 2.1 गुना ज़्यादा है जबकि सबसे छोटा ज्ञात ब्लैक सूर्य के मुकाबले 5-6 गुना वज़नी है।

ब्रह्मांड विज्ञानी डेजन स्टोकोविक का विचार है कि यह शायद कम द्रव्यमान का ब्लैक होल है। दूसरी ओर थॉमसन का विचार है कि यह संभवत: आज तक ज्ञात सबसे वज़नी न्यूट्रॉन स्टार है। इतना तो तय है कि यह एक आसाधारण तारा है। (स्रोत फीचर्स)

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पफरफिश को तनाव-मुक्त रखता है विष

टेट्रॉडोटॉक्सिन ज़हर पफरफिश का घातक हथियार है। यह ज़हर ऐसा खतरनाक तंत्रिका विष है कि एक अकेली पफरफिश में मौजूद इसकी मात्रा दर्जनों शिकारियों को पंगु कर सकती है और मार सकती है। और यदि कोई मनुष्य पफरफिश का मांस खा ले तो पंगु हो सकता है। लेकिन टॉक्सिकॉन पत्रिका में प्रकाशित ताज़ा अध्ययन बताता है कि यह ज़हर स्वयं पफरफिश में सर्वथा अलग उद्देश्य की पूर्ति करता है: यह पफरफिश को तनाव-मुक्त रखता है।

टेट्रॉडोटॉक्सिन (TTX) दरअसल एक तंत्रिका विष है। टाइगर पफरफिश (Takifugu rubripes) स्वयं TTX नहीं बनातीं बल्कि अपने आहार में शामिल बैक्टीरिया द्वारा बनाए गए TTX को अपने अंगों और त्वचा में जमा करके रखती है। प्रयोगशाला में देखा गया है कि जिन पफरफिश के आहार में बदलाव किया गया उन्होंने अपनी विषाक्तता खो दी थी। 

विकसित होती पफरफिश को TTX किस तरह प्रभावित करता है यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में एक महीने तक कुछ युवा पफरफिश के आहार में शुद्ध TTX मिलाया। अध्ययन में पाया गया कि TTX रहित आहार वाली पफरफिश की तुलना में TTX युक्त आहार वाली पफरफिश 6 प्रतिशत अधिक लंबी और 24 प्रतिशत अधिक भारी थीं। इसके अलावा वे कम आक्रामक थीं और एक-दूसरे के पिछले पिच्छ को कम कुतर रहीं थीं।

वृद्धि की दर और आक्रामकता, दोनों पर तनाव का असर होता है। इसलिए शोधकर्ताओं ने पफरफिश में तनाव सम्बंधी दो हार्मोन का भी अध्ययन किया: रक्त में कॉर्टिसोल और मस्तिष्क में कॉर्टिकोट्रॉपिन-रीलीज़िंग हार्मोन। पाया गया कि जिन पफरफिश को TTX नहीं दिया गया था उनमें इन हार्मोन्स का स्तर अधिक था। यानी वे अधिक तनावग्रस्त थीं।

अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि इन मछलियों में TTX ना सिर्फ शिकारियों से बचने या उन्हें दूर रखने का काम करता है बल्कि युवा पफरफिश के स्वस्थ विकास के लिए भी ज़रूरी होता है। कुछ अन्य अध्ययन बताते हैं कि TTX से रहित युवा पफरफिश घातक और जोखिमपूर्ण निर्णय लेती हैं। फिलहाल यह अस्पष्ट है कि TTX पफरफिश में तनाव कैसे कम करता है। (स्रोत फीचर्स)
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अमेरिका की जलवायु समझौते से हटने की तैयारी

मेरिका ने विगत 4 नवंबर को पेरिस जलवायु समझौते से पीछे हटने की औपचारिक कार्यवाही शुरू कर दी है। पेरिस समझौता बढ़ते वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास में साल 2015 में हुआ था और इसमें दुनिया के 197 देश शामिल हैं। वैसे साल 2017 से ही अमेरिका का इरादा इस समझौते से बाहर निकलने का था। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के अनुसार पेरिस जलवायु समझौते में बने रहने से देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचेगा।

पेरिस जलवायु समझौते पर अमेरिका के निर्णय की घोषणा करते हुए अमेरिकी विदेश मंत्री माइकल पोम्पियो ने कहा कि साल 2005 से 2017 के बीच अमेरिका की अर्थव्यस्था में 19 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में 13 प्रतिशत की कमी आई थी।

वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने अमेरिका द्वारा लिए गए इस फैसले की अलोचना की है। कैम्ब्रिज के यूनियन ऑफ कंसर्न्ड साइंटिस्ट समूह के एल्डन मेयर का कहना है कि राष्ट्रपति ट्रम्प का पेरिस समझौते से बाहर निकलने का फैसला गैर-ज़िम्मेदाराना और अदूरदर्शी है। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के एंड्रयू लाइट का कहना है कि पेरिस जलवायु समझौते से पीछे हटने पर अमेरिका के राजनैतिक और आर्थिक रुतबे पर असर पड़ेगा, क्योंकि अन्य देश कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं।

पेरिस समझौते के नियमानुसार 4 नवंबर 2019 इस समझौते से बाहर निकलने के लिए आवेदन करने की सबसे पहली तारीख थी। और आवेदन के बाद भी वह देश एक साल तक सदस्य बना रहेगा। अर्थात अमेरिका इस समझौते से औपचारिक तौर पर 4 नवंबर 2020 को बाहर निकल सकेगा।

वैसे अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जलवायु परिवर्तन की समस्या को संजीदगी से ले रहे हैं। तो यदि इनमें से कोई उम्मीदवार अगला चुनाव जीतता है तो आशा है कि जनवरी 2021 में पदभार संभालने के बाद वे वापस इस निर्णय पर पुनर्विचार करेंगे। पेरिस जलवायु समझौता छोड़ चुके देश, पुन: शामिल होने के अपने इरादे के बारे में राष्ट्र संघ जलवायु परिवर्तन संधि कार्यालय को सूचित करने के 30 दिन बाद इस समझौते में पुन: शामिल हो सकते हैं।

 यदि ट्रम्प दोबारा नहीं चुने गए तो सरकार द्वारा यह फैसला बदलने की उम्मीद है। और यदि ट्रम्प वापस आते हैं तो वहां के शहरों, राज्यों और कारोबारियों पर निर्भर है कि वे जलवायु परिवर्तन के मामले में अपना रुख तय करें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में जीनोम मैपिंग – प्रदीप

हाल ही में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) द्वारा एक परियोजना के तहत भारत के एक हज़ार ग्रामीण युवाओं के जीनोम की सिक्वेंसिंग (अनुक्रमण) की योजना तैयार की गई है। इसके अंतर्गत लगभग दस हज़ार भारतीय लोगों के जीनोम को अनुक्रमित करने का लक्ष्य है। यह पहला मौका होगा जब भारत में इतने बड़े स्तर पर जीनोम के गहन अध्ययन के लिए खून के नमूने एकत्रित किए जाएंगे।

हम जीव विज्ञान की सदी में रह रहे हैं। अगर 20वीं सदी भौतिक विज्ञान की सदी थी तो 21वीं सदी निश्चित तौर पर जैव-प्रौद्योगिकी (बायोटेक्नॉलॉजी) की सदी होगी। पिछले दो-तीन दशकों में जैव-प्रौद्योगिकी में, विशेषकर आणविक जीव विज्ञान और जीन विज्ञान के क्षेत्र में, चमत्कृत कर देने वाले नए अनुसंधान तेज़ी से बढ़े हैं। 

मात्र दो अक्षरों का शब्द ‘जीन’ आज मानव इतिहास की दशा और दिशा बदलने में समर्थ है। जीन सजीवों में सूचना की बुनियादी इकाई और डीएनए का एक हिस्सा होता है। जीन माता-पिता और पूर्वजों के गुण और रूप-रंग संतान में पहुंचाते हैं। डीएनए के उलट-पलट जाने से जीन्स में विकार पैदा होता है और इससे आनुवंशिक बीमारियां उत्पन्न होती हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती हैं।

जीन्स के पूरे समूह को ‘जीनोम’ नाम से जाना जाता है। जीनोम के अध्ययन को जीनोमिक्स कहा जाता है। वैज्ञानिक लंबे समय से अन्य जीवों के अलावा मनुष्य के जीनोम को पढ़ने में जुटे हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार मानव शरीर में जीन्स की कुल संख्या अस्सी हज़ार से एक लाख तक होती है। 

1988 में अमेरिकी सरकार ने अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना ‘ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट’ की शुरुआत की जिसे 2003 में पूरा किया गया। वैज्ञानिकों ने इस प्रोजेक्ट के ज़रिए इंसान के पूरे जीनोम को पढ़ा। इस परियोजना में अमेरिका के साथ ब्रिटेन, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, जापान और चीन ने भाग लिया था। इस परियोजना का लक्ष्य जीनोम सिक्वेंसिंग के जरिए बीमारियों को बेहतर समझने, दवाओं के शरीर पर प्रभाव की सटीक भविष्यवाणी, अपराध विज्ञान में उन्नति और मानव विकास को समझने में मदद करना था। उस समय भारत का इस परियोजना से अपने को अलग रखना हमारे नीति निर्धारकों की अदूरदर्शिता का परिणाम कहा जा सकता है। अब सीएसआईआर द्वारा दस हज़ार ग्रामीण युवाओं के जीनोम की सिक्वेंसिंग की योजना ने जीनोमिक्स के क्षेत्र में भारत के प्रवेश की भूमिका तैयार कर दी है जिससे चिकित्सा विज्ञान में नई संभावनाओं के द्वार खुलेंगे।

सीएसआईआर की इस परियोजना के अंतर्गत सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी, हैदराबाद और इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटेड बायोलॉजी, नई दिल्ली संयुक्त रूप से काम करेंगे। जीनोम की सिक्वेंसिंग खून के नमूने के आधार पर की जाएगी। प्रत्येक व्यक्ति के डीएनए में मौजूद चार क्षारों (एडेनीन, गुआनीन, साइटोसीन और थायमीन) के क्रम का पता लगाया जाएगा।

डीएनए सीक्वेंसिंग से लोगों की बीमारियों का पता लगाकर समय रहते इलाज किया जा सकता है और साथ ही भावी पीढ़ी को रोगमुक्त करना संभव होगा। इस परियोजना में भाग लेने वाले युवा छात्रों को बताया जाएगा कि क्या उनमे परिवर्तित जीन हैं जो उन्हें कुछ दवाओं के प्रति कम संवेदनशील बनाते हैं। दुनिया के कई देश अब अपने नागरिकों की जीनोम मैपिंग करके उनके अनूठे जेनेटिक लक्षणों को समझने में लगे हैं ताकि किसी बीमारी विशेष के प्रति उनकी संवेदनशीलता के मद्देनजर व्यक्ति-आधारित दवाइयां तैयार करने में मदद मिल सके।

2003 में मानव जीनोम के अनुक्रमण के बाद प्रत्येक व्यक्ति की अद्वितीय आनुवंशिक संरचना तथा रोग के बीच सम्बंध को लेकर वैज्ञानिकों को एक नई संभावना दिख रही है। जीनोम अनुक्रम को जान लेने से यह पता लग जाएगा कि कुछ लोग कैंसर, कुछ मधुमेह और कुछ अल्ज़ाइमर या अन्य बीमारियों से ग्रस्त क्यों होते हैं। जीनोम मैपिंग के ज़रिए हम यह जान सकते हैं कि किसको कौन सी बीमारी हो सकती है और उसके क्या लक्षण हो सकते हैं। जीनोम मैपिंग से बीमारी होने का इंतजार किए बगैर व्यक्ति के जीनोम को देखते हुए उसका इलाज पहले से शुरू किया जा सकेगा। इसके माध्यम से पहले से ही पता लगाया जा सकेगा कि भविष्य में कौन-सी बीमारी हो सकती है। वह बीमारी न होने पाए तथा इसके नुकसान से कैसे बचा जाए इसकी तैयारी आज से ही शुरू की जा सकती है। सिस्टिक फाइब्रोसिस, थैलेसीमिया जैसी लगभग दस हज़ार बीमारियां हैं जिनके लिए एकल जीन में खराबी को ज़िम्मेदार माना जाता है। जीनोम उपचार के ज़रिए दोषपूर्ण जीन को निकाल कर स्वस्थ जीन जोड़ना संभव हो सकेगा।

अब समय आ गया है कि भारत अपनी खुद की जीनोमिक्स क्रांति की शुरुआत करे। तकनीकी समझ और इसे सफलतापूर्वक लॉन्च करने की क्षमता हमारे देश के वैज्ञानिकों तथा औषधि उद्योग में मौजूद है। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक दृष्टि तथा कुशल नेतृत्व की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आंत के रसायन मस्तिष्क को नियंत्रित करते हैं

हाल ही में इस बात का अध्ययन किया गया कि चूहे डर पर कैसे काबू पाते हैं और इस अध्ययन ने उनकी आंत और दिमाग के बीच के रहस्यमय सम्बंध पर नई रोशनी डाली है।

इस शोध के लिए एक पारंपरिक पावलोवियन परीक्षण का उपयोग किया गया। इस परीक्षण में चूहे के पैर में बिजली झटका देते हुए उन्हें एक आवाज़ सुनाई जाती है। जल्द ही वे इस आवाज़ का सम्बंध दर्द से जोड़ना सीख जाते हैं। बाद में ऐसा शोर सुनते ही वे झटके से बचने की कोशिश करते हैं। लेकिन यह ज़्यादा समय तक नहीं चलता। यदि कई बार वह आवाज़ सुनाने के बाद झटका नहीं लगता तो वे इस सम्बंध को भूल जाते हैं। भूलने की यह प्रक्रिया इंसानों में भी महत्वपूर्ण होती है लेकिन सतत दुश्चिंता या हादसा-उपरांत तनाव समस्या से ग्रस्त व्यक्तियों में यह प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है। 

वील कॉर्नेल मेडिसिन के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक डेविड आर्टिस ने सोचा कि कहीं सीखने और भूलने की इस प्रक्रिया में आंत के बैक्टीरिया की कोई भूमिका तो नहीं है। उनकी टीम ने कुछ चूहों को एंटीबायोटिक देकर आंत का सूक्ष्मजीव संसार (माइक्रोबायोम) पूरी तरह नष्ट कर दिया। इसके बाद उन्होंने कई बार शोर के साथ झटके दिए। नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सभी चूहों ने शोर को दर्द से जोड़ना सीख लिया। वे सिर्फ वह शोर सुनकर सहम जाते थे। लेकिन यह जुड़ाव सदा के लिए नहीं रहा। सामान्य माइक्रोबायोम वाले चूहे अंतत: शोर और बिजली के झटके का सम्बंध भूल गए। तीन दिन के बाद ऐसे अधिकांश चूहों ने उस शोर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। दूसरी ओर, एंटीबायोटिक से उपचारित चूहे प्रतिक्रिया देते रहे। अर्थात सूक्ष्मजीव संसार से मुक्त चूहे उस शोर और बिजली के झटके के सम्बंध को भुला नहीं पाए थे।

इसके आगे के प्रयोगों में वैज्ञानिकों ने चूहों का विच्छेदन करके उनके मस्तिष्क की एक-एक कोशिका में जीन गतिविधि और कोशिका के आकार का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि सामान्य और एंटीबायोटिक उपचारित चूहों के मस्तिष्क के मीडियल प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स नामक हिस्से में अंतर हैं। इस भाग का सीखने और याद रखने वाला क्षेत्र इसमें महत्वपूर्ण पाया गया। शोधकर्ताओं की रिपोर्ट के अनुसार सीखने-भूलने की प्रक्रिया में प्रमुख भूमिका उत्तेजक तंत्रिकाओं की है। आंत के सूक्ष्मजीवों की अनुपस्थिति में ये तंत्रिकाएं सतह पर कांटे बनाने और वापिस सोखने में विफल रहीं। इन कांटों का बनना और सोखा जाना सीखने और भूलने की क्रिया की बुनियाद है।  

इसके अलावा टीम ने सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पादित चार ऐसे रसायनों की मात्रा में भी पर्याप्त बदलाव देखा जो मस्तिष्क के भय को भुलाने वाले हिस्से को सलामत रखते हैं। सूक्ष्मजीव रहित चूहों ने कम मात्रा में ये रसायन बनाए। डेविड के अनुसार इन चार में से दो रसायन तंत्रिका-मनोरोगों से जुड़े हैं। इससे लगता है कि इन रोगों का सम्बंध आंतों के सूक्ष्मजीवों से हो सकता है। अगला कदम यह सिद्ध करने का होगा कि वास्तव में ये रसायन चूहों के मस्तिष्क में बदलाव लाते हैं। यह देखना भी उपयोगी होगा कि इनमें से कौन से सूक्ष्मजीव इस समस्या के मूल में हैं। (स्रोत फीचर्स)

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3-डी प्रिंटिंग की मदद से अंग निर्माण

दि हम 3-डी प्रिंटिंग तकनीक से ऊतक और अंग बना सकें तो इनका उपयोग अंग-प्रत्यारोपण के अलावा औषधि परीक्षण और प्रयोगशाला में मॉडल के रूप में किया जा सकेगा। लेकिन 3-डी प्रिंटिंग की मदद से जटिल अंग जैसे आहार नाल, श्वासनली, रक्त वाहिनियों की प्रतिकृति बनाना एक बड़ी चुनौती है। ऐसा इसलिए क्योंकि 3-डी प्रिंटिंग के पारंपरिक तरीके में परत-दर-परत ठोस अंग तो बनाए जा सकते हैं लेकिन जटिल ऊतक बनाने के लिए पहले एक सहायक ढांचा बनाना होगा जिसे बाद में हटाना शायद नामुमकिन हो।

इसका एक संभावित हल यह हो सकता है कि यह सहायक ढांचा ठोस की जगह किसी तरल पदार्थ से बनाया जाए। यानी एक खास तरह से डिज़ाइन की गई तरल मेट्रिक्स हो जिसमें अंग बनाने वाली इंक (जीवित कोशिका से बना पदार्थ) के तरल डिज़ाइन को ढाला जाए और अंग के सेट होने के बाद सहायक तरल मेट्रिक्स को हटा दिया जाए। लेकिन इस दिशा में अब तक की गई सारी कोशिशें नाकाम रहीं थी, क्योंकि इस तरह बनाई गई पूरी संरचना की सतह सिकुड़ जाती है और बेकार लोंदों का रूप ले लेती है।

इसलिए चीन के शोधकर्ताओं ने जलस्नेही यानी हाइड्रोफिलिक तरल पॉलीमर्स का उपयोग किया जो अपने हाइड्रोजन बंधनों के आकर्षण की वजह से संपर्क सतह पर टिकाऊ झिल्ली बनाते हैं। इस तरीके से अंग निर्माण में कई अलग-अलग पॉलीमर की जोड़ियां कारगर हो सकती हैं लेकिन उन्होंने पोलीएथलीन ऑक्साइड मेट्रिक्स और डेक्सट्रान नामक कार्बोहाइड्रेट से बनी स्याही का उपयोग किया। पोलीएथलीन ऑक्साइड मेट्रिक्स में डेक्सट्रान को इंजेक्ट करके जो आकृति बनी वह 10 दिनों तक टिकी रही। इसके अलावा इस तकनीक की खासियत यह भी है कि तरल मेट्रिक्स में इंक इंजेक्ट करते समय यदि कोई गड़बड़ी हो जाए तो इंजेक्शन की नोज़ल इसे मिटा सकती है और दोबारा बना सकती है। एक बार प्रिंटिंग पूरी हो जाने पर उसकी आकृति वाले हिस्से पर पोलीविनाइल अल्कोहल डालकर उसे फिक्स कर दिया जाता है। शोध पत्रिका एडवांस्ड मटेलियल में प्रकाशित इस नई तकनीक की मदद से शोधकर्ताओं ने कई जटिल रचनाएं प्रिंट की हैं: बवंडर की भंवरें, सिंगल और डबल कुंडलियां, शाखित वृक्ष और गोल्डफिश जैसी आकृति। वैज्ञानिकों के अनुसार जल्द ही स्याही में जीवित कोशिकाओं को डालकर इस तकनीक की मदद से जटिल ऊतक बनाए जा सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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बोतल से दूध पिलाने की प्रथा हज़ारों सालों से है – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

ब्रिस्टल विश्वविद्यालय, ब्रिटेन की जूली डन के नेतृत्व में युरोप के  पुरातत्वविदों की एक टीम ने काफी दिलचस्प रिपोर्ट प्रस्तुत की है। “Milk of ruminants in ceramic baby bottles from prehistoric child graves” (बच्चों की प्रागैतिहासिक कब्रों में सिरेमिक बोतलों पर जुगाली करने वाले जानवरों के दूध के अवशेष) शीर्षक से यह रिपोर्ट नेचर पत्रिका के 10 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित हुई है। इस टीम को बच्चों की प्राचीन कब्रों में शिशुओं की कुछ बोतलें मिली है जिनमें कुछ अंडाकार और हैंडल वाली हैं और कुछ बोतलों में टोंटी जैसी रचना है जिसके माध्यम से तरल पदार्थ को ढाला या चूसा जा सकता था। सबसे पुरानी बोतल युरोपीय नवपाषाण युग (लगभग 10,000 वर्ष पहले) की है जबकि अन्य बोतलें कांस्य और लौह युग (4000-1200 ईसा पूर्व) स्थलों से पाई गई हैं।       

नेचर की इस रिपोर्ट में एक दिलचस्प बात और है। सिरेमिक से बनी शिशु बोतलों के अंदरूनी हिस्से पर कुछ कार्बनिक रसायन के अवशेष चिपके मिले जिनका विश्लेषण संभव था। टीम ने उन अवशेषों को अलग करके नवीनतम रासायनिक और वर्णक्रमदर्शी विधियों की मदद से उनमें उपस्थित अणुओं का विश्लेषण किया। सभी अवशेषों में वसा अम्ल (जैसे पामिटिक और स्टीयरिक अम्ल) पाए गए जो आम तौर पर गाय-भैंस, भेड़ या अन्य पालतू जानवरों के दूध में तो पाए जाते हैं लेकिन मानव दूध में नहीं। इस आधार पर टीम का निष्कर्ष है कि “रासायनिक प्रमाण और बच्चों की कब्रों में पाए गए विशेष रूप से बने तीन पात्र दर्शाते हैं कि इनका उपयोग शिशुओं और पूरक आहार के तौर पर बच्चों को (मानव दूध की बजाय) पशुओं का दूध पिलाने के लिए किया जाता था।”                    

पशु दूध की शुरुआत

उपरोक्त शोध पत्र में राशेल हॉउक्रॉफ्ट और स्टॉकहोम युनिवर्सिटी, स्वीडन की पुरातात्विक अनुसंधान प्रयोगशाला के अन्य लोगों द्वारा पूर्व में प्रस्तुत एक दिलचस्प रिपोर्ट “The Milky Way: The implications of using animal milk products in infant feeding” (दुग्धगंगा: शिशु आहार में जंतु दुग्ध उत्पादों के उपयोग के निहितार्थ) का उल्लेख किया गया है। यह रिपोर्ट एंथ्रोपोज़ूओलॉजिका जर्नल में प्रकाशित हुई है [47-31-43 (2012)], जो नेट से फ्री डाउनलोड की जा सकती है। मेरी सलाह है कि इस विषय में रुचि रखने वाले इसे ज़रूर पढ़ें। प्रसंगवश बताया जा सकता है कि एंथ्रोपोज़ूओलॉजिका का अर्थ होता है मनुष्यों और अन्य जंतुओं के बीच अंतरक्रिया का अध्ययन।

मानव शिशुओं को पशुओं का दूध पिलाने की प्रथा जानवरों के पालतूकरण के बाद ही शुरू हुई होगी। पालतूकरण की शुरुआत तब हुई होगी जब मनुष्यों ने समुदाय में बसना शुरू किया तथा कृषि एवं अन्य कामों के लिए पशुओं का उपयोग करना शुरू किया। ऐसा माना जाता है कि इसकी शुरुआत लगभग 12,000 वर्ष पहले नव-पाषाण युग में हुई थी; सबसे पहले मध्य-पूर्व में और उसके बाद पश्चिमी और मध्य एशिया तथा युरोप के कुछ हिस्सों में। सामुदायिक जीवन, कृषि और खेती की शुरुआत के बाद से कुत्ते, मवेशियों, बकरियों, ऊंटों (बाद में घोड़ों) को पालतू बनाकर उनको मानवीय ज़रूरतों के लिए उपयोग में लाया गया। उस समय मनुष्य शिकारी-संग्रहकर्ता हुआ करते थे और शिशुओं को दो वर्ष की आयु तक सिर्फ मां का दूध ही पिलाया जाता था।       

नव-पाषाण युग ने मानव व्यवहार को बदल डाला। संतानों की संख्या में वृद्धि हुई, महिलाओं के कार्य करने के तरीकों में बदलाव आए तथा शिशुओं में मां का दूध छुड़ाने की प्रक्रिया भी जल्दी होने लगी। जैसा हॉउक्रॉफ्ट और उनके सहकर्मियों का तर्क है, इसका अर्थ यह हुआ कि इस समय तक मानव शिशुओं को पूरक भोजन के रूप में पशु का दूध दिया जाने लगा था। इसने माताओं को अपनी प्रजनन रणनीति को बदलने में भी समर्थ बनाया (कितने बच्चे, कितने समय में पैदा करें और कितनी जल्दी दूध छुड़ाएं)। 

हमने कुत्तों को लगभग 10,000-4400 ईसा पूर्व के आसपास, गाय और भेड़ों को लगभग 11,000-9000 ईसा पूर्व, ऊंटों तथा घोड़ों को लगभग 3000 ईसा पूर्व में पालतू बनाया। हालांकि ऊपर बताए गए जीवों में से हम केवल गायों, बकरियों और भेड़ों के दूध का उपयोग करते हैं लेकिन अफ्रीकियों द्वारा ऊंटनी के दूध का भी उपयोग किया जाता था। दूध के लिए जुगाली करने वाले जीवों को पसंद करना वास्तव में आज़माइश और उपयुक्तता के अनुभव से आया है। जुगाली करने वाले प्राणियों में गाय-भैंस, भेड़, बकरी और ऊंट आते हैं। इनका पेट अलग-अलग भागों में बंटा होता है, जिसमें भोजन जल्दी से निगल लिया जाता है और बाद में जुगाली के बाद प्रथम आमाशय में जाता है जो इन जीवों का मुख्य पाचन अंग है। ध्यान देने वाली बात यह है कि हमने कभी कुत्तों या घोड़ों के दूध का उपयोग नहीं किया है – पता नहीं क्यों?

जुगाली पशुओं का दूध

हॉउक्रॉफ्ट और उनकी टीम ने अपने पेपर में मानव और जुगाली करने वाले जीवों के दूध के संघटन की तुलना की है। मानव की तुलना में भेड़ के दूध में उच्च ठोस घटक होता है: कम पानी, कम कार्बोहाइड्रेट, अधिक प्रोटीन तथा लिपिड और भरपूर उर्जा। जहां उच्च प्रोटीन युक्त दूध बोतल से दूध पीने वाले शिशुओं में तेज़ विकास में मदद कर सकता है, वहीं यह एसिडिटी और अतिसार का कारण भी बन सकता है। भेड़ की तुलना में गाय के दूध में प्रोटीन और वसा की मात्रा थोड़ी कम होती है (हालांकि, मानव दूध की तुलना में तीन गुना अधिक होती है), फिर भी यह भेड़ के दूध के समान लक्षण पैदा कर सकता है। इसके साथ ही जुगाली करने वाले जीवों के दूध में कुछ ऐसे एंज़ाइम की कमी होती है जो मानव दूध में पाए जाते हैं। ये एंज़ाइम संक्रमण से लड़ने और ज़रूरी खनिज पदार्थों को अवशोषित करने में मदद करते हैं। कुछ सुरक्षात्मक और हानिकारक अंतरों के साथ, मानव दूध के स्थान पर पूरी तरह जुगाली-जीवों के दूध का उपयोग करने की बजाय इनका उपयोग पूरक के तौर पर करना बेहतर है। इसी चीज़ को शुरुआती मनुष्यों ने कर-करके सीखा होगा। इसी के आधार पर उन्होंने ‘फीडिंग बोतल’ और चीनी मिट्टी के पात्र बनाने तथा उपयोग करना शुरू किया होगा।    

शोधकर्ता आगे बताते हैं कि दूध से दही बनाकर इसे संरक्षित किया जा सकता है। यह लैक्टोज़ की मात्रा कम करता है और पाचन में मदद करता है। इसके पीछे एंज़ाइम लैक्टेज़ की भूमिका है। उनका निष्कर्ष है कि “प्रागैतिहासिक शिशुओं के लिए यह दुग्धगंगा शायद इतनी अच्छी न रही हो, लेकिन दही उनके लिए और लैक्टेज़ एंज़ाइम के प्रसार के लिए अच्छा रहा होगा।” 

गौरतलब है कि वसंत शिंदे और पुणे के कुछ सहयोगियों ने भारत में हड़प्पा सभ्यता के स्थानों का व्यापक सर्वेक्षण किया था। उन्होंने 2500 ईसा पूर्व के कालीबंगन के हड़प्पा स्थल से सिरेमिक फीडिंग बोतल के ठोस सबूत पाए थे। हड़प्पावासियों ने भी अपने बच्चों को जानवरों के दूध का सेवन करवाया था। लेकिन वह पशु कौन-सा था? यदि हम इन बोतलों से कोई अवशेष प्राप्त करके अपनी प्रयोगशालाओं में विश्लेषण करने में कामयाब होते हैं तो यह काफी रोमांचक होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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