परवाने रोशनी के आसपास क्यों मंडराते हैं?

ह तो हम भली-भांति जानते हैं कि तरह-तरह के कीट-पतंगे मोमबत्ती, बल्ब-टूयबलाइट जैसी कृत्रिम रोशनियों की ओर खिंचे चले आते हैं। दिए जलते ही वे उनके आसपास मंडराने लगते हैं। शायद इसी अनुभव से प्रेरित होकर किसी शायर ने कहा है –

कितने परवाने जले राज़ ये पाने के लिए,

शमा जलने के लिए है या जलाने के लिए।

लेकिन हाल ही में परवानों यानी कीट-पतंगों पर किया गया अध्ययन इस राज़ का खुलासा करता है कि क्यों वे कृत्रिम रोशनियों की ओर खिंचे चले आते हैं और उनके चक्कर काटते हैं।

इस बात की पड़ताल तो लंबे समय से चली आ रही थी जिसने हमें इसकी कई व्याख्याएं भी दीं; जैसे वे इन रोशनियों के स्रोत को चंद्रमा समझ कर दिशा निर्धारण के लिए इनका उपयोग करते हैं, या वे रोशनी नहीं बल्कि गर्मी से आकर्षित होते हैं। शोधकर्ता उनके बारे में थोड़ा गहराई से समझना चाहते थे। इसलिए उन्होंने रोशनी के आसपास मंडराते कीट-पतंगों की हरकतों को मोशन-कैप्चर कैमरा और स्टीरियो वीडियोग्राफी से रिकॉर्ड किया।

उनकी फुटेज देखने से पता चला कि कीट-पतंगे अपनी पीठ हमेशा रोशनी की ओर रखने का प्रयास करते हैं – यह प्रयास पृष्ठीय प्रकाश प्रतिक्रिया कहलाती है। पीठ हमेशा रोशनी की ओर झुकाने के प्रयास में वे रोशनी के चक्र में फंस जाते हैं और उसी के आसपास मंडराते रहते हैं। गौरतलब है कि पृष्ठीय प्रकाश प्रतिक्रिया कीट-पतंगों को ऊपर-नीचे का निर्धारण करने और सही उन्मुखीकरण में बने रहने में मदद करती है। इसका मुख्य कारण यह है कि सामान्यत: परिवेश का ज़्यादा चमकीला हिस्सा ऊपर की ओर होता है। लेकिन कृत्रिम प्रकाश में यही चमक उन्हें भ्रम में डाल देती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एंथ्रोपोसीन युग का प्रस्ताव खारिज

हाल ही में इंटरनेशन कौंसिल ऑफ स्ट्रेटीग्राफी ने वह प्रस्ताव नामंज़ूर कर दिया है जिसमें पृथ्वी के वर्तमान काल को एंथ्रोपोसीन काल घोषित करने का आग्रह किया गया था। गौरतलब है कि पृथ्वी के इतिहास को विभिन्न कालों और युगों में बांटा गया है। वर्तमान युग को होलोसीन कहा जाता है और इसकी शुरुआत पिछले हिमयुग की समाप्ति के बाद करीब 11,700 वर्ष पहले हुई मानी जाती है। प्रस्ताव यह था कि इस युग को अब समाप्त माना जाए और 1950 से एक नए युग की शुरुआत मानकर इसे एंथ्रोपोसीन नाम दिया जाए।

प्रस्ताव के मूल में बात यह थी कि वर्तमान युग ज़बर्दस्त मानव प्रभाव का युग है जिसमें इंसानी क्रियाकलाप ने पृथ्वी के हर पक्ष को कुछ इस तरह प्रभावित किया है कि अब लौटकर जाना मुश्किल है। इस प्रभाव को हर आम-ओ-खास अपने आसपास देख सकता है। लेकिन इंटरनेशनल स्ट्रेटीग्राफी आयोग ने इस नामकरण को अस्वीकार कर दिया है।

आयोग की सबसे प्रमुख आपत्ति यह थी कि इस नए युग की शुरुआत की कोई तारीख निर्धारित करना मुश्किल है क्योंकि इसका कोई भौतिक चिंह नहीं है। प्रस्ताव के समर्थकों का मत है कि इस युग को 1950 के दशक से शुरू माना जाना चाहिए। भौतिक प्रमाण के रूप में उन्होंने कनाडा की क्रॉफोर्ड झील में जमा कीचड़़ की लगभग 10 से.मी. की परत को सामने रखा था जिसमें जीवाश्म ईंधन और उर्वरकों  के उपयोग तथा परमाणु विस्फोटों के चिंह मिलते हैं। लेकिन आयोग को यह कोई पुख्ता प्रमाण नहीं लगा।

वैसे प्रस्ताव के संदर्भ में कई भूवैज्ञानिकों का भी सवाल है कि क्यों जीवाश्म ईंधन, उर्वरकों के उपयोग और परमाणु परीक्षणों को ही मानव प्रभाव का लक्षण माना जाए। हज़ारों वर्ष पहले शुरू हुई खेती को या करीब 400 वर्ष युरोपीय लोगों के नई दुनिया में प्रवास के बाद आए व्यापक परिवर्तनों को क्यों नहीं?

प्रस्ताव के विरोधियों की एक आपत्ति यह रही है कि प्रस्ताव देने वाले समूह (एंथ्रोपोसीन वर्किंग ग्रुप) ने शुरू से ही मीडिया का उपयोग किया जबकि तकनीकी रूप से उन्होंने प्रस्ताव बहुत देर से दिया। कई वैज्ञानिकों का मत है कि वर्किंग ग्रुप का यह हठ था कि वे एंथ्रोपोसीन को एक युग के रूप में ही परिभाषित करवाना चाहते हैं। कई वैज्ञानिकों का सुझाव है कि इसे युग की बजाय एक घटना के रूप में दर्शाना बेहतर होगा। उदाहरण के लिए जब पृथ्वी पर सायनोबैक्टीरिया पनपे तो उन्होंने प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से वातावरण को ऑक्सीजन प्रचुर बना दिया था जिसने पृथ्वी के जीवन को गहराई में प्रभावित किया था। इसे ग्रेट ऑक्सीकरण घटना कहते हैं। इसी की तर्ज पर एंथ्रोपोसीन घटना कहा जा सकता था।

बहरहाल, अब वर्किंग ग्रुप को फिर से प्रस्ताव देने के लिए 10 साल की प्रतीक्षा करनी है क्योंकि आयोग का यही नियम है। अलबत्ता, कई वैज्ञानिकों तथा समाज शास्त्रियों, मानव वैज्ञानिकों वगैरह को लगता है कि चाहे आयोग ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया हो लेकिन यह एक महत्वपूर्ण नज़रिया पेश करता है जो हमें आजकल की दुनिया के बारे में सोचने की एक दिशा देता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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π और पाई दिवस

र वर्ष 14 मार्च को दुनिया भर में, विशेषकर अमेरिका में, राष्ट्रीय पाई दिवस उत्सव की तरह मनाया जाता है। वास्तव में पाई दिवस गणित के एक मशहूर संकेत ‘π’ पर आधारित है। वैसे तो गणितीय संकेत बहुत सारे हैं, लेकिन पाई में कुछ खास बात है।

वास्तव में, पाई किसी वृत्त की परिधि और उसके व्यास के बीच सम्बंध को दर्शाता है। वृत्त चाहे किसी भी साइज़ का हो, जब उसकी परिधि को व्यास से विभाजित किया जाता है तो उत्तर हमेशा पाई ही होता है। इस तरह से पाई एक सार्वभौमिक संख्या है, जिसका मान हमेशा 3.14 होता है। वैसे पाई के मान में दशमलव के बाद की संख्या एक अंतहीन, न दोहराई जाने वाली लड़ी है। कुछ गणित-प्रेमी अधिक से अधिक दशमलव स्थानों को याद करने की भी प्रतिस्पर्धा करते हैं। अब तक का गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड दशमलव के बाद 70,000 अंकों को याद रखने का है।

गौरतलब है कि गणित और विज्ञान में पाई का बहुत महत्व है। यह वृत्तों और गोले के क्षेत्रफल तथा आयतन की गणना, अणुओं से लेकर पृथ्वी जैसे खगोलीय पिंडों और यहां तक कि अंतरिक्ष यान निर्माण तक के हिसाब-किताब तक में सहायक है। विभिन्न गणितीय समीकरणों में इसकी उपस्थिति के कारण यह गणितज्ञों के लिए एक आकर्षक जिज्ञासा है। पाई सिर्फ एक संख्या नहीं है बल्कि यह ब्रह्मांड को समझने का एक बुनियादी पहलू है, जिसका उपयोग परमाणुओं से लेकर अंतरिक्ष की जटिल गणनाओं में किया जाता है।

पाई दिवस उत्सव की शुरुआत 1988 में भौतिक विज्ञानी लैरी शॉ द्वारा की गई थी। यह तारीख पाई के पहले तीन अंकों 3.14 से मेल खाती है यानी तीसरे माह (मार्च) की चौदहवीं तारीख। संयोग से यह अल्बर्ट आइंस्टाइन का जन्मदिन भी है।

वैसे तो अनेकों सभ्यताएं कई शताब्दियों से पाई के बारे में जानती आई हैं, लेकिन पाई दिवस को 2009 में मान्यता मिली। लैरी शॉ का विचार था कि गणित और हमारे जीवन में पाई के महत्व का जश्न मनाने का एक मज़ेदार और आकर्षक तरीका बनाया जाए। इसका एक प्रमुख उद्देश्य सभी उम्र के लोगों को संख्याओं की सुंदरता और हमारे आसपास की दुनिया में उनके अनुप्रयोगों की सराहना करने के लिए प्रेरित करना था। पाई दिवस के उत्सव में अमूमन लोग एक स्वादिष्ट अमेरिकी पकवान पाई का आनंद लेते हैं और पाई से सम्बंधित गतिविधियां करते हैं। इन गतिविधियों में पाई पकाना, पाई के दशमलव के बाद के अंक सुनाना, या पाई सम्बंधी खेल-कूद शामिल हैं। इस दिन शिक्षक सीखने-सिखाने को मज़ेदार बनाने के लिए अपने पाठ्यक्रम में पाई से सम्बंधित पाठ जोड़ते हैं। पाई दिवस लोगों को एक साथ आने और गणित के चमत्कारों का जश्न मनाने, संख्याओं और प्राकृतिक दुनिया की सुंदरता के प्रति जिज्ञासा और प्रशंसा की भावना को बढ़ावा देने का एक अनूठा अवसर प्रदान करता है। (स्रोत फीचर्स)

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ब्रह्मांड का सबसे चमकीला ज्ञात पिंड – प्रदीप

स्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी के खगोलविदों के नेतृत्व में एक दल ने एक नए क्वासर की खोज की है जिसका द्रव्यमान 17 अरब सूर्यों के बराबर है। यह न केवल अब तक देखा गया सबसे चमकीला क्वासर है बल्कि यह सामान्य तौर पर अब तक देखा गया सबसे चमकीला खगोलीय पिंड भी है। J0529-4351 नामक यह क्वासर हमारे सूर्य की तुलना में 500 खरब गुना अधिक चमकीला है। यह अब तक देखे गए सबसे उग्र और सबसे तेज़ी से बढ़ने वाले एक अति-भारी ब्लैक होल द्वारा संचालित है, जो हर दिन एक सूर्य के द्रव्यमान के बराबर गैसीय द्रव्यराशि का उपभोग करता है। नेचर एस्ट्रॉनॉमी जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक यह हमारे सौरमंडल से इतना दूर है कि इसकी रोशनी को पृथ्वी तक पहुंचने में 12 अरब साल से अधिक का समय लगा।

क्वासरों को ब्रह्मांड में ऊर्जा और प्रकाश का सबसे शक्तिशाली स्रोत माना जाता है। 1960 में पहली बार अंतरिक्ष में ऐसे प्रबल रेडियो स्रोत मिले थे जो हमसे 10 से 15 प्रकाश वर्ष दूर थे। तब यह बड़े आश्चर्य की बात समझी गई थी क्योंकि रेडियो दूरबीनों से खोजे गए ये पिंड खरबों तारों के बराबर ऊर्जा का उत्सर्जन कर रहे थे और उनका आकार-प्रकार भी तारों के जैसा था। इन पिंडों को क्वासी-स्टेलर रेडियो सोर्सेज़ (क्वासर्स) यानी आभासी तारकीय रेडियो-स्रोत नाम दिया गया।

चूंकि ब्लैक होल हमें दिखाई नहीं देते इसलिए विज्ञानी अमूमन ब्लैक होल्स की खोज में क्वासरों की मदद लेते हैं। क्वासरों की गैसीय द्रव्यराशि को ब्लैक होल अपनी ओर खींचते हैं। ब्लैक होल में क्वासर की द्रव्यराशि लगातार गिरने के कारण उसमें से काफी तेज़ी से रेडियो तरंगें उत्सर्जित होने लगती हैं। ऐसी ही तीव्र रेडियो तरंगों के निरीक्षण के आधार पर और युरोपियन सदर्न ऑब्ज़रवेट्री में लगे वेरी लार्ज टेलीस्कोप की मदद से खगोलविदों ने J0529-4351 क्वासर के संचालन के लिए ज़िम्मेदार ब्लैक होल की खोज की। यह अब तक ज्ञात सबसे तेज़ी से विकसित होने वाला ब्लैक होल है। विकास की अविश्वसनीय दर का मतलब प्रकाश और ऊर्जा का भारी उत्सर्जन भी है। यह इसे ज्ञात ब्रह्मांड का सबसे चमकदार निकाय बनाता है।

गौरतलब है कि J0529-4351 को 4 दशक पहले सदर्न स्काई सर्वे में भी देखा गया था, लेकिन यह इतना चमकीला था कि उस समय खगोलशास्त्री इसे क्वासर के रूप में पहचानने में विफल रहे थे।

इस खोज से ऐसा प्रतीत होता है कि सभी निहारिकाओं के मूल में एक अतिविशाल पिंड है, जिसका संभवत: अर्थ यह है कि ऐसी वस्तुएं उन निहारिकाओं के विकास में अंतर्निहित हैं। संभव है कि सभी निहारिकाएं ऐसे अति-भारी ब्लैक होल्स के आसपास बनी हों। (स्रोत फीचर्स)

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यह उभयचर अपने शिशुओं को ‘दूध’ पिलाता है

शिशु के विकास और पोषण के लिए जन्म के बाद अपने शरीर में बनने वाले पोषक द्रव का शिशु को पान कराना स्तनधारी प्राणियों का प्रमुख लक्षण माना जाता है। लेकिन स्तनधारियों के अलावा भी चंद जीव ऐसे हैं जो अपने शिशुओं को अपने शरीर में बनने वाले पोषक द्रव पिलाते हैं; जैसे कुछ मछलियां, मकड़ियां, कीट और पक्षी। हाल ही में पोषकपान कराने वालों की इस फेहरिस्त में अब एक सेसिलियन (नेत्र विहीन कृमिनुमा उभयचर) जीव साइफोनॉप्स एनुलैटस भी जुड़ गया है जो अंडे से बाहर निकली अपनी नवजात संतानों के लिए ‘दूध’ बनाता है और पिलाता है।

उपोष्णकटिबंधीय इलाकों में पाए जाने वाले ये नीले-काले रंग के उभयचर कृमि सरीखे दिखते हैं। और अपना अधिकांश समय भूमि के अंदर बिताते हैं। चूंकि ये अधिकांश समय अंधकार में रहते हैं तो इनमें तथाकथित ‘देखने’ की क्षमता नहीं होती है।

पूर्व में वैज्ञानिकों ने पाया था कि सेसिलियन की कुछ प्रजातियों के शिशुओं में दांत आते हैं, और वे लगभग हर सातवें दिन अपनी मां की पोषक तत्वों से भरपूर त्वचा परत को खाते हैं – नई पोषक त्वचा बनने में इतना समय तो लग ही जाता है। लेकिन बुटान्टन इंस्टिट्यूट के प्रकृतिविद मार्टा एंटोनियाज़ी और कार्लोस जेरेड को यह बात थोड़ी अजीब लगी कि नवजात हफ्ते में केवल एक बार पोषण पाते हैं। जबकि उन्हें विकास के लिए समय-समय पर भरपूर पोषण चाहिए होता है। हफ्ते में एक बार का भोजन तो विकास के लिए पर्याप्त नहीं लगता।

इसलिए उन्होंने इन शिशु उभयचरों के विचित्र भोजन व्यवहार को विस्तार से जानना तय किया। उन्होंने ब्राज़ील के अटलांटिक वन से साइफोनॉप्स एनुलैटस प्रजाति के 16 जच्चा और उनके नवजात बच्चों को एकत्र किया, और वीडियो के माध्यम से उनकी गतिविधियों पर नज़र रखी।

200 घंटे से अधिक लंबे फुटेज के विश्लेषण से पता चला कि नवजात पोषण के लिए अपनी मां की त्वचा को तो कुतरते ही हैं, साथ-साथ वे मां के क्लोएका से निकलने वाले वसा और कार्बोहाइड्रेट युक्त पोषक पदार्थ का सेवन भी करते हैं। क्लोएका शरीर के पीछे की ओर स्थित आहार नाल और जनन मार्ग का साझा निकास द्वार होता है। मां उनके लिए इस तरल का स्राव करे, इसके लिए शिशु तेज़ आवाज़ें निकालते हैं, और अपना सिर मां के क्लोएका में घुसाकर ‘दूध’ पीते हैं।

साइंस पत्रिका में प्रकाशित ये अप्रत्याशित नतीजे सेसिलियन जीवों पर और अधिक अध्ययन की ज़रूरत को भी रेखांकित करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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भीषण गर्मी में भी फूल ठंडा रहता है

क्षिणी स्पेन की चिलचिलाती गर्मी में हर चीज़ सूखी-सूखी नज़र आती है, घास सूख कर सरकंडे बन जाती है, पतझड़ी पेड़ों से पत्तियां झड़ कर सूख चुकी होती हैं। बस कुछ ही तरह की वनस्पतियों पर हरियाली दिखाई पड़ती है। ऐसा ही एक झंखाड़ है झुंड में उगने वाली कारलाइन थिसल (Carlina corymbosa)।

भटकटैया सरीखा, कांटेदार पत्तियों और पीले फूल वाला यह पौधा अगस्त महीने की चरम गर्मी में भी खिला रहता है। ज़ाहिर है मकरंद के चंद स्रोत में से एक होने के कारण स्थानीय मधुमक्खियां और अन्य परागणकर्ता इस पर मंडराते रहते हैं।

स्पैनिश नेशनल रिसर्च काउंसिल के वैकासिक पारिस्थितिकीविद कार्लोस हेरेरा की टीम सिएरा डी कैज़ोरला पर्वत शृंखला के निकट इन्हीं परागणकर्ताओं की आबादी की गणना कर रही थी। जब उन्होंने यह देखने के लिए फूल को छुआ कि उसके अंदर कितना मकरंद है तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि इतनी कड़ी धूप में भी फूल ठंडा था। इसी अचंभे ने इस अध्ययन को दिशा दी। हेरेरा ने थिसल फूलों के ऊपरी भाग के भीतर का तापमान मापा और इससे करीबन एक इंच दूर के परिवेश का तापमान मापा।

साइंटिफिक नेचुरलिस्ट में उन्होंने बताया है कि सामान्य गर्म दिनों में फूलों का तापमान अपने परिवेश की तुलना में पांच डिग्री सेल्सियस कम था। और तो और, सबसे गर्म दिनों में तो कुछ फूलों का तापमान परिवेश के तापमान से 10 डिग्री सेल्सियस तक कम हो गया था।

ये नतीजे इस बात की पुष्टि करते हैं कि पौधे खुद को जिलाए रखने के लिए थोड़ा जोखिम उठाते हैं। हालांकि पेड़-पौधों की पत्तियों में स्व-शीतलन देखा गया है, लेकिन यह उनमें संयोगवश होता लगता है। दरअसल, प्रकाश संश्लेषण के लिए कार्बन डाईऑक्साइड की आवश्यकता होती है, जो पत्ती की सतह पर उपस्थित स्टोमेटा नामक छिद्रों के माध्यम से प्रवेश करती है। जब कार्बन डाईऑक्साइड के अंदर जाने के लिए स्टोमेटा खुलते हैं तो थोड़ी जलवाष्प भी बाहर निकल जाती है। नतीजतन पत्ती का तापमान थोड़ा कम हो जाता है। लेकिन स्पैनिश थिसल के मामले में वाष्पीकरण द्वारा शीतलन पौधों की (सोची-समझी) रणनीति हो सकती है। वरना सूखे गर्म मौसम में इतने कीमती पानी को वाष्पित कर वे सूखे की मार क्यों झेलना चाहेंगे? संभवत: अपने नाज़ुक प्रजनन अंगों (फूलों) को अत्यधिक गर्मी में ठंडा रखने के लिए।

आगे शोधकर्ता इसकी पंखुड़ियों के स्टोमेटा का अध्ययन करना चाहते हैं और देखना चाहते हैं कि क्या वास्तव में पौधा शीतलन के लिए पानी त्यागता है या किसी और कारण से। साथ ही देखना चाहते हैं कि शीतलन के लिए इतना पानी ज़मीन से खींचने में जड़ें कैसे मदद करती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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रॉकेट प्रक्षेपण की नई टेक्नॉलॉजी

अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण प्रयास करते हुए नासा के वैज्ञानिकों ने रोटेटिंग डेटोनेशन इंजन (आरडीई) नामक एक अभूतपूर्व तकनीक का इजाद किया है। इस नवीन तकनीक को रॉकेट प्रणोदन के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है।

नियंत्रित दहन प्रक्रिया पर निर्भर पारंपरिक तरल ईंधन आधारित इंजनों के विपरीत आरडीई विस्फोटन तकनीक पर काम करते हैं। इसमें एक तेज़, विस्फोटक दहन को अंजाम दिया जाता है जिससे अधिकतम ईंधन दक्षता प्राप्त होती है। गौरतलब है कि पारंपरिक रॉकेट इंजनों में ईंधन को धीरे-धीरे जलाया जाता है और नियंत्रित दहन से उत्पन्न गैसें नोज़ल में से बाहर निकलती हैं और रॉकेट आगे बढ़ता है। दूसरी ओर आरडीई में, संपीड़न और सुपरसॉनिक शॉकवेव की मदद से विस्फोट कराया जाता है जिससे ईंधन का पूर्ण व तत्काल दहन होता है। देखा गया कि इस तरह से करने पर ईंधन का ऊर्जा घनत्व ज़्यादा होता है।

पर्ड्यू विश्वविद्यालय के इंजीनियर स्टीव हेस्टर ने आरडीई के अंदर होने वाले दहन को ‘दोजख की आग’ नाम दिया है जिसमें इंजन के भीतर का तापमान 1200 डिग्री सेल्सियस हो जाता है। यह तकनीक न केवल बेहतर प्रदर्शन प्रदान करती है, बल्कि अंतरिक्ष यान को अधिक दूरी तय करने, उच्च गति प्राप्त करने और बड़े पेलोड ले जाने में सक्षम भी बनाती है।

यह तकनीक ब्रह्मांड की खोज के लिए अधिक कुशल और लागत प्रभावी तरीका प्रदान करती है। जैसे-जैसे वैज्ञानिक इस अत्याधुनिक तकनीक को परिष्कृत और विकसित करते जाएंगे, भविष्य के अंतरिक्ष अभियानों की संभावनाएं पहले से कहीं अधिक उज्जवल होती जाएंगी। (स्रोत फीचर्स)

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कृत्रिम बुद्धि: टेक्स्ट को वीडियो में बदला

डैल-ई और चैटजीपीटी जैसे जनरेटिव एआई (नया निर्माण करने में सक्षम) नवाचारों को विकसित करने वाली कंपनी ओपनएआई ने हाल ही में अपना नया उत्पाद ‘सोरा’ जारी किया है। यह एक ऐसा एआई मॉडल है जो टेक्स्ट से वीडियो निर्माण करने के लिए तैयार किया गया है। कल्पना करें तो यह कुछ ऐसा है कि आप कोई संगीत वीडियो या विज्ञापन देख रहे हैं लेकिन इनमें से कुछ भी वास्तविक दुनिया में मौजूद नहीं है। यही कमाल सोरा ने कर दिखाया है।

इस अत्याधुनिक कृत्रिम बुद्धि साधन को इनपुट के तौर पर तस्वीरें या संक्षिप्त लिखित टेक्स्ट दिया जाता है और वह उसे एक मिनट तक लंबे वीडियो में बदल देता है। कल्पना कीजिए कि एक महिला रात में शहर की एक हलचल भरी सड़क पर आत्मविश्वास से चल रही है, और आसपास जगमगाती रोशनी और पैदल लोगों की भीड़ है। सोरा द्वारा तैयार किए वीडियो में उसकी पोशाक से लेकर सोने की बालियों की चमक तक, हर बारीक से बारीक विवरण सावधानीपूर्वक तैयार किया गया है। कुछ नमूने देखने के लिए इन लिंक्स पर जाएं:

https://www.wired.com/story/openai-sora-generative-ai-video/

गौरतलब है कि ओपनएआई द्वारा 15 फरवरी को सोरा को जारी करने की घोषणा की गई है लेकिन फिलहाल इसे परीक्षण के लिए कुछ चुनिंदा कलाकार समूहों तथा ‘रेड-टीम’ हैकर्स के उपयोग तक ही सीमित रखा गया है। इस परीक्षण का उद्देश्य इस नवीन और शक्तिशाली तकनीक के सकारात्मक अनुप्रयोगों और संभावित दुरुपयोग दोनों का पता लगाना है।

सोरा की मदद से ऐसे वीडियो  निर्मित करना बहुत आसान है। केवल एक साधारण निर्देश से यह ऐसे दृश्य उत्पन्न कर सकता है जिन्हें बनाने के लिए व्यापक संसाधनों और विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है। फिल्मों में कहानी सुनाने से लेकर विज्ञापनों में आभासी यथार्थ के अनुभवों में क्रांति लाने तक, सोरा से रचनात्मक संभावनाओं की पूरी दुनिया खुलती है।

लेकिन ओपनएआई को इस शक्तिशाली साधन को जारी करने के साथ बड़ी ज़िम्मेदारी भी निभानी है। हालांकि कंपनी सोरा की क्षमताओं के नैतिक निहितार्थों को ध्यान में रखते हुए सावधानी से आगे बढ़ रही है, फिर भी इस साधन के नैतिक और ज़िम्मेदार उपयोग पर चर्चा को बढ़ावा देना ज़रूरी है।

ऐसी दुनिया में जहां यथार्थ और सिमुलेशन के बीच की रेखा धुंधली होती जा रही है, सोरा मानवीय सरलता और कृत्रिम बुद्धि की असीमित क्षमता के प्रमाण के रूप में उभरा है। बहरहाल, हम जिस उत्सुकता से इसके सार्वजनिक रूप से जारी होने का इंतज़ार कर रहे हैं उससे एक बात तो निश्चित है कि वीडियो के ज़रिए कहानी सुनाने का भविष्य पहले जैसा नहीं होगा। (स्रोत फीचर्स)

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माइक्रोप्लास्टिक के स्वास्थ्य प्रभाव

ज प्लास्टिक हर जगह उपस्थित है। खाद्य पैकेजिंग, टायर, कपड़ा, पाइप आदि में उपयोग होने वाले प्लास्टिक से बारीक प्लास्टिक कण निकलते हैं जिसे माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है। यह पर्यावरण में व्याप्त है और अनजाने में मनुष्यों द्वारा उपभोग या श्वसन के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर रहा है।

सर्जरी से गुज़रे 200 से अधिक रोगियों पर किए गए हालिया अध्ययन से पता चला है कि लगभग 60 प्रतिशत लोगों की किसी मुख्य धमनी में माइक्रोप्लास्टिक या नैनोप्लास्टिक मौजूद है। चौंकाने वाली बात यह है कि इन प्लास्टिक कणों वाले व्यक्तियों में सर्जरी के बाद लगभग 34 महीनों के भीतर दिल के दौरे या स्ट्रोक जैसी हृदय सम्बंधी समस्याओं से पीड़ित होने की संभावना 4.5 गुना अधिक होती है।

वैसे दी न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित यह अध्ययन केवल माइक्रोप्लास्टिक को इसका ज़िम्मेदार नहीं बताता है। सामाजिक-आर्थिक स्थिति जैसे अन्य कारक भी स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं, जिन पर इस अध्ययन में विचार नहीं किया गया है।

दरअसल, जल्दी नष्ट न होने के कारण माइक्रोप्लास्टिक सजीवों के शरीर में जमा होते रहते हैं और पर्यावरण में भी टिके रहते हैं। माइक्रोप्लास्टिक मानव रक्त, फेफड़े और प्लेसेंटा में भी पाए गए हैं, लेकिन इनके स्वास्थ्य सम्बंधी प्रभाव स्पष्ट नहीं हैं।

इसी विषय में अध्ययन करते हुए इटली स्थित युनिवर्सिटी ऑफ कैम्पेनिया लुइगी वानविटेली के चिकित्सक ग्यूसेप पाओलिसो और उनकी टीम जानती थी माइक्रोप्लास्टिक्स वसा अणुओं की ओर आकर्षित होते हैं। लिहाज़ा, उन्होंने यह देखने का प्रयास किया कि क्या ये कण रक्त वाहिकाओं के भीतर प्लाक (वसा की जमावट) के भीतर इकट्ठे होते हैं। इसके बाद टीम ने ऐसे 257 लोगों को ट्रैक किया जो गर्दन की धमनी से प्लाक हटाकर स्ट्रोक के जोखिम को कम करने की सर्जरी करवा रहे थे।

प्लाक की जांच करने पर पता चला कि 150 प्रतिभागियों के नमूनों में कोशिकाओं और अपशिष्ट उत्पादों के साथ माइक्रोप्लास्टिक वाले दांतेदार थक्के मौजूद हैं। इनके रासायनिक विश्लेषण से पॉलीथीन और पॉलीविनाइल क्लोराइड जैसे प्रमुख प्लास्टिक घटक मिले जो आम तौर पर रोज़मर्रा की वस्तुओं में पाए जाते हैं। अधिक माइक्रोप्लास्टिक वाले लोगों में सूजन वाले आणविक चिंह मिले जो स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याओं का संकेत देते हैं।

इसके अलावा, जिन व्यक्तियों के प्लाक में माइक्रोप्लास्टिक पाया गया वे युवा, पुरुष, धूम्रपान करने वाले थे और उन्हें पहले से मधुमेह या हृदय रोग जैसी समस्याएं थी। चूंकि यह अध्ययन केवल उन लोगों पर किया गया था जो स्ट्रोक का जोखिम कम करने के लिए सर्जरी करवा रहे थे, इसलिए इसके सामान्य प्रभाव पर अभी अनिश्चितता है।

शोधकर्ताओं को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि 40 प्रतिशत प्रतिभागियों में माइक्रोप्लास्टिक्स अनुपस्थित थे क्योंकि प्लास्टिक से पूरी तरह बचना तो मुश्किल है। इसलिए यह समझने के लिए आगे के शोध की आवश्यकता है कि कुछ लोगों में माइक्रोप्लास्टिक क्यों नहीं पाया गया।

यह अध्ययन प्लास्टिक प्रदूषण को खत्म करने के उद्देश्य से एक वैश्विक संधि तैयार करने के राजनयिक प्रयासों से मेल खाता है। 2022 में, 175 देशों द्वारा लिए गए निर्णय के अनुसार इस संधि को 2024 के अंत तक कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौते का रूप देना है, हालांकि प्रगति काफी धीमी है। अध्ययन के निष्कर्षों से उम्मीद की जा रही है कि अप्रैल में ओटावा में होने वाली वार्ता में निर्णय लिए जाएंगे। तब तक, अपनी निजी आदतों में बदलाव लाना आवश्यक है ताकि प्लास्टिक उपयोग को कम से कम किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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उपवास: फायदेमंद या नुकसानदेह?

लाखों लोग या तो वज़न घटाने या फिर धार्मिक आस्था के चलते नियमित उपवास करते हैं, और व्रत-उपवास करने से शरीर को होने वाले फायदे भी गिनाते हैं। लेकिन उपवास करने के कारण शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों को वास्तव में बहुत कम जाना-समझा गया है। एक ताज़ा अध्ययन में शोधकर्ताओं ने लंबे उपवास के कारण विभिन्न अंगों में होने वाले आणविक परिवर्तनों पर बारीकी से निगरानी रखी, और पाया कि उपवास से स्वास्थ्य पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के प्रभाव पड़ते हैं।

अध्ययन में महज़ 12 प्रतिभागियों को सात दिन तक उपवास करने कहा गया – इस दौरान उन्हें सिर्फ पानी पीने की अनुमति थी, किसी भी तरह के भोजन की नहीं। रोज़ाना उनके शरीर के लगभग 3000 विभिन्न रक्त प्रोटीनों में हो रहे परिवर्तनों को मापा गया। यह पहली बार है कि उपवास के दौरान पूरे शरीर में आणविक स्तर पर निगरानी रखी गई है।

नेचर मेटाबोलिज़्म में प्रकाशित नतीजों के अनुसार उपवास के पहले कुछ दिनों में ही शरीर ने ऊर्जा हासिल करने का अपना स्रोत बदल लिया था, और ग्लूकोज़ की बजाय संग्रहित वसा का उपयोग शुरू कर दिया था। नतीजतन, पूरे सप्ताह में प्रतिभागियों का वज़न औसतन 5.7 किलोग्राम कम हुआ, और दोबारा भोजन शुरू करने के बाद भी उनका वज़न कम ही रहा।

अध्ययन में उपवास के प्रथम दो दिनों में रक्त प्रोटीन के स्तर में कोई बड़ा फर्क नहीं दिखा। लेकिन तीसरे दिन से सैकड़ों प्रोटीन के स्तर में नाटकीय रूप से घट-बढ़ हुई।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने पूर्व में हुए उन अध्ययनों को खंगाला जिनमें विभिन्न प्रोटीनों के घटते-बढ़ते स्तर और विभिन्न बीमारियों का सम्बंध देखा गया था। इस तरह शोधकर्ता उपवास के दौरान 212 प्लाज़्मा अणुओं में हुए बदलावों के स्वास्थ्य पर प्रभाव का आकलन कर पाए।

मसलन, उन्होंने पाया कि तीन दिनों से अधिक समय तक भोजन न करने के कारण प्लाज़्मा में स्विच-एसोसिएटेड प्रोटीन-70 का स्तर घट गया था। ज्ञात हो कि इसका स्तर कम हो तो रुमेटिक ऑर्थराइटिस का जोखिम कम होता है। संभवत: इसी कारण रुमेटिक ऑर्थराइटिस के रोगियों को लंबा उपवास करने से दर्द में राहत मिलती होगी। इसके अलावा, हाइपॉक्सिया अप-रेगुलेटेड-1 नामक प्रोटीन, जो हृदय धमनी रोग से जुड़ा है, के स्तर में कमी देखी गई। इससे लगता है कि लंबे समय तक ना खाना हृदय को तंदुरुस्त रखने में मददगार हो सकता है।

लेकिन अध्ययन में उपवास के स्वास्थ्य पर कई नकारात्मक परिणाम भी दिखे। जैसे, उन्होंने थक्का जमाने वाले कारक-XI में वृद्धि दिखी, जिसके चलते थ्रम्बोसिस होने का खतरा बढ़ सकता है।

कुल मिलाकर लगता है कि उपवास करने के फायदे भी हैं और नुकसान भी। बिना सोचे-समझे, या सिर्फ फायदों के बारे में सोचकर उपवास करना आपके स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकता है। इसलिए अपने शरीर और उसकी क्षमताओं से अवगत रहें और उस आधार पर तय करें कि व्रत करें या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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