मानव शरीर में कोशिकाएं: साइज़ और संख्या

डॉ. सुशील जोशी

ह तो जानी-मानी बात है कि कोशिका जीवन की इकाई (cell is the basic unit of life) होती है। इसका मतलब यह है कि जीवन की सारी क्रियाएं कोशिका नामक प्रकोष्ठ में संपन्न होती हैं। कई सारे जीव एक-कोशिकीय (unicellular organisms) होते हैं यानी उनका शरीर एक कोशिका से बना होता है और यह एक कोशिका जीवन की समस्त क्रियाएं (पोषक पदार्थों का अवशोषण, पाचन, अपशिष्ट पदार्थों का उत्सर्जन, आसपास के परिवेश के बारे में सूचनाएं प्राप्त करना और उन पर प्रतिक्रिया देना, पोषक पदार्थों से ऊर्जा प्राप्त करना, और श्वसन वगैरह) संपन्न करती है। लेकिन कई जीव बहुकोशिकीय (multicellular organisms) होते हैं। उनमें उक्त सारी क्रियाओं को कई सारी कोशिकाएं मिल-बांटकर समन्वय से संपन्न करती हैं।

क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे शरीर में कितनी कोशिकाएं (how many cells in human body) होती हैं। यदि आप यह संख्या जान जाएंगे तो आपको यह बात हैरान करेगी कि इतनी सारी कोशिकाएं मिल-जुलकर कैसे काम करती हैं। इस संदर्भ में हाल ही में प्रकाशित एक शोध पत्र (scientific paper on cell count) में दिलचस्प खुलासे किए गए हैं।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (PNAS) में प्रकाशित समीक्षा पर्चे में जर्मनी के मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर मैथेमेटिक्स इन साइंस के इयान हटन, एरिक गालब्रेथ, नोनो साहा सिरिल मर्लो, टीमू मीटिनेन, बेंजामिन स्मिथ तथा जेफ्री शैंडर ने एक औसत पुरुष, एक औसत स्त्री और 10 वर्ष के बालक के शरीर में कोशिकाओं की संख्या के जो अनुमान पेश किए हैं वे तालिका 1 में देखिए।

तालिका 1: मानव शरीर में कोशिकाओं की संख्या

पुरुष (वज़न 70 किलोग्राम, कद 176 से.मी., उम्र 20-50 वर्ष)36 ट्रिलियन
स्त्री (वज़न 60 किलोग्राम, कद 163 से.मी., उम्र 20-50 वर्ष)28 ट्रिलियन
बच्चा (वज़न 32 किलोग्राम, कद 138 से.मी., उम्र 10 वर्ष)17 ट्रिलियन

इन आंकड़ों तक पहुंचने के लिए शोधकर्ताओं ने 60 अलग-अलग ऊतकों में 400 किस्म की कोशिकाओं (400 types of human cells) की साइज़ व संख्याओं के आंकड़े शामिल किए। लेखकों ने स्वीकार किया है कि ये आंकड़े औसत पर आधारित हैं और यह इनकी सीमा है।

इसी प्रकार से उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि जिन शोध पत्रों (research papers on cell biology) या संदर्भों का सहारा लिया गया है, उनमें अधिकांशत: आंकड़े 60 किलोग्राम वज़न के एक वयस्क पुरुष के आंकड़े थे, और वर्तमान अनुमान के लिए उन्हें इन्हीं के आधार पर गणना करनी पड़ी थी।

कोशिकाओं की संख्या का अनुमान लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने पूर्व शोध साहित्य (scientific literature) का सहारा लिया। किसी भी ऊतक की प्रति इकाई में सबसे प्रमुख कोशिका प्रकार के तुलनात्मक अनुपात, कोशिका संख्या, सतह के क्षेत्रफल और डीएनए सांद्रता (DNA density) को आधार बनाया गया। इन आंकड़ों को इंटरनेशनल कमीशन ऑन रेडियोलॉजिकल प्रोटेक्शन के आंकड़ों से जोड़कर प्रत्येक किस्म की कोशिका की संख्या का अनुमान लगाया गया।

शोधकर्ताओं ने अलग-अलग प्रकार की कोशिकाओं के वज़न (cell mass estimation) का आकलन भी किया। 400 से अधिक प्रकार की कोशिकाओं के वज़न के आंकड़े विभिन्न हिस्टॉलॉजी (histology data) स्रोतों से प्राप्त किए गए, जिनका अनुमान कोशिकाओं की आकृति, लंबाई, व्यास तथा कभी-कभी अन्य किस्म की कोशिकाओं से समानता के आधार पर किया गया है। इसके बाद कोशिका संख्या में कोशिका के वज़न से गुणा करके शरीर में उस किस्म की कोशिका का कुल बायोमास निकाल गया।

कोशिकाओं की साइज़ (cell size variation)

यह तो सभी जानते होंगे कि शरीर की सारी कोशिकाएं (human cells are not all the same size) एक समान नहीं होतीं। वैसे तो सारी कोशिकाएं कुछ काम तो एक जैसे करती हैं, लेकिन हर किस्म की कोशिका इन सामान्य कामों के अलावा कुछ विशिष्ट काम (specialized cell functions) करती हैं। जैसे कुछ कोशिकाएं ऑक्सीजन से जुड़कर उसे शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुंचाती हैं, कुछ कोशिकाएं पर्यावरण से मिलने वाले संकेतों को ग्रहण करती हैं और उन्हें दिमाग तक पहुंचाती हैं, कुछ कोशिकाएं भोजन के पाचन के लिए एंज़ाइमों का निर्माण करती हैं, वगैरह। आप सोच ही सकते हैं कि हमारे शरीर में कितने सारे काम होते हैं और उनके लिए कितनी तरह की विशिष्ट कोशिकाओं की ज़रूरत होगी। फिर इन कोशिकाओं के कामों के बीच समन्वय भी करना होता है।

यह तो हुई बात कामकाज की। यह भी देखा गया है कि मानव शरीर में कोशिकाओं की साइज़ में भी बहुत विविधता (cell size range in human body) होती है। इस विविधता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सबसे बड़ी कोशिका सबसे छोटी कोशिका से 10 लाख गुना बड़ी (size difference among human cells) होती है। मोटे तौर पर कहें तो सबसे छोटी कोशिका यदि छछूंदर के बराबर मानी जाए, तो सबसे बड़ी कोशिका एक ब्लू व्हेल के बराबर निकलेगी।

साइज़ में विविधता के अलावा एक अंतर प्रत्येक किस्म की कोशिकाओं की संख्या (variation in cell count) में भी देखने को मिलता है।

लेकिन इयान हटन व साथियों के उपरोक्त समीक्षा पर्चे में हमारे शरीर में कोशिकाओं को लेकर एक दिलचस्प बात बताई गई है: किसी किस्म की कोशिका जितनी बड़ी-बड़ी होती हैं, उनकी कुल संख्या उतनी ही कम होती है जबकि छोटी-छोटी कोशिकाएं संख्या में अधिक पाई जाती हैं।

वैसे यह बात हमारे आसपास की कई चीज़ों पर लागू होती है और इसे ज़िफ (Zipf’s law in biology) का नियम कहा जाता है। नियम यह कहता है कि जब किसी चीज़ की साइज़ दुगनी हो जाती है तो उसकी कुल आबादी आधी रह जाती है। जैसे जीवजगत में बड़े जीवों की तादाद कम होती है, बनिस्बत छोटे जीवों के।

तो जीव वैज्ञानिकों के मन में विचार आया कि इस नियम को मानव शरीर पर लागू करके देखा जाए। और जब किया तो आश्चर्यजनक नतीजे मिले। मानव शरीर में विभिन्न किस्म की कोशिकाओं के आयतन और उनकी संख्या के आंकड़े एकत्रित करके इनके पैटर्न (cell size vs frequency pattern) का विश्लेषण करने पर देखा गया कि ज़िफ का नियम कोशिकाओं पर भी लागू होता है।

देखा गया कि जब किसी किस्म की कोशिकाओं का आयतन दुगना होता है, तो शरीर में उस किस्म की कोशिकाओं की आवृत्ति आधी रह जाती है। एक उदाहरण देखिए। हमारे शरीर में केंद्रक-विहीन लाल रक्त कोशिकाएं सबसे अधिक संख्या में पाई जाती हैं। दूसरी ओर, हमारे हाथ-पैरों की मांसपेशियों की बड़ी-बड़ी कोशिकाएं सबसे कम होती हैं। आयतन के हिसाब से देखेंगे तो लाल रक्त कोशिकाएं (RBCs – red blood cells) सबसे छोटी और मांसपेशीय कोशिकाएं सबसे बड़ी होती हैं।

लेकिन सवाल यह है कि इस नियम को जानकर फायदा क्या (benefits of Zipf’s law in cell biology)। शोधकर्ताओं का कहना है कि इससे डॉक्टरों को कई तंत्रों को बेहतर समझने में मदद मिलेगी और उन कोशिका किस्मों की संख्या का आकलन किया जा सकेगा जिनकी गिनती करना मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए लिम्फोसाइट (lymphocytes in immune system) नामक प्रतिरक्षा कोशिकाओं की शरीर में संख्या जीव वैज्ञानिकों के अनुमान से कहीं अधिक हो सकती है।

खैर नियम लागू हो ना हो, हम मानव शरीर में कोशिकाओं के प्रकारों और उनकी संख्या के आंकड़े देखने का आनंद तो ले ही सकते हैं।

प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (PNAS) में प्रकाशित उक्त समीक्षा पर्चे आधार पर विभिन्न कोशिका प्रकारों की बात करते हैं। नीचे दिया गया चार्ट देखें।

आप सोच रहे होंगे कि कोशिकाओं का कुल वज़न 38.616 ग्राम ही है जो शरीर के वज़न से काफी कम है। यह बताता है कि हमारे शरीर में काफी वज़न पानी (body water composition) का होता है जिसमें से लगभग दो-तिहाई पानी कोशिकाओं के अंदर होता और एक-तिहाई कोशिकाओं के बाहर पाया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

एपिथीलियल, एंडोथीलियल कोशिकाएं: नाना प्रकार की एपिथीलियल कोशिकाएं शरीर पर और आंतरिक अंगों की बाहरी सतह पर आवरण बनाती हैं। एंडोथीलियल कोशिकाएं रक्त वाहिनियों की अंदरुनी सतह पर फैली होती हैं। इन दोनों की कुल संख्या 1780 अरब है। कुल वज़न 1940 ग्राम।

फाइब्रोब्लास्ट तथा ओस्टिऑइड: फाइब्रोब्लास्ट कोशिकाएं शरीर के संयोजी ऊतक बनाती हैं जबकि ओस्टिऑइड कोशिकाएं (ओस्टियोब्लास्ट तथा ओस्टियोसाइट समेत) हड्डियों में पाई जाती हैं। संख्या 470 अरब। वज़न 720 ग्राम।

न्यूरॉन ग्लियल कोशिकाएं: इस वर्ग में 57 किस्म की तंत्रिका कोशिकाएं और 22 किस्म की ग्लियल कोशिकाएं शामिल हैं। परिधीय तंत्रिका तंत्र में कोशिकाओं की साइज़ तथा संख्या में काफी विविधता होती है। इनकी संख्या 134 अरब है। कुल वज़न 938 ग्राम।

स्टेम कोशिकाएं, जर्म कोशिकाएं तथा पेरिसाइट: इस वर्ग की कोशिकाओं में क्षमता होती है कि वे परिपक्व होकर अन्य किस्म की अपेक्षाकृत विभेदित कोशिकाएं बना सकें। इनमें ऊसाइट (अपरिपक्व अंडाणु कोशिकाएं) शामिल हैं। संख्या 229 अरब। वज़न 106 ग्राम।

रक्त कोशिकाएं: रक्त में कई तरह की कोशिकाएं होती हैं। इनमें से कुछ ऐसी भी होती हैं जिनमें केंद्रक नहीं होता (एरिथ्रोसाइट्स तथा प्लेटलेट्स)। एरिथ्रोसाइट्स फेफड़ों से ऑक्सीजन लेकर विभिन्न अंगों तक पहुंचाती हैं जबकि प्लेटलेट्स खून का थक्का बनने में भूमिका निभाती हैं। लिम्फोसाइट, मोनोसाइट्स तथा मैक्रोफेज कोशिकाएं प्रतिरक्षा तंत्र का हिस्सा हैं और केंद्रक युक्त होती हैं। रक्त में कोशिकाओं की कुल संख्या 24,900 अरब होती है। इनमें से भी लाल रक्त कोशिकाएं यानी एरिथ्रोसाइट्स लगभग 19,200 अरब होती हैं। रक्त कोशिकाओं का कुल वज़न 6500 ग्राम।

मायोसाइट यानी मांसपेशीय कोशिकाएं: ये दो तरह की होती हैं – रेखित तथा चिकनी। रेखित कोशिकाएं कंकाल व हृदय में पाई जाती हैं। जबकि चिकनी मांसपेशीय कोशिकाएं खोखले अंगों, वाहिकाओं की दीवारों, आंखों तथा अन्य स्थानों पर पाई जाती हैं। संख्या 87 अरब। कुल वज़न 14,000 ग्राम।

एडिपोसाइट: ये वसा कोशिकाएं हैं। इनमें श्वेत वसा कोशिकाएं और भूरी वसा कोशिकाएं होती हैं। ये त्वचा के नीचे, अंदरुनी मुलायम अंगों तथा अस्थि मज्जा में स्थित होती हैं और शरीर में वसा संग्रह करती हैं। इनकी संख्या 261 अरब है। कुल वज़न 18,200 ग्राम।

खाद्य तेल की मदद से ई-कचरे से चांदी निकालें

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

सोने के बाद चांदी सबसे कीमती धातु मानी जाती है। कई परिवारों में खुशी के मौकों पर सोने-चांदी की चेन-अंगूठियां ली-दी जाती हैं (या पहनी जाती हैं)। बेशक, चांदी सोने से सस्ती है।

लेकिन जब उद्योग (silver in industry) और ऊर्जा उत्पादन (silver in clean energy) में उपयोग की बात आती है तो चांदी सोने को पछाड़ देती है। पूरे भारत में चांदी का इस्तेमाल छतों पर लगे सौर पैनलों (solar panels) के माध्यम से सौर ऊर्जा को कैद करने में किया जाता है। इससे पूरे देश में सालाना लगभग 108 गीगावॉट स्वच्छ एवं हरित बिजली पैदा होती है। यह मात्रा कोयले से पैदा होने वाली बिजली की लगभग 10 प्रतिशत है। इसके अलावा, भारत की लगभग 1.4 अरब आबादी द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले मोबाइल फोन (silver in mobile phones) में विद्युत चालन और भंडारण के लिए चांदी का इस्तेमाल किया जाता है। हर मोबाइल फोन में लगभग 100-200 मिलीग्राम चांदी होती है। इसी तरह, एक सामान्य लैपटॉप में 350 मिलीग्राम चांदी उपयोग होती है, और वर्तमान में भारत में लगभग 5 करोड़ लैपटॉप हैं।

यदि भारत में मोबाइल फोन और लैपटॉप इतनी संख्या में हैं तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि पूरी दुनिया में इनकी संख्या कितनी होगी। अनुमान है कि मोबाइल-लैपटॉप या ऐसी ही अन्य चीज़ों में पूरे विश्व में लगभग 7275 मीट्रिक टन चांदी लगती है। लेकिन (इन उपकरणों के खराब होने पर इनसे) बमुश्किल 15 प्रतिशत चांदी ही वापस निकालकर पुनर्चक्रित (silver recycling) की जाती है। जब कोई फोन या कंप्यूटर खराब हो जाता है या फेंक दिया जाता है तो उसमें मौजूद चांदी भी कूड़े में चली जाती है। काश! हम इन बेकार उपकरणों से यह चांदी वापिस निकाल पाते…

यह तो साफ है कि स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन में चांदी (silver in renewable energy) एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस संदर्भ में मारिया स्मिरनोवा एक हालिया रिपोर्ट स्प्रॉट सिल्वर रिपोर्ट (Sprott Silver Report) में लिखती हैं कि जैसे-जैसे अधिकाधिक देश सौर पैनलों का उपयोग करके अक्षय ऊर्जा बनाएंगे, वैसे-वैसे चांदी की मांग (silver demand in solar industry) में लगातार वृद्धि होगी। वे आगे बताती हैं कि भले ही कुछ समूह सौर ऊर्जा के लिए अन्य धातुओं (जैसे लीथियम, कोबाल्ट और निकल) का उपयोग करने पर विचार कर रहे हैं, फिर भी स्वच्छ और हरित ऊर्जा उत्पादन में चांदी एक प्रमुख भूमिका निभाती है। और, इस साल चांदी की मांग में लगभग 170 प्रतिशत वृद्धि होने की उम्मीद है। इसके अलावा, कारों, बसों और ट्रेनों (electric vehicles) में ईंधन के रूप में पेट्रोल की जगह सौर ऊर्जा का उपयोग होना शुरू हुआ है। स्मिरनोवा आगे बताती हैं कि अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का अनुमान है कि 2035 तक, दुनिया भर में बिकने वाली हर दूसरी कार इलेक्ट्रिक होगी। इसका मतलब होगा कि हमें और चांदी चाहिए होगी।

इसी संदर्भ में, फिनलैंड के प्रोफेसर टिमो रेपो और उनके साथियों ने अपने शोधपत्र में चांदी को पुनःचक्रित करने की एक कुशल रासायनिक विधि (green silver recovery)  प्रस्तुत की है। इस विधि में कार्बनिक वसीय अम्लों (जैसे लिनोलेनिक या ओलिक एसिड) (fatty acids for silver extraction) का उपयोग चांदी निकालने में किया गया है। ये कार्बनिक वसीय अम्ल तिलहन, मेवों और वनस्पति तेलों (जैसे जैतून का तेल या मूंगफली का तेल) में पाए जाते हैं, जिनका दैनिक भोजन में उपयोग होता है।

गौरतलब है कि इलेक्ट्रॉनिक कचरे (e-waste silver recovery) से चांदी को पुन: प्राप्त करना आसान नहीं है: प्रबल अम्लों और साइनाइड के उपयोग की वजह से इस प्रक्रिया में विषाक्त पदार्थ पैदा हो सकते हैं। अन्य धातुओं और मिश्र धातुओं से चांदी को अलग करने की पारंपरिक विधियों का उपयोग करने की बजाय उपरोक्त समूह ने सूरजमुखी, मूंगफली और अन्य तेलों में प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाले साधारण असंतृप्त वसीय अम्लों के उपयोग से चांदी को अलग करके पुन: हासिल करने की एक विधि विकसित की है। समूह ने पाया कि इनका पुनर्चक्रण किया जा सकता है और इस प्रकार ये कार्बनिक विलायक और जलीय माध्यम से बेहतर हैं।

शोधकर्ताओं ने इस विधि को ‘शहरी खनन’ (urban mining of silver) में भी कारगर पाया है, जहां कबाड़ या कचरे में फेंके गए कंप्यूटर के मदरबोर्ड और अन्य इलेक्ट्रॉनिक पुर्ज़ों के कचरे से चांदी पुन: निकाली जा सकती है। शोध दल का निष्कर्ष है, “वसीय अम्ल बहुमूल्य बहु-धातु अपशिष्ट के निपटान का उन्नत माध्यम बन सकते हैं।” (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ई-डीएनए की मदद से हवा में बिखरे जीवन की पहचान

ल्पना कीजिए कि आप किसी जंगल या शहर की सड़क पर चल रहे हैं, और आपको दूर-दूर तक किसी जीव या इंसान का नामोनिशान तक न दिखे, फिर भी वैज्ञानिक यह बता दें कि वहां से कौन-कौन से जीव गुज़रे चुके हैं, कौन से वायरस मौजूद थे, और यह भी बता दें कि वहां से गुज़रने वाले लोग किस मूल के हैं। और, यदि यह कहा जाए कि यह कोई कोरी कल्पना नहीं, बल्कि हकीकत है तो?

यह संभव हुआ है पर्यावरणीय डीएनए (ई-डीएनए) (environmental DNA) का विश्लेषण करने की एक नई तकनीक नैनोपोर सिक्वेंसिंग (nanopore sequencing) से। शोधकर्ताओं ने इसका इस्तेमाल किसी क्षेत्र में मौजूद जैव-विविधता (biodiversity monitoring) की तस्वीर पेश करने में किया है।

गौरतलब है कि हर सजीव, चाहे वह इंसान हो, जानवर हों या वनस्पतियां, अपने आसपास के वातावरण में त्वचा की झिल्ली, लार, बाल या कोशिकाओं जैसे बहुत बारीक कण छोड़ते रहते हैं, जिनमें उनका डीएनए (DNA traces in environment) होता है। वैज्ञानिक इन कणों को मिट्टी, पानी या हवा से इकट्ठा कर यह पता लगा सकते हैं कि वहां कौन-कौन से जीव मौजूद हैं या थे। इस तरह प्राप्त डीएनए को पर्यावरणीय डीएनए या ई-डीएनए कहते हैं।

पहले वैज्ञानिक मेटाबारकोडिंग (metabarcoding DNA technique) नामक तकनीक से ई-डीएनए का अध्ययन करते थे। इससे यह पता चलता था कि किस तरह के जीव वहां थे, लेकिन यह तरीका धीमा, महंगा और सीमित जानकारी वाला था। फिर आई शॉटगन सिक्वेंसिंग (shotgun sequencing) तकनीक। इसमें किसी खास डीएनए को ढूंढने की बजाय नमूने के सम्पूर्ण डीएनए के छोटे-छोटे टुकड़ों का अनुक्रमण किया जाता है और उन्हें किसी पज़ल की तरह कंप्यूटर की मदद से जोड़कर पहचान की जाती है।

अब, एक नई तकनीक (नैनोपोर सिक्वेंसिंग) विकसित की गई है। इसकी मदद से वैज्ञानिक एक बार में डीएनए की लंबी शृंखला पढ़ सकते हैं। इससे नतीजे और भी सटीक मिलते हैं। और तो और, यह तकनीक न सिर्फ तेज़ और सस्ती है, बल्कि इतनी कॉम्पैक्ट है कि इसे लैपटॉप (portable DNA sequencer) से जोड़ा जा सकता है।

इस तकनीक को आज़माने के लिए वैज्ञानिकों ने अप्रैल 2023 में फ्लोरिडा के वॉशिंगटन ओक्स गार्डन्स स्टेट पार्क में हवा के नमूने इकट्ठा किए। उन नमूनो में डीएनए का विश्लेषण करके बताया कि वहां एक जंगली बिल्ली (बॉबकैट), एक ज़हरीला सांप, चमगादड़, मच्छर, एक पक्षी (ऑस्प्रे), और अफ्रीकी, युरोपीय और एशियाई मूल के इंसान मौजूद थे। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने वहां इनमें से कोई जीव नहीं देखा था(airborne DNA sampling, wildlife DNA detection)।

इसी तरह का एक अध्ययन आयरलैंड की राजधानी डबलिन की हवा के नमूने लेकर भी किया गया। यहां वैज्ञानिकों को इंसानों की ज़्यादा विविध जेनेटिक जानकारी (human genetic diversity in air) मिली। उन्हें 221 प्रकार के इंसानी वायरस और बैक्टीरिया के डीएनए (human pathogens in air) मिले जो फ्लोरिडा के मुकाबले 7 गुना अधिक थे।

वैज्ञानिकों के अनुसार, यह तकनीक जंगलों और शहरों में जैव विविधता की निगरानी (urban biodiversity tracking) करने में काफी उपयोगी है। इसके अलावा, बाहरी और संकटग्रस्त प्रजातियों पर नज़र रखने, बीमारियां फैलाने वाले वायरस (airborne disease surveillance) या बैक्टीरिया की पहचान करने और बिना संपर्क के इंसानी उपस्थिति तथा वंश का अध्ययन करने में भी मददगार होगी। इससे किसी भी जगह पर मौजूद जीवन की एक पूरी तस्वीर सिर्फ हवा के विश्लेषण से मिल सकती है।

लेकिन इसके साथ एक चिंता भी है। यदि वैज्ञानिक हवा से इंसानी डीएनए पहचान सकते हैं, तो इसका इस्तेमाल किसी व्यक्ति पर नज़र रखने (genetic surveillance risks) के लिए भी किया जा सकता है। हालांकि अब तक के अध्ययनों में सिर्फ सामान्य वंश की जानकारी मिली है, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं। लेकिन भविष्य में यह तकनीक इतनी विकसित हो सकती है कि व्यक्ति विशेष की जानकारी भी दे सके। कानून विशेषज्ञ नताली राम का कहना है कि सरकारें या निजी कंपनियां इस तकनीक का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर निगरानी (mass DNA monitoring) के लिए कर सकती हैं। एक प्राइवेट कंपनी तो ऐसे छोटे ई-डीएनए स्कैनर बना रही है जो चुपचाप किसी कमरे में वायरस या इंसानी डीएनए की निगरानी कर सकता है। हालांकि, यह तकनीक है तो बहुत रोमांचक, लेकिन अभी इस पर कफी काम किया जाना बाकी है। उदाहरण के तौर पर, वैज्ञानिकों को फ्लोरिडा के समुद्री पानी में काऊपॉक्स वायरस के डीएनए (cowpox virus DNA detection) के अंश मिले हैं जबकि वहां ऐसा वायरस पाया ही नहीं जाता है। इससे यह सवाल उठता है कि कहीं इतने छोटे डीएनए अंश झूठी या भ्रामक जानकारी तो नहीं दे रहे? वैज्ञानिकों को ऐसे नतीजों को बहुत सोच-समझकर देखना चाहिए, क्योंकि सिर्फ डीएनए का मौजूद होना यह नहीं साबित करता कि वह जीव वास्तव में वहीं है या वह सक्रिय है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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Y क्रोमोसोम रहित ट्यूमर अधिक घातक होते हैं

ह बात तो पता है कि पुरुषों में उम्र के साथ कुछ कोशिकाओं से Y क्रोमोसोम (chromosome) नदारद होने लगते हैं, खासकर कैंसर कोशिकाओं (cancer cells) से। लेकिन यह मालूम नहीं था कि Y क्रोमोसोम की अनुपस्थिति से शरीर पर किस तरह के प्रभाव पड़ते हैं। अब, कैंसर विशेषज्ञों ने कैंसर कोशिकाओं के एक ताज़ा अध्ययन में पाया है कि यदि कैंसर ट्यूमर (cancer tumor study) से Y क्रोमोसोम नदारद होता है तो मरीज़ के लिए अधिक घातक हो सकता है।

दरअसल, 2023 में एरिज़ोना विश्वविद्यालय के कैंसर विशेषज्ञ थियोडोरस्क्यू और उनके दल ने पाया था कि Y क्रोमोसोम का नदारद होना मनुष्यों में मूत्राशय के कैंसर (bladder cancer in men) की आक्रामकता को बढ़ाता है। उम्र बढ़ने के साथ प्रतिरक्षा कोशिकाओं से भी Y क्रोमोसोम गायब हो सकते हैं, जिससे कैंसर से मृत्यु (cancer-related mortality) का जोखिम बढ़ जाता है।

हालिया अध्ययन में उपरोक्त शोधदल ने कैंसर-कोशिका जीनोम के विशाल भंडार (cancer genome database) से प्राप्त जानकारी के आधार पर दो समूहों की तुलना की: Y क्रोमोसोम विहीन और Y क्रोमोसोम  सहित। उन्होंने पाया कि पुरुषों में, कई प्रकार के कैंसर में, कैंसर ट्यूमर से Y क्रोमोसोम नदारद हो तो वे उन मरीज़ों की तुलना में जल्दी मर जाते हैं जिनके कैंसर ट्यूमर में Y क्रोमोसोम मौजूद होता है। यह भी पता चला कि Y क्रोमोसोम का लोप कैंसर कोशिकाओं और प्रतिरक्षा कोशिकाओं दोनों में होता है। गौरतलब है कि प्रतिरक्षा कोशिकाएं शरीर की रक्षा के लिए ट्यूमर पर हमला करती हैं। अब, महज़ कैंसर कोशिकाओं से Y क्रोमोसोम का लोप होता है तो उनमें अन्य उत्परिवर्तनों (genetic mutations in cancer) की संख्या और गंभीरता बढ़ती है। साथ ही, कुछ ऐसे परिवर्तन भी हो सकते हैं जिससे ट्यूमर प्रतिरक्षा प्रणाली की नज़र से बच निकले, उसकी पकड़ में न आए (immune evasion by cancer)।Text Box: मनुष्यों में लिंग निर्धारण लैंगिक गुणसूत्रों की जोड़ी से होता है; जहां मादाओं में इस जोड़ी में दो X गुणसूत्र होते हैं, वहीं पुरुषों में इसी जोड़ी में एक X और एक Y गुणसूत्र होता है।

लेकिन यदि Y क्रोमोसोम का लोप प्रतिरक्षा कोशिकाओं में भी हो जाता है तो असर अलग होते हैं: Y क्रोमोसोम का लोप प्रतिरक्षा कोशिकाओं को निष्क्रिय कर देता है और प्रतिरक्षा तंत्र (immune system suppression) को शांत कर देता है, जिससे वे कैंसर से लड़ने के उतनी काबिल नहीं रहतीं। यानी, एक तो ट्यूमर बहुरूपिया, ऊपर से प्रतिरक्षा कोशिकाओं की नज़र कमज़ोर। यह स्थिति मरीज़ के लिए घातक (fatal cancer outcomes) साबित होती है।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि कैंसर कोशिकाओं में Y क्रोमोसोम के लोप और उसी ट्यूमर के अंदर मौजूद प्रतिरक्षा कोशिकाओं में Y क्रोमोसोम के लोप के बीच एक सहसम्बंध (correlation between tumor and immune cells) भी है; हो सकता है कि विचित्र रासायनिक आकर्षण (कीमोअट्रैक्शन) की वजह से ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाएं रक्त से ट्यूमर में खिंची चली आती होंगी जिनमें Y क्रोमोसोम नदारद होता है। हालांकि अभी इस बात के पुख्ता प्रमाण नहीं हैं।

लेकिन इतना पक्का है कि Y क्रोमोसोम की गैर-मौजूदगी कैंसर कोशिकाओं को अधिक आक्रामक (aggressive cancer) बनाती है, और Y क्रोमोसोम रहित प्रतिरक्षा कोशिकाएं कम प्रभावी (weakened immune defense) होती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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लीलावती की बेटियां: आज की कहानी

नीलिमा गुप्ते

रोहिणी गोडबोले द्वारा संपादित पुस्तक लीलावती’ज़ डॉटर्स में कई महिला वैज्ञानिकों की जीवनियों के माध्यम से उनके संघर्ष को प्रस्तुत किया गया है। लीलावती प्रसिद्ध गणितज्ञ भास्कराचार्य की पुत्री थी। इसी के आधार पर आजकल की महिला वैज्ञानिकों को लीलावती की बेटियां कहा गया है।

लीलावती के ज़माने से आज लीलावती की बेटियों के लिए बहुत सी चीज़ें बदल गई हैं। बावजूद इसके, उनकी कहानी के कई हिस्से उनकी बेटियों के जीवन में भी झलकते हैं। सबसे पहले ज़िक्र सकारात्मक बदलावों का। कुछ साल पहले तक इस वास्तविकता को चिंताजनक विषय के रूप में देखना तो दूर, इस हकीकत को माना तक नहीं गया था कि विज्ञान के कार्यबल में महिलाओं का प्रतिनिधित्व (या मौजूदगी) (women in STEM workforce) कम है।

लेकिन अब यह स्थिति पूरी तरह से बदल गई है। अब सभी निर्णय लेने वाली संस्थाएं, चाहे वे संस्थान हों, या अकादमियां हों, या सरकारी विभाग हों, इस मुद्दे पर ध्यान देने की ज़रूरत महसूस करते हैं। यह पिछली पीढ़ियों की महिलाओं के अनुभव से काफी अलग है।

आईआईटी बॉम्बे (IIT Bombay) में, जहां मैं सत्तर के दशक में एमएससी की छात्र थी, फैकल्टी इस बात से खुश थे कि एमएससी के कुछ बैचों में लगभग 50 प्रतिशत लड़कियां दाखिल हैं। हमारे शिक्षक भी इस तथ्य से वाकिफ थे कि फैकल्टी स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व (gender gap in academia) बहुत ही कम है (तब भौतिकी विभाग में एक महिला थी)। हालांकि, उन्होंने सोचा कि यह विधि का अपरिवर्तनीय विधान है, और इसमें बदलाव लाना उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी का हिस्सा नहीं समझा। अब ऐसी स्थिति कहीं नहीं है।

मैं प्रवेश स्तर पर महिलाओं को पेश आने वाली समस्याओं के बारे में ज़्यादा नहीं कहूंगी, क्योंकि इनके बारे में तो सबको अच्छी तरह से पता है और इन पर बहुत चर्चा भी होती है। अपने बारे में बात करूं, तो मैंने इस समस्या को बायपास कर दिया, क्योंकि सौभाग्य से मुझे शुरुआती चरण में पुणे विश्वविद्यालय (Savitribai Phule Pune University) में एक फैकल्टी का पद मिल गया। तब पुणे विश्वविद्यालय में न केवल एक अत्यंत सक्रिय भौतिकी विभाग था, बल्कि वहां महिला फैकल्टी की संख्या दहाई में थी (मैं दसवीं महिला फैकल्टी थी!)।

यह एक अनोखी स्थिति थी, और दुर्भाग्य से (कमोबेश) यही अनोखी स्थिति अब भी बनी हुई है। हालांकि, हममें से जो लोग वहां थे, उन्हें एक-दूसरे से बहुत सहयोग मिला। इसके अलावा, यह बहुत ही खुशमिजाज़ विभाग था जिसमें लोग अपने काम के प्रति महत्वाकांक्षी थे। इसने वास्तव में मुझे अपने शुरुआती वर्षों में आगे बढ़ने में मदद की। और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि मुझे ऐसे विषयों पर काम शुरू करने में मदद मिली, जिनकी मैं पहले से कोई जानकार नहीं थी। यहां इस बात को ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह विभाग न तो अच्छी तरह वित्त-पोषित (funded research departments) था और न ही कोई प्रसिद्ध विभाग था। इसमें बस ऐसे लोग थे जिनमें ‘हम कर सकते हैं’ का जज़्बा था। और, अंतत: यही मायने रखता है।

यह सब सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन परेशानियां और भी थीं। मैंने और मेरे पति ने दस साल तक अलग-अलग शहरों में काम किया (पुणे और चैन्नई, जो पास-पास तो कदापि नहीं हैं) (dual career challenges in academia)। यहां भी, मुझे अपने और अपने पति दोनों के परिवार से समर्थन मिला, और मैं इस समर्थन की आभारी हूं। यदि वे हम पर दबाव डालते तो शायद मैं नौकरी छोड़ देती, जैसा कि कई महिलाओं ने किया भी है।

इस बीच, एक ही जगह पर काम करने की कोशिश कर रहे जोड़ों के लिए काम का माहौल (work environment) बिल्कुल भी मददगार नहीं था। थक-हार कर मैं आईआईटी मद्रास (IIT Madras) चली गई, और वहां जाना मेरे लिए सौभाग्यशाली साबित हुआ। संस्थान में बहुत बड़े बदलाव हो रहे थे, और मुझे वहां अपना एक अलग मुकाम मिला। हालांकि यह बदलाव पीड़ादायी था।

मुझे मेरे मुनासिब ओहदे पर नहीं रखा गया था, शायद इसलिए क्योंकि मैं अपनी मनवाने की स्थिति में नहीं थी, जैसा कि अक्सर महिलाओं (women professionals) के साथ होता है। मैं जितने रुढ़िवादी और नौकरशाही माहौल (bureaucratic and conservative work culture) की आदी थी, यहां का माहौल उसकी तुलना में कहीं अधिक रूढ़िवादी और नौकरशाही वाला था। बदलाव के दौर के मेरे साथी मेरे शोधार्थी थे, जो मेरे साथ यहां आ गए थे। उन्हें भी अपनी जगह से उखड़ने का एहसास हो रहा था, लेकिन किसी तरह हम एक-दूसरे का हाथ थामकर इस बदलाव के दौर से गुज़रकर उबर आए।

जैसा कि मैंने पहले भी कहा, जूनियर महिला शिक्षकों द्वारा झेली जाने वाली समस्याओं से सब अब अच्छी तरह वाकिफ हैं, भले ही उनका समाधान अभी तक न हुआ हो। इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य सभी ओहदों पर महिलाओं को अपने हिस्से के संघर्षों का सामना नहीं करना पड़ता। मध्यम स्तर के पदों पर मौजूद महिलाएं, एक व्यक्ति के रूप में और एक पेशेवर के रूप में, अपना सिर पानी से ऊपर रखने के लिए जूझती हैं। वे एक ही समय में वरिष्ठ और कनिष्ठ दोनों हैं! यानी, उन्हें स्वायत्तता दिए बिना ज़िम्मेदारी (responsibility without autonomy) दी जाती है। वरिष्ठ पदों पर आसीन महिलाओं से अक्सर उनके वरिष्ठ सहकर्मी आज्ञाकारी होने की अपेक्षा रखते हैं, और उनके कनिष्ठ सहकर्मी दब कर रहने की अपेक्षा रखते हैं।

उत्पीड़न (harassment in academia) के मुद्दे कई जगहों पर हैं, और इनसे शायद ही कभी पेशेवर तरीके से निपटा जाता है। महत्वपूर्ण मुद्दों पर महिलाओं द्वारा उठाए गए गंभीर कदम (आवाज़) को उनके पुरुष सहकर्मियों द्वारा उठाए गए इसी तरह के कदमों से कहीं अधिक नापसंद (gender bias at workplace) किया जाता है। ऐसे रोल मॉडल बहुत कम हैं जिन्होंने इन समस्याओं को सफलतापूर्वक संभाला है। हालांकि, कई महिलाएं अपना नेटवर्क विकसित करती हैं और जान-पहचान और दोस्तों से सही सलाह एवं समर्थन से इन स्थितियों से उबरने में कामयाब हो जाती हैं। लीलावती की बेटियां (Leelavati’s Daughters) दोस्तों की थोड़ी मदद से काम चला रही हैं।

अंत में, हम इस पीढ़ी की महिलाएं अगली पीढ़ी की महिलाओं के लिए क्या उम्मीद करती हैं? आदर्श स्थिति शायद यह हो कि वे श्रेष्ठ और अनुकूल मुकाम (women leadership in science) पर पहुंचे, और यदि वे इस मुकाम पर हों तो उन्हें आश्चर्य हो कि हम जो इतनी चिल्लपों कर रहे थे वह किस बात के लिए थी। और तब, हममें से जो लोग उस समय तक जीवित रहें वे उन्हें यह याद दिलाएं कि जिन स्वतंत्रताओं (academic freedom) की सावधानीपूर्वक रक्षा नहीं की जाती, वे अक्सर हाथ से फिसल जाती हैं! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रेरणा देती हैं विज्ञान कथाएं – डॉ. जयंत नार्लीकर

चक्रेश जैन

वर्ष 2008 में डॉ. जयंत नार्लीकर का इंदौर आना हुआ था। तब विज्ञान संचारक चक्रेश जैन नेविज्ञान कथाविषय पर उनके साथ भेंटवार्ता की थी। प्रस्तुत है उनकी यह भेंटवार्ता

सवाल: विज्ञान कथाएं लिखने की प्रेरणा किससे मिली?
जवाब: देखिए, प्रेरणा मुझे अपने गुरू फ्रेड हॉयल से मिली है। उन्होंने बहुत अच्छी विज्ञान कथाएं (science fiction stories) लिखी हैं। उनकी पहचान एक विख्यात वैज्ञानिक (renowned scientist) के रूप में भी है। मैंने सोचा कि यदि एक वैज्ञानिक विज्ञान कथाएं लिखे तो वह लोगों को विज्ञान की वास्तविकताओं के बारे में काफी अच्छी तरह से बता सकता है।

सवाल: आपकी पहली विज्ञान कथा कौन-सी है?
जवाब: मेरी पहली विज्ञान कथा ‘कृष्ण विवर’ (ब्लैक होल) (Black Hole fiction) थी। यह मैंने मराठी में लिखी है। मुम्बई की मराठी विज्ञान परिषद ने एक कथा प्रतियोगिता आयोजित की थी। इसमें मैंने अपनी विज्ञान कथा भेज दी। मैं यह नहीं चाहता था कि आयोजकों पर मेरी लोकप्रियता का प्रभाव पड़े। इसलिए मैंने एक नकली नाम नारायण विनायक जगताप चुना। शायद वे मेरी हैंडराइटिंग से परिचित होंगे, ऐसा सोचकर मैंने अपनी पत्नी से कहा कि वे इस कहानी को अपनी हैंडराइटिंग में लिखें। हुआ यह कि उस विज्ञान कथा को पहला पुरस्कार मिला। आयोजकों ने नारायण विनायक जगताप को पत्र लिखा कि आपको पुरस्कार के लिए चुना गया है। परिषद के अधिवेशन में आप आमंत्रित हैं, लेकिन आपको टीए-डीए नहीं दिया जाएगा। उसके बाद मैंने सोचा कि मैं अपने नाम से ही लिखूं।

मुम्बई से किर्लोस्कर नाम की एक पत्रिका निकलती है। तब उसके संपादक श्री मुकुन्दराव किर्लोस्कर थे। उन्होंने कहा कि आप हमारी पत्रिका के लिए विज्ञान कथाएं लिखिए, तब मैंने पहली विज्ञान कथा लिखी।

सवाल: ऐसी कोई घटना जिसने आपको विज्ञान कथा लिखने के लिए प्रेरित किया हो?
जवाब: मेरी अधिकांश विज्ञान कथाएं, हम जो कुछ देखते या अनुभव करते हैं, उन विषयों पर हैं। जैसे भोपाल में गैस त्रासदी (Bhopal gas tragedy) हुई या कोई अभिनव कम्प्यूटर (innovative computer technology) मिल गया तो उसका प्रभाव मन पर पड़ा और ऐसा लगा कि उसे कथा के रूप में पाठकों के सामने प्रस्तुत किया जाए।

सवाल: आपकी विज्ञान कथाओं की थीम क्या है?
जवाब: मेरी कहानियों की कोई एक विशेष थीम नहीं है। मैं भविष्य की ओर देखता हूं। विज्ञान का रूप आगे चलकर क्या होगा, उस रूप को लिखता हूं (future science trends)।

सवाल: आप कितनी विज्ञान कथाएं लिख चुके हैं?
जवाब: मैंने 25 से अधिक विज्ञान कथाएं और उपन्यास (science novels) लिखे हैं। हिंदी उपन्यास आगंतुक नाम से प्रकाशित हुआ है। इसकी मुख्य थीम है कि पृथ्वी के अलावा अन्य ग्रहों पर भी जीवन (life on other planets) हो सकता है। मेरा अंग्रेज़ी में एक उपन्यास (The Return of Vaman) दी रिटर्न आफ वामन नाम से है। इसमें पृथ्वी पर पहले भी कोई अति विकसित संस्कृति (advanced civilization)  होने और उसके विनाश के कारणों की चर्चा की गई है।

सवाल:  विज्ञान कथाओं का उद्देश्य क्या है?
जवाब: देखिए, विज्ञान कथा लिखने के कई उद्देश्य हैं। पहला, स्वान्त: सुखाय (creative satisfaction) है। लिखने से एक तरह का सुकून मिलता है। दूसरा, समाज में विद्यमान अंधविश्वासों को विज्ञान कथाओं के माध्यम से दूर किया जा सकता है। तीसरा, भावी विज्ञान के स्वरूप (visionary science writing) के बारे में लोगों को बताया जा सकता है।

सवाल: क्या विज्ञान कथाओं से अनुसंधान की नई दिशा या प्रेरणा मिलती है?
जवाब: हां मिल सकती है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक फ्रेड हॉयल ने जो पहली विज्ञान कथा लिखी थी, उसमें उन्होंने कल्पना की थी कि अंतरिक्ष में वायु के विशाल मेघ (interstellar gas clouds) हैं, लेकिन तब लोगों को विश्वास नहीं हुआ था कि इस तरह के मेघ हो सकते हैं। बाद में माइक्रोवेव टेक्नॉलॉजी (microwave technology) से ऐसे मेघ दिखाई दिए। हो सकता है विज्ञान कथाओं से अनुसंधान को नई दिशा मिले। हालांकि, कोई नई कल्पना साइंटिफिक जर्नल में नहीं छप सकती, क्योंकि वह मनगढंत भी हो सकती है।

सवाल: बच्चों को परी कथाओं से संतुष्ट नहीं किया जा सकता। वे चांद-सितारों के जन्म-मरण, रोबोट आदि के बारे में जानना चाहते हैं। बच्चों के लिए किस तरह की विज्ञान कथाएं होनी चाहिए?
जवाब: दूरदर्शन पर कुछ वर्षों पहले स्टार ट्रैक नाम की विज्ञान कथा दिखाई गई थी। इसे सभी ने देखा, लेकिन बच्चों ने इसे बहुत पसंद किया। वे पूरे सप्ताह इस सीरियल का इंतज़ार करते थे। दरअसल, इस सीरियल में विभिन्न ग्रहों की रोमांचक यात्राओं की रोचक कहानी है। इन यात्राओं की कथाओं को कई विज्ञान लेखकों ने मिलकर लिखा है। इसमें अंतरिक्ष यान (spaceships), लेज़र (laser technology) आदि के प्रयोगों के बारे में दिखाया गया है। इससे वैज्ञानिक कल्पनाओं को बढ़ावा मिला। मुझे लगता है कि आधुनिक युग में बच्चों के लिए विज्ञान कथाएं होनी चाहिए, जो उनका दिल बहला सकें और साथ ही उन्हें विज्ञान की ओर आकर्षित भी कर सकें।

सवाल: आप यह सोचते हैं कि विज्ञान कथाएं लोगों में विज्ञान में रुचि पैदा करती हैं?
जवाब: मेरा अनुभव है कि पहले लोग विज्ञान कथाओं के बारे में यही सोचते थे कि वे केवल विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी (science and technology) हैं। उसमें मनोरंजन जैसी कोई चीज़ नहीं है। यदि अच्छी विज्ञान कथाएं लिखी जाएं तो इनसे लोगों के मन में विज्ञान के प्रति जो भय (fear of science) है, उसे दूर किया जा सकता है।

सवाल: विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के प्रयास हो रहे हैं। हमें इस दिशा में किस तरह के प्रयासों पर ज़ोर देना चाहिए?
जवाब: वास्तव में देखा जाए तो ये प्रयास अनेक दिशाओं में किए जा सकते हैं। टेलीविज़न, रेडियो आदि पर इस तरह के कार्यक्रम प्रस्तुत किए जा सकते हैं। समाचार पत्रों में विज्ञान का एक पूरा पृष्ठ दिया जा सकता है, लोकप्रिय व्याख्यानों का आयोजन किया जा सकता है। रोज़मर्रा के वैज्ञानिक उपकरणों की जानकारी रोचक ढंग से दी जा सकती है। प्रदूषण, ऊर्जा संकट (energy crisis) के दुष्परिणामों की तस्वीर भी लोगों के बीच रखी जा सकती है। कुल मिलाकर विज्ञान के वास्तविक चेहरे से लोगों को अवगत कराया जा सकता है।

सवाल: अच्छी विज्ञान कथाओं की कसौटी क्या है?
जवाब: पहले यह बताता हूं कि क्या नहीं होना चाहिए। विज्ञान कथाएं ऐसी नहीं होनी चाहिए, जिसमें केवल परियों के जादू की चर्चा हो। उनमें भय और आतंक की घटनाओं का भी उल्लेख नहीं होना चाहिए। वास्तव में विज्ञान कथाएं (science fiction literature) ऐसी होनी चाहिए जो विज्ञान के नियमों (scientific principles) की जानकारी दें और भविष्य की ओर (futuristic vision) देख सकें। विज्ञान कथाओं के सकारात्मक पक्ष के बारे में यही कहा जा सकता है कि विज्ञान में हुई उन्नति से समाज पर जो प्रभाव पड़ेगा, उसे कथा के रूप में लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाए।

सवाल: हिंदी में विज्ञान कथाओं का अभाव क्यों है?
जवाब: मैं सोचता हूं, अधिकांश साहित्यकार ऐसे हैं जिन्होंने विज्ञान नहीं पढ़ा (lack of science background in authors) है। वे अत्यंत प्रभावशाली साहित्यकार भले हों, लेकिन विज्ञान सम्बंधी साहित्य को ज़रा डर से देखते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसी कोई नई बात है, जो साहित्य में नहीं बैठती। यह सोच धीरे-धीरे दूर होती जा रही है। यह मराठी का परिदृश्य है। हिंदी में भी यही स्थिति है। कुछ प्रतिष्ठित साहित्यकार जिनकी कलम में ताकत है, यदि वे वैज्ञानिकों से चर्चा करके विज्ञान की जानकारी लें और उसे कथा या उपन्यास के रूप में लिखें, तो निश्चित रूप से विज्ञान कथा साहित्य (Hindi science literature) समृद्ध होगा। मुझे ऐसा नहीं लगता कि विज्ञान कथाएं लिखने के लिए विज्ञान में पीएच.डी. होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खटमल शायद पहला शहरी परजीवी कीट था

हमें रेल्वे स्टेशनों पर मंडराते चूहे या घर की रसोई में विचरते कॉकरोच (cockroach infestation) तो खूब नज़र आते हैं और हम मान लेते हैं कि ये शहरी नाशी-कीटों (urban pests) में सर्वोपरि हैं। लेकिन हाल ही में बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि इन सबसे पहले खटमल (bed bugs) ने शहरी बस्तियों को त्रस्त किया था। जी हां, वही खटमल जो ट्रेन की सीटों में, टॉकीज़ों में और घरों के बिस्तरों (mattress pests) में रहता है और खून चूसता है।

खटमलों की कई प्रजातियां हम पर आश्रित हैं और उनका जीवन हमारा खून पीकर ही चलता है। लेकिन जेनेटिक साक्ष्य बताते हैं सुदूर अतीत में खटमलों का पसंदीदा, या शायद एकमात्र, शिकार चमगादड़ हुआ करते थे। जेनेटिक प्रमाण यह भी बताते हैं कि लगभग 2 लाख 45 हज़ार वर्ष पूर्व कुछ खटमलों ने छलांग लगाकर मनुष्यों को अपना पोषक (evolution of bed bugs) बना लिया।

कहते हैं कि इस छलांग के चलते खटमलों के दो वंश उभरे थे – एक जो चमगादड़ों का खून चूसते रहे और मुख्य रूप से गुफाओं तथा युरोप और मध्य पूर्व के प्राकृत वासों में बसे रहे। दूसरे वंश ने आधुनिक बस्तियों में मनुष्य को ‘साथी’ बनाया (human-host bed bugs)।

इस प्रक्रिया को समझने के प्रयास में वर्जीनिया पोलीटेक्निक इंस्टीट्यूट (Virginia Tech) के जीव वैज्ञानिक वॉरेन बूथ और उनके साथियों ने चेक गणतंत्र में रहने वाले आम खटमलों की 19 किस्मों (10 चमगादड़ों का खून चूसने वाले और 9 पूर्णत: मनुष्यों पर आश्रित) के संपूर्ण जीनोम्स का विश्लेषण (genome analysis) किया। इन दो समूहों के डीएनए में हुए उत्परिवर्तनों की तुलना की और यह मॉडलिंग किया इस तरह के परिणाम आने के लिए प्रत्येक समूह की आबादी (population genetics of parasites) कितनी रही होगी। इस आधार पर बूथ समूह ने अनुमान लगाया कि प्रत्येक खटमल किस्म की आबादी में दसियों हज़ार सालों में कैसे उतार-चढ़ाव आए होंगे। उन्होंने पाया कि चमगादड़-सम्बंधी खटमलों की आबादी 60,000 सालों तक निरंतर घटती गई जबकि मानव सम्बंधी वंशों की आबादी भी 60,000 साल पहले घटी थी लेकिन 13,000 साल पहले और 7000 साल पहले यह फिर से बढ़ी (human settlements and pest evolution) थी।

इस परिवर्तन के कारण के तौर पर बूथ की टीम का मत है कि ठंडी होती जलवायु ने खटमलों की आबादी में शुरुआती गिरावट पैदा की लेकिन जब मनुष्य घुमंतू जीवन शैली छोड़कर बसने लगे (early human settlements) तो खटमलों ने नए आरामदायक जीवन का फायदा उठाया और उनकी आबादी बढ़ी। और 7000 साल पहले तो बड़ी शहरी बस्तियों (urban development) के विकास ने उन्हें एक और मौका दे दिया। यदि यह कालक्रम सही है, तो खटमल को दुनिया का सबसे पहला शहरी नाशी-कीट (world’s first urban pest) होने का खिताब मिलेगा जो पूरी तरह मनुष्यों पर आश्रित हैं। तुलना के लिए देखें कि कॉकरोच ने हमसे निकट सहवासी सम्बंध मात्र 2000 साल पहले तथा काले चूहे (black rats) ने मात्र 5000 साल पहले स्थापित किया है। खटमल तो हमारा खून तब से चूसते आ रहे हैं जब हमारे पूर्वज बस्तियां बनाकर रहने लगे थे। वैसे, कई शोधकर्ताओं का मत है कि खटमल को यह खिताब देने से पहले यह समझना होगा कि कई अन्य जंतुओं को लेकर ऐसे अध्ययन हुए ही नहीं हैं (pest history research gap)। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खुशबुएं ऑक्सीकरण कवच कमज़ोर कर सकती हैं

खुशबूएं हमारे चारों ओर बिखरी हुई (fragrance) हैं। रसोई के मसालों से लेकर डीज़ल-पेट्रोल में, फूलों की बगिया से लेकर पूजा की अगरबत्ती में, डिटर्जेंट से लेकर नहाने के साबुन-शैम्पू में और डियो-परफ्यूम (perfume) से लेकर बॉडी लोशन (body lotion) तक में… और अब, इन खुशबुओं, खासकर लोशन-परफ्यूम की खुशबुओं, के बारे में एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि खुशबुएं हमें ताज़गी देने के अलावा हमारी आसपास की हवा (indoor air quality) को भी बदल सकती हैं, और हमारे चारों ओर बने वायु कवच को कमज़ोर कर सकती हैं। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इस कवच के कमज़ोर होने के फायदे हैं या नुकसान।

दरअसल हमारी त्वचा के तेल के अणु जब हमारे निकट वायु में मौजूद ओज़ोन (ozone) के संपर्क में आते हैं तो वे अत्यधिक क्रियाशील हाइड्रॉक्सिल रेडिकल्स (hydroxyl radicals) बनाते हैं। ये क्रियाशील अणु हवा में मौजूद अन्य गैसों से क्रिया करते हैं, जिससे हमारे चारों ओर रेडिकल्स की एक धुंध (कवच) (human oxidation field) सी बन जाती है। इस धुंध को मानव ऑक्सीकरण क्षेत्र कहते हैं।

लेकिन, यह सवाल था कि क्या क्रीम-पावडर हमारे आसपास की हवा को बदल सकते हैं? कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (University of California) के रसायनज्ञ मनाबू शिराइवा और उनके सहयोगियों ने इसी बात का अध्ययन किया।

उन्होंने प्रतिभागियों के दो समूह बनाए। एक समूह के प्रतिभागियों के हाथ पर व्यावसायिक खूशबूदार क्रीम (fragranced cream) लगाया और दूसरे समूह के लोगों के शरीर के किसी भी खुले हिस्से पर बगैर खुशबू वाला लोशन (unscented lotion) लगा दिया। यह करने के बाद उन्हें एक ऐसे कमरे में 2-4 घंटे के लिए बैठाया जहां ओज़ोन का स्तर 40 पार्ट्स प्रति बिलियन (ozone 40 ppb) था। यह यूएस में प्रदूषण के मानक स्तर से कम ही था।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने कक्ष की हवा में मौजूद अणुओं की पहचान की, अनुमान लगाया कि पदार्थों का यह मिश्रण उत्पन्न करने के लिए कैसी रेडिकल अभिक्रियाएं हुई होंगी। देखा गया कि जब प्रतिभागियों ने शरीर पर लोशन या परफ्यूम लगाया था तो उनके शरीर ने कम हाइड्रॉक्सिल रेडिकल (hydroxyl radical reduction) बनाए थे। खासकर परफ्यूम (perfume effect) लगाने पर शरीर के आसपास हाइड्रॉक्सिल रेडिकल्स की सांद्रता 86 प्रतिशत तक घट गई थी।

लेकिन अभी यह देखना बाकी है कि कम हाइड्रॉक्सिल रेडिकल्स हमारे ऊपर क्या और कैसा (अच्छा या बुरा) प्रभाव डालते हैं। यदि हाइड्रॉक्सिल रेडिकल्स अन्य अणुओं के साथ अभिक्रिया करके विषाक्त पदार्थ (toxic compounds) बनाते हैं तो इनका कम होना हमारे लिए फायदेमंद होगा। लेकिन यदि ये अभिक्रिया करके हमारे आसपास की खतरनाक गैसों (air pollutants) को कम करते हैं तो इनकी कमी हमारे लिए जोखिमपूर्ण (health impact) हो सकती है।

लेकिन समस्या तो यह है कि खुशबुएं सिर्फ साबुन, फिनाइल, रूमफ्रेशनर जैसी कृत्रिम चीज़ों से ही नहीं बल्कि रसोई के मसालों, फूलों वगैरह से भी फैलती (natural fragrances) है। ऐसे में फिलहाल कोई स्पष्ट सलाह देना मुनासिब नहीं है। बहरहाल, भविष्य के अध्ययनों में साबुन-शैम्पू जैसे उत्पाद शामिल किए जा सकते हैं। साथ ही यह भी देखा जा सकता है कि इन उत्पाद का यह असर कितने समय तक बना रहता है। (स्रोत फीचर्स)

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व्हेल की हड्डियों से बने 20,000 साल पुराने हथियार

द्योगिक स्तर पर व्हेल का शिकार शुरू होने से बहुत पहले ही प्राचीन मानव (ancient humans) व्हेल के मृत शरीर का इस्तेमाल करने लगे थे। नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications) में प्रकाशित एक हालिया शोध के मुताबिक, आज से लगभग 20,000 साल पूर्व फ्रांस और स्पेन के तटीय इलाके (Bay of Biscay) में रहने वाले लोग व्हेल की हड्डियों से औज़ार (whale bone tools) और हथियार बनाते थे।

वैज्ञानिकों ने इस जगह से मिले 83 औज़ारों का अध्ययन किया, जिनमें नोकदार भाले जैसे हथियार भी थे। रेडियोकार्बन डेटिंग (radiocarbon dating) और अन्य तकनीकों से पता चला कि इन औज़ारों में स्पर्म व्हेल (Physeter macrocephalus), फिन व्हेल (Balaenoptera physalus), ग्रे व्हेल (Eschrichtius robustus), ब्लू व्हेल (Balaenoptera musculus) और बौहेड व्हेल (Balaena mysticetus) जैसी पांच व्हेल प्रजातियों की हड्डियों का इस्तेमाल हुआ था। इसका मतलब है कि उस दौर में इस समुद्री क्षेत्र में व्हेल की कई प्रजातियां (whale species diversity) पाई जाती थीं, जो आज के मुकाबले कहीं ज़्यादा थीं।

यह खोज इस बात की ओर इशारा करती है कि प्राचीन समय में समुद्र किनारे रहने वाले लोग व्हेल के शवों से संसाधन जुटाया करते थे (whale scavenging)। संभव है कि वे इन हड्डियों से बने औज़ारों का निर्यात करते थे (जैसे स्पेन से फ्रांस तक) या उनका आपस में लेन-देन करते थे, जो एक बड़े व्यापारिक नेटवर्क की ओर इशारा करता है।

यह खोज न सिर्फ व्हेल की हड्डियों के इस्तेमाल का समय निर्धारित करती है बल्कि यह भी दिखाती है कि प्रारम्भिक मनुष्यों ने तटीय इलाकों (early coastal adaptation) व स्रोतों (prehistoric marine resources) को कैसे अपनाया। (स्रोत फीचर्स)

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जीवनरक्षक घोल (ओआरएस) ने दुनिया को बदल दिया

राधिका शर्मा

हाल ही में एक गांव में फूड पॉइज़निंग (food poisoning) हुआ। एक सामूहिक भोज में साफ-सफाई न होने की वजह से कई लोग बीमार हो गए और अगले ही दिन दर्जनों लोगों में अतिसार जैसे लक्षण दिखने लगे। इससे बच्चे और बुज़ुर्ग सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए। कई लोगों को अस्पताल ले जाना पड़ा। लेकिन स्थानीय स्वास्थ्य केंद्र में आए अधिकतर रोगियों को पावडर का एक छोटा पैकेट दिया गया और उसे पानी में घोलकर पीने की विधि बताकर घर वापस भेज दिया गया।

आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व ऐसा कोई भी हादसा लोगों में दहशत और हताशा फैला देता था। उस समय अतिसार (diarrhea in children) से विश्व में हर वर्ष 50 लाख बच्चों की मौतें होती थीं। हालांकि इलाज पर शोध चल रहा था, पर केवल एक ही कारगर इलाज उपलब्ध था – इंट्रावीनस पुनर्जलन (सलाइन चढ़ाना – IV rehydration for diarrhea)। यह तरीका महंगा था और गिने-चुने अस्पतालों में ही उपलब्ध होता था, खासकर गरीब और दूर-दराज़ के इलाकों के लिए तो यह नामुमकिन था। इस स्थिति में लोग गाजर का सूप, कैरब का आटा, सूखे केले, और यहां तक कि भूखे रहने जैसे घरेलू इलाज आज़माते थे। लेकिन इनसे कोई खास फायदा नहीं होता था।

इनमें सबसे डरावना संक्रमण था ‘ब्लू डेथ’ यानी हैजा (cholera outbreak history)। यह बीमारी बहुत तेज़ी से फैलती थी और कुछ ही दिनों में पूरे गांव-शहर को तबाह कर सकती थी। 1971 के भारत-बांग्लादेश युद्ध के बाद, जब शरणार्थी शिविरों में साफ पानी और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं थीं, तब वहां हैजा फैला। डॉक्टर दिलीप महलनोबीस उस समय सीमा के पास एक अस्थायी अस्पताल चला रहे थे।

बीमारी फैलने के पश्चात जल्दी ही अस्पताल में सलाइन (आईवी ड्रिप) खत्म हो गई। पर्याप्त उपकरण और प्रशिक्षित लोगों के अभाव में डॉ. महलनोबीस ने एक अलग रास्ता चुना। उनकी टीम ने नमक और ग्लूकोज़ के मिश्रण के पाउच बनाए और मरीज़ों को दिए। साथ ही उन्होंने मरीज़ के परिजनों को सिखाया कि इसे पानी में कैसे घोलना है और मरीज़ को पिलाना है। उन्होंने हैजा की चपेट में आए दूसरे इलाकों में भी यह विधि साझा की।

इसके परिणाम हैरतअंगेज़ थे; जहां पहले हैजा से 30 प्रतिशत मरीज़ों की मौत हो जाती थी, वहीं इस साधारण घोल से यह दर घटकर 3.6 प्रतिशत रह गई। डॉ. महलनोबीस का छोटे स्तर पर किया गया यह प्रयोग, जल्दी ही दुनिया भर में चर्चा का विषय बन गया। इसने मौजूदा अनुसंधानों को नया जीवन दे दिया। दुनिया भर के डॉक्टरों ने इस विचार को अपनाया और 1978 में जीवन रक्षक घोल यानी ओआरएस (ORS invention story) को विश्व स्वास्थ्य संगठन के डायरिया नियंत्रण कार्यक्रम (WHO rehydration therapy) का एक अहम हिस्सा बना दिया गया। आज युनिसेफ हर साल लगभग 10 करोड़ ओआरएस के पैकेट बांटता है।

एक चमत्कारी उपाय

पचास साल बाद भी ओआरएस (ORS benefits) एक बेहतरीन जनस्वास्थ्य उपाय बना हुआ है। यह आसानी से उपलब्ध है, सस्ता है, इसे थोड़ा-सा प्रशिक्षण लेकर कोई भी इस्तेमाल कर सकता है, और समुदाय में इसे आसानी से स्वीकार भी किया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन इसका एक मानक फॉर्मूला बनाए रखता है और ज़रूरत के अनुसार उसमें बदलाव करता रहता है। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसे कम संसाधनों वाले क्षेत्रों में भी सही दिशा-निर्देशों के साथ आसानी से बनाया और इस्तेमाल किया जा सकता है। महंगे इलाज की तुलना में ओआरएस (affordable dehydration treatment) बहुत सस्ता पड़ता है – यह मरीज़ों के लिए भी किफायती है और सरकारी स्वास्थ्य बजट पर भी कम बोझ डालता है।

प्रशिक्षित सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मी माता-पिता और देखभाल करने वालों को आसानी से इसकी जानकारी दे सकते हैं। घर पर देखभाल के ज़रिए, अगर शुरुआती लक्षणों को पहचान लिया जाए, तो एक व्यवस्थित और ज़मीनी स्तर (community health intervention) से स्वास्थ्य सेवा दी जा सकती है। ओआरएस का इस्तेमाल आसान है, जोखिम लगभग न के बराबर है, इसलिए आम लोगों के लिए यह बेहद उपयोगी और सहज उपाय है।

ओआरएस का असर साफ दिखाई देता है। शुरुआती आशंकाओं के बावजूद यह एक बड़ी स्वास्थ्य समस्या का बेहद सरल और प्रभावी समाधान है। पांच वर्ष से छोटे बच्चों की मौतों में 32 प्रतिशत की कमी का श्रेय ओआरएस को जाता है। इसके साथ ही अतिसार की वजह से अस्पताल में भर्ती होने वाले मामलों में भी गिरावट देखी गई है। ओआरएस का उपयोग (ORS for diarrhea and malnutrition) अचानक होने वाले अतिसार के इलाज के लिए तो सुस्थापित है ही, यह कुपोषण के इलाज में भी बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि लंबे समय तक अतिसार का कुपोषण से गहरा सम्बंध है।

ऐसा माना जाता है कि ओआरएस ने दुनिया भर में 5 करोड़ बच्चों की जान बचाई है। अगर ओआरएस का उपयोग सभी ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंच जाए, तो अतिसार से होने वाली 93 प्रतिशत मौतों को रोका जा सकता है।

रुकावटें

ओआरएस एक असरदार इलाज है। देश में बढ़ते तापमान और ग्रीष्म लहरों (heatwave and dehydration) के मद्देनज़र इसकी भूमिका और भी महत्वपूर्ण है, फिर भी इसके उपयोग में कई रुकावटें हैं। वर्ष 2012 में भारत में केवल 22 प्रतिशत लोगों तक ही ओआरएस की पहुंच थी। कई स्वास्थ्य अभियानों के बाद 2016 तक यह 48 प्रतिशत हो गई, लेकिन अभी भी मंज़िल दूर है।

दूसरी समस्या यह है कि लोग – चाहे डॉक्टर हों या मरीज़ – ओआरएस की प्रभावशीलता को कम आंकते हैं। इसलिए, जब केवल ओआरएस और ज़िंक से इलाज संभव होता है, तब भी कई बार गैर-ज़रूरी एंटीबायोटिक दवाइयां (antibiotic misuse in diarrhea) दी जाती हैं। इससे ना सिर्फ ओआरएस के फायदे अनदेखे रह जाते हैं, बल्कि दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया भी बढ़ते हैं, जो भविष्य में और बड़ी समस्याएं पैदा कर सकते हैं।

ओआरएस को कैसे और कितनी मात्रा में इस्तेमाल करना है, इसकी जानकारी न होना एक और बड़ी चुनौती है। नतीजा यह होता है कि देखभाल करने वालों को अधूरी सलाह मिलती है। घर पर इलाज तभी सफल हो सकता है जब जानकारी सही और पूरी हो। इसके लिए केवल एक बार प्रशिक्षण देना काफी नहीं है, समय-समय पर पुनः प्रशिक्षण भी ज़रूरी होते हैं, ताकि समुदाय में एक सक्षम स्वास्थ्य कार्यकर्ता समूह बना रहे।

ओआरएस के उपयोग में सरकारी और निजी स्वास्थ्य तंत्रों के बीच भी अंतर (public vs private healthcare India) देखने को मिलता है। आंकड़े बताते हैं कि समय के साथ, निजी अस्पतालों में आने वाले मरीज़ों में ओआरएस का उपयोग घटा है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि भले ही निजी डॉक्टर ओआरएस लेने की सलाह देते हैं, लेकिन अक्सर वे अपने क्लीनिक या अस्पताल में इसे उपलब्ध नहीं कराते। साथ ही, जब आम लोग ओआरएस के फायदों को कम आंकते हैं, तो वे उसे लेना ज़रूरी नहीं समझते। इसके विपरीत, सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में अक्सर ओआरएस के पैकेट वहीं दे दिए जाते हैं, जिससे उनका उपयोग बढ़ता है।

इसके अलावा, सरकार आम तौर पर बच्चों को ही ओआरएस देने पर ध्यान केंद्रित करती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पहले अतिसार से होने वाली मौतें ज़्यादातर 5 साल से छोटे बच्चों में होती थीं। लेकिन अब जैसे-जैसे अतिसार से होने वाली मौतें कम हो रही हैं और लोगों की औसत उम्र बढ़ रही है, वैसे-वैसे बुजुर्गों में भी अतिसार से मृत्यु का खतरा बढ़ गया है। ऊपर से, जलवायु परिवर्तन और गर्मी से जुड़ी बीमारियों (climate change and health risk) के चलते अब ओआरएस सभी उम्र के लोगों के लिए ज़रूरी हो गया है। लिहाज़ा, ओआरएस के बारे में जानकारी सिर्फ बच्चों के इलाज तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि सभी उम्र के लोगों के लिए इसके बारे में बताया जाना चाहिए।

बहरहाल, इन कठिनाइयों के बावजूद, ओआरएस ने निर्जलीकरण (dehydration) के इलाज (dehydration remedy) में एक क्रांति ला दी है। शोधकर्ता इसे और बेहतर बनाने में जुटे हैं। लेकिन जब तक नए और बेहतर समाधान नहीं आते, हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ओआरएस अधिक से अधिक लोगों की पहुंच में हो और वे इसका सही उपयोग समझें। यह भी याद रखना चाहिए कि सबसे महंगा या हाईटेक इलाज (low-cost vs high-tech healthcare) हमेशा सबसे अच्छा नहीं होता। आधुनिक अस्पतालों और इलाज की चमक-दमक के बीच, कभी-कभी आसान और सस्ता तरीका ही सबसे असरदार होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://nivarana.org/article/the-humble-hero-how-oral-rehydration-solution-quietly-changed-the-world