शतायु कोशिकाओं का बैंक

सौ साल जीने का राज़ क्या है? वैज्ञानिकों का एक विचार यह है कि मामला कोशिकाओं (Longevity cells) से सम्बंधित है। इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए बोस्टन (मैसाचुसेट्स) के वैज्ञानिकों ने शतायु लोगों की स्टेम कोशिकाओं (Centenarian stem cells) का एक बैंक निर्मित किया है। ये स्टेम कोशिकाएं सामान्य रक्त कोशिकाओं (Blood cells) को रीप्रोग्राम करके तैयार की गई हैं। सामान्य कोशिकाएं एक समय के बाद विभाजन बंद करके मर जाती हैं लेकिन स्टेम कोशिकाएं लंबे समय तक जीवित रहती हैं और उनसे विभिन्न किस्म की कोशिकाओं का निर्माण किया जा सकता है। उम्मीद की जा रही है कि इनके अध्ययन से शोधकर्ताओं को दीर्घ व स्वस्थ जीवन (Healthy aging) के कारकों को समझने में मदद मिलेगी। शुरुआती प्रयोगों से मस्तिष्क के बुढ़ाने (Brain aging research) को लेकर कुछ सुराग मिले भी हैं।

शतायु लोग दीर्घजीविता को समझने का एक अवसर प्रदान करते हैं। जो लोग सौ साल जी चुके हैं उनमें नुकसान व क्षति से उबरने की ज़बर्दस्त क्षमता होती है। बोस्टन विश्वविद्यालय चोबेनियन व एवेडिसियन स्कूल ऑफ मेडिसिन (Boston University School of Medicine) के स्टेम कोशिका वैज्ञानिक जॉर्ज मर्फी (George Murphy) ने बताया है कि उनकी जानकारी में एक शतायु व्यक्ति 1912 के स्पैनिश फ्लू (Spanish Flu survivor) और फिर हाल के कोविड-19 (COVID-19 recovered) से उबरे हैं। शतायु लोगों की दीर्घायु की एक व्याख्या इस आधार पर की गई है कि उनकी जेनेटिक बनावट (Genetic makeup) में कुछ ऐसी बात होती है जो उन्हें बीमारियों से बचाती है। लेकिन इस बात की जांच कैसे की जाए? इस उम्र के लोग बहुत बिरले होते हैं जिसके चलते उनकी त्वचा या रक्त के नमूने (skin and blood samples) शोध के लिए बेशकीमती संसाधन होते हैं। इसी से शतायु कोशिकाओं के बैंक (Centenarian cell bank) का विचार उभरा। जॉर्ज मर्फी ने स्पष्ट किया है कि यह बैंक सभी वैज्ञानिकों के बीच साझा रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डायनासौर धरती पर हावी कैसे हो गए

नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करता है कि डायनासौर ने पूरी धरती पर दबदबा कैसे कायम किया था। इस बात का सुराग ट्राएसिक युग (25-20 करोड़ वर्ष पूर्व) के अंतिम दौर से लेकर प्रारंभिक जुरासिक युग (20-14.5 करोड़ वर्ष पूर्व) में डायनासौर की विष्ठा (fossilized dung analysis) और वमन जीवाश्मों (Bromalite study) के विश्लेषण से मिला है। डायनासौर के भोजन के अध्ययन से पता चलता है कि कैसे 23-20 करोड़ वर्ष पूर्व के समय में डायनासौर ने अपने सारे प्रतिद्वन्द्वियों को विस्थापित कर दिया था और स्वयं विविध आकारों और साइज़ों (Dinosaur dominance) में विकसित हुए थे। यह घटना प्राचीन सुपर महाद्वीप पैंजिया के एक हिस्से में घटी थी। यह शोध पत्र उपसला विश्वविद्यालय के पुराजीव वैज्ञानिक मार्टिन क्वार्नस्ट्रॉम (Martin Qvarnström ) और उनके साथियों का है।

क्वार्नस्ट्रॉम का कहना है कि आम तौर पर लोग जंतुओं के कंकालों के जीवाश्मों पर ध्यान देते हैं, उनकी विष्ठा पर नहीं, जबकि विष्ठा जानकारी का खज़ाना होती है।

पहले डायनासौर करीब 23 करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर अदना किरदारों के रूप में प्रकट हुए थे। उस समय की पारिस्थितिकी में तमाम अन्य किरदार मौजूद थे – विशाल शाकाहारी (डायसिनोडोन्टDicynodonts), बड़े-बड़े शिकारी सरिसृप (रौइसुकिड्सRauisuchids) और मगरमच्छ जैसे जीव। लेकिन 3 करोड़ सालों के अंदर डायनासौर धरती पर छा गए – उन्होंने अपने प्रतिद्वन्द्वियों द्वारा घेरे गए समस्त निशे पर कब्ज़ा कर लिया। पारिस्थितिकी में निशे का मतलब होता है कि कोई प्रजाति अपने परिवेश में क्या भूमिका निभाती है – यानी परिवेश के अन्य सजीव और निर्जीव घटकों से क्या सम्बंध निर्वाह करती है। यह बहस का विषय रहा है कि क्या डायनासौर इसलिए हावी हुए थे कि उनके पास खास किस्म के शारीरिक लक्षण थे या फिर उनके प्रतिद्वन्द्वी जलवायु में हुए बदलाव के कारण परास्त हो गए थे।

क्वार्नस्ट्रॉम और उनके साथियों को लगता था कि इसका सुराग डायनासौर के भोजन में मिलेगा। डायनासौर की खुराक का खुलासा करने के लिए वे पोलिश बेसिन में डायनासौर की विष्ठा और वमन के जीवाश्म की तलाश में जुट गए। यह वह इलाका है जहां से हड्डियों के जीवाश्म और पुराजलवायु सम्बंधी विस्तृत रिकॉर्ड उपलब्ध हैं। टीम ने तीन मुख्य स्रोतों से प्राचीन भोजन शृंखला का पुनर्निर्माण किया: कोप्रोलाइट (coprolite -विष्ठा जीवाश्म), रीगर्जिएट (Regurgitated fossils – वमन के जीवाश्म) और कोलोलाइट्स (cololites – पाचन तंत्र के जीवाश्मित पदार्थ)। इन तीनों प्रकार के जीवाश्मों का मिला-जुला नाम है ब्रोमालाइट।

शोधकर्ताओं ने नौ जगहों से प्राप्त 532 ब्रोमालाइट्स की जांच की। इसके बाद उन्होंने इन ब्रोमालाइट्स को साइज़, आकृति और पदार्थों के आधार विभिन्न प्राचीन जंतु समूहों (Taxa – टैक्सा) में बांट दिया। उदाहरण के लिए, लंगफिश (Lungfish – फेफड़ों वाली मछलियां) और शार्क की आहार नाल सर्पिलाकार होती है और उनकी विष्ठा ऐंठे हुए भंवर के आकार की होती है। इससे अलग, उभयचर जीव अंडाकार विष्ठा छोड़ते हैं जिसमें मछलियों के शल्क बहुतायत में होते हैं।

खोज स्थल से भी कई सुराग मिले। जैसे कोप्रोलाइट्स प्राय: उससे सम्बंधित जीव की हड्डियों और पदचिंहों के बीच मिलते हैं। उदाहरण के लिए यदि आपको 30 से.मी. से ज़्यादा लंबी/बड़ी विष्ठा मिलती है और जहां आसपास डायनासौर के खूब पदचिंह हैं, तो पक्का है कि उसी की विष्ठा है।

इसके बाद रासायनिक विश्लेषण और सिन्क्रोट्रॉन टोमोग्राफी (Synchrotron tomography) जैसी तकनीकों की मदद से शोधकर्ताओं ने उस काल के भोजन की तहकीकात की। उदाहरण के लिए, जब उन्हें लंबी विष्ठा मिली जिसमें मछलियों के अवशेष भरपूर मात्रा में थे तो उन्होंने माना कि यह विष्ठा मगरमच्छ जैसे किसी सरिसृप ने छोड़ी होगी जिसकी थूथन लंबी होगी और दांत पैने होंगे (Paleorhinus – पैलियोराइनस)। दूसरी ओर यदि गोबर के जीवाश्म में गुबरैले हैं तो वह यकीनन कीटभक्षी सिलेसौरस की करतूत है। सिलेसौरस डायनासौर का निकट सम्बंधी था। आर्कोसौर स्मॉक की विष्ठा के जीवाश्म में उसके शिकार की चबाई हुई हड्डियां और दांत मिले। स्मॉक 5 मीटर लंबा दोपाया शिकारी था जिसके जबड़े निहायत शक्तिशाली और दांत आरीनुमा थे।

इस तरह शोधकर्ताओं ने समय के साथ भोजन में आए परिवर्तनों पर गौर किया तो उन्हें डायनासौर के दबदबा स्थापित होने के नए सुराग मिलते गए।

डायनासौर के पूर्वज छोटे-छोटे सर्वाहारी थे जो ट्राएसिक पारिस्थितिकी में गौण किरदार थे। इनसे शुरुआती डायनासौर का विकास हुआ – जैसे छोटे शिकारी थेरोपॉड्स (Theropods)। ये मूलत: कीट और मछलियां खाते थे। जुरासिक काल के उत्तरार्ध में जलवायु अपेक्षाकृत गर्म और नम होने लगी थी। इसके चलते वनस्पतियों का विस्तार हुआ और शाकाहारी डायनासौर (जाने-माने विशाल लंबी गर्दन वाले सौरोपॉड्स) (Sauropods) के लिए ज़्यादा भोजन उपलब्ध होने लगा। इन्होंने जो विष्ठा छोड़ी है उसमें वनस्पति अवशेष भरपूर मात्रा में पाए गए हैं। सारे संकेत यही दर्शाते हैं कि सौरोपॉड्स भारी मात्रा में बड़ी पत्तियों वाले फर्न खाते थे। धीरे-धीरे ये शाकाहारी विशाल हो गए और साथ ही इनका शिकार करने वाले थेरोपॉड भी।

ट्राएसिक काल के अंतिम दौर का विष्ठा रिकॉर्ड दर्शाता है कि डायनासौर पारिस्थितिकी तंत्र के हर स्तर पर छा चुके थे और उनके गैर-डायनासौर प्रतिद्वन्द्वी विस्थापित हो गए थे। यह पूर्व में अस्थि जीवाश्मों व अन्य प्रमाणों के आधार पर निकाले गए निष्कर्षों की पुष्टि करता है। इस विषय के शोधकर्ता आम तौर पर स्वीकार कर रहे हैं कि विष्ठा के विश्लेषण से यह पता करना कि कौन किसको खाता था, पारिस्थितिकी तंत्र को समझने के लिए काफी महत्वपूर्ण है। क्वार्नस्ट्रॉम को उम्मीद है कि यह शोध पत्र अन्य शोधकर्ताओं को भी इस दिशा में काम करने को प्रेरित करेगा। (स्रोत फीचर्स)

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मानव की दो पूर्वज प्रजातियों के पदचिंह साथ-साथ मिले

श्मीभूत पदचिंहों (fossilized footprints) के एक अध्ययन में रोमांचक बात सामने आई है। लगभग 15 लाख वर्ष पूर्व किसी दिन हमारे वंश होमो का सदस्य अफ्रीका की एक झील के कीचड़ भरे किनारे पर चला था और उसके चंद घंटे आगे-पीछे मानव कुल के एक और सदस्य ने उसी स्थान पर चहलकदमी की थी। वह दूसरा सदस्य संभवत: अपेक्षाकृत छोटे मस्तिष्क और बड़े जबड़े वाला पैरेन्थ्रोपस (paranthropus) था। देखने वाली बात यह है कि ये दोनों एक ही जगह पर, एक ही समय पर अस्तित्व में थे। यह रोमांचक खोज साइन्स (science)पत्रिका में प्रकाशित हुई है।

यह खोज पूर्व में प्रस्तावित इस धारणा के विपरीत है कि कोई भी दो होमिनिन प्रजातियां एक ही स्थान और एक ही समय पर साथ-साथ नहीं रही थीं। लेकिन पिछले वर्षों में खोदे गए जीवाश्म दर्शाते हैं कि हमारे पूर्वज और अन्य होमिनिन प्रजातियां सह-अस्तित्व में रही थीं। लेकिन उन जीवाश्मों के आधार पर पक्का निष्कर्ष निकालने में एक दिक्कत यह रही थी कि एक ही भूगर्भीय परत में पाए गए जीवाश्म हज़ारों या दसियों हज़ार वर्षों की अवधि में जमा हुए हो सकते हैं। इसलिए यह कहना संभव नहीं था कि विभिन्न होमिनिन वंश एक ही समय पर एक स्थान पर रहे थे।

उपरोक्त पदचिंह 2021 में रिचर्ड लोकी (Richard Lokey) द्वारा खोजे गए थे। उन्होंने केन्या के मशहूर जीवाश्म स्थल कूबी फोरा (Koobi Fora) में तुर्काना झील के निकट कई जीवाश्म खोजे थे। कूबी फोरा में कई होमिनिन जीवाश्म मिल चुके हैं और इन्हें उभारने में लुइस लीकी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्होंने यहां कम से कम पांच होमिनिन प्रजातियों की खोज की है। लेकिन ये पदचिंह खास तौर पर संरक्षित रहे हैं।

फिर 2022 में इन पदचिंहों के बारीकी से अध्ययन के लिए केविन हटाला (Kevin Hatala) और नील रोच (Neil Roach) को आमंत्रित किया गया। पदचिंहों में 13 कदम एक व्यक्ति के हैं जो तेज़ी से चलकर पूर्व की ओर गया था। इन पदचिंहों से 1 मीटर से भी कम दूरी पर अन्य तीन पदचिंह हैं जो उत्तर की ओर जा रहे हैं। आम तौर पर पदचिंह तभी भलीभांति संरक्षित रह पाते हैं जब बनने के फौरन बाद वे मिट्टी, रेत अथवा राख से ढंक जाएं। इन्हें देखकर लगता है कि ये चंद घंटों के अतंराल पर बने होंगे।

हटाला की टीम ने इन पदचिंहों की आकृति व साइज़ की तुलना 340 वर्तमान मनुष्यों के पदचिंहों और अफ्रीका के अन्य प्राचीन मानव पदचिंहों से की। हटाला की टीम यह तो पहले ही दर्शा चुकी थी कि जब हमारी प्रजाति के प्राणी कीचड़ वाली जगह पर चलते हैं तो हमारा पैर ज़मीन पर एक मेहराब छोड़ता है। लेकिन तंज़ानिया के लेटिओली (Laetoli) में करीब 36.6 लाख साल पहले कुछ होमिनिन प्राणियों ने ज़्यादा सपाट पदचिंह छोड़े थे। यह संभवत: ऑस्ट्रेलोपिथेकस (Australopithecus)वंश का होमिनिन था।

कूबी फोरा में जो अलग-थलग पदचिंह मिले हैं वे दो या तीन अलग-अलग प्राणियों के हैं और काफी हद तक आधुनिक मानव (modern humans) जैसे हैं। ये संभवत: हमारे ही वंश होमो के सदस्य हैं। लेकिन पदचिंहों की जो लंबी कतार है, उसमें चिंह बगैर मेहराब वाले यानी सपाट हैं। लगभग लैटिओली में मिले ऑस्ट्रेलोपिथेकस जैसे।

विश्लेषण से पता चला है कि इस प्राणी के पैर के अंगूठे में अधिक लचीलापन था और यह उसके पास वाली उंगली से दूर की ओर अधिक मुड़ा हुआ था। यह आधुनिक मानवों से भिन्न है और चिम्पैंज़ी (chimpanzee) में देखा जाता है और उन्हें पेड़ों पर चढ़ने में मददगार होता है।

तो लगता है कि हमारे वंश होमो के एक प्रारंभिक सदस्य और एक अन्य किस्म के होमिनिन शायद एक ही दिन वहां चले होंगे। यह इन प्रजातियों के सह-अस्तित्व का ज़्यादा मज़बूत प्रमाण है। यह तो पता ही था कि सीधे चलने वाले होमिनिन्स – होमो इरेक्टस (Homo erectus) और पैरेन्थ्रोपस बॉइसाई (Paranthropus boisei) – की काफी सारी हड्डियों और दांत के जीवाश्म उस इलाके में मिले हैं और ये लगभग पदचिंह के समय के हैं। (स्रोत फीचर्स)

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गाज़ा: बच्चों पर युद्ध का मनोवैज्ञानिक असर

हालिया अध्ययन ने गाज़ा के बच्चों पर युद्ध के विनाशकारी मनोवैज्ञानिक प्रभावों (psychological Impacts) का एक दिल दहला देने वाला खुलासा किया है। पता चला है कि 96 प्रतिशत बच्चों का मानना है कि उनकी मृत्यु अवश्यंभावी है। वॉर चाइल्ड एलायंस (Child war alliance) के सहयोग से गाज़ा स्थित एक एनजीओ (NGO) द्वारा किए गए इस सर्वेक्षण में बच्चों के गहरे भावनात्मक और मानसिक संकट को उजागर किया गया है। इस अध्ययन में शामिल लगभग आधे बच्चों ने अपने ऊपर होने वाले भारी आघात के कारण मरने की इच्छा व्यक्त की है। 

यह रिपोर्ट गाज़ा में जीवन की जो तस्वीर पेश करती है, उसमें बच्चे लगातार डर(Fear), चिंता(Anxiety) और क्षति से जूझ रहे हैं। लगभग 79 प्रतिशत बच्चे दुस्वप्न (Nightmares) देखते हैं, 73 प्रतिशत में आक्रामकता(Aggression) के लक्षण दिखाई देते हैं, और 92 प्रतिशत को अपने वर्तमान हालात को स्वीकार करने में कठिनाई महसूस होती है। ये लक्षण उस गहरे मनोवैज्ञानिक प्रभाव के संकेत हैं, जो बमबारियां(Bombardments) देखने, अपनों को खोने और घर से बेघर होने जैसी त्रासदियों का सामना करने से पड़े हैं।

इस सर्वे में 504 बच्चों के देखभालकर्ताओं से जानकारी जुटाई गई। इनमें से कई परिवारों में विकलांग, घायल या अकेले रह रहे बच्चे हैं। यह गाज़ा में 19 लाख से अधिक विस्थापित फिलिस्तीनियों(Palestinians) के मानवीय संकट को उजागर करता है, जिनमें से आधे बच्चे हैं। इनमें से कई बच्चों को बार-बार अपने मोहल्लों से भागने पर मजबूर होना पड़ा है, और अनुमान है कि लगभग 17,000 बच्चे अब अपने माता-पिता (Parents) से बिछड़ चुके हैं। 

विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि इन अनुभवों के गहरे और स्थायी प्रभाव हो सकते हैं। बुरे सपने देखना, सामाजिक रूप से अलग-थलग होना, एकाग्रता में कठिनाई और यहां तक कि शारीरिक दर्द जैसी समस्याएं आम हैं। रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि ऐसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं (mental health problems) लंबे समय तक भावनात्मक और व्यवहारिक बदलाव ला सकती हैं, जिससे सदमा पीढ़ियों तक बना रह सकता है।

यह अच्छी बात है कि राहत पहुंचाने के प्रयास शुरू हो चुके हैं, जिसमें वॉर चाइल्ड (war child) और उसके साझेदारों ने 17,000 बच्चों को मानसिक स्वास्थ्य सहायता (mental health support) दी है। लेकिन संकट का पैमाना बहुत बड़ा है, और संगठन का लक्ष्य अगले तीन दशकों में अपनी सबसे बड़ी मानवीय प्रतिक्रिया के तहत 10 लाख बच्चों की मदद करना है। 

वॉर चाइल्ड यूके (war child UK) की सीईओ हेलेन पैटिन्सन ने मौजूदा मानसिक स्वास्थ्य आपदा को पीढ़ी-दर-पीढ़ी संकट में बदलने से रोकने के लिए तुरंत अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई का आह्वान किया। उन्होंने गाज़ा के बच्चों पर पड़े अदृश्य घावों के साथ-साथ घरों, अस्पतालों और स्कूलों के विनाश को दूर करने के लिए वैश्विक हस्तक्षेप की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर दिया है। (स्रोत फीचर्स)

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वृक्षों का पलायन: हिमालय के पारिस्थितिक तंत्र में बदलाव

हालिया समय में भव्य हिमालय (The Himalayas) पर्वत एक मौन लेकिन महत्वपूर्ण बदलाव के साक्षी बन रहे हैं। नेचर प्लांट्स में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के कारण इस क्षेत्र के वृक्षों की सीमा में परिवर्तन हो रहा है, जिससे इसके नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) का संतुलन प्रभावित हो रहा है। यह बदलाव केवल पेड़ों पर नहीं, बल्कि वन्यजीवों, चारागाहों और स्थानीय समुदायों की आजीविका पर भी असर डाल सकता है।

सदियों से, हिमालय के मध्य क्षेत्र में चट्टानी इलाकों पर भोजपत्र (Betula utilis) के पेड़ों का दबदबा रहा है, जबकि ऊंचे इलाकों में देवदार (Abies spectabilis) के पेड़ सह-अस्तित्व में रहे हैं। लेकिन हालिया डैटा से पता चला है कि देवदार के पेड़ धीरे-धीरे भोजपत्र पर हावी हो रहे हैं। हिमालय में वैश्विक औसत से अधिक गति से बढ़ रहे तापमान और सूखे की बढ़ती स्थिति ने देवदार के पेड़ों को भोजपत्र की तुलना में तेज़ी से फैलने का मौका दिया है। देवदार के पेड़ हर साल 11 सेंटीमीटर ऊंचे स्थानों तक फैल रहे हैं, जो भोजपत्र की गति से लगभग दुगना है। यह अंतर तापमान (temperature) में और अधिक वृद्धि के साथ तेज़ हो सकता है।

शोधकर्ताओं ने माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) और अन्नपूर्णा संरक्षण क्षेत्र (Annapurna conservation area) के पास के जंगलों का अध्ययन किया, जिसमें उन्होंने 700 से अधिक पेड़ों की उम्र और वृद्धि के पैटर्न को ट्रैक करने के लिए ट्री कोर सैंपलिंग (tree core sampling) जैसी तकनीकों का उपयोग किया। उनके निष्कर्ष बताते हैं कि भोजपत्र के पेड़ों का प्रजनन 1920 से 1970 के बीच अपने चरम पर था, लेकिन इसके बाद इसमें गिरावट आई है। वहीं, देवदार के पेड़ वर्तमान गर्म होते माहौल में तेज़ी से फल-फूल रहे हैं। अनुमान है कि 2100 तक, बदलते तापमान व जलवायु के विभिन्न परिदृश्यों में, देवदार के पेड़ ऊंचे इलाकों की ओर बढ़ते रहेंगे, जबकि भोजपत्र या तो स्थिर रहेंगे या कम हो सकते हैं। 

शोधकर्ता बताते हैं कि इस परिवर्तन के दुष्परिणाम भी सामने आएंगे। बर्फीले तेंदुए (snow leopard) जैसे प्राणियों को शिकार के लिए खुले स्थानों की ज़रूरत होती है। जंगल का विस्तार इनके प्राकृतवासों (habitat) को घटा रहा है। साथ ही, स्थानीय पशुपालकों के लिए आवश्यक चारागाहों (grazing land) पर पेड़ अतिक्रमण कर रहे हैं। लंगटांग घाटी जैसे क्षेत्रों में, स्थानीय लोग याक और भेड़ों के लिए ज़मीन वापस पाने के लिए पेड़ों को काट रहे हैं।

विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसे अध्ययन जंगल प्रबंधकों और स्थानीय समुदायों को इन बदलावों का अनुमान लगाने और उनके अनुसार खुद को ढालने में मदद करते हैं। यह शोध जलवायु परिवर्तन और इसके प्रकृति व मानवता पर पड़ने वाले प्रभावों को संभालने की ज़रूरत को रेखांकित करता है और हमें याद दिलाता है कि पारिस्थितिकी तंत्र के घटक परस्पर जुड़े हुए हैं और इन ऊंचे पहाड़ों में जीवन को बनाए रखने के लिए इनका संतुलन कितना महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

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त्रासदी के 40 साल बाद भी भारत में ढीले कानून – विवेक मिश्रा

भोपाल गैस त्रासदी (Bhopal Gas Tragedy) के चालीस साल हो गए हैं, और इन चालीस सालों में भारत दुनिया का छठवां सबसे बड़ा रसायन उत्पादक देश बन गया है। तेज़ी से बढ़ते रसायन उद्योग के साथ भारत में रासायनिक दुर्घटनाएं (chemical accidents) भी बढ़ रही हैं। सवाल है कि ऐसा क्यों है?

कोविड-19 महामारी (2020-2023) के दौरान भारत में 29 रासायनिक दुर्घटनाएं हुईं। इन दुर्घटनाओं में 118 मौतें हुईं और लगभग 257 लोग घायल हुए। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने इन दुर्घटनाओं का कारण प्लांट की खराबी, रासायनिक रिसाव (chemical leakage), विस्फोट (explosion) और फैक्ट्री में आग लगना पाया है।

वैज्ञानिकों के एक समूह साइंटिस्ट फॉर पीपल (scientist for people) ने 2021 में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भोपाल गैस त्रासदी के 40 साल बाद भी रासायनिक प्रक्रियाओं के लिए सुरक्षा सम्बंधी नियम-कायदों में कोई सुधार नहीं हुआ है।

भारत का फलता-फूलता औद्योगिक क्षेत्र लगातार ट्रेड सीक्रेट संरक्षण कानून (Trade secret protection law) की मांग कर रहा है। ऐसे कानून कंपनियों को बौद्धिक संपदा की आड़ में महत्वपूर्ण जानकारी गोपनीय रखने की अनुमति देते हैं। एक ओर जहां ट्रेड सीक्रेट को गोपनीय रखना किसी कंपनी को प्रतिस्पर्धात्मक फायदा दे सकता है, वहीं दूसरी ओर, पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य सम्बंधी जोखिम पैदा करने वाली कंपनियां अक्सर इस गोपनीयता का दुरुपयोग करती हैं। ट्रेड सीक्रेट संरक्षण कानून की अनुपस्थिति में, कंपनियां फिलहाल व्यावसायिक प्रक्रियाओं की जानकारी उजागर होने से रोकने के लिए गैर-प्रकटीकरण (नॉन-डिसक्लोज़र) समझौतों पर निर्भर हैं।

पश्चिम बंगाल नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरिडिकल साइंसेज़ (west Bengal national university of juridical sciences) के प्रोफेसर अनिरबन मजूमदार कहते हैं, “कंपनियां खुद को बचाने के लिए गैर-प्रकटीकरण समझौतों का उपयोग करती हैं, और भारत में ट्रेड सीक्रेट को लेकर कोई विशिष्ट कानून नहीं है। सूचना का अधिकार अधिनियम(RTI), 2005  की धारा 8(i) के तहत सार्वजनिक हित के उद्देश्य से बौद्धिक संपदा और ट्रेड सीक्रेट से सम्बंधित जानकारी मांगने की अनुमति देता है, लेकिन यह अधिनियम निजी कंपनियों पर लागू नहीं होता है।“

मजूमदार एक उदाहरण के तौर पर भोपाल गैस त्रासदी का हवाला देते हैं। “डॉऊ केमिकल्स(Dow Chemicals), जिसने 2001 में यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन (Union Carbide Corporation) का अधिग्रहण किया था, ने रिसी हुई गैस के रासायनिक संघटन (chemical composition) का खुलासा करने से इन्कार कर दिया था। यदि संघटन उजागर कर दिया जाता तो उसके आधार पर पीड़ितों का प्रभावी ढंग से इलाज किया जा सकता था। यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन 1950 के दशक से ही ट्रेड सीक्रेट संरक्षण का उपयोग कर रहा है।

मिक का उपयोग जारी है 

यहां भोपाल गैस त्रासदी एक प्रासंगिक उदाहरण होगा क्योंकि भारत में मिथाइल आइसोसाइनेट (mic) का उपयोग अब तक जारी है। मिक को खतरनाक रसायनों के निर्माण, भंडारण और आयात नियम, 1989 (अनुसूची 1) के तहत एक खतरनाक रसायन के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

डाउन टू अर्थ द्वारा सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत मिक के उपयोग की मात्रा और स्थानों के बारे में सवाल के जवाब में रसायन और पेट्रोकेमिकल्स विभाग ने जानकारी नहीं दी। मजूमदार बताते हैं कि कुछ रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि डाऊ केमिकल्स सिंगापुर स्थित कंपनी मेगा वीसा के माध्यम से भारत में यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन के उत्पादों का व्यापार जारी रखे हुए है।

टॉक्सिक्स वॉच अलाएंस के गोपाल कृष्ण ने उजागर किया है कि कई खतरनाक रसायनों (hazardeous chemicals) को अभी भी ‘खतरनाक’ के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है या ‘दर्ज’ करने योग्य ही नहीं माना गया है। उनका आरोप है कि भोपाल में यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन के अनुसंधान और विकास केंद्र ने अमेरिका में युद्ध हथियार निर्माण के लिए प्रतिबंधित गैसों और रसायनों के साथ प्रयोग किए हैं। त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार गैस की सटीक पहचान आज भी अज्ञात है।

यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन का भोपाल संयंत्र कीटनाशक कार्बेरिल (sevin) के निर्माण के लिए मिक का उपयोग एक मध्यवर्ती के रूप में करता था। इसे त्रासदी के लगभग तीन दशक बाद 8 अगस्त, 2018 को भारत में प्रतिबंधित किया गया। प्रतिबंध लगाने में इस देरी का कारण बताया नहीं गया है।

हमारा भोजन

इस बीच, कई खतरनाक कृषि रसायन नियमन/नियंत्रण से बाहर बने हुए हैं। जैसे संश्लेषित कीटनाशक डीडीटी (DDT) (डाइफिनाइलट्राइक्लोरोइथेन), जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए खतरनाक है। वैश्विक स्तर पर चरणबद्ध तरीके से इसे समाप्त किए जाने के निर्णय के बावजूद भारत में, एचआईएल लिमिटेड (HIL Limited) के माध्यम से अफ्रीकी देशों को निर्यात के लिए इसका उत्पादन जारी है। 17वीं लोकसभा की रसायन और उर्वरक स्थायी समिति (2023-24) के अनुसार, सरकार ने डीडीटी को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की बात को दिसंबर 2024 तक के लिए टाल दिया है।

2022 में, पेस्टिसाइड्स एक्शन नेटवर्क इंडिया (PAN India) ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी: भारत में क्लोरपाइरीफॉस, फिप्रोनिल, एट्राज़ीन और पैराक्वाट डाइक्लोराइड की स्थिति। रिपोर्ट में मानव स्वास्थ्य, पर्यावरण और अन्य जीवों पर गंभीर जोखिमों के कारण अत्यधिक विषैले कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाने की तत्काल आवश्यकता बताई गई है।

केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने अपनी 1989 की अधिसूचना के माध्यम से, खतरनाक रसायन (प्रबंधन और हैंडलिंग) नियमों की अनुसूची 1 के तहत 684 खतरनाक रसायनों को सूचीबद्ध किया है। अलबत्ता, इस सूची से कई खतरनाक रसायन नदारद हैं। गोपाल कृष्ण के अनुसार, यह एक अत्यंत सीमित सूची है। भारत में अब तक एस्बेस्टस जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंधित रसायनों का उपयोग हो रहा है।

भारत में अनियंत्रित या अल्प-नियंत्रित संश्लेषित रसायनों का एक और उदाहरण है: पर-एंड-पॉलीफ्लोरोएल्काइल पदार्थ (PFAS), जिन्हें ‘शाश्वत रसायन’ भी कहा जाता है। नॉन-स्टिक बर्तन, खाद्य पैकेजिंग और जल-रोधी उत्पादों में खूब उपयोग किए जाने वाले PFAS पर्यावरण में बने रहने और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव के लिए जाने जाते हैं। युरोपीय रसायन एजेंसी ने युरोप में इन्हें नियंत्रित करने के लिए कदम उठाए हैं, लेकिन इस संदर्भ में भारत में कोई प्रगति नहीं हुई है।

अक्टूबर 2024 में डाउन टू अर्थ ने एक बार फिर सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत मिक और अन्य खतरनाक रसायनों पर जानकारी तलब की थी। रसायन विभाग का जवाब था, “सूचना अधिकारी के पास ऐसी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।” यदि ट्रेड सीक्रेट संरक्षण विधेयक, 2024 पारित हो जाता है तो कंपनियों को, राष्ट्रीय आपात स्थिति या सार्वजनिक हित के मामलों को छोड़कर, महत्वपूर्ण जानकारी रोकने की और अधिक शक्ति मिल जाएगी।

भारत में रसायन उद्योग का विस्तार जारी है। केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय का अनुमान है कि 2040 तक यह 1 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा। रासायनिक प्रबंधन और सुरक्षा नियमों का मसौदा अधूरा है: भारत में अमेरिका या युरोपीय संघ के जैसे व्यापक नियमों का अभाव है। इसके अलावा, भारत में न तो कोई रासायनिक सूची है या न ही रासायनिक पंजीकरण अनिवार्य है।

पब्लिक पॉलिसी और PAN India से जुड़े नरसिम्हा रेड्डी दोंती का कहना है, “हमारे पास शस्त्र कानून जैसे मज़बूत कानून का अभाव है। बंदूक रखने पर सात वर्ष के कठोर कारावास की सज़ा हो सकती है, लेकिन खतरनाक रसायनों से भरा डिब्बा खरीदने पर अक्सर कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ता। हमें क्रियान्वयन के लिए सख्त कानून, नियम और संस्थागत तंत्र की आवश्यकता है।”

टॉक्सिक्स लिंक के पीयूष महापात्रा बताते हैं कि मौजूदा नीतियां औद्योगिक हितों को प्राथमिकता देती हैं और रासायनिक प्रबंधन और खतरे के वर्गीकरण को नज़रअंदाज़ करती हैं। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और समझौतों में शामिल होने के बावजूद नीतियों का कार्यान्वयन बदतर बना हुआ है।

लगभग पांच साल पहले 2019 में, डाउन टू अर्थ ने ई-मेल के माध्यम से बातचीत के एक लंबी शृंखला में देश में मिक के उत्पादन और उपयोग पर सरकार से जानकारी मांगी थी। उत्तर मिला: “रसायन विभाग के संयुक्त सचिव मिक जैसी विषाक्त गैस की अधिसूचना पर काम कर रहे हैं। उनके संपर्क में रहें।” अब तक मंत्रालय की ओर से ऐसी कोई अधिसूचना नहीं आई है। रसायन (प्रबंधन और सुरक्षा) नियमों का मसौदा तैयार है, लेकिन अभी तक इसे अंतिम रूप नहीं दिया गया है।

हालांकि भारत में रासायनिक उद्योग के विभिन्न पहलुओं को नियंत्रित करने वाले 15 कानून और 19 नियम हैं, लेकिन उनमें से कोई भी विशेष रूप से रसायनों के उपयोग, उत्पादन और सुरक्षा को पूरे उद्योग के स्तर पर संबोधित नहीं करता। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व वैज्ञानिक डीडी बसु ने ज़ोर देकर कहा है, “हमें रासायनिक उपयोग, उत्पादन और सुरक्षा को विनियमित करने के लिए व्यापक कानून की आवश्यकता है।”

अन्य देश हानिकारक रसायनों पर नियंत्रण और प्रतिबंध लगाने के प्रयासों को गति दे रहे हैं, लेकिन भारत इसमें अभी भी पिछड़ा है। दोंती का निष्कर्ष है, “भारत को एक मज़बूत नियामक ढांचे की आवश्यकता है जो न केवल ट्रेड सीक्रेट को संबोधित करता हो बल्कि आपूर्ति शृंखलाओं में पारदर्शिता भी सुनिश्चित करता हो। उद्योगों ने ऐसी प्रणालियां बनाई हैं जो उन्हें जांच से बचाती हैं जबकि जनता को नुकसान पहुंचाती हैं।” (स्रोत फीचर्स)

यह लेख मूलत: डाउन टू अर्थ में अंग्रेज़ी में Bhopal Gas Tragedy at 40: Harmful chemicals, including methyl isocyanate, are still used in India due to lax laws; can this change?  शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वर्ष 2024 अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान जगत – चक्रेश जैन

साल 2024 में कृत्रिम बुद्धि (artificial intelligence) यानी एआई के उपयोग का दायरा बढ़ता रहा – मौलिक कविता लेखन से लेकर चुनाव में मतदाताओं को लुभाने तक इसका इस्तेमाल हुआ। कहना मुश्किल है कि यह विस्तार कहां पहुंच कर थमेगा।

यह वही वर्ष है, जब जनरेटिव एआई से सृजित लार्ज लैंग्वैज मॉडल द्वारा शोध पत्रों की समकक्ष समीक्षा (peer review) ने नए सवालों को जन्म दिया। 2024 के भौतिकी और रसायन विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों (nobel prize) ने एआई आधारित अनुसंधान कार्य को मुहर अचंभित कर दिया।

इस वर्ष पेरिस में आयोजित ओलंपिक खेलों (Olympic games) में एआई का जलवा दिखा। खिलाड़ियों के प्रशिक्षण से लेकर कार्यक्रमों के प्रसारण में एआई शामिल रहा। वर्जीनिया युनिवर्सिटी के गणितज्ञ केन ओनो ने गणितीय मॉडलिंग के ज़रिए अमेरिकी तैराकों को इस लायक बनाया कि वे शानदार प्रदर्शन करते हुए पदक बटोरने में कामयाब रहे।

वर्ष 2024 में जापान ने अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में दो ऐतिहासिक सफलताएं हासिल कीं। 20 जनवरी को वह चंद्रमा पर सफलतापूर्वक सॉफ्ट लैंडिंग करने वाला दुनिया का पांचवा देश बन गया। 5 नवंबर को लकड़ी से बना उपग्रह अंतरिक्ष में भेज कर इतिहास रचा। ऐसा कर जापान ने इको फ्रेंडली उपग्रहों का मार्ग प्रशस्त किया है। इस उपग्रह को ‘लिगनोसैट’ नाम दिया गया है।

इसी वर्ष साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित एक अध्ययन में यह खुलासा किया गया कि मंगल ग्रह (mars) पर अरबों साल पहले पानी मौजूद था। सच तो यह है कि काफी समय से यह माना जाता रहा है कि मंगल ग्रह के आरंभिक इतिहास में पानी की अहम भूमिका रही है।

साल की शुरुआत में ही नासा(NASA) ने आर्टिमिस चंद्र मिशन कार्यक्रम एक वर्ष के लिए स्थगित कर दिया। इस मिशन का उद्देश्य अंतरिक्ष यात्रियों को चंद्रमा पर पुन: उतारना है।

वर्ष 2024 में अंतरिक्ष में पहली बार एक निजी कंपनी ने अपने शक्तिशाली रॉकेट से एक केला भेजा, इसका उद्देश्य अंतरिक्ष में शून्य गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव का अध्ययन करना है।

इसी वर्ष चीन का अंतरिक्ष यान चांग-ए-6 (chang’e-A-6) यान 53 दिनों की यात्रा पूरी कर चंद्रमा के सुदूर क्षेत्र से मिट्टी और चट्टानों के नमूने एकत्रित करके पृथ्वी पर लौट आया है। चीन को इस दिशा में पहली बार बड़ी सफलता मिली है। अमेरिका और सोवियत संघ पहले ही चंद्रमा के निकटस्थ भाग से नमूने ला चुके हैं।

विदा हो चुके वर्ष 2024 में पहली बार प्रतिपदार्थ (anti matter)को प्रयोगशाला से बाहर ले जाने का प्रयास किया गया। इस असाधारण उपलब्धि के लिए सर्न (CERN) प्रयोगशाला के अनुसंधानकर्ताओं की दो टीमों में होड़ जारी रही। हर पदार्थ-कण का एक प्रतिपदार्थ होता है। भौतिकशास्त्र के अध्येताओं का मानना है कि बिग बैंग के दौरान प्रतिपदार्थ और पदार्थ समान मात्रा में बने थे। प्रतिपदार्थ को पृथ्वी पर सबसे महंगा पदार्थ माना जाता है। एक ग्राम प्रतिपदार्थ बनाने की लागत खरबों डॉलर आएगी।

इसी वर्ष अनुसंधानकर्ताओं ने एक फोटॉन से दुनिया का सबसे छोटा क्वांटम कंप्यूटर (quantum computer) बनाने में सफलता हासिल की। क्वांटम कंप्यूटर क्वांटम यांत्रिकी सिद्धांत पर आधारित होते हैं।

साल 2024 में पहली बार मनुष्य में जेनेटिक रूप से संशोधित सुअर के गुर्दे का सफलतापूर्वक प्रत्यारोपण (pig kidney transplant) किया गया। अंग प्रत्यारोपण के क्षेत्र में इसे बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है।

वर्ष 2024 में जीवविज्ञान की सबसे महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी परियोजना मानव कोशिका एटलस (ATLAS) का पहला मसौदा जारी किया गया। इस परियोजना का उद्देश्य मनुष्य की प्रत्येक कोशिका का जेनेटिक मानचित्र तैयार करना है। फिलहाल इसमें 620 लाख मानव कोशिकाओं का डैटा है। इस अनुसंधान से आगे चलकर गंभीर बीमारियों के बारे में सटीक जानकारियां उपलब्ध हो सकेंगी। ‘विकिपीडिया फॉर सेल्स’ नाम की इस परियोजना की शुरुआत 2016 में हुई थी। दस वर्षीय परियोजना पूरी होने की दहलीज पर है। इसमें 102 देशों ने सहभागिता की है।

नेचर के अनुसार पहली बार माइटोकॉन्ड्रिया के दो प्रकारों का पता चला। माइटोकॉन्ड्रिया को कोशिका का ऊर्जा भण्डार कहा जाता है। वहीं अनुसंधानकर्ताओं ने टमाटर में से दो जीन हटाकर मीठे टमाटर (sweet tomato) का सृजन किया, जिसका उपयोग मधुमेह रोग से लड़ने में हो सकता है।

नेचर पत्रिका के अनुसार पहली बार एक महिला वैज्ञानिक ने प्रयोगशाला में वायरस का सृजन कर अपने कैंसर का इलाज किया। यह अपने ढंग का अनूठा और चुनौतीपूर्ण प्रयोग था।

इसी साल जनवरी में कंपनी न्यूरालिंक (neuralink) ने पहली बार किसी मनुष्य में इलेक्ट्रॉनिक चिप प्रत्यारोपित (electronic chip transplant) किया। यह पहला मानव परीक्षण था।

पुरस्कार (awards)  समारोह

साल 2024 के विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों के लिए सात वैज्ञानिकों का चयन किया गया। चिकित्सा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार के लिए विक्टर एम्ब्रोस और गैरी रूवकुन को संयुक्त रूप से चुना गया। दोनों वैज्ञानिकों को यह सम्मान माइक्रो आरएनए (mRNA) पर अनुसंधान के लिए दिया गया है।

भौतिकशास्त्र में नोबेल सम्मान जेफ्री हिंटन और जॉन हॉपफील्ड को मशीन लर्निंग को सक्षम बनाने के लिए मिला है। वस्तुत: दोनों अनुसंधानकर्ताओं ने आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क (neural network) को प्रशिक्षित किया है ताकि वह मनुष्यों की भांति सोच सके और सीख सके।

इस साल का रसायन विज्ञान का नोबेल सम्मान डेविड बेकर, डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया है। जहां डेविड बेकर ने कंप्यूटेशनल प्रोटीन (computational protein) डिज़ाइन पर अनुसंधान किया है, वहीं डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर ने प्रोटीन संरचना की भविष्यवाणी को लेकर शोधकार्य किया है।

ब्रिटिश भौतिकीविद सर रिचर्ड हेनरी फ्रेंड को अर्द्ध चालक पदार्थों के क्षेत्र में शोध के लिए इंस्टीट्यूट ऑफ फिज़िक्स द्वारा आइज़ैक न्यूटन मेडल (Isaac newton medal) से पुरस्कृत किया गया।

साल 2024 का बुनियादी चिकित्सा अल्बर्ट लास्कर पुरस्कार चीनी-अमेरिकी जैव रसायनविद ज़िजियान जेम्स चेन को दिया गया है। इस वर्ष का लास्कर (lasker award) ब्लूमबर्ग लोकसेवा पुरस्कार कुरैशा अब्दुल करीम और सलीम अब्दुल करीम को संयुक्त रूप से दिया गया है। दोनों ही अध्येता कोलंबिया युनिवर्सिटी में रोग प्रसार विज्ञान के विशेषज्ञ हैं।

साल 2024 का एबेल पुरस्कार (Abel prize) फ्रांसीसी गणितज्ञ मिशेल पियरे टैलाग्रेंड (Michel Talagrand) को दिया गया है। उन्हें यह सम्मान गणितीय भौतिकी और सांख्यिकी में संभाव्यता सिद्धांत व कार्यात्मक विश्लेषण में विशेष योगदान के लिए मिला है।

अजरबैजान की राजधानी बाकू में 29वां संयुक्त राष्ट्र वार्षिक शिखर सम्मेलन (COP-29) हुआ। इसमें जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी विभिन्न मुद्दों पर चर्चा हुई। सबसे ज़्यादा ज़ोर जलवायु वित्त पोषण पर रहा। सम्मेलन को दी फाइनेंस कॉप नाम दिया गया है। सम्मेलन में विकसित और विकासशील देशों के बीच गहरे मतभेदों के कारण प्रमुख मुद्दों पर प्रगति अवरुद्ध रही।

वर्ष 2024 ‘इंटरनेशनल ईयर ऑफ कैमेलिड्स’ (international year of camelids) के रूप में मनाया गया। संयुक्त राष्ट्र के आव्हान पर अंतर्राष्ट्रीय ऊंट वर्ष मनाने का मुख्य उद्देश्य पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा, जैव विविधता संरक्षण, खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में ऊंट की अहम भूमिका उजागर करना था।

इस वर्ष अमेरिकन केमिकल सोसायटी द्वारा प्रकाशित पत्रिका केमिकल रिव्यूज़ के सौ साल पूरे हुए। यह रसायन विज्ञान का शीर्षस्थ जर्नल है, जिसका प्रकाशन 1924 में शुरू हुआ था।

इसी साल 25 नवंबर को दक्षिण कोरिया के बुसान में आयोजित संयुक्त राष्ट्र वैश्विक प्लास्टिक संधि (plastic treaty) पर आयोजित वार्ता में दुनिया भर के देशों के प्रतिनिधि जुटे। इस बार कुछ प्रस्तावों पर सहमति दिखाई दी, लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दे नहीं सुलझे और वार्ता बिखर गई।

इसी साल मेक्सिको में चुनाव संपन्न हुए, जिसमें देशवासियों ने पहली बार महिला वैज्ञानिक (women scientist) क्लॉडिया शीनबॉम को राष्ट्रपति चुना। उन्होंने वैज्ञानिक से राष्ट्रपति पद तक पहुंचने के सफर में कई चुनौतियों का सामना किया है।

स्मृतिशेष

साल 2024 में हमने कई नोबेल पुरस्कार विजेताओं को खो दिया। 8 अप्रैल को ब्रिटिश भौतिकशास्त्री और तथाकथित गॉड पार्टिकल (God Particle) के खोजकर्ता पीटर हिग्ज़ (Peter Higgs) का निधन हो गया। उन्हें 2013 में भौतिकशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

अतिचालकता (superconductivity) सिद्धांत के अनुसंधानकर्ता लियान कूपर (leon cooper) का 23 अक्टूबर को 94 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें इस क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए 1972 में नोबेल सम्मान (Nobel Prize) मिला था।

इसी वर्ष 4 अगस्त को विख्यात भौतिकीविद(physicist) प्रोफेसर त्संग दाओ ली (Tsung Dao Lee) का 97 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें 1957 में भौतिकी का नोबेल सम्मान मिला था। वे सबसे कम उम्र में नोबेल पुरस्कार के लिए चुने गए दूसरे वैज्ञानिक थे। उन्होंने कण भौतिकी में विशेष योगदान दिया था।

स्वीडिश जैव रसायनज्ञ बेंग्ट सैमुएलसन (Bengt samuelsson) की 5 जुलाई और जे. रॉबिन वारेन की 23 जुलाई को मृत्यु हो गई। दोनों वैज्ञानिकों को चिकित्सा विज्ञान के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया था। 17 अक्टूबर को चिकित्सा विज्ञान में नोबेल विजेता एंड्रयू वी. स्काली (Andrew v. schally) का देहांत हो गया। उन्होंने दो दशकों तक मस्तिष्क में मौजूद हारमोन की भूमिका पर अनुसंधान किया था। उन्हें इस शोधकार्य के लिए 1975 में अल्बर्ट लास्कर पुरस्कार और 1977 में चिकित्सा विज्ञान का नोबेल सम्मान प्रदान किया गया था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हिमालय की हिमनद झीलों से बाढ़ का खतरा

जलवायु परिवर्तन (climate change) के कारण हिमालय (Himalayas) की ऊंचाइयों में हिमनद झीलें (glacial lakes) तेज़ी से फैल रही हैं, जिससे नीचे के इलाकों में विनाशकारी बाढ़ (catastrophic floods) का खतरा बढ़ रहा है। एक हालिया अध्ययन में पाया गया है कि 2011 के बाद से भारत, चीन, नेपाल और भूटान (India, China, Nepal, Bhutan) में निरीक्षण की गई 902 हिमनद झीलों (lake expansion)  में से आधी से अधिक का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है। बर्फ और हिमनदों के पिघलने से निर्मित इन झीलों का क्षेत्रफल अब तक 11 प्रतिशत तक बढ़ा है, जबकि कुछ झीलें तो 40 प्रतिशत से अधिक फैल गई हैं। 

यह चिंताजनक स्थिति वैश्विक तापमान (global warming) वृद्धि से जुड़ी है, जो हिमनदों के पिघलने की गति को तेज़ कर रही है। इन झीलों को अक्सर बर्फ और गिट्टियों जैसी नाज़ुक प्राकृतिक बाधाएं रोके रखती हैं, जो अचानक टूट सकती हैं और खतरनाक बाढ़ ला सकती हैं। इन्हें ‘आउटबर्स्ट फ्लड्स’ (outburst floods) कहा जाता है। बीते दशक में हिमालयी क्षेत्र में ऐसी घटनाओं ने भारी विनाश और जान-माल का नुकसान किया है। इन बाढ़ों की अप्रत्याशित प्रकृति के चलते हिमनद झीलों, खासकर छोटी लेकिन खतरनाक झीलों, की सख्त निगरानी (strict monitoring) निहायत आवश्यक है।

उपग्रह (satellite) और हवाई सर्वेक्षण (aerial surveys) इन परिवर्तनों को ट्रैक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसरो (ISRO) ने एक अन्य अध्ययन में पाया है कि 1984 से 2016 के बीच अध्ययन की गई 2400 से अधिक झीलों में से लगभग 28 प्रतिशत झीलों के आकार में वृद्धि हुई है।

भारत सरकार (indian government) ने हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश (Himachal Pradesh, Uttarakhand, Sikkim, Arunachal Pradesh) में इन जोखिमों से निपटने के लिए 150 करोड़ रुपए की योजना शुरू की है। इसके तहत, झीलों की संवेदनशीलता (lake vulnerability) का आकलन और सुरक्षा उपाय (safety measures) लागू करने के प्रयास किए जा रहे हैं। इनमें निगरानी प्रणाली स्थापित करना और जल धारा का मार्ग बदलने के लिए चैनल (water channeling) बनाना शामिल है। इसके आलावा सिक्किम में शोधकर्ताओं ने सर्वाधिक जोखिम वाली झीलों (high risk lakes) के लिए प्राथमिकता के आधार पर रोकथाम रणनीतियां (prevention strategies) तैयार की हैं।

आपदा प्रबंधन अधिकारी (disaster management officials) इन झीलों के नीचे स्थित बांधों (dams) की तैयारियों का आकलन कर रहे हैं। 47 चिंहित बांधों में से 31 की रिपोर्ट में यह जांच की जा रही है कि उनके स्पिलवे संभावित बाढ़ का सामना कर सकते हैं या नहीं। पूर्वी हिमालय पर किए गए हालिया अध्ययन में बताया गया है कि ऐसी बाढ़ों से 10,000 से अधिक लोग, 2000 बस्तियां, पांच पुल और दो पनबिजली संयंत्र खतरे में पड़ सकते हैं। 

भौगोलिक स्थिति (geographical factors) और अंतर्राष्ट्रीय सरहदों (international borders) के लिहाज़ से इन झीलों के जलग्रहण क्षेत्र कई देशों में फैले हुए हैं। इसके लिए विशेषज्ञ हिमालयी देशों के बीच सीमापार सहयोग (joint efforts) की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। इस नाज़ुक क्षेत्र में जीवन, बुनियादी ढांचे और पारिस्थितिक तंत्र पर बढ़ते खतरों से निपटने के लिए संयुक्त प्रयासों और सतत सतर्कता की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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वैश्विक खाद्य व्यापार: लाभ या समस्याओं की थाली?

परस्पर जुड़ी इस दुनिया में अक्सर हमारे भोजन को थाली तक पहुंचने के लिए लंबी दूरी तय करना पड़ती है। उदाहरण के लिए, एक आम अमेरिकी (American Breakfast) नाश्ते पर गौर करें: आयरलैंड की जौं के दलिया को मीठा करने के लिए ब्राज़ील की चीनी (Brazilian sugar) डाली जाती है और इसके ऊपर डाला जाता है कोस्टा रिका (costa rican banana) का केला। सिर्फ इतना ही नहीं साथ में इथोपिया, कोलंबिया, सुमात्रा और होंडुरास के मिश्रित बीजों से बनी कॉफी (Global coffee trade )होती है। यह मिश्रण दर्शाता है कि भोजन का वैश्विक कारोबर (Global food trade) हमारे जीवन का कितना अहम हिस्सा बन गया है, जिसने न सिर्फ हमारे खानपान बल्कि अर्थव्यवस्थाओं (Economy impact of food trade) को भी बदल दिया है। लेकिन यह व्यापार जितना लाभदायक दिखता है, उतने ही बड़े खतरे और चुनौतियां भी लेकर आता है।

बढ़ता जाल

पिछले कुछ दशकों में, खाद्यान्न दुनिया की सबसे अधिक व्यापार की जाने वाली वस्तुओं (most traded commodities) में से एक बन गया है। भले ही लोगों को ‘स्थानीय भोजन’ (local food) खाने के लिए प्रेरित करने वाले अभियान चलाए जा रहे हों, लेकिन हमारा खानपान धीरे-धीरे अंतर्राष्ट्रीय होता जा रहा है। दुनिया की लगभग 80 प्रतिशत आबादी ऐसे देशों में रहती है जो खाद्य पदार्थों का निर्यात कम, आयात (Food import and export) अधिक करते हैं। एक अनुमान है कि 2050 तक, विश्व की आधी आबादी ऐसे खाद्य पदार्थों पर निर्भर होगी जो हज़ारों किलोमीटर दूर उगाए जाते हैं।

मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका (Middle East and North Africa) जैसे शुष्क जलवायु वाले देश आयात पर सबसे ज़्यादा निर्भर हैं। सऊदी अरब अपना 90 प्रतिशत खाद्य आयात करता है। हैरत की बात यह है कि कृषि समृद्ध देश भी कुछ विशेष खाद्य पदार्थों के बड़े आयातक हैं। ब्रेक्ज़िट (यानी ब्रिटेन द्वारा युरोपीय संघ छोड़ने) से पहले, यूके (UK food dependency) अपने विटामिन सी की लगभग आधी ज़रूरत को पूरा करने के लिए आयातित केले (Imported bananas) पर निर्भर था। स्पष्ट है कि वैश्विक व्यापार किस तरह खाद्य सुरक्षा वाले क्षेत्रों में भी आहार विविधता बनाए रखने में मदद करता है।

अंतर्राष्ट्रीय खाद्य व्यापार में इस तेज़ी का कारण है 1995 में विश्व व्यापार संगठन (WTO) की स्थापना। संगठन ने शुल्क और मूल्य नियंत्रण जैसी बाधाओं को हटाकर आयात-निर्यात आसान बना दिया। 2001 में संगठन में चीन (China food import) के प्रवेश ने इस व्यापार को और बढ़ाया, और चीन काफी तेज़ी से खाद्य पदार्थों (खासकर सोयाबीन) का सबसे बड़ा आयातक बन गया। आज, चीन दुनिया की करीब 70 प्रतिशत सोयाबीन आयात करता हैै।

वैश्विक खानपान के लाभ

एक मायने में वैश्विक खाद्य व्यापार (global food trade benefits) काफी लाभदायक रहा है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे उन देशों को खाद्य सुरक्षा (food security in dry regions) मिली, जहां सूखा, बाढ़ या प्रतिकूल जलवायु के कारण घरेलू उत्पादन में समस्या रहती है। भोजन आयात (food import benefits) करने से ये देश अकाल और अभाव जैसी स्थितियों से बच सकते हैं और अपने नागरिकों के लिए स्थिर आपूर्ति बनाए रख सकते हैं।

इसके अलावा, उत्पादक देशों (producing nations) को भी आर्थिक रूप से लाभ होता है। भोजन का निर्यात रोज़गार पैदा करता है, अर्थव्यवस्थाओं को मज़बूत करता है, और किसानों और मज़दूरों के लिए आय का एक स्थिर स्रोत बनाता है। उदाहरण के लिए, ब्राज़ील और भारत क्रमशः सोयाबीन (soyabean) और मसालों (spices) के वैश्विक उत्पादक बन गए हैं, जिससे लाखों लोगों को आजीविका मिलती है।

वैश्विक व्यापार (international trade) से आहार में विविधता भी बढ़ती है। अलग-अलग देशों से मिलने वाले फलों (fruits), सब्ज़ियों(vegetables), अनाज और मसालों से भोजन की पौष्टिकता बढ़ती है और भोजन स्वादिष्ट तथा आनंददायक(flavourful) बनता है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार यह भी सुनिश्चित करता है कि मौसमी उत्पाद साल भर उपलब्ध रहें।

अदृश्य लागतें

वैश्विक खाद्य व्यापार के लाभ तो स्पष्ट हैं, लेकिन इसके साथ कुछ गंभीर समस्याएं (global food trade challenges) भी जुड़ी हुई हैं। पर्यावरण सम्बंधी चिंताएं (environmental concerns) सबसे प्रमुख हैं। निर्यात की मांग को पूरा करने के लिए, उत्पादक देश अक्सर प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन करते हैं। उदाहरण के लिए, ब्राज़ील ने सोयाबीन उगाने और पशुपालन के लिए अमेज़ॉन वर्षावन (amazon rainforest) के बड़े हिस्सों को साफ कर दिया है, जिससे जैव विविधता को भारी नुकसान हुआ है। इसी तरह, दुनिया के अनानास की आधी आपूर्ति करने वाले कोस्टा रिका ने इसकी खेती के लिए भारी मात्रा में कीटनाशकों का उपयोग किया जिससे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को गंभीर नुकसान पहुंचा है।

उत्पादन के अलावा खाद्य पदार्थों को अलग-अलग महाद्वीपों पर पहुंचाना पर्यावरणीय समस्याओं को और बढ़ा देता है। शिपिंग, रेफ्रिजरेशन और पैकेजिंग से वैश्विक कार्बन उत्सर्जन (carbon emission) में काफी वृद्धि होती है। कृषि और उससे जुड़े कार्य मिलकर सभी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग एक-तिहाई हिस्सा होते हैं, जिससे वैश्विक खाद्य व्यापार जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख कारण बन जाता है।

स्वास्थ्य पर प्रभाव

पर्यावरणीय लागतों के अलावा, वैश्विक खाद्य व्यापार का प्रभाव जन स्वास्थ्य (public health impact) पर भी पड़ता है। यह सही है कि आयातित फलों(import fruits), सब्ज़ियों और मेवों तक पहुंच पोषण में सुधार करती है और वैश्विक मृत्यु दर को कम करती है। 2023 में नेचर फूड में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार हर साल 14 लाख लोगों की जान बचाता है क्योंकि यह बेहतर और स्वस्थ भोजन विकल्प उपलब्ध कराता है।

दूसरी ओर, प्रोसेस्ड फूड (processed food) और रेड मीट (red meat) के व्यापार का असर इसके विपरीत है। जिन देशों में पहले इन सामग्रियों तक पहुंच नहीं थी, वहां अब मधुमेह, हृदय रोग और कुछ प्रकार के कैंसर जैसी गंभीर बीमारियां बढ़ रही हैं। रेड मीट उपभोग का सम्बंध इन बीमारियों से देखा गया है। इसका निर्यात मुख्य रूप से अमेरिका और जर्मनी जैसे देश करते हैं। शोधकर्ताओं ने इसे ‘बीमारियों का निर्यात’ कहा है, जो इस बात पर ज़ोर देता है कि व्यापार नीतियां मुनाफे से अधिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दें।

नाज़ुक खाद्य प्रणाली 

वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं (global food chain) पर निर्भरता ने खाद्य प्रणाली को अधिक कुशल बनाया है, लेकिन इसे कमज़ोर भी किया है। मुख्य फसलों जैसे गेहूं, चावल, मक्का और सोयाबीन के निर्यात में केवल 10 देश प्रमुख भूमिका निभाते हैं, जिससे कुछ ही देशों पर अत्यधिक निर्भरता बढ़ गई है। उदाहरण के लिए, अमेरिका विश्व के कुल खाद्य पदार्थों का लगभग 25 प्रतिशत निर्यात करता है, और इसका अधिकांश हिस्सा कैलिफोर्निया और टेक्सास जैसे कुछ राज्यों से आता है। ऐसे में जब ये क्षेत्र सूखे या प्राकृतिक आपदाओं का सामना करते हैं, तब वैश्विक खाद्य कीमतें तेज़ी से बढ़ जाती हैं।

यूक्रेन युद्ध (Ukraine war) इस कमज़ोर व्यवस्था का ज्वलंत उदाहरण है। यूक्रेन और रूस मिलकर वैश्विक गेहूं निर्यात (global wheat export) का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा प्रदान करते हैं। 2022 में युद्ध के कारण जब इनका उत्पादन बाधित हुआ तो गेहूं की कीमतों (prise rise) में भारी उछाल आया, जिससे उन देशों पर असर पड़ा जो इस आपूर्ति पर निर्भर थे। हालांकि, भारत और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने इस कमी को पूरा करने का प्रयास किया, लेकिन इस संकट ने यह स्पष्ट कर दिया कि वैश्विक खाद्य आपूर्ति शृंखला कितनी संवेदनशील है।

जटिल भविष्य की तैयारी

वैश्विक खाद्य व्यापार (global food trade) की चुनौतियां आने वाले समय में और गंभीर हो सकती हैं। 2080 के दशक के मध्य तक पृथ्वी की जनसंख्या 10 अरब तक पहुंचने का अनुमान है, जिससे खाद्य प्रणालियों पर भारी दबाव पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा और तापमान पर अनिश्चित प्रभाव से फसल उत्पादन (crop production) घट सकता है और कृषि उद्योग अधिक अस्थिर बन सकता है।

इन जोखिमों से निपटने के लिए देशों को अधिक मज़बूत खाद्य प्रणालियां बनानी होंगी। इसमें घरेलू उत्पादन में वृद्धि, आयात के स्रोतों को अधिक विविध बनाने और अनाज भंडारण तथा बंदरगाह जैसे बुनियादी ढांचे में निवेश करना होगा। नीति निर्माताओं को इसके लिए अधिक डैटा की आवश्यकता होगी।

फूड एंड क्लाइमेट सिस्टम्स ट्रांसफॉर्मेशन अलाएंस (food and climate systems transformation alliance) जैसी पहल ऐसे साधन विकसित कर रही हैं जो यह अनुमान लगाने में मदद करेंगे कि जलवायु, भू-राजनीति, और बाज़ार में उतार-चढ़ाव 2050 तक खाद्य सुरक्षा को कैसे प्रभावित करेंगे। इनका उपयोग करके देश अपनी खाद्य नीतियों के बारे में प्रभावी निर्णय ले सकते हैं।

वैश्विक खाद्य व्यापार का भविष्य दक्षता और स्थिरता (efficiency and stbility) के बीच संतुलन खोजने पर निर्भर करेगा। देशों को यह फिर से विचार करना होगा कि वे क्या उत्पादन करें, उत्पादन कैसे करें, और आयात पर कितना निर्भर रहें। इसके लिए अपव्यय को कम करना, टिकाऊ कृषि प्रथाओं को अपनाना और निर्यात के पर्यावरणीय प्रभाव को सीमित करना महत्वपूर्ण होगा। यह तो ज़रूरी नहीं है कि आयातित कॉफी या उष्णकटिबंधीय फलों का उपभोग छोड़ दिया जाए लेकिन पर्यावरण पर अधिक दबाव डालने वाले उत्पादों की खपत को नियंत्रित करने से महत्वपूर्ण अंतर पड़ सकता है।

बहरहाल, वैश्विक खाद्य व्यापार आधुनिक अर्थव्यवस्था का एक अद्भुत उदाहरण है, लेकिन इसकी कई चुनौतियां भी हैं। इसके पर्यावरणीय प्रभावों, स्वास्थ्य सम्बंधी प्रभावों और व्यवधानों के प्रति दुर्बलता को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। जो निर्णय हम आज लेंगे, वही यह तय करेंगे कि वैश्विक व्यापार मानवता को पोषण देता रहेगा या हमें समाधान के लिए तरसने पर मजबूर करेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्लास्टिक प्रदूषण पर लगाम के प्रयास और अड़चनें

प्लास्टिक प्रदूषण(plastic pollution) की बढ़ती समस्या को थामने के लिए लोगों में जागरूकता फैलाने के प्रयास करीब-करीब विफल ही रहे हैं। जो थोड़ी-बहुत सफलता मिलती है वह इसके उत्पादन(plastic production) की मात्रा के सामने फीकी है। प्रति वर्ष करीब 46 करोड़ टन नए प्लास्टिक(new plastic) का उत्पादन होता है, और 2060 तक इसका उत्पादन तिगुना होने की संभावना है। इसमें भी एक बार इस्तेमाल करके फेंक दिया जाने वाला प्लास्टिक अधिक होता है।

प्लास्टिक प्रदूषण को थामने के प्रयासों में सफलता बहुत सीमित रही है – कुल उत्पादन का महज़ 10 प्रतिशत प्लास्टिक ही पुनर्चक्रित (recycle) हो पाता है, बाकी समुद्रों में और यहां-वहां फेंक दिया जाता है। यह पर्यावरण(environment), जीव-जंतुओं(wildlife) और मानव स्वास्थ्य(human health) के लिए समस्या पैदा करता है।

ऐसे में स्थानीय, राज्य या राष्ट्र के स्तर पर किए जा रहे प्रयासों से बढ़कर वैश्विक स्तर(global level) पर कार्रवाई की ज़रूरत लगती है। इस प्रयास में वर्ष 2022 में दुनिया भर के देशों ने मिलकर प्लास्टिक प्रदूषण को थामने के लिए एक वैश्विक संधि(global treaty) के तहत प्लास्टिक प्रदूषण को थामने के लिए नियम-कायदे तय करने की शुरुआत की थी। पिछले दिनों, दक्षिण कोरिया के बुसान में 175 देशों के वार्ताकार इस संधि के पांचवें और अंतिम सत्र के लिए एकत्रित हुए थे। उम्मीद की जा रही थी कि दक्षिण कोरिया के बुसान में जारी वार्ता के परिणामस्वरूप दुनिया को प्लास्टिक प्रदूषण से बचाने के लिए एक सशक्त संधि मिलेगी। लेकिन 1 दिसंबर को वार्ता बगैर किसी निर्णय के समाप्त हो गई। हालांकि, वैश्विक स्तर पर सहमति बनने तक कई शहर और देश अपनी-अपनी नीतियां बना रहे हैं।

बैठक में आए सभी प्रतिनिधियों के अपने-अपने मत हैं। वैज्ञानिकों समेत सहित कुछ समूह चाहते हैं कि गैर-ज़रूरी (non-essential plastic) प्लास्टिक के उत्पादन को कम किया जाए, जो तेज़ी से अनियंत्रित स्तर तक बढ़ गया है। लेकिन कुछ राष्ट्र, विशेष रूप से पेट्रोकेमिकल्स उत्पादनकर्ता राष्ट्र (petrochemical-producing nations) चाहते हैं कि संधि में उत्पादन रोकने की बजाय रीसाइक्लिंग सहित अपशिष्ट प्रबंधन पर अधिक ज़ोर हो।

अब तक, 90 से ज़्यादा देशों ने एक बार उपयोग वाले प्लास्टिक उत्पादों (जैसे पोलीथीन थैलियों) (single use plastic) पर पूर्ण या आंशिक प्रतिबंध लगाया है। ये प्रतिबंध काफी प्रभावी हो सकते हैं। एक विश्लेषण बताता है कि पांच अमेरिकी राज्यों और शहरों में इस तरह के प्रतिबंधों ने प्रति वर्ष एक बार उपयोग की जाने वाली लगभग छह अरब पोलीथीन थैलियों की खपत में कमी की है। जलनिकास मार्ग/जलमार्गों में बहने/फंसने वाले प्लास्टिक में भारी कमी भी दिखाई दी है।

प्लास्टिक उपयोग पर शुल्क वसूलना (plastic tax) भी काम कर सकता है। यूके में एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि एक बार उपयोग वाली थैलियों के उपयोग पर शुल्क लगाने के बाद समुद्र तटों पर प्लास्टिक की थैलियों की संख्या में 80 प्रतिशत की कमी आई, हालांकि इससे अन्य तरह का कूड़ा बढ़ गया है।

खराब डिज़ाइन किए गए या लागू किए गए प्रतिबंध अप्रभावी होने की संभावना भी होती है। इसका एक उदाहरण कैलिफोर्निया में देखने को मिला है: वहां दुकानों को मोटी और पुन: उपयोग (reusable plastic bags) की जा सकने वाली प्लास्टिक थैलियों का इस्तेमाल करने की अनुमति दी गई थी – लेकिन लोगों ने पुन: उपयोग करने के बजाय उन्हें भी फेंक दिया, जिससे पहले की तुलना में प्लास्टिक कचरा बढ़ गया। इसलिए लागू की जानी वाली नीतियों की सतत निगरानी और समीक्षा की ज़रूरत है।

फिर, कई देशों में प्लास्टिक पैकेजिंग निर्माता (plastic packaging manufaturers) कंपनियों से उनके द्वारा बनाए गए प्लास्टिक को पुनर्चक्रित करने के लिए पैसा लिया जाता है। ऐसा करने से पुनर्चक्रण की दर बढ़ी है। जैसे स्पेन ने ‘उत्पादक की विस्तारित ज़िम्मेदारी’ (extended producer responsibility) नीति शुरू की, जिससे कागज़ और प्लास्टिक के पुनर्चक्रण की दर 5 प्रतिशत से बढ़कर 81 प्रतिशत हो गई है। ऐसी नीतियों का उद्देश्य कंपनियों को अपनी पैकेजिंग को नए सिरे से, नए तरीके से डिज़ाइन करने के लिए प्रोत्साहित करना भी है। लेकिन चूंकि पैकेज़िंग के लिए अधिकांश शुल्क वज़न के हिसाब से लिया जाता है इसलिए यह तरीका मुख्य रूप से सिर्फ पैकेजिंग की मात्रा को कम करने में प्रभावी होता है, न कि पैकेजिंग की सामग्री को बदलने में। विशेषज्ञों का सुझाव है कि ऐसी नीतियां अधिक कारगर हो सकती हैं जो पैकेजिंग को पुनर्चक्रित सामग्री से बनाने का प्रोत्साहन देती हों। जैसे यूके में प्लास्टिक उत्पादकों को प्रति टन प्लास्टिक पर कर देना होता है, लेकिन सिर्फ उन उत्पादों पर जिन्हें बनाने में 30 प्रतिशत से कम पुनर्चक्रित सामग्री का इस्तेमाल किया गया हो। ऐसे प्रोत्साहन प्लास्टिक मांग की सही तरीके से आपूर्ति कर सकते हैं।

ज़ाहिर है, हर नीति के कुछ फायदे-नुकसान होते हैं। पुनर्चक्रण की नीतियों में भी ऐसा ही देखने को मिलता है; इनसे पुनर्चक्रण केंद्र और पुनर्चक्रण की दर तो बढ़ जाती है लेकिन पुनर्चक्रण कर्मचारियों के लिए सुरक्षा मानक न के बराबर होते हैं।

प्लास्टिक प्रदूषण के सबसे खतरनाक रूपों में से एक है माइक्रोप्लास्टिक(microplastic)। प्लास्टिक के बारीक-बारीक टुकड़े जो कार के टायरों के घिसने से, कपड़ों की धुलाई से या सौंदर्य प्रसाधनों आदि के उपयोग से पर्यावरण में झड़ते रहते हैं। ऐसा अनुमान है कि हर साल समुद्र में छोड़े जाने वाले करीब 10 लाख टन प्लास्टिक में 15-31 प्रतिशत माइक्रोप्लास्टिक होता है। इसे कम करने के प्रयास में कई देशों ने सौंदर्य प्रसाधनों में माइक्रोबीड्स के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है, जिससे कंपनियों पर इनका उपयोग बंद करने के लिए दबाव पड़ा है।

फ्रांस पहला ऐसा देश है जिसने नई वाशिंग मशीनों (washing machine) में माइक्रोफाइबर फिल्टर (microfiber filter) अनिवार्य कर दिया है। परीक्षणों में एक तरह का फिल्टर 75 प्रतिशत तक माइक्रोफाइबर कम करने में कारगर रहा। हालांकि कपड़ों में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक के प्रसार को थामने के लिए फिल्टर लगाना बहुत प्रभावी उपाय नहीं है क्योंकि कपड़े पहनते-रखते समय भी करीब उतने ही महीन रेशे झड़ते हैं। और तो और, फिल्टर से निकाल कर भी रेशे पर्यावरण में ही कहीं फेंके जाएंगे। इसलिए बेहतर होगा कि कपड़ों को बनाने के तरीके में बदलाव किए जाएं, लेकिन राष्ट्रीय कानूनों के ज़रिए यह मुश्किल ही साबित हुआ है। इस तरह की अड़चनों और बाधाओं को कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संधि (international treaty) आवश्यक है। राष्ट्र संघ (United Nations) का प्रस्ताव था कि सभी राष्ट्र एक संधि पर सहमत हों। लेकिन कई मुद्दों पर राष्ट्रों के बीच मतभेदों के चलते वार्ता टूट गई। अब बात वार्ता के अगले दौर तक के लिए टल गई है जो अगले साल होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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