मंगल पर ग्रह प्रवेश की तैयारी

डॉ. पीयूष गोयल

मंगल ग्रह पर मानव को बसाने की तैयारी में नासा के वैज्ञानिकों ने 25 जून, 2023 को अपने पहले ‘क्रू हेल्थ परफॉरमेंस एक्स्प्लोरेशन एनालॉग’ (CHPEA) मिशन की शुरुआत की थी। ह्यूस्टन स्थित जॉनसन स्पेस केंद्र पर लगभग एक वर्ष (378 दिनों) तक मंगल ग्रह जैसे वातावरण वाले घर (मार्स ड्यून अल्फा) में मंगल पर निवास की संभावनाओं की तलाश के इस एनालॉग मिशन का पहला चरण 6 जुलाई, 2024 को पूरा हुआ है। इस मिशन की शृंखला में अगले दो मिशन 2025 और 2026 में निर्धारित हैं।

कृत्रिम परिस्थितियों में जीवन

CHPEA मिशन के पहले चरण में चार लोगों के एक दल ने 378 दिनों के लिए इस आवास में अलग-थलग रहकर अंतरिक्ष यात्रियों की तरह समय बिताया। 1700 वर्ग फीट की सीमित जगह में 3-डी मुद्रित (प्रिंटेड) मार्स ड्यून अल्फा में निजी कमरे, रसोई, चिकित्सा कक्ष, व्यायाम और कार्य करने का स्थान तथा लाल मिट्टी में खेती क्षेत्र, बाथरूम आदि उपलब्ध हैं।

यथासंभव मंगल जैसी परिस्थिति में दल के सदस्यों ने शारीरिक और मानसिक चुनौतियों से जूझना, संसाधन की सीमाएं, तनहाई, विलंबित संचार, उपकरणों की विफलता, सिम्युलेटेड स्पेसवॉक, रोबोट संचालन, आवास के रखरखाव, व्यक्तिगत स्वच्छता, व्यायाम और खेती से सम्बंधित कार्य किए। इनके लिए तैयारशुदा भोजन ठीक वैसा ही था, जैसा कि अंतरिक्ष यात्री अपने अंतरिक्ष प्रवास के दौरान खाते हैं। चार सदस्यों के दल में मिशन का नेतृत्व करने वाली कनाडाई जीव वैज्ञानिक केली हेस्टन, संरचनात्मक इंजीनियर और मिशन के फ्लाइट इंजीनियर रॉस ब्रॉकवेल, आपातकालीन स्वास्थ्य चिकित्सक नाथन जोंस और मिशन की विज्ञान अधिकारी एंका सेलारियू शामिल थीं। एकत्र किए गए डैटा से भविष्य के मिशन की योजना के लिए जानकारी मिलेगी, जिसमें वाहन डिज़ाइन, संसाधन आवंटन और लंबी अवधि की अंतरिक्ष यात्रा के जोखिम का मूल्यांकन इत्यादि शामिल है।

मंगल पर जीवन

मंगल पर जीवन के साक्ष्य की वैज्ञानिक खोज 1894 में मंगल ग्रह के वायुमंडल के स्पेक्ट्रोस्कोपिक विश्लेषण के साथ शुरू हुई थी। यह खोज आज भी दूरबीनों और वहां तैनात जांच उपकरणों के माध्यम से जारी है। अमेरिकी खगोलशास्त्री विलियम वालेस कैंपबेल ने बताया था कि मंगल के वायुमंडल में पानी और ऑक्सीजन नहीं हैं। ब्रिटिश प्रकृतिवादी अल्फ्रेड रसेल वालेस ने भी 1907 में अपनी पुस्तक इज़ मार्स हैबिटेबल? में मंगल को पूरी तरह से निर्जन बताया था। अलबत्ता पर्सिवल लोवेल ने मार्स एंड इट्स कैनाल्स में कहा था कि मंगल पर नज़र आने वाली धारियां नहरें हैं और इन्हें वहां एक बुद्धिमान सभ्यता ने खेती के प्रयोजन से निर्मित किया था। फिलहाल मंगल की सतह पर मिट्टी और चट्टानों में पानी, रसायनिक जैव चिंहों और वायुमंडल में बायोमार्कर गैसों पर अध्ययन जारी है। मंगल ग्रह पृथ्वी से निकटता और समानता रखता है, परंतु वहां जीवन के संकेत नहीं हैं।

मंगल पर पानी

प्रारंभिक अध्ययनों में शोधकर्ताओं ने 1950 के दशक में मंगल पर विभिन्न प्रकार के जीवन रूपों की व्यवहार्यता, पर्यावरणीय स्थितियों को निर्धारित करने और उनकी अनुकृति बनाने के लिए पात्रों (‘मार्स जार’ या ‘मार्स सिमुलेशन चैम्बर’) का उपयोग किया था। इसका विवरण ह्यूबर्टस स्ट्रगहोल्ड ने प्रस्तुत किया है। जोशुआ लेडरबर्ग और कार्ल सैगन ने इसे लोकप्रिय किया।

जून 2000 में मंगल की सतह पर तरल पानी के बहने के सबूत बाढ़ जैसी नालियों के रूप में खोजे गए, जिसे 2006 में मार्स ग्लोबल सर्वेयर द्वारा ली गई तस्वीरों ने पुष्ट किया। इससे निष्कर्ष यह निकला कि मंगल की सतह पर कभी-कभी पानी रहा है।

मार्च 2015 में नासा द्वारा क्यूरियोसिटी रोवर पर लगे उपकरणों की मदद से सतह की तलछट को गर्म करके नाइट्रेट का पता चला। नाइट्रेट में नाइट्रोजन ऑक्सीकृत रूप में है, जिसका जीवों द्वारा उपयोग किया जा सकता है। जीवन के लिए आवश्यक रासायनिक पोषक पदार्थों में से एक फॉस्फेट मंगल ग्रह पर आसानी से उपलब्ध है। नवम्बर 2016 में नासा ने मंगल ग्रह के युटोपिया प्लैनिटिया क्षेत्र में बड़ी मात्रा में भूमिगत बर्फ का पता लगाया था, जिसमें पानी की मात्रा लेक सुपीरियर के बराबर होने का अनुमान है। इसी प्रकार सैंड स्टोन (बालुई पत्थर) की ऑर्बाइटल स्पेक्ट्रोमेट्री से प्राप्त डैटा के विश्लेषण से पता चला है कि अतीत में ग्रह पर मौजूद पानी में पृथ्वी जैसे अधिकांश जीवन को सहारा देने के हिसाब से बहुत अधिक लवणीयता रही होगी। वैज्ञानिकों का मानना है कि ठंडा और जीवनहीन सा दिखने वाला मंगल ग्रह कभी गर्म, जलयुक्त और रहने के लायक रहा होगा। अनुमान है कि जज़ीरो क्रेटर पर कभी पानी हुआ करता था। 

आज सभी अंतरिक्ष एजेंसियों के प्रमुख उद्देश्य हैं: मंगल ग्रह पर जीवन की संभावना की तलाश; मंगल की जलवायु और भूविज्ञान का विश्लेषण, बसने की संभावना, टैफोनोमी (जीवाश्म-निर्माण का अध्ययन) और कार्बनिक यौगिकों के सबूतों की तलाश।

नासा ने मंगल की सतह पर पानी के अस्तित्व की पुष्टि के लिए स्पिरिट और ऑपर्च्युनिटी रोवर्स जून और जुलाई 2003 में प्रक्षेपित किए थे। स्पिरिट अभियान मई 2011 और ऑपर्च्युनिटी फरवरी 2019 तक सक्रिय रहे।

जून 2018 में नासा ने घोषणा की कि क्यूरियोसिटी रोवर ने तीन अरब वर्ष पुरानी तलछटी चट्टानों में कार्बनिक अणुओं की खोज की है। इसी समय मंगल पर मीथेन के स्तर में मौसमी बदलाव का पता लगाया गया। तदुपरांत मंगल पर पानी की पुष्टि, जीवन के संकेत और ग्रह के भूविज्ञान की जांच के लिए परसेवरेंस मार्स रोवर को 10 वर्ष के लिए मंगल पर भेजा गया।

खगोल जीववैज्ञानिक मानते हैं कि जीवनक्षम वातावरण खोजने के लिए मंगल की सतह पर पहुंचना आवश्यक है। लेकिन आज तक किसी ने भी मंगल की सतह पर ताप, दाब, वायुमंडलीय संरचना, विकिर्णन, आर्द्रता, ऑक्सीकरण जैसी स्थितियों पर विचार नहीं किया है। प्रयोगशाला सिमुलेशन दर्शाते हैं कि कई घातक कारक एक साथ मौजूद हों तो जीवित रहने की दर तेज़ी से गिरती है। मंगल ग्रह पर मनुष्य कैसे रह पाएंगे, मार्स ड्यून अल्फा परीक्षण इसी को लेकर किया गया है।

मार्स ड्यून अल्फा में दल के सदस्यों ने मंगल पर जीवन जीने की कई चुनौतियों का सामना किया। साथ ही उन्होंने इसमें नए वर्ष का जश्न और छुट्टियां भी मनाई, उनका मासिक चेकअप भी होता रहा, उन्होंने सब्ज़ियां भी उगाई, मार्सवॉक किया और अत्यधिक तनाव में अपने काम को पूरा किया।

आर्टेमिस कार्यक्रम के तहत नासा मनुष्यों को चंद्रमा पर पुन: भेजने की योजना बना रहा है, ताकि वे वहां लंबे समय तक रहना सीख सकें तथा 2030 के दशक के अंत तक मंगल ग्रह की यात्रा की तैयारी में मदद मिल सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जल संकट: प्रकृति का प्रकोप या मानव की महत्वाकांक्षा

देवेश शांडिल्य

विगत गर्मियों में बैंगलोर शहर सुर्खियों में रहा, कारण था जल संकट। अब, जहां-तहां से बाढ़ की खबरें आ रही हैं। यह बात विचारणीय है कि यह सूखे और बाढ़ का चक्र विगत कुछ वर्षों से काफी तेज़ी से घूम रहा है।

इस घटनाक्रम पर विचार करने पर शायद हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यह सब प्रकृति का प्रकोप है। लॉकडाउन के दौरान जब मानव गतिविधियां सीमित हो गई थीं और मानव का प्रकृति में हस्तक्षेप कम हो गया था, तब हवा की गुणवत्ता, जो AQI द्वारा प्रदर्शित होती, में काफी सुधार देखा गया था। स्वच्छ जल की स्रोत, नदियों की TDS (जल में घुलित अशुद्धियों) की रीडिंग भी सुधर गई थी। प्रदूषण पर नियंत्रण लगते ही मानव को शुद्ध वायु और शुद्ध जल प्राप्त होने लगे थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि नदियों को माता कहकर पूजने वाले ही उनके सबसे बड़े अपराधी हैं। आज हमें उनको पूजने से ज़्यादा उनको समझने की ज़रूरत है।

अपनी महत्त्वाकांक्षा के चलते मानव ने शहरों का डामरीकरण करना, कॉन्क्रीट के जंगल खड़े करना, हर तरफ सड़कों का जाल बिछाना शुरू कर दिया। इससे एक तरफ तो मानव सभ्यता काफी उन्नत हुई, हमने सुख के साधन बटोरे और यातायात को सुगम और सुलभ बनाया। वहीं दूसरी ओर, इनके कारण जो बरसात का जल मिट्टी के माध्यम से धरती में जाना था, वही अब सीमेंट और डामर की सड़कों से होता हुआ नालों के माध्यम से नदियों में जाता है। एक तरफ तो ऐसा अचानक जल भराव और साथ में उचित ड्रेनेज की कमी के कारण बाढ़ का रूप लेकर तबाही फैलाता है। वहीं दूसरी ओर, पानी के तुरंत बह जाने से और धरती में न समाने से भूजलस्तर में कमी के चलते सूखे के हालत बनते हैं।

तो क्या हम विकास और विकास-जनित विनाश के बीच कोई सामंजस्य नहीं बैठा सकते जिससे संपूर्ण मानवता विकास के लाभों को प्राप्त करते हुए संभावित विनाश से बच सके?

दरअसल, ऐसे कई उपाय हैं जिन्हें ध्यान में रख कर योजनाएं बनाई जाएं और परियोजनाओं का क्रियान्वन किया जाए तो समाज के सभी वर्गों को ही नहीं, पर्यावरण को भी लाभ पहुंचेगा। अमीर उद्योगपति से लेकर गरीब गड़रिये तक तथा शहरी नागरिक से लेकर जंगल के जानवर तक लाभान्वित होंगे। अत: हमें योजना बनाते वक्त यह विचार करना चाहिए कि उसके क्रियान्वयन से किन-किन उद्देश्यों की पूर्ति कर सकते हैं और कौन–कौन से लक्ष्य बिना अतिरिक्त व्यय और व्यवधान के प्राप्त हो सकते हैं।

ऐसे कई मॉडल उपलब्ध हैं। मसलन एक प्रयास बॉरो पिट्स (Borrow pits) का है। इसके तहत हाईवे बनाने के लिए सामग्री आसपास से ली जाती है और उसके कारण बने गड्ढे का उपयोग तालाब के रूप में किया जाता है। ये शिकागो और ओहायो में हाईवे के किनारे बनाए जाते हैं जिनमें मछली पालन आदि कार्य होते हैं।

भारत में भी नेशनल रोड एंड हाईवे डेवलपमेन्ट अथॉरिटी द्वारा अमृत सरोवर के नाम से यह काम किया जा रहा है। आगे हम एक ऐसे ही मॉडल की चर्चा करेंगे।

जब हम कोई निर्माण कार्य करते हैं जैसे सड़क, पुल या रेल की पटरी बिछाना आदि, तो उसमें हमें कई बार मिट्टी का भराव करना पड़ता है। इस मिट्टी का खनन अगर अनुशासित तरीके से किया जाए तो इसी खुदाई से आसपास के गांवों, तहसील या जंगल की शासकीय ज़मीन पर तालाबों का निर्माण हो सकता है। निर्माण कार्य के लिए मिट्टी भी उपलब्ध हो जाएगी और बिना किसी अतिरिक्त व्यय के तालाब भी तैयार हो जाएगा। यह अगर जंगल में बना तो वन्य प्राणियों को गर्मी के दिनों में पानी उपलब्‍ध कराएगा। तालाब शहरों के आसपास बनें तो वहां के भूजलस्तर में सुधार आएगा। गांव के आसपास बनने पर भूजलस्तर के साथ आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी क्योंकि गांव में जल केवल जीवन का ही नहीं, बल्कि पशुपालन, मछली पालन तथा तालाब आधारित खेती (जैसे सिंघाड़ा, कमल) आदि आर्थिक गतिविधियों का भी आधार होता है। अर्थात ये तालाब न केवल राज्य की आय बल्कि व्यक्तिगत आय और भोजन सम्बंधित समस्या भी हल कर सकेगी।

जल की एक बूंद तो ऐसी पूंजी है जिसे कमाया नहीं जा सकता। ऐसे में इसका संरक्षण ही इसका निर्माण है।

उदाहरण के लिए यदि एक सड़क का निर्माण होता है, जिसकी लंबाई 100 मीटर, चौड़ाई 4 मीटर है तथा 16 सेंटीमीटर की गहराई तक पुरनी के लिए एक ही स्थान से मिट्टी खोदें, तोे वहां 64,000 लीटर क्षमता का गड्ढा या तालाब तैयार हो जाएगा।

एक गाय या भैंस साधारणत: 80-100 लीटर पानी प्रतिदिन इस्तेमाल करती है। तो हमारे पास 2 गाय अथवा 2 भैंस के लिए कम से कम 320 दिन का पानी हो गया। एक बकरी अथवा भेड़ लगभग 10 लीटर पानी उपयोग करती है तो यह 20 जानवरों के लिए 320 दिन का पानी होगा।

2010 के बाद से भारत में सड़क निर्माण की गति तेज़ हो गई है। 2014-15 में यह औसतन लगभग 12 किलोमीटर प्रतिदिन और 2018-19 में 30 किलोमीटर प्रतिदिन थी। देश का लक्ष्य प्रतिदिन 40 किलोमीटर राजमार्ग बनाना है। जिनकी चौड़ाई 12 मीटर रहेगी। इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं हम जल संग्रहण की कितनी क्षमता विकसित कर सकते थे या आज भी कर सकते हैं। और यह बड़े-बड़े प्रोजेक्ट ही नहीं अपितु घर बनाते समय नींव में भरी जाने वाली मिट्टी के साथ भी छोटे पैमाने पर कर सकते हैं।

अत: केवल सड़क निर्माण के कार्य को थोड़े से अलग ढंग से करके सरकार सड़कों के माध्यम से न केवल उद्योगपतियों को मूलभूत अधोसंरचना उपलब्‍ध कराएगी, अपितु इसमें गांव की अर्थव्यवस्था का लाभांश भी सुनिश्चित करेगी। और इस तरह यह मानव सभ्यता से लेकर वन्य जीवन को लाभान्वित करेगा और सह-अस्तित्व का नया अध्याय आरम्भ होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में आमदनी और दौलत की विषमता

अरविंद सरदाना

भारत में आय और दौलत की विषमता (income and wealth inequality) पर हाल ही की चर्चित रिपोर्ट में कई चौंकाने वाले और चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं। ‘राईज़ ऑफ दी बिलियोनेयर राज’ (Rise of the Billionaire Raj) शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट में सन 1922 से 2023 तक भारत में आय और दौलत की विषमता के बारे यह बताया गया है कि “वर्तमान भारत में विषमता (inequality) अंग्रेज़ों और राजा-महाराजाओं के ज़माने से भी अधिक है।” यह रिपोर्ट नितिन कुमार भारती (Nitin Kumar Bharti) एवं सहयोगियों द्वारा तैयार की गई है और विस्तृत आंकड़ों के आधार पर भारत में पिछले 100 वर्षों में लोगों की आर्थिक दशा उजागर करती है। 

विषमता के क्या मायने हैं? 

रिपोर्ट में प्रस्तुत आंकड़े दर्शाते हैं कि हमारी विकास की योजनाएं (development plans) 10 प्रतिशत अमीरों (rich) को और अमीर कर रही हैं, जबकि बीच के लोगों को विकास का लाभ (benefits of development) नहीं मिल रहा है। बाकी 50 प्रतिशत लोगों को मुफ्त खाने (free food) का सहारा देना उनकी बेबसी की हालत दर्शाता है। विकास का यह दौर जिसमें बेरोज़गारी (unemployment), गरीबी (poverty) और बेबसी (helplessness) का मिश्रण बनता है, समाज में विकराल स्थिति (critical situation) पैदा करता है। यह स्थिति समाज में क्लेश (discord) और घृणा (hatred) को बढ़ा रही है और उम्मीद एवं भाईचारे (hope and brotherhood) को नष्ट कर रही है। 

Text Box: रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष
भारत में आज़ादी के बाद 1980 तक विषमता घट रही थी, इसके बाद यह फिर बढ़ना शुरू हुई।
सन 2000 के बाद विषमता बढ़ने की गति बढ़ गई और 2015 के बाद और अधिक तीव्र हो गई।। 
आज के भारत को अरबपति (यूएस डॉलर के हिसाब से) राज इसलिए कहा है गया क्योंकि भारत में जहां वर्ष 1991 में एक अरबपति व्यक्ति था, 2011 में 52 हो गए थे और 2022 में 162 थे। 
2022-23 में भारत के सबसे अमीर 1 प्रतिशत लोगों के पास देश की कुल आय का 23% और देश की कुल दौलत का 40 प्रतिशत हिस्सा था। यह विषमता राजा-महाराजा के समय से भी अधिक है। 
भारत में जिन्हें ‘मिडिल क्लास’ कहते हैं, वे वास्तव में शीर्ष के 10 प्रतिशत लोग हैं। इनकी आय 1950 में देश की कुल आय का 40 प्रतिशत थी, जो वर्ष 1980 में घट कर 30 प्रतिशत रह गई थी, आज यह 60 प्रतिशत है। वर्तमान में बीच के 40 प्रतिशत लोगों की आय का हिस्सा 27 प्रतिशत है, और बाकी 50 प्रतिशत लोगों की आय का हिस्सा केवल 13 प्रतिशत है।
भारत में विषमता इसलिए भी बढ़ी है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में कॉर्पोरेट टैक्स (corporate tax) में बहुत छूट दी गई है। ऐसा करने के पीछे यह सोच रही है कि कंपनियां (companies) अपने बढ़े हुए मुनाफे (increased profits) से और अधिक निवेश करेंगी। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हुआ। फायदा सिर्फ कंपनियों के शेयर धारकों (shareholders) को हुआ। इससे अमीर और अमीर हो गए। इस संदर्भ में उस दौरान कई अर्थशास्त्रियों (economists) ने कहा था कि मूल समस्या बाज़ार में मांग की कमी (market demand) है। यदि मांग कमज़ोर है और कंपनियां ज़्यादा निवेश (more investment) कर भी देती हैं तो वे अपना उत्पादन (production) खपाएंगी कहां? यानी स्पष्ट है कि मांग बढ़ाने पर ही आर्थिक गतिविधियां (economic activities) पटरी पर आ सकती हैं। नोटबंदी (demonetization) और जीएसटी (GST) को बेतुके ढंग से लागू करने और उसके पश्चात कोरोना (coronavirus) के कारण हमारी अर्थव्यवस्था (economy) बहुत कमज़ोर हो गई थी। 

हाल ही में ब्रिटेन की लेबर पार्टी (UK Labour Party) ने एक बहुत चर्चित वीडियो जारी करके समझाया है कि सरकार के लिए अरबपतियों (billionaires) को फायदा देने से बेहतर है आम जनता के लिए खर्च करना। इस धन को जनता आगे खर्च करती है और बाज़ारों में मांग (demand in markets) बढ़ती है। (इस वीडियो को आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं – [https://labourlist.org/2019/04/ordinary-people-vs-billionaires-labours-party-political-broadcast/](https://labourlist.org/2019/04/ordinary-people-vs-billionaires-labours-party-political-broadcast/)) 

हमारी सरकार का आर्थिक नज़रिया (economic perspective) अधूरा भी है। जीडीपी (GDP) बढ़ाना ज़रूरी है, लेकिन यदि इसकी व्याख्या ठीक से न की जाए, तो यह अधूरा लक्ष्य (incomplete goal) ही है। कई मुल्कों के इतिहास (history of countries) को खंगालने से यह पता चलता है कि जीडीपी बढ़ने से सरकार के खजाने में इज़ाफा (increase in government revenue) होता है। इन पैसों को यदि लोगों की शिक्षा (education), स्वास्थ्य (health), एवं रोज़गार (employment) के लिए खर्च किया जाए तो कुछ वर्षों बाद लोगों की क्षमताएं (capabilities) बढ़ती हैं, और रोज़गार से आय (income) भी बढ़ती है। जब व्यापक स्तर पर ऐसा होने लगता है तो समाज में आय और दौलत की विषमता (income and wealth inequality) घटने लगती है। केवल जीडीपी बढ़ाना और लोगों के लिए खर्च करने के तर्क (arguments) को भूल जाना, विषमता को और बढ़ाता है। भारत में ऐसा ही हुआ है और इसी कारण आज विषमता अंग्रेज़ों के राज (British Raj) से भी अधिक है। 

अधिक विषमता (inequality) समाज के ताने-बाने को नष्ट करती है। जिन के पास दौलत (wealth) है यह उनके लिए भी घातक सिद्ध होती है तथा इससे विश्वास (trust) टूटता है। इसके कुछ संकेत हम भारत में देख रहे हैं – 40 प्रतिशत संपत्ति (property) के मालिक 1 प्रतिशत लोग अपनी दौलत का कुछ हिस्सा विदेशों में निवेश (foreign investments) कर रहे हैं। 

इसी संदर्भ में स्वास्थ्य के क्षेत्र में दो शोधकर्ताओं (researchers) ने विकसित देशों के अनुभवों (experiences of developed countries) के प्रमाण के साथ एक पुस्तक प्रकाशित की है –  **दी स्पिरिट लेवल: व्हाय मोर इक्वल सोसायटीज़ आलमोस्ट आल्वेज़ डू बेटर** (The Spirit Level: Why More Equal Societies Almost Always Do Better) (लेखक रिचर्ड विलकिन्सन और केट पिकेट) (authors Richard Wilkinson and Kate Pickett)। यह पुस्तक ज़रूर पढ़ना चाहिए, क्योंकि यह भ्रम बना हुआ है कि विषमता को दूर करना यानी एक से ले कर दूसरे को देना। विषमता को एक सीमा में रखना सब के लिए अच्छा सिद्ध होता है, जिन के पास है उनके लिए भी! 

हमारे लिए ज़रूरी कदम 

नितिन भारती और उनके सहयोगियों ने अपनी रपट में कुछ सुझाव (suggestions) भी रखे हैं। उनका कहना है कि अरबपति (billionaires) और बहुत अमीर करोड़पति (wealthy millionaires) पर विशेष टैक्स (special tax) लगना चाहिए। भारत में संपत्ति कर (property tax) एक समय था, पर उसे हटा दिया गया है। उसे नए स्वरुप (new form) में लागू करना चाहिए। इन कदमों से सरकार को जो आय प्राप्त हो उसे शिक्षा (education) और स्वास्थ्य (health) पर खर्च करना चाहिए। इन मुद्दों पर बहस हो सकती है पर मुख्य बात है कि हमें अपनी विकास योजनाओं (development plans) की पूर्ण समीक्षा (thorough review) करनी होगी। खासकर रोज़गार (employment) के क्षेत्र में यह समझना होगा कि लघु उद्योग (small industries) और छोटे कारोबार (small businesses) में अधिक लोगों को रोज़गार मिलने की संभावना (employment opportunities) बनती है और इसे विशेष प्रोत्साहन देना ज़रूरी है। यह असंगठित क्षेत्र (informal sector) का हिस्सा है। संगठित क्षेत्र (formal sector) वह है जो भारी मशीन (heavy machinery), उच्च तकनीकी कौशल (technical skills) और पूंजी (capital) पर आधारित होता है। यह उत्पादन की प्रक्रिया (production process) को तो मज़बूत करता है पर बहुत लोगों को रोज़गार (employment) नहीं देता। यहां यह दोहराने की ज़रूरत नहीं है कि शिक्षा (education), स्वास्थ्य (health) एवं भोजन (food) की बुनियादी ज़रूरतों और सार्वजनिक व्यवस्थाओं के ढांचों (infrastructure) को मज़बूत किए बिना हम रोजगार (employment) के नए मौके एवं कौशल-संपन्न लोग (skilled individuals) नहीं बना पाएंगे। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.groundxero.in/wp-content/uploads/2024/03/Inequality-in-India.jpg

खून का विकल्प

डॉ. सुशील जोशी

चोट लगने पर यदि बहुत खून बह जाए तो व्यक्ति के शरीर को ज़रूरी ऑक्सीजन (oxygen) व पोषण मिलने में दिक्कत आती है। और खून (blood) मिलना हर जगह आसान नहीं होता। ऐसे में कई बार खतरे की स्थिति बन जाती है। एक समय था जब बहुत अधिक रक्तस्राव तो जैसे मौत का ऐलान ही होता था। रक्ताधान (blood transfusion) किया जाता था लेकिन यह धुर में लट्ठ जैसा होता था। रक्त समूहों (blood groups) के बारे में कोई भनक तक नहीं थी। यदि गलत समूह का खून चढ़ जाए तो जानलेवा हो सकता था। आज भी खून बह जाने की वजह से दुनिया भर में हर साल करीब 20 लाख लोग जान से हाथ धो बैठते हैं। दान दिए गए खून की शेल्फ लाइफ (shelf life) मात्र 42 दिन होती है और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध भी नहीं होता। इस परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए खून के विकल्पों (blood substitutes) की खोज कम से कम दो सदियों से चल रही है। और एक उपयुक्त विकल्प की ज़रूरत आज भी बरकरार है। पिछले वर्ष बाल्टीमोर की एक प्रयोगशाला में एक सफेद खरगोश ने आशा की किरण दिखाई है। 

इस खरगोश के शरीर से कुछ खून निकाल दिया गया था और फिर एक कैथेटर (catheter) के माध्यम से एक रक्त-विकल्प उसकी कैरोटिड धमनी में पहुंचाया जा रहा था। इस कृत्रिम रक्त-विकल्प का नाम है एरिथ्रोमर (ErythroMer)। इसका विकास मैरीलैंड विश्वविद्यालय स्कूल ऑफ मेडिसिन (University of Maryland School of Medicine) के चिकित्सक-शोधकर्ता एलन डॉक्टर द्वारा किया गया है। एरिथ्रोमर को ‘पुनर्चक्रित’ मानव हीमोग्लोबीन (recycled human hemoglobin) से बनाया गया है। हीमोग्लोबीन लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) में पाया जाने वाला वह प्रोटीन होता है जो ऑक्सीजन को फेफड़ों से लेकर पूरे शरीर में पहुंचाता है। इस ‘पुनर्चक्रित’ हीमोग्लोबिन को एक झिल्ली के आवरण में लपेटकर एक कोशिका का रूप दिया गया है। प्रयोग में लग रहा था कि रक्ताधान (सही मायनों में एरिथ्रोमराधान) काम कर रहा है। खरगोश की हृदय गति, रक्तचाप (blood pressure) वगैरह ठीक-ठाक ही लग रहे थे। 

एरिथ्रोमर व उससे पहले विकसित किए गए ऐसे पदार्थों को हीमोग्लोबिनाइज़्ड ऑक्सीजन वाहक (Hemoglobinized Oxygen Carrier – HBOC) कहते हैं। इन्हें कृत्रिम खून (artificial blood) भी कह सकते हैं। ऐसे विकल्प खास तौर से ऐसे मामलों में उपयोगी होंगे जहां ताज़ा खून मिलना मुश्किल होता है – जैसे युद्धक्षेत्र में या देहातों में। 

एरिथ्रोमर तत्काल देकर अस्पताल (hospital) पहुंचने तक मरीज़ को ऑक्सीजन मिलती रह सकती है। यह फ्रीज़ करके सुखाया गया पावडर होता है जिसे वर्षों तक इस्तेमाल किया जा सकता है। मरीज़ को देते समय इसे सैलाइन (saline) में घोलकर तैयार किया जा सकता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसके उपयोग में रक्त समूह (blood group) जैसी कोई अड़चन नहीं होगी क्योंकि इसकी झिल्ली पर कोई सतही प्रोटीन नहीं होते जो रक्त समूह का निर्धारण करते हैं। 

वैसे तो ऑक्सीजन वाहक (oxygen carrier) लाल रक्त कोशिकाओं का विकल्प (alternative) विकसित करने के प्रयास दशकों से चल रहे हैं। इस संदर्भ में लग रहा है कि एरिथ्रोमर शायद प्राकृतिक लाल रक्त कोशिकाओं की तुलना में ज़्यादा टिकाऊ और लचीला होगा। हालांकि, एरिथ्रोमर अभी जंतु-परीक्षण (animal trials) के चरण में ही है लेकिन यह एकमात्र ऐसा प्रयास है जिसमें हीमोग्लोबिन को एक झिल्ली में कैद करके वास्तविक खून का रूप देने की कोशिश की गई है। दूसरी ओर, जापान में एक प्रतिस्पर्धी उत्पाद (competitive product) का परीक्षण मनुष्यों (human trials) में किया जा चुका है और वह सुरक्षित ही लग रहा है। 

मात्र 2 दशक पहले पूर्ववर्ती HBOC संस्करणों को एक तरफ रख दिया गया था क्योंकि परीक्षण में शामिल व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी। इसके बाद किए गए अन्य प्रयासों के परिणाम भी बहुत बेहतर नहीं रहे थे। आज तक के सबसे उन्नत HBOC वे रहे हैं जिन्हें दक्षिण अफ्रीका और रूस में मंज़ूरी मिली थी लेकिन उनमें भी साइड इफेक्ट (side effects) के मुद्दे थे। 

खून की अनुकृति (blood replica) बनाने में मुश्किलात के कई कारण हैं। अव्वल तो खून स्वतंत्र अणुओं (molecules) और कोशिकाओं का एक जटिल मिश्रण (complex mixture) होता है। खून में आधा हिस्सा तो प्लाज़्मा (plasma) होता है, जो पानी, प्रोटीन्स (proteins) और लवणों से बना एक हल्का पीला तरल (fluid) होता है। शेष रक्त कोशिकाओं से बना होता है। इनमें मुख्यत: प्लेटलेट्स (platelets), सफेद रक्त कोशिकाएं (white blood cells) और लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells) होती हैं। प्लेटलेट्स किसी घाव या खरोंच के स्थान पर खून का थक्का बनाने में भूमिका निभाते हैं और सफेद रक्त कोशिकाएं संक्रमणों (infections) के विरुद्ध लड़ने में कारगर होती हैं। 

लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) में हीमोग्लोबिन होता है जो ऑक्सीजन का परिवहन करता है। शरीर में सर्वाधिक संख्या लाल रक्त कोशिकाएं की ही होती है। आम तौर पर ये बीच में पिचकी हुई डिस्क (disc-shaped) के आकार की होती हैं। अस्थि मज्जा (bone marrow) में इनका निरंतर उत्पादन होता है – लगभग 20 लाख कोशिका प्रति सेकंड। किसी भी समय खून में करीब 30 खरब लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells) रक्त वाहिनियों (blood vessels) में दौड़ती रहती हैं। इन रक्त वाहिनियों की कुल लंबाई 20,000 कि.मी. (kilometers) तक हो सकती है। 

वास्तविक चुनौती यह है कि लाल रक्त कोशिकाओं की ऑक्सीजन परिवहन क्षमता (oxygen transport capacity) की नकल तैयार की जाए। लाल रक्त कोशिकाओं में मौजूद हीमोग्लोबिन (hemoglobin) नामक प्रोटीन (protein) का अणु यह काम करता है। एक-एक रक्त कोशिका में हीमोग्लोबिन के 26 करोड़ अणु (molecules) पाए जाते हैं। इसके प्रत्येक अणु में हीम के घटकों के केंद्र में एक लौह परमाणु (iron atom) होता है। यही हीम संकुल ऑक्सीजन (oxygen) को पकड़ता है। 

शुरुआत में रक्त विकल्पों के निर्माण में कोशिश यह की गई थी कि हीमोग्लोबिन के स्थान पर एक अन्य ऑक्सीजन वाहक परफ्लोरोकार्बन (Perfluorocarbon) अणु को रखा जाए। इसका उपयोग रेफ्रिजरेंट्स (refrigerants) और अग्नि-शामकों में बहुतायत में किया जाता था। 1989 में ऐसे एक विकल्प को तो यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन (U.S. Food and Drug Administration – FDA) ने शल्य क्रियाओं (surgery) के दौरान उपयोग की मंज़ूरी भी दे दी थी। लेकिन कतिपय कारणों से इसे वापिस ले लिया गया। 

तो बच गए HBOC। लाल रक्त कोशिका (red blood cell) के अंदर हीमोग्लोबिन प्रोटीन्स (proteins) चार-चार के समूहों में जुड़े रहते हैं। शुरुआती HBOC में कोशिश यह थी कि इस चौकड़ी संरचना (tetramer structure) की नकल की जाए और झिल्ली को छोड़ दिया जाए। 

लेकिन हीमोग्लोबिन (hemoglobin) अजीब अणु होता है – ऊतकों और रक्त वाहिनियों (blood vessels) के लिए विषैला (toxic) होता है। एक कारण तो यह है कि हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन (oxygen) लेकर चलता है जो गलत जगह पहुंच जाए तो घातक हो सकती है। लिहाज़ा हीमोग्लोबिन को रक्त प्रवाह (bloodstream) में छुट्टा नहीं छोड़ा जा सकता। पिछली सदी में जिन मरीज़ों को आवरणरहित हीमोग्लोबिन (unencapsulated hemoglobin) से बने रक्त-विकल्प (blood substitute) दिए गए थे, उनमें उच्च रक्तचाप (high blood pressure), उच्च चयापचय दर (high metabolism rate) और तेज़ नब्ज़ (rapid pulse) जैसे असर देखे गए हैं। कुछ मामलों में हार्ट अटैक (heart attack) और गुर्दा नाकामी (kidney failure) जैसे दुष्प्रभाव (side effects) भी प्रकट हुए। माना जाता है कि ऐसा रक्त वाहिनियों के सिकुड़ने (vasoconstriction) की वजह से हुआ था जो स्वतंत्र हीमोग्लोबिन (free hemoglobin) ने पैदा किया था। 

आवरण रहित HBOC का सबसे सफल उदाहरण हीमोप्योर (Hemopure) रहा है। 1990 के दशक में इसे गाय से प्राप्त लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) की मदद से तैयार किया गया था। पहले इन कोशिकाओं में से हीमोग्लोबिन (hemoglobin) निकाला जाता था और उसे रोगजनकों (pathogens) से मुक्त किया जाता था। फिर चार-चार हीमोग्लोबिन की चौकड़ियां बनाई जाती थीं। इसका अधिकांश उपयोग ऑपरेशन उपरांत एनीमिया (anemia) के उपचार हेतु किया गया था। 

लेकिन 2008 में जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (Journal of the American Medical Association – JAMA) में प्रकाशित एक मेटा-विश्लेषण का निष्कर्ष था कि ये सारे HBOC निहित रूप से हृदय (heart) के लिए विषैले (toxic) थे और इनसे उपचारित मरीज़ों की मृत्यु दर (mortality rate) सामान्य रक्ताधान (blood transfusion) प्राप्त करने वाले मरीज़ों से 30 प्रतिशत ज़्यादा थी। इस विश्लेषण के प्रकाशन के बाद सारे परीक्षण (trials) बंद कर दिए गए। 

हालांकि नया रक्त विकल्प एरिथ्रोमर जंतु-परीक्षण के दौर में ही है लेकिन डॉक्टर को यकीन है कि यह शुद्ध हीमोग्लोबिन उत्पादों के विषैलेपन की समस्या से निपट पाएगा और प्रकृति की बेहतर अनुकृति (better replica) साबित होगा क्योंकि इसमें हीमोग्लोबिन को ठीक उस तरह आवरण में बंद किया गया है जैसा लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) में होता है। 

वैसे डॉक्टर रक्त का विकल्प (blood substitute) बनाने के लिए काम कर भी नहीं रहे थे। वे तो हीमोग्लोबिन (hemoglobin) और नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) नामक गैस के परस्पर सम्बंध (interaction) का अध्ययन कर रहे थे। नाइट्रिक ऑक्साइड वह गैस है जो रक्त वाहिनियों (blood vessels) का अस्तर खून में छोड़ता रहता है। नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) की उपस्थिति में रक्त वाहिनियां फैल (dilate) जाती हैं और इसकी अनुपस्थिति में सिकुड़ (constrict) जाती हैं। और महत्वपूर्ण बात यह है कि लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells) इस गैस के स्तर (levels) को नियंत्रित करती हैं क्योंकि ऑक्सीजन (oxygen) के समान नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) भी हीमोग्लोबिन (hemoglobin) से जुड़ सकती हैं। लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) और आसपास के ऊतकों (tissues) के बीच ऑक्सीजन (oxygen) के लेन-देन के आधार पर कोशिकाएं नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) को ग्रहण कर सकती हैं या बाहर कर सकती हैं। 

अब यदि कोई व्यक्ति ज़ोरदार कसरत कर रहा हो, तो पहले तो उसकी मांसपेशियों में ऑक्सीजन की खपत बढ़ती है। वहां ऊतकों की बढ़ी हुई सक्रियता का निर्वाह करने के लिए रक्त प्रवाह बढ़ता है और सक्रियता कम हो जाने पर रक्त प्रवाह सामान्य हो जाता है। जब लाल रक्त कोशिकाएं सक्रिय मांसपेशियों को ऑक्सीजन की आपूर्ति करती हैं, तब वे नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) भी छोड़ती हैं। यह छोड़ी गई नाइट्रिक ऑक्साइड उस क्षेत्र की रक्त वाहिनियों को फैला देती है जिससे उस क्षेत्र में रक्त प्रवाह (blood flow) बढ़ जाता है। कसरत पूरी हो जाने पर लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells) भारी मात्रा में ऑक्सीजन (oxygen) मुक्त करना बंद कर देती हैं। इसके चलते नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) वापिस कोशिकाओं में पहुंचकर हीमोग्लोबिन (hemoglobin) से जुड़ने लगती है और रक्त वाहिनियां सिकुड़ जाती हैं। 

मुक्त हीमोग्लोबिन (free hemoglobin) से बने रक्त-विकल्प विषैले (toxic) हो सकते हैं। इसलिए कुछ वैज्ञानिक इस ऑक्सीजन वाहक (oxygen carrier) को एक झिल्ली (membrane) में कैद कर रहे हैं, किसी लघु कोशिका (microcell) के समान। एरिथ्रोमर की झिल्ली को इस तरह बनाया गया है कि वह रक्त वाहिनियों (blood vessels) में सुगमता से बह सके और हीमोग्लोबिन (hemoglobin) नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) को न जकड़ सके। नाइट्रिक ऑक्साइड ही तो वाहिनियों को खुला रखती है। 

लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) के समान ही एरिथ्रोमर भी हीमोग्लोबिन (hemoglobin) और ऑक्सीजन के बीच स्नेह के नियमन (affinity regulation) हेतु 2,3-DPG (2,3-Diphosphoglycerate) नामक एक अणु का उपयोग करता है। फेफड़ों (lungs) में 2,3-DPG का अणु एक संश्लेषित अम्लीयता संवेदी अणु (synthesized acidity sensor molecule) KC1003 से जुड़ जाता है। यह अणु एरिथ्रोमर की झिल्ली (membrane) में होता है। इनके बीच बने बंधन (bond) का परिणाम होता है कि हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन को पकड़ने में सक्षम हो जाता है। जब यह ऊतकों में पहुंचता है तो वहां पर्यावरण ज़्यादा अम्लीय (acidic) होता है। इस स्थिति में 2,3-DPG मुक्त (released) हो जाता है और हीमोग्लोबिन से जुड़ जाता है जिसकी वजह से ऑक्सीजन (oxygen) मुक्त होने लगती है। 

सच तो यह है कि कोई भी कृत्रिम उत्पाद (artificial product) रक्त (blood) का स्थान नहीं ले सकता। ये थोड़े समय के लिए मरीज़ की मदद कर सकते हैं; अंतत: तो व्यक्ति की अस्थि मज्जा (bone marrow) को अपना काम शुरू करना होगा। बहरहाल, आज हम इतना तो जानते हैं कि इन उत्पादों के साइड प्रभावों (side effects) को संभाल सकें।(स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चमगादड़ों में श्रवण क्षमता बुढ़ापे में बरकरार रहती है

ज़ुबैर सिद्दिकी

मनुष्य सहित अधिकांश स्तनधारी प्राणियों में उम्र बढ़ने के साथ सुनने की क्षमता (hearing ability) क्षीण पड़ जाती है। लेकिन बड़े-भूरे चमगादड़ (big brown bats) (एप्टेसिकस फ्यूस्कस) इस मामले में अपवाद हैं। बायोआर्काइव (bioRxiv) में प्रकाशित हालिया शोध से पता चलता है कि ये चमगादड़ जीवन भर अपनी सुनने की क्षमता बनाए रखते हैं। इसका कारण संभवत: इकोलोकेशन (echolocation) (प्रतिध्वनि की मदद से स्थान निर्धारण) पर उनकी निर्भरता है। यह शोध मनुष्यों में श्रवण क्षमता के ह्रास (hearing loss) के उपचार में मदद कर सकता है। 

गौरतलब है कि चमगादड़ों में दो उल्लेखनीय गुण होते हैं: एक है इकोलोकेशन, जो वस्तुओं से टकराकर वापस आईं ध्वनि तरंगों के माध्यम से मार्ग निर्धारण (navigation) करने और शिकार (hunting) करने में मदद करता है। और दूसरा, वे अपने आकार के हिसाब से असाधारण रूप से लंबा जीते हैं। अधिकांश छोटे स्तनधारियों का जीवनकाल (lifespan) छोटा होता है, लेकिन बड़े-भूरे चमगादड़ 19 साल तक जीवित रह सकते हैं, जो लगभग बराबर डील-डौल के चूहों से पांच गुना अधिक है। 

इसी गुण के कारण वैज्ञानिक बुढ़ाने (aging) और सुनने की क्षमता की तुलना के लिए इन्हें शक्तिशाली मॉडल-जंतु (model organisms) के तौर पर देख रहे हैं। गौरतलब है कि चमगादड़ों की श्रवण प्रणाली (auditory system) मूलत: अन्य स्तनधारियों के समान ही होती है। 

बड़े-भूरे चमगादड़ों की उम्र के साथ सुनने की क्षमता का पता लगाने के लिए जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी (Johns Hopkins University) की शोधकर्ता ग्रेस कैपशॉ (Grace Capshaw) और उनकी टीम ने 23 जंगली चमगादड़ों को युवा और बूढ़े समूहों में विभाजित किया, जिसमें छह साल की उम्र को विभाजन रेखा के रूप में इस्तेमाल किया गया। अध्ययन में अधिकतम संभव उम्र के करीब वाले चमगादड़ शामिल नहीं थे। चमगादड़ों की उम्र जेनेटिक विधि (genetic method) से निर्धारित की गई और श्रवण परीक्षण (hearing tests) लगभग वैसे ही किए गए जैसे मानव शिशुओं (human infants) पर किए जाते हैं। चमगादड़ों के सिर पर लगे इलेक्ट्रोड्स (electrodes) से विभिन्न ध्वनियों के जवाब में श्रवण तंत्रिका द्वारा उत्पन्न विद्युत संकेतों को मापा। 

परिणामों से पता चला कि युवा और बूढ़े दोनों चमगादड़ सबसे धीमी ध्वनियों (low-frequency sounds) को समान रूप से अच्छी तरह से सुन सकते हैं, विशेष रूप से उन आवृत्तियों को जो वे इकोलोकेशन और संवाद में उपयोग करते हैं। मनुष्यों में अक्सर आंतरिक कान (कॉक्लिया) में रोम कोशिकाओं की मृत्यु के कारण सुनने की क्षमता क्षीण पड़ जाती है, जबकि इस अध्ययन में पाया गया कि सबसे बूढ़े चमगादड़ों में भी रोम कोशिकाएं और कॉक्लिया (cochlea) सलामत थे। 

लेकिन सभी चमगादड़ प्रजातियां इतनी सौभाग्यशाली नहीं हैं। मसलन, मिस्र के रूसेटस एजिप्टियाकस (Rousettus aegyptiacus) चमगादड़ उम्र के साथ सुनने की क्षमता खो देते हैं। संभवत: इसका कारण यह है कि वे शिकार के लिए ध्वनि की अपेक्षा देखने (vision) पर अधिक निर्भर होते हैं। 

बहरहाल, इन चमगादड़ों की असाधारण श्रवण क्षमता को पूरी तरह समझने के लिए और अधिक शोध की ज़रूरत है।(स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चंद्रमा पर डूम्सडे वॉल्ट का विचार

ज़ुबैर सिद्दिकी

वैश्विक आपदाओं से सुरक्षा के लिए लाखों किस्म के बीजों को नॉर्वे स्थित स्वालबर्ड ग्लोबल सीड वॉल्ट (Svalbard Global Seed Vault) में रखा गया है। इसे डूम्सडे वॉल्ट (Doomsday Vault) (कयामत की तिज़ोरी) कहा जाता है। इस तिज़ोरी को 100 देशों ने मिलकर स्वालबर्ड में इसलिए स्थापित किया था ताकि इसमें रखे गए बीज व अन्य जैविक सामग्री जलवायु परिवर्तन (climate change) से सुरक्षित रहे और भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर काम आ सके। फिलहाल यहां 8 लाख 60 हज़ार बीज व अन्य सामग्री रखी गई है। 

लेकिन 2017 में आर्कटिक ग्रीष्म लहर के कारण पर्माफ्रॉस्ट (permafrost) (बर्फ का स्थायी आवरण) पिघलने से वॉल्ट में पानी भर गया। इस घटना से संरक्षित बीजों को तो कोई हानि नहीं हुई लेकिन इसने स्मिथसोनियन नेशनल ज़ू एंड कंज़र्वेशन बायोलॉजी इंस्टीट्यूट (Smithsonian National Zoo and Conservation Biology Institute) की जीवविज्ञानी मैरी हेगडॉर्न को चिंता में डाल दिया। वे न सिर्फ बीज बल्कि जंतु कोशिकाओं  को सहेजने के लिए एक अधिक सुरक्षित स्थान पर विचार करने लगीं – एक ऐसा स्थान जो जलवायु परिवर्तन और अन्य वैश्विक संघर्षों (global conflicts) से मुक्त हो। और उन्हें लगा कि चंद्रमा (moon) से बेहतर कोई स्थान नहीं है। 

बायोसाइंस (Bioscience) में हाल ही में प्रकाशित एक लेख में, हेगडॉर्न और दस अन्य विशेषज्ञों ने चंद्रमा पर डूम्सडे वॉल्ट (Doomsday Vault) के लिए एक योजना का प्रस्ताव दिया है। इस योजना में चंद्रमा के ऐसे स्थान पर जैविक सामग्री (biological material) सहेजने की कल्पना है जहां हमेशा छाया बनी रहती हो, जहां का तापमान तरल नाइट्रोजन (liquid nitrogen) जितना ठंडा हो तथा परिरक्षण के लिए एक निष्क्रिय व स्थिर वातावरण मौजूद हो। 

चंद्रमा पर तिज़ोरी बनाने का विचार हवाई स्थित कोरल रीफ (coral reef) के शीत संरक्षण (cryo-preservation) के दौरान आया जब तरल नाइट्रोजन की आपूर्ति में रुकावट के कारण बायोरिपॉज़िटरी (biorepository) नष्ट हो गई। इसके अलावा तूफान कैटरीना जैसी प्राकृतिक आपदाओं ने एक विश्वसनीय बैकअप स्टोरेज (backup storage) की आवश्यकता दर्शाई। अत्यधिक ठंडा और पर्यावरणीय खतरे कम होने के कारण चंद्रमा एक आदर्श स्थान प्रतीत होता है। 

हालांकि यह अवधारणा दूर की कौड़ी लग सकती है, लेकिन ऐसे नमूनों को सहेजने के तरीके पहले से उपलब्ध हैं। इसकी मुख्य चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि रोबोट (robots) या अंतरिक्ष यात्री (astronauts) चंद्रमा के कठिन वातावरण में काम कर पाएं। 

चंद्रमा पर तिज़ोरी कई उद्देश्यों की पूर्ति कर सकती है। अंतरिक्ष मिशनों (space missions) के लिए, यह पौधे उगाने के एक संसाधन के रूप में कार्य कर सकती है, जो मंगल ग्रह (Mars) पर टेराफॉर्मिंग (terraforming) जैसे भविष्य के अंतरिक्ष प्रयासों के लिए आवश्यक है। यह क्षेत्रीय आपदाओं (regional disasters) से सुरक्षित रखते हुए पृथ्वी की जैव विविधता के एक आनुवंशिक संग्रह के रूप में भी कार्य कर सकती है। 

लेकिन यह स्पष्ट रहे कि वैश्विक सर्वनाश (global apocalypse) की स्थिति में यह भंडार उपयोगी संसाधन साबित नहीं होगा। यह तो भीषण तूफान या खाद्य शृंखला  के महत्वपूर्ण घटकों को खतरे में डालने वाली बीमारियों जैसी स्थानीय आपदाओं से बचाव के लिए है। 

हेगडॉर्न ने यह भी स्पष्ट किया है कि चंद्रमा पर जैव विविधता परिरक्षण (biodiversity preservation) को पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) की रक्षा/बहाली के विकल्प के तौर पर नहीं देखना चाहिए बल्कि इन प्रयासों के पूरक के तौर पर देखना चाहिए। 

इसमें सबसे महत्वपूर्ण चुनौती प्रबंधन की होगी। पहले से ही चंद्रमा के संसाधनों के लिए होड़ कर रहे देशों के साथ, तिज़ोरी के प्रबंधन पर अंतर्राष्ट्रीय समझौता (international agreement) जटिलताओं से भरा होगा। 

वर्तमान में टीम का प्रयास अंतरिक्ष यात्रा के दौरान कोशिकाओं को विकिरण (radiation) से बचाने पर केंद्रित है। वे नई हल्की सामग्रियों का परीक्षण करने और इन चुनौतियों से निपटने के लिए आवश्यक तकनीकी विशेषज्ञता जुटाने की योजना बना रहे हैं। 

बहरहाल, चंद्रमा पर कयामत की तिज़ोरी (Doomsday Vault) का निर्माण एक महत्वाकांक्षी परियोजना है जो अत्याधुनिक विज्ञान (cutting-edge science) को दूरदर्शी सोच के साथ जोड़ती है। आज कदम उठाकर, हेगडॉर्न और उनकी टीम पृथ्वी की जैव विविधता (biodiversity) के लिए एक स्थायी सुरक्षा व्यवस्था बनाने की उम्मीद करती है, यह सुनिश्चित करते हुए कि भविष्य की पीढ़ियां अधिक लचीलेपन और उम्मीद के साथ चुनौतियों का सामना कर सकें।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्वच्छ पानी के लिए बढ़ाना होगा भूजल स्तर

सुदर्शन सोलंकी

पानी की कमी (Water Scarcity) दुनिया की प्रमुख पर्यावरणीय समस्याओं (Environmental Issues) में से एक है। दुनिया की अधिकांश आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जहां पानी सीमित है या अत्यधिक प्रदूषित (Water Pollution) है। जल प्रदूषण (Water Contamination) स्वास्थ्य की गंभीर समस्याओं को जन्म दे सकता है।

नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications) में प्रकाशित एक अध्ययन ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि पानी की कमी पर शोध प्रमुखत: पानी की मात्रा पर केंद्रित होते हैं, जबकि पानी की गुणवत्ता (Water Quality) को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board) और राज्यों की प्रदूषण निगरानी एजेंसियों के एक विश्लेषण से पता चला है कि हमारे प्रमुख सतही जल स्रोतों (Surface Water Sources) का 90 प्रतिशत हिस्सा अब उपयोग के लायक नहीं बचा है।

प्रदूषित (Polluted) होने के साथ ही जल स्रोत तेज़ी से अपनी ऑक्सीजन खो रहे हैं। इनमें नदियां (Rivers), झरने, झीलें (Lakes), तालाब, और महासागर (Oceans) भी शामिल हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक, जब पानी में ऑक्सीजन का स्तर गिरता है, तो यह प्रजातियों को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है और पूरे खाद्य जाल (Food Chain) को बदल सकता है।

सेंट्रल वॉटर कमीशन (Central Water Commission) और सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड (Central Ground Water Board) के पुनर्गठन की कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की कई प्रायद्वीपीय नदियों में मानसून (Monsoon) में तो पानी होता है, लेकिन मानसून के बाद इनके सूख जाने का संकट बना रहता है। देश के ज़्यादातर हिस्सों में भूजल (Groundwater) का स्तर बहुत नीचे चला गया है, जिसके कारण कई जगहों पर भूमिगत जल में फ्लोराइड (Fluoride), आर्सेनिक (Arsenic), आयरन (Iron), मरक्यूरी (Mercury) और यहां तक कि युरेनियम (Uranium) भी मौजूद है।

दुनिया भर में लगभग 1.1 अरब लोगों के पास पानी की पहुंच (Water Access) नहीं है, और कुल 2.7 अरब लोगों को साल के कम से कम एक महीने पानी की कमी का सामना करना पड़ता है। अपर्याप्त स्वच्छता (Inadequate Sanitation) भी 2.4 अरब लोगों के लिए एक समस्या है – वे हैजा (Cholera) और टाइफाइड (Typhoid) जैसी बीमारियों और अन्य जल जनित बीमारियों (Waterborne Diseases) के संपर्क में हैं। हर साल बीस लाख लोग, जिनमें ज़्यादातर बच्चे शामिल हैं, सिर्फ डायरिया (Diarrhea) से मरते हैं।

बेंगलुरु (Bengaluru) जैसे बड़े शहर जल संकट (Water Crisis) से जूझ रहे हैं, जहां इस साल टैंकरों से पानी पहुंचाना पड़ा। दिल्ली की झुग्गियों में रहने वाले लोगों को रोज़मर्रा के कामों के लिए भी पानी की किल्लत झेलनी पड़ती है। राजस्थान के कुछ सूखे इलाकों में तो हालात और भी खराब रहते हैं।

भारत, दुनिया में सबसे ज़्यादा भूजल का इस्तेमाल (Groundwater Usage) करने वाला देश है। प्राकृतिक कारणों के अतिरिक्त भूजल स्रोत विभिन्न मानव गतिविधियों के कारण भी प्रदूषित होते हैं। और यदि एक बार भूजल प्रदूषित हो गया, तो उसे उपचारित (Treated) करने में अनेक वर्ष लग सकते हैं या उसका उपचार किया जाना संभव नहीं होता है। अत: यह अत्यंत आवश्यक है कि किसी भी परिस्थिति में भूमिगत जल स्रोतों को प्रदूषित होने से बचाया जाए। भूमिगत जल स्रोतों को प्रदूषण (Pollution) के खतरे से बचाकर ही उनका संरक्षण (Conservation) किया जा सकता है।

जलवायु परिवर्तन (Climate Change) दुनिया भर में मौसम और बारिश के पैटर्न को बदल रहा है, जिससे कुछ इलाकों में बारिश में कमी और सूखा (Drought) पड़ रहा है और कुछ इलाकों में बाढ़ (Flooding) आ रही है। जल संरक्षण (Water Conservation) की उचित व्यवस्था न होने के कारण भी कभी बाढ़, तो कभी सूखे का सामना करना पड़ सकता है। यदि हम जल संरक्षण की समुचित व्यवस्था कर लें, तो बाढ़ पर नियंत्रण के साथ ही सूखे से निपटने में भी बहुत हद तक कामयाब हो सकेंगे। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि संचित वर्षा जल (Rainwater Harvesting) से भूजल स्तर भी बढ़ जाएगा और जल संकट से बचाव होगा। साथ ही स्वच्छ पेयजल (Clean Drinking Water) की उपलब्धता की स्थिति भी बेहतर हो जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मच्छरों से निपटने के प्रयास

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

वर्ष 2007 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 15 अप्रैल को विश्व मलेरिया दिवस (World Malaria Day) घोषित किया था; उद्देश्य था मलेरिया की रोकथाम (Malaria Prevention) और नियंत्रण (Control) के लिए निरंतर निवेश और निरंतर राजनीतिक प्रतिबद्धता की आवश्यकता पर ज़ोर देना। मॉस्किटोपिया: दी प्लेस ऑफ पेस्ट्स इन ए हेल्दी वर्ल्ड नामक पुस्तक में कहा गया है कि अंटार्कटिका को छोड़कर हर महाद्वीप पर मच्छरों की 3500 से अधिक प्रजातियां (Mosquito Species) पाई जाती हैं। दुनिया में मच्छरों की कुल आबादी में से 12 प्रतिशत से अधिक भारत में है। वर्ष 2015 में जर्नल ऑफ मॉस्किटो रिसर्च (Journal of Mosquito Research) में प्रकाशित एक अध्ययन में बी. के. त्यागी और उनके साथियों ने बताया था कि भारत में मच्छर की 63 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें एनॉफिलीज़ (Anopheles) सबसे प्रमुख है। सर रोनाल्ड रॉस (Sir Ronald Ross) ने हैदराबाद में मलेरिया से पीड़ित मानव रोगी पर पड़ताल करके बताया था कि किस तरह एनॉफिलीज़ मच्छर के काटने से मलेरिया (Malaria Transmission) फैलता है। इसी काम के लिए सर रोनाल्ड रॉस को 1902 में कार्यिकी/चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize in Medicine) दिया गया था।

भारत सरकार के राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग नियंत्रण केंद्र (National Vector Borne Disease Control Programme) ने बताया है कि मच्छरों के काटने से मलेरिया, डेंगू (Dengue), फाइलेरिया (Filariasis), जापानी दिमागी बुखार (Japanese Encephalitis), और चिकनगुनिया (Chikungunya) जैसी बीमारियां फैलती हैं। केंद्र ने दवाओं और टीकों के माध्यम से इन बीमारियों को नियंत्रित करने (Disease Control) और उनसे निपटने के तरीके भी बताए हैं।

भारत में मच्छर अत्यधिक जल-जमाव (Waterlogging) वाले क्षेत्रों, जैसे ओड़िशा, पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों में सबसे अधिक पाए जाते हैं। हालांकि, पुणे, दिल्ली, चेन्नई, और कोलकाता में भी भारी बारिश और पानी के अकुशल प्रबंधन के कारण मच्छरों की आबादी में काफी वृद्धि (Mosquito Population Increase) देखी गई है।

मच्छर खेतों, बाड़ों, गमलों, नालियों, पक्षियों के लिए रखे गए पानी के बर्तनों, टायरों और कूड़ेदान जैसी चीज़ों या जगहों पर भरे थमे हुए पानी में पनपते हैं। इनकी समय-समय पर सफाई (Regular Cleaning) करने से मच्छरों की वृद्धि कम करने में मदद मिलेगी। दी हेल्दी टैलबोट (The Healthy Talbot) वेबसाइट मच्छरों से छुटकारा पाने के कई सरल उपाय (Mosquito Repellents) बताती है। इनमें से कुछ उपाय शहरों और कस्बों में उपयोगी हो सकते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में लोग (जहां चावल/गेहूं की खेती होती है और इस कारण पानी भरा रहता है) कपूर (Camphor) और तुलसी (Basil Leaves) की पत्तियों का उपयोग कर सकते हैं; इन दोनों चीज़ों का उपयोग लोग घरों में पूजा-पाठ में करते हैं। सिट्रोनेला पौधे (Citronella Plant) से प्राप्त तेल मच्छरों को दूर रखने में प्रभावी है। इसी से मच्छर भगाने वाली ओडोमॉस (Odomos) बनाई जाती है जो बाज़ार में सस्ती कीमतों पर उपलब्ध है; यह क्रीम के रूप में और चिपकू पट्टी के रूप में उपलब्ध है।

व्यापक स्तर पर इस्तेमाल किया जाने वाला कीट-भगाऊ एन,एन-डायइथाइल-मेटा-टॉल्यूमाइड (DEET) द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सैनिकों की सुरक्षा के लिए विकसित किया गया था। DEET की रासायनिक संरचना (Chemical Composition) में एक मामूली बदलाव ने इस औषधि को अधिक कारगर (Effective Insect Repellent) बना दिया। बलसारा होम प्रोडक्ट्स के इस स्वदेशी उत्पाद का अध्ययन एक दशक पहले मित्तल और उनके साथियों द्वारा किया गया था (इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च, 2011), जो आज चिपचिप-मुक्त एडवासंस्ड ओडोमॉस (Advanced Odomos) के रूप में बाज़ार में उपलब्ध है। ऐसे और भी अणु (New Molecules) खोजने की ज़रूरत है। उम्मीद है कि कार्बनिक रसायनज्ञ और जैव-रसायनज्ञ (Organic and Biochemists) ऐसे नए अणु संश्लेषित करेंगे जो और भी कार्यकुशल होंगे।

वर्ष 2021 में, WHO ने ग्लैक्सो-स्मिथ-क्लाइन (GSK) और PATH द्वारा निर्मित ‘मॉस्कियूरिक्स (Mosquirix)’ नामक मलेरिया के टीके की चार खुराक शिशुओं को देने की सिफारिश की थी, और इसे अफ्रीका के कुछ हिस्सों में बड़े पैमाने पर उपयोग की अनुमति दी थी। इसका इस्तेमाल दुनिया के किसी और हिस्से में अब तक नहीं किया गया है। भारत में दो बायोटेक फर्म ने मलेरिया के टीकों के निर्माण और आपूर्ति के लिए काम शुरू कर दिया है। भारत बायोटेक (Bharat Biotech), जो पहले से ही मलेरिया से जुड़े कुछ टीकों पर काम कर रही है, ने मॉस्कियूरिक्स की लंबे समय तक आपूर्ति के लिए GSK-PATH के साथ इसकी प्रौद्योगिकी साझा करने के लिए करार किया है। उम्मीद है कि 2026 तक भारत के लोगों के लिए इसका निर्माण और आपूर्ति शुरू हो जाएगी। 2021 में, WHO ने R21/मैट्रिक्स (R21/Matrix) टीके की भी सिफारिश की थी। ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी (Oxford University) के साथ मिलकर सीरम इंस्टीट्यूट (Serum Institute) ने R21/मैट्रिक्स टीके का उत्पादन किया है; इसी जुलाई में पश्चिमी अफ्रीका के कोट डी आइवरी (Côte d’Ivoire) में इस टीके को देने की शुरुआत की गई है, इस तरह यह देश R21/मैट्रिक्स का उपयोग करने वाला पहला देश बन गया है। हमें उम्मीद है कि जल्द ही भारतीयों को भी यह टीका मिलेगा, संभवत: 2026 के विश्व मलेरिया दिवस तक। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वायु प्रदूषण और हड्डियों की कमज़ोरी

भारत में बड़ी संख्या में लोग अधेड़ उम्र से ही घुटने के दर्द (Knee Pain) जैसी समस्याओं से जूझते हैं। कुछ मामलों में तो लोग ठीक से चल भी नहीं पाते या चलते-चलते अक्सर गिर जाते हैं। दरअसल, यह अस्थिछिद्रता (Osteoporosis) नामक स्थिति है जिसमें हड्डियों का घनत्व (Bone Density) कम हो जाता है और वे भुरभरी हो जाती हैं। हल्की-सी टक्कर से उनके टूटने की संभावना बढ़ जाती है। एक बड़ी समस्या यह है कि इस स्थिति पर तब तक किसी का ध्यान नहीं जाता जब तक कोई गंभीर चोट न लग जाए। यह दुनिया भर में 50 से ज़्यादा उम्र की लगभग एक तिहाई महिलाओं और 20 प्रतिशत पुरुषों को प्रभावित करती है। संभव है कि भारत के तकरीबन 6 करोड़ लोग अस्थिछिद्रता से पीड़ित हैं, लेकिन इसके सटीक आंकड़े जुटाना काफी मुश्किल है।

अस्थिछिद्रता के कई कारण होते हैं – जैसे हार्मोनल परिवर्तन (Hormonal Changes), व्यायाम की कमी (Lack of Exercise), मादक पदार्थों का सेवन (Substance Abuse) और धूम्रपान (Smoking)। लेकिन भारत में एक और कारक इसमें योगदान दे रहा है: वायु प्रदूषण (Air Pollution)।

अध्ययनों से पता चलता है कि उच्च प्रदूषण स्तर (High Pollution Levels) वाले क्षेत्रों में अस्थिछिद्रता का प्रकोप अधिक है। भारतीय शहर और गांव अपनी प्रदूषित हवा (Polluted Air) के लिए कुख्यात हैं, इसलिए शोधकर्ता धुंध (Smog) और भंगुर हड्डियों (Brittle Bones) के बीच जैविक सम्बंधों की जांच कर रहे हैं।

ऑस्टियोपोरोसिस (Osteoporosis) शब्द 1830 के दशक में फ्रांसीसी रोगविज्ञानी जीन लोबस्टीन ने दिया था। तब से, वैज्ञानिकों ने हड्डियों की क्षति (Bone Damage) की प्रक्रिया और कई जोखिम कारकों (Risk Factors) की पहचान की है। 2007 में, नॉर्वे में किए गए एक अध्ययन ने पहली बार वायु प्रदूषण और हड्डियों के घनत्व में कमी (Bone Density Loss) के बीच सम्बंध का संकेत दिया था। इसके बाद विभिन्न देशों में किए गए शोध ने भी इस सम्बंध को प्रमाणित किया है।

2017 में इकान स्कूल ऑफ मेडिसिन के डिडियर प्राडा और उनकी टीम ने उत्तर-पूर्वी यूएस के 65 वर्ष से अधिक उम्र के 92 लाख व्यक्तियों के डैटा विश्लेषण में पाया कि महीन कण पदार्थ (PM 2.5) और ब्लैक कार्बन के अधिक संपर्क (Exposure to Black Carbon) में रहने से हड्डियों के फ्रैक्चर (Bone Fractures) और अस्थिछिद्रता की दर में वृद्धि हुई। इसके बाद 2020 में किए गए शोध ने रजोनिवृत्त महिलाओं (Postmenopausal Women) में अस्थिछिद्रता के कारकों की फेहरिस्त में एक अन्य प्रमुख प्रदूषक, नाइट्रोजन ऑक्साइड (Nitrogen Oxides), को जोड़ा।

यूके में, लगभग साढ़े चार लाख लोगों के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला कि अधिक प्रदूषित क्षेत्रों में रहने वालों में फ्रैक्चर का जोखिम (Fracture Risk) 15 प्रतिशत अधिक था। इसी तरह, दक्षिण भारत के एक अध्ययन में पाया गया कि अधिक प्रदूषित गांवों (Polluted Villages) के निवासियों की हड्डियों में खनिज और हड्डियों का घनत्व काफी कम था।

चीन में भी वायु प्रदूषण (Air Pollution in China) और अस्थिछिद्रता के बीच सम्बंध देखा गया है। शैंडोंग प्रांत में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि थोड़े समय के लिए भी यातायात से सम्बंधित प्रदूषकों (Traffic-Related Pollutants) के संपर्क में आने से अस्थिछिद्रता जनित फ्रैक्चर (Osteoporosis-Induced Fractures) का खतरा बढ़ता है। एक अन्य अध्ययन का निष्कर्ष है कि ग्रामीण निवासियों को भी इसी तरह के जोखिमों का सामना करना पड़ता है।

फिलहाल, शोधकर्ता यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि प्रदूषक किस तरह से हड्डियों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसमें एक प्रत्यक्ष कारक ज़मीन के निकट पाई जाने वाली ओज़ोन (Ground-Level Ozone) है, जो प्रदूषण के कारण पैदा होती है। यह विटामिन डी (Vitamin D) के उत्पादन के लिए आवश्यक पराबैंगनी प्रकाश को कम कर सकती है, जो हड्डियों के विकास (Bone Development) के लिए आवश्यक है। कोशिकीय स्तर पर, प्रदूषक से मुक्त मूलक (Free Radicals) बनते हैं जो डीएनए और प्रोटीन को नुकसान पहुंचाते हैं, सूजन (Inflammation) को बढ़ाते हैं और अस्थि ऊतकों के नवीनीकरण (Bone Tissue Renewal) में बाधा डालते हैं।

ये निष्कर्ष भारत के लिए महत्वपूर्ण हैं, जहां 1998 से 2021 तक कणीय वायु प्रदूषण (Particulate Air Pollution) लगभग 68 प्रतिशत बढ़ा है। जीवाश्म ईंधन (Fossil Fuels) और कृषि अवशेषों (Agricultural Residue Burning) को जलाने के साथ-साथ चूल्हों पर खाना पकाने से समस्या बढ़ जाती है। आज भी कई भारतीय महिलाएं पारंपरिक चूल्हे (Traditional Stove Cooking) पर खाना बनाती हैं, जिससे उनकी हड्डियों की हालत खस्ता हो सकती है।

प्रदूषण और अस्थिछिद्रता के बीच इस सम्बंध से प्रदूषण कम करने (Pollution Control) के लिए प्रभावी कार्रवाई की आवश्यकता स्पष्ट है। इसके अतिरिक्त, अस्थिछिद्रता के निदान (Osteoporosis Diagnosis) को बेहतर करना ज़रूरी है। अस्थि घनत्व की जांच (Bone Density Test) के लिए ज़रूरी DEXA स्कैनरों की भारी कमी है, जो महंगे हैं और मात्र बड़े शहरों में उपलब्ध हैं। समय पर समस्या का पता चलने से हड्डियों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है। फिलहाल अस्थिछिद्रता से पीड़ित बहुत से लोग बिना निदान और इलाज (Osteoporosis Treatment) के तकलीफ झेलते हैं, जो वायु प्रदूषण जैसे पर्यावरणीय कारकों (Environmental Factors) से और भी बढ़ जाती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्लेसिबो प्रभाव क्या है, दर्द कैसे कम करता है

शोधकर्ता लंबे समय से प्लेसिबो प्रभाव (Placebo) से हैरान हैं। प्लेसिबो का मतलब है कि किसी मरीज़ को दवा के नाम पर कोई गोली दी जाए (Placebo Pill) और इससे मरीज़ को तकलीफ से राहत महसूस हो। सवाल यह रहा है कि किसी औषधि के बिना भी राहत कैसे मिलती है। हाल ही में चूहों पर हुए एक अध्ययन (Research on Mice) से इस घटना के पीछे मस्तिष्क तंत्र सम्बंधित नई जानकारी प्राप्त हुई है।

नेचर पत्रिका (Nature Journal) में प्रकाशित एक अध्ययन में, वैज्ञानिकों ने चूहों में दर्द-राहत (Pain Management) को समझने के लिए मस्तिष्क की गतिविधि को समझने का प्रयास किया है, जिससे मानव प्लेसिबो प्रभाव (Human Placebo Effect) को भी समझने में मदद मिल सकती है। शोधकर्ताओं ने पाया कि मस्तिष्क के सेरिबेलम (Cerebellum) और ब्रेनस्टेम (Brainstem) नामक हिस्से, जिन्हें आम तौर पर शारीरिक गतियों (Motor Coordination) से जुड़ा माना जाता है, दर्द के अनुभव और राहत में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

हारवर्ड विश्वविद्यालय के तंत्रिका विज्ञानी क्लिफर्ड वूल्फ के अनुसार इस अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि प्लेसिबो प्रभाव एक वास्तविक परिघटना है।

पूर्व में मनुष्यों पर किए गए इमेजिंग अध्ययनों से पता चला है कि प्लेसिबो-आधारित दर्द निवारण ब्रेनस्टेम और एंटीरियर सिंगुलेट कॉर्टेक्स (Anterior Cingulate Cortex) में तंत्रिका-सक्रियता से सम्बंधित है। इस पर अधिक जांच करते हुए चैपल हिल स्थित उत्तरी कैरोलिना विश्वविद्यालय के तंत्रिका-जीव वैज्ञानिक ग्रेगरी शेरर और उनकी टीम ने चूहों में दर्द निवारण के लिए प्लेसिबो जैसा प्रभाव उत्पन्न करने के उद्देश्य से एक प्रयोग विकसित किया।

उन्होंने कुछ चूहों को इस तरह तैयार किया कि वे प्लेसिबोनुमा दर्द निवारण की अपेक्षा (Pain Relief Expectation) करने लगें। उन चूहों को सिखाया गया कि तपते गर्म फर्श वाले प्रकोष्ठ से हल्के गर्म फर्श वाले प्रकोष्ठ में जाने से राहत मिलती है। इसके बाद प्रयोग में दोनों फर्शों को अत्यधिक गर्म (Extreme Heat) रखा गया। इसके बावजूद चूहों ने जब उस कक्ष में प्रवेश किया जो पहले ठंडा (Cold Room) रखा गया था, तो उन्होंने दर्द-सम्बंधी व्यवहार कम दर्शाया जबकि अब उसका फर्श भी दर्दनाक स्तर तक गर्म था।

लाइव-इमेजिंग टूल (Live-Imaging Tool) का उपयोग करते हुए, शोधकर्ताओं ने प्रयोग के दौरान सक्रिय तंत्रिकाओं की पहचान की। इसमें एक प्रमुख क्षेत्र पोंटाइन न्यूक्लियस (Pontine Nucleus) का पता चला जो ब्रेनस्टेम का एक हिस्सा है और पूर्व में दर्द से सम्बंधित नहीं माना जाता था। Pn सेरेब्रल कॉर्टेक्स को सेरेबेलम से जोड़ता है। इन तंत्रिकाओं की गतिविधि को अवरुद्ध करने से चूहों ने गर्म फर्श पर दर्द से राहत पाने की कोशिश का व्यवहार ज़्यादा जल्दी दर्शाया – जैसे पंजा चाटना और पैर को फर्श से दूर करना। इससे पता चलता है कि वे दर्द में वृद्धि का अनुभव कर रहे थे। दूसरी ओर, सक्रिय Pn न्यूरॉन्स वाले चूहों ने ऐसा व्यवहार देरी से दर्शाया था।

Pn तंत्रिकाओं के आगे विश्लेषण से पता चला कि 65 प्रतिशत तंत्रिका कोशिकाओं में ओपियोइड ग्राही (Opioid Receptors) थे, जो शरीर में प्राकृतिक रूप से बनने वाले दर्द निवारकों (Endogenous Painkillers) और शक्तिशाली दर्द दवाओं (Strong Analgesics) पर प्रतिक्रिया करते हैं। ये तंत्रिका कोशिकाएं सेरिबेलम के तीन हिस्सों में फैली हुई होती हैं। यह दर्द से राहत की अपेक्षा (Placebo Effect) में इस क्षेत्र की एक नई भूमिका दर्शाती हैं।

इस खोज से दर्द के उपचार (Pain Therapy) को समझने और विकसित करने के तरीके में बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। वूल्फ का सुझाव है कि यह अध्ययन प्लेसिबो गोलियों पर निर्भर हुए बिना, शरीर के अपने दर्द नियंत्रण तंत्र (Pain Control Mechanisms) को अधिक मज़बूती से सक्रिय करने के तरीके खोजने में मदद कर सकता है।

इस शोध से यह समझने में भी मदद मिल सकती है कि संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (Cognitive Behavioral Therapy) और ट्रांसक्रैनियल चुंबकीय उद्दीपन (Transcranial Magnetic Stimulation) जैसे कुछ दर्द उपचार (Pain Treatment Methods) क्यों प्रभावी हैं। इन मस्तिष्क परिपथों को समझने से अधिक लक्षित और प्रभावी दर्द निवारण विधियां तैयार की जा सकती हैं।

हालांकि, एक सवाल अभी भी बना हुआ है कि कौन सी चीज़ प्लेसिबो प्रभाव को शुरू करती है और यह व्यक्ति-दर-व्यक्ति (Person-to-Person) अलग-अलग क्यों है। वूल्फ ने इसे समझने के लिए अधिक शोध की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है। (स्रोत फीचर्स)

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