बिल्ली की सफाई का रहस्य – अरविंद गुप्ते

बिल्ली परिवार में घरेलू बिल्ली से ले कर बाघ, तेंदुए और सिंह जैसे जंतु शामिल हैं। ये सभी जंतु अपने शरीर को लगातार चाट कर साफ रखते हैं। इस प्रक्रिया के सबसे विस्तृत अध्ययन घरेलू बिल्ली पर किए गए हैं। बिल्ली एक दिन में औसतन 10 घंटे तक जागी रहती है और इस समय का लगभग एक-चौथाई भाग वह अपने शरीर को चाटने में गुज़ार देती है। चाटने की इस प्रक्रिया से उसके शरीर से पिस्सू जैसे परजीवी, धूल के कण, रक्त के थक्के आदि हट जाते हैं। इसके अलावा, लार में कुछ एंटीबायोटिक गुण होते हैं जिनके कारण घाव जल्दी भर जाते हैं।

यह जानकारी तो थी कि बिल्ली की जीभ पर नुकीले उभार होते हैं जिनकी नोकें पीछे की ओर मुड़ी होती हैं। किंतु ये उभार किस प्रकार काम करते हैं इसकी ठीक-ठीक जानकारी नहीं थी। अमेरिका के एटलांटा स्थित जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में कार्यरत दो इंजीनियर्स डेविड हू और एलेक्सिस नोएल ने बिल्ली परिवार की छह प्रजातियों की जीभों का अध्ययन करके यह पता लगाने का प्रयास किया कि चाटने की प्रक्रिया में क्या होता है। उन्होंने मृत जंतुओं की जीभें प्राप्त कीं और उनका सीटी स्कैन से अध्ययन किया। घरेलू बिल्ली द्वारा खुद को चाटे जाने की प्रक्रिया का अध्ययन उन्होंने उच्च गति के कैमरों की सहायता से किया। उन्होंने पाया कि इन सभी जंतुओं की जीभ पर उपस्थित उभार ठोस नहीं होते (जैसा माना जाता था), किंतु उनमें एक खांच होती है जिसके कारण उभार का आकार चम्मच के समान हो जाता है। किंतु यह चम्मच इस बात में अनोखा है कि वह केशिका क्रिया से मुंह में उपस्थित लार को अपने अंदर खींच लेती है और इस प्रकार सफाई के लिए अधिक लार प्राप्त हो जाती है जो बिल्ली के बालों के नरम स्तर तक पहुंच जाती है। बिल्ली की त्वचा पर दो प्रकार के बाल होते हैं – त्वचा के ठीक ऊपर नरम बालों का एक स्तर होता है और इसके बाहर कड़े बालों का स्तर। चम्मच के समान आकार का एक और फायदा यह होता है कि बाहर आते समय उसमें गंदगी आसानी से भर जाती है और उसे बाहर निकालना आसान होता है। इस प्रकार, जीभ के उभार लार को बालों के अंदर तक पहुंचाने और गंदगी को बाहर निकालने का दोहरा काम सफलतापूर्वक करते हैं।

त्वचा के ऊपर लार के पहुंचने का एक और फायदा यह होता है कि लार के भाप बन कर उड़ जाने से बिल्ली की त्वचा का तापमान काफी कम हो जाता है और उसे गर्मी से राहत मिलती है। हू और नोएल का अनुमान है कि बिल्ली की त्वचा और बालों के बाहरी आवरण के बीच 17 डिग्री सेल्सियस तक का अंतर हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :   https://d17fnq9dkz9hgj.cloudfront.net/uploads/2012/11/153741287-cats-meticulous-nature-632×475.jpg

सबके लिए शीतलता – आदित्य चुनेकर और श्वेता कुलकर्णी

भारत का शीतलता प्लान एक सकारात्मक कदम है किंतु इसे कारगर बनाने के लिए काफी काम करने की ज़रूरत है।

पिछली एक सदी में भारत 1 डिग्री सेल्सियस गर्म हुआ है और इसमें भी गर्मी बढ़ने की रफ्तार पिछले दो दशकों में सबसे तेज़ रही है। अध्ययन दर्शाते हैं कि भविष्य में इंतहाई ग्रीष्म लहरों की आवृत्ति में कई गुना की वृद्धि होगी। ग्रीष्म-आधारित मौतों पर गंभीरता से ध्यान देने की ज़रूरत है। शहरीकरण की वजह से गर्मी का असर और भी बुरा हो जाता है क्योंकि इमारतों, सड़कों और प्रदूषण की वजह से गर्मी कैद हो जाती है। इसके अलावा, गर्मी भोजन, दवाइयों और टीकों को बरबाद करती है क्योंकि इनका प्रभावी जीवनकाल गर्मी के कारण सिकुड़ जाता है।

इस मामले में भारत दोहरी चुनौती का सामना कर रहा है। एक ओर तो देश को यह सुनिश्चित करना होगा कि जोखिम से घिरे व्यक्तियों को ऐसे साधन किफायती ढंग से और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हों जो उन्हें गर्मी से राहत प्रदान करें। दूसरी ओर, यह भी सुनिश्चित करना होगा कि मशीनीकृत शीतलन उपकरणों और प्रक्रियाओं में जो ऊर्जा व रेफ्रिजरेंट रसायन इस्तेमाल होते हैं उनकी वजह से नुकसान कम से कम हो।

इस चुनौती से निपटने के लिए पर्यावरण, वन तथा जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने हाल ही में इंडिया कूलिंग एक्शन प्लान (ICAP) का मसौदा जारी किया है। प्लान में अनुमान लगाया गया है कि 2017-18 के मुकाबले 2037-38 तक देश में कूलिंग की मांग आठ गुना बढ़ जाएगी। प्लान में 2037-38 तक कूलिंग मांग में अनुमानित वृद्धि को 20-25 प्रतिशत कम करने के लिए लघु, मध्यम व दीर्घ अवधि के लिए सिफारिशों की सूची भी शामिल की गई है। इन सिफारिशों का प्रमुख लक्ष्य समाज के लिए पर्यावरणीय तथा सामाजिक-आर्थिक लाभ सुरक्षित रखते हुए सबके लिए शीतलन व उष्मीय सहूलियत प्रदान करना है। यह योजना मंत्रालय की वेबसाइट पर लोगों की टिप्पणियों के लिए उपलब्ध है। यह प्लान घोषित लक्ष्य की ओर एक सकारात्मक कदम है किंतु इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अभी काफी काम करना होगा।

सबसे पहले, रणनीति के स्तर पर, प्लान में 2037-38 तक रेफ्रिजरेंट रसायनों की मांग में 20-25 प्रतिशत कमी लाने, कूलिंग के लिए ऊर्जा की ज़रूरत में 25-40 प्रतिशत की कमी लाने वगैरह के लिए समय सीमाओं सहित लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं। अलबत्ता, प्लान में इन लक्ष्यों की दिशा में प्रगति को आंकने के लिए निगरानी व सत्यापन की ज़रूरत को कम करके आंका गया है। इसके अंतर्गत भविष्य में कूलिंग, ऊर्जा तथा रेफ्रिजरेंट रसायनों की मांग में कमी की गणना करने के लिए विधियां निर्र्धारित की जा सकती हैं और यह भी स्पष्ट किया जा सकता है कि मांग में कमी के सत्यापन के लिए समय-समय पर किस तरह के आंकड़े एकत्रित करने होंगे। योजना में उसके घोषित उद्देश्यों के विभिन्न पहलुओं पर बराबर ज़ोर दिए जाने की आवश्यकता है।

हाल की एक वैश्विक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की सबसे अधिक आबादी कूलिंग सम्बंधी जोखिम का सामना कर रही है। ICAP में शहर व गांव दोनों जगह के सबसे जोखिमग्रस्त लोगों को किफायती व पर्याप्त कूलिंग साधन मुहैया कराने के लिए बहुत कम हस्तक्षेपों की सिफारिश की गई है। प्लान की सिफारिशों में कई सारे नीतिगत व नियामक हस्तक्षेप सुझाए गए हैं किंतु उन्हें क्रियांवित करने के लिए ज़रूरी संसाधनों को मात्रात्मक रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया है। प्लान की सफलता के लिए ज़रूरी है कि वित्तीय खाई को पहचाना जाए और उसकी पूर्ति की योजना बनाई जाए।

दूसरा, कामकाजी स्तर पर, प्लान में विभिन्न वर्तमान नीतियों से सीखे गए सबकों को शामिल करके सिफारिशों को सशक्त बनाया जा सकता है। मसलन, इस प्लान की एक सिफारिश है कि छत के पंखों के लिए एक अनिवार्य मानक व लेबलिंग कार्यक्रम होना चाहिए और एयर कंडीशनर्स तथा रेफ्रिजरेटर्स के लिए कार्य कुशलता के मानक उच्चतर  स्तर के बनाए जाने चाहिए। इस कार्यक्रम के तहत 1-स्टार (सबसे कम कार्यकुशल) से लेकर 5-स्टार (सर्वाधिक कार्यकुशल) तक की रेटिंग होती है। ऊर्जा-दक्षता के प्रति जागरूकता बढ़ाने में यह कार्यक्रम सफल रहा है किंतु इसकी सीमाएं भी हैं। छत के पंखों के मामले में कुल निर्मित पंखों में से मात्र 10 प्रतिशत पर स्टार लेबल होते हैं। अधिकांश निर्माताओं ने 2010 के बाद से दक्षता मानक को बेहतर बनाने का विरोध किया है। हालांकि ये मानक हर 2-3 साल में अधुनातन किए जाते हैं किंतु यह प्रक्रिया कमोबेश अनुपयोगी ही रही है। दूसरी ओर, रेफ्रिजरेटर्स के मामले में, मानक नियमित रूप से अधुनातन किए गए हैं। आज ये मानक दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मानकों में से हैं। इस मामले में निर्माताओं ने इसका जवाब कम स्टार रेटिंग वाले मॉडल्स बेचकर दिया है। वर्ष 2017-18 में निर्मित कुल 25 लाख उपकरणों में से मात्र 2000 ही 5-स्टार रेटिंग वाले थे। लिहाज़ा, प्लान की सिफारिशों के क्रियांवयन को ठोस रूप देना होगा ताकि ऐसे लक्ष्यों की व्यावहारिक धरातल पर पूर्ति की जा सके।

तीसरा, प्लान में लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु मुख्य रूप से टेक्नॉलॉजी, नियमन और प्रलोभन-प्रोत्साहन स्कीमों पर ध्यान दिया गया है। कूलिंग की चुनौती का एक निर्णायक आयाम मानव व्यवहार है, जिसे प्लान में अनदेखा किया गया है। उदाहरण के लिए, मानव व्यवहार को समझने से एयर कंडीशंड जगहों के लिए थोड़ा ऊंचा डिफॉल्ट तापमान निर्धारित करने में मदद मिलेगी। यह एक ऐसा तापमान होगा जिस पर लोग सुकून महसूस करेंगे। इससे बिजली के उपयोग में काफी बचत की जा सकेगी। ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी द्वारा जारी किए गए ताज़ा दिशानिर्देश इसी बात का अनुमोदन करते हैं। साथ ही मानव व्यवहार को समझकर यह जानने में भी मदद मिलेगी कि यदि ऊर्जा-दक्षता बढ़ाकर एयर कंडीशनिंग संयंत्रों को चलाना सस्ता हो जाता है, तो क्या लोग उन्हें ज़्यादा देर तक चलाने लगेंगे? इसे रिबाउंडिंग प्रभाव कहते हैं और इसकी वजह से ऊर्जा दक्षता बढ़ाने से अर्जित लाभ काफी हद तक निरस्त हो जाते हैं।

अंत में, अध्ययनों ने यह भी दर्शाया है कि खरीदार के व्यवहार में छोटे-छोटे किंतु उपयुक्त बदलाव करने से लागत और उपभोक्ता द्वारा खरीदी के निर्णय पर काफी प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, जब उपभोक्ता के सामने विकल्पों की सूची रखी जाती है तो वे प्राय: समझौता करके मध्यम विकल्प को चुनने की प्रवृत्ति दर्शाते हैं। क्या इसका परिणाम यह होता है कि उपभोक्ता 3-स्टार रेटिंग वाला विकल्प चुनेंगे और क्या इससे निपटने के लिए मात्र 4 व 5-रेटिंग वाले विकल्प पेश करना ठीक रहेगा? इस तरह के सवालों के जवाब से कम लागत हस्तक्षेपों को इस तरह से विकसित करने में मदद मिलेगी ताकि उनसे अधिकतम लाभ मिल सके।

कूलिंग एक्शन प्लान भारत के सामने उपस्थित एक गंभीर समस्या से निपटने का अच्छा अवसर प्रदान करता है। एक समग्र व संतुलित नज़रिया और साथ में रणनीतिक प्राथमिकताओं का निर्धारण तथा उन्हें संदर्भ-अनुकूल बनाना भारत की कूलिंग चुनौती का सामना करने की कुंजी हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  www.moef.gov.in/sites/default/files/imagecache/media_slider_image/media_gallery/7_3.jpg

कैंसर के उपचार के दावे पर शंकाएं

स्राइल की एक कंपनी एक्सलरेटेड इवॉल्यूशन बायोटेक्नॉलॉजीस लिमिटेड (एईबीआई) के वैज्ञानिकों ने हाल ही में दावा किया है कि वे एक साल के अंदर हर किस्म के कैंसर का एक इलाज पेश करेंगे। खास बात यह है कि उन्होंने चूहों पर किए गए जिन प्रयोगों के आधार पर यह दावा किया है, उनके परिणाम कहीं प्रकाशित नहीं किए गए हैं। उनका यह दावा अखबार के एक लेख में घोषित किया गया है। वैज्ञानिक समुदाय के बीच इस दावे के लेकर शंका का माहौल बन गया है।

एईबीआई के वैज्ञानिकों ने कहा है कि उन्होंने एक नए तरीके का इस्तेमाल किया है जो रामबाण साबित होगा। इस नए तरीके को बहुलक्षित विष (मल्टी-टारगेटेड टॉक्सिन यानी मूटोटो) नाम दिया गया है। यह एक ऐसा पेप्टाइड अणु है जो कैंसर कोशिका की सतह पर मौजूद कई सारे अणुओं से एक साथ जुड़ जाता है। इस वजह से कैंसर कोशिका में परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती और फिर एक विषैला अणु उस कोशिका को मार डालता है।

शोधकर्ताओं का मत है कि उन्होंने एक इकलौते अध्ययन में चूहों पर इस तरीके को आज़माया जिसमें अप्रत्याशित सफलता मिली है और वे जल्दी ही इसे इंसानों पर भी आज़माने जा रहे हैं।

इस विषय पर काम कर रहे अन्य वैज्ञानिकों को लगता है कि चूंकि उक्त प्रयोग के आंकड़े प्रकाशित नहीं किए गए हैं, इसलिए दावे की जांच करना असंभव है। वैसे भी चूहों पर प्रयोग के आधार पर इंसानों के बारे में दावा करना तर्कसंगत नहीं है क्योंकि अनुभव बताता है कि ज़रूरी नहीं है कि चूहों पर मिले परिणाम इंसानों में मिलें। कुछ वैज्ञानिक तो एईबीआई के दावे को विज्ञान की परंपराओं के विपरीत व गैर-ज़िम्मेदाराना मान रहे हैं। अलबत्ता, इन सारी आशंकाओं के बारे में एईबीआई ने कहा है कि एक साल के अंदर वे पहले इंसान के कैंसर का इलाज करके दिखा देंगे। उनके मुताबिक कैंसर का यह नया उपचार सस्ता होगा और इसके कोई साइड प्रभाव भी नहीं होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.livescience.com/64648-israeli-scientists-cancer-cure-unlikely.html

कीटों की घटती आबादी और प्रकृति पर संकट

हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक कीटों की जनसंख्या में तेज़ी से गिरावट आ रही है और यह गिरावट किसी भी इकोसिस्टम के लिए खतरे की चेतावनी है। सिडनी विश्वविद्यालय के फ्रांसिस्को सांचेज़-बायो और बेजिंग स्थित चायना एकडमी ऑफ एग्रिकल्चरल साइन्सेज़ के क्रिस वायचुइस द्वारा बॉयोलॉजिकल कंज़र्वेशन पत्रिका में प्रकाशित इस रिपोर्ट के मुताबिक 40 प्रतिशत से ज़्यादा कीटों की संख्या घट रही है और एक-तिहाई कीट तो विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुके हैं। कीट का कुल द्रव्यमान सालाना 2.5 प्रतिशत की दर से कम हो रहा है, जिसका मतलब है कि एक सदी में ये गायब हो जाएंगे।

रिपोर्ट में तो यहां तक कहा गया है कि धरती छठे व्यापक विलुप्तिकरण की दहलीज़ पर खड़ी है। कीट पारिस्थितिक तंत्रों के सुचारु कामकाज के लिए अनिवार्य हैं। वे पक्षियों, सरिसृपों तथा उभयचर जीवों का भोजन हैं। इस भोजन के अभाव में ये प्राणि जीवित नहीं रह पाएंगे। कीट वनस्पतियों के लिए परागण की महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। इसके अलावा वे पोषक तत्वों का पुनर्चक्रण भी करते हैं।

शोधकर्ताओं का कहना है कि कीटों की आबादी में गिरावट का सबसे बड़ा कारण सघन खेती है। इसमें खेतों के आसपास से सारे पेड़-पौधे साफ कर दिए जाते हैं और फिर नंगे खेतों पर उर्वरकों और कीटनाशकों का बेतहाशा इस्तेमाल किया जाता है। आबादी में गिरावट का दूसरा प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन है। कई कीट तेज़ी से बदलती जलवायु के साथ अनुकूलित नहीं हो पा रहे हैं।

सांचेज़-बायो का कहना है कि पिछले 25-30 वर्षों में कीटों के कुल द्रव्यमान में से 80 प्रतिशत गायब हो चुका है।

इस रिपोर्ट को तैयार करने में कीटों में गिरावट के 73 अलग-अलग अध्ययनों का विश्लेषण किया गया। तितलियां और पतंगे सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं। जैसे, 2000 से 2009 के बीच इंगलैंड में तितली की एक प्रजाति की संख्या में 58 प्रतिशत की कमी आई है। इसी प्रकार से मधुमक्खियों की संख्या में ज़बरदस्त कमी देखी गई है। ओक्लाहामा (यूएस) में 1949 में बंबलबी की जितनी प्रजातियां थीं, उनमें से 2013 में मात्र आधी बची थीं। 1947 में यूएस में मधुमक्खियों के 60 लाख छत्ते थे और उनमें से 35 लाख खत्म हो चुके हैं।

वैसे रिपोर्ट को तैयार करने में जिन अध्ययनों का विश्लेषण किया गया वे ज़्यादातर पश्चिमी युरोप और यूएस से सम्बंधित हैं और कुछ अध्ययन ऑस्ट्रेलिया से चीन तथा ब्रााज़ील से दक्षिण अफ्रीका के बीच के भी हैं। मगर शोधकर्ताओं का मत है कि अन्यत्र भी स्थिति बेहतर नहीं होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.theguardian.com/environment/2019/feb/10/plummeting-insect-numbers-threaten-collapse-of-nature#img-1

कॉफी पर संकट: जंगली प्रजातियां विलुप्त होने को हैं

ई लोगों का प्रिय पेय पदार्थ कॉफी अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहा है। वैसे तो दुनिया भर में कॉफी की 124 प्रजातियां पाई जाती हैं किंतु जो कॉफी हमारे घरों में पहुंचती है, वह मात्र दो प्रजातियों से प्राप्त होती है। इनमें से एक है कॉफी अरेबिका जिसका बाज़ार में बोलबाला है और यह कुल कॉफी उत्पादन में लगभग 70 प्रतिशत का आधार है। दूसरी प्रजाति कॉफी केनीफोरा शेष उत्पादन का आधार है। इसे रोबस्टा भी कहते हैं।

कॉफी की शेष समस्त प्रजातियां जंगली हैं और इनके फल बहुत रोमिल होते हैं, बीज बड़े-बड़े होते हैं और इनमें कैफीन नहीं होता। मगर इन जंगली प्रजातियों में ऐसे जेनेटिक गुण पाए जाते हैं जो इन्हें विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों का सामना करने में मदद करते हैं। और आज जब कृष्य कॉफी पर संकट मंडरा रहा है तो शायद ये जंगली प्रजातियां हमारी मदद कर सकती हैं।

तो जंगली कॉफी के भौगोलिक विस्तार और उनकी सेहत का आकलन करना एक महत्वपूर्ण काम है। इसी दृष्टि से क्यू स्थित रॉयल बॉटेनिकल गार्डन के आरोन डेविड और उनके साथियों ने कॉफी का एक विश्वव्यापी आकलन किया। सबसे पहले उन्होंने जंगली प्रजातियों के 5000 उपलब्ध रिकॉर्डस को खंगाला। इसके बाद इन शोधकर्ताओं ने अफ्रीका, मेडागास्कर और हिंद महासागर के टापुओं में जा-जाकर आंकड़े एकत्रित किए।

प्रत्येक प्रजाति का भौगोलिक स्थान चिंहित करने के बाद उन्होंने अंदाज़ लगाया कि कौन-सी प्रजातियां जोखिम में हैं। इसके लिए उनका आधार यह था कि उस प्रजाति के पौधों की आबादी कितनी है और उसके प्राकृतवास की हालत क्या है। साइंस एडवांसेस में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में उन्होंने बताया है कि कम से कम 60 प्रतिशत प्रजातियां जोखिम में है और कुछ तो शायद विलुप्त भी हो चुकी हैं। तुलना के लिए यह देख सकते हैं कि सारी पादप प्रजातियों में से मात्र 22 प्रतिशत जोखिम में हैं।

एक अन्य अध्ययन में डेविस ने अरेबिका प्रजाति का अध्ययन किया, जिसे वैश्विक विश्लेषण में सामान्यत: कम जोखिमग्रस्त माना जाता है। डेविस की टीम ने दूर-संवेदन से प्राप्त जलवायु परिवर्तन के आंकड़ों को जोड़कर कंप्यूटर पर विश्लेषण किया तो पता चला कि शायद 2080 तक जलवायु परिवर्तन इस प्रजाति को आधा समाप्त कर देगा। यह अध्ययन ग्लोबल चेंज बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ है।

अब विचार चल रहा है कि कॉफी को इस संकट से कैसे बचाया जाए। एक सुझाव यह है कि कॉफी की विभिन्न प्रजातियों के बीजों को बीज संग्रह में रखा जाए। लेकिन दिक्कत यह है कि शीतलीकरण के बाद कॉफी के बीज उगते नहीं हैं। तो एक ही तरीका रह जाता है कि कॉफी के बीजों के हर साल उगाया जाए और अगले साल के लिए बीज एकत्रित करके रखे जाएं। मगर वह बहुत महंगा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.ecowatch.com/wild-coffee-extinction-2626258235.html

खेती के लिए सौर फीडर से बिजली – अश्विन गंभीर और शांतनु दीक्षित

भारत में कुल सींचित क्षेत्र में से दो तिहाई भूजल के पंपिंग पर आश्रित है। इसके लिए 2 करोड़ पंप को बिजली से तथा 75 लाख पंप को डीज़ल से ऊर्जा मिलती है। भूजल की उपलब्धता मूलत: विश्वसनीय और किफायती बिजली आपूर्ति पर निर्भर होती है। यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है क्योंकि इसका सम्बंध ग्रामीण गरीबों की आजीविका और खाद्य सुरक्षा से है। कृषि क्षेत्र बिजली का एक प्रमुख उपभोक्ता है। कई राज्यों में कुल बिजली खपत में से एक-चौथाई से लेकर एक-तिहाई तक कृषि में जाती है।

1970 के दशक से कई राज्यों में खेती के लिए बिजली या तो निशुल्क या बहुत कम कीमत पर मिल रही है। अधिकांश कृषि सप्लाई का मीटरिंग नहीं किया जाता। कम कीमत और राजस्व वसूली की खस्ता हालत के चलते कृषि को दी गई बिजली को वितरण कंपनियों के वित्तीय घाटे का प्रमुख कारण माना जाता है। इस घाटे की कुछ भरपाई तो अन्य उपभोक्ताओं (जैसे औद्योगिक व व्यावसायिक) पर अधिक शुल्क लगाकर की जाती है। इसे क्रॉस सबसिडी कहते हैं। शेष घाटे की पूर्ति सरकार द्वारा सीधे सबसिडी देकर की जाती है।

चूंकि कृषि को बिजली सप्लाई की दृष्टि से घाटे का क्षेत्र माना जाता है, इसलिए खेती को अक्सर घटिया गुणवत्ता की सप्लाई मिलती है। इसकी वजह से पंप का बार-बार जलना और बिजली न मिलने जैसे समस्याएं पैदा होती हैं। सप्लाई को बहाल करने में बहुत समय लगता है। इसके अलावा नए कनेक्शन मिलने में काफी समय लगता है। और तो और, सप्लाई अविश्वसनीय होती है और प्राय: देर रात में ही मिल पाती है। इन सब कारणों से किसानों में वितरण कंपनियों को लेकर अविश्वास पनपा है।

अगले 10 वर्षों में खेती में बिजली की मांग दुगनी होने की संभावना है। सप्लाई की लागत बढ़ने के साथ-साथ कृषि सबसिडी की समस्या भी विकराल होती जाएगी। यदि इस मामले में नए विचार नहीं आज़माए गए तो खेती में बिजली सप्लाई की स्थिति बिगड़ती जाएगी। समाधान कुछ भी हो किंतु उसमें सबसे पहले किसानों को दिन के समय पर्याप्त बिजली की विश्वसनीय सप्लाई उचित दरों पर सुनिश्चित करनी होगी। इससे किसानों और वितरण कंपनियों के बीच परस्पर विश्वास बढ़ेगा। यदि ऐसे किसी समाधान को राष्ट्र के स्तर पर कारगर बनाना है तो इसमें सबसिडी की मात्रा भी कम की जानी चाहिए।

इस संदर्भ में तीन ऐसे विकास हुए हैं जो सर्वथा नई उत्साहवर्धक संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं। पहला, सौर ऊर्जा से सस्ती दरों पर बिजली की उपलब्धता – चूंकि इसमें र्इंधन की कोई लागत नहीं है इसलिए यह बिजली स्थिर कीमत के अनुबंध के आधार पर अगले 25 वर्षों तक 2.75 से लेकर 3.00 रुपए प्रति युनिट की दर से मिल सकती है। दूसरा, सौर ऊर्जा के उपयोग में वृद्धि का राष्ट्रीय लक्ष्य पूरा करने के लिए राज्यों को सौर ऊर्जा की खरीद में तेज़ी से वृद्धि करनी होगी। तीसरा और अंतिम, कि भारत में ग्रिड हर गांव में पहुंच चुकी है तथा कृषि फीडर्स को अलग करने का काम भी काफी तेज़ी से आगे बढ़ा है। फीडर पृथक्करण के ज़रिए पंप को मिलने वाली बिजली और गांव को मिलने वाली बिजली को भौतिक रूप से अलग कर दिया जाता है। फीडर पृथक्करण का दो-तिहाई लक्ष्य हासिल कर लिया गया है।

इन तीन चीज़ों का फायदा उठाते हुए महाराष्ट्र में मुख्य मंत्री सौर कृषि फीडर कार्यक्रम के तत्वाधान में एक नवाचारी कार्यक्रम शुरू किया गया है। सौर कृषि फीडर मूलत: 1-10 मेगावॉट का समुदाय स्तर का सौर फोटो-वोल्टेइक संयंत्र होता है जिसे 33/11 केवी सबस्टेशन से जोड़ा जाता है। एक मेगावॉट क्षमता का सौर संयंत्र 5-5 हॉर्स पॉवर के करीब 350 पंप को संभाल सकता है और इसे लगाने के लिए लगभग 5 एकड़ ज़मीन की ज़रूरत होती है। संयंत्र को लगाने में कुछ महीने लगते हैं और किसानों को अपने छोर पर कोई परिवर्तन नहीं करने पड़ते। उन्हें इसकी स्थापना और संचालन की ज़िम्मेदारी भी नहीं उठानी पड़ती। पृथक्कृत कृषि फीडर से जुड़े सारे पंप्स को दिन के समय (सुबह 8 से शाम 6 बजे तक) 8-10 घंटे विश्वसनीय बिजली मिलेगी। जब सौर बिजली का उत्पादन कम होगा तब शेष बिजली वितरण कंपनी से ली जा सकती है। दूसरी ओर, जब पंपिंग की मांग कम है (जैसे बरसात के मौसम में) तब अतिरिक्त बिजली वितरण कंपनी को दी जा सकती है। इसके चलते संयंत्र का यथेष्ट आकार निर्धारित किया जा सकता है। प्रोजेक्ट डेवलपर्स का चयन प्रतिस्पर्धी नीलामी के द्वारा होता है और संयंत्र से बनने वाली सारी बिजली को वितरण कंपनी 25 साल के अनुबंध के ज़रिए खरीद लेगी। इसके एवज में वितरण कंपनी सम्बंधित फीडर से जुड़े किसानों को बिजली देती रहेगी।

किसानों को दिन के समय विश्वसनीय बिजली मिलने के अलावा इस तरीके का एक फायदा यह है कि इसके लिए सरकार की ओर से किसी पूंजीगत सबसिडी की ज़रूरत नहीं होगी। दरअसल यह तरीका लागत-क्षम है और इससे सबसिडी में कमी आएगी। एक फायदा यह भी है कि इसके लिए कोई नई ट्रांसमिशन लाइन डालने की ज़रूरत नहीं है। नई ट्रांसमिशन लाइन डालने का काम कई बड़े पैमाने के पवन व सौर ऊर्जा की निविदाओं के संदर्भ में प्रमुख अवरोध बन गया है। ऐसे सौर फीडर स्थापित करना वर्तमान नियामक व्यवस्था के तहत संभव है और यह बिजली उत्पादन कंपनियों के नवीकरणीय ऊर्जा खरीद दायित्व (आरपीओ) की पात्रता रखता है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस तरीके में स्थानीय युवाओं को संयंत्र के निर्माण, संचालन व रख-रखाव के कार्य में स्थानीय स्तर पर रोज़गार के रास्ते भी खुलेंगे। इस तरीके के लाभों का प्रदर्शन करने के बाद ऐसे सौर फीडर्स को आपस में जोड़ा सकता है। इससे अनाधिकृत उपयोग/कनेक्शंस कम किए जा सकेंगे, मीटरिंग व शुल्क वसूली को बेहतर बनाया जा सकेगा। ऊर्जा-क्षम पंप तथा पानी की बचत के कार्यक्रम लागू किए जा सकेंगे।

फिलहाल महाराष्ट्र में इस योजना के तहत कुल लगभग 2-3 हज़ार मेगावॉट के सौर संयंत्र निविदा और क्रियांवयन के विभिन्न चरणों में हैं। यह करीब 7.5 लाख पंप यानी महाराष्ट्र के कुल पंप्स में 20 प्रतिशत को सौर बिजली सप्लाई करने के बराबर है। दिसंबर 2018 तक लगभग 10 हज़ार किसानों को इस योजना के तहत दिन के समय विश्वसनीय बिजली सप्लाई मिलने भी लगी है। और तो और, वितरण कंपनी अगले तीन से पांच सालों में इसे 7.5 लाख पंप के शुरुआती लक्ष्य से आगे ले जाने पर विचार कर रही है। राज्य वितरण कंपनी द्वारा बिजली सप्लाई की लागत करीब 5 रुपए प्रति युनिट है (और बढ़ती जा रही है), वहीं सौर बिजली की कीमत अगले 25 वर्षों के लिए 3 रुपए प्रति युनिट पर स्थिर रहेगी। 2 रुपए प्रति युनिट की यह बचत 5 हॉर्स पॉवर के एक पंप के लिए सालाना 10,000 रुपए होती है। किसी फीडर पर 500 पंप हों तो अगले 20 वर्षों में यह बचत 4.5 करोड़ रुपए होगी। भारत सरकार ने इसी तरह की एक योजना राष्ट्रीय स्तर पर भी घोषित की है। कुसुम नामक इस योजना का लक्ष्य 10,000 मेगावॉट है।

देश के हर गांव में बिजली ग्रिड की उपस्थिति तथा साथ में राष्ट्रीय फीडर पृथक्करण कार्यक्रम मिलकर इस लागत-क्षम व आसानी से बड़े पैमाने पर लागू किए जा सकने वाले इस तरीके को समूचे राष्ट्र में व्यावहारिक बना देते हैं। कृषि क्षेत्र के लिए दिन के समय किफायती व विश्वसनीय बिजली उपलब्ध कराने का लक्ष्य इस तरीके को अनिवार्य बना देता है। यह किसान, सरकार व वितरण कंपनियों तीनों के लिए लाभ का सौदा है और यह बिजली क्षेत्र के लिए किसान-केंद्रित रास्ता खोलता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://iascurrent.com/wp-content/uploads/2018/01/maxresdefault-1.jpg

आंत के सूक्ष्मजीव मनोदशा को प्रभावित करते हैं

व्यक्ति की आंत व अन्य ऊतकों में बैक्टीरिया का संसार स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है। लेकिन मस्तिष्क पर इसके प्रभाव सबसे अधिक हो सकते हैं। युरोप के दो बड़े जनसमूहों के एक अध्ययन में पाया गया है कि अवसादग्रस्त लोगों की आंत में बैक्टीरिया की कई प्रजातियां मौजूद नहीं होती हैं। बैक्टीरिया की अनुपस्थिति किसी बीमारी की वजह से हो या यह अनुपस्थिति किसी बीमारी को जन्म देती हो लेकिन तथ्य यह है कि आंत के कई बैक्टीरिया द्वारा बनाए गए पदार्थ तंत्रिकाओं के कार्य और मिज़ाज को प्रभावित करते हैं। 

पूर्व में किए गए कुछ छोटे-छोटे अध्ययनों में पाया गया था कि अवसाद की दशा में आंत के बैक्टीरिया की स्थिति में बदलाव आता है। इस अध्ययन को बड़े समूह पर करने के लिए कैथोलिक विश्वविद्यालय, बेल्जियम के सूक्ष्मजीव विज्ञानी जीरोन रेस और उनके सहयोगियों ने सामान्य सूक्ष्मजीव संसार के आकलन के लिए 1054 बेल्जियम नागरिकों को चुना। इनमें 173 लोग अवसाद से ग्रसित रहे थे या जीवन की गुणवत्ता के सर्वेक्षण में उनकी हालत घटिया पाई गई थी। इसके बाद टीम ने अन्य प्रतिभागियों से इनके सूक्ष्मजीव संसार की तुलना की। इस अध्ययन में स्वस्थ लोगों की तुलना में अवसाद ग्रस्त लोगों के सूक्ष्मजीव संसार में दो प्रकार के बैक्टीरिया (कोप्रोकॉकस और डायलिस्टर) नहीं पाए गए। शोधकर्ताओं ने अवसादग्रस्त लोगों में क्रोह्न रोग के लिए ज़िम्मेदार माने जाने वाले बैक्टीरिया की वृद्धि भी देखी।

अक्सर एक आबादी में सूक्ष्मजीव संसार सम्बंधी परिणाम अन्य समूहों से मेल नहीं खाते हैं। इसके लिए टीम ने 1064 डच लोगों के सूक्ष्मजीव संसार के आंकड़ों पर भी गौर किया। वहां भी अवसादग्रस्त लोगों में वही दो बैक्टीरिया प्रजातियां नदारद थीं।

बैक्टीरिया को मनोदशा से जोड़ने की कड़ी को समझने के लिए रेस और उनके सहयोगियों ने तंत्रिका तंत्र कार्य के लिए महत्वपूर्ण 56 पदार्थों की एक सूची तैयार की, जिनका उत्पादन या विघटन आंत के बैक्टीरिया करते हैं। उन्होंने पाया कि कोप्रोकोकस डोपामाइन नामक रसायन जैसा मार्ग अपनाते हैं जो अवसाद का एक प्रमुख मस्तिष्क संकेत है। यह वही बैक्टीरिया है जो ब्यूटिरेट नामक एक सूजन उत्तेजक पदार्थ भी बनाता है, और सूजन का सम्बंध अवसाद से देखा गया है।

बैक्टीरिया की अनुपस्थिति और अवसाद का सम्बंध तो समझ में आता है लेकिन आंत में सूक्ष्मजीवों द्वारा बनाए गए यौगिक कैसे असर डालते हैं यह समझना मुश्किल है। इसका एक संभव रास्ता वेगस तंत्रिका है, जो आंत और मस्तिष्क को जोड़ती है।

कुछ चिकित्सक और कंपनियां पहले से ही अवसाद के लिए विशिष्ट प्रोबायोटिक्स की खोज कर कर रहे हैं लेकिन वे आम तौर से इस नए अध्ययन में पहचाने गए बैक्टीरिया समूह को शामिल नहीं करते हैं। बेसल विश्वविद्यालय, स्विट्जरलैंड में मल-प्रत्यारोपण के एक परीक्षण की योजना बनाई जा रही है, जो अवसादग्रस्त लोगों में आंतों के सूक्ष्मजीव संसार को ठीक कर सकता है। कई लोग और अध्ययन करने का सुझाव देते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://d1nnaw47rmvqpz.cloudfront.net/wp-content/uploads/Effect-gut-bacteria-on-mood-1.jpg

उन्नीसवीं सदी की रिकार्डेड आवाज़ सुनी गई – ज़ुबैर

आजकल आवाज़/ऑडियो रिकॉर्ड करना और उसको दोबारा सुनना काफी आसान हो गया है। बस अपने सेलफोन में एक ऐप इंस्टाल कीजिए और मन चाहे तब आप कुछ भी रिकॉर्ड कीजिए और जब मन चाहे उसको सुन भी लीजिए। लेकिन क्या आवाज़ रिकॉर्ड करना और उसको बार-बार सुनना हमेशा से इतना आसान था या फिर काफी तकनीकी मशक्कत के बाद हम इस स्तर पर पहुंचे हैं।

ऑडियो रिकॉर्डिंग के इतिहास को देखा जाए तो इस क्षेत्र में सबसे पहला प्रयास थॉमस एडिसन ने किया था। उन्होंने 1877 में टिन की पन्नी के फोनोग्राफ का आविष्कार करके 1878 में इसे बेचना शुरू किया था। तो वे कौन से उपकरण और प्रणाली थी जिसकी मदद से सबसे पहली रिकार्डिंग की गई? सबसे पहले क्या रिकॉर्ड किया गया? और क्या सबसे पहली रिकार्डिंग अभी भी कहीं मौजूद है?

आज से कुछ साल पहले स्मिथसोनियन संग्रहालय से एक ऐसी टिन की पन्नी मिली जिसमें ऑडियो संग्रह था। अब समस्या थी कि इस टिन की पन्नी को चलाने के लिए वह उपकरण मौजूद नहीं था जिसकी मदद से इसको दोबारा सुना जा सके। और अगर ऐसा कोई उपकरण होता भी तो इस टिन पन्नी की हालत इतनी खराब थी कि अगर इसे चलाया जाता तो इसके बरबाद हो जाने की आशंका काफी अधिक थी।

इसी दौरान लॉरेंस बर्कले नेशनल लेबोरेटरी, कैलिफोर्निया में भौतिक विज्ञानी कार्ल हैबर और उनकी टीम पन्नी का त्रि-आयामी चित्र तैयार करने में कामयाब रहे। इसकी स्थलाकृति को ध्वनि में परिवर्तित करने के लिए गणितीय विश्लेषण और मॉडलिंग की तकनीकों का उपयोग किया गया। इससे यह पता चला कि यदि सुई उस पन्नी पर चलती तो किस प्रकार ध्वनि की ध्वनि पैदा होती। और यह सारा पन्नी को छुए बिना किया गया क्योंकि यह पन्नी इतनी पुरानी, नाज़ुक और टूटी-फूटी थी कि इसको आज के आधुनिक तरीकों से चलाना असंभव था।

पन्नी पर यह रिकॉर्डिंग मूलत: फोनोग्राफ द्वारा बनाई गई थी, जिसकी सुई पन्नी पर ऊपर-नीचे चलती थी जिससे ध्वनि तरंगों को रिकॉर्ड किया जाता था। इसमें एक सिलेंडर भी था जिसको हाथ से घुमाया जाता था। आवाज़ को दोबारा सुनने के लिए सुई उससे जुड़े पर्दे को कंपन प्रदान करती जिससे ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती। यह पर्दा लाउडस्पीकर से जुड़ा रहता था जिसके माध्यम से आवाज़ को सीधे या इयरफोन के माध्यम से सुना जा सकता था।

लेकिन कई बार उपयोग करने के बाद सुई पन्नी को चीरफाड़ देती, जिसके बाद लोग इन्हें कबाड़ी को बेच देते थे या स्मृति चिन्ह के रूप में भेंट कर देते थे। दरअसल यह पन्नी प्राचीन वस्तुएं संग्रह करने वाले एक व्यक्ति की पुत्री ने उपलब्ध कराई थी। कार्ल हैबर द्वारा इसको स्कैन और साफ करने के बाद भी रिकॉर्डिंग में जो शोरगुल सुनाई दे रहा है वह संभवत: पन्नी को मोड़कर रखने के कारण पड़ी सिलवटों के कारण है। इस रिकॉर्डिंग में एक व्यक्ति के हंसने की आवाज़ है और ‘मैरी हैड ए लिटिल लैम्ब’ और ‘ओल्ड मदर हबर्ड’ गीतों पाठ भी सुनाई दिया। माना जाता है कि यह पहली बार था जब 1878 में सेंट लुइस में थॉमस एडिसन के फोनोग्राफ द्वारा रिकॉर्ड की गई आवाज़ को न्यू यॉर्क स्थित जी. ई. थियेटर में सार्वजनिक रूप से सुनाया गया था।

कार्ल हैबर के पास वह उपकरण नहीं था जिससे इस आवाज़ को सुना जा सके लेकिन उन्होंने मॉडलिंग और सिमुलेशन पर आधारित एक तकनीक का इस्तेमाल किया है जिसकी मदद से किसी भी प्रकार की रिकॉर्डिंग को दोबारा जीवंत किया जा सकता है। उनके अनुसार यह अमेरिका ही नहीं दुनिया में कहीं भी की गई सबसे पुरानी रिकॉर्डिंग है।

इस लेख में जिस रिकॉर्डिंग की चर्चा की गई है उसे इस लिंक पर जाकर सुना जा सकता है: https://www.theatlantic.com/technology/archive/2012/10/scientists-recover-the-sounds-of-19th-century-music-and-laughter-from-the-oldest-playable-american-recording/264147/

रिकॉर्डिग में लगता है कि स्वयं एडिसन की आवाज़ है लेकिन इसे लेकर विवाद है। स्मिथसोनियन संग्रहालय के निरीक्षक क्रिस हंटर का मानना है कि यह आवाज एक अखबारी व्यंग्य लेखक थॉमस मेसन की है, जो अपने उपनाम आई.एक्स. पेक (अंग्रेज़ी में ‘I expect’) का उपयोग करते थे। कहते हैं थॉमस एडिसन थोड़ा ऊंचा सुनते थे और उनका उच्चारण भी काफी अलग था। एडिसन की पहली रिकॉर्डिंग अब मौजूद नहीं है, और यदि मौजूद है भी तो कोई नहीं जानता कि कहां है।

इन पन्नियों में एडिसन की आवाज़ है या नहीं यह बहस का विषय हो सकता है लेकिन एक बात तो सच है कि रिकॉर्डिंग तकनीक ने जीवन के कई पहलुओं को आकार दिया है। रिकॉर्डेड ध्वनि ने संगीत उद्योग को जन्म दिया मगर साथ ही जनजातीय अनुसंधान, मैदानी रिकॉर्डिंग, पत्रकारिता के साक्षात्कार, ऐतिहासिक शोध में नई क्षमताएं पैदा कीं। इन सबकी शुरुआत की तलाश की जाए तो खोज एडिसन और उनकी पन्नियों पर जाकर खत्म होगी। एडिसन ने अपने इस आविष्कार की मदद से वास्तव में दुनिया को बदलकर रख दिया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :   https://cdn.theatlantic.com/static/mt/assets/science/First%20phonograph%2C%201877.jpg

पंख के जीवाश्म से डायनासौर की उड़ान पता चला

वैज्ञानिक काफी लंबे समय से यह तो जानते हैं कि कई शुरुआती डायनासौर, जो आज के पक्षियों के पूर्वज हैं, पंखों से ढंके हुए थे। पंखों का यह आवरण गर्मी प्रदान करने के अलावा प्रजनन साथियों को आकर्षित करने में भी उपयोगी था। लेकिन अभी तक यह नहीं पता था कि कब और कैसे इन पंखों का इस्तेमाल उड़ने के लिए किया जाने लगा।

अब पंख वाले डायनासौर के पंख के जीवाश्म के आणविक विश्लेषण से पता चला है कि पंख में प्रयुक्त प्रमुख प्रोटीन किस तरह समय के साथ हल्के और अधिक लचीले हुए जिसके चलते डायनासौर उड़ने में सक्षम हुए और अंतत: पक्षियों में विकसित हुए।

ज़मीन पर चलने वाले सभी रीढ़धारी जीवों में किरेटिन नाम का एक प्रोटीन होता है जो नाखूनों से लेकर चोंच, पंख, शल्क वगैरह बनाता है। मनुष्यों और अन्य स्तनधारियों में, अल्फा किरेटिन 10 नैनोमीटर चौड़ा तंतु बनाता है जिससे बाल, त्वचा और नाखून बनते हैं। मगरमच्छों, कछुओं, छिपकलियों और पक्षियों में बीटा किरेटिन और भी पतला व अधिक कठोर तंतु बनाता है जिससे पंजे, चोंच और पंख बनते हैं।

वैज्ञानिकों ने पिछले एक दशक में दर्जनों जीवित पक्षियों, मगरमच्छों, कछुओं और अन्य रेंगने वाले जीवों के जीनोम की मदद से समय के साथ उनके  बीटा किरेटिन में बदलाव के आधार पर एक वंशवृक्ष तैयार किया है। उनके अनुसार आधुनिक पक्षियों ने अधिकांश अल्फा किरेटिन तो गंवा दिया, लेकिन उनके पंखों में बीटा किरेटिन अधिक लचीला हो गया। इनमें ग्लाइसिन और टायरोसिन अमीनो एसिड्स की एक लड़ी का अभाव होता है जो पंजे और चोंच को कठोर बनाती है। इससे पता चला कि उड़ान के लिए ये दोनों परिवर्तन आवश्यक हैं।

इन दोनों परिवर्तनों को एक साथ देखने के लिए शोधकर्ताओं ने चीन और मंगोलिया के असाधारण जीवाश्मों में अल्फा और बीटा किरेटिन का विश्लेषण किया। पुराजीव वैज्ञानिक पान यानहोंग और मैरी श्वाइट्ज़र ने 16 से 7.5 करोड़ वर्ष पूर्व की पांच प्रजातियों किरेटिन का विश्लेषण किया।

उन्होंने प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में बताया है कि 16 करोड़ साल पहले के एक कौए के आकार के एनचीओर्निस डायनासौर के पंखों में कुछ मात्रा में आधुनिक पक्षियों के समान अभावग्रस्त बीटा किरेटिन पाया गया। लेकिन सबसे प्राचीन ज्ञात पक्षी आर्कियोप्टेरिक्स से 10 करोड़ वर्ष पूर्व के डायनासौर में अधिक अल्फा किरेटिन पाया गया, जो आज के पक्षियों के पंखों में कमोबेश अनुपस्थित है।

इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि एनचीओर्निस के पंख उड़ान भरने के लिए सक्षम तो नहीं थे लेकिन उड़ान की ओर विकास में एक मध्यवर्ती चरण को दर्शाते हैं।

इसी प्रकार 13 करोड़ वर्ष पुराने एक छोटे उड़ानहीन डायनासौर शुवुइया से प्राप्त पंखों से पता चलता है कि आधुनिक पक्षियों की तरह, इसमें अल्फा किरेटिन की कमी तो थी लेकिन एनचीओर्निस के विपरीत, इसके पंख अधिक कठोर बीटा किरेटिन से बने थे।

आधुनिक आनुवंशिक सबूतों के आधार पर यह कह पाना संभव है कि विकास के दौरान, कुछ डायनासौर के जीनोम में अल्फा किरेटिन जीन की कई प्रतिलिपियां बन गई। फिर इन ढेर सारी प्रतियों में काट-छांट के चलते ये बीटा किरेटिन के ग्लायसीन व टायरोसीन रहित लचीले किरेटिन का निर्माण करने लगे। इस दोहरे परिवर्तन ने डायनासौर को उड़ने में सक्षम बनाया और इसी के फलस्वरूप पक्षी विकसित हुए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/feathers_16x9.jpg?itok=aWYEzdiZ

ई-कचरे के विरुद्ध शुरू हुआ सार्थक अभियान – प्रमोद भार्गव

दुनिया भर में उपयोग करो और फेंको संस्कृति, जो कई टन कचरे को जन्म देती है, के विरुद्ध शंखनाद हो गया है। दरअसल पूरी दुनिया में इलेक्ट्रॉनिक कचरा (ई-कचरा) बड़ी एवं घातक समस्या बन गया है। इससे निजात पाने के लिए युरोपीय संघ और अमेरिका के पर्यावरण संगठनों ने इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाने वाली कंपनियों की मनमानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। वे राइट-टु-रिपेयर यानी मरम्मत का अधिकार की मांग कर रहे हैं। इस अभियान के भारत समेत पूरी दुनिया में फैलने की उम्मीद है। भारत को तो विकसित देशों ने ई-कचरा का डंपिंग ग्राउंड माना हुआ है। इस कचरे को नष्ट करने के जैविक उपाय भी तलाशे जा रहे हैं, लेकिन इसमें अभी बड़ी सफलता नहीं मिली है।

अमेरिका एवं युरोप के कई देशों के पर्यावरण मंत्री कंपनियों को यह सुझा चुके हैं कि वे ऐसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाएं, जो लंबे समय तक चलें और खराब होने पर उनकी मरम्मत की जा सके। भारत में भी कई गैर-सरकारी संगठनों ने आवाज़ बुलंद की है।

दुनिया के विकसित देश अपना ज़्यादातर कचरा भारतीय समुद्र में खराब हो चुके जहाज़ों में लादकर बंदरगाहों के निकट छोड़ जाते हैं। इससे भारतीय तटवर्ती समुद्रों में कचरे का अंबार लग गया है। इस ई-कचरे में कंप्यूटर, टीवी स्क्रीन, स्मार्टफोन, टैबलेट, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, इंडक्शन कुकर, एसी और बैटरियां होते हैं। इस अभियान के बाद अमेरिका में 18 राज्य राइट-टु-रिपेयर कानून बनाने पर विचार कर रहे हैं।

एक शोध के मुताबिक 2004 में घरेलू कामकाज की 3.5 फीसदी इलेक्ट्रॉनिक मशीनें पांच साल बाद खराब हो रही थीं। 2012 में इनका अनुपात बढ़कर 8.3 प्रतिशत हो गया। रिसाइÏक्लग केंद्रों पर दस फीसदी से ज़्यादा ऐसे उपकरण आए, जो पांच साल से पहले ही खराब हो गए थे। कंप्यूटर, लेपटॉप, टैबलेट और मोबाइल के निरंतर नए-नए मॉडल आने और उनमें नई सुविधाएं उपलब्ध होने से भी ये उपकरण अच्छी हालत में होने के बावजूद उपयोग के लायक नहीं रह जाते। लिहाज़ा ई-कचरे की मात्रा लगातार बढ़ रही है। एक अनुमान के मुताबिक 2018 में दुनिया भर में पांच करोड़ टन ई-कचरा इकट्ठा हुआ। इस कचरे को एक जगह जमा किया जाए तो माउंट एवरेस्ट से भी ऊंचा पर्वत बन जाएगा अथवा 4500 एफिल टावर बन जाएंगे। ई-कचरा पैदा करने में भारत दुनिया का पांचवां बड़ा देश है। भारतीय शहरों में पैदा होने वाले ई-कचरे में सबसे ज़्यादा कंप्यूटर और उसके सहायक यंत्र होते हैं। ऐसे कचरे में 40 प्रतिशत सीसा और 70 प्रतिशत भारी धातुएं होती हैं। कई लोग इन्हें निकालकर आजीविका भी चला रहे हैं।       

आज ई-कचरा, जिसमें बड़ी मात्रा में प्लास्टिक के उपकरण भी शामिल हैं, नष्ट करना भारत व अन्य देशों के लिए मुश्किल हो रहा है। इसे जैविक रूप से नष्ट करने के उपाय तलाशे जा रहे हैं। इस कचरे का एक सकारात्मक पहलू सोना व अन्य उपयोगी धातुओं की उपस्थिति है। हाल ही में ऐपल कंपनी ने बेकार हो चुके कचरे को पुनर्चक्रित करके ई-कचरे से 264 करोड़ का सोना निकाला  है। इसके अलावा करीब 580 करोड़ का इस्पात, एल्यूमिनियम, ग्लास और अन्य धातुई तत्व निकालने में कामयाबी हासिल की है। ऐपल के इस रचनात्मक खुलासे के बाद अच्छा होगा कि हमारी सरकारें युवाओं को ई-कचरे से सोना एवं अन्य धातुएं निकालने का प्रशिक्षण दें और स्टार्टअप के तहत इस तरह के संयंत्र लगाने को प्रोत्साहित करें। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उत्पादन और उनके नष्ट होने की प्रक्रिया निरंतर चलने वाली है, इसलिए यदि ये संयंत्र देश के कोने-कोने में लग जाते हैं तो इनके संचालन में कठिनाई आने वाली नहीं है। बेकार हो चुके उपकरणों के रूप में कच्चा माल स्थानीय स्तर पर ही मिल जाएगा और पुनर्चक्रण के बाद जो सोना-चांदी, इस्पात, जस्ता, तांबा, पीतल, एल्यूमीनियम आदि धातुएं निकलेंगी उनके खरीददार भी स्थानीय स्तर पर ही मिल जाएंगे। वैसे भी ये धातुएं और इनसे बनी वस्तुएं रोज़मर्रा के जीवन में इतनी जरूरी हो गई हैं कि इनकी आवश्यकता बनी ही रहती है। इन संयंत्रों के लगने से धरती व जल प्रदूषित होने से बचेंगे। यदि कचरा बिना कोई उपचार किए धरती में गड्ढे खोदकर दफना दिया जाता है तो इससे खतरनाक गैसें निकलती हैं जो धरती और मानव स्वास्थ्य के लिए तो हानिकारक हैं ही, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के लिए भी हानिकारक है।

इलेक्ट्रॉनिक उपकरण विशेषज्ञों का मानना है कि औसतन एक स्मार्टफोन में 30 मिलीग्राम सोना होता है। साफ है, समस्या बने ई-कचरा पुनर्चक्रण में बड़े पैमाने पर युवाओं को रोज़गार मिलेगा और देश बड़े स्तर पर इस कचरे को नष्ट करने के झंझट से भी मुक्त होगा। इसलिए इस कचरे को रोज़गार उपलब्ध कराने वाले संसाधन के रूप में देखने की ज़रूरत है।

औसतन एक टन ई-कचरे के टुकड़े करके उसे यांत्रिक तरीके से पुनर्चक्रित किया जाए तो लगभग 40 किलो धूल या राख जैसा पदार्थ तैयार होता है। इसमें अनेक कीमती धातुएं रहती हैं। इन धातुओं के पृथक्करण की प्रक्रिया में हाथों से छंटाई, चुंबक से पृथक्करण, विद्युत-विच्छेदन, सेंट्रीफ्यूज और उलट परासरण जैसी तकनीकें शामिल हैं। लेकिन ये तरीके मानव शरीर और पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाले हैं, इसलिए इस हेतु बायो-हाइड्रो मेटलर्जिकल तकनीक कहीं बेहतर है। इस तकनीक को अमल में लाते वक्त सबसे पहले बैक्टीरियल लीचिंग प्रोसेस का प्रयोग करते हैं। इसके लिए ई-कचरे को बारीक पीसकर उसे जीवाणुओं के साथ रखा जाता है। बैक्टीरिया में मौजूद एंज़ाइम कचरे में उपस्थित धातुओं को घुलनशील यौगिकों में बदल देते हैं। बायो-लीचिंग की विधि में जीवाणु कुछ विशेष धातुओं को अलग करने में मदद करते हैं। हालांकि ऐपल द्वारा ई-कचरे से सोना निकालने की जानकारी आने के पहले से ही कई प्रकार के जीवाणुओं और फफूंद का उपयोग प्रिटेंड सर्किट बोर्ड से सीसा, तांबा और टिन को अलग करने के लिए किया जाता रहा है।

यदि ई-कचरे को छीलन में बदलकर 5-10 ग्राम प्रति लीटर की सांद्रता में घोलकर कुछ खास बैक्टीरिया के साथ रखा जाए तो कुछ तांबा, जस्ता, निकल और एल्यूमीनियम 90 प्रतिशत से अधिक निकाले जा सकते हैं। इसी प्रकार से कुछ फफूंदों की मदद से 65 प्रतिशत तक तांबा और टिन अलग किए जा सकते हैं। इसके अलावा कचरे की छीलन की सांद्रता 100 ग्राम प्रति लीटर रखी जाए तो यही फफूंदें एल्यूमीनियम, निकल, सीसा और जस्ते में से भी 95 प्रतिशत धातु को अलग करने में सक्षम सिद्ध होती हैं। ये सभी उपयोगी धातुएं हैं।

पुनर्चक्रण के लिए भौतिक-रासायनिक और ऊष्मा आधारित तकनीकें भी उपलब्ध हैं, किंतु जैविक तकनीक की तुलना में इनकी सफलता कम आंकी गई है। हालांकि भारत में ई-कचरे के पुनर्चक्रण के संयंत्र दिल्ली, मेरठ, बैंगलुरू, मुबंई, चैन्नई और फिरोज़ाबाद में लगे हुए हैं, लेकिन जिस पैमाने पर ई-कचरा पैदा होता है, उसे देखते हुए ये संयंत्र ऊंट के मुंह में ज़ीरे के समान हैं। इसलिए ई-कचरे के पुनर्चक्रण संयंत्र लगाने की जबावदेही ई-कचरा उत्पादन कंपनियों को भी सौंपने की ज़रूरत है। यदि पुनर्चक्रण के ये संयंत्र स्थान-स्थान पर स्थापित कर दिए जाते हैं तो कचरे का निपटारा तो होगा ही, कच्चे माल की कीमत कम होने से वस्तुओं के दाम भी कमोबेश सस्ते होंगे। साथ ही पृथ्वी, जल और वायु प्रदूषण मुक्त रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :   https://uploads.mesym.com/wp-content/uploads/2017/05/New-Used-12.png