विचित्र बैक्टीरिया नए जीन्स बनाते हैं

म तौर पर जेनेटिक सूचना एक ही दिशा में बहती है – डीएनए नामक अणु में जीन्स होते हैं, ये जीन्स एक सांचे की तरह काम करते हैं और एक अन्य अणु आरएनए का निर्माण करते हैं और आरएनए प्रोटीन बनवाता है। डीएनए से आरएनए बनने की प्रक्रिया को ट्रांसक्रिप्शन कहते हैं और यह जिन एंज़ाइमों के दम पर चलती है उन्हें ट्रांसक्रिप्टेस कहते हैं। यह सीधी-सरल कथा 1970 में पेचीदा हो गई। उस साल वैज्ञानिकों ने खोजा कि कुछ वायरसों में रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेस नामक एंज़ाइम होता है। और यह एंज़ाइम उपरोक्त एकदिशीय प्रक्रिया को उल्टा चला सकता है यानी आरएनए से डीएनए बनवा सकता है।

अब नई खोज से इसमें एक और पेंच आ गया है। रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेस का बैक्टीरिया संस्करण खोजा गया है। यह आरएनए अणु का इस्तेमाल सांचे के रूप में करके डीएनए में सर्वथा नए जीन्स जोड़ सकता है। ट्रांसक्रिप्शन के ज़रिए ये जीन फिर से आएनए में बदल सकते हैं और प्रोटीन का निर्माण करवा सकते हैं। ऐसे प्रोटीन का निर्माण तब किया जाता है जब कोई वायरस बैक्टीरिया को संक्रमित कर दे। यहां बताना मुनासिब है कि वायरस का रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेस नए जीन्स का निर्माण नहीं करता; वह तो मात्र आरएनए में लिखी सूचना को डीएनए में बदलता है।

एक मायने में यह बैक्टीरिया के सुरक्षा तंत्र का हिस्सा है। वायरस संक्रमण के विरुद्ध बैक्टीरिया की एक और सुरक्षा व्यवस्था होती है जो आजकल क्रिस्पर नामक जीन संपादन तकनीक के रूप में मशहूर है। इस तकनीक से बैक्टीरिया वायरस के डीएनए/आरएनए के कुछ अंशों को अपने डीएनए में जोड़ लेता है और फिर ये उस वायरस की पहचान में काम आते हैं।

जिस नई व्यवस्था की खोज हुई है वह थोड़ी ज़्यादा रहस्यमय है। इस तंत्र की कार्यविधि का खुलासा कोलंबिया विश्वविद्यालय के स्टीफन टैंग और सैमुअल स्टर्नबर्ग ने किया है। यह देखा गया था कि कतिपय बैक्टीरिया के डीएनए में एक जीन होता है जो रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेस का कोड होता है और आरएनए का छोटा-सा खंड होता है जिसका कोई प्रकट काम नहीं होता यानी यह किसी प्रोटीन का निर्माण नहीं करवाता। टैंग और स्टर्नबर्ग ने क्लेबसिएला न्यूमोनिए (Klebsiella pneumoniae) में रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेस द्वारा बनाए गए डीएनए अणु की तलाश की। पता चला कि यह डीएनए की अति दीर्घ शृंखला थी जिसमें एक सरीखे खंड बार-बार दोहराए गए थे और प्रत्येक खंड का अनुक्रम उस रहस्यमय आरएनए के खंडों से मेल खाता था।

ऐसा कैसे होता है? शोधकर्ताओं का मत है कि लंबे-लंबे आरएनए सूत्र मुड़कर हेयरपिन का आकार ग्रहण कर सकते हैं। ऐसा होने पर एक ही शृंखला के दो दूर-दूर के खंड पास-पास आ जाते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि क्लेबसिएला न्यूमोनिए का ट्रांसक्रिप्टेस इस आरएनए शृंखला को डीएनए में तबदील करते समय बार-बार उसी स्थान की नकल बनाता है और इस तरह दोहराव वाली डीएनए शृंखला बन जाती है।

इस तरह बनी दोहराव वाली शृंखला प्रोटीन-कोडिंग शृंखला बन जाती है जिसमें प्रोटीन निर्माण के समापन को दर्शाने वाला कोई संकेत नहीं होता – इसलिए इसे ओपन रीडिंग फ्रेम कहते हैं और शोधकर्ताओं ने इस शृंखला को नाम दिया है नेवर एंडिंग ओपन रीडिंग फ्रेम (neo – नीयो)। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि वायरस का संक्रमण नीयो प्रोटीन के निर्माण को प्रेरित करता है। इस प्रोटीन का असर यह होता है कि उस प्रोटीन से युक्त कोशिका विभाजन करना बंद कर देती है। इससे तो लगता है कि यह उस कोशिका के लिए एक नया प्रोटीन है। अर्थात यहां रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेस की मदद से एक सर्वथा नया जीन बैक्टीरिया के जीनोम में जुड़ रहा है। यह खोज जीव विज्ञान में एक नई कार्य प्रणाली की उपस्थिति का संकेत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जैव विकास का चक्र

हाल ही में साइन्स एडवांसेस में प्रकाशित एक अध्ययन में एक कीट की विभिन्न आबादियों का 10 वर्षों तक अध्ययन करके इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि कैसे जैव विकास के चक्र का नियमन होता है।

स्टिक इंसेक्ट नामक यह कीट (Timema cristinae) कैलिफोर्निया के जंगलों में बहुतायत में पाया जाता है। वहां यह तीन रूपों में मिलता है और तीनों रूप अपने परिवेश में ओझल होने में सक्षम होते हैं। एक रूप सादा हरा होता है और लिलैक की पत्तियों के बीच आसानी से छिप जाता है। इसी के एक रूप पर सफेद धारियां होती हैं और यह वहां के जंगलों में पाई जाने वाली सदाबहार चैमाइज़ झाड़ियों में छिपता है। तीसरा रूप गहरे रंग का होता है और दोनों वनस्पतियों पर पाया जाता है लेकिन इसका गहरा रंग जंगल के फर्श से ज़्यादा मेल खाता है।

अध्ययन के दौरान सबसे पहली बात तो यह स्पष्ट हुई कि जिन 10 आबादियों का अध्ययन किया गया था उनमें हरे रंग वाला कीट लिलैक बहुल इलाकों में ज़्यादा पाया जाता है जबकि धारीदार रूप चैमाइज़ इलाकों में। गहरे रंग वाला कीट कम मिलता है और दोनों ही तरह के पेड़ों पर मिलता है। यह तो कोई अचरज की बात नहीं थी लेकिन फ्रांस की राष्ट्रीय शोध संस्था सीएनआरएस के पैट्रिक नोसिल और उनके साथियों द्वारा किए गए इस अध्ययन का अगला अवलोकन चौंकाने वाला था।

देखा यह गया कि सारी 10 आबादियों में उपरोक्त अनुपात साल-दर-साल एक चक्र के रूप में बदलता है जिसका पूर्वानुमान किया जा सकता है। 10 साल के इस अध्ययन में देखा गया कि जो रूप एक वर्ष प्रचुरता में पाया जाता है, वह अगले वर्ष कम हो जाता है – जैसे, यदि किसी वर्ष धारीदार कीट अधिक संख्या में हैं तो अगले वर्ष सादे हरे रंग वाले कीट का बोलबाला होगा। गहरे रंग वाले कीटों की संख्या अपेक्षाकृत स्थिर बनी रही।

नोसिल की टीम ने कीट-रूपों को यहां-वहां बसाकर उनके अनुपात को बदलकर भी देखा। इस प्रयोग से उनका निष्कर्ष है कि किसी कीट-रूप के लिए बिरला होना फायदेमंद होता है। शायद इसलिए कि पक्षी अपने भोजन में उन कीटों को प्राथमिकता देते हैं जो प्रचुरता से उपलब्ध हों, जिसके चलते अगली पीढ़ी में उनकी संख्या कम हो जाती है। तब पक्षी अपना शिकार बदल देते हैं और चक्र चलता रहता है। जीव वैज्ञानिक इसे प्रचुरता-आधारित नकारात्मक चयन कहते हैं। यह कई प्रजातियों में देखा गया है।

कीटों के जेनेटिक विश्लेषण में पाया गया कि उनके पैटर्न में परिवर्तन उनके जीनोम में व्यापक उलट-पलट के ज़रिए होता है। दरअसल पर्यावरण के असर से ऐसे फेरबदल पहले भी रिपोर्ट किए गए हैं। जैसे स्टिकलबैक नामक मछलियां जब खारे पानी से मीठे पानी की ओर जाती हैं, तो उन सबमें एक से जेनेटिक परिवर्तनों के ज़रिए एक-से शारीरिक व कार्यिकीय परिवर्तन होते हैं। यह भी देखा गया है कि कतिपय एंटीबायोटिक के संपर्क में आने पर बैक्टीरिया जीवित रहने के लिए एक-से जेनेटिक परिवर्तनों का सहारा लेते हैं। खास बात यह है कि वर्तमान अध्ययन में इसे प्राकृतिक परिस्थितियों में देखा गया है। (स्रोत फीचर्स)

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छलांग लगाती जोंक

जोंक अपने चिपकूपने के लिए जानी जाती हैं। लेकिन शोधकर्ताओं द्वारा हाल ही में खोजी गई एक जोंक प्रजाति की खासियत है हवा में छलांग लगाना।

मेडागास्कर में खोजी गई यह जोंक (Chtonobdella fallax) यहां काफी पाई जाती है। शोधकर्ता बायोट्रॉपिका में इसकी छलांग के बारे में बताते हैं कि यह किसी पत्ती या झाड़ी पर से ज़मीन पर छलांग लगाने के लिए पहले तो किसी सांप की तरह पीछे की ओर सरकती है, और फिर सीधे तनकर अपने शरीर को आगे की ओर फेंकते हुए ज़मीन पर कूद जाती है। थोड़ी ही देर की रिकॉर्डिंग में शोधकर्ताओं ने इसे तीन बार यह करतब करते देखा, जिसके आधार पर उनका कहना है कि जोंक की यह प्रजाति संभवत: अक्सर छलांग लगाती होगी।https://www.amnh.org/explore/news-blogs/research-posts/leaping-leeches इस लिंक पर जाकर आप इसकी दिलचस्प कलाबाज़ी देख सकते हैं।

यह बहस सालों से चली आ रही थी कि ज़मीन पर रहने वाली जोंक अपने मेज़बानों पर कूद सकती हैं या नहीं। जोंक के इस व्यवहार के लिखित किस्से तो लगभग 14वीं सदी से मिलते हैं। लेकिन इन किस्सों की सच्चाई का कोई ठोस प्रमाण नहीं था। अब वैज्ञानिकों के पास छलांग लगाती जोंक के वीडियो हैं।

इनके बारे में तो अभी तो पता ही चला है। ये ऐसा व्यवहार क्यों प्रदर्शित करती हैं, क्या अपने मेज़बानों पर कूदने के लिए छलांग लगाती हैं या कोई और कारण है, उनका भोजन कौन से जानवर हैं? इन सभी सवालों के जवाब अभी अनुत्तरित हैं और शोधकर्ता इनके जवाब खोजने के लिए आगे अध्ययन कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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लकड़ी का उपग्रह!

1957 में पहले कृत्रिम उपग्रह के प्रक्षेपण के बाद पृथ्वी की कक्षा, खासकर लो अर्थ ऑर्बिट (LEO), में उपग्रहों की भरमार हो गई है; अब तक तकरीबन 14,450 उपग्रह पृथ्वी की विभिन्न कक्षाओं में छोड़े जा चुके हैं।

लेकिन ये सभी उपग्रह हमेशा सक्रिय या ‘जीवित’ नहीं रहते। अपनी तयशुदा उम्र या काम के बाद वे ‘मर’ जाते हैं। बेकार पड़ चुके उपग्रहों को वहां से हटाना होता है वरना वे अंतरिक्ष में बढ़ रही उपग्रहों की भीड़ और मलबे को और बढ़ाएंगे। इसलिए पृथ्वी की भूस्थैतिक कक्षा में स्थापित उपग्रहों को धक्का देकर अधिक ऊंचाई की ‘कब्रस्तान कक्षा’ में भेज दिया जाता है, हालांकि इस तरह अंतरिक्ष में मलबा तो बरकरार ही रहता है। वहीं पृथ्वी की करीबी कक्षा में स्थापित उपग्रहों को धीमा किया जाता है। रफ्तार धीमी पड़ने पर ये पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करते हैं, और जलकर नष्ट हो जाते हैं। लेकिन जलकर नष्ट होने से इनमें से एल्यूमीनियम ऑक्साइड और अन्य धातु कण वायुमण्डल में फैल जाते हैं, जो खतरा साबित हो सकते हैं।

जियोफिज़िकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि 250 किलोग्राम का एक उपग्रह वायुमण्डल में जलने पर करीब 30 किलोग्राम एल्यूमीनियम ऑक्साइड छोड़ता है। पाया गया है कि वर्ष 2022 में उपग्रहों को इस तरह ठिकाने लगाने के चलते वायुमण्डल में एल्यूमीनियम ऑक्साइड की मात्रा में 29.5 प्रतिशत (17 मीट्रिक टन) की वृद्धि हुई है। भविष्य में उपग्रह प्रक्षेपण की योजना के आधार पर अनुमान है कि वायुमण्डल में प्रति वर्ष करीब 360 मीट्रिक टन एल्यूमीनियम ऑक्साइड की वृद्धि होगी। नतीजतन ओज़ोन परत को क्षति पहुंचेगी।

इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए क्योटो युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने लकड़ी का उपग्रह, लिग्नोसैट (LignoSat), बनाया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि लिग्नोसैट पारंपरिक उपग्रहों में इस्तेमाल की जाने वाली धातुओं की तुलना में अधिक टिकाऊ और कम प्रदूषणकारी है। शोधकर्ताओं का कहना है कि अपना काम समाप्त कर जब यह पृथ्वी पर वापस आएगा तो इसकी लकड़ी पूरी तरह से जल जाएगी और केवल जलवाष्प और कार्बन डाईऑक्साइड वायुमण्डल में मुक्त होगी। लकड़ी से उपग्रह बनाने का जो एक और फायदा दिखाई देता है वह है कि यह अंतरिक्ष के पर्यावरण को झेल सकता है और रेडियो तरंगों को अवरुद्ध नहीं करता है, जिसके चलते एंटीना को इसके अंदर लगाया जा सकता है।

घनाकार लिग्नोसैट की लंबाई-चौड़ाई-ऊंचाई लगभग 10-10 सेंटीमीटर है। इसका ढांचा मैग्नोलिया लकड़ी का बनाया गया है। इस पर सौर पैनल, सर्किट बोर्ड और सेंसर लगाए गए हैं जिनकी मदद से लकड़ी पर पड़ रहे दबाव, तापमान, भू-चुंबकीय बलों और विकिरण को मापा जाएगा। साथ ही साथ इससे रेडियो सिग्नल भेजने और प्राप्त करने की क्षमता का परीक्षण भी किया जाएगा। इसकी तख्तियों को जोड़ने के लिए गोंद या स्क्रू की बजाय लकड़ी जोड़ने की पारंपरिक जापानी विधि से एल्यूमीनियम के फ्रेम में कसा गया है।

लिग्नोसैट को इस साल सितम्बर में प्रक्षेपित किया जाएगा। उपग्रह की लकड़ी की तख्तियां वास्तविक परिस्थितियों में कितना कारगर रहती हैं यह तो कक्षा में पहुंचकर काम शुरू करने के बाद ही अच्छे से स्पष्ट होगा। यदि सफल रहा तो भावी अंतरिक्ष मिशनों में लकड़ी के उपयोग की संभावना बढ़ सकती है।

हालांकि लिग्नोसैट जलने पर मात्र जलवाष्प और कार्बन डाईऑक्साइड ही छोड़ता है लेकिन कार्बन डाईऑक्साइड की समस्याओं से भी हम भलीभांति अवगत हैं। इसलिए बड़े पैमाने पर लकड़ी-उपग्रहों के उपयोग के पर्यावरणीय असर का आकलन भी ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन चूल्हों से काल निर्धारण

स्पेन के एक पुरातात्विक स्थल एल साल्ट पर पुरातत्वविदों को निएंडरथल मानव के लगभग 52,000 साल पुराने साक्ष्य मिले थे; पत्थर के औज़ार, जानवरों की हड्डियां, चूल्हे और मानव मल का (सबसे प्राचीन ज्ञात) जीवाश्म। ये साक्ष्य मिट्टी की एक ही परत में मिले थे। लिहाज़ा, वैज्ञानिकों का मानना था कि निएंडरथल (होमो निएंडरथलेंसिस) मानव लगभग एक ही समय पर यहां आए थे, और अपने पीछे ये निशान छोड़ गए थे।

लेकिन साक्ष्यों या घटनाओं को इस तरह मोटे तौर पर एक ही समय का कहने से वास्तविक इतिहास दबा ही रहता है। दूसरा, प्राचीन समय में संभवत: एक लंबी अवधि में या समय के साथ धीरे-धीरे घटित हुई घटना, या विकसित हुई तकनीक एक चुटकी में हुए चमत्कार की तरह लगने लगती है।

इन्हीं कारणों के चलते बर्गोस विश्वविद्यालय की पुरातत्वविद एंजेला हेरेजोन-लैगुनिला ने इस स्थल पर मिले चूल्हों का सटीक कालनिर्धारण करने का सोचा। इसके लिए उन्होंने चूल्हों में बचे चुंबकीय खनिजों (अवशेषों) का विश्लेषण किया। दरअसल, चूल्हों के बुझने पर राख या अवशेष में मौजूद चुंबकीय खनिजों में पृथ्वी के तत्कालीन चुंबकीय क्षेत्र की दिशा दर्ज हो जाती है और बनी रहती है जब तक कि उस पदार्थ को फिर से एक निश्चित तापमान से ऊपर तपाया न जाए।

विश्लेषण के लिए शोधकर्ताओं ने पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में हुए हालिया बदलावों के आधार पर लगभग 52,000 साल  पहले पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में हुए सूक्ष्म परिवर्तनों का मॉडल तैयार किया। और इस जानकारी की मदद से यह अनुमान लगाया कि कौन से चूल्हे अंतिम बार कब उपयोग किए गए थे।

नेचर पत्रिका में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि इस स्थल पर सबसे पहली और सबसे आखिरी बार उपयोग किए गए चूल्हों के बीच कम से कम 200 साल का अंतर था। इसमें भी अलग-अलग चूल्हों के इस्तेमाल होने के बीच दशकों लंबा फासला था। इससे पता चलता है कि निएंडरथल मानव की कई पीढ़ियां लंबे समय तक इस जगह पर आती रहीं थीं।

ये नतीजे वैज्ञानिकों को पत्थर के औज़ारों सहित अन्य मानव साक्ष्यों को नए सिरे से समझने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। काल निर्धारण की इस तकनीक के व्यापक इस्तेमाल से प्राचीन मनुष्यों के रहने, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने और समूहों में संगठित होने एवं औज़ारों के इस्तेमाल बारे में नए सिरे से, बारीकी से जानकारी मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु संकट पर कार्रवाई की तत्काल आवश्यकता

ई वर्षों से वैज्ञानिक वैश्विक तापमान में वृद्धि और पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस की ऊपरी सीमा को लेकर निरंतर चेतावनी देते आए हैं। हालिया स्थिति देखें तो पिछले 11 महीनों (जुलाई 2023 से मई 2024) का औसत तापमान निरंतर इस निर्धारित सीमा से ऊपर रहा है। युरोपीय संघ के कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस का दावा है कि पिछले महीने (मई 2024) का तापमान पूर्व-औद्योगिक औसत से 1.52 डिग्री अधिक था।

विश्व मौसम संगठन के अनुसार 80 प्रतिशत संभावना है कि अगले पांच वर्षों में से कोई एक वर्ष ऐसा होगा जब औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाएगा जबकि 2015 में ऐसा होने की संभावना लगभग शून्य थी।

हालांकि, तापमान में इन अस्थायी उछालों का मतलब यह नहीं है कि हम हमेशा के लिए 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर गए हैं। पेरिस जलवायु समझौते का उद्देश्य दीर्घकालिक औसत तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना है। इसमें यह स्पष्ट नहीं है कि वृद्धि के आकलन में समय का पैमाना क्या होगा।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा है कि यदि हम जमकर काम करें तो 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा अभी भी हासिल की जा सकती है; ज़रूरत है ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए कड़ी मेहनत की।

1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को पूरा करने का सबसे उचित तरीका उत्सर्जन में भारी कटौती करना है। इसके लिए विशेषज्ञों का मत है कि वैश्विक उत्सर्जन 2025 तक चरम पर पहुंचकर कम होने लगना चाहिsए। इसे 2030 तक 42 प्रतिशत कम हो जाना चाहिए और 2050 तक नेट-ज़ीरो। फिलहाल तो हम इस मंज़िल से बहुत दूर हैं, क्योंकि वैश्विक स्तर पर हम हर साल लगभग 40 अरब मीट्रिक टन कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित कर रहे हैं।

इस मामले में जलवायु विशेषज्ञ जिम स्की का मानना है कि कभी-कभार 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान बढ़ना लगभग अपरिहार्य है। हालांकि, उचित प्रयासों से तापमान को इस सीमा से नीचे लाना संभव है। ऐसा न करने पर समुद्र का जलस्तर बढ़ने और कई प्रजातियों के विलुप्त होने जैसी अपरिवर्तनीय घटनाएं घट सकती हैं। इसके अलावा, 1.5 डिग्री सेल्सियस से थोड़ी भी वृद्धि छोटे द्वीप देशों और तटीय समुदायों के लिए बहुत गंभीर परिवर्तन ला सकती है। इसलिए, इस सीमा में किसी भी तरह की वृद्धि और उसकी अवधि को कम करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

बहरहाल, चुनौती तो वास्तव में बहुत बड़ी है, लेकिन अभी भी हमारे पास मौका है। भविष्य की पीढ़ियों के लिए ग्रह को तभी सुरक्षित किया जा सकता है जब वैश्विक उत्सर्जन में तत्काल और पर्याप्त कमी की जाए। (स्रोत फीचर्स)

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संगीत का जन्म और विकास

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

त 21 जून को सालाना विश्व संगीत दिवस मनाया गया। यह मौका है इस बात को समझने का कि प्राचीन समय से अब तक संगीत और ताल कैसे विकसित हुए। क्योटो विश्वविद्यालय के प्रायमेट रिसर्च इंस्टीट्यूट के युको हटोरी और मसाकी टोमोनागा का अध्ययन बताता है कि जब चिम्पैंजियों के समूह को एक धुन सुनाई जाती थी तो वे लयबद्ध ढंग थिरकने लगते थे! हालांकि, उनके स्वर यंत्र (वोकल कॉर्ड) गायन के लिए विकसित नहीं हुए हैं; वे केवल गुर्रा सकते हैं। लेकिन उक्त अध्ययन दर्शाता है कि हम मनुष्यों को वानरों से मात्र हमारे कई जीन्स और रक्त समूह विरासत में नहीं मिले हैं, बल्कि हमारी लय-ताल की समझ भी मिली है!

तो फिर, हम मनुष्यों ने गाना और वाद्ययंत्र बजाना कब शुरू किया? शोधकर्ताओं ने यह बताया है कि मनुष्यों ने बोलना पुरा-पाषाण युग (जो 25 लाख साल पहले से 10,000 ईसा पूर्व तक माना जाता है) के दौरान शुरू किया, और उसके थोड़े समय बाद ‘गाना’ शुरू किया। मनुष्यों में गाने और बजाने की क्षमता के प्रमाण लगभग 40,000 साल पहले से मिलते हैं; वैज्ञानिकों को लगभग 40,000 साल पुरानी एक बांसुरी मिली है जो जानवर की हड्डी से बनाई गई थी। इसमें ‘सुर’ बजाने के लिए पांच छेद हैं। निम्नलिखित साइट्स पर जाकर इसका पूरा लुत्फ उठाएं:

https://www.science.org/content/article/ancient-flutes-suggest-rich-life-stone-age-europe

https://www.classicfm.com/discover-music/instruments/flute/worlds-oldest-instrument-neanderthal-flute

राग और ताल

संगीत का वास्तविक लिपिबद्ध रूप युरोप और मध्य पूर्व में संभवत: 9वीं शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान सूक्त (Hymns) गायन और वादन के लिए हुआ था। इस संगीत लिपि में संकेतों (‘do, re, ma, fa, po, la, ti’) के बीच रिक्त स्थान होते थे। ऐसा माना जाता है कि भारत में वैदिक काल (1500-600 ईसा पूर्व) में सुरों (‘सा, रे, गा, मा, प, ध, नी’) का चिह्नाकंन हुआ था। डॉ. जमीला सिद्दीकी लिखती हैं कि हमारे पास ‘सा, रे, गा, मा, प, ध, नी’ सुर थे। आप इन्हें एम. एस. सुब्बलक्ष्मी को राग जगनमोहिनी में ‘सोबिलु सप्तस्वर’ गाते हुए और संत त्यागराज द्वारा रचित ‘रूपक ताल’ में सुन सकते हैं। तब से लेकर अब तक हमने ज्यामितीय और शास्त्रीय तरीके से सुरों को व्यवस्थित करके संगीत में काफी प्रगति कर ली है और अपने संगीत के रस को आगे बढ़ाया है।

लेकिन ज़रूरी नहीं है कि आप सिर्फ शास्त्रीय संगीत के कदरदान या श्रोता रहें और सिर्फ एम. एस. सुब्बलक्ष्मी, बिस्मिल्लाह खान, बाख, बीथोवेन या मोज़ार्ट को ही सुनें। आप जैज़, कव्वाली, सुगम और फिल्मी संगीत को भी सुनने का आनंद ले सकते हैं, जैसा कि कई लोग करते हैं। वे भी सप्तक या कुछ सुरों और ताल-संगत के साथ निबद्ध किए गए होते हैं। समूचे देश, यहां तक कि समूची दुनिया में लोग लोकसंगीत को चाव से सुनते हैं। हाल ही में साइंटिफिक अमेरिकन में एलिसन पार्शल की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। इसमें बताया गया है कि दुनिया के अलग-अलग इलाकों में  लोकगीत लगभग एक समान हैं और इनके लहजे और तान के कारण लोग इन्हें सुनने का आनंद लेते हैं।

संगीत के लाभ

जब आप संगीत सुनते हैं, तो आपका स्वास्थ्य सुधरता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि संगीत प्रार्थना/भजन है, गायन है या वादन, शास्त्रीय है या पारंपरिक, लोकप्रिय है या फिल्मी गीत है। जॉन्स हॉपकिन्स युनिवर्सिटी की वेबसाइट कहती है कि अगर आप अपने दिमाग को जवां रखना चाहते हैं, तो गाएं-बजाएं या संगीत सुनें। गाना या बजाना सीखने से एकाग्रता, याददाश्त, मूड और जीवन की गुणवत्ता में सुधार होता है। यह बात स्कूल और कॉलेज जाने वालों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। कहते हैं, संगीत सीखना या सुनना बुज़ुर्गों को वृद्धावस्था से जुड़ी समस्याओं से बचने में भी मदद करता है।

भारत में कई संगीत अकादमियां हैं, जो समय-समय पर संगीत उत्सव आयोजित करती हैं। यहां हम स्थापित संगीतकारों और युवा कलाकारों को कर्नाटक, हिंदुस्तानी और पश्चिमी शैलियों में गाते-बजाते सुन सकते हैं। तो इन उत्सवों में जाएं और संगीत का आनंद उठाएं! (स्रोत फीचर्स)

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शॉपिंग वेबसाइट्स पर पंखों और एसी का बाज़ार सर्वेक्षण

आदित्य चुनेकर, अभिराम सहस्रबुद्धे

भारत में भीषण गर्मी पड़ी है। लोग गर्मी से राहत पाने के लिए अपने घरों, दुकानों और दफ्तरों के लिए पंखे, एयर कंडीशनर (एसी) और कूलर खरीदते हैं। ये उपकरण बिजली की मांग को बढ़ा देते हैं। भारतीय घरों की कुल वार्षिक बिजली खपत में कूलिंग (शीतलन) उपकरणों का योगदान लगभग 50 प्रतिशत है। आजकल काफी खरीदी ई-शॉपिंग के ज़रिए हो रही है।

कम ऊर्जा कुशल कूलिंग उपकरणों की तुलना में ऊर्जा कुशल कूलिंग उपकरणों की बिजली खपत आधी से भी कम हो सकती है। इससे बिजली के बिल में भारी कमी आ सकती है और साथ ही अत्यधिक भार झेल रही बिजली व्यवस्था को भी राहत मिल सकती है।

ऐसा अनुमान है कि कंज़्यूमर ड्यूरेबल (टिकाऊ उपभोग) वस्तुओं के बाज़ार में लगभग 60 प्रतिशत बिक्री पर ‘डिजिटल प्रभाव’ होता है। इसमें सीधे ऑनलाइन बिक्री के साथ-साथ वह बिक्री भी शामिल है जिसमें खरीदार वस्तु तो दुकान से खरीदते हैं लेकिन खरीदने से पहले इंटरनेट पर छानबीन कर लेते हैं।

इस संदर्भ में, हमने भारत के दो प्रमुख ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर 224 एसी सूचियों और 153 सीलिंग-पंखा सूचियों में दी गई जानकारी एवं विवरण का सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण नमूनों में शामिल एसी 1.5 टन और स्प्लिट प्रकार के थे और पंखे 1200 मिमी स्वीप साइज़ (पंखुड़ी की लंबाई) वाले थे; दोनों सर्वाधिक खरीदे जाने वाले प्रकार हैं। हम यह देखना चाहते थे कि क्या इन वेबसाइटों से खरीदारों को ऊर्जा दक्षता पर स्पष्ट और प्रासंगिक जानकारी मिलती है। हमने ऊर्जा दक्षता वाले मॉडलों की कीमतों में फर्क की भी जांच की। यह सर्वेक्षण अप्रैल 2024 में किया गया था।

ऊर्जा दक्षता के लिए केंद्र सरकार की नोडल एजेंसी ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (BEE) का पंखे और एसी सहित कई उपकरणों के लिए एक अनिवार्य मानक एवं लेबलिंग (Standards and Labeling – S&L) कार्यक्रम है। हमारे सर्वेक्षण में कूलर को शामिल नहीं किया गया क्योंकि वर्तमान में मानक एवं लेबलिंग कार्यक्रम में ये शामिल नहीं हैं। मानक एवं लेबलिंग कार्यक्रम के तहत, सभी उपकरणों को 1-स्टार से 5-स्टार तक की रेटिंग दी जाती है, जिसमें 5-स्टार रेटिंग वाला उपकरण सबसे अधिक ऊर्जा कुशल होता है। अनिवार्य कार्यक्रम के तहत, उपकरणों को स्टार लेबल के बिना बाज़ार में बेचने की अनुमति नहीं है। ब्यूरो की लेबलिंग का एक विशिष्ट प्रारूप है, और उत्पाद और उनके पैकेजिंग पर लेबलिंग को लगाने के लिए स्पष्ट निर्देश हैं ताकि लेबलिंग संभावित उपभोक्ताओं को प्रमुखता से दिखाई दे। अलबत्ता, ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर इन्हें दर्शाने के कोई विशेष नियम-शर्तें नहीं हैं, जिसके कारण उपभोक्ताओं को यहां बिखरी-बिखरी और अधूरी जानकारी मिलती है।

लेबल का प्रदर्शन

हमने पाया कि एसी उत्पादों की सूची में सभी उत्पादों के नाम वाली लाइन में स्टार-रेटिंग की जानकारी है। उत्पाद की अन्य तस्वीरों के साथ-साथ वास्तविक लेबल की तस्वीरें भी हैं, हालांकि लेबल की तस्वीर सबसे अंत में ही दी जाती है।

ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर उपलब्ध मॉडलों को छांटने के लिए फिल्टर में स्टार रेटिंग का भी फिल्टर है। अलबत्ता विशेष निर्देशों के अभाव में, स्टार रेटिंग के लेबल का स्थान सदैव एक-सा नहीं होता है और उत्पाद सूची में अथवा विवरण में हमेशा प्रमुखता से दिखाई नहीं देता है।

वैसे, एक अधिक गंभीर मुद्दा रेटिंग लेबल की वैधता की तारीख से सम्बंधित है। ब्यूरो समय-समय पर मानकों को संशोधित करता रहता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि स्टार-रेटिंग्स ऊर्जा दक्षता प्रौद्योगिकी में प्रगति का समुचित रूप से प्रतिनिधित्व कर रही है। संशोधन के बाद, मॉडल की रेटिंग आम तौर पर 1 या 2 स्टार कम हो जाती है। इसलिए, संशोधन के बाद 5-स्टार मॉडल 3-स्टार या 4-स्टार रेटिंग वाला बन सकता है, और नया 5-स्टार मॉडल और अधिक ऊर्जा कुशल होगा। ब्यूरो आम तौर पर पुराने स्टार लेबल वाले किसी भी अनबिके उत्पाद को बेचने के लिए 6 महीने का समय देता है। एसी के मानकों को अंतिम बार जुलाई 2022 में संशोधित किया गया था।

सर्वेक्षण में हमने पाया कि सभी एसी उत्पाद सूची में से लगभग 36 प्रतिशत ऐसी स्टार रेटिंग दर्शा रही थीं जो पुरानी थी और केवल जुलाई 2022 तक ही वैध थी। इनमें से अधिकांश मॉडलों की जो रेटिंग दर्शाई जा रही थी वह संशोधित मानक के बाद लागू होने वाली रेटिंग से 1 स्टार अधिक दर्शाई गई थी। यह ब्यूरो के अनिवार्य लेबलिंग कार्यक्रम का उल्लंघन है और उपभोक्ताओं को कम कुशल मॉडल खरीदने की ओर ले जा सकता है।

पंखों के मामले में, अधिकांश सूचियों में उत्पाद के नाम वाली लाइन में स्टार रेटिंग लिखी है। यह हमारे पिछले सर्वेक्षण की तुलना में एक स्वागत योग्य बदलाव है; पिछले सर्वेक्षण में किसी भी सूची (विवरण) में स्टार रेटिंग की जानकारी शामिल नहीं थी। हालांकि इनकी स्टार रेटिंग मात्र 1 है। यानी अन्य स्टार-रेटिंग की तुलना में ये सबसे कम ऊर्जा कुशल हैं, फिर भी कुछ सूची में ‘ऊर्जा कुशल 1-स्टार रेटिंग’ जैसे दावे किए गए हैं। लगभग किसी भी उत्पाद सूची (या विवरण) में वास्तविक स्टार लेबल की तस्वीर नहीं थी। यह ब्यूरो के नियमों का उल्लंघन है, जिसके अनुसार उत्पाद को ऑनलाइन बेचे जाने पर भी स्टार रेटिंग लेबल प्रदर्शित करना आवश्यक है।

इसके अलावा, हमें कुछ ऐसे विवरण भी मिले जिनमें पंखे ‘गैर-BEE’ श्रेणी के तहत लेबल किए गए थे, जिसकी कानूनी रूप से अनुमति नहीं है क्योंकि इनकी ऊर्जा दक्षता 1-स्टार से भी कम हो सकती है। दोनों में से किसी भी प्लेटफॉर्म पर स्टार रेटिंग के आधार पर उत्पादों को छांटने के लिए फिल्टर नहीं हैं।

उपभोक्ता को इन ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स पर उपकरणों की ऊर्जा दक्षता के बारे में स्पष्ट और सही जानकारी मिलना ज़रूरी है ताकि वे जानकारी के आधार पर निर्णय ले सकें। ब्यूरो सभी ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स के लिए एक निर्देश जारी कर सकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अनिवार्य श्रेणी के तहत आने वाले सभी उपकरण ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर सही लेबल प्रदर्शित करें। यह भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI) द्वारा हाल ही में सभी ई-कॉमर्स खाद्य व्यापार संचालकों को जारी की गई सलाह के समान हो सकता है, जिसमें कहा गया था कि कुछ मामलों में एनर्जी ड्रिंक/स्वास्थ्यकर पेय का टैग हटा दिया जाए क्योंकि यह उपभोक्ताओं को गुमराह कर रहा था। ब्यूरो यह सुनिश्चित करने के लिए निर्देश भी जारी कर सकता है कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर स्टार-रेटिंग लेबल हमेशा और प्रमुखता से दर्शाए जाएं।

उपलब्धता और कीमत

ब्यूरो अपनी वेबसाइट पर सभी स्वीकृत मॉडलों की एक सूची प्रकाशित करता है। उपभोक्ता इस डैटा का उपयोग उत्पाद पैकेजिंग पर लगे लेबल की प्रामाणिकता को सत्यापित करने के लिए कर सकते हैं। इस डैटा के अनुसार 1.5 टन के स्प्लिट एसी के 1258 विभिन्न मॉडल हैं, और 1200 मिमी स्वीप साइज़ सीलिंग पंखों के 2668 मॉडल हैं।

पंजीकृत एसी मॉडल में से लगभग 50 प्रतिशत 3-स्टार रेटिंग के हैं जबकि 21 प्रतिशत 5-स्टार रेटिंग के हैं। पंखों के मामले में, लगभग 60 प्रतिशत मॉडल 1-स्टार रेटिंग के हैं जबकि 28 प्रतिशत 5-स्टार रेटिंग के हैं। हमारे बाज़ार सर्वेक्षण के लिए हमने केवल उन्हीं मॉडलों को चुना है जो ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स पर स्टॉक में उपलब्ध थे और जिनकी उपभोक्ता रेटिंग 100 से अधिक थी ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि हमने लोकप्रिय मॉडलों को शामिल किया है।

224 एसी मॉडलों की कीमतों के हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि एक औसत 5-स्टार एसी मॉडल की कीमत एक औसत 3-स्टार एसी से लगभग 7000 रुपए अधिक है, लेकिन 4-स्टार और 5-स्टार रेटिंग के मॉडलों की औसत कीमतों के बीच अंतर मात्र 500 रुपए का है। वैसे, समान स्टार रेटिंग के भीतर भी मॉडलों की कीमत में काफी अंतर दिखता है। उत्पाद सूची में ज़्यादातर वास्तविक कीमत और छूट वाली कीमत दिखाई जाती है। हमने छूट वाली कीमत को शामिल किया है क्योंकि खरीदार इसी कीमत पर खरीदारी करते हैं। कुछ स्टोर्स पर इन कीमतों को जांचने पर पता चला कि ये कीमतें खुदरा दुकानों की कीमतों के बराबर हैं। हमने 1-स्टार और 2-स्टार रेटिंग वाले मॉडलों का विश्लेषण नहीं किया है क्योंकि इस श्रेणी में बहुत कम मॉडल हैं।

एसी की ऊर्जा दक्षता को भारतीय मौसमी ऊर्जा दक्षता अनुपात (Indian Seasonal Energy Efficiency Ratio – ISEER) के सापेक्ष मापा जाता है। ISEER जितना अधिक होगा, दक्षता उतनी ही बेहतर होगी। हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि हालांकि एसी की कीमत को प्रभावित करने में ISEER महत्वपूर्ण कारक है, लेकिन इसके चलते कीमत में 9.5 प्रतिशत ही अंतर आता है। इसका मतलब है कि कीमत में अंतर के लिए कई अन्य कारक ज़िम्मेदार हैं, जैसे ब्रांड और अतिरिक्त फीचर्स। कुछ 5-स्टार मॉडल ऐसे हैं जिनकी कीमत औसत 3-स्टार एसी की कीमत के बराबर है। यह एक ऐसे चलन को दर्शाता है जिसमें कंपनियां 5-स्टार एसी की ब्रांडिग प्रीमियम मॉडल के रूप में करती हैं और फिर अतिरिक्त फीचर्स देती हैं जिससे इनकी कीमत बढ़ जाती है। एक साधारण बिना ताम-झाम वाला 5-स्टार एसी उपभोक्ताओं के लिए अधिक फायदेमंद हो सकता है। हालांकि इस पर आगे और जांच-पड़ताल की ज़रूरत है। इसी के साथ, उपकरण के ISEER अंक को उपभोक्ता देख सकते हैं और किसी स्टार रेटिंग में उच्च ऊर्जा दक्षता का फायदा उठाने के लिए उच्च ISEER अंक वाले मॉडल चुन सकते हैं।

153 पंखा मॉडल की कीमतों के हमारे विश्लेषण में भी इसी तरह के रुझान दिखाई देते हैं। एक औसत 5-स्टार मॉडल की कीमत 1-स्टार मॉडल से औसतन 1370 रुपए अधिक है। हालांकि, स्टार-रेटिंग के भीतर कीमत में काफी फर्क दिखता है। हमने 2-स्टार, 3-स्टार और 4-स्टार वाले मॉडलों को शामिल नहीं किया क्योंकि इन श्रेणी में बहुत कम मॉडल हैं।

पंखे की ऊर्जा दक्षता को सेवा मूल्य (Service Value – SV) के रूप में मापा जाता है। SV जितना अधिक होगा, पंखे की ऊर्जा दक्षता उतनी ही बेहतर होगी। हमारा विश्लेषण दर्शाता है कि हालांकि कीमत में बढ़ोतरी के लिए SV एक महत्वपूर्ण कारक है, लेकिन इसके चलते कुल कीमत में 12 प्रतिशत का ही अंतर पड़ता है। एसी की ही तरह, इसमें भी ब्रांड और अतिरिक्त फीचर्स सहित अन्य कारक पंखे की कीमत में वृद्धि कर सकते हैं। ऐसे कई 5-स्टार पंखे हैं जिनकी कीमत 1-स्टार पंखे की औसत कीमत के बराबर है। एसी की तरह ही, पंखों के मामले में भी ऐसा लगता है कि कंपनियां 5-स्टार मॉडल का ब्रांडिंग प्रीमियम मॉडल के रूप में कर रही हैं।

निष्कर्ष के तौर पर, हमारा बाज़ार सर्वेक्षण दर्शाता है कि ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर पंखे और एसी की ऊर्जा दक्षता सम्बंधी जानकारी को स्पष्ट, सुसंगत, प्रधानता से और नियामक अपेक्षा के अनुसार दिखाने के लिए सुधार करने की आवश्यकता है। वर्तमान में ऐसे पोर्टल पर प्रदर्शित जानकारी को सही करने की आवश्यकता है क्योंकि अधिकांश उपभोक्ता उपकरणों के बारे में छानबीन करने और खरीदी के लिए इंटरनेट का उपयोग करते हैं। ब्यूरो ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स को एक सलाह जारी कर सकता है जिसमें उन्हें S&L कार्यक्रम के तहत प्रदर्शन आवश्यकताओं का अनुपालन करना पड़े।

हालांकि पंखे और एसी दोनों के 5-स्टार मॉडल्स की औसत कीमत 3-स्टार मॉडल से अधिक है, फिर भी हमने एक निश्चित स्टार रेटिंग के भीतर कीमत में काफी भिन्नता पाई है। ऐसा लगता है कि कंपनियां 5-स्टार मॉडल का प्रीमियम मॉडल के रूप में ब्रांडिंग कर रही हैं, इसके लिए वे इसमें अन्य फीचर्स जोड़ रही हैं और इनकी कीमत बढ़ा रही हैं। लेकिन वास्तव में एक बुनियादी ऊर्जा कुशल मॉडल उपभोक्ताओं के लिए अधिक फायदेमंद और महत्वपूर्ण हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पिता के खानपान का बेटों के स्वास्थ्य पर असर

ह बात तो सभी कहते हैं कि जैसा आपका खानपान होगा, वैसा आपका स्वास्थ्य होगा। लेकिन हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि पुत्र-जन्म से पूर्व पिता का खानपान पुत्रों की चयापचय क्षमता को प्रभावित कर सकता है।

अध्ययनों से यह तो पता था कि माताएं अपनी संतानों में चयापचय सम्बंधी लक्षण हस्तांतरित कर सकती हैं। फिर, 2016 में युनिवर्सिटी ऑफ ऊटा स्कूल ऑफ मेडिसिन में प्रजनन-जीवविज्ञानी क्याई चेन और उनकी टीम ने उच्च वसायुक्त आहार करने वाले नर चूहों की संतानों में चयापचय विकार की समस्या देखी थी। साथ ही पाया था कि माता-पिता के आहार का प्रभाव संतान के जीनोम में नहीं बल्कि उनके ‘एपिजीनोम’ में परिवर्तन के कारण होता है। एपिजीनोम जीन अभिव्यक्ति, विकास, ऊतक विभेदन को विनियमित करने में और जम्पिंग जीन को शांत करने में भूमिका निभाते हैं। जीनोम के विपरीत एपिजीनोम में पर्यावरणीय परिस्थितियों के चलते परिवर्तन हो सकते हैं।

हालिया अध्ययन में हेल्महोल्ट्ज़ सेंटर, म्यूनिख के शोधकर्ता राफेल टेपरिनो ने नर चूहों को दो हफ्ते तक उच्च वसा वाला आहार खिलाया। पाया गया कि इस आहार के कारण शुक्राणु के माइटोकॉन्ड्रिया में ट्रांसफर आरएनए (tRNA) में परिवर्तन हुए थे। माइटोकॉण्ड्रिय़ा कोशिका को ऊर्जा देते हैं। आहार परिवर्तन का असर माइटोकॉन्ड्रिया के tRNA पर देखा गया जो डीएनए से प्रोटीन में बनने की प्रक्रिया के दौरान बनते हैं।

खासकर, उच्च वसायुक्त भोजन करने वाले चूहों के शुक्राणुओं में tRNA के अंश सामान्य चूहों की अपेक्षा छोटे थे। ऐसे RNA कुछ माइटोकॉन्ड्रियल जीन की गतिविधि को बढ़ा या घटा सकते हैं।

ये परिणाम ठीक ही लगते हैं क्योंकि ऐसा देखा गया है कि उच्च वसा वाला आहार माइटोकॉन्ड्रिया में तनाव पैदा करता है, नतीजतन माइटोकॉन्ड्रिया अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए अधिक RNA बनाते हैं। माइटोकॉन्ड्रिया की यह प्रतिक्रिया एक सौदे की तरह होती है। माइटोकॉन्ड्रियल गतिविधि में वृद्धि शुक्राणु को अंडाणु तक पहुंचने के लिए पर्याप्त ऊर्जा देती है, लेकिन साथ में अतिरिक्त माइटोकॉन्ड्रियल RNA भी शुक्राणु से भ्रूण में चले जाते हैं, जिससे भ्रूण को मिलने वाली जानकारी बदल जाती है और उसके स्वास्थ्य पर असर पड़ता है।

अगले चरण में शोधकर्ताओं ने उन चूहों के स्वास्थ्य को देखा जिनके पिता अधिक वसायुक्त भोजन खाते थे। पाया गया कि चूहा संतानों में से लगभग 30 प्रतिशत में चयापचय विकार थे। 3431 मानव संतानों के आंकड़ों के विश्लेषण में पता चला कि उन मानव संतानों में चयापचयी विकार अधिक थे जिनके पिता का वज़न अधिक था।

प्रयोगों से यह भी पता चला कि उच्च वसायुक्त आहार करने वाले चूहों की संतानों में अपने पिता से बहुत अधिक माइटोकॉन्ड्रियल tRNA आ गए थे।

हालांकि इस अध्ययन की एक तकनीकी सीमा है: अनुक्रमण विधि केवल सम्पूर्ण RNA का पता लगा पाती है। इस वजह से, अध्ययन में यह पता नहीं चल सका कि RNA के अंश पिता से भ्रूण में स्थानांतरित हुए थे या नहीं। शोधकर्ता यह मानकर चल रहे हैं कि RNA के अंश भी स्थानांतरित हुए होंगे।

मज़ेदार बात यह है कि चयापचय सम्बंधी समस्याएं पिता से केवल पुत्रों को मिली हैं, पुत्रियों को नहीं। इससे लगता है कि X और Y शुक्राणु में अलग-अलग जानकारी होती है। बहरहाल, X और Y शुक्राणु में ऐसी भिन्नता क्यों होती है, आगे के अध्ययनों के लिए यह एक अच्छा प्रश्न है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खोपड़ी मिली, तो पक्षी के गुण पता चले

र्ष 1893 में दक्षिण ऑस्ट्रेलिया की कैलाबोना झील से जीवाश्म विज्ञानियों को लगभग साबुत एक अश्मीभूत कंकाल मिला था। कंकाल का धड़ वाला हिस्सा तो पूरी तरह सलामत था, लेकिन इसकी खोपड़ी भुरभुरी, दबी-कुचली और विकृत स्थिति में थी।

वैज्ञानिकों ने कंकाल की बनावट देखकर इतना तो अनुमान लगा लिया था कि यह मुर्गे, एमू या शुतुरमुर्ग जैसे किसी बड़े पक्षी का कंकाल है, जो उड़ नहीं सकता था। नाम दिया था गेन्योर्निस न्यूटोनी (Genyornis newtoni)। लेकिन इसके बारे में और अनुमान लगाना अच्छी हालात की खोपड़ी के बिना मुश्किल था, क्योंकि सभी बड़े पक्षी गर्दन से नीचे लगभग एक जैसे दिखते हैं – बड़े शरीर पर छोटे पंख, चौड़ी दुम, वज़नी पैर। खोपड़ी से यह पता लगाना आसान हो जाता है कि कंकाल किस कुल का सदस्य है।

इसलिए ऑस्ट्रेलिया की फ्लिंडर्स युनिवर्सिटी की वैकासिक जीवविज्ञानी फीब मैकइनर्नी को एक सही-सलामत अश्मीभूत खोपड़ी की तलाश थी। अंतत: उन्हें ऐसी खोपड़ी मिल गई। हिस्टॉरिकल बायोलॉजी जर्नल में उन्होंने गेन्योर्निस की खोपड़ी का वर्णन और तस्वीर प्रकाशित की है और इसे ‘गीगा गूज़’ नाम दिया है। पता चला है कि गीगा गूज़ वर्तमान में जीवित या विलुप्त किसी पक्षी की तरह नहीं है बल्कि जल पक्षियों से सम्बंधित है, जिसमें बत्तख से लेकर हंस जैसे पक्षी आते हैं।

गीगा गूज़ की चोंच की पकड़ की चौड़ाई, दमदार काटने की क्षमता और मांसपेशियों के जुड़ाव से पता चलता है कि इसका पकड़ सम्बंधी (मोटर) नियंत्रण काफी अच्छा था, इससे लगता है कि गेन्योर्निस पानी के किनारे लगे पौधों से पत्तियों और फलों को तोड़कर खाता होगा। खोपड़ी में ऐसी संरचनाएं दिखीं जो पानी को कान में घुसने से रोकती थीं, इससे पता चलता है कि यह पक्षी जलीय आवासों के लिए अनुकूलित था, और इसका प्राकृतवास मीठे पानी में था।

इस पक्षी की सम्पूर्ण तस्वीर और विशेषताएं प्राचीन ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों द्वारा बनाए गए विशालकाय शैलचित्रों और कहानियों के पात्रों से मेल खाती हैं। इससे लगता है कि प्राचीन ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों के समय यह जीव ऑस्ट्रेलिया में रहता होगा और उन्होंने इसे देखा होगा। और तो और, एक आदिवासी भाषा में इस पक्षी के लिए शब्द भी मिलता है, जिसका अर्थ होता है ‘विशाल एमू’। बड़े पैमाने पर अंडों के जले हुए छिलकों के अवशेषों के आधार पर कुछ शोधकर्ताओं का अनुमान है कि मनुष्य गेन्योर्निस के अंडे पकाकर खाते होंगे, लेकिन इन छिलकों की पहचान अभी जांच का मुद्दा है।

बहरहाल गीगा गूज़ के चेहरे का तो अंदाज़ा मिल गया लेकिन यह सवाल अनसुलझा ही है कि गीगा गूज़ समेत अन्य जीव-जंतु विलुप्त क्यों हो गए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.australian.museum/media/dd/images/Some_image.width-1200.f187d6f.jpg
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