फल मक्खियां झूला झूलने का आनंद लेती हैं!

च्चे हों या बड़े झूला झूलने में मज़ा सबको आता है। और अब, हालिया अध्ययन से लगता है कि इसका मज़ा फल मक्खियां भी लेती हैं। एक अध्ययन में देखा गया है कि कुछ फल मक्खियां खुद से बार-बार चकरी जैसे गोल-गोल घूमते ‘झूले’ पर चढ़ रही थीं, जिससे लगता है कि उन्हें झूला झूलना अच्छा लग रहा था।

बायोआर्काइव्स प्रीप्रिंट में प्रकाशित यह अध्ययन अकशेरूकी जीवों में खेलकूद या मनोरंजन के प्रमाण भी देता है और कीटों में लोकोमोटर खेल का पहला उदाहरण है। लोकोमोटर खेल वे खेल होते हैं जिसमें स्वयं खिलाड़ी के शरीर में हरकत होती है जैसे दौड़ना, कूदना या झूलना। वैसे पूर्व में मधुमक्खियों को वस्तु के साथ खेल, और ततैया और मकड़ियों को सामाजिक खेल खेलते देखा गया है।

दरअसल कुछ साल पहले कॉन्सटेन्ज़ युनिवर्सिटी के तंत्रिका विज्ञानी वुल्फ हटरॉथ ने देखा था कि एक बत्तख तेज़ बहती नदी में बहते हुए कुछ दूरी बहने के बाद उड़कर लौटती और फिर बहकर नीचे चली जाती। वे सोचने लगे कि वह ऐसा व्यवहार क्यों करती है और क्या मक्खियां (या कीट) भी ऐसा करते हैं।

यह देखने के लिए हटरॉथ और उनके साथी टिलमन ट्रिफान ने चकरी जैसा घूमने वाला झूला बनाया। फिर उन्होंने प्रयोगशाला में में नर फल मक्खियों (ड्रॉसोफिला मेलानोगास्टर) को कूदकर झूले पर चढ़ने का मौका दिया। उन्होंने देखा कि कुछ फल मक्खियों ने झूले को नज़रअंदाज़ किया लेकिन कुछ फल मक्खियों का व्यवहार ऐसा था मानो वे डिज़्नीलैंड में हैं।

शोधकर्ता बताते हैं कि फल मक्खियों के एक समूह ने अपने दिन का 5 प्रतिशत या उससे अधिक समय झूले पर बिताया। और जब उन्होंने दो झूले रखे जो बारी-बारी घूमते थे तो कुछ फल मक्खियां उन झूलों पर चली जाती थीं जो घूम रहे होते थे। और एक मक्खी तो थोड़ी देर झूला झूलती, फिर उससे उतर जाती और फिर वापस थोड़ा और झूलने चली जाती थी।

शोधकर्ता बताते हैं कि फल मक्खियों को स्थान के बारे में अच्छी समझ होती हैं, इसलिए यदि उन्हें गोल घूमना पसंद नहीं आएगा तो वे झूले की सवारी नहीं करेंगी, जैसा कि कुछ ने किया भी। लेकिन अधिकतर मक्खियां ऐसी थीं जिन्होंने न तो झूले का लुत्फ उठाया, न परहेज किया। इसलिए ऐसा लगता है कि (कम से कम कुछ) मक्खियां झूले पर सवारी का आनंद ले रही थीं।

बहरहाल, शोधकर्ता पक्के तौर पर यह कहने में झिझक रहे हैं कि मक्खियां को झूलने में मज़ा आता है क्योंकि वे अभी यह नहीं जान पाए हैं कि मक्खियां ऐसा क्यों करती हैं।

शोधकर्ता इस व्यवहार में शामिल तंत्रिका तंत्र को समझना चाहते हैं। इससे यह समझने में मदद मिल सकती है कि मक्खियों (या किसी अन्य जीव) को लोकोमोटर खेल से क्या फायदा हो सकता है? इस तरह के खेल व्यवहार का महत्व क्या है? क्या यह किसी भी चीज़ के लिए अच्छा है? वगैरह।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्माते समुद्र पेंगुइन का प्रजनन दूभर कर सकते हैं

म्परर पेंगुइन अच्छी तरह जमी हुई समुद्री बर्फ वाले इलाकों में ही प्रजनन और अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं। उनके प्रजनन क्षेत्रों के आसपास की बर्फ पिघल कर टूटने लगे तो वे स्थान बदल लेते हैं लेकिन इससे उनका प्रजनन प्रभावित होता है। कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवायरनमेंट में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि हाल ही में जलवायु परिवर्तन के चलते अंटार्कटिका के आसपास के समुद्र गर्म होने से मौसम के पहले ही बर्फ टूटने लगी है, जिसके कारण पेंगुइन अपने प्रजनन स्थल से पलायन कर गए हैं।

ब्रिटिश अंटार्कटिका सर्वेक्षण लगभग पिछले 15 सालों से उपग्रह द्वारा अंटार्कटिका में पेंगुइन बस्तियों की निगरानी कर रहा है। पिछले साल रिमोट सेंसिंग विशेषज्ञ और भूगोलविद पीटर फ्रेटवेल और उनके साथियों ने अक्टूबर के अंत में कुछ स्थानों पर समुद्री बर्फ टूटते हुए देखी थी। एम्परर पेंगुइन प्रजनन के लिए इन स्थानों पर मार्च-अप्रैल में पहुंचते हैं। अगस्त-सितंबर के बीच उनके अंडों से चूज़े निकलते हैं और दिसंबर और जनवरी तक इनके पंख विकसित हो पाते हैं। यदि चूज़ों के परिपक्व होने के पहले ही समुद्री बर्फ टूट जाएगी तो बच्चे डूब जाएंगे या फ्रीज़ हो जाएंगे। यानी अक्टूबर में बर्फ का बिखरना पेंगुइन के लिए निश्चित खतरा होगा।

हुआ भी वही। उपग्रह चित्रों से पता चलता है कि जब 2022 में समुद्री बर्फ टूटी तो अक्टूबर के अंत में पेंगुइन की एक बस्ती ने वह स्थान छोड़ दिया था। दिसंबर की शुरुआत में पेंगुइन के तीन अन्य समूह वहां से चले गए। सिर्फ सुदूर उत्तर में स्थित रोथ्सचाइल्ड द्वीप पर एक बस्ती बची रही और सफलतापूर्वक अपने चूज़ों को पाल पाई।

ऐसा अनुमान है कि अंटार्कटिका में एम्परर पेंगुइन के कुल प्रजनन जोड़े करीब 2,50,000 हैं। पिछले साल बेलिंगशॉसेन में लगभग 10,000 जोड़े प्रभावित हुए थे। वैसे तो यह आपदा उतनी बड़ी नहीं लगती। पेंगुइन की उम्र 20 साल होती है तो इनमें से अधिकांश पेंगुइन अगले साल फिर प्रजनन कर लेंगी। लेकिन लगातार ऐसी स्थिति रही तो हालात मुश्किल होंगे। मौजूदा परिस्थितियों के आधार पर फ्रेटवेल का अनुमान है कि यह साल भी पांचों बस्तियों के लिए उतना ही बुरा होगा। पूर्व में भी समुद्री बर्फ की स्थिति बदलने के चलते ऐसी स्थितियां बनी हैं जब पेंगुइन के लिए प्रजनन मुश्किल हुआ है। कार्बन उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है, और कार्बन उत्सर्जन समुद्र के गर्माने में बड़ा योगदान देता है। हालात इसी तरह बदलते रहे तो यह पूरा का पूरा क्षेत्र ही पेंगुइन के लिए अनुपयुक्त हो जाएगा और उन्हें अपने लिए वैकल्पिक स्थान ढूंढना भी मुश्किल हो जाएगा। संभव है कि अगले कुछ वर्षों में उनकी कॉलोनियां विलुप्त हो जाएंगी।

यदि हम कार्बन उत्सर्जन को तत्काल कम करते हैं तो पेंगुइन के लिए महफूज़ बचे स्थान सलामत रहेंगे। साथ ही इस क्षेत्र में मछली पकड़ने पर रोक लगाकर पेंगुइन के लिए पर्याप्त भोजन संरक्षित रखा जा सकता है और पर्यटन को कम करके उनके लिए तनावमुक्त माहौल सुनिश्चित किया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हिमनदों के पिघलने से उभरते नए परितंत्र

तेज़ी से बढ़ते वैश्विक तापमान का एक और बड़ा प्रभाव ऊंचे पहाड़ी (अल्पाइन) हिमनदों में देखा जा सकता है। हालिया अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन से विश्व भर के अल्पाइन हिमनद काफी तेज़ी से पिघल रहे हैं जिसके नतीजतन शताब्दियों से हिमाच्छादित भूमि के विशाल हिस्से उजागर हो सकते हैं। ऐसा माना जा रहा है कि इन उभरते हुए नए परितंत्रों का संरक्षण नई चुनौतियों के साथ-साथ नए अवसर भी देगा।

अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड के बाहर वर्तमान में अल्पाइन हिमनद लगभग 6.5 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं। गर्मियों में ये हिमनद लगभग दो अरब लोगों के अलावा वैश्विक परितंत्र को जल आपूर्ति करते हैं। ज़ाहिर है इनके पिघलने से वैश्विक परितंत्र पर काफी प्रभाव पड़ेगा।

शोधकर्ताओं ने इसके प्रभाव को समझने के लिए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के विभिन्न स्तरों को ध्यान में रखते हुए एक जलवायु मॉडल तैयार किया जिसमें हिमनदों के पिघलने और सिमटने से खुलने वाले परितंत्र पर प्रकाश डाला गया है। नेचर पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सबसे आशाजनक स्थिति में भी इस सदी के अंत तक 1,40,500 वर्ग कि.मी. (झारखंड के बराबर) क्षेत्र उजागर हो सकता है। यदि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन ज़्यादा रहा तो यह क्षेत्र इसका दुगना हो सकता है। सबसे अधिक प्रभाव अलास्का और एशिया के ऊंचे पहाड़ों पर पड़ने की संभावना है।

इस अध्ययन के प्रमुख और हिमनद वैज्ञानिक ज़्यां-बैप्टिस्ट बोसां ने इसे पृथ्वी के सबसे बड़े पारिस्थितिक परिवर्तनों में से एक निरूपित किया है। उनका अनुमान है कि नव उजागर क्षेत्र में से करीब 78 प्रतिशत भूमि और 14 प्रतिशत व 8 प्रतिशत हिस्सा क्रमश: समुद्री और मीठे पानी वाले क्षेत्र होंगे।

एक दिलचस्प बात यह है कि इस क्षेत्र में निर्मित नए प्राकृतवास महत्वपूर्ण होंगे जिनका संरक्षण करने की ज़रूरत होगी। पेड़-पौधे बढें़गे तो कार्बन भंडारण अधिक होगा, जो निर्वनीकरण की प्रतिपूर्ति कर सकता है और ऐसे जंतुओं को नए प्राकृतवास मिलेंगे जो कम ऊंचाई पर रहते हैं और बढ़ते तापमान से जूझ रहे हैं।

यह अध्ययन उन वैज्ञानिकों के लिए मार्गदर्शन भी प्रदान करेगा जो अनछुए स्थानों पर सूक्ष्मजीवों, पौधों और जंतुओं के प्रवास को समझने का प्रयास कर रहे हैं। गौरतलब बात है कि इस अध्ययन में शामिल किए गए आधे से भी कम हिमनद क्षेत्र वर्तमान के संरक्षित क्षेत्रों में शामिल हैं। लिहाज़ा इस अध्ययन से इस भावी परिघटना के मद्देनज़र भूमि प्रबंधन को लेकर सरकारें भी नई चुनौतियों से निपट पाएंगी।

वैसे बोसां का कहना है कि  ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के प्रयास तत्काल किए जाएं तो वर्तमान हिमनदों का काफी हिस्सा बचाया जा सकता है। चूंकि वर्तमान में हम बढ़ते तापमान की समस्या से जूझ रहे हैं, इन उभरते परितंत्रों का संरक्षण और प्रबंधन न केवल जैव विविधता संरक्षण के लिए अनिवार्य है बल्कि जलवायु परिवर्तन के दूरगामी प्रभावों को कम करने का एक अवसर भी है। (स्रोत फीचर्स)

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आदित्य मिशन: सूरज के अध्ययन में शामिल होगा भारत

चंद्रयान के सकुशल अवतरण के बाद इसरो की तैयारी सूरज को पढ़ने की है। इसरो का आदित्य-L1 मिशन 2 सितंबर को प्रक्षेपित होने जा रहा है। इसे सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, श्री हरिकोटा से PSLV-XL रॉकेट द्वारा प्रक्षेपित किया जाएगा। यह अंतरिक्ष यान पृथ्वी से करीब 15 लाख किलोमीटर दूर सूर्य-पृथ्वी के बीच लैग्रांजे बिंदु-1 (L-1) की कक्षा में स्थापित किया जाएगा, जहां से यह सौर गतिविधियों की निगरानी करेगा। यह सूर्य का अध्ययन करने वाला पहला भारतीय अंतरिक्ष अभियान होगा। गौरतलब है कि फिलहाल विभिन्न देशों के 20 से ज़्यादा सौर अध्ययन अंतरिक्ष मिशन अंतरिक्ष में मौजूद हैं।

बताते चलें कि लैग्रांजे बिंदु अंतरिक्ष में दो पिंडों के बीच वे स्थान होते हैं जहां यदि कोई छोटा पिंड या उपग्रह रख दिया जाए तो वह वहां टिका रहता है। पृथ्वी-सूर्य प्रणाली के बीच ऐसे पांच बिंदु हैं। L1 बिंदु की कक्षा में स्थापित करने का फायदा यह है कि आदित्य-L1 बिना किसी अड़चन, ग्रहण वगैरह के सूर्य की लगातार निगरानी कर सकता है।

पृथ्वी से सूर्य की निगरानी और अवलोकन तो हम करते रहे हैं। लेकिन अंतरिक्ष से सूर्य के अवलोकन का कारण है कि पृथ्वी का वायुमंडल कई तंरगदैर्घ्यों और कणों को प्रवेश नहीं करने देता। इसलिए ऐसे विकिरण की मदद से होने वाले अवलोकन पृथ्वी से कर पाना संभव नहीं है। चूंकि अंतरिक्ष में ऐसी कोई बाधा नहीं है इसलिए अंतरिक्ष से इनका अवलोकन संभव है।  

आदित्य-L1 में सूर्य की गतिविधियां, सौर वायुमंडल (मुख्यत: क्रोमोस्फीयर और कोरोना) और अंतरिक्ष के मौसम का निरीक्षण करने के लिए सात यंत्र लगे हैं। इनमें से चार यंत्र बिंदु L1 पर बिना किसी बाधा के सीधे सूर्य का अवलोकन करेंगे, और शेष तीन यंत्र लैग्रांजे बिंदु L1 की स्थिति और कणों का जायज़ा लेंगे। आदित्य-L1 पर लगे विज़िबल एमिशन लाइन कोरोनाग्राफ (VELC) का काम होगा सूर्य के कोरोना और कोरोना से निकलने वाले पदार्थों का अध्ययन करना। कोरोना सूर्य की सबसे बाहरी सतह है जो सूर्य के तेज़ प्रकाश में ओझल रहती है। इसे विशेष उपकरणों से ही देखा जा सकता है। वैसे कोरोना को पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान देखा जा सकता है। सोलर अल्ट्रावॉयलेट इमेजिंग टेलीस्कोप (SUIT) पराबैंगनी प्रकाश में सूर्य के फोटोस्फीयर और क्रोमोस्फीयर की तस्वीरें लेगा और अल्ट्रावॉयलेट प्रकाश के नज़दीक सौर विकिरण विचलन मापेगा। फोटोस्फीयर या प्रकाशमंडल वह सतह है जहां से प्रकाश फैलता है। सोलर लो एनर्जी एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (SoLEXS) और हाई एनर्जी L1 ऑर्बाइटिंग एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (HEL1OS) सूर्य की एक्स-रे प्रदीप्ति का अध्ययन करेगा। आदित्य सोलर विंड पार्टीकल एक्सपेरिमेंट (ASPEX) और प्लाज़्मा एनालाइज़र पैकेज फॉर आदित्य (PAPA) सौर पवन, उसके आयन और ऊर्जा वितरण का अध्ययन करेगा। इसका एडवांस्ड ट्राय-एक्सिस हाई रिज़ॉल्यूशन डिजिटल मैग्नेटोमीटर L1 बिंदु पर मौजूद चुम्बकीय क्षेत्र का मापन करेगा।

प्रक्षेपण के करीब 100 दिन बाद आदित्य अपनी मंज़िल (L1) पर पहुंचेगा। (स्रोत फीचर्स)

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शकर का संसार – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

डॉ. उल्बे बोस्मा की पुस्तक दी वर्ल्ड ऑफ शुगर (शकर का संसार) को हाल ही में हारवर्ड युनिवर्सिटी प्रेस ने प्रकाशित किया है। यह पुस्तक बताती है कि शकर का सामाजिक प्रभुत्व एक हालिया सामाजिक घटना है। भारत में छठी शताब्दी से दानेदार चीनी बनाई और खाई जा रही है। वास्तव में, डॉ. के. टी. अचया अपनी पुस्तक इंडियन फूड – ए हिस्टोरिकल कम्पेनियन (भारतीय भोजन – एक ऐतिहासिक सहचर) में बताते हैं कि भारत में गन्ने के बारे में अथर्ववेद के समय (लगभग 900 ईसा पूर्व) से और गुड़ के बारे में 800 ईसा पूर्व से पता रहा है।

हालांकि, दानेदार शकर के बारे में जानकारी छठवीं शताब्दी से थी, लेकिन परिष्कृत शकर 19वीं शताब्दी में युरोप में व्यापक पैमाने पर फैली। जैसा कि लेखक बताते हैं, शकर का सामाजिक प्रभुत्व प्रगति की कहानी है, और साथ ही शोषण, नस्लवाद, मोटापे और पर्यावरण विनाश की कड़वी-मीठी कहानी है।

गुलामों का व्यापार

दी कनवर्सेशन में एक लेख प्रकाशित हुआ है: ‘ए हिस्ट्री ऑफ शुगर – दी फूड देट नोबडी नीड्स, बट एव्रीवन क्रेव्स फॉर’  (शकर का इतिहास – ऐसा खाद्य जिसकी किसी को ज़रूरत नहीं है, लेकिन हर कोई तरसता है)। इस लेख में बताया गया है कि किस तरह शकर का उत्पादन मध्य पूर्व में, और औपनिवेशिक काल के दौरान गुलामों द्वारा वेस्ट इंडीज़ में, और ब्राज़ील में किया जाता था। ब्राज़ील और कैरेबियाई क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर गन्ना बागानों में काम करने के लिए श्रमिकों की भारी मांग थी। यह मांग अटलांटिक-पार गुलाम व्यापार से पूरी हुई, जिसके परिणामस्वरूप 1501 से 1867 के बीच लगभग 1,25,70,000 लोगों को अफ्रीका से अमेरिका महाद्वीप भेजा गया। प्रत्येक यात्रा में लोगों की मृत्यु दर संभवत: 25 प्रतिशत तक थी, और इसमें 10 लाख से 20 लाख लाशों को समुद्र में फेंका गया था। सौभाग्य से, अब दास व्यापार समाप्त हो गया है। ब्राज़ील और भारत शीर्ष शकर उत्पादक बने हुए हैं, और अब वैश्विक शकर उत्पादन में लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा चुकंदर से आता है।

भारत में हम सभी गन्ने और उससे बनी दानेदार शकर से परिचित हैं। हमारे यहां गुड़ भी है जो स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है। आजकल लोग यह जानना चाहते हैं कि क्या थैलीबंद दानेदार चीनी की अपेक्षा ठेलेवालों द्वारा बेचा जाने वाला ताज़ा गन्ने का रस लेना बेहतर है। इसका जवाब है – हां, क्योंकि इसमें थोड़ी मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट और खनिज होते हैं जो चीनी बनाते समय नष्ट हो जाते हैं। गुड़ को अक्सर अन्य तरह की शकर की तुलना में स्वास्थ्यवर्धक बताया जाता है, क्योंकि इसमें एंटीऑक्सिडेंट, विटामिन और खनिज होते हैं।

स्वास्थ्य जोखिम

वैसे हम सभी जानते हैं कि किसी भी प्रकार की शकर का बहुत अधिक सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इससे मधुमेह हो सकता है, जिसमें शकर का अधिक सेवन रक्तप्रवाह में इंसुलिन स्रवण को शुरू करवाता है जिससे दृष्टि की दिक्कतें, और हृदय और किडनी सम्बंधी समस्याएं हो सकती हैं। यही कारण है कि डॉक्टर बहुत अधिक मीठा न खाने का सुझाव देते हैं। टाइप-1 डायबिटीज़ के रोगियों को इंसुलिन का इंजेक्शन लेना पड़ता है, जबकि टाइप-2 डायबिटीज़ रोगियों को रक्त में ग्लूकोज़ का स्तर सावधानीपूर्वक नियंत्रित रखना पड़ता है, और शकर के विकल्प (स्टीवियोल ग्लायकोसाइड या सुक्रेलोज़ वगैरह) लेना पड़ता है। हाल ही में जीन क्लीनिक नामक कंपनी ने एक ऐसा उपकरण पेश किया है जो बांह या पेट पर एक पट्टी की तरह चिपक जाता है। हमेशा पहनने योग्य यह उपकरण आपको रक्त में ग्लूकोज़ का स्तर बताता है, और ज़रूरत पड़ने पर यह भी बताता है कि कब आपको अपने डॉक्टर से परामर्श लेना है।

इन सबके मद्देनज़र शकर का सेवन कम करना सबसे अच्छा है। यह हमारे स्वास्थ्य के लिए सर्वोत्तम है।(स्रोत फीचर्स)

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क्या सिर्फ रसायन कृषि उत्पादकता बढ़ाते हैं? – भारत डोगरा

पिछले करीब 50 वर्षों से भारत ने कृषि उत्पादकता को बढ़ाने के लिए रासायनिक खाद व कीटनाशक, खरपतवारनाशक आदि रसायनों पर अधिकतम ध्यान दिया है। इसके लिए हज़ारों किस्म के पंरपरागत, विविधतापूर्ण बीजों को हटाकर ऐसी नई हरित क्रांति किस्मों (एच.वाई.वी.) को प्राथमिकता दी गई जो रासायनिक उर्वरकों की अधिक मात्रा के अनुकूल हैं व जिनके लिए कीटनाशकों आदि की ज़रूरत ज़्यादा पड़ती है।

इस नीति को अपनाने से मिट्टी, पानी, खाद्यों की गुणवत्ता, परागण करने वाले मित्र कीटों व पक्षियों के साथ पूरे पर्यावरण पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ता है।

लंदन फूड कमीशन की चर्चित रिपोर्ट बताती है कि ब्रिटेन में मान्यता प्राप्त कीटनाशकों व जंतुनाशकों का सम्बंध कैंसर व जन्मजात विकारों से पाया गया है। अमेरिका में नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस की एक रिपोर्ट ने बताया है कि खाद्य में कीटनाशकों की उपस्थिति के कारण कैंसर के दस लाख अतिरिक्त मामले बढ़ने की संभावना है। विश्व संसाधन रिपोर्ट में बताया गया है कि कीटनाशकों का बहुत कम हिस्सा (कुछ कीटनाशकों में मात्र 0.1 प्रतिशत) ही अपने लक्ष्य कीटों को मारता है। शेष कीटनाशक अन्य जीवों को नुकसान पहुंचाते हैं तथा भूमि व जल को प्रदूषित करते हैं। पोषण विशेषज्ञ सी. गोपालन ने बताया है कि रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंन उपयोग से मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों की गंभीर कमी हो गई है जो इसमें उगे खाद्यों में भी नज़र आने लगी है।

प्रति हैक्टर उत्पादकता में औसत वार्षिक वृद्धि (प्रतिशत)
फसलहरित क्रांति पूर्व (1951-61)हरित क्रांति पश्चात (1968-81)
गेंहू3.73.3
धान3.22.7
ज्वार3.42.9
बाजरा2.66.3
मक्का4.81.7
मोटे अनाज2.61.5
दालें2.3-0.2
तिलहन1.30.8
कपास3.02.6
गन्ना1.63.1
(स्रोत: 12वीं पंचवर्षीय योजना)

इन प्रभावों के बावजूद कहा जाता है कि एच.वाई.वी. बीजों को अपनाए बिना खाद्य उत्पादन व कृषि उत्पादन बढ़ाना संभव नहीं था। यह एक बहुत बड़ा मिथक है जिसे निहित स्वार्थों ने फैलाया है ताकि वे रासायनिक उर्वरक व कीटनाशक पर आधारित नीतियों का प्रसार करते रहें जिसके चलते पर्यावरण रक्षा करने वाले विकल्प उपेक्षित रहे हैं।

दूसरी ओर, हरित क्रांति से पहले व बाद के कृषि उत्पादकता के आंकड़ों से यह स्पष्ट पता चलता है कि वास्तव में हरित क्रांति से पहले कृषि उत्पादकता की वृद्धि दर बेहतर थी, जबकि इस दौरान रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं का उपयोग बहुत ही कम था।

12वीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज़ में इस बारे में विस्तृत आंकड़े प्रकाशित किए गए हैं कि हरित क्रांति से पहले के 15 वर्षों में उत्पादकता वृद्धि कितनी हुई है तथा उसके बाद उत्पादकता वृद्धि कितनी हुई है? यह जानकारी तालिका में प्रस्तुत है।

तालिका से स्पष्ट है कि हरित क्रांति से उत्पादकता में शीघ्र वृद्धि की बात महज एक मिथक है। दूसरी ओर यह सच है कि हरित क्रांति के दौर में रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक वगैरह पर खर्च बहुत तेज़ी से बढ़ा है। पहले 15 वर्षों की अपेक्षा बाद के 12 वर्षों में रासायनिक उर्वरकों की खपत लगभग छह गुना बढ़ गई व कीटनाशकों में वृद्धि इससे भी कहीं अधिक थी।

यह बहुत ज़रूरी है कि अनुचित मिथकों से छुटकारा पाया जाए व सही तथ्यों को देखा जाए ताकि किसानों के हित व पर्यावरण रक्षा वाली नीतियां अपनाई जाएं तथा किसानों के अनावश्यक खर्चों को कम कर उनके संकट के समाधान की ओर बढ़ा जाए। इस समय देश और दुनिया में सैकड़ों उदाहरण उपलब्ध हैं जहां महंगी रासायनिक खाद व कीटनाशकों के बिना अच्छी कृषि उत्पादकता प्राप्त की गई है। इनसे सीखते हुए आगे बढ़ना चाहिए।

इस संदर्भ में विख्यात कृषि वैज्ञानिक डॉ. आर. एच. रिछारिया के कार्य से भी बहुत सीख मिलती है। 25 वर्ष की उम्र में ही कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि हासिल करने के कुछ वर्षों पश्चात वर्ष 1959 में वे केंद्रीय धान अनुसंधान केंद्र के निदेशक नियुक्त हुए व वर्ष 1967 तक इस पद पर रहे। वर्ष 1971 में वे मध्यप्रदेश के धान अनुसंधान संस्थान के निदेशक नियुक्त हुए तथा 1976 तक इस पद पर रहे।

डॉ. रिछारिया धान विशेषज्ञ थे। इस संदर्भ में उन्होंने हमेशा एक बात कही कि धान की खेती का विकास स्थानीय प्रजातियों के आधार पर ही होना चाहिए। हमारे देश में धान की बहुत समृद्ध जैव-विविधता मौजूद है व किसानों को इस बारे में बहुत परंपरागत ज्ञान है। वे कई पीढ़ियों से इन विविध किस्मों को अपने खेतों पर उगाते आ रहे हैं। पर हाल के वर्षों की अनुचित नीतियों के कारण परंपरागत बीज तेज़ी से लुप्त होते जा रहे हैं। अत: इनका संरक्षण अब बहुत आवश्यक है जो किसानों के खेतों पर ही जीवंत रूप से संभव है।

उन्होंने कीटनाशक त्यागने व रासायनिक खाद के बहुत कम उपयोग पर ज़ोर दिया। उन्होंने रासायनिक खाद व कीटनाशकों के अनुकूल नई किस्में लाने के स्थान पर परंपरागत किस्मों में ही बहुत अच्छी उत्पादकता देने वाली किस्मों की पहचान की। इनकी उत्पादकता तथाकथित हरित क्रांति में उपयोग की गई किस्मों के बराबर या अधिक है।

उन्होंने परंपरागत बीजों व किस्मों सम्बंधी किसानों (विशेषकर आदिवासी किसानों) के ज्ञान की प्रशंसा की तथा इस परंपरागत ज्ञान का भरपूर उपयोग करते हुए कृषि अनुसंधान व प्रसार की एक वैकल्पिक विकेंद्रित व्यवस्था विकसित करने का आग्रह किया। उनका कहना था कि इस व्यवस्था में गांवों में ही अनुभवी किसानों की सहायता से खेती (विशेषकर धान की खेती) के अनुसंधान केंद्र विकसित किए जाने चाहिए। किसानों के परंपरागत ज्ञान का उपयोग करते हुए व उनकी भागीदारी से वैज्ञानिकों को अपना सहयोग देना चाहिए।

डॉ. रिछारिया ने कृषि अनुसंधान की जो सोच रखी थी उसमें स्वाभाविक रूप से किसानों का खर्च कम होता है, उनकी आत्म निर्भरता बढ़ती है व उनके परंपरागत ज्ञान का संरक्षण व प्रसार होता है। साथ में आधुनिक विज्ञान की नई बातों का उपयोग होता है व यह स्पष्ट होता है कि किसानों को आधुनिक विज्ञान से क्या चाहिए व क्या नहीं चाहिए।

जलवायु बदलाव के दौर में डॉ. रिछारिया के इस सोच की उपयोगिता और भी बढ़ गई है क्योंकि इससे खेती में बदलते मौसम के अनुकूल व्यावहारिक बदलाव करने की किसानों की क्षमता निश्चित तौर पर बढ़ जाती है। डॉ. रिछारिया द्वारा बनाई गई व्यवस्था में किसान स्वयं बदलते मौसम के अनुसार अपनी कृषि में ज़रूरी बदलाव कर सकते हैं।

परंपरागत बीजों की उपलब्धता शीघ्र बढ़ाने में उनकी क्नोनल प्रोपेगेशन तकनीक या कृन्तक प्रसार विधि से बहुत मदद मिलती है।(स्रोत फीचर्स)

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पसीना बहाकर डिटॉक्स भ्रम मात्र है

वैसे तो लोग पसीने से नाक-भौं सिकोड़ते हैं और इससे निजात पाने के लिए तरह-तरह के डिओ और अन्य उपाय अपनाते हैं। लेकिन आजकल पसीना चलन और स्टाइल में है, खासकर जिम में। इसके अलावा पसीना बहाने के लिए तरह-तरह के विकल्प चलन में हैं, जैसे हॉट योगा, इन्फ्रारेड सौना वगैरह। लोग ये सब इस चाह में अपना रहे हैं कि इस तरह पसीना बहाकर वे अपने शरीर से विषाक्त पदार्थों को बाहर निकाल देंगे, अन्य शब्दों में कहें तो शरीर को डिटॉक्स कर देंगे।

लेकिन वास्तविकता थोड़ी अलग है। पसीना बहाऊ गतिविधियां करके आप शरीर से अधिकतर पानी ही बाहर निकालते हैं और अन्य पदार्थ न के बराबर। पसीना मुख्यत: हमारे शरीर को ठंडा रखने के लिए निकलता है, शरीर से अपशिष्ट या विषाक्त पदार्थ बाहर निकालने के लिए नहीं। इस काम के लिए हमारे शरीर में किडनी और लीवर हैं।

मैकगिल युनिवर्सिटी में विज्ञान और समाज विभाग के निदेशक व रसायन शास्त्री जो श्वार्क्ज़ बताते हैं कि पसीने से शरीर को डिटॉक्स करने की बात एक मिथक है। पसीने में ज़्यादातर पानी होता है, साथ ही इसमें अत्यल्प मात्रा में अन्य सैकड़ों पदार्थ हो सकते हैं जिनमें से कुछ विषैले पदार्थ भी हो सकते हैं। इसलिए जब भी इस तरह डिटॉक्स करने की बात हो तो ये सवाल ज़रूरी है कि पसीना बहाकर कितना डिटॉक्स होगा? और क्या? क्या पसीने के साथ कीटनाशक शरीर से बाहर निकल जाएंगे? धातुएं या कुछ और बाहर निकल जाएगा?

जब आप इस बात पर गौर करेंगे कि वास्तव में हमारे शरीर में विषाक्त पदार्थ कैसे जमा होते हैं, उनके गुण क्या हैं, और शरीर उनसे छुटकारा पाने के क्या तरीके अपनाता है तो आप पाएंगे कि अधिकांश डिटॉक्स योजनाएं बकवास हैं।

जब हमारा शरीर गर्म होता है या हम व्यायाम करते हैं तो हमारे पूरे शरीर में फैली एक्राइन ग्रंथियां पसीना स्रावित करती हैं। हमारे शरीर में इनकी संख्या करीब तीस लाख है। चूंकि हमारा शरीर अपने को ठंडा रखने के लिए पसीना बहाता हैं इसलिए इसमें 99 प्रतिशत से अधिक पानी होता है। इस पानी में बहुत थोड़ी मात्रा में सोडियम और कैल्शियम जैसे खनिज, विभिन्न प्रोटीन, लैक्टिक एसिड और थोड़ा यूरिया होता है।

यूरिया भोजन में प्रोटीन के टूटने से लीवर में बनता है। यह हमारे शरीर में बनने वाला एक अपशिष्ट उत्पाद है। यह कहना तो ठीक है कि पसीने के साथ शरीर से थोड़ा यूरिया भी निकल जाता है लेकिन सच्चाई यह है कि इसका अधिकांश हिस्सा पेशाब के ज़रिए शरीर से बाहर निकलता है और यह काम किडनी करती है।

अब बात करते हैं मानव निर्मित प्रदूषकों की। कार्बनिक प्रदूषक जैसे कीटनाशक, अग्निरोधी और पॉलीक्लोरिनेटेड बाइफिनाइल (पीसीबी) शरीर में प्रवेश करके शरीर की वसा में जाकर जमा हो जाते हैं क्योंकि ये पदार्थ वसा-प्रेमी (या वसा में घुलनशील) होते हैं। पसीने में मुख्यत: पानी होता है, वसा नहीं। नतीजतन, ये वसा-प्रेमी पदार्थ पानी में नहीं घुलते और पसीने के साथ इतनी कम मात्रा में निकलते हैं कि इसे डिटॉक्स कहना व्यर्थ है। ओटावा विश्वविद्यालय के एक्सरसाइज़ फिज़ियोलॉजिस्ट पास्कल इम्बॉल्ट ने 2018 में अपने अध्ययन में पसीने में इन्हीं विषाक्त पदार्थों की मात्रा की गणना की थी। और पाया था कि 45 मिनट का कठोर व्यायाम करके कोई सामान्य व्यक्ति पूरे दिन में कुल दो लीटर पसीना बहा सकता है, और इस पसीने में इन प्रदूषकों की मात्रा एक नैनोग्राम के दसवें हिस्से से भी कम होती है।

इसे इस तरह समझते हैं कि आप दिन भर में जितनी भी मात्रा में विषाक्त पदार्थ का सेवन करते हैं पसीने के साथ उसका महज 0.02 प्रतिशत हिस्सा ही बहाते हैं। और आप कुछ भी करके पूरे दिन में अधिक से अधिक दैनिक सेवन का 0.04 प्रतिशत तक ही प्रदूषक पसीने में बहा सकते हैं।

यह भी बात ध्यान में रखने की है कि अधिकांश लोगों के शरीर में कीटनाशकों और अन्य प्रदूषकों का स्तर बेहद कम होता है। सिर्फ इसलिए कि वे हमारे शरीर में मौजूद हैं इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी इतनी मात्रा हमें कोई नुकसान पहुंचा रही है, या शरीर से इन्हें हटाने से स्वास्थ्य पर कोई प्रभाव पड़ेगा।

चलिए अब इस मिथक की लेशमात्र सच्चाई को देखते हैं। प्लास्टिक में मौजूद सीसा जैसी भारी धातुएं और बीपीए वसा की जगह पानी में आसानी से घुलते हैं। इसलिए ये बहुत थोड़ी मात्रा में पसीने के साथ बाहर निकल जाते हैं। लेकिन तथ्य यह है कि बीपीए का अधिकांश हिस्सा पेशाब के ज़रिए शरीर से निकलता है।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप पानी पी-पीकर पेशाब करते रहें ताकि शरीर विषमुक्त रहे। इसकी बजाय विशेषज्ञों की सलाह है कि प्लास्टिक की चीज़ों में खाने-पीने से बचें ताकि बीपीए का सेवन कम से कम हो। कोशिश करें कि कीटनाशक या अन्य प्रदूषक रहित खाद्य का सेवन करें और इनके संपर्क में आने से बचें। इसके अलावा शरीर के सफाईकर्मी अंग यानी किडनी को स्वस्थ रखें – इसके लिए आप धूम्रपान से, उच्च रक्तचाप और इबुप्रोफेन जैसी दर्दनिवारक दवाइयों के अत्यधिक उपयोग से बचें। और पर्याप्त पानी पिएं। शरीर में पानी की कमी से किडनी पर दबाव पड़ता है, इसलिए पर्याप्त पानी पिए बिना खूब पसीना बहाने से शरीर की सफाई प्रणाली गड़बड़ा सकती है।

और, बाज़ार के चलन के झांसे में न आएं। बाज़ार जानता है कि हर मनुष्य स्वस्थ रहना चाहता है। और, क्योंकि हम विषाक्त पदार्थों को देख नहीं सकते इसलिए बाज़ार लोगों को बहुत आसानी से यह विश्वास दिला देता है कि इस तरह का उपवास करने से, डाइट प्लान लेने से, या सलाद-सब्ज़ियां खाने या जूस पीने से, या बहुत अधिक पसीना बहाने के उनके विकल्प अपनाकर आप स्वस्थ रहेंगे।

दरअसल, कई मामलों में स्वेट थेरेपी की अति से लोगों की जान तक गई है। अमेरिकन कॉलेज ऑफ स्पोर्ट्स मेडिसिन के अनुसार एक बार में 10 मिनट से अधिक समय तक सौना रूम में नहीं रहना चाहिए। 2011 में, एरिज़ोना में एक स्व-सहायता गुरु द्वारा आयोजित दो घंटे लंबे पसीना समारोह के बाद तीन लोगों की मौत हो गई थी। इसी वर्ष, क्यूबेक में एक 35 वर्षीय महिला की मृत्यु हो गई थी। इस महिला के शरीर पर डिटॉक्स स्पा उपचार के तहत मिट्टी का लेप किया गया था, फिर उसे प्लास्टिक में लपेटकर सिर पर एक कार्डबोर्ड का बक्सा रख दिया गया। और ऊपर से कंबल ओढ़ाकर उसे नौ घंटे तक रखा गया। इस तरह वह पसीना तो बहाती रही लेकिन उपचार के कुछ घंटों बाद ही अत्यधिक गर्मी के कारण उसकी मृत्यु हो गई।

यह तो जानी-मानी बात है कि बाज़ार आपकी स्वस्थ रहने और अन्य हसरतों को जानता है। इसका फायदा उठाकर वह दावे करता है कि कोई उत्पाद या विकल्प अपनाकर आप तुरंत वैसे हो सकते हैं जैसे आप होना चाहते हैं। बाज़ार को रोकना मुश्किल है, लेकिन आप बाज़ार के झांसे में न आएं और समझदारी से काम लें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विलुप्ति की कगार पर थार रेगिस्तान

ई सदियों से दक्षिण एशियाई मानसून ने भारत में जीवन को लयबद्ध किया है। इसके प्रभाव से हमेशा से पूर्वी क्षेत्र हरा-भरा रहा है जबकि पश्चिम में स्थित विशाल थार रेगिस्तान सूखा रहा है। इस जलवायु ने अनेकों सभ्यताओं और संस्कृतियों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन अब इस जलवायु पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है। हालिया अध्ययन के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के कारण वर्तमान मौसम के पैटर्न में परिवर्तन की संभावना है जिससे मानसून पश्चिम की ओर सरक रहा है। ऐसा ही चलता रहा तो मात्र एक सदी की अवधि में यह विशाल थार रेगिस्तान पूरी तरह से गायब हो सकता है।

इस परिवर्तन से एक अरब से अधिक लोग प्रभावित हो सकते हैं। स्क्रिप्स इंस्टीट्यूशन ऑफ ओशिएनोग्राफी के जलवायु वैज्ञानिक शांग-पिंग झी का विचार है कि इस अध्ययन का निहितार्थ है कि थार रेगिस्तान में बाढ़ें आएंगी जो पिछले वर्ष पाकिस्तान में आई भयंकर बाढ़ जैसी हो सकती हैं जिसमें 80 लाख लोग बेघर हो गए थे और लगभग 15 अरब डॉलर की संपत्ति का नुकसान हुआ था।

आम तौर पर ऐसा कहा जाता है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण रेगिस्तान फैलेंगे, लेकिन इसके विपरीत थार रेगिस्तान के हरियाने संभावना है। इस पैटर्न को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने दक्षिण एशिया के आधी सदी के मौसमी आंकड़ों का अध्ययन किया। एकत्रित डैटा में उन्होंने मानसूनी वर्षा को पश्चिम की ओर खिसकते पाया, इससे कुछ शुष्क उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में वर्षा में 50 प्रतिशत तक वृद्धि हुई है जबकि आर्द्र पूर्वी क्षेत्र में वर्षा में कमी आई है। अर्थ्स फ्यूचर में प्रकाशित भूपेंद्र यादव व साथियों के इस जलवायु मॉडल का अनुमान है कि मानसून के पश्चिम की ओर 500 किलोमीटर से अधिक खिसकने के कारण अगली सदी तक थार में लगभग दुगनी वर्षा होने लगेगी।

इसका मुख्य कारण हिंद महासागर का असमान रूप से गर्म होना है, जिससे कम दबाव का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र पश्चिम की ओर खिसकेगा जिससे बरसात में परिवर्तन होगा। परिणामस्वरूप भारत में शुष्क मौसम का प्रतीक थार रेगिस्तान सदी के अंत तक हरा-भरा हो सकता है। और तो और, यह वर्षा रिमझिम नहीं होगी बल्कि काफी तेज़ होगी जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा। अलबत्ता, इस बदलाव का सदुपयोग भी किया जा सकता है। वर्षा जल का संचयन और भूजल भंडार रणनीतियों को मज़बूत करके थार के कृषि क्षेत्र को पुनर्जीवित किया जा सकता है। यह उस काल जैसा हो सकता है जब 5000 वर्ष पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता विकसित हुई थी। साथ ही, भारी बारिश से जुड़े कई खतरे भी होंगे। पाकिस्तान में हाल ही में आई विनाशकारी बाढ़ संभावित तबाही के संकेत देती है।

स्पष्ट है कि बदलते जलवायु क्षेत्रों की बारीकी से निगरानी करना होगी और घनी आबादी वाले क्षेत्रों में विशेष निगरानी ज़रूरी है जहां मामूली जलवायु परिवर्तन भी विनाशकारी परिणाम ला सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक अजूबा है चूहा हिरण – प्रमोद भार्गव

चूहा, हिरण और खरगोश – तीन प्राणि एक ही प्राणि में शामिल हैं? एकाएक यह बात विश्वसनीय नहीं लगती। परंतु दुनिया का यह सबसे छोटा हिरण प्रकृति का एक अजूबा है। बताते हैं कि विलुप्ति की कगार पर खड़े ये हिरण छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जि़ले में स्थित अचानकमार अभयारण्य और कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में पाए जाते हैं। कांगेर घाटी अभयारण्य में इस दुर्लभ प्रजाति के हिरण का चित्र अचानक ही कैमरा में कैद हुआ है।

भारत में पाए जाने वाले हिरणों की 12 प्रजातियों में से एक प्रजाति चूहा-हिरण (Moschiola indica) की भी है। इसे विश्व का सबसे छोटा हिरण माना जाता है। इन अभयारण्यों के वन प्रांतरों में भारी-भरकम, खतरनाक और मांसाहारी वन्य प्राणियों के बीच यह छोटा एवं अत्यंत चंचल जीव कब तक बचा रहेगा, यह तो वक्त ही तय करेगा। हिरण और चूहे की शारीरिक बनावट व आदतों वाले इस नन्हे जंतु को हिंदी में ‘चूहा-हिरण’ संस्कृत में ‘मूषक-मृग’ और अंग्रेज़ी में माउस डियर कहते हैं। यह ट्रेगुलिडी कुल में आता है। वैसे बिलासपुर क्षेत्र के स्थानीय लोग इसे खरगोश की एक प्रजाति मानते आए हैं। इसलिए वे इसे ‘खरहा’ कहकर पुकारते हैं।

यहां के आदिवासी इसे घेरकर लाठियों से आसानी से मार लेते हैं। यदि यह लाठी की मार में नहीं आता तो वे इसे विष बुझे तीरों से निशाना भी बनाते हैं। दुर्लभ प्राणियों की श्रेणी में सूचीबद्ध होने के कारण इसके शिकार पर पूरी तरह प्रतिबंध है, संभवत: इसीलिए इसका अस्तित्व अभी तक बचा हुआ है। अब जागरूकता के चलते आदिवासी भी इसका शिकार नहीं करते हैं।

कुदरत का यह अजीब नमूना शक्ल-सूरत में खरगोश की तरह दिखता है, पर इसका मुंह एकदम चूहे से मिलता-जुलता है। इसकी त्वचा गहरा हरापन लिए भूरी-सी होती है। इससे इसे हरियाली के बीच छिपने में मदद मिलती है। अन्य हिरणों की तरह इसकी सूंघने व सुनने शक्ति तेज़ होती है। इससे यह दुश्मन को दूर से ही ताड़ लेता है और भागकर हरी घास अथवा झाड़ियों में छिप जाता है। इस तरह यह प्राणि हिंसक जीवों से अपनी रक्षा स्वयं कर लेता है।

इसकी त्वचा पर पेट के दोनों तरफ दो-दो चकत्तों में सफेद धारियां होती हैं। यही धारियां इसकी खास पहचान हैं तथा खरगोश व इसमें भेद करती हैं। इसका मुंह कुछ लंबा और कान छोटे होते हैं। इसके सिर पर सींग नहीं पाए जाते हैं, इसलिए यह एंटिलोप समूह का हिरण नहीं है। सींग की बजाय इसके मुंह पर ऊपरी जबड़े में दो कैनाइन दांत होते हैं। ये दांत कस्तूरी मृग में भी पाए जाते हैं। इन्हीं दांतों की सहायता से यह आहार को तोड़ता व चबाता है। इसके पैर गोल होने के साथ खुरों से युक्त होते हैं। खुर दो हिस्सों में विभाजित रहते हैं।

इनका रहवास विशेष रूप से घनी झाड़ियों और नमी वाले नमक्षेत्र होते हैं। अधिकतर ज़्यादा वर्षा वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। शरीर की लंबाई 57.5 सेंटीमीटर तक होती है और पूंछ करीब 2.5 से.मी. लंबी होती है। इस तरह से यह कुल लगभग 61 से.मी. लंबा होता है। इसकी ऊंचाई 35 से.मी. तक होती है और वज़न तीन से सात किलोग्राम तक होता है। यह जंगलों में आठ से बारह वर्ष तक जीवित रह सकता है। यह पूरी तरह शाकाहारी प्राणि है और हिरण की अन्य प्रजातियों की तरह घास और फूल-पत्तियां ही खाता है।

भारत, नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत अन्य दक्षिण एशियाई और पूर्व एशियाई देशों के उष्णकटिबंधीय नमी वाले क्षेत्रों में भी ये पाए जाते हैं। बिना सींगों वाले हिरणों का यह एकमात्र समूह है। शर्मीले और निशाचर होने के कारण इन पर भारत में ज़्यादा अध्ययन नहीं हुए हैं, इसीलिए इनके बारे में विशेष जानकारी भारतीय प्राणि विशेषज्ञों के पास भी नहीं है।

इनका प्रजनन काल पूरे साल चलता है। मादा साल में दो मर्तबा बच्चे जनती है। आम तौर पर एक बार में एक ही बच्चा जनती है, पर कभी-कभार दो बच्चे भी जनती है। ये बच्चे पैदा होने के 24 घंटे बाद चलने-फिरने व दौड़ने लगते हैं। चूहा हिरण की रफ्तार खरगोश से बहुत तेज़ होती है। अन्य हिरणों की भांति यह कुलांचे भरने में भी निपुण होता है। चूहा हिरण से कुछ बड़ा चिलियन हिरण पुडू पुडा (Pudu puda) होता है जो हमारे देश में नहीं पाया जाता। चिलियन पुडू पुडा की लंबाई 85 सेंटीमीटर और ऊंचाई 45 सेंटीमीटर तक होती है। शोरगुल, यांत्रिक कोलाहल व मानवीय हलचल से दूर ये हिरण नितांत एकांत पसंद करते हैं। मनुष्य का हस्तक्षेप, भले ही वह इसके संरक्षण के लिए ही क्यों न हो, इसके प्रजनन पर प्रतिकूल असर डालता है। इसलिए चिड़ियाघरों में यह हिरण ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा नहीं रहता। लिहाज़ा, अब बड़े चिड़ियाघरों ने इसे पालना बंद कर दिया है।

छत्तीसगढ़ में चूहा हिरण को पहली बार 1905 में एक अंग्रेज़ नागरिक ने रायपुर में देखा था। इसके संरक्षण के बेहतर प्रयास छत्तीसगढ़ से अधिक तेलंगाना प्रांत में हो रहे हैं। तेलंगाना के जंगलों में अब तक चूहा हिरण के 17 जोड़े छोड़े गए हैं। लेकिन इस हिरण के उचित संरक्षण हेतु इसकी आदतों और नैसर्गिक प्रक्रियाओं का विस्तृत अध्ययन करने की आवश्यकता है।(स्रोत फीचर्स)

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रहस्यमय भारतीय चील-उल्लू – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भारतीय चील-उल्लू (Bubo bengalensis) को कुछ वर्षों पूर्व ही एक अलग प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया था और इसे युरेशियन चील-उल्लू (Bubo bubo) से अलग पहचान मिली थी। भारतीय प्रजाति सचमुच एक शानदार पक्षी है। मादा नर से थोड़ी बड़ी होती है और ढाई फीट तक लंबी हो सकती है, और उसके डैनों का फैलाव छह फीट तक हो सकता है। इनके विशिष्ट कान सिर पर सींग की तरह उभरे हुए दिखाई देते हैं। इस बनावट के पीछे एक तर्क यह दिया जाता है कि ये इन्हें डरावना रूप देने के लिए विकसित हुए हैं ताकि शिकारी दूर रहें। यदि यह सही है, तो ये सींग वास्तव में अपना काम करते हैं और डरावना आभास देते हैं।

निशाचर होने के कारण इस पक्षी के बारे में बहुत कम मालूमात हैं। इनके विस्तृत फैलाव (संपूर्ण भारतीय प्रायद्वीप) से लगता है कि इनकी आबादी काफी स्थिर है। लेकिन पक्के तौर पर कहा नहीं जा सकता क्योंकि ये बहुत आम पक्षी नहीं हैं। इनकी कुल संख्या की कभी गणना नहीं की गई है। हमारे देश में वन क्षेत्र में कमी होते जाने से आज कई पक्षी प्रजातियों की संख्या कम हो रही है। लेकिन भारतीय चील-उल्लू वनों पर निर्भर नहीं है। उनका सामान्य भोजन, जैसे चूहे, बैंडिकूट और यहां तक कि चमगादड़ और कबूतर तो झाड़-झंखाड़ और खेतों में आसानी से मिल जाते हैं। आसपास की चट्टानी जगहें इनके घोंसले बनाने के लिए आदर्श स्थान हैं।

मिथक, अंधविश्वास

मानव बस्तियों के पास ये आम के पेड़ पर रहना पसंद करते हैं। ग्रामीण भारत में, इस पक्षी और इसकी तेज़ आवाज़ को लेकर कई अंधविश्वास हैं। इनका आना या इनकी आवाज़ अपशकुन मानी जाती है। प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सलीम अली ने लोककथाओं का दस्तावेज़ीकरण किया है जो यह कहती हैं कि चील-उल्लू को पकड़कर उसे पिंजरे में कैद कर भूखा रखा जाए तो यह मनुष्य की आवाज़ में बोलता है और लोगों का भविष्य बताता है।

उल्लू द्वारा भविष्यवाणी करने सम्बंधी ऐसे ही मिथक यूनानी से लेकर एज़्टेक तक कई संस्कृतियों में व्याप्त हैं। कहीं माना जाता है कि वे भविष्यवाणी कर सकते हैं कि युद्ध में कौन जीतेगा, तो कहीं माना जाता है कि आने वाले खतरों की चेतावनी दे सकते हैं। लेकिन हम उन्हें ज्ञान से भी जोड़ते हैं। देवी लक्ष्मी का वाहन उल्लू (उलूक) ज्ञान और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।

भारतीय चील-उल्लू से जुड़े नकारात्मक अंधविश्वास हमें इनके घोंसले वाली जगहों पर इनकी उग्र सुरक्षात्मक रणनीति पर विचार करने को मजबूर करते हैं। इनके घोंसले चट्टान पर खरोंचकर बनाए गोल कटोरेनुमा संरचना से अधिक कुछ नहीं होते, जिसमें ये चार तक अंडे देते हैं। इनके खुले घोंसले किसी नेवले या इंसान की आसान पहुंच में होते हैं। यदि कोई इनके घोंसले की ओर कूच करता है तो ये उल्लू खूब शोर मचाकर उपद्रवी व्यवहार करते हैं, और घुसपैठिये के सिर पर पीछे की ओर से अपने पंजे से झपट्टा मारकर वार करते हैं।

खेती में लाभकारी

इन उल्लुओं की मौजूदगी से किसानों को निश्चित ही लाभ होता है। एला फाउंडेशन और भारतीय प्राणि वैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा किए गए शोध से पता चलता है कि झाड़-झंखाड़ के पास घोंसले बनाने वाले भारतीय चील-उल्लुओं की तुलना में खेतों के पास घोंसले बनाने वाले भारतीय चील-उल्लू संख्या में अधिक और स्वस्थ होते हैं। ज़ाहिर है, उन्हें चूहे वगैरह कृंतक जीव बड़ी संख्या में मिलते होंगे। और उल्लुओं के होने से किसानों को भी राहत मिलती होगी।

इन उल्लुओं का भविष्य क्या है? भारत में पक्षियों के प्रति रुचि बढ़ती दिख रही है। पक्षी निरीक्षण (बर्ड वॉचिंग),  जिसे एक शौक कहा जाता है, अधिकाधिक उत्साही लोगों को लुभा रहा है। ये लोग पक्षियों की गणना, सर्वेक्षण और प्रवासन क्षेत्रों का डैटा जुटाने में योगदान दे रहे हैं। लेकिन यह काम अधिकतर दिन के उजाले में किया जाता है जिसमें उल्लुओं के दर्शन प्राय: कम होते हैं। उम्मीद है कि भारतीय चील-उल्लू जैसे निशाचर पक्षियों के भी दिन (रात) फिरेंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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