विकास का खामियाजा भुगत रही हैं जैव प्रजातियां – प्रदीप

सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) द्वारा हाल ही में जारी स्टेट ऑफ इंडियाज़ एनवायरनमेंट 2022 रिपोर्ट के मुताबिक इंसानी करतूतों, मसलन जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन, प्रदूषण और जंगलों की अंधाधुंध कटाई वगैरह का खामियाजा जैव प्रजातियां भुगत रही हैं। रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र के बुनियादी ताने-बाने में छेड़छाड़ के लिए 75 फीसदी तक इंसानी गतिविधियां ही ज़िम्मेदार हैं। वनों में रहने वाले स्तनधारियों के तेज़ी से विलुप्त होने के लिए 83 फीसदी तक इंसान दोषी हैं और महासागरों में हो रहे प्रतिकूल बदलावों के लिए भी 66 फीसदी तक इंसानी क्रियाकलाप ही ज़िम्मेदार हैं।

साल 2018 में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में दावा किया गया था कि पृथ्वी एक और वैश्विक जैविक विलोपन (मास बायोलॉजिकल एक्सटिंक्शन) घटना की गिरफ्त में है। वैश्विक जैविक विलोपन उस घटना को कहते हैं, जिसके दौरान धरती पर मौजूद 75 से 80 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो जाती हैं। पृथ्वी अब तक ऐसी पांच घटनाओं को झेल चुकी है। उक्त अध्ययन बताता है कि हम छठे वैश्विक विलोपन के दौर में प्रवेश कर रहे हैं। आशंका जताई गई है कि इसकी चपेट में इंसान भी आएंगे। इसी तरह की घटना आज से साढ़े 6 करोड़ साल पहले हुई थी, जब संभवत: एक उल्कापिंड के टकराने से धरती से डायनासौर समेत कई प्रजातियां विलुप्त हो गई थीं।

कई लोग ऐसा मानते हैं कि कुछ प्रजातियों के विलुप्त होने से मानव अस्तित्व पर कोई खतरा नहीं आएगा। यह दावा गलत है, क्योंकि हकीकत यह है कि पूरा पारिस्थितिकी तंत्र एक विशाल इमारत की तरह है। इमारत की एक ईंट के कमज़ोर होने या गिरने से पूरी इमारत के धराशायी होने का खतरा रहता है। छोटे-से-छोटे जीव की भी पारिस्थितिकी संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करने में लिप्त इंसान को यह नज़र ही नहीं आ रहा है कि वह अपने साथ-साथ लाखों अन्य जीवों का जीवन कितना दूभर बनाता जा रहा है। हमने अपनी सुख-सुविधाओं और तथाकथित विकास के नाम पर धरती पर मौजूद संसाधनों का प्रबंधन और दोहन इस तरह से किया है कि दूसरे जीवधारियों के जीवन के आधार ही समाप्त हो गए हैं।

महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘पृथ्वी में देने की इतनी क्षमता है कि वह सबकी ज़रूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन एक मनुष्य के लालच को भी नहीं पूरा कर सकती।’ ऐसा प्रतीत होता है कि मानव सभ्यता ने प्रकृति के खिलाफ एक अघोषित जंग का ऐलान कर रखा है और स्वयं को प्रकृति से अधिक शक्तिशाली साबित करने में जुटा हुआ है। यह जानते हुए भी कि प्रकृति के खिलाफ युद्ध में वह जीत कर भी अपना अस्तित्व कायम नहीं रख पाएगा। बहरहाल, जब तक समाज के सभी वर्गों तक यह संदेश नहीं जाता कि प्रकृति ने पृथ्वी पर इंसानों के साथ-साथ वनस्पति और जीव-जंतुओं को जीने का समान अधिकार दिया है, तब तक उनके संरक्षण को लोग अपना दायित्व नहीं मानेंगे। बहुत से पर्यावरणविद कोविड-19 महामारी को प्रकृति के साथ किए गए अन्याय का दुष्परिणाम मान रहे हैं। कोरोना एक उम्मीद लेकर आया कि शायद अब इंसान प्रकृति और इसके सभी हिस्सेदारों के प्रति संवेदनशील होगा, लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है। आज भी ज़्यादातर लोग अन्य जीवों को तवज्जो सिर्फ तभी देते हैं, जब वे उनके किसी स्वार्थ, सुख या मनोरंजन से सम्बंध रखते हों। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सिंगल यूज़ प्लास्टिक का विकल्प खोजना बेहद ज़रूरी – अली खान

मौजूदा वक्त में सिंगल यूज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल तेज़ी से बढ़ा है। आज यह जलवायु परिवर्तन की बहुत बड़ी वजह बन रहा है। इसी के मद्देनज़र सिंगल यूज़ प्लास्टिक के इस्तेमाल पर 1 जुलाई 2022 से देश भर में प्रतिबंध लगने जा रहा है। लेकिन, सबसे बड़ी चुनौती तो प्लास्टिक के विकल्प तलाशने को लेकर है।

इस संदर्भ में सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) की स्टेट ऑफ इंडियाज़ एन्वायरमेंट रिपोर्ट 2022 ने चौंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किए हैं। प्लास्टिक पर निर्भरता को देखते हुए यह प्रतिबंध लगाना इतना आसान नहीं होगा। वह भी तब जब इसका कोई व्यावहारिक विकल्प नहीं खोजा जा सका है। रिपोर्ट में रोज़ाना निकलने वाले प्लास्टिक कचरे के आंकड़े शहरों की प्लास्टिक-निर्भरता को बखूबी बयां करते हैं। महानगरों की स्थिति तो और भी खराब है। भारत में रोज़ाना 25 हज़ार 950 टन प्लास्टिक कचरा निकलता है। वायु प्रदूषण के साथ-साथ दिल्ली इस मामले में भी पहले नंबर पर है जहां रोजाना 689.8 टन प्लास्टिक कचरा निकल रहा है। कोलकाता (429.5 टन प्रतिदिन) दूसरे और चेन्नई (429.4 टन प्रतिदिन) तीसरे नंबर पर है।

रिपोर्ट बताती है कि देश में पिछले तीन दशकों के दौरान प्लास्टिक के उपयोग में 20 गुना बढ़ोतरी हुई है। चिंता की बात यह है कि इसका 60 फीसदी हिस्सा सिंगल यूज़ प्लास्टिक का है। सीएसई की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1990 में प्लास्टिक का उपयोग करीब नौ लाख टन था और वर्ष 2018-19 तक बढ़कर 1.80 करोड़ टन से ज़्यादा हो गया। यही नहीं, सिंगल यूज़ प्लास्टिक का 60 फीसदी हिस्सा यानी लगभग 1.10 करोड़ टन अलग-अलग पैकेजिंग में इस्तेमाल किया जाता है। लगभग 30 लाख टन प्लास्टिक अन्य कार्यों में उपयोग होता है। 75 लाख टन से अधिक प्लास्टिक अलग-अलग तरह की परेशानी पैदा करता है।

लिहाज़ा, सिंगल यूज़ प्लास्टिक के इस्तेमाल को पूरी तरह से रोकना होगा। और सिंगल यूज़ प्लास्टिक के इस्तेमाल को रोकने के लिए इसका विकल्प खोजा जाना निहायत ज़रूरी है।

आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर व्यक्ति प्रति वर्ष औसत 11 किलोग्राम प्लास्टिक वस्तुओं का इस्तेमाल करता है। विश्व के लिए यह आंकड़ा प्रति व्यक्ति 28 किलोग्राम प्रति वर्ष है। देखा जाए तो आजकल लोग अपनी सहूलियत के तौर पर प्लास्टिक का अधिक से अधिक इस्तेमाल करते हैं। उदाहरण के लिए, एक प्लास्टिक बैग अपने वज़न से कई गुना अधिक वज़न उठाने में सक्षम होता है। इसी वजह से लोग कपड़े और जूट के थैले की बजाय प्लास्टिक थैली को तरजीह देते हैं।

लेकिन, हमें यह समझना होगा कि सिंगल यूज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल हमारे स्वास्थ्य को बहुत प्रभावित करता है। दरअसल, इससे ज़हरीले पदार्थ निकलते हैं, जो मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। साथ ही, प्लास्टिक का इस्तेमाल जीव-जंतुओं के जीवन को भी खासा प्रभावित करता है। युनेस्को की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में प्लास्टिक के दुष्प्रभाव के कारण लगभग 10 करोड़ समुद्री जीव-जंतु प्रति वर्ष असमय काल के गाल में समा जाते हैं। यह सवाल स्वाभाविक है कि आखिर प्लास्टिक जीव-जंतुओं के जीवन को किस प्रकार प्रभावित करता है? बता दें कि प्लास्टिक की ज़्यादातर वस्तुएं एक बार उपयोग में लेने के बाद खुले में फेंक दी जाती हैं। ये इधर-उधर जमा होती रहती हैं और जब बारिश होती है तो ये पानी के बहाव के संग नदी-नालों से होकर समुद्र में चली जाती हैं। प्लास्टिक की वस्तुएं वर्षों तक समुद्र में पड़ी रहती हैं। इनसे धीरे-धीरे ज़हरीले पदार्थ निकलना शुरू हो जाते हैं जो जल को दूषित करते हैं। शोध से सामने आया है कि कई बार समुद्री जीव प्लास्टिक को भोजन समझकर निगल लेते हैं। यह प्लास्टिक उनकी सांस नली या फेफड़ों में फंस जाता है और वे बैमौत मारे जाते हैं।

आज यह सर्वविदित है कि प्लास्टिक प्रदूषण ने धरती की सेहत को बिगाड़ने का काम किया है। प्लास्टिक को पूरी तरह खत्म करना तो संभव नहीं है। ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि इसके उपयोग को कम से कम किया जाए। साथ ही सरकारों को भी प्लास्टिक के विकल्प अतिशीघ्र तलाशने होंगे, ताकि प्लास्टिक के इस्तेमाल को कम किया जा सके। इसके अलावा, समूचे देश में एक ऐसी मुहिम चलाने की आवश्यकता है जो प्लास्टिक, और खासकर सिंगल यूज़ प्लास्टिक, के खतरों के प्रति आम लोगों में जागरूकता और चेतना पैदा कर सके। लोगों की व्यापक भागीदारी के बगैर प्लास्टिक प्रदूषण पर कारगर नियंत्रण संभव नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आखिर हिमालय में कितने बांध बनेंगे? – भारत डोगरा

हिमालय क्षेत्र में बांध व पनबिजली उत्पादन का कार्य तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। विश्व की सबसे बड़ी पनबिजली निर्माण परियोजना को कुछ समय पहले चीन ने स्वीकृति दे दी है। इसका निर्माण तिब्बत क्षेत्र में ब्रह्मपुत्र नदी पर किया जाएगा जो भारत की सीमा से बहुत नज़दीक के क्षेत्र में होगा। इसकी क्षमता इससे पहले विश्व की सबसे अधिक क्षमता वाली पनबिजली परियोजना थ्री गॉर्जेस से भी तीन गुना अधिक होगी।

जहां एक ओर हिमालय क्षेत्र में बांध और पनबिजली निर्माण तेज़ी से बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर इनसे जुड़े खतरों व पर्यावरणीय दुष्परिणामों के बारे में बहुत सी जानकारी भी सामने आ रही है। हिमालय क्षेत्र अधिक भूकंपनीयता का क्षेत्र है। यहां की भू-संरचना में बांध निर्माण की दृष्टि से अनेक जटिलताएं हैं। निर्माण कार्य के दौरान होने वाली ब्लास्टिंग से भी यहां बहुत क्षति होती है। मलबे को ठिकाने लगाने में जो लापरवाही प्राय: बरती जाती है उससे समस्याएं और बढ़ जाती हैं।

वर्ष 2013 में उत्तराखंड में बहुत विनाशकारी बाढ़ आई थी जिसमें लगभग 6000 लोग मारे गए थे। उस समय कई लोगों ने कहा था कि पनबिजली परियोजनाओं की वजह से बाढ़ की क्षति बढ़ गई थी। इस विवाद के बीच सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन करवाया था। रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में गठित इस समिति ने बताया था कि कुछ पनबिजली व बांध परियोजनाओं के क्षेत्र में ही सबसे अधिक क्षति हुई है व मलबे को ठिकाने लगाने में इन परियोजनाओं के निर्माण के दौरान जो गलतियां हुईं वे भी बहुत महंगी सिद्ध हुईं।

इसके अतिरिक्त इस विशेषज्ञ समिति ने विशेष ध्यान इस ओर दिलाया था कि जो कंपनियां किसी परियोजना के निर्माण में करोड़ों रुपए कमाने वाली हैं, उन्हें ही उसकी लाभ व क्षति के मूल्यांकन की रिपोर्ट तैयार करवाने के लिए कहा जाता है। भला अपनी कमाऊ परियोजना के दुष्परिणामों या खतरों के बारे में कोई कंपनी पूरी सच्चाई क्योंकर उजागर करेगी?

इसके अतिरिक्त इस समिति ने कहा था कि एक-एक परियोजना का अलग-अलग आकलन पर्याप्त नहीं है, बल्कि इनके समग्र असर को समझना होगा। एक ही नदी पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर परियोजनाओं की ंखला बनाई जा रही है, तो नदी पर असर जानने के लिए इन सभी परियोजनाओं को समग्र रूप में ही देखना-परखना होगा। यदि एक ही परियोजना से जलाशय जनित भूकंपनीयता उत्पन्न हो सकती है, तो एक क्षेत्र में ऐसी अनेक परियोजनाओं का क्या असर होगा? पूरे हिमालय क्षेत्र में ऐसी हज़ारों परियोजनाओं का क्या असर होगा?

वर्ष 2013 की स्थिति पर विशेषज्ञ समिति ने बताया था कि इस समय 3624 मेगावॉट क्षमता वाली 92 पनबिजली परियोजनाएं उत्तराखंड में पूरी हो चुकी हैं। इसमें से 95 प्रतिशत क्षमता मात्र बड़ी व मध्यम परियोजनाओं में सिमटी है। रिपोर्ट में बताया गया था कि 3292 मेगावॉट की 38 अन्य परियोजनाओं पर कार्य चल रहा है। इनमें से 97 प्रतिशत क्षमता मात्र 8 बड़ी परियोजनाओं में निहित है।

दूसरी ओर, विशेषज्ञ समिति ने बताया था कि उत्तराखंड में कुल पनबिजली क्षमता का जो आकलन हुआ है, वह 27,039 मेगावॉट की 450 परियोजनाओं का है। सवाल यह है कि जब निर्मित व निर्माणाधीन 130 परियोजनाओं से ही इतने गंभीर खतरे व दुष्परिणाम सामने आए हैं तो 450 परियोजनाओं का कितना प्रतिकूल असर होगा। केवल टिहरी बांध परियोजना से ही लगभग एक लाख लोगों का विस्थापन हुआ था व कई गांव संकटग्रस्त हुए थे। इसके गंभीर खतरों को देखते हुए दो सरकारी विशेषज्ञ समितियों ने इस परियोजना को स्वीकृति देनेे से ही इंकार कर दिया था; इस इन्कार के बावजूद इस बांध को बनाया गया।

सवाल यह है कि आखिर हिमालय में कितनी पनबिजली परियोजनाएं व बांध बनाए जाएंगे और इन्हें बनाते हुए हिमालय की वहन क्षमता का ध्यान भी रखा जाएगा या नहीं? (स्रोत फीचर्स)

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मानव-विज्ञानी और सामाजिक कार्यकर्ता: पॉल फार्मर

त 21 फरवरी 2022 को पॉल फार्मर का 62 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। फार्मर एक डॉक्टर होने के साथ मानव-विज्ञानी और सामाजिक कार्यकर्ता थे जिन्होंने अपना जीवन स्वास्थ्य क्षेत्र में समानता के लिए समर्पित कर दिया था। ‘पार्टनर्स इन हेल्थ’ (पीआईएच) नामक एक गैर-मुनाफा संगठन, जो हैटी, पेरू और रवांडा जैसे कम आय वाले देशों में मुफ्त चिकित्सा सेवा प्रदान करता है, के सह-संस्थापक के रूप में उन्होंने संगठन के अनुभव के आधार पर टीबी और एचआईवी के इलाज के तौर-तरीकों पर वैश्विक दिशानिर्देशों को बदलवाने का काम किया। कोविड-19 महामारी के दौरान फार्मर और उनके सहयोगियों ने टीकों के एकाधिकार के विरुद्ध मोर्चा खोला और दर्शाया कि इसी एकाधिकार के चलते ही कम आय वाले देशों में केवल 10 प्रतिशत लोगों का पूर्ण टीकाकरण हो पाया है।

फार्मर ने 1990 में हारवर्ड मेडिकल स्कूल से मेडिकल डिग्री के साथ-साथ मानव-विज्ञान में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की और इसी युनिवर्सिटी में वैश्विक स्वास्थ्य और सामाजिक चिकित्सा के शिक्षण का काम किया। अमेरिका में एक बच्चे और हैटी में एक युवक के रूप में हुए अनुभवों ने उनके नज़रिए को आकार दिया। सामाजिक सिद्धांत, राजनीतिक सिद्धांत और ‘मुक्तिपरक धर्म शास्त्र’ के कैथोलिक दर्शन ने इसे और विस्तार दिया। इस अध्ययन ने उनका ध्यान गरीबों के व्यवस्थागत उत्पीड़न पर केंद्रित किया।   

फार्मर द्वारा लिखी गई 12 किताबों और 200 से अधिक पांडुलिपियों से उनके कार्यों की सैद्धांतिक बुनियाद का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। उनका कहना था कि जानें बचाने के लिए पैसे की कोई कमी नहीं होगी, बशर्ते कि हरेक जीवन को मूल्यवान माना जाए। उन्होंने सरकारों और दानदाताओं द्वारा अपनाए जाने वाले लागत-क्षमता विश्लेषण की आलोचना की है। जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारें और दानदाता जिस लागत-क्षमता विश्लेषण का इस्तेमाल करती हैं, उसकी फार्मर ने आलोचना की थी – खास तौर से उस स्थिति में जब किसी चिकित्सा टेक्नॉलॉजी को उन लोगों के लिए उपयुक्त मान लिया जाता है जो उसकी कीमत नहीं चुका सकते। उन्होंने जन स्वास्थ्य समुदाय के उन लोगों की भी आलोचना की जो सस्ते के चक्कर में गरीब देशों में एड्स मरीज़ों को स्वास्थ्य सेवा व देखभाल की बजाय एचआईवी रोकथाम पर ज़्यादा ज़ोर दे रहे थे। उस समय एचआईवी की दवाएं काफी महंगी थीं लेकिन फार्मर का तर्क था कि इनका महंगा होना ज़रूरी नहीं है। आगे चलकर नीतिगत बदलाव हुए और जेनेरिक दवाओं को मंज़ूरी दी गई और कीमतों में भारी गिरावट आई।       

सबके लिए स्वास्थ्य सेवा की पहुंच को सुनिश्चित करने के लिए फार्मर ने कभी-कभी नियमों का उल्लंघन भी किया। दी न्यू यॉर्कर के अनुसार, 1990 के दशक में फार्मर और उनके सहयोगी जिम योंग किम ने अपने कार्यस्थल, ब्रिगहैम और बोस्टन के महिला अस्पताल, से बड़ी मात्रा में टीबी की दवाइयां पेरू के अपने रोगियों के इलाज के लिए गुपचुप भेज दी थीं। बाद में पीआईएच के एक दानदाता ने इनकी प्रतिपूर्ति कर दी थी। इसके कुछ वर्षों बाद फार्मर और किम ने डबल्यूएचओ के उस कार्यक्रम में मदद की थी जिसके तहत 2005 तक 30 लाख लोगों का एचआईवी/एड्स का इलाज किया जाना था। हालांकि उनका उद्देश्य हमेशा से स्वास्थ्य प्रणाली को पुनर्गठित करने का रहा लेकिन वे यह समझ चुके थे कि दानदाता समग्र स्वास्थ्य सेवा की बजाय ऐसे कार्यक्रमों को समर्थन देते हैं जो किसी एक रोग पर केंद्रित हों।       

पीआईएच का काम अन्य सहायता संगठनों से अलग रहा है। उन्होंने न केवल क्लीनिक बनाए बल्कि बल्कि उन्हें टिकाऊ बनाने के उद्देश्य से उन्हें सरकार द्वारा संचालित सेवाओं के अंदर खोला और स्थानीय कर्मचारियों को शामिल किया।

फार्मर ने रोगों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों को जाति, लिंग और गरीबी जैसे कारकों पर ध्यान देने को कहा जो विज्ञान से लाभ लेने की क्षमता को बाधित करते हैं। फार्मर ने यह भी बताया कि समता की बात को ध्यान में रखा जाए तो चिकित्सीय कार्यक्रम बेहतर तरीके से चलाए जा सकते हैं। अपने एक पेपर में वे बताते हैं कि कैसे पेरू स्थित उनकी टीम द्वारा मुफ्त तपेदिक उपचार के साथ मामूली मासिक वज़ीफा और भोजन प्रदान करने से 100 प्रतिशत लोग बीमारी से ठीक हो गए जबकि सिर्फ दवा देने से 56 प्रतिशत ही ठीक हो पाए थे।

फार्मर का राजनैतिक रुझान उनके गरीबी में बड़े होने के अनुभव से उपजा था। वे छह बच्चों में से एक थे और एक बस, एक नाव और एक तम्बू में रहा करते थे। 1988 में उनके टूटे पैर के उपचार के लिए कैशियर का काम करने वाली उनकी मां को अपना दो साल का वेतन लगाना पड़ा था। हालांकि, हारवर्ड मेडिकल इन्श्योरेंस से उनके अधिकांश खर्च की भरपाई हो गई थी, लेकिन फार्मर जानते थे कि इस तरह के चिकित्सा खर्च दुनिया भर में हर वर्ष 3 करोड़ लोगों को गरीबी में धकेल देते हैं।

फार्मर ने अपना करियर लोगों को यह समझाने में लगाया कि स्वास्थ्य सेवा एक मानव अधिकार है। उनको वैश्विक स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक जानी-मानी शख्सियत के रूप में माना जाता है। उन्होंने अपने पीछे ऐसे शोधकर्ताओं की टीम छोड़ी है जो उनके मिशन को आगे ले जाने में सक्षम है। (स्रोत फीचर्स)
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ऑक्टोपस के पूर्वज की 10 भुजाएं थीं

गभग 33 करोड़ साल पहले स्क्विड जैसा प्राणि एक ऊष्णकटिबंधीय खाड़ी में मर गया था। यह स्थान आजकल के मोंटाना (पश्चिमी यूएस) में है। उसका नर्म शरीर चूना पत्थर में संरक्षित हो गया था। हाल ही में, अमेरिकन म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री और येल युनिवर्सिटी के जीवाश्म विज्ञानियों ने इसके जीवाश्म अवशेषों का अध्ययन करके बताया है कि यह जीव ऑक्टोपस का एक पूर्वज था जिसकी 8 नहीं बल्कि 10 भुजाएं हुआ करती थीं। वैज्ञानिकों ने इस जीव का नाम सिलिप्सिमोपोडी बाइडेनी रखा है। सिलिप्सिमोपोडी का अर्थ है पकड़ने में सक्षम पैर। और बाइडेनी नाम अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के सम्मान में दिया गया है।

एस. बाइडेनी लगभग 12 सेंटीमीटर लंबा था। इसका शरीर टारपीडो के आकार का था, जिसके एक छोर पर एक जोड़ी फिन थे जो संभवतः तैरते समय संतुलन बनाने मदद करते होंगे। इसमें एक स्याही की थैली भी थी। अधिकतर सेफेलोपोड जंतुओं में यह थैली एक विशेष तरह का गहरा या चमकीला रंग छोड़ने के काम आती है और जंतु की रक्षा में मददगार होती है। इसके अलावा इसकी दस चूषक भुजाएं थीं। ये विवरण शोधकर्ताओं ने नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित किए हैं। एस. बाइडेनी की दो भुजाएं बाकी आठ भुजाओं से लंबी थीं, वैसे ही जैसे आधुनिक आठ भुजाओं वाले स्क्विड के दो स्पर्शक होते हैं। स्पर्शक किसी जीव के शरीर में जोड़ी में लगा हुआ लचीला और लंबा उपांग होता है जो चीज़ों को छूने, सूंघने, पकड़ने वगैरह के काम आता है। सेफेलोपॉड की पूरी भुजाओं में चूषक होते हैं जो उन्हें शिकार पकड़ने में मदद करते हैं, जबकि स्पर्शक में सिर्फ अंतिम सिरे पर चूषक होते हैं।

शोधकर्ताओं का कहना है कि यह जीव सबसे प्रचीन ज्ञात वैम्पायरोपॉड है, जो आधुनिक ऑक्टोपस और वैम्पायर स्क्विड का पूर्वज है। एस. बाइडेनी का जीवाश्म उन आनुवंशिक अध्ययनों की पुष्टि करता है, जो यह बताते हैं कि लगभग इसी समय वैम्पायरोपॉड्स अपने स्क्विड पूर्वजों से अलग हो गए थे। इस जीव के पास 10 शक्तिशाली, कामकाजी भुजाएं थीं, जबकि इसके आधुनिक वंशजों में भुजाओं की एक जोड़ी का लोप हो गया है। वैम्पायर स्क्विड में तो दो अवशिष्ट स्पर्शक बचे हैं, लेकिन ऑक्टोपस में भुजाओं की यह जोड़ी पूरी तरह से मिट गई है। (स्रोत फीचर्स)

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कोविड मौतों की संख्या का नया अनुमान

क ताज़ा विश्लेषण के अनुसार विश्व भर में कोविड-19 से मरने वालों की संख्या आधिकारिक आंकड़ों की तुलना में तीन गुना से भी अधिक है। दी लैंसेट में इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (आईएचएमई) द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 31 दिसंबर 2021 तक कोविड से मरने वालों की संख्या लगभग 1.8 करोड़ है। इसी अवधि में विभिन्न आधिकारिक स्रोतों ने 59 लाख मौतों की जानकारी दी है। यह अंतर अधूरी रिपोर्टिंग तथा कई देशों में डैटा संग्रह व्यवस्था की खामियों के कारण है।

कोविड-19 से होने वाली मौतों का अनुमान लगाने के लिए आईएचएमई ने ‘अतिरिक्त मृत्यु’ गणना का उपयोग किया। शोधकर्ताओं ने किसी देश या क्षेत्र में उक्त अवधि में सभी कारणों से रिपोर्ट की गई मौतों की तुलना पिछले कुछ वर्षों के रुझान के आधार पर इस अवधि में अपेक्षित मौतों से करके अतिरिक्त मौतों का अनुमान लगाया है।

ये अतिरिक्त मौतें कोविड-19 के कारण होने वाली मौतों का अच्छा आईना हैं। स्वीडन व नीदरलैंड का उदाहरण दर्शाता है कि इन अतिरिक्त मौतों का प्रत्यक्ष कारण कोविड-19 महामारी ही थी।

वैसे इन अनुमानों में अन्य कारणों से होने वाली मौतें भी शामिल हैं। रिपोर्ट में इस विषय में और अधिक शोध का सुझाव दिया गया है ताकि कोविड-19 के कारण होने वाली मौतों और महामारी के कारण परोक्ष रूप से होने वाली मौतों को अलग-अलग किया जा सके। गौरतलब है कि महामारी के दौरान चिकित्सा सेवा न मिल पाने के कारण उन लोगों की भी अधिक मौतें हुई जो कोविड-19 से पीड़ित नहीं थे।     

आईएचएमई की टीम ने 74 देशों और क्षेत्रों में सभी कारणों से होने वाली मौतों का डैटा एकत्रित किया। जिन देशों से डैटा प्राप्त नहीं हो सका वहां मृत्यु दर का अनुमान लगाने के लिए एक सांख्यिकीय मॉडल का इस्तेमाल किया गया। विश्लेषण के अनुसार 1 जनवरी 2020 से 31 दिसंबर 2021 के बीच महामारी के कारण वैश्विक स्तर पर 1.82 करोड़ अतिरिक्त मौतें हुई हैं। इनमें सबसे अधिक अनुमानित अतिरिक्त मृत्यु दर एंडियन लैटिन अमेरिका (512 प्रति लाख), पूर्वी युरोप (345 प्रति लाख), मध्य युरोप (316 प्रति लाख), दक्षिणी उप-सहारा अफ्रीका (309 प्रति लाख) और मध्य लैटिन अमेरिका (274 प्रति लाख) में रही। ये परिणाम विभिन्न देशों और क्षेत्रों द्वारा सार्स-कोव-2 का सामना करने के तरीकों की तुलना करने में मदद करेंगे।

गौरतलब है कि वैश्विक स्तर पर अतिरिक्त मौतों का यह पहला अनुमान है जो समकक्ष-समीक्षा के बाद जर्नल में प्रकाशित किया गया है। इसी तरह का एक और अध्ययन डबल्यूएचओ द्वारा जल्द की प्रकाशित होने वाला है। 

अलबत्ता, कई शोधकर्ताओं ने आईएचएमई के अनुमानों की आलोचना की है। हिब्रू युनिवर्सिटी ऑफ जेरूसलम के अर्थशास्त्री इस नए अध्ययन में 1.8 करोड़ अतिरिक्त मौतों के आंकड़े को तो सही मानते हैं लेकिन अलग-अलग देशों के लिए अनुमानों से असहमत हैं। अन्य विशेषज्ञों के अनुसार आईएचएमई के मॉडल में कुछ अनियमितताएं भी हैं। फिर भी यह अनुमान आंखें खोल देने वाला तो है ही। (स्रोत फीचर्स)
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मक्खी से बड़ा बैक्टीरिया

हाल में मैन्ग्रोव वन से खोजा गया एक सूक्ष्मजीव जीव विज्ञान की दृष्टि से विशेष महत्व का हो सकता है। यह एक बैक्टीरिया है जिसे कैरेबिया के मैन्ग्रोव से खोजा गया है और सूक्ष्मजीव की हमारी धारणा के विपरीत यह काफी बड़ा है – इसकी धागेनुमा एकल कोशिका 2 से.मी. तक लंबी हो सकती है। लिहाज़ा यह नंगी आंखों से देखा जा सकता है। तुलना के लिए बताया जा सकता है कि यह बैक्टीरिया फल मक्खी से बड़ा है।

विशेषताएं और भी हैं। जैसे इसका विशाल जीनोम कोशिका के अंदर खुला नहीं पड़ा होता। इसका जीनोम एक झिल्ली में कैद होता है, जबकि सामान्यत: बैक्टीरिया की जेनेटिक सामग्री झिल्ली में लिपटी नहीं होती। झिल्लियों की उपस्थिति तो ज़्यादा पेचीदा कोशिकाओं का गुण है। इसकी विशाल साइज़ और झिल्लीयुक्त जीनोम को देखते हुए जीव वैज्ञानिक काज़ुहिरो ताकेमोतो को लगता है कि यह संभवत: जटिल कोशिकाओं के उद्भव की दिशा में एक मील का पत्थर हो सकता है।

गौरतलब है कि जीव विज्ञान में सजीवों को दो समूहों में बांटा जाता है। एक समूह है केंद्रकविहीन कोशिका वाले जीवों का समूह प्रोकैरियोट्स। इसके अंतर्गत एक कोशिकीय बैक्टीरिया और आर्किया जीव आते हैं। दूसरे समूह को यूकैरियोट्स कहते हैं और इसमें खमीर से लेकर तमाम बहुकोशिकीय जीव रखे गए हैं। जहां प्रोकैरियोट्स में जेनेटिक सामग्री (डीएनए) मुक्त तैरती रहती है, वहीं यूकैरियोट्स में डीएनए केंद्रक में बंद रहता है। यूकैरियोट्स में सारे कार्य झिल्लियों में कैद कोशिका-उपांगों में सम्पन्न होते हैं और पदार्थों को एक उपांग से दूसरे में ले जाने की व्यवस्था होती है। प्रोकैरियोट्स में ऐसा कुछ नहीं होता।

लेकिन यह नया सूक्ष्मजीव इन सीमाओं को धुंधला कर रहा है। दरअसल, करीब 10 वर्ष पूर्व युनिवर्सिटी ऑफ फ्रेंच एंटिलेस के समुद्री जीव वैज्ञानिक ओलिवियर ग्रॉस ने मैन्ग्रोव की सड़ती गलती पत्तियों की सतह पर यह विचित्र जीव देखा था। लेकिन उन्हें यह पहचानने में 5 साल लग गए कि यह एक बैक्टीरिया है। और इसकी अद्भुत विशेषताओं को जानने में 5 साल और बीत गए।

यह तो देखा गया है कि कुछ सूक्ष्मजीव (जैसे शैवाल) लंबे बहुकोशिकीय तंतु बना लेते हैं लेकिन यह बैक्टीरिया तो मात्र एक कोशिका से बना है।

इसके बाद यह अचंभा सामने आया कि इस इकलौती कोशिका के अंदर झिल्ली से बनी दो थैलियां हैं – एक में कोशिका का डीएनए भरा है जबकि दूसरी बड़ी थैली पानी से भरी है। इसका मतलब है कि यह केंद्रक के निर्माण की प्रक्रिया में है। इस नए-नवेले बैक्टीरिया के लिए प्रस्तावित नाम है – थियोमार्गरिटा मैग्नीफिका (Thiomargarita magnifica)। आम तौर पर बैक्टीरिया के डीएनए में  40 लाख क्षार इकाइयां होती हैं और जीन्स करीब 11,000 होते हैं जबकि थियोमार्गरिटा मैग्नीफिका में 110 लाख क्षार और 3900 जीन्स हैं। बायोआर्काइव्स में इस खोज की जानकारी देते हुए शोधकर्ताओं ने तो यहां तक कहा है कि शायद प्रोकैरियोट्स और यूकैरियोट्स के बीच स्पष्ट विभाजन पर पुनर्विचार का वक्त आ गया है। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्रिस्पर शिशुओं की देखभाल पर नैतिक बहस

र्ष 2018 में जीव वैज्ञानिक हे जियानकुई ने दुनिया को यह घोषणा करके चौंका दिया था कि उन्होंने क्रिस्पर नामक तकनीक की मदद से मानव भ्रूण के जीनोम में फेरबदल करके शिशु उत्पन्न किए हैं। उनके इस काम की निंदा हुई थी और उन्हें कारावास की सज़ा हुई थी। सज़ा की अवधि समाप्त होने पर हे को मुक्त किया जाने वाला है और अब यह बहस छिड़ गई है कि इन शिशुओं को किस तरह की देखभाल व सुरक्षा दी जानी चाहिए।

इस बहस के मूल में मुद्दा यह है कि उक्त शिशुओं के जीनोम में फेरबदल के चलते ये अज्ञात जोखिमों से घिरे हैं। इस संदर्भ में चाइनीज़ एकेडमी ऑफ सोशल साइन्सेज़ के किउ रेनज़ॉन्ग और वुहान स्थित हुआजोन्ग विज्ञान व टेक्नॉलॉजी विश्वविद्यालय के लाई रुइपेंग ने एक प्रस्ताव पेश किया है। प्रस्ताव में किउ और रुइपेंग ने कहा है इन शिशुओं को विशेष सुरक्षा की ज़रूरत है क्योंकि ये एक ‘एक जोखिमग्रस्त समूह’ में हैं। हो सकता है जीन-संपादन के कारण इनके डीएनए में हानिकारक गड़बड़ियां पैदा हो गई हों। और तो और, ये गड़बड़ियां इनकी संतानों में भी पहुंच सकती हैं। प्रस्ताव में कहा गया है कि इन बच्चों के डीएनए का नियमित अनुक्रमण होना चाहिए।

इसके अलावा एक सुझाव यह है कि इन शिशुओं का निर्माण करने वाले हे को बच्चों के स्वास्थ्य व देखभाल की वित्तीय, नैतिक व कानूनी ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए। प्रस्ताव में सदर्न युनिवर्सिटी ऑफ साइन्स एंड टेक्नॉलॉजी तथा सरकार को भी ज़िम्मेदार बनाया गया है।

2018 में हे ने क्रिस्पर-कास 9 तकनीक की मदद से मानव भ्रूणों में सीसीआर नामक एक जीन में फेरबदल किया था। यह जीन एड्स वायरस (एचआईवी) के सह-ग्राही का कोड है। पूरी कवायद का मकसद था कि इन भ्रूणों को एड्स वायरस का प्रतिरोधी बना दिया जाए। इन भ्रूण को गर्भाशय में प्रत्यारोपित करने के बाद 2018 में तीन लड़कियां पैदा हुई थीं। गौरतलब है कि माता-पिता इस उपचार के पक्ष में थे क्योंकि पिता एचआईवी पॉज़िटिव थे।

इस मामले में ध्यान देने की बात यह भी है कि कई अन्य शोधकर्ता जीन-संपादित भ्रूण प्रत्यारोपण में रुचि रखते हैं। उदाहरण के लिए, मॉस्को स्थित कुलाकोव नेशनल मेडिकल रिसर्च सेंटर के डेनिस रेब्रिकोव ने क्रिस्पर की मदद से बधिरता से जुड़े एक उत्परिवर्तित जीन में संशोधन की तकनीक विकसित कर ली है। उन्हें उम्मीद है कि उन्हें ऐसे माता-पिता मिल जाएंगे जो इसे आज़माना चाहेंगे। इसे देखते हुए लगता है कि उपरोक्त तीन बच्चे अंतिम नहीं होंगे।

सभी इस बात से सहमत हैं कि किउ और लाई द्वारा दी गई सिफारिशें महत्वपूर्ण हैं लेकिन कई शंकाएं भी हैं। यह सही है कि ये बच्चियां जोखिमग्रस्त हैं क्योंकि उन्हें न सिर्फ शारीरिक, बल्कि सामाजिक दिक्कतों का सामना भी करना पड़ सकता है। लेकिन लगातार निगरानी में रहना भी कई शोधकर्ताओं को उचित नहीं लगता। इस संदर्भ में प्रथम टेस्ट ट्यूब बेबी के प्रकरण की भी याद दिलाई जा रही है जिसे कई वर्षों तक तमाम जांच वगैरह से गुज़रना पड़ा था। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बुज़ुर्गों में नींद उचटने का कारण – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भी की इच्छा होती है कि एक बच्चे जैसी (भरपूर) नींद सोएं। लेकिन वास्तव में, वयस्कों में नींद के कुल घंटे कम होते जाते हैं, और उम्र बढ़ने के साथ नींद की गुणवत्ता भी कम होने लगती है। खासकर वृद्ध लोगों में हल्की और उचटती नींद होने की प्रवृत्ति दिखती है। वर्ष 2017 में न्यूरॉन पत्रिका में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के ब्रायस मैंडर और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित अध्ययन बताता है कि नींद की गुणवत्ता और नींद के घंटों में लगातार कमी से मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ सकता है, और जीवनकाल छोटा हो सकता है।
अनुसंधान ने इस बात के कई सुराग दिए हैं कि मनुष्यों में कौन-से कारक नींद को प्रेरित करते हैं। रात में पीनियल ग्रंथि मेलेटोनिन हार्मोन का स्राव करती है, जो सोने-जागने के चक्र के नियंत्रण में भूमिका निभाता है। इसलिए मेलेटोनिन अनिद्रा पर काबू पाने की एक प्रचलित दवा बन गया है, हालांकि लंबे समय तक उपयोग में इसकी प्रभावशीलता को लेकर सवाल हैं।
वैसे, हमारी ‘जागृत’ अवस्था कहीं अधिक पेचीदा है क्योंकि इसमें लगभग पूरा मस्तिष्क शामिल होता है। शायद यही कारण है कि बुज़ुर्गों की अक्सर लगती-टूटती नींद हमें चक्कर में डाल देती है।
हमें पता है कि नींद की समस्या से पीड़ित वृद्ध लोगों में मस्तिष्क के उन केंद्रों में तंत्रिका कोशिकाओं में विकार देखा गया है, जो स्वैच्छिक हरकत के समन्वय में भूमिका निभाते हैं। हाल ही में साइंस पत्रिका में एस. बी. ली और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित अध्ययन ने इसमें एक नया आयाम जोड़ा है। यह अध्ययन हायपोथैलेमस ग्रंथि के बारे में बताता है। बादाम के आकार की हाइपोथैलेमस ग्रंथि हमारे मस्तिष्क के केंद्र में होती है। मस्तिष्क के इस हिस्से का एक क्षेत्र, पार्श्व हायपोथैलेमस, जागने, खाने के व्यवहार, सीखने और सोने में अहम भूमिका निभाता है। यहां से तंत्रिका कोशिकाओं का एक झुंड निकलता है और इनके सिरे केंद्रीय तंत्रिका तंत्र की जागृत स्थिति से जुड़े सभी हिस्सों में पहुंचते हैं। इन तंत्रिकाओं से रासायनिक संदेश छोटे-छोटे प्रोटीन्स (न्यूरोपेप्टाइड्स) के रूप में जारी होते हैं जिन्हें हाइपोक्रेटिन (Hcrt) या ऑरेक्सिन (OX) कहा जाता है।
सभी तंत्रिकाओं की तरह, Hcrt/OX तंत्रिकाओं के भी अंतिम सिरे होते हैं जिन्हे सायनेप्स कहा जाता है। ये सायनेप्स किसी अन्य तंत्रिका के सायनेप्स के नज़दीक हो सकते हैं या किसी मांसपेशीय कोशिका के निकट। विद्युत संकेत पूरी तंत्रिका से होते हुए सायनेप्स तक आते हैं, जहां ये तत्काल रासायनिक संकेत में बदल जाते हैं, और सिरे से निकल कर बाजू वाली तंत्रिका में चले जाते हैं और वहां प्रतिक्रिया शुरू करते हैं। तंत्रिका विज्ञान की भाषा में, एक उद्दीपन संकेत बाजू वाली तंत्रिका में पहुंचकर उसे संकेत भेजने को प्रेरित करता है – जो उस तंत्रिका के दूसरे सिरे पर स्थित सायनेप्स तक विद्युत संकेत के रूप में पहुंचता है। अवरोधी संकेत तंत्रिका की इस सक्रियता को रोक सकते हैं। हाइपोक्रेटिन उद्दीपक की तरह काम करता है, और जिस तंत्रिका में पहुंचता है उसे सक्रिय कर देता है।
हाइपोक्रेटिन जागृत रहने को उकसाता है, और साथ ही यह कुछ खाने या साथी की तलाश के लिए भी उकसाता है। इसके अलावा यह ठंड, मितली या दर्द के प्रति प्रतिक्रिया भी देता है। मानव मस्तिष्क में मौजूद 86 अरब तंत्रिकाओं में से 20,000 से भी कम तंत्रिकाएं हाइपोक्रेटिन बनाती हैं, लेकिन इनका प्रभाव काफी गहरा होता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हाइपोक्रेटिन लंबे समय तक जागने के लिए ज़रूरी है। हाइपोक्रेटिन को सीधे मस्तिष्क-मेरु द्रव में प्रवेश कराने से (ताकि यह तुरंत मस्तिष्क में पहुंच जाए) यह आपको कई घंटों तक जगाए रखता है। जब आप सो रहे होते हैं तो हाइपोक्रेटिन बनाने वाली तंत्रिकाएं सक्रिय नहीं रहती हैं।
प्रयोगों में देखा गया है कि भोजन से वंचित चूहे भोजन की तलाश में बहुत लंबे समय तक जागते हैं और भोजन तलाशने में व्यस्त रहते थे। और हाइपोक्रेटिन की कमी वाले चूहे, जिनमें हाइपोक्रेटिन जीन को ठप कर दिया गया था, अपनी तलाश में कम उत्सुकता दिखाते थे।
नींद उचटना
सवाल है कि बुज़ुर्गों की नींद को क्या हो जाता है? ली और उनके साथियों ने दर्शाया है कि उम्र के साथ हाइपोक्रेटिन बनाने वाली तंत्रिकाओं में परिवर्तन हो जाते हैं। और ज़रा से उकसावे से ही वे अति-उत्तेजित हो जाती हैं, संकेत प्रेषित करने लगती हैं और बहुत कम उकसावे पर ही न्यूरोपेप्टाइड्स स्रावित करती हैं। अन्यथा निष्क्रिय हाइपोक्रेटिन न्यूरॉन्स की अवांछित सक्रियता नींद तोड़ने का काम करती है। उम्र बढ़ने के साथ तंत्रिकाओं में हुए परिवर्तन उनकी सक्रियता को रोकना और मुश्किल कर देते हैं।
Hcrt/OX तंत्रिका की क्षति के कारण या उनकी अनुपस्थिति के कारण एक बिरला तंत्रिका तंत्र विकार पैदा होता है – नार्कोलेप्सी। नार्कोलेप्सी के लक्षण विचित्र हैं – इसमें दिन में सोने की तीव्र इच्छा होती है जबकि नींद के कुल घंटे नहीं बदलते; सोने-जागने की अवस्था में स्पष्ट अंतर न होने के कारण मतिभ्रम की स्थिति रहती है; मांसपेशियों का तनाव कम हो जाता है, मांसपेशियां शिथिल पड़ जाती हैं (कैटाप्लेक्सी)।
वर्ष 2018 में इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में अनिमेश रे द्वारा प्रकाशित अध्ययन के अनुसार भारत में इसके कुछ ही मामले दर्ज हुए हैं, जिनमें से अधिकतर मामले तीस वर्ष से अधिक उम्र के पुरुषों में मिले हैं। इस स्थिति वाले मरीज़ों के मस्तिष्क-मेरु द्रव में न के बराबर हाइपोक्रेटिन होता है।
अंत में, क्या टूटी-फूटी नींद लेने वाले लोग बेहतर और एकमुश्त नींद देने वाले उपायों का सपना देख सकते हैं? वृद्ध चूहों में देखा गया है कि फ्लुपरटीन नामक दर्दनिवारक उस स्तर को बहाल कर देता है जहां हाइपोक्रेटिन न्यूरॉन्स उत्तेजित होते हैं और इस प्रकार यह नींद के टाइम टेबल को बहाल करता है हालांकि यह दर्दनिवारक स्वयं विषाक्तता की दिक्कतों से पीड़ित है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नए शोधों से मिले रोगों के नए समाधान – मनीष श्रीवास्तव

ई बीमारियां लाइलाज हैं तो कई की इलाज की प्रक्रिया बेहद जटिल है। इसलिए दुनिया भर में वैज्ञानिक सतत रूप से शोध कार्य कर रहे हैं ताकि बीमारियों के बेहतर और सरल इलाज खोजे जा सकें। हाल के समय में एचआईवी, लकवा, तंत्रिका विकारों के इलाज में वैज्ञानिकों को नई सफलताएं प्राप्त हुई हैं। इसी के साथ स्वच्छ ऊर्जा एक अहम क्षेत्र है, जिसका विकल्प वैज्ञानिकों द्वारा खोजा गया है। आइए जानते हैं इन क्षेत्रों में कुछ हालिया उपलब्धियों के बारे में…

चलने लगे लकवाग्रस्त मरीज

स्विटज़रलैंड के लोज़ान युनिवर्सिटी हॉस्पिटल और स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी ने एक ऐसी डिवाइस बनाने में सफलता हासिल की है, जिसकी मदद से कमर के नीचे के हिस्से में लकवे का शिकार हुए तीन मरीज़ चल पाए हैं। इस ऐतिहासिक सफलता सम्बंधी रिपोर्ट जर्नल नेचर मेडिसिन में प्रकाशित हुई है। यह प्रयोग 29 से 41 वर्ष की उम्र के तीन ऐसे लोगों पर किया गया था, जो लंबे समय से व्हील चेयर पर थे। इनमें से एक व्यक्ति मिशेल रोकंति की रीढ़ की हड्डी में इलेक्ट्रोडयुक्त डिवाइस लगाया गया। इसकी मदद से जल्द ही मिशेल ने अपने पैरों पर खड़े होना तथा बाकी दो ने तैरना तथा साइकिल चलाना तक शुरू कर दिया है।

इस तरह तीन व्यक्तियों के एपिड्यूरल स्पेस में कुल 16 इलेक्ट्रोड डिवाइस लगाए गए। ये इलेक्ट्रोड, पेट की त्वचा के नीचे प्रत्यारोपित एक पेसमेकर से दिमाग को संदेश पहुंचाने के साथ शरीर के विभिन्न अंगों तक उन्हें प्रेषित करने का काम करते हैं। जब इलेक्ट्रोड की मदद से दिमाग की तंत्रिकाओं को कोई संदेश मिलता है तो शरीर की मांसपेशियां फिर से सक्रिय होकर कार्य करना शुरू कर देती हैं। इस डिवाइस को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सॉफ्टवेयर द्वारा नियंत्रित भी किया जा सकता है।

स्टेम सेल से एचआईवी का इलाज

हाल ही में एचआईवी के इलाज में एक महत्वपूर्ण सफलता हासिल हुई है। वैज्ञानिकों ने पहली बार गर्भनाल की स्टेम कोशिका से एचआईवी का सफल इलाज करने में सफलता पाई है। प्रयोग अमेरिका की एक महिला पर किया गया जिसे 2013 में एड्स रोग की पुष्टि हुई थी। इससे पहले तमाम तकनीकों से महिला का इलाज किया जा चुका था। गर्भनाल की स्टेम कोशिका से किए गए उपचार से महिला को वायरस-मुक्त करने में सफलता प्राप्त हुई है। कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के डॉ. स्टीवन डीक्स के अनुसार गर्भनाल से स्टेम सेल प्राप्त करना आसान होता है और ये अधिक प्रभावी होती हैं। अत: यह तकनीक काफी मददगार होगी क्योंकि इस तरह के डोनर सरलता से मिल जाते हैं। पहले अस्थि मज्जा कोशिका की सहायता से इलाज किया जाता था किंतु अस्थि मज्जा दानदाता खोजना और मरीज़ के साथ मैचिंग करना मुश्किल होता था।

तंत्रिका विकार का निदान

मनुष्य में होने वाले तंत्रिका विकारों को जानने के लिए पहले जीनोम सीक्वेंसिंग ज़रूरी होता था। यह प्रक्रिया बेहद जटिल और समय लेने वाली होती है। हाल ही में जीनोमिक इंग्लैंड और क्वीन मैरी युनिवर्सिटी शोध टीम ने इस विकार का पता लगाने के लिए एक सरल विधि खोज निकाली है। इस शोध से जुड़े डॉ. एरियाना टुचि ने बताया है कि इस विधि से तंत्रिका विकार का पता डीएनए टेस्ट की विधि से सरलता से लगाया जा सकेगा। इस विधि में बीमारी वाले जीन की पहचान की जाती है और फिर उसका इलाज शुरू कर दिया जाता है। जीनोम सीक्वेंसिंग में तंत्रिका विकार के कारणों की पहचान मुश्किल से हो पाती थी।

कृत्रिम सूरज की रोशनी

हाल ही में ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा रिएक्टर बना लिया है जो सूरज की तरह परमाणु संलयन की क्रिया को संपन्न कर सकता है। इस रिएक्टर से इतनी मात्रा में ऊर्जा निकलती है कि वैज्ञानिक इसे कृत्रिम सूर्य कह रहे हैं। वैज्ञानिक जगत में इस उपलब्धि को मील का पत्थर कहा जा रहा है। अब वैज्ञानिकों ने आशा जताई है कि भविष्य में इस मशीन के द्वारा पृथ्वी पर सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा उपलब्ध हो सकेगी। वैज्ञानिकों का प्रयास है कि धरती पर इस तरह के कई छोटे सूरज बनाए जाएं।

कम कार्बन, स्वच्छ ऊर्जा 

यूके परमाणु ऊर्जा प्राधिकरण ने बताया है कि कल्हम सेंटर फॉर फ्यूज़न एनर्जी में जेट प्रयोगशाला है, जिसमें एक डोनट आकार की मशीन लगी हुई है। इसे टोकामैक नाम से पुकारा जाता है। इसमें कम मात्रा में ड्यूटीरियम व ट्रीशियम जैसे तत्व भरे गए हैं। इस मशीन के केंद्र को सूरज के केंद्र की तुलना में 10 गुना ज़्यादा गर्म जाता है ताकि इसमें प्लाज़्मा बन सके। प्लाज़्मा को सुपरकंडक्टर विद्युत-चुंबक की मदद से एक जगह बांधकर रखा जाता है। विद्युत-चुंबक की मदद से जब इसने घूमना शुरू किया तो इससे अपार मात्रा में ऊर्जा निकलने लगी, जो पूरी तरह सुरक्षित और स्वच्छ ऊर्जा रही। गौरतलब है कि इस ऊर्जा की मात्रा 1 किलो कोयला या 1 लीटर तेल से पैदा हुई ऊर्जा की तुलना में 40 लाख गुना ज़्यादा रही। और तो और, यह ऊर्जा बेहद कम कार्बन उत्सर्जन वाली रही, जो पर्यावरण व स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभदायक सिद्ध होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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