ब्रेकथ्रू संक्रमण मतलब टीकों की असफलता नहीं है

न दिनों सोशल मीडिया और समाचार में कोविड-19 टीके से टीकाकृत लोगों में ‘ब्रेकथ्रू संक्रमण’ की खबर सुर्खियों में है। ऐसे में टीके द्वारा प्रदान की जाने वाली सुरक्षा को लेकर आम जनता के बीच एक गलत धारणा विकसित हो रही है और लोग टीका लगवाने में संकोच कर रहे हैं। ब्रेकथ्रू संक्रमण का मतलब होता है कि एक बार संक्रमित हो जाने या टीकाकरण के बाद फिर से संक्रमित हो जाना। इन्फ्लुएंज़ा, खसरा और कई अन्य बीमारियों में भी ब्रेकथ्रू संक्रमण देखे गए हैं।

देखा जाए तो कोई भी टीका शत प्रतिशत प्रभावी नहीं होता है। हां, कुछ टीके अन्य की तुलना में अधिक प्रभावी हो सकते हैं लेकिन अधिकांश टीकों में ब्रेकथ्रू संक्रमण होते हैं। वास्तव में ‘ब्रेकथ्रू संक्रमण’ का मतलब है कि किसी टीकाकृत व्यक्ति में रोगकारक उपस्थित है, यह नहीं कि वह बीमार पड़ेगा या संक्रमण फैलाएगा। टीकाकृत लोग संक्रमित होते हैं तो अधिकांश में बीमारी के कोई लक्षण नहीं होते हैं, और यदि होते भी हैं तो वे गंभीर रूप से बीमार नहीं पड़ते। यहां तक कि डेल्टा संस्करण के विरुद्ध भी टीका गंभीर बीमारी या मौत के जोखिम के खिलाफ पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करता है।

उदाहरण के लिए, अमेरिका में लगभग आधी आबादी का टीकाकरण हो चुका है। फिर भी, कोविड-19 के कारण अस्पताल में भर्ती होने वाले 97 प्रतिशत मामले उन लोगों के हैं जिनका टीकाकरण नहीं हुआ है। यानी टीका न लगवाने वाले अधिक संख्या में बीमार हुए हैं।    

ब्रेकथ्रू संक्रमण के मामले में एक चिंता यह व्यक्त हुई है कि ऐसे लोग दूसरों को वायरस फैलाएंगे। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि टीकाकृत लोगों द्वारा वायरस फैलाने की संभावना कम होती है, यहां तक कि लक्षण विहीन लोगों द्वारा भी। यानी यदि आप टीकाकृत हैं तो आपके संक्रमित होने की संभावना तो काफी कम है ही, और यदि आप संक्रमित हो भी जाते हैं तो आपके द्वारा वायरस प्रसार का जोखिम काफी कम होगा। एक कारण यह है कि ऐसे संक्रमणों में वायरस की मात्रा ही कम होती है।     

गौरतलब है कि ब्रेकथ्रू के मामले टीके के अप्रभावी होने से नहीं होते हैं। समय के साथ प्रतिरक्षा कम होना, या किसी विशेष रोगजनक के प्रति टीके का अप्रभावी होना इसके कारण हो सकते हैं। जॉन्स हॉपकिंस ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ में डिपार्टमेंट ऑफ इंटरनेशनल हेल्थ की एसोसिएट प्रोफेसर कौसर तलात बताती हैं कि एमएमआर (मीज़ल्स-मम्स-रूबेला) का टीका एक ऐसा ही उदाहरण है। इसमें खसरा के विरुद्ध तो मज़बूत सुरक्षा प्राप्त होती है लेकिन मम्स के विरुद्ध प्रतिरक्षा क्षमता कम मिलती है। लेकिन खसरा के भी ब्रेकथ्रू संक्रमण देखे गए हैं। इसी वजह से 1980 के दशक में खसरा के व्यापक प्रकोप के बाद से नीति में परिवर्तन किया गया और एक के बजाय एमएमआर की दो खुराकें दी जाने लगीं।

इन्फ्लुएंज़ा टीके से तो सबसे अधिक ब्रेकथ्रू संक्रमण जुड़े हैं। विशेषज्ञों के अनुसार यदि इन मामलों को बारीकी से ट्रैक किया जाने लगे तो सार्स-कोव-2 से भी अधिक ब्रेकथ्रू मामले देखने को मिल जाएंगे। बल्कि वास्तविकता तो यह है कि कोविड टीके इन्फ्लुएंज़ा टीकों से बेहतर प्रदर्शन करते प्रतीत हो रहे हैं। अभी तक तो कोविड टीके नए संस्करणों के विरुद्ध काफी प्रभावी रहे हैं। यहां तक कि कोविड प्रतिरक्षा पर उतना हावी नहीं हो पाता जितना इन्फ्लुएंज़ा होता है। कई बार कम प्रभावी टीके के चलते कुछ मौसमों में बड़ी संख्या में ब्रेकथ्रू मामले होते हैं।

ब्रेकथ्रू दर का सम्बंध टीकाकृत जनसंख्या पर निर्भर करता है। यदि टीकाकृत लोगों की संख्या कम है तो समुदाय में ब्रेकथ्रू की दर अधिक होगी। दूसरी ओर, उच्च टीकाकरण का मतलब होगा कि अधिकांश मामले टीकाकृत लोगों के होंगे।

ब्रेकथ्रू संक्रमण में टीकाकृत लोगों की बड़ी संख्या का एक अन्य कारक उनकी आयु, स्वास्थ्य स्थिति भी है, जिनका सम्बंध कमज़ोर प्रतिरक्षा तंत्र से देखा गया है। ऐसे लोगों में टीकों के प्रति प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया थोड़ी कमज़ोर होती है और वे अधिक जोखिम में होते हैं। ऐसे लोगों को कोविड के बूस्टर शॉट की आवश्यकता हो सकती है। अंग प्रत्यारोपण किए गए रोगियों में टीके की तीसरी खुराक से अच्छे परिणाम देखने को मिले हैं। फ्रांस और इस्राइल ने कमज़ोर प्रतिरक्षा वाले लोगों में पहले से ही तीसरी खुराक देने का निर्णय लिया है और यूके भी इस पर विचार कर रहा है। सीडीसी ने भी बूस्टर शॉट से सम्बंधित डैटा की समीक्षा के बाद विशेष आबादी के लिए सहमति दी है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि जब तक हमारे पास बूस्टर शॉट से सम्बंधित स्पष्ट और ठोस परिणाम नहीं है तब तक सबका टीकाकरण ही सबसे बेहतर उपाय है क्योंकि ऐसा करके आम लोगों के अलावा कमज़ोर प्रतिरक्षा वाले लोगों को भी सुरक्षा प्रदान की जा सकेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्भावस्था के दौरान मधुमेह

र्भस्थ शिशु को पोषण की ज़रूरत होती है, और इसकी पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए गर्भावस्था के दौरान मां की शरीर क्रिया में व्यापक परिवर्तन होते हैं। इनमें से एक परिवर्तन है इंसुलिन के प्रति संवेदनशीलता में कमी है; यानी कोशिकाएं रक्त से ग्लूकोज़ लेने का संकेत देने वाले इंसुलिन संकेतों के प्रति कम संवेदी हो जाती हैं। पांच से नौ प्रतिशत गर्भवती महिलाओं में कोशिकाएं इतनी इंसुलिन प्रतिरोधी हो जाती हैं कि रक्त में शर्करा का स्तर नियंत्रित नहीं रह पाता। इसे गर्भकालीन मधुमेह (जीडीएम) कहते हैं। अस्थायी होने के बावजूद यह गर्भवतियों और उनके बच्चे में भविष्य में टाइप-2 मधुमेह और अन्य बीमारियां का खतरा बढ़ा देता है।

पूर्व में, मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय की रेज़ील रोजास-रॉड्रिग्ज़ ने जीडीएम से ग्रस्त और जीडीएम से मुक्त गर्भवतियों के वसा ऊतक में अंतर पाया था। वैसे तो गर्भावस्था के दौरान गर्भवतियों में वसा की मात्रा में वृद्धि सामान्य बात है, लेकिन जीडीएम-पीड़ित गर्भवतियों में बड़ी-बड़ी वसा कोशिकाएं अंगों के आसपास जमा हो जाती हैं। यह भी देखा गया था कि जीडीएम रहित गर्भवतियों की तुलना में जीडीएम-पीड़ित गर्भवतियों के वसा ऊतकों में इंसुलिन संकेत से सम्बंधित कुछ जीन्स की अभिव्यक्ति कम होती है। शोधकर्ता जानना चाहते थे कि क्या गर्भावस्था के दौरान वसा ऊतकों के पुनर्गठन और इंसुलिन प्रतिरोध विकसित होने के बीच कोई सम्बंध है?

यह जानने के लिए उन्होंने गर्भावस्था से जुड़े प्लाज़्मा प्रोटीन-ए (PAPPA) का अध्ययन किया। PAPPA मुख्य रूप से प्लेसेंटा द्वारा बनाया जाता है, यह इंसुलिन संकेतों का नियंत्रण करता है और गर्भावस्था के दौरान रक्त में इन संकेतों को बढ़ाता है। परखनली अध्ययन में पाया गया कि PAPPA मानव वसा ऊतक के पुनर्गठन में भूमिका निभाता है और रक्त वाहिनियों के विकास को बढ़ावा देता है। गर्भवती जंगली चूहों पर अध्ययन में पाया गया कि PAPPA की कमी वाली चुहियाओं में उनके यकृत के आसपास अधिक वसा जमा थी, और उनमें इंसुलिन संवेदनशीलता भी कम पाई गई थी।

शोधकर्ताओं ने 6361 गर्भवती महिलाओं की प्रथम तिमाही में PAPPA परीक्षण और तीसरी तिमाही में ग्लूकोज़ परीक्षण के डैटा का अध्ययन भी किया। टीम ने पाया कि PAPPA में कमी जीडीएम होने की संभावना बढ़ाती है। इससे लगता है कि PAPPA जीडीएम की स्थिति बनने से रोक सकता है।

अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि PAPPA के स्तर और जीडीएम के बीच सम्बंध स्पष्ट नहीं है क्योंकि संभावना है कि किसी व्यक्ति में जीडीएम किन्हीं अन्य वजहों से होता हो। और जिन चूहों में PAPPA प्रोटीन खामोश कर दिया गया था वे चूहे मानव गर्भावस्था की सभी विशेषताएं भी नहीं दर्शाते। मसलन, भले ही PAPPA विहीन चूहों में अन्य की तुलना में इंसुलिन के प्रति संवेदनशीलता कम हो गई थी, लेकिन उनमें ग्लूकोज़ के प्रति सहनशीलता बढ़ी हुई थी। शोधदल का कहना है कि ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि इन चूहों की मांसपेशियां सामान्य से अधिक मात्रा में ग्लूकोज़ खर्च करती हैं – शायद अधिक दौड़-भाग के कारण।

शोधकर्ता अब पूरी गर्भावस्था के दौरान PAPPA प्रोटीन को मापना चाहती हैं। वे बताती हैं कि इस प्रोटीन का उपयोग जीडीएम के बायोमार्कर की तरह किया जा सकता है और संभवत: गर्भकालीन मधुमेह के निदान के लिए उपयोग किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जनसंख्या वृद्धि दर घट रही है – सोमेश केलकर

र्ष 1951 की जनगणना में भारत की जनसंख्या 36.1 करोड़ थी। वर्ष 2011 में हम 1.21 अरब लोगों की शक्ति बन गए। भारत की जनसंख्या में तथाकथित ‘जनसंख्या विस्फोट’ से कई समस्याएं बढ़ीं – जैसे बेरोज़गारी जो कई पंचवर्षीय योजनाओं के बाद भी हमारे साथ है, गरीबी, संसाधनों की कमी और स्वास्थ्य सुविधाओं व उनकी उपलब्धता में कमी।

हालांकि, कुछ राहत देने वाली खबर भी है। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोश द्वारा जारी एक रिपोर्ट बताती है कि 2010-2019 के दौरान भारत की जनसंख्या वृद्धि दर काफी धीमी पड़ी है। रिपोर्ट के अनुसार, 2001-2011 के दशक की तुलना में 2010-2019 के दशक में भारत की जनसंख्या वृद्धि 0.4 अंक कम होने की संभावना है। 2011 की जनगणना के अनुसार 2001-2011 के बीच औसत वार्षिक वृद्धि दर 1.64 प्रतिशत थी।

रिपोर्ट आगे बताती है कि अब अधिक भारतीय महिलाएं जन्म नियंत्रण के लिए गर्भ निरोधक उपयोग कर रही हैं और परिवार नियोजन के आधुनिक तरीके अपना रही हैं, जो इस बात का संकेत भी देता है कि पिछले दशक में महिलाओं की अपने शरीर पर स्वायत्तता बढ़ी है और महिलाओं द्वारा अपने प्रजनन अधिकार हासिल करने में वृद्धि हुई है। हालांकि, बाल विवाह की समस्या अब भी बनी हुई है और ऐसे विवाहों की संख्या बढ़ी है।

2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 1.21 अरब थी और 2036 तक इसमें 31.1 करोड़ का इजाफा हो जाएगा। अर्थात 2031 में चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश हो जाएगा। यह पड़ाव संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अनुमान (वर्ष 2022) की तुलना में लगभग एक दशक देर से आएगा।

तेज़ गिरावट

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि कई प्रांतों की जनसंख्या वृद्धि दर प्रतिस्थापन-स्तर तक पहुंच गई है, हालांकि कुछ उत्तरी प्रांत अपवाद हैं। प्रतिस्थापन-स्तर से तात्पर्य है कि जन्म दर इतनी हो कि वह मृतकों की क्षतिपूर्ति कर दे।

जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट पहले लगाए गए अनुमानों की तुलना में अधिक तेज़ी से हो रही है। जनांकिकीविदों और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि जनसंख्या वृद्धि अब योजनाकारों के लिए कोई गंभीर समस्या नहीं रह गई है। हालांकि, भारत के संदर्भ में बात इतनी सीधी नहीं है। उत्तर और दक्षिण में जनसंख्या वृद्धि दर में असमान कमी आई है। यदि यही रुझान जारी रहा तो कुछ जगहों पर श्रमिकों की कमी हो सकती है और इस कमी की भरपाई के लिए अन्य जगहों से प्रवासन हो सकता है।

विषमता

उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के सरकारी आंकड़ों को देखें तो इन राज्यों की औसत प्रजनन दर 3 से अधिक है, जो दर्शाती है कि सरकार के सामने यह अब भी एक चुनौती है। पूरे देश की तुलना में इन राज्यों में स्थिति काफी चिंताजनक है – देश की औसत प्रजनन दर लगभग 2.3 है जो आदर्श प्रतिस्थापन दर (2.1) के लगभग बराबर है।

संयुक्त राष्ट्र की पिछली रिपोर्ट में महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश वे राज्य हैं जिनकी प्रजनन दर आदर्श प्रतिस्थापन प्रजनन दर से बहुत कम हो चुकी है।

विकास अर्थशास्त्री ए. के. शिव कुमार बताते हैं कि विषम आंकड़ों वाले राज्यों में भी प्रजनन दर में कमी आ रही है, हालांकि इसके कम होने की रफ्तार उतनी अधिक नहीं है। इसका कारण है कि इन राज्यों में महिलाओं को पर्याप्त प्रजनन अधिकार और अपने शरीर पर स्वायत्तता हासिल नहीं हुई है। महिलाओं पर संभवत: समाज, माता-पिता, ससुराल और जीवन साथी की ओर से बच्चे पैदा करने का दबाव भी पड़ता है।

रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत की दो-तिहाई से अधिक आबादी कामकाजी आयु वर्ग (15-64 वर्ष) की है। एक चौथाई से अधिक आबादी 0-14 आयु वर्ग की है और लगभग 6 प्रतिशत आबादी 65 से अधिक उम्र के लोगों की है। अर्थशास्त्रियों का मत है कि यदि भारत इस जनांकिक वितरण का लाभ उठाना चाहता है तो उसे अभी से ही शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बहुत कुछ करना होगा।

जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट

राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग द्वारा प्रकाशित जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट बताती है कि

  • वर्ष 2011-2036 के दौरान भारत की जनसंख्या 2011 की जनसंख्या से 25 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है, यानी 36.1 करोड़ की वृद्धि के साथ यह लगभग 1.6 अरब होने की संभावना है
  • भारत की जनसंख्या वृद्धि दर 2011-2021 के दशक में सबसे कम (12.5 प्रतिशत प्रति दशक) रहने की उम्मीद है। रिपोर्ट के अनुसार 2021-2031 के दशक में भी यह गिरावट जारी रहेगी और जनसंख्या वृद्धि दर 8.4 प्रतिशत प्रति दशक रह जाएगी।
  • इन अनुमानों के हिसाब से भारत दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश चीन से आगे निकल जाएगा। यदि इन अनुमानों की मानें तो यह स्थिति संयुक्त राष्ट्र के अनुमानित वर्ष 2022 के लगभग एक दशक बाद बनेगी।

शहरी आबादी में वृद्धि

जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट में भारत की शहरी आबादी में वृद्धि का दावा भी किया गया है। जबकि वास्तविकता कुछ और ही है, और यह इससे स्पष्ट होती है कि हम शहरी आबादी किसे कहते हैं। जिस तरह दुनिया भर की सरकारें गरीबी में कमी दिखाने के लिए गरीबी कम करने के उपाय अपनाने की बजाय परिभाषाओं में हेरफेर का सहारा लेती रही हैं, यहां भी ऐसा ही कुछ मामला लगता है।

रिपोर्ट का अनुमान है कि लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या वृद्धि ग्रामीण क्षेत्रों में होगी। 2036 में भारत की शहरी आबादी 37.7 करोड़ से बढ़कर 59.4 करोड़ हो जाएगी। यानी 2011 में जो शहरी आबादी 31 प्रतिशत थी, 2036 में वह बढ़कर 39 प्रतिशत हो जाएगी। ग्रामीण से शहरी आबादी में बदलाव सबसे नाटकीय ढंग से केरल में दिखेगा। वर्ष 2036 तक यहां 92 प्रतिशत आबादी शहरों में रह रही होगी। जबकि 2011-2015 में यह सिर्फ 52 प्रतिशत थी।

तकनीकी समूह के सदस्य और वर्तमान में नई दिल्ली में विकासशील देशों के लिए अनुसंधान और सूचना प्रणाली से जुड़े अमिताभ कुंडु के अनुसार केरल में यह बदलाव वास्तव में अनुमान लगाने के लिए उपयोग किए गए तरीकों के कारण दिखेगा।

2001 से 2011 के बीच केरल में हुए ग्रामीण क्षेत्रों के शहरी क्षेत्र में पुन:वर्गीकरण के चलते केरल में कस्बों की संख्या 159 से बढ़कर 520 हो गई। इस तरह वर्ष 2001 में केरल का 26 प्रतिशत शहरी क्षेत्र, 2011 में बढ़कर 48 प्रतिशत हो गया। यानी केरल में 2001-2011 के बीच शहरी आबादी में वृद्धि दर में बदलाव नए तरह से वर्गीकरण के कारण दिखा, ना कि ज़बरदस्त विकास के कारण। इन्हीं नई परिभाषाओं का उपयोग वर्ष 2036 के लिए जनसंख्या वृद्धि का अनुमान लगाने में किया गया है, जो इस रिपोर्ट के निष्कर्षों पर सवाल उठाता है। रिपोर्ट मानकर चलती है कि भारत के सभी राज्य जनसंख्या गणना के लिए वर्तमान परिभाषा और वर्गीकरण का उपयोग करेंगे। लेकिन ऐसा करेंगे या नहीं यह कहना मुश्किल है क्योंकि यह पक्के तौर पर नहीं बताया जा सकता कि भविष्य में पुन:वर्गीकरण या पुन:परिभाषित किया जाएगा या नहीं। यदि पुन:वर्गीकरण या पुन:परिभाषित किया गया तो जनसंख्या के आंकड़े और इसे मापने के हमारे तरीके बदल जाएंगे।

प्रवासन की भूमिका

भारत के जनसांख्यिकीय परिवर्तन में प्रवासन की भी भूमिका है। अनुमान लगाने में उपयोग किए गए कोहोर्ट कंपोनेंट मॉडल में प्रजनन दर, मृत्यु दर और प्रवासन दर को शामिल किया गया है। जबकि ‘अंतर्राष्ट्रीय प्रवासन’ को नगण्य मानते हुए शामिल नहीं किया गया है। अनुमान के लिए 2001-2011 के दशक का अंतर्राज्यीय प्रवासन डैटा लिया गया है और माना गया है कि अनुमानित वर्ष के लिए राज्यों के बीच प्रवासन दर अपरिवर्तित रहेगी।

इस अवधि में, उत्तर प्रदेश और बिहार से लोगों का प्रवासन सर्वाधिक हुआ, जबकि महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली में प्रवास करके लोग आए।

जनसंख्या वृद्धि में अंतर

यदि उत्तर प्रदेश एक स्वतंत्र देश होता तो यह विश्व का आठवां सबसे अधिक आबादी वाला देश होता। 2011 में उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 19.9 करोड़ थी जो वर्ष 2036 में बढ़कर 25.8 करोड़ से भी अधिक हो जाएगी – यानी आबादी में लगभग 30 प्रतिशत की वृद्धि होगी।

बिहार की जनसंख्या को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। बिहार जनसंख्या वृद्धि दर के मामले में उत्तर प्रदेश को भी पछाड़ सकता है। 2011 में बिहार की जनसंख्या 10.4 करोड़ थी, और अनुमान है कि लगभग 42 प्रतिशत की बढ़ोतरी के बाद वर्ष 2036 में यह 14.8 करोड़ हो जाएगी। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि 2011-2036 के बीच भारत की जनसंख्या वृद्धि में 54 प्रतिशत योगदान पांच राज्यों – उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश का होगा। वहीं दूसरी ओर, पांच दक्षिणी राज्य – केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु का कुल जनसंख्या वृद्धि में योगदान केवल नौ प्रतिशत होगा। उपरोक्त सभी दक्षिणी राज्यों की कुल जनसंख्या वृद्धि 2.9 करोड़ होगी जो सिर्फ उत्तर प्रदेश की जनसंख्या वृद्धि की आधी है।

घटती प्रजनन दर

उत्तर प्रदेश और बिहार सर्वाधिक कुल प्रजनन दर वाले राज्य हैं। कुल प्रजनन दर यानी प्रत्येक महिला से पैदा हुए बच्चों की औसत संख्या। 2011 में उत्तर प्रदेश और बिहार की कुल प्रजनन दर क्रमश: 3.5 और 3.7 थी। ये भारत की कुल प्रजनन दर 2.5 से काफी अधिक थीं। जबकि कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों की कुल प्रजनन दर 2 से कम थी। यदि वर्तमान रफ्तार से कुल प्रजनन दर कम होती रही तो अनुमान है कि 2011-2036 के दशक में भारत की कुल प्रजनन दर 1.73 हो जाएगी। और, 2035 तक बिहार ऐसा एकमात्र राज्य होगा जिसकी कुल प्रजनन दर 2 से अधिक (2.38) होगी।

वर्ष 2011 में मध्यमान आयु 24.9 वर्ष थी। प्रजनन दर में गिरावट के कारण वर्ष 2036 तक यह बढ़कर 35.5 वर्ष हो जाएगी। भारत में, जन्म के समय जीवन प्रत्याशा लड़कों के लिए 66 और लड़कियों के लिए 69 वर्ष थी, जो बढ़कर क्रमश: 71 और 74 वर्ष होने की उम्मीद है। इस मामले में भी केरल के शीर्ष पर होने की उम्मीद है। यह जन्म के समय लड़कियों की 80 से अधिक और लड़कों की 74 वर्ष से अधिक जीवन प्रत्याशा वाला एकमात्र भारतीय राज्य होगा। 2011 की तुलना में 2036 में स्त्री-पुरुष अनुपात में भी सुधार होने की संभावना है। 2036 तक यह वर्तमान प्रति 1000 पुरुष पर 943 महिलाओं से बढ़कर 952 हो जाएगा। 2036 तक कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक होने की संभावना है।

श्रम शक्ति पर प्रभाव

दोनों रिपोर्ट देखकर यह स्पष्ट होता है कि जैसे-जैसे देश की औसत आयु बढ़ेगी, वैसे-वैसे देश चलाने वाले लोगों की ज़रूरतें भी बढ़ेंगी। चूंकि अधिकांश श्रमिक आबादी 30-40 वर्ष की आयु वर्ग की होगी इसलिए संघर्षण दर (एट्रीशन रेट) में गिरावट देखी जा सकती है; यह उम्र आम तौर पर ऐसी उम्र होती है जब लोगों पर पारिवारिक दायित्व होते हैं और इसलिए वे जिस नौकरी में हैं उसी में बने रहना चाहते हैं और जीवन में स्थिरता चाहते हैं। उनकी स्वास्थ्य सम्बंधी ज़रूरतों में भी देश में बदलाव दिखने की संभावना है।

जनसंख्या में असमान वृद्धि के कारण श्रमिकों की अधिकता वाले राज्यों से श्रमिकों का प्रवासन श्रमिकों की कमी वाले राज्यों की ओर होने की संभावना है। यदि राज्य अभी से स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा पर अपना खर्च बढ़ा दें तो राज्यों के पास नवजात बच्चों के लिए एक सुदृढ़ सरकारी बुनियादी ढांचा होगा, जो भविष्य में इन्हें कुशल कामगार बना सकता है और राज्य अपने मानव संसाधन का अधिक से अधिक लाभ उठा सकते हैं। अकुशल श्रमिक की तुलना में एक कुशल श्रमिक का अर्थव्यवस्था में बहुत अधिक योगदान होता है।

स्वास्थ्य सुविधाओं पर प्रभाव

अगर अनुमानों की मानें तो देश में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या में वृद्धि भी देश की स्वास्थ्य सम्बंधी प्राथमिकताओं को प्रभावित कर सकती है और उसे बदल भी सकती है। जब किसी देश में प्रजनन दर में कमी के साथ-साथ जीवन प्रत्याशा बढ़ती है, तो जनसांख्यिकीय औसत आयु बढ़ती है। यानी देश की स्वास्थ्य सम्बंधी प्राथमिकताएं तेज़ी से बदलेंगी। वरिष्ठ नागरिकों की संख्या बढ़ने के चलते बुज़ुर्गों के लिए सार्वजनिक व्यय बढ़ाने की ज़रूरत पड़ भी सकती है और नहीं भी। यह इस बात पर निर्भर होगा कि देश की सार्वजनिक पूंजी और सामाजिक कल्याण, और समाज के लिए इनकी उपलब्धता और पहुंच की स्थिति क्या है।

आज़ादी के समय से ही भारत में असमान आय, स्वास्थ्य देखभाल की उपलब्धता और पहुंच की कमी जैसी समस्याएं बनी हुई हैं, भविष्य में भी ये चुनौतियां बढ़ेंगी। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए सरकार यदि अभी से ही स्वास्थ्य देखभाल पर व्यय और निवेश में वृद्धि नहीं करती तो आने वाले दशकों में स्वास्थ्य सेवा पर सार्वजनिक खर्च सरकार के लिए बोझ बन सकता है। और भविष्य में हमें अधिक प्रवासन झेलना पड़ेगा, सेवानिवृत्ति की आयु में बहुत अधिक वृद्धि होगी और बुज़ुर्गों की देखभाल में लगने वाले सार्वजनिक खर्च जुटाने के उपाय खोजने पड़ेंगे।

जनसंख्या नियंत्रण नीतियां

पिछले कुछ समय में जनसंख्या नियंत्रण जैसी बातें भी सामने आई हैं। इसमें असम और उत्तर प्रदेश सबसे आगे हैं। उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग ने दो बच्चों की नीति को बढ़ावा देने वाले प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण विधेयक का एक मसौदा जारी किया है। इसका उल्लंघन करने का मतलब होगा कि उल्लंघनकर्ता स्थानीय चुनाव लड़ने, सरकारी नौकरियों में आवेदन करने या किसी भी तरह की सरकारी सब्सिडी प्राप्त करने से वंचित कर दिया जाएगा। असम में यह कानून पहले से ही लागू है और उत्तर प्रदेश यह कानून लागू करने वाला दूसरा राज्य होगा।

ये प्रावधान ‘उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण और कल्याण) विधेयक, 2021’ नामक मसौदे का हिस्सा हैं। विधेयक का उद्देश्य न केवल लोगों को दो से अधिक बच्चे पैदा करने के लिए दंडित करना है, बल्कि निरोध (कंडोम) और गर्भ निरोधकों के मुफ्त वितरण के माध्यम से परिवार नियोजन के बारे में जागरूकता बढ़ाना और गैर-सरकारी संगठनों की मदद से छोटे परिवार के महत्व और लाभ समझाना भी है।

सरकार सभी माध्यमिक विद्यालयों में जनसंख्या नियंत्रण सम्बंधी विषय अनिवार्य रूप से शामिल करना चाहती है। दो बच्चों का नियम लागू कर सरकार जनसंख्या नियंत्रण के प्रयासों को फिर गति देना चाहती है और इसे नियंत्रित और स्थिर करना चाहती है।

दो बच्चों के नियम को मानने वाले वाले लोक सेवकों को प्रोत्साहित भी किया जाएगा। मसौदा विधेयक के अनुसार दो बच्चे के मानदंड को मानने वाले लोक सेवकों को पूरी सेवा में दो अतिरिक्त वेतन वृद्धि मिलेगी, पूर्ण वेतन और भत्तों के साथ 12 महीनों का मातृत्व या पितृत्व अवकाश दिया जाएगा, और राष्ट्रीय पेंशन योजना के तहत नियोक्ता अंशदान निधि में तीन प्रतिशत की वृद्धि की जाएगी।

कागज़ों में तो यह अधिनियम ठीक ही नज़र आता है, लेकिन वास्तव में इसमें कई समस्याएं हैं। विशेषज्ञों का दावा है कि ये जबरन की नीतियां लाने से जन्म दर कम करने पर वांछित प्रभाव नहीं पड़ेगा।

चीन ने हाल ही में अपनी दो बच्चों की नीति में संशोधन किया है। और पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने एक बयान जारी कर कहा है कि भारत को चीन की इस जबरन की नीति की विफलता से सबक लेना चाहिए। धर्म प्रजनन स्तर में बहुत कम बदलाव लाएगा। वास्तविक बदलाव तो ‘शिक्षा, रोज़गार के अवसर और गर्भ निरोधकों की उपलब्धता और उन तक पहुंच’ से निर्धारित होगा।

जनसंख्या नियंत्रण नीति की कुछ अंतर्निहित समस्याएं भी हैं। यह तो सब जानते हैं कि भारत में लड़का पैदा करने पर ज़ोर रहता है। लड़के की उम्मीद में कभी-कभी कई लड़कियां होती जाती हैं। लोग इस तथ्य को पूरी तरह नज़अंदाज़ कर देते हैं कि प्रत्येक अतिरिक्त बच्चा घर का खर्चा बढ़ाता है। दो बच्चों की नीति से लिंग चयन और अवैध गर्भपात में वृद्धि हो सकती है, जिससे महिला-पुरुष अनुपात और कम हो सकता है।

विधेयक में बलात्कार या अनाचार से, या शादी के बिना, या किशोरावस्था में हुए गर्भधारण से पैदा हुए बच्चों के लिए कोई जगह नहीं है। कई बार या तो बलात्कार के कारण, या किसी एक या दोनों पक्षों की लापरवाही के कारण, या नादानी में गर्भ ठहर जाता है। इस नियम के अनुसार दो से अधिक बच्चों वाली महिला सरकारी नौकरी से या स्थानीय चुनाव लड़ने के अवसर से वंचित कर दी जाएगी, जो कि अनुचित है क्योंकि काफी संभावना है कि उसके साथ बलात्कार हुआ हो और इस कारण तीसरा बच्चा हुआ हो।

इस तरह के विधेयक के साथ एक वैचारिक समस्या भी है। क्या सरकार उसे सत्ता में लाने वाली अपनी जनता पर यह नियंत्रण रखना चाहती है कि वे कितने बच्चे पैदा कर सकते हैं? स्वतंत्रता के बाद से भारत में, एक परिवार में बच्चों की औसत संख्या में लगातार कमी आई है। इसमें कमी लाने के लिए हमें किसी जनसंख्या नियंत्रण कानून की आवश्यकता नहीं है। विकास, परिवार नियोजन की जागरूकता और एक प्रेरक जनसंख्या नियंत्रण नीति ने अब तक काम किया है, न कि तानाशाही नीति ने। रिपोर्ट दर्शाती है कि भारत में 2011 से 2021 के दौरान प्रजनन दर में कमी आई है, और यह कमी तब आई है जब हमारे पास सिर्फ प्रेरक जनसंख्या नियंत्रण नीतियां थीं। हमें अपने आप से यह सवाल करने की ज़रूरत है कि उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग द्वारा प्रस्तावित सख्त सत्तावादी नीति की क्या वास्तव में हमें आवश्यकता है? भले ही हमें गुमराह करने का प्रयास हमारी धार्मिक पहचान के आधार पर किया गया हो – जैसे ‘बिल का उद्देश्य विभिन्न समुदायों की आबादी के बीच संतुलन स्थापित करना है’ – हमें इस तरह के कानून की उपयोगिता पर ध्यान देना चाहिए और देखना चाहिए कि क्या वास्तव में यह जनसंख्या को नियंत्रित करने में मदद करेगा, न कि हमारी धार्मिक पहचान को हमारे तर्कसंगत निर्णय पर हावी होने देना चाहिए।

निष्कर्ष

विभिन्न जनसंख्या रिपोर्ट से यह स्पष्ट है कि हमारी जनसंख्या वृद्धि दर में काफी कमी आई है, जीवन प्रत्याशा बढ़ रही है, आबादी में बुज़ुर्गों की संख्या बढ़ने वाली है और राज्य स्तर पर श्रमिकों का प्रवासन हो सकता है। एक राष्ट्र के रूप में हमें भविष्य के लिए एक सुदृढ़ स्वास्थ्य ढांचे के साथ तैयार रहना चाहिए। बेहतर शिक्षा उपलब्ध करवाकर नवजात शिशु को भविष्य के कुशल मानव संसाधन बनाने के लिए तैयार रहना चाहिए। हमें अगले दशक के लिए यह सुनिश्चित करने वाली एक व्यापक और विस्तृत योजना बनानी चाहिए कि प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर तक पहुंच जाए और उसी स्तर पर बनी रहे। विकास, परिवार नियोजन पर जागरूकता बढ़ाने, राष्ट्र की औसत साक्षरता दर बढ़ाने, स्वास्थ्य सेवा को वहनीय, सुलभ बनाने व उपलब्ध कराने, और बेरोज़गारी कम करने के लिए भी निवेश योजना की आवश्यकता है। ये सभी कारक जनसंख्या नियंत्रण में सीधे-सीधे योगदान देते हैं। लेकिन, जिस तरह की स्थितियां बनी हुई हैं उससे इस कानून के लागू होने की संभावना लगती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वायरस की मदद से परजीवी ततैया पर विजय

वायरस की मदद से परजीवी ततैया पर पतंगों और तितलियों के दो बड़े दुश्मन हैं – परजीवी ततैया और वायरस। ये एक दूसरे से संघर्ष भी करते हैं। एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि कुछ वायरस संक्रमण के बाद पतंगों और तितलियों में अपने जीन्स स्थानांतरित करते हैं जिससे वे परजीवी का सफाया करने वाले प्रोटीन बनाने लगते हैं।

गौरतलब है कि ततैया और मक्खियों की कई प्रजातियां अन्य कीड़ों के अंदर अपने अंडे देती हैं जिससे उनकी संतानों को भोजन का स्रोत और विकास के लिए एक सुरक्षित स्थान मिल जाता है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में मेज़बान जीव की जान चली जाती है। लेकिन आर्मीवर्म, कटवर्म और कैबेज बटरफ्लाई जैसी कुछ प्रजातियों में कुछ ततैया के प्रति प्रतिरोध देखा गया है।

मामले की छानबीन के लिए टोकियो युनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर एंड टेक्नॉलॉजी की कीटविज्ञानी मडोका नकाई और उनकी टीम ने पहले नॉर्थ आर्मीवर्म लार्वा को सामान्य पॉक्स वायरस से संक्रमित किया और फिर विभिन्न परजीवी ततैया प्रजातियों से संपर्क करवाया। असंक्रमित लार्वा परजीवियों के शिकार हो गए, जबकि वायरस-संक्रमित लार्वा और उनके प्लाज़्मा ने मीटियोरस पल्चीकॉर्निस के अलावा, लगभग सभी परजीवियों को खत्म कर दिया। शोधकर्ताओं ने संक्रमित आर्मीवर्म में दो प्रोटीन्स की भी पहचान की, जिसे उन्होंने पैरासीटॉइड किलिंग फैक्टर (PKF) नाम दिया। उन्हें लगता है कि यह परजीवी के लिए विषैला हो सकता है।                

इसके बाद युनिवर्सिटी ऑफ वालेंसिया के कीट विज्ञानी साल्वेडोर हेरेरो और सहयोगियों ने कीट-संक्रामक वायरस और पतंगे व तितली दोनों में वे जीन्स खोज निकाले जो PKF का निर्माण कर सकते हैं। विश्लेषण से पता चलता है कि PKF जीन कई बार वायरस से इन कीटों में स्थानांतरित हुआ है। यानी वायरस से संक्रमित होने के बाद भी कोई कीट जीवित रहे तो उसे ऐसा जीन मिल जाता है जो परजीवी से रक्षा करता है।

PKF प्रोटीन की भूमिका की बात सुनिश्चित करने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया के आणविक जीवविज्ञानी डेविड थीलमन और उनके सहयोगियों ने आर्मीवर्म्स को दो वायरसों से संक्रमित किया। उन्होंने पाया कि संक्रमित आर्मीवर्म्स ततैया लार्वा को रोकने में सफल रहे। इसके अलावा, बीट आर्मीवर्म जिनके स्वयं के जीन PKF का निर्माण करते हैं, भी परजीवियों को मारने में सक्षम थे। जब PKF बनाने वाले जीन को खामोश कर दिया, तो कई परजीवी जीवित रहे। अर्थात परजीवियों को मारने में PKF की भूमिका है। रिपोर्ट साइंस में प्रकाशित हुई है।    

PKF से परजीवी कैसे मरते हैं यह पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने एक ततैया लार्वा को संक्रमित नार्थ आर्मीवर्म प्लाज़्मा के संपर्क में रखा। पता चला कि PKF ने प्रभावित कोशिकाओं को तहस-नहस कर दिया था।                                 

इस अध्ययन से शोधकर्ताओं को फसलों और जंगलों में लार्वा-परजीवियों के रूप में उपयोग किए जाने वाले कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोध को समझने में मदद मिल सकती है। हालांकि, इसकी जटिलता को समझने के लिए अभी और अध्ययन की आवश्यकता है। फिर भी, इन नए प्रोटीन्स की पहचान से आगे का रास्ता तो मिला है। शोधकर्ता वायरस-मेज़बान-परजीवी के पारस्परिक प्रभाव को जांचना चाहते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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हवा से प्राप्त डीएनए से जीवों की पहचान

डीएनए हर जगह पाया जाता है। यह हवा में भी मौजूद होता है, इसी कारण कई लोगों को पराग या बिल्ली के बालों की रूसी से एलर्जी होती है। हाल ही में दो शोध समूहों ने अलग-अलग काम करते हुए बताया है कि वातावरण में कई जीवों का डीएनए पाया जाता है जो आसपास के क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति का पता लगाने में काम आ सकता है।

टेक्सास टेक युनिवर्सिटी के इकॉलॉजिस्ट मैथ्यू बार्नेस इस अध्ययन को काफी महत्वपूर्ण मानते हैं जिससे हवा के नमूनों की मदद से पारिस्थितिकी तंत्र में कई प्रजातियों का पता लगाया जा सकता है। इसके लिए शोधकर्ता काफी समय से पानी में बिखरे डीएनए की मदद से ऐसे जीवों को खोजने का प्रयास कर रहे थे जो आसानी से नज़र नहीं आते। झीलों, नदियों और तटीय क्षेत्रों से प्राप्त पर्यावरणीय डीएनए (ई-डीएनए) से प्राप्त नमूनों से शोधकर्ताओं को लायनफिश के साथ-साथ ग्रेट क्रेस्टेड न्यूट जैसे दुर्लभ जीवों का पता लगाने में भी मदद मिली। हाल ही में कुछ वैज्ञानिकों ने तो पत्तियों की सतह से प्राप्त ई-डीएनए से कीड़ों को ट्रैक किया और मृदा से प्राप्त ई-डीएनए से कई स्तनधारियों का भी पता लगाया।

अलबत्ता, हवा में उपस्थित ई-डीएनए पर कम अध्ययन हुए हैं। हालांकि, यह अभी स्पष्ट नहीं है कि जीव कितने ऊतक हवा में छितराते हैं और आनुवंशिक सामग्री कितने समय तक हवा में बनी रहती है। पूर्व के कुछ अध्ययनों में हवा में बहुतायत से पाए जाने वाले बैक्टीरिया और कवक सहित अन्य सूक्ष्मजीवों का पता लगाने के लिए मेटाजीनोमिक अनुक्रमण का उपयोग किया गया है। इस तकनीक में डीएनए के मिश्रण का विश्लेषण किया जाता है। इसके साथ ही 2015 में वाशिंगटन डीसी में लगाए गए एयर मॉनीटर्स में कई प्रकार के कशेरुकी और आर्थोपोडा जंतुओं के ई-डीएनए पाए गए थे। हालांकि इस तकनीक की उपयोगिता के बारे में अभी कुछ स्पष्ट नहीं था और न ही यह पता था कि स्थलीय जीवों द्वारा त्यागी कोशिकाएं हवा में कैसे बहती हैं।   

इस वर्ष की शुरुआत में यॉर्क युनिवर्सिटी की मॉलिक्यूलर इकॉलॉजिस्ट एलिज़ाबेथ क्लेयर ने पीयर जे में बताया था कि प्रयोगशाला से लिए गए हवा के नमूनों में नेकेड मोल रैट का डीएनए पहचाना जा सकता है। लेकिन खुले क्षेत्रों में ई-डीएनए के उपयोग की संभावना का पता लगाने के लिए क्लेयर और उनके सहयोगियों ने चिड़ियाघर का रुख किया। मुख्य बात यह है कि चिड़ियाघर में प्रजातियां ज्ञात होती हैं और आसपास के क्षेत्रों में नहीं पार्इं जातीं। यहां टीम हवा में पाए जाने वाले डीएनए के स्रोत का पता कर सकती थी।

क्लेयर ने चिड़ियाघर की इमारतों के बाहर और अंदर से 72 नमूने एकत्रित किए। बहुत कम मात्रा में प्राप्त डीएनए को बड़ी मात्रा में प्राप्त करने के लिए पॉलिमरेज़ चेन रिएक्शन का उपयोग किया गया। ई-डीएनए को अनुक्रमित करने के बाद उन्होंने ज्ञात अनुक्रमों के एक डैटाबेस से इनका मिलान किया। टीम ने चिड़ियाघर, उसके नज़दीक और आसपास की 17 प्रजातियों (जैसे हेजहॉग और हिरण) की पहचान की। चिड़ियाघर के कुछ जीवों के ई-डीएनए उनके बाड़ों से लगभग 300 मीटर दूर पाए गए। उन्हें चिड़ियाघर के जीवों को खिलाए जाने वाले चिकन, सूअर, गाय और घोड़े के मांस के ई-डीएनए भी प्राप्त हुए हैं। टीम ने कुल 25 स्तनधारियों और पक्षियों की पहचान की है। इसी प्रकार का एक अध्ययन डेनमार्क के शोधकर्ताओं ने कोपेनहेगन चिड़ियाघर में भी किया। यहां कुल 49 प्रजातियों के कशेरुकी जीवों की पहचान की गई।

कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि इन वायुवाहित डीएनए की मदद से उन जीवों का पता लगाया जा सकता है जिनको खोज पाना काफी मुश्किल होता है। ये जीव मुख्य रूप से शुष्क वातावरण, गड्ढों या गुफाओं में रहते हैं या फिर पक्षियों जैसे ऐसे वन्यजीव जो कैमरों की नज़र से बच निकलते हैं।

हालांकि, इस प्रकार से वायुवाहित डीएनए से जीवों की उपस्थिति का पता लगाना अभी भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि ये ई-डीएनए हवा में कितनी दूरी तक यात्रा कर सकते हैं। यानी डैटा के आधार पर किसी जीव की हालिया स्थिति बताना मुश्किल है। डीएनए बहकर कितनी दूर जाएगा यह कई कारकों पर निर्भर करता है। जैसे ई-डीएनए जंगल की तुलना में घास के मैदानों में ज़्यादा दूरी तक फैल सकता है। इसमें एक मुख्य सवाल यह भी है कि वास्तव में जीव डीएनए का त्याग कैसे करते हैं। संभावना है कि वे अपनी त्वचा को खरोंचने, रगड़ने, छींकने या लड़ाई जैसी गतिविधियों के दौरान त्यागते होंगे। इसके अलावा ई-डीएनए अध्ययन में नमूनों को संदूषण से बचाना भी काफी महत्वपूर्ण होता है।

लेकिन इन अज्ञात पहलुओं के बावजूद बार्नेस को इस अध्ययन से काफी उम्मीदें हैं। आने वाले समय में इस तकनीक की मदद से वैज्ञानिक हवा के नमूनों से कीटों की पहचान करने का भी प्रयास करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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फसल उत्पादन में मिट्टी के सूक्ष्मजीवों की भूमिका

कई और अन्य प्रमुख फसलों का विपुल उत्पादन संकरण तकनीक पर निर्भर है। जब अलग-अलग अंत:जनित किस्मों का संकरण किया जाता है तो पैदा होने वाली नस्ल लंबी और मज़बूत होती है तथा अधिक पैदावार देती है। इसे संकर ओज कहते हैं और इसके कारणों को भलीभांति समझा नहीं गया है। हाल ही में शोधकर्ताओं ने इसके पीछे मृदा में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों की भूमिका की संभावना जताई है, जो शायद पौधे की प्रतिरक्षा प्रणाली के माध्यम से अपना असर दिखाते हैं।

20वीं सदी की शुरुआत में, जीव विज्ञानियों ने संकर बीजों का निर्माण करके इस प्रभाव को कृषि क्षेत्र में लागू किया था। 1940 के दशक तक, अमेरिका के लगभग सभी किसानों ने संकर मकई लगाना शुरू किया जिसके परिणामस्वरूप फसल में कई गुना वृद्धि हुई। संकर ओज के बारे में कई सिद्धांत दिए गए हैं लेकिन अब तक कोई निश्चित व्याख्या नहीं मिल सकी है।  

इसे समझने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ कैन्सास की पादप आनुवंशिकीविद मैगी वैगनर और उनके साथियों ने सोचा कि शायद इसमें सूक्ष्मजीवों की भूमिका होगी। वास्तव में इन सूक्ष्मजीवों का पौधों पर प्रभाव काफी व्यापक होता है। जैसे लाभदायक बैक्टीरिया और कवक अक्सर पत्तियों और जड़ों में बसेरा बनाते हैं और पौधे को रोगजनक सूक्ष्मजीवों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। सोयाबीन और अन्य फलियों वाली फसलें ऐसे सूक्ष्मजीवों की मेज़बानी करती हैं जो नाइट्रोजन उपलब्ध कराते हैं।

पिछले वर्ष वैगनर ने संकर मकई की पत्तियों और जड़ों में ऐसे सूक्ष्मजीव पाए थे जो मकई की अंत:जनित किस्म से भिन्न थे। वैगनर ने प्रयोगशाला में इस निष्कर्ष को दोहराने की कोशिश की। उन्होंने मिट्टी जैसे पदार्थ से भरी थैलियों में बीज लगाए। इस मिट्टी को पूरी तरह सूक्ष्मजीव रहित (स्टेरिलाइज़) कर दिया गया था। फिर कुछ थैलियों में मृदा बैक्टीरिया का एक सामान्य समूह (मकई की जड़ों में सामान्यत: पाए जाने वाले सात स्ट्रेन) मिलाया जबकि अन्य बैग्स को स्टेरिलाइज़ ही रहने दिया।

अपेक्षा के अनुरूप, सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति में संकर बीज की पैदावार अधिक हुई – उनकी जड़ें अंत:जनित किस्म की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक वज़नी थीं। प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार आश्चर्यजनक रूप से सूक्ष्मजीव-रहित मिट्टी में संकर और अंत:जनित, दोनों किस्मों का विकास एक जैसा रहा।

वैगनर के अनुसार संभवत: संकर पौधे सूक्ष्मजीवों से अलग प्रकार से अंतर्क्रिया करते हैं। परिणामों के आधार पर टीम ने मत व्यक्त किया है कि सूक्ष्मजीवों ने संकर किस्म को बढ़ावा नहीं दिया बल्कि अंत:जनित किस्मों के विकास को धीमा किया। 

हो सकता है कि अंत:जनित किस्मों की प्रतिरक्षा प्रणाली लाभदायक सूक्ष्मजीवों के प्रति अधिक प्रतिक्रिया देती है जिसका प्रतिकूल असर उनके विकास पर पड़ता है। दूसरी ओर, संकर पौधे मृदा के कमज़ोर रोगजनकों से बचाव में बेहतर होते हैं। इस विचार पर और अध्ययन की ज़रूरत है। फिर भी कुछ विशेषज्ञों के अनुसार ये परिणाम दर्शाते हैं कि पौध प्रजनकों को फसल की आनुवंशिकी और उस क्षेत्र के मृदा सूक्ष्मजीवों के बीच तालमेल बनाना चाहिए ताकि खेती को अधिक उत्पादक और टिकाऊ बनाया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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शोध डैटा में हेर-फेर

क एक डच सर्वेक्षण में लगभग आठ प्रतिशत वैज्ञानिकों ने यह बात मानी है कि वर्ष 2017 से 2020 के बीच उन्होंने कम से कम एक बार मिथ्या डैटा या मनगढ़ंत डैटा का उपयोग किया था। सर्वेक्षण में वैज्ञानिकों के नाम गोपनीय रखे गए थे। लगभग 10 प्रतिशत से अधिक चिकित्सा और जीव विज्ञान के शोधकर्ताओं ने भी डैटा में इस तरह के हेर-फेर की बात स्वीकार की है। मेटाआर्काइव (MetaArxiv) प्रीप्रिंट में प्रकाशित इस अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने अक्टूबर 2020 से दिसंबर 2020 के बीच नेदरलैंड के 22 विश्वविद्यालयों के लगभग 64,000 शोधकर्ताओं से संपर्क किया था, जिनमें से 6,813 ने उत्तर दिए थे।

वर्ष 2005 में यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ द्वारा इसी मुद्दे पर एक अध्ययन किया गया था जिसमें बहुत कम वैज्ञानिकों ने माना था कि उन्होंने मिथ्या डैटा का उपयोग किया है या डैटा गढ़ा है; अध्ययन में शामिल 3,000 वैज्ञानिकों में से 0.3 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने यह बात कबूली थी।

डच सर्वेक्षण की अध्ययनकर्ता गौरी गोपालकृष्णन का कहना है कि संभावना है कि पूर्व अध्ययन में डैटा में हेर-फेर की बात स्वीकार करने वाले शोधकर्ताओं का प्रतिशत कम आंका गया हो। क्योंकि पूर्व अध्ययनों में इस मुद्दे पर सवाल घुमा-फिरा कर पूछे गए थे जबकि डच अध्ययन में सवाल सीधे-सीधे किए थे। और इसी कारण से अन्य अध्ययनों के परिणामों से डच अध्ययन के परिणाम की तुलना करने में सावधानी रखनी होगी। वैसे, वर्ष 2001 में डच अध्ययन के तरीके से ही किए गए एक अन्य अध्ययन में लगभग 4.5 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने माना था कि कम से कम एक बार उन्होंने डैटा के साथ छेड़छाड़ की है।

डच सर्वेक्षण में 51 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने 11 ‘आपत्तिजनक अनुसंधान आचरण’ (क्यूआरपी) में से कम से कम एक की बात भी स्वीकारी – जैसे शोध की अपर्याप्त योजना के साथ काम करना, या जानबूझकर पांडुलिपियों या अनुदान प्रस्तावों का निष्पक्ष आकलन न करना। आपत्तिजनक अनुसंधान आचरण को डैटा में हेर-फेर, साहित्यिक चोरी वगैरह की तुलना में कम बुरा माना जाता है।

आपत्तिजनक अनुसंधान आचरण कबूल करने वालों में पीएच.डी. छात्रों, पोस्टडॉक और जूनियर फैकल्टी के होने की संभावना ज़्यादा थी लेकिन डैटा में हेर-फेर और डैटा गढ़ने की बात स्वीकार करने का कोई उल्लेखनीय सम्बंध इस बात से नहीं दिखा कि शोधकर्ता अपने करियर के किस मुकाम पर थे। अलबत्ता, पूर्व अध्ययनों में पाया गया था कि जो शोधकर्ता अपने करियर के मध्य स्तर पर हैं उनकी तुलना में जूनियर शोधकर्ता ऐसे आचरणों में कम लिप्त होते हैं।

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि डैटा मिथ्याकरण के इन आंकड़ों पर सावधानी से विचार किया जाना चाहिए। लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस में शोध दुराचार, नैतिकता और पूर्वाग्रह का अध्ययन करने वाले डेनियल फेनेली ने 2009 में एक मेटा-विश्लेषण किया था जिसमें लगभग दो प्रतिशत शोधकर्ताओं ने मिथ्या डैटा, डैटा गढ़ने या उसमें हेर-फेर करने की बात स्वीकार की थी। इसके अलावा, डच अध्ययन में यह भी स्पष्ट नहीं है कि पिछले तीन वर्ष में ऐसा करने की बात कबूलने वाले शोधकर्ताओं ने वास्तव में ऐसा कितनी बार किया, उनके कितने शोधपत्रों में परिवर्तित डैटा था और क्या उन्होंने वह काम प्रकाशित किया था। अनुसंधान दुराचार होते रहते हैं, लेकिन ये हो रहे हैं इसका पता लगाना और इन्हें साबित करना बहुत मुश्किल है। इसके अलावा अनुसंधान संस्थान भी इन मुद्दों पर पारदर्शिता नहीं दर्शाते।

गोपालकृष्णन और उनके साथियों ने इसी सर्वेक्षण के डैटा का उपयोग कर ज़िम्मेदार अनुसंधान आचरण की पड़ताल करता हुआ एक अन्य अध्ययन मेटाआर्काइव प्रीप्रिंट में प्रकाशित किया है। अध्ययन में पाया गया कि 99 प्रतिशत वैज्ञानिक आम तौर पर साहित्यिक चोरी से बचते हैं, 97 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने हितों के टकराव का खुलासा किया और 94 प्रतिशत वैज्ञानिक प्रकाशन से पहले पांडुलिपि में त्रुटियों की जांच करते हैं। लगभग 43 प्रतिशत शोधकर्ताओं ने ही कहा कि वे प्रयोग सम्बंधी प्रोटोकॉल पहले से पंजीकृत करते हैं, 47 प्रतिशत वैज्ञानिक ही मूल डैटा उपलब्ध कराते हैं, और 56 प्रतिशत वैज्ञानिक ही व्यापक शोध रिकॉर्ड रखते हैं। गोपालकृष्णन का कहना है कि डैटा में हेर-फेर जैसे अनुसंधान दुराचार पर बहुत अधिक ध्यान दिया जाता है, लेकिन अनुसंधान में लापरवाही को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। हमें एक ऐसे माहौल की ज़रूरत है जहां गलतियों को अपराध न माना जाए, आचरण ज़िम्मेदारीपूर्ण हो, और धीमी गति से लेकिन अच्छी गुणवत्ता वाले शोध पर अधिक ध्यान दिया जाए। (स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 टीकों को पूर्ण स्वीकृति का सवाल

क ओर कोविड-19 की तीसरी लहर की बातें हो रही हैं और टीकाकरण की रफ्तार बहुत धीमी है। वैज्ञानिकों और चिकित्सकों का मानना है कि वर्तमान में टीकों को पूर्ण स्वीकृति की बजाय आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी मिलने की वजह से कई लोग टीका लगवाने में झिझक रहे हैं। इसके अतिरिक्त कई देशों में टीका विरोधी कार्यकर्ताओं, टॉक शो और दक्षिणपंथी राजनेताओं द्वारा भी टीकाकरण का विरोध किया जा रहा है।

कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी की संक्रामक रोग चिकित्सक मोनिका गांधी के अनुसार यूएस के खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) द्वारा टीकों के पूर्ण अनुमोदन के बाद ही लोगों में टीकाकरण के प्रति संदेह खत्म किया जा सकता है। वर्तमान में फाइज़र और मॉडर्ना ने टीकों के पूर्ण अनुमोदन के लिए एफडीए में आवेदन दिया है लेकिन इस प्रक्रिया में कई महीने लग सकते हैं। टीकों की पूर्ण स्वीकृति के संदर्भ में कुछ सवालों पर चर्चा की गई है। चर्चा एफडीए के संदर्भ में है लेकिन दुनिया भर के सभी नियामकों पर लागू होती है।

टीकों को अभी तक पूर्ण स्वीकृति क्यों नहीं मिली है?

महामारी के संकट को देखते हुए एफडीए तथा कई अन्य नियामकों ने फाइज़र, मॉडर्ना, जॉनसन एंड जॉनसन (जे-एंड-जे) व अन्य द्वारा निर्मित टीकों को आपातकालीन उपयोग की अनुमति (ईयूए) प्रदान की है। पूर्व में भी दवाओं को आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी गई थी लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि टीकों को आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी गई है। गौरतलब है कि ईयूए प्राप्त करने के लिए भी टीका निर्माताओं को कई दिशा-निर्देशों का पालन करना होता है। इसमें सैकड़ों-हज़ारों प्रतिभागियों के साथ क्लीनिकल परीक्षणों से सुरक्षा और प्रभाविता डैटा के अलावा टीकों की स्थिरता और उत्पादन की गुणवत्ता सम्बंधी जानकारी भी मांगी जाती है। फाइज़र और मॉडर्ना को यह स्वीकृति दिसंबर 2020 में मिली थी जबकि जे-एंड-जे को फरवरी 2021 में। तब से लेकर अब तक जुटाए गए वास्तविक उपयोग के डैटा के आधार पर फाइज़र ने इस वर्ष मई की शुरुआत में और मॉडर्ना ने जून में पूर्ण अनुमोदन के लिए आवेदन दिया है, और जे-एंड-जे जल्द ही आवेदन देने वाला है।

पूर्ण अनुमोदन और ईयूए में अंतर?

पूर्ण अनुमोदन प्रदान करने के लिए एफडीए को लंबी अवधि में एकत्रित किए गए विस्तृत डैटा की समीक्षा करनी होती है। इसके तहत टीकों की प्रभाविता और सुरक्षा के लिए अतिरिक्त क्लीनिकल परीक्षण डैटा के साथ-साथ वास्तविक उपयोग के डैटा का गहराई से अध्ययन करना होता है। इसके साथ ही एफडीए द्वारा टीका उत्पादन सुविधाओं का निरीक्षण और गुणवत्ता का बहुत ही सख्ती से ध्यान रखा जाता है। इसमें टीकों के बिरले दुष्प्रभावों पर ध्यान दिया जाता है जो शायद क्लीनिकल परीक्षण में सामने न आए हों।

स्वीकृति कब तक मिल सकती है?

16 जुलाई को एफडीए ने फाइज़र का आवेदन ‘प्राथमिकता’ के आधार पर स्वीकार किया है। यानी इसकी समीक्षा जल्द की जाएगी; यह निर्णय अगले दो महीने में आने की संभावना है। वहीं, मॉडर्ना द्वारा आवश्यक दस्तावेज़ जमा न करने के कारण एफडीए ने कंपनी के आवेदन को औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं किया है।

टीके की जल्द से जल्द स्वीकृति की मांग क्यों की जा रही है?

ज़ाहिर है कि पूर्ण अनुमोदन से टीकाकरण के प्रति लोगों की हिचक कम हो सकती है। ऐसे में कई चिकित्सक और जन स्वास्थ्य अधिकारी भी टीकों को जल्द से जल्द अनुमोदन की प्रतीक्षा कर रहे हैं।   

क्या पूर्ण अनुमोदन से अधिक लोग टीकाकरण के लिए तैयार होंगे?

कैसर फैमिली फाउंडेशन द्वारा जून में 1,888 लोगों पर किए गए सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 30 प्रतिशत लोग पूर्ण अनुमोदन के बाद टीका लगवाने के लिए तैयार हैं। लेकिन अभी भी कई लोगों के लिए एफडीए द्वारा दिया जाने वाला अनुमोदन एक सामान्य सुरक्षा का ही द्योतक होता है। ऐसा ज़रूरी नहीं कि जो लोग पूर्ण अनुमोदन का इंतज़ार कर रहे हैं वो वास्तव में टीका लगवा ही लेंगे, क्योंकि अनुमोदन प्रक्रिया को जल्दबाज़ी या राजनीतिक रूप से प्रेरित माना जा रहा है। जो लोग पूरी तरह से टीकाकरण के विरोध में हैं उनके लिए एफडीए का अनुमोदन भी कोई मायने नहीं रखता।

लेकिन पूर्ण स्वीकृति कुछ लोगों को प्रभावित भी कर सकती है। उदाहरण के तौर पर, कई लोगों को टीकाकरण के लिए एफडीए के सहमति फॉर्म पर हस्ताक्षर करना एक बड़ी मनोवैज्ञानिक बाधा हो सकती है। एक ऐसे सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करना जिसमें ‘प्रायोगिक’ शब्द का उपयोग किया गया हो, वह अश्वेत समुदायों में एक गंभीर मुद्दा रहा है।      

क्या अनुमोदन अनिवार्य टीकाकरण का मार्ग प्रशस्त करेगा?

देखा जाए तो अमेरिका के 500 से अधिक विश्वविद्यालयों और बड़े अस्पतालों ने अपने छात्रों और कर्मचारियों को अनिवार्य टीकाकरण का आदेश जारी किया है। लेकिन तकनीकी रूप से प्रायोगिक टीका लेने के लिए कई स्कूल, अस्पताल और यहां तक कि अमेरिकी फौज भी संकोच कर रही है और पूर्ण अनुमोदन के इंतज़ार में है। ऐसा दावा किया जा रहा है कि पूर्ण अनुमोदन मिलने पर कई संगठन और उद्योग टीकाकरण अनिवार्य कर देंगे।

गौरतलब है कि फ्रांस में टीकाकरण के प्रति लोगों में संकोच के बाद भी सरकार ने मॉल, बार्स, रेस्टॉरेंट और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर ‘हेल्थ पास’ जारी करने की घोषणा की है जो टीकाकृत लोगों को प्रदान किया जाएगा। इसके समर्थन में 10 लाख से अधिक लोग टीकाकरण के लिए तैयार हुए हैं जबकि हज़ारों लोग इसके विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं।

क्या एफडीए अनुमोदन की प्रक्रिया को तेज़ कर सकता है?

उच्च गुणवत्ता समीक्षा और मूल्यांकन की प्रक्रिया को पूरा किए बिना अनुमोदन देना एफडीए की वैधानिक ज़िम्मेदारी को कमज़ोर करना होगा। इससे जनता के बीच एजेंसी पर भरोसा कम होगा और टीकाकारण के प्रति झिझक और अधिक बढ़ जाएगी। mRNA आधारित टीकों के लिए तो यह और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये पूरी तरह से नई तकनीक पर आधारित हैं।

क्या आपातकालीन मंज़ूरी वाले टीके लगवाना सुरक्षित है?

विशेषज्ञों का मत है कि अब तक एकत्र किए गए डैटा के अनुसार आपातकालीन मंज़ूरी प्राप्त सभी टीके सुरक्षित और प्रभावी हैं। गांधी के अनुसार क्लीनिकल परीक्षणों में टीकों के इतने अच्छे परिणाम काफी आश्चर्यजनक हैं। इन परिणामों को देखते हुए फिलहाल चिकित्सकों और विशेषज्ञों का सुझाव है कि हर वयस्क को अनिवार्य रूप से टीका लगवाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शोथ आधारित आयु-घड़ी

कोई व्यक्ति वर्तमान में कितना स्वस्थ है, यह पता लगाने के लिए वैज्ञानिक लंबे समय से आयु-घड़ी के विचार पर काम कर रहे हैं। आयु-घड़ी का अर्थ है कि किसी व्यक्ति की अपनी वास्तविक उम्र की तुलना में जैविक रूप से उम्र कितनी है। एपिजेनेटिक्स-आधारित घड़ियों ने इस क्षेत्र में कुछ उम्मीद जगाई थी, लेकिन डीएनए में हुए एपिजेनेटिक परिवर्तनों को मापकर किसी व्यक्ति की जैविक उम्र पता करना थोड़ा जटिल काम है। एपिजेनेटिक परिवर्तन मतलब डीएनए में अस्थायी परिवर्तन जो जीन्स की अभिव्यक्ति को प्रभावित करते हैं।

अब इस दिशा में शोधकर्ताओं ने एक नए तरह की आयु-घड़ी, iAge, विकसित की है जो जीर्ण शोथ (इन्फ्लेमेशन) का आकलन कर यह बता सकती है कि आपको उम्र-सम्बंधी किसी रोग, जैसे हृदय रोग या तंत्रिका-विघटन सम्बंधी रोग, के विकसित होने का खतरा तो नहीं है। यह घड़ी व्यक्ति की ‘जैविक आयु’ बताती है जो उसकी वास्तविक आयु से कम-ज़्यादा हो सकती है।

दरअसल, जब किसी व्यक्ति की उम्र बढ़ती है तो शरीर की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त होने लगती हैं और शोथ पैदा करने वाले अणु स्रावित करने लगती हैं, नतीजतन संपूर्ण देह में जीर्ण शोथ का अनुभव होता है। यह अंतत: ऊतकों और अंगों की टूट-फूट का कारण बनता है। जिन लोगों की प्रतिरक्षा प्रणाली अच्छी होती है वे कुछ हद तक इस शोथ को बेअसर करने में सक्षम होते हैं, लेकिन कमज़ोर प्रतिरक्षा वाले लोगों की जैविक उम्र तेज़ी से बढ़ने लगती है।

इंफ्लेमेटरी एजिंग क्लॉक (iAge) को विकसित करने के लिए कैलिफोर्निया में स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के सिस्टम बायोलॉजिस्ट डेविड फरमैन और रक्त-वाहिनी विशेषज्ञ नाज़िश सैयद की टीम ने 8-96 वर्ष की आयु के 1001 लोगों के रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया। शोधकर्ताओं ने रक्त में दैहिक शोथ का संकेत देने वाले प्रोटीन संकेतकों को पहचानने के लिए मशीन-लर्निंग एल्गोरिदम की मदद ली। इसके अलावा उन्होंने प्रतिभागियों की वास्तविक उम्र और स्वास्थ्य जानकारी का भी उपयोग किया। उन्होंने प्रतिरक्षा-संकेत प्रोटीन (या साइटोकाइन) CXCL9 को शोथ के मुख्य जैविक चिंह के तौर पर पहचाना; CXCL9 मुख्य रूप से रक्त वाहिकाओं की आंतरिक परत द्वारा निर्मित होता है और इसके चलते हृदय रोग विकसित हो सकते हैं।

iAge के परीक्षण के लिए शोधकर्ताओं ने कम से कम 99 वर्ष तक जीवित रहने वाले 19 लोगों के रक्त के नमूने लेकर iAge की मदद से उनकी जैविक आयु की गणना की। ये लोग इम्यूनोम नामक एक प्रोजेक्ट के सदस्य थे। इस प्रोजेक्ट में इस बात का अध्ययन किया जा रहा है कि उम्र बढ़ने के साथ लोगों में जीर्ण, तंत्रगत शोथ में कैसे परिवर्तन होते हैं। पाया गया कि उम्र की शतक लगाने वाले इन लोगों की iAge आयु उनकी वास्तविक आयु से औसतन 40 वर्ष कम थी – ये नतीजे इस विचार से मेल खाते हैं कि स्वस्थ प्रतिरक्षा प्रणाली वाले लोग लंबे समय तक जीवित रहते हैं।

चूंकि रक्त परीक्षण करके शोथ को मापना आसान है, इसलिए नैदानिक परीक्षण के लिए iAge जैसे साधन व्यावहारिक हो सकते हैं। इसके अलावा उम्मीद है कि iAge और अन्य आयुमापी घड़ियां व्यक्ति के मुताबिक उपचार करना संभव कर सकती हैं।

दैहिक शोथ के जैविक चिंह के रूप में CXCL9 की जांच करते समय फरमैन और उनके साथियों ने मानव एंडोथेलियल कोशिकाओं को विकसित किया है। उन्होंने तश्तरी में रक्त वाहिकाओं की दीवारों को विकसित किया और उनमें बार-बार विभाजन करवाकर उनको कृत्रिम रूप से वृद्ध बना दिया। शोधकर्ताओं ने पाया कि CXCL9 प्रोटीन का उच्च स्तर कोशिकाओं को निष्क्रिय कर देता है। जब शोधकर्ताओं ने CXCL9 को एनकोड करने वाले जीन की अभिव्यक्ति को रोक दिया तो कोशिकाएं पुन: कुछ हद तक काम करने लगीं। इससे लगता है कि प्रोटीन के हानिकारक प्रभाव को पलटा जा सकता है।

अगर शोथ की पहचान शुरुआत में ही कर ली जाए तो इसका इलाज किया जा सकता है। इसके लिए हमारे पास कई साधन उपलब्ध हैं। जैसे सैलिसिलिक एसिड (एस्पिरिन बनाने की एक प्रारंभिक सामग्री), और रूमेटोइड गठिया शोथ रोधी जैनस काइनेस अवरोधक/सिग्नल ट्रांसड्यूसर एंड एक्टिवेटर ऑफ ट्रांसक्रिप्शन (JK/STAT) अवरोधक। चूंकि शोथ का उपचार किया जा सकता है इसलिए उम्मीद है कि यह साधन यह निर्धारित करने में मदद कर सकता है कि उपचार से किसे लाभ हो सकता है – संभवत: यह किसी व्यक्ति के तंदुरुस्त वर्षों में इज़ाफा कर सकता है। उम्मीद है कि भविष्य में कोई भी व्यक्ति नियमित रूप से अपनी शोथ-जैविक चिंह प्रोफायलिंग करा सकेगा ताकि वह आयु-सम्बंधी रोग होने की संभावना देख सके।

इसके अलावा, अध्ययन इस तथ्य को भी पुख्ता करता है कि प्रतिरक्षा प्रणाली महत्वपूर्ण है, न केवल स्वस्थ उम्र की भविष्यवाणी करने के लिए बल्कि इसका संचालन करने वाले तंत्र के रूप में भी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दिमाग को सतर्क और सक्रिय रखें – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया की 15 प्रतिशत आबादी (लगभग 78.5 करोड़ लोग) स्मृतिभ्रंश (डिमेंशिया), याददाश्त की कमज़ोरी, दुश्चिंता व तनाव सम्बंधी विकार, अल्ज़ाइमर या इसी तरह की मानसिक अक्षमताओं से पीड़ित हैं। दी हिंदू में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन के अनुसार भारत में कोविड-19 महामारी और इसके कारण हुई तालाबंदी के बाद 74 प्रतिशत वरिष्ठ नागरिकों (60 वर्ष से अधिक उम्र के लोग) में तनाव और 88 प्रतिशत वरिष्ठ नागरिकों में दुश्चिंता की समस्या देखी गई। वर्ष 2050 तक भारत में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या कुल जनसंख्या का लगभग 20 प्रतिशत होगी।

वृद्ध लोगों का इलाज

इस स्थिति में हमें वरिष्ठ नागरिकों में (साथ ही ‘कनिष्ठ नागरिकों’ में भी, उनके वरिष्ठ होने के पहले) इस तरह की मानसिक अक्षमताओं का पता लगाने और उनका इलाज करने के विभिन्न तरीकों की आवश्यकता है। आयुर्वेद, यूनानी, योग और प्राणायाम जैसी कई पारंपरिक पद्धतियां सदियों से अपनाई जा रही हैं। फिर भी, हमें आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी, नई पहचान और उपचार विधियां अपनाने की आवश्यकता है।

दुश्चिंता में कमी

इस संदर्भ में इस्राइल के वाइज़मैन इंस्टीट्यूट के एक समूह की हालिया रिपोर्ट काफी दिलचस्प है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि बीटा-सिटोस्टेरॉल (BSS) नामक यौगिक दुश्चिंता कम करता है और चूहों में यह जानी-मानी दुश्चिंता की औषधियों के सहायक की तरह काम करता है। सेल रिपोर्ट्स मेडिसिन में प्रकाशित यह पेपर मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों और उनके रसायन विज्ञान पर BSS के प्रभाव की जांच करता है (इसे इंटरनेट पर पढ़ सकते हैं – (Panayotis et al., 2021, Cell Reports Medicine 2,100281)।

दुश्चिंता और तनाव सम्बंधी विकारों के इलाज के लिए हमें और भी औषधियों की आवश्यकता है। इस तरह के यौगिकों की खोज करना और उन्हें विकसित करना एक चुनौती भरा काम है। BSS एक फायटोस्टेरॉल है और पौधे इसका मुख्य स्रोत हैं। पारंपरिक भारतीय औषधियों में फायटोस्टेरॉल्स का उपयोग होता आया है। और चूंकि ये पौधों से प्राप्त की जाती हैं तो ये शाकाहार हैं। सबसे प्रचुर मात्रा में BSS सफेद सरसों (कैनोला) के तेल में पाया जाता है; प्रति 100 ग्राम सफेद सरसों के तेल में यह 400 मिलीग्राम से भी अधिक होता है। और लगभग इतना ही BSS मक्का और इसके तेल में भी पाया जाता है। हालांकि, सफेद सरसों भारत में आसानी से उपलब्ध नहीं है। लेकिन BSS के सबसे सुलभ स्रोत हैं पिस्ता, बादाम, अखरोट और चने जो भारतीय दुकानों पर आसानी से मिल जाते हैं। इनमें प्रति 100 ग्राम में क्रमश: 198, 132, 103 और 160 मिलीग्राम BSS होता है।

स्मृतिभ्रंश, मस्तिष्क के कामकाज में क्रमिक क्षति की स्थितियां दर्शाता है। यह स्मृतिलोप, और संज्ञान क्षमता और गतिशीलता में गड़बड़ी से सम्बंधित है। इस तरह की समस्या किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व भी बदल सकती हैं, और समस्या बढ़ने पर काम करने की क्षमता कम हो जाती है। स्मृतिभ्रंश की समस्या पीड़ित और उसके परिवार पर बोझ बन सकती है। इस संदर्भ में इंडियन जर्नल ऑफ साइकिएट्री में आर. साथियानाथन और एस. जे. कांतिपुड़ी ने एक उत्कृष्ट और व्यापक समीक्षा प्रकाशित की है जिसका शीर्षक है स्मृतिभ्रंश महामारी: प्रभाव, बचाव और भारत के लिए चुनौतियां (The Dementia Epidemic: Impact, Prevention and Challenges for India – Indian Journal of Psychiatry (2018, Vol 60(2), p 165-167)। इसे नेट पर मुफ्त में पढ़ा जा सकता है।

स्मृतिभ्रंश के जैविक चिंह

वैज्ञानिक और चिकित्सक स्मृतिभ्रंश और अल्ज़ाइमर को शुरुआती अवस्था में ही पता लगाने की कोशिश में हैं। इसके लिए वे तंत्रिका-क्षति के द्योतक जैविक चिंहों की तलाश कर रहे हैं – जैसे अघुलनशील प्लाक का जमाव। इसके अलावा, मैग्नेटिक रेसोनेंस इमेंजिंग (MRI) और पॉज़िट्रॉन एमिशन टोमोग्राफी (PET) जैसी इमेजिंग विधियां समय से पहले स्मृतिभ्रंश की स्थिति का पता लगा सकती हैं। हमारे कई शहरों में MRI और PET स्कैनिंग के लिए केंद्र हैं। लेकिन हमें ऐसी चिकित्सकीय व जैविक प्रयोगशालाओं की आवश्यकता है जो इमेजिंग तकनीकों के उपयोग के पहले ही आनुवंशिक और तंत्रिका-जीव वैज्ञानिक पहलुओं की भूमिका पता लगा सके। हमें ऐसे कार्बनिक रसायनज्ञों की भी आवश्यकता है, जो तंत्रिका सम्बंधी समस्याओं पर शुरुआती चरण में ही कार्य करने वाले नए और अधिक कुशल औषधि अणु संश्लेषित करें, ताकि तंत्रिका तंत्र को विघटन से बचाया जा सके।

भारत प्राकृतिक उत्पादों के रसायन विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी रहा है – स्वास्थ्य के लिए लाभकारी अणुओं की पहचान तथा उनका संश्लेषण करके देश व दुनिया भर में विपणन करता रहा है। हमारे पास विश्व स्तरीय जीव विज्ञान प्रयोगशालाएं भी हैं जो आनुवंशिक और आणविक जैविक पहलुओं का अध्ययन करती हैं। हमारे पास सदियों पुराने जड़ी-बूटी औषधि केंद्र (आयुर्वेद और यूनानी प्रणाली के) भी हैं जो समृतिभ्रंश का प्रभावी इलाज विकसित करते रहते हैं। यदि केंद्र व राज्य सरकारें और निजी प्रतिष्ठान मिलकर अनुसंधान का समर्थन करें, तो कोई कारण नहीं कि हम स्मृतिभ्रंश और अल्ज़ाइमर के मामलों को कम न कर सकें। वरिष्ठ (और कनिष्ठ) नागरिक शरीर और दिमाग को चुस्त-दुरुस्त रखने वाले उपाय अपनाकर – जैसे BSS समृद्ध आहार, शाकीय भोजन और गिरियां खाकर, पैदल चलना, साइकिल चलाना, कोई खेल खेलना जैसे व्यायाम और योग अभ्यास करके इन रोगों से लड़ने में मदद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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