वन्य-जीवों के प्रति बढ़ते अपराधों पर अंकुश ज़रूरी – अली खान

हाल में, सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) द्वारा तैयार स्टेट ऑफ इंडियाज़ एन्वायरमेंट-2022 रिपोर्ट जारी हुई है। यह रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2005 से 2021 के दौरान देश में 579 बाघ, और 2015 से 2021 के बीच 696 हाथी मारे गए। 2016 और 2021 में सर्वाधिक बाघ (50-50) और 2015 तथा 2018 में सर्वाधिक हाथी (113-115) मौत का शिकार हुए। इसी तरह 2005 से 2021 के दौरान 2639 तेंदुए भी काल का ग्रास बने। स्पष्ट है कि पिछले कुछ सालों में वन्य जीवों के प्रति अपराध बढ़े हैं। लिहाजा, सरकारों को बढ़ते अपराधों पर अंकुश लगाने और वन्य जीवों के संरक्षण व संवर्धन की कोशिशों में इज़ाफा करना होगा‌ और गैर-सरकारी संगठनों को साथ लेकर ठोस पहल करनी होगी। वन्य जीव संरक्षण से सम्बंद्ध योजनाओं का बजट बढ़ाने की भी आवश्यकता है। अन्यथा वन्य जीवों की आबादी और मौतों का संतुलन गड़बड़ाने में ज़्यादा देरी नहीं लगेगी।

राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के मुताबिक भारत में 2021 में कुल 126 बाघों की मौत हुई, जो एक दशक में सबसे ज़्यादा है। इनमें से 60 बाघ संरक्षित क्षेत्रों के बाहर शिकारियों, दुर्घटनाओं और मानव-पशु संघर्ष के शिकार हुए हैं। हकीकत यही है कि पिछले कुछ सालों में मानव और पशु संघर्ष बड़े स्तर पर बढ़ा है। इसी के चलते वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए विशेषज्ञों ने कठोर संरक्षण प्रयासों, विशेष रूप से वन रिज़र्व जैसे स्थानों को और अधिक सुरक्षित बनाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है। पिछले एक दशक से यह अनुभव किया गया है कि जनसंख्या वृद्धि, औद्योगिक विकास और अनियंत्रित शहरीकरण के कारण वन्य जीवों का क्षेत्र सिमट रहा है। परिणामस्वरूप आसपास रहने वाले लोग वन्य जीवों की चपेट में आ रहे हैं।

पश्चिम बंगाल के मैंग्रोव जंगलों के तेज़ी से घटने पर चिंता जताते हुए कहा गया था कि हालात पर अंकुश नहीं लगाया गया तो वर्ष 2070 तक सुंदरबन में वन्य जीवों के रहने लायक जंगल नहीं बचेगा। पश्चिमी बंगाल के मैंग्रोव वन बाघों के निवास के तौर पर सबसे अनुकूल माने जाते हैं। इस इलाके में भोजन की तलाश में बाघ अक्सर जंगल से बाहर निकलकर नज़दीकी बस्तियों में पहुंच जाते हैं और अपनी जान बचाने के लिए लोग कई बार इन जानवरों को मार देते हैं। चिंता की बात है कि हाल के वर्षों में सरकार ने वन क्षेत्रों में परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय प्रभाव आकलन से जुड़ी मंज़ूरी की प्रक्रिया को आसान कर दिया है, जिसके कारण वन क्षेत्रों के निकट औद्योगिक गतिविधियों में वृद्धि हुई है।

हमें यह समझना होगा कि पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित बनाए रखने के लिए वन्य जीव बेहद महत्वपूर्ण हैं। वन्य जीव पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में सहायक होते हैं। हमें यह भी समझने की आवश्यकता है कि किसी एक प्रजाति पर आने वाला संकट मानव समेत अन्य प्रजातियों में भी असंतुलन की स्थिति पैदा कर देता है। लिहाजा, वन्य-जीवों का संरक्षण और संवर्धन बेहद ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीवन में रंग, प्रकृति के संग – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

प्राचीन यूनानी लोग पौधों के रंजक इंडिगो (नील) को इंडिकॉन नाम से बुलाते थे, जिसका मतलब होता है भारतीय। रोमन इसे ही इंडिकम कहते थे, जो बदलते-बदलते अंग्रेजी में इंडिगो हो गया। इस रंजक का अत्यधिक महत्व था –  शाही परिवार से लेकर सेना के कपड़ों को रंगने (जैसे नेवी ब्लू) तक में इसका उपयोग होता था। यह रंजक पौधों के ऊष्णकटिबंधीय जीनस इंडिगोफेरा से मिलता था, इस वंश के कुछ पौधे मूलत: भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाते थे।

इन पौधों की पत्तियों में 0.5 प्रतिशत तक इंडिकैन होता है जो ऑक्सीजन के संपर्क में आने पर नीला पदार्थ इंडिगोटिन बनाता है। इसकी बट्टियां (केक) भारत से व्यापार की प्रमुख वस्तु थी। मध्य पूर्व के समुद्र को पार करके अरब व्यापारी नील को रेगिस्तान के पार भूमध्यसागरीय क्षेत्र और युरोप में लेकर गए। यहां यह एक बेशकीमती वस्तु थी। इसका उपयोग रेशम की रंगाई में, चित्रों और भित्ति चित्रों में और सौंदर्य प्रसाधनों में किया जाता था।

युरोप से भारत के बीच समुद्री मार्ग बनने के बाद नील निर्यात में तेज़ी से वृद्धि हुई, क्योंकि यह आम लोगों के कपड़े (सूती कपड़े) को रंगने वाले चंद विश्वसनीय रंगों में से एक रंग था।

सुरंजी नाम का रंजक भारतीय शहतूत (मोरिंडा टिन्क्टोरिया, हिंदी में आल; तमिल में मंजनट्टी या मंजनुन्नई) से प्राप्त होता है। सुरंजी से सूती कपड़ों को चटख पीला-लाल रंग, या चॉकलेटी रंग, या यहां तक कि काला रंग दिया जाता है, यह इस पर निर्भर करता है कि ‘फिक्सिंग’ किस तरीके से किया जा रहा है।

मंजिष्ठा (रूबिया कॉर्डिफोलिया, हिंदी में मंजीठा; तमिल में मंडिट्टा) की जड़ें परप्यूरिन नामक एक लाल रंजक देती हैं। यह वर्ष 1869 में प्रयोगशाला में संश्लेषित पहला रंजक था – एलिज़रीन।

कुसुम (कार्थमस टिन्क्टोरियस, तमिल में कुसुम्बा) के बीजों का उपयोग तेल निकालने में किया जाता है और इसी वजह से वर्तमान में भारत इसका प्रमुख उत्पादक है। लेकिन अतीत में यह कार्थामाइन और कार्थामाइडिन का स्रोत हुआ करता था, जो सूती कपड़े को लाल रंग और रेशम को एक विशिष्ट नारंगी-लाल रंग प्रदान करते हैं।

रंगाई के लिए कृत्रिम एनिलीन रंजकों के उपयोग में आने के पहले इस पौधे के 160 टन से भी अधिक सूखे फूल प्रति वर्ष भारत से निर्यात किए जाते थे।

जींस का रंग

बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में, रसायन विज्ञान में त्वरित प्रगति ने नील के संश्लेषण के सस्ते तरीकों को जन्म दिया। अधिकांश उपयोगों में वनस्पति रंजक के स्थान पर कृत्रिम रंजक का इस्तेमाल किया जाने लगा। एक साधारण नीले जींस में 3-5 ग्राम कृत्रिम नील होती है। हर साल 40,000 टन से अधिक नील का उत्पादन होता है।

कृत्रिम रंजकों के उपयोग से पर्यावरण पर काफी प्रभाव पड़ता है, और वस्त्रों की रंगाई जल प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है। अधिकांश कृत्रिम रंग पेट्रो-रसायनों से बने होते हैं।

नील अपने आप में विषैला नहीं है, लेकिन यह पानी में अघुलनशील है और इसे घोलने और कपड़ों पर चढ़ाने के लिए अत्यधिक क्षारीय सोडियम या पोटेशियम हायड्रॉक्साइड घोल की ज़रूरत पड़ती है।

एक जीन पतलून को सिर्फ रंगने भर के लिए 100 लीटर से अधिक पानी लगता है, और लगभग 15 प्रतिशत रंजक और उसके साथ क्षार प्रदूषक के रूप में जल स्रोतों में चला जाता है। जागो, जींस पहनने वालों!

अलबत्ता, प्राकृतिक वनस्पति रंगों का उपयोग पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। नील की खेती जारी है। प्राकृतिक रंगों का पर्यावरण पर प्रभाव कृत्रिम रंजकों की तुलना में बहुत कम है। सामान्य रूप से उपलब्ध अन्य जड़ी-बूटियों, झाड़ियों और पेड़ों से मिलने वाले प्राकृतिक रंगों के उपयोग के लिए बेहतर-से-बेहतर तकनीकों और तरीकों की खोज जारी है।

इस संदर्भ में डॉ. पद्मा श्री वंकर (पूर्व में आईआईटी कानपुर में कार्यरत), उनके साथियों और अन्य भारतीय समूहों का काम उल्लेखनीय है। उन्होंने मिलकर कई पौधों से रंग प्राप्त करने और उनसे रंगाई के तरीकों का पता लगाया है और कभी-कभी सफलतापूर्वक पुन: निर्मित भी किया है।

ये पौधे हैं: (1) नेपाल बारबेरी (महोनिया नैपालेंसिस, हिंदी में दारुहल्दी; तमिल में मुल्लुमंजनती): अरुणाचल प्रदेश की अपतानी जनजाति ने लंबे समय तक इस पौधे का उपयोग अपनी बुनी हुई चीज़ों को रंगने के लिए किया है। (2) वाइल्ड कैना (कैना इंडिका, हिंदी में सर्वजया; तमिल में कलवाझाई): इस सजावटी पौधे के फूल सुर्ख लाल होते हैं, इससे अल्कोहल-घुलनशील डाई बनती है जो सूती कपड़े पर आसानी से और तेज़ी से चढ़ती है। (3) पलाश (ब्यूटिया मोनोस्पर्मा): पलाश मूलत: हमारे उपमहाद्वीप का पौधा है। इसमें आकर्षक फूल लगते हैं, जिनसे पारंपरिक तौर पर होली के लिए रंग बनाया जाता है। धूप में सुखाई गई पंखुड़ियां रंगों से भरपूर होती हैं, जिन्हें पानी में डालकर रंग प्राप्त किया जा सकता है।

पर्यावरण लागत

इन प्रयासों के साथ-साथ बायोटेक्नोलॉजिस्ट रासायनिक तरीकों की पर्यावरणीय कीमत को बायपास करना चाहते हैं। एक बैक्टीरिया को जेनेटिक रूप से परिवर्तित करके इंडिकैन (नील का पूर्ववर्ती) बनाने के लिए तैयार करके इस अवधारणा को परखा गया है।

वर्ष 2018 में नेचर केमिकल बायोलॉजी में टेमी एम ह्सू और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित पेपर बताता है कि गीले डेनिम की सतह पर इंडिकैन को एंज़ाइम रंजक में बदल देते हैं जिसके चलते कई ज़हरीले अपशिष्ट समाप्त हो जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन के लिए कुछ सुझाव – ज़ुबैर सिद्दिकी

गनचुम्बी इमारतों, बांधों, पुलों तथा गाड़ियों के निर्माण में सीमेंट और स्टील बहुत ही आवश्यक घटक हैं। लेकिन ये दोनों उद्योग पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। सीमेंट के उत्पादन में प्रति वर्ष 2.3 अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होता है जबकि लोहा और स्टील उत्पादन प्रति वर्ष 2.6 अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं। ये वैश्विक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का क्रमश: 6.5 प्रतिशत और 7.0 प्रतिशत हैं।

इसका एक कारण तो यह है कि हम इन पदार्थों का उपयोग भारी मात्रा में करते हैं। देखा जाए तो स्वच्छ पानी के बाद कांक्रीट सबसे अधिक उपयोग होने वाला पदार्थ है। इसके अलावा, इनके उत्पादन की विधियां भी कार्बन आधारित हैं। इनमें जिन रासायनिक अभिक्रियाओं का उपयोग होता है उनमें कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है। और तो और, निर्माण प्रक्रिया के लिए ज़रूरी उच्च तापमान हासिल करने के लिए जीवाश्म ईंधनों का दहन कार्बन डाईऑक्साइड का एक बड़ा स्रोत होता है।

 ऐसे में सीमेंट और स्टील के उत्पादन एवं उपयोग के स्वच्छ तरीके खोजने की तत्काल आवश्यकता है। औद्योगिक मांग और ऊर्जा कीमतों में वृद्धि के बावजूद हमारे लिए 2050 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य प्राप्त करना बहुत ज़रूरी है। यदि कम उत्सर्जन वाले भारी उद्योगों को फलते-फूलते देखना है तो इंफ्रास्ट्रक्चर, टेक्नॉलॉजी का हस्तांतरण और वित्तीय जोखिम कम करने के उपाय ज़रूरी होंगे।

नेचर के मार्च 2022 के अंक में प्रकाशित एक पर्चे में इम्पीरियल कॉलेज, लंदन के पौल फेनेल और जस्टिन ड्राइवर, साइमन फ्रेसर विश्वविद्यालय, कनाडा के क्रिस्टोफर बेटैल और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, यूएसए के स्टीवन डेविस ने इस संदर्भ में कई सुझाव प्रस्तुत किए हैं जो स्टील को कार्बन उदासीन और सीमेंट को कार्बन सोख्ता बनाने में भूमिका निभा सकते हैं। प्रस्तुत है उनके पर्चे का सार।  

1. नवीनतम तकनीकें

सभी उत्पादन संयंत्रों को सर्वोत्तम उपलब्ध तकनीक से सुसज्जित करना आवश्यक है। औद्योगिक संयंत्रों के तापरोधन में सुधार से 26 प्रतिशत ऊर्जा बचाई जा सकती है। बेहतर बॉयलर का उपयोग करके ऊर्जा खपत 10 प्रतिशत तक कम की जा सकती है। इसके साथ ही ऊष्मा विनिमय का उपयोग करने से शोधन प्रक्रिया की बिजली खपत को 25 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। अलबत्ता, एक समय के बाद किसी भी संयंत्र में सुधार करके ऊर्जा बचत की संभावना कम होती जाती है। वर्तमान के सबसे कुशल सीमेंट संयंत्र उन्नत प्रौद्योगिकियों को अपनाकर मात्र 0.04 प्रतिशत ऊर्जा की बचत कर पाएंगे। यानी कुछ और करने की ज़रूरत है।

2. कम उपयोग

एक ही काम के लिए कम मात्रा में स्टील और सीमेंट का उपयोग किया जा सकता है। फिलहाल दुनिया में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 530 किलोग्राम सीमेंट और 240 किलोग्राम स्टील का उत्पादन हो रहा है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईए) के अनुसार यदि भवन निर्माण संहिता और आर्किटेक्ट्स, इंजीनियर्स तथा ठेकेदारों के प्रशिक्षण में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव किए जाएं, तो सीमेंट की मांग को 26 प्रतिशत और स्टील की मांग को 24 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। कई भवन निर्माण संहिताएं सुरक्षा के लिए ज़रूरत से ज़्यादा डिज़ाइन का सहारा लेती हैं। यदि आधुनिक सामग्रियों और बढ़िया कंप्यूटर मॉडलिंग का उपयोग करके डिज़ाइन तैयार की जाए तो कम से कम संसाधनों से काम चल सकता है। इसके अलावा, कम कार्बन पदचिन्ह वाली वैकल्पिक सामग्री का भी उपयोग किया जा सकता है। जैसे वाहनों में स्टील के स्थान पर एल्युमीनियम। इसके लिए काम करने के पुराने तरीकों को बदलना होगा।

3. तकनीकी नवाचार

पारंपरिक स्टील उत्पादन में कार्बन की महत्वपूर्ण भूमिका है। ब्लास्ट फर्नेस (वात भट्टी) में ईंधन के रूप में कोक (एक किस्म का कोयला) का उपयोग किया जाता है जिसमें लौह खनिज को 2300 डिग्री सेल्सियस तापमान पर धात्विक लोहे में परिवर्तित किया जाता है। कोक के जलने पर कार्बन मोनोऑक्साइड बनती है जो अयस्क को लोहे और कार्बन डाईऑक्साइड में बदल देती है। इसके बाद लोहे को कोयला-भट्टी या कभी-कभी विदुयत भट्टी में परिष्कृत कर स्टील प्राप्त किया जाता है। इस प्रक्रिया में प्रति टन स्टील 1800 किलोग्राम से अधिक कार्बन डाईऑक्साइड पैदा होती है।

वैसे, अयस्क से लोहा प्राप्त करने के लिए अन्य पदार्थों का उपयोग भी किया जा सकता है। गौरतलब है कि विश्व का लगभग 5 प्रतिशत स्टील डायरेक्ट रिड्यूस्ड आयरन (डीआरआई) प्रक्रियाओं से बनाया जाता है जिनमें कोक की आवश्यकता नहीं होती है। इसके लिए आम तौर पर हाइड्रोजन और कार्बन मोनोऑक्साइड (मीथेन अथवा कोयले से प्राप्त) का उपयोग किया जाता है। इसके साथ-साथ यदि विद्युत भट्टी के लिए नवीकरणीय बिजली का उपयोग किया जाए तो ऐसे स्टील संयंत्र कोक आधारित संयंत्र की तुलना में 61 प्रतिशत कम कार्बन डाईऑक्साइड पैदा करते हैं।

और तो और, डीआरआई के लिए केवल हाइड्रोजन का उपयोग किया जाए तो उत्सर्जन को 50 किलोग्राम प्रति टन स्टील या उससे कम किया जा सकता है। कुछ कंपनियां इस तरह के संयंत्र आज़मा रही हैं।

इस प्रक्रिया की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इसके लिए भारी मात्रा में हाइड्रोजन की आवश्यकता होती है। समस्त स्टील का उत्पादन इस तरीके से करने के लिए वैश्विक हाइड्रोजन उत्पादन को वर्तमान 6 करोड़ टन से बढ़ाकर से 13.5 करोड़ टन प्रति वर्ष करना होगा। वर्तमान में सबसे सस्ती हाइड्रोजन प्राकृतिक गैस से प्राप्त होती है जिससे कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। इसका एक हरित विकल्प विद्युत-अपघटन की मदद से पानी से हाइड्रोजन प्राप्त करने का है लेकिन वह 2.5 गुना महंगा है। संयंत्रों की संख्या बढ़ेगी तो लागत कम हो सकती है।

अन्य विकल्प भी आज़माए जा सकते हैं। वर्ष 2004 में 15 युरोपीय देशों की 48 कंपनियों और संगठनों के एक संघ ने विभिन्न विकल्पों का मूल्यांकन किया। टाटा स्टील ने 2010 में नीदरलैंड में एक उन्नत स्टील उत्पादन प्रक्रिया वाला पायलट संयंत्र तैयार किया था, जो है तो कोयला आधारित लेकिन इसमें कार्बन को आसानी से थामा जा सकता है। फिलहाल हरित हाइड्रोजन की गिरती कीमत से टाटा हाइड्रोजन आधारित डीआरआई को अपनाने पर विचार कर रहा है। हाइड्रोजन का एक अच्छा विकल्प विद्युत-विच्छेदन के माध्यम से लोहा प्राप्त करने का है और इस पर काम चल रहा है।

4. नए प्रकार का सीमेंट

साधारण पोर्टलैंड सीमेंट का उत्पादन चूना पत्थर के कैल्सीनेशन से शुरू होता है। इस प्रकिया में चूना पत्थर को 850 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर गर्म करने पर वह चूना और कार्बन डाईऑक्साइड में परिवर्तित हो जाता है। चूने को रेत और मिट्टी के साथ मिलाकर 1450 डिग्री सेल्सियस तक भट्टी में पकाने पर क्लिंकर बनता है। जिसमें कुछ अन्य पदार्थ मिलाकर सीमेंट बनाया जाता हैं। लगभग 60 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन कैल्सीनेशन के दौरान होता है। शेष उत्सर्जन ईंधन के दहन से होता है। कुल मिलाकर, एक औसत संयंत्र में प्रति टन सीमेंट 800 किलोग्राम कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। उन्नत संयंत्र में यह मात्र 600 किलोग्राम होता है।

गौरतलब है कि चूना पत्थर के बिना भी सीमेंट बनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए मैग्नीशियम ऑक्सीक्लोराइड सीमेंट (सॉरेल) 1867 से मौजूद रहा है लेकिन पानी के प्रति कम सहनशीलता के कारण इसका व्यावसायीकरण नहीं हो पाया है। फिलहाल सीमेंट के कई प्रकारों को परखा जा रहा है। निर्माण में इनका उपयोग करने के लिए भवन निर्माण कोड, डिज़ाइन और तौर तरीकों को बदलना होगा, जिसमें समय लगेगा।

एक विकल्प क्लिंकर के स्थान पर कोई अन्य टिकाऊ सामग्री हो सकती है। यह सामग्री वात भट्टी का अपशिष्ट (स्लैग) और कोयला बिजलीघरों की राख हो सकती है। लेकिन जीवाश्म ईंधनों को चरणबद्ध तरीकों से खत्म करने पर इन सामग्रियों की प्राप्ति मुश्किल हो जाएगी। फिलहाल, शोधकर्ता अन्य विकल्प खोजने के प्रयास कर रहे हैं जिनमें लोहे और स्टील के रीसायकल संयंत्रों का स्लैग शामिल है।

एक और उदाहरण लाइमस्टोन कैलसाइन्ड क्ले सीमेंट (एलसी3) है। इसका जल्द ही व्यावसायीकरण संभव है। एक विकल्प यह है कि क्लिंकर की जगह अन्य सस्टेनेबल पदार्थों का उपयोग किया जाए। कई कंपनियों ने अपनी नेट-ज़ीरो रणनीतियों में एलसी3 को शामिल किया है।

5. ईंधन में बदलाव 

यह विचार लुभावना लगता है कि स्टील के लिए, कोयले और कोक की जगह लकड़ी के कोयले या अन्य जैव-पदार्थों का उपयोग किया जाए। लेकिन इसमें कई चुनौतियां हैं। ऊर्जा के लिए जैव-पदार्थों में वृद्धि का कृषि भूमि की ज़रूरत के साथ टकराव होगा और सारे जैव-पदार्थ का उत्पादन निर्वहनीय नहीं होता। कोक की तुलना में लकड़ी का कोयला वात भट्टी के लिए उपयुक्त नहीं होता है। लिहाज़ा स्टील प्रसंस्करण के ‘तकनीकी नवाचार’ शीर्षक में दिए गए सुझावों पर अमल ही शायद बेहतर होगा।  

वैसे सीमेंट के लिए नगर पालिका का ठोस अपशिष्ट वैकल्पिक ईंधन के रूप में उपयोग किया जा सकता है। भट्टी का ऊंचा तापमान ज़हरीले पदार्थों को नष्ट कर सकता है और राख को क्लिंकर में शामिल किया जा सकता है। युनाइटेड किंगडम स्थित मेक्सिकन कंपनी सीमेक्स एनर्जी के सीमेंट संयंत्रों की 57 प्रतिशत ऊर्जा इन वैकल्पिक ईंधनों से प्राप्त होती है जबकि यूके आधारित कंपनी हैनसन 52 प्रतिशत वैकल्पिक ईंधन की खपत करता है। इस रणनीति को उपयुक्त नियम-कानून बनाकर राष्ट्र स्तर पर प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। 

6. कार्बन कैप्चर 

सीसीएस तकनीक यानी कार्बन डाईऑक्साइड को कैद करके भंडारित करने की तकनीक सीमेंट और स्टील संयंत्रों के उत्सर्जन को कम करने के लिए अनिवार्य होगी। सीसीएस का उपयोग कई देशों में किया जा रहा है। नॉर्वे की सरकारी कंपनी एक्विनार 1990 के दशक से सीसीएस परियोजना के तहत प्रति वर्ष 10 लाख टन कार्बन डाईऑक्साइड को धरती में दफन कर रही है। लेकिन इस तकनीक का पर्याप्त उपयोग नहीं किया गया है। अब तक वैश्विक उत्सर्जन का केवल 0.1 प्रतिशत ही कैप्चर करके भूमिगत किया गया है। कुछेक चुनिंदा संयंत्र सीसीएस का परीक्षण कर रहे हैं। फिलहाल आबू धाबी में एक आधुनिक डीआरआई स्टील संयंत्र 2016 से सीसीएस का उपयोग कर रहा है। सीसीएस को बढ़ाने की ज़रूरत है।

इसमें गैस को संपीड़ित और संग्रहित करने की लागत को कम करने के लिए कार्बन डाईऑक्साइड 99.9 प्रतिशत से अधिक शुद्ध होना अनिवार्य है। एक सामान्य स्टील और सीमेंट संयंत्र की चिमनी से 30 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड और बाकी नाइट्रोजन और भाप निकलती है। एक विकल्प है कि ईंधन को ऑक्सीजन और रीसायकल गैसों के मिश्रण में जलाया जाए ताकि अपेक्षाकृत शुद्ध कार्बन डाईऑक्साइड प्राप्त हो। यह काफी मुश्किल है क्योंकि इसके लिए घूमती-तपती भट्टी को सील करना ज़रूरी होता है।      

कैल्सिनेशन प्रक्रिया से कार्बन डाईऑक्साइड को अलग करने का एक अन्य तरीका चूना पत्थर को परोक्ष ढंग से गर्म करना है (जैसे दीवार के ज़रिए) ताकि चूना पत्थर से निकलने वाली गैस और ईंधन दहन का उत्सर्जन अलग-अलग रहें। चूना पत्थर से निकलने वाला उत्सर्जन काफी शुद्ध होता है जिससे सीसीएस की लागत में कमी आती है। बेल्जियम और जर्मनी में LEILAC1 और 2 परियोजनाएं इसका परीक्षण कर रही हैं। LEILAC2 20 प्रतिशत (लगभग एक लाख टन प्रति वर्ष) उत्सर्जन को कैप्चर कर रही है। 

इसके अलावा भारी उद्योगों को समूहों में बनाने से हाइड्रोजन उत्पादन के लिए ऊष्मा, सामग्री और बुनियादी ढांचे और कार्बन डाईऑक्साइड का संग्रहण और निपटान साझा हो सकता है। ऐसे क्लस्टर यूके, डेनमार्क, नीदरलैंड और नॉर्वे में तैयार हो रहे हैं। 

7. कॉन्क्रीट में कार्बन संग्रहण 

कॉन्क्रीट तैयार करने के लिए सीमेंट में पानी के साथ रेत और गिट्टी मिलाई जाती हैं। इसमें पानी कुछ रासायनिक अभिक्रियाएं शुरू करता है जो सामग्री को सख्त बना देती हैं, जोड़ देती हैं। इसमें कार्बन डाईऑक्साइड मिलाने से सीमेंट की मज़बूती बढ़ती है। वज़न के हिसाब से 1.3 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड कठोरता को लगभग 10 प्रतिशत तक बढ़ा देती है। ऐसा करने से निर्माण के लिए सीमेंट की ज़रूरत कम हो जाती है और कुल उत्सर्जन में 5 प्रतिशत तक की कमी आती है।

कॉन्क्रीट में कार्बन कैप्चर अनुसंधान का सक्रिय क्षेत्र है। कनाडा स्थित कार्बनक्योर जैसी कंपनियां बड़े पैमाने पर कार्बन डाईऑक्साइड को कॉन्क्रीट में इंजेक्ट कर रही हैं। उन्होंने अब तक दो लाख टन कार्बनक्योर कॉन्क्रीट बेचा किया है जिससे डाईऑक्साइड उत्सर्जन में 1,32,000 टन की कमी आई है।

सीमेंट और कॉन्क्रीट दोनों हवा से कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करते हैं जो कैल्शियम आधारित पदार्थों को वापिस चूना पत्थर में परिवर्तित कर देती है। सिद्धांतत: इस प्रक्रिया से सीमेंट निर्माण के दौरान उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड का लगभग आधा हिस्सा फिर से अवशोषित किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए कॉन्क्रीट के कणों को पीसकर महीन बनाना होगा ताकि कार्बन डाईऑक्साइड अच्छे से फैल सके। यह प्रक्रिया काफी महंगी है और इसके लिए ऊर्जा की भी ज़रूरत होती है। वैसे इसमें कितनी कार्बन डाईऑक्साइड सोखी जाएगी यह काफी अनिश्चित होता है और इसलिए इसे यूएन जलवायु परिवर्तन कार्यों की सूची में स्थान नहीं मिला है।

8. स्टील का पुनर्चक्रण 

इलेक्ट्रिक आर्क फर्नेस (ईएएफ) का उपयोग करके स्टील का पुनर्चक्रण किया जा सकता है। वर्तमान में स्टील उत्पादन का एक चौथाई भाग पुनर्चक्रित स्क्रैप से प्राप्त होता है। वैश्विक स्तर पर 2050 तक पुनर्चक्रित स्टील का उत्पादन दुगना होने की संभावना है। इससे कार्बन उत्सर्जन आज की तुलना में 20-25 प्रतिशत तक कम किया जा सकेगा। 

स्टील का लगातार पुनर्चक्रण वर्तमान में संभव नहीं है। ऐसा करने से उसमें अवांछनीय यौगिक, विशेषकर तांबा, इकट्ठा होने लगते हैं। स्क्रैप की बेहतर छंटाई करके और उत्पादों को नया रूप देकर इस प्रक्रिया को धीमा किया जा सकता है।

9. सब्सिडी

उपरोक्त आठ बिंदुओं का प्रभाव काफी विशाल हो सकता है। लेकिन कम कार्बन उत्सर्जन वाले भारी उद्योगों को बड़े पैमाने पर शामिल करने के लिए आर्थिक बाधाओं का सामना करना होगा। स्टील के लिए हाइड्रोजन आधारित डीआरआई संयंत्रों और सीमेंट के लिए सीसीएस सुविधाएं पायलट से लेकर शुरुआती व्यावसायिक चरणों तक मौजूद हैं। इनको बढ़ाना काफी महंगा और जोखिम भरा है। कम कार्बन वाले उत्पादों को प्रतिस्पर्धा में नुकसान होता है। अधिकांश निर्माण कार्य विकासशील देशों में हो रहा है। अत: उनके साथ टेक्नॉलॉजी साझा करने और वित्तीय जोखिमों को कम करने की प्रणालियां लागू करने की आवश्यकता है। जीवाश्म ईंधन को जैव-पदार्थों या हाइड्रोजन से बदलने या सीसीएस के लिए युरोपीन युनियन एमिशन ट्रेडिंग स्कीम (ईटीएस) के तहत कदम उठाना एक अच्छा विचार है। लेकिन शायद सरकार की ओर से सब्सिडी ज़्यादा प्रभावी हो सकती है। सीसीएस के साथ पूर्ण कार्बन-मुक्ति से पोर्टलैंड सीमेंट की लागत दुगनी होने की उम्मीद है। शून्य-उत्सर्जन स्टील की लागत सामान्य स्टील की तुलना में 20-40 प्रतिशत अधिक होने की संभावना है। इस सबकी क्षतिपूर्ति के लिए सब्सिडी ज़रूरी होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में निर्मित कोवैक्सीन के निर्यात पर रोक

हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) ने भारत में विकसित कोवैक्सीन टीके के निर्माण को लेकर चिंताएं व्यक्त की हैं। मार्च में किए गए निरीक्षण में डबल्यूएचओ को भारत बायोटेक की टीका उत्पादन सुविधा में कुछ समस्याएं देखने को मिली थीं। विस्तार से कोई जानकारी तो नहीं मिली है लेकिन डबल्यूएचओ के अनुसार भारत बायोटेक कोवैक्सीन के निर्यात पर अस्थायी रोक लगाकर सुधारात्मक कार्य योजना तैयार करने को राज़ी हो गया है।

इस निर्णय के बाद यूनिसेफ के माध्यम से अन्य देशों को मिलने वाले टीकों की आपूर्ति में कमी आने की संभावना है। अन्य देशों को भी अन्य उत्पादों का उपयोग करने का सुझाव दिया गया है। भारत बायोटेक का कहना है कि रख-रखाव और उत्पादन सुविधाओं में सुधार पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। कंपनी के प्रवक्ता के अनुसार भारत में टीके की बिक्री जारी रहेगी। कुछ वैज्ञानिकों ने भारत की दवा नियामक एजेंसी केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) की भूमिका पर सवाल खड़े किए हैं।  

कोवैक्सीन टीका निष्क्रिय वायरस से तैयार किया गया है। टीके के तीसरे चरण के परीक्षण से पहले ही जनवरी 2021 में सीडीएससीओ ने कोवैक्सीन को आपात उपयोग की अनुमति दी थी। इसके चलते कमज़ोर नियामक मानकों का आरोप भी लगा था। जुलाई 2021 में तीसरे चरण के परीक्षण से पता चला कि कोवैक्सीन की प्रभाविता अन्य टीकों के लगभग बराबर (77.8 प्रतिशत) थी।   

इससे पहले मार्च 2021 में ब्राज़ीलियन हेल्थ रेगुलेटरी एजेंसी ने कोवैक्सीन के निर्माण में अच्छी उत्पादन प्रथाओं (जीएमपी) यानी उत्पादन इकाई में सुरक्षा, प्रभाविता और गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक नियमों के पालन में ढिलाई देखी थी। इसके चलते टीके में जीवित वायरस के होने की संभावना बढ़ जाती है। ब्राज़ील ने अस्थायी रूप से टीके का आयात निलंबित कर दिया था और जुलाई 2021 में इस सौदे को पूरी तरह खत्म कर दिया गया।         

बाद में भारत बायोटेक ने इन कमियों को दूर किया और नवंबर 2021 डबल्यूएचओ द्वारा इसे आपात उपयोग की सूची में शामिल किया गया। इस सूची का उद्देश्य कम और मध्यम आय वाले देशों को टीका उपलब्ध कराना और सदस्य देशों को टीकों का चुनाव करने में मदद करना है। अब एक बार फिर जीएमपी सम्बंधित कमियां देखने को मिली हैं। सूची में शामिल होने के बाद कंपनी ने अपनी निर्माण प्रक्रिया में बदलाव किया था और इस बात की सूचना सीडीएससीओ और डबल्यूएचओ को नहीं दी थी, जो अनिवार्य है।

एम-आरएनए टीकों के विपरीत इन टीकों को कम तापमान पर रखने की आवश्यकता नहीं होती है। इसलिए गरीब देशों के लिए इनका उपयोग काफी आसान है।          

उपरोक्त विसंगतियां दर्शाती है कि डब्ल्यूएचओ और सीडीसीएसओ के मानक अलग-अलग है। उक्त विसंगतियों को दूर करना ज़रूरी है। इससे टीका लेने में झिझक कम होगी और यह भारतीय उद्योग की विश्वसनीयता और लोगों के स्वास्थ्य दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कुकुरमुत्तों का संवाद

हां-वहां उग रहे कुकुरमुत्तों (मशरूम) को देखकर ऐसा लगता है कि वे भी कहीं आपस में बात करते होंगे। लेकिन एक नए अध्ययन से पता चलता है कि वे ‘बातूनी’ हो सकते हैं।

मशरूम दरअसल एक प्रकार की फफूंद हैं। इनके द्वारा एक-दूसरे को भेजे जाने वाले विद्युत संकेतों के गणितीय विश्लेषण में ऐसे पैटर्न पहचाने गए हैं जो मानव भाषा से आश्चर्यजनक संरचनात्मक समानता दर्शाते हैं।

पूर्व अध्ययनों में देखा गया था कि फफूंद अपनी लंबी, भूमिगत तंतुनुमा रचनाओं (कवकतंतु या हाइफे) के माध्यम से विद्युत संकेतों का संचालन करते हैं – ठीक वैसे ही जैसे मनुष्यों में तंत्रिका कोशिकाएं सूचना प्रसारित करती हैं।

यहां तक देखा गया है कि जब लकड़ी पचाने वाली फफूंद के कवकतंतु किसी लकड़ी के टुकड़े के संपर्क में आते हैं तो इन संकेतों के प्रेषण की दर बढ़ जाती है। इससे लगता है कि फफूंद इस विद्युत ‘भाषा’ का उपयोग भोजन उपलब्ध होने या क्षति पहुंचने की जानकारी अपने अन्य हिस्सों के साथ या कवकतंतुओं के माध्यम से जुड़ी वनस्पतियों के साथ साझा करने के लिए करती हैं।

लेकिन क्या ये विद्युत गतिविधियां मानव भाषा से कुछ समानता रखती हैं? यह जानने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ दी वेस्ट ऑफ इंग्लैंड के प्रोफेसर एंड्रयू एडमात्ज़की ने फफूंद की चार प्रजातियों – एनोकी, स्प्लिट गिल, घोस्ट और कैटरपिलर फफूंद द्वारा बहुत कम समय के लिए उत्पन्न विद्युत आवेगों के पैटर्न का विश्लेषण किया।

रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में प्रकाशित नतीजों के अनुसार ये विद्युत आवेग अक्सर समूहों में होते हैं, और ऐसा लगता है कि 50 ‘शब्दों’ का ककहरा हो। और इन कवक ‘शब्दों’ की लंबाई मानव भाषा से काफी मेल खाती है। सड़ती-गलती लकड़ी पर पनपने वाली फफूंद स्प्लिट गिल उपरोक्त चार में से सबसे जटिल ‘वाक्य’ बनाती हैं।

इन विद्युत गतिविधियों का सबसे संभावित कारण फफूंद द्वारा अपने समूह को जोड़े रखना लगता है – जैसे भेड़िए करते हैं। या यह भी हो सकता है कि इनकी भूमिका कवकजाल के अन्य हिस्सों को भोजन या खतरों के बारे में आगाह करने की है। एक संभावना यह भी हो सकती है कि फफूंद कुछ भी न कहते हों बल्कि यह हो सकता है कि कवकजाल के सिरे विद्युत आवेशित होते हैं, इसलिए जब आवेशित सिरे इलेक्ट्रोड्स से संपर्क में आते होंगे तो विभवांतर में तीक्ष्ण वृद्धि हो जाती होगी।

बहरहाल इन विद्युत संकेतो का कुछ भी मतलब हो लेकिन ये बेतरतीब या रैंडम नहीं लगते। फिर भी, इन संकेतों को भाषा के रूप में स्वीकार करने के लिए और अधिक प्रमाणों की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स) 

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3000 साल पुरानी पतलून इंजीनियरिंग का चमत्कार है

हाल ही में एक विशेषज्ञ बुनकर की मदद से पुरातत्वविदों ने दुनिया की सबसे पुरानी (लगभग तीन हज़ार साल पुरानी) पतलून की डिज़ाइन के रहस्यों को उजागर किया है। प्राचीन बुनकरों ने कई तकनीकों की मदद से घोड़े पर बैठकर लड़ने के लिए इस पतलून को तैयार किया था – पतलून इस तरह डिज़ाइन की गई थी कि यह कुछ जगहों पर लचीली थी और कुछ जगहों पर चुस्त/मज़बूत।

यह ऊनी पतलून पश्चिमी चीन में 1000 और 1200 ईसा पूर्व के बीच दफनाए गए एक व्यक्ति (जिसे अब टर्फन मैन कहते हैं) की थी, जो उसे दफनाते वक्त पहनाई गई थी। उसने ऊन की बुनी हुई पतलून के साथ पोंचों पहना था जिसे कमर के चारों ओर बेल्ट से बांध रखा था, टखने तक ऊंचे जूते पहने थे, और उसने सीपियों और कांसे की चकतियों से सजा एक ऊनी शिरस्त्राण पहना था।

पतलून का मूल डिज़ाइन आजकल के पतलून जैसा ही था। कब्र में व्यक्ति के साथ प्राप्त अन्य वस्तुओं से लगता है कि वह घुड़सवार योद्धा था।

दरअसल घुड़सवारों के लिए इस तरह की पतलून की ज़रूरत थी जो इतनी लचीली हो कि घोड़े पर बैठने के लिए पैर घुमाते वक्त कपड़ा न तो फटे और न ही तंग हो। साथ ही घुटनों पर अतिरिक्त मज़बूती की आवश्यकता थी। यह कुछ हद तक पदार्थ-विज्ञान की समस्या थी कि कपड़ा कहां लोचदार चाहिए और कहां मज़बूत और ऐसा कपड़ा कैसे बनाया जाए जो दोनों आवश्यकताओं को पूरा करे?

लगभग 3000 साल पहले चीन के बुनकरों ने सोचा कि पूरे कपड़े को एक ही तरह के ऊन/धागे से बुनते हुए विभिन्न बुनाई तकनीकों का उपयोग करना चाहिए।

जर्मन आर्कियोलॉजिकल इंस्टीट्यूट की पुरातत्वविद मेयके वैगनर और उनके साथियों ने इस प्राचीन ऊनी पतलून का बारीकी से अध्ययन किया। बुनाई तकनीकों को बेहतर ढंग से समझने के लिए एक आधुनिक बुनकर से प्राचीन पतलून की प्रतिकृति बनवाई गई।

उन्होंने पाया कि अधिकांश पतलून को ट्विल तकनीक से बुना गया था जो आजकल की जींस में देखा जा सकता है। इस तरीके से बुनने में कपड़े में उभरी हुई धारियां तिरछे में समानांतर चलती है, और कपड़ा अधिक गसा और खिंचने वाला बनता है। खिंचाव से कपड़ा फटने की गुंज़ाइश को और कम करने के लिए पतलून के कमर वाले हिस्से को बीच में थोड़ा चौड़ा बनाया गया था।

लेकिन सिर्फ लचीलापन ही नहीं चाहिए था। घुटनों वाले हिस्से में मज़बूती देने के लिए एक अलग बुनाई पद्धति (टेपेस्ट्री) का उपयोग किया गया था। इस तकनीक से कपड़ा कम लचीला लेकिन मोटा और मज़बूत बनता है। कमरबंद के लिए तीसरे तरह की बुनाई तकनीक उपयोग की गई थी ताकि घुड़सवारी के दौरान कोई वार्डरोब समस्या पैदा न हो।

और सबसे बड़ी बात तो यह है पतलून के ये सभी हिस्से एक साथ ही बुने गए थे, कपड़े में इनके बीच सिलाई या जोड़ का कोई निशान नहीं मिला।

टर्फन पतलून बेहद कामकाजी होने के साथ सुंदर भी बनाई गई थी। जांघ वाले हिस्से की बुनाई में बुनकरों ने सफेद रंग पर भूरे रंग की धारियां बनाने के लिए अलग-अलग रंगों के धागों का बारी-बारी उपयोग किया था। टखनों और पिण्डलियों वाले हिस्सों को ज़िगज़ैग धारियों से सजाया था। इस देखकर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि टर्फनमैन संस्कृति का मेसोपोटामिया के लोगों के साथ कुछ वास्ता रहा होगा।

पतलून के अन्य पहलू आधुनिक कज़ाकस्तान से लेकर पूर्वी एशिया तक के लोगों से संपर्क के संकेत देते हैं। घुटनों पर टेढ़े में बनीं इंटरलॉकिंग टी-आकृतियों का पैटर्न चीन में 3300 साल पुराने एक स्थल से मिले कांसे के पात्रों पर बनी डिज़ाइन और पश्चिमी साइबेरिया में 3800 से 3000 साल पुराने स्थल से मिले मिट्टी के बर्तनों पर बनी डिज़ाइन से मेल खाते हैं। पतलून और ये पात्र लगभग एक ही समय के हैं लेकिन ये एक जगह पर नहीं बल्कि एक-दूसरे से लगभग 3,000 किलोमीटर की दूरी पर स्थित थे।

पतलून के घुटनों को मज़बूती देने वाली टेपेस्ट्री बुनाई सबसे पहले दक्षिण-पश्चिमी एशिया में विकसित की गई थी। ट्विल तकनीक संभवतः उत्तर-पश्चिमी एशिया में विकसित हुई थी।

दूसरे शब्दों में, पतलून का आविष्कार में हज़ारों किलोमीटर दूर स्थित संस्कृतियों की विभिन्न बुनाई तकनीकों का मेल है। भौगोलिक परिस्थितियों और खानाबदोशी के कारण यांगहाई, जहां टर्फनमैन को दफनाया गया था, के बुनकरों को इतनी दूर स्थित संस्कृतियों से संपर्क का अवसर मिला होगा। (स्रोत फीचर्स)

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भयावह है वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव – सुदर्शन सोलंकी

93 प्रतिशत भारतीय ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जहां वायु प्रदूषण का स्तर डब्ल्यूएचओ के मानकों से अधिक है। यह निष्कर्ष अमेरिका के हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट द्वारा जारी वार्षिक स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर रिपोर्ट में शामिल किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार इसके परिणामस्वरूप भारत में औसत आयु लगभग 1.5 वर्ष कम हो गई है।

ऐटमॉस्फेरिक एन्वॉयरमेंट में प्रकाशित अध्ययन से पता चला है कि ब्लैक कार्बन की वजह से समय से पहले मृत्यु हो सकती है। यही नहीं, ब्लैक कार्बन का इंसान के स्वास्थ्य पर अनुमान से कहीं ज़्यादा बुरा असर पड़ता है।

सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (सीआरईए) द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार, एचएसबीसी बैंक के स्वामित्व व हिस्सेदारी वाली कंपनियों द्वारा निर्मित और नियोजित नए कोयला संयंत्रों से होने वाले वायु प्रदूषण से प्रति वर्ष अनुमानित 18,700 मौतें होंगी। अर्थात इन संयंत्रों से प्रतिदिन 51 लोगों की मौत होने की संभावना होगी। इन कोयला संयंत्रों के कारण प्रति वर्ष भारत में अनुमानित 8300, चीन में 4200, बांग्लादेश में 1200, इंडोनेशिया में 1100, वियतनाम में 580 और पाकिस्तान में 450 मौंतें हो सकती हैं।

एक मनुष्य दिन भर में औसतन 20 हज़ार बार सांस लेता है और इस दौरान औसतन 8000 लीटर वायु अंदर-बाहर करता है। यदि वायु अशुद्ध है या उसमें प्रदूषक तत्वों का समावेश है तो वह सांस के साथ शरीर में पहुंचकर विभिन्न प्रकार से शरीर को प्रभावित करती है और अनेक भयंकर रोगों का कारण बन जाती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार हर साल 70 लाख लोगों की मृत्यु प्रदूषित हवा के कारण होती है। हेल्‍थ इफेक्‍ट इंस्टीट्यूट के मुताबिक 2015 में भारत में 10 लाख से ज़्यादा असामयिक मौतों का कारण वायु प्रदूषण था। 2019 में वायु प्रदूषण के चलते 18 फीसद मृत्‍यु हुई। इंडियन कॉउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार 2019 में वायु-प्रदूषण की वजह से भारत में 16.7 लाख मौतें हुई हैं। अब भी भारत के कई राज्यों में प्रदूषण की समस्या साल भर बनी रहती है।

कणीय पदार्थों (पार्टिकुलेट मैटर, पीएम) से होने वाला वायु-प्रदूषण मुख्यतः जीवाश्म ईंधन के जलने का परिणाम होता है। इसे दुनिया भर में वायु प्रदूषण का सबसे घातक रूप माना जाता है, जो सिगरेट पीने से भी ज़्यादा खतरनाक है।

इतना ही नहीं, वायु प्रदूषण का वनस्पति पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जैसे अम्लीय वर्षा, धूम-कोहरा, ओज़ोन, कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाईऑक्साइड इत्यादि पेड़-पौधों को प्रभावित करते हैं। वायु प्रदूषण के कारण पौधों को प्रकाश कम मिलता है जिसके कारण उनकी प्रकाश संश्लेषण क्रिया प्रभावित होती है। अधिक वायु प्रदूषण के क्षेत्र में पौधे परिपक्व नहीं हो पाते, कलियां मुरझा जाती हैं तथा फल भी पूर्ण विकसित नहीं हो पाते।

डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के टॉप 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 13 भारत के हैं। डब्ल्यूएचओ ने अपनी इस रिपोर्ट में कहा है कि इन शहरों में 2.5 माइक्रोमीटर से छोटे कण (पीएम 2.5) की सालाना सघनता सबसे ज़्यादा है। पीएम 2.5 प्रदूषण में शामिल सूक्ष्म तत्व हैं जिन्हें मानव शरीर के लिए सबसे खतरनाक माना जाता है। आइक्‍यू एयर की रिपार्ट के अनुसार वर्ष 2020 में पूरे विश्‍व में सबसे खराब वायु गुणवत्‍ता वाले देशों की सूची में भारत तीसरे नंबर पर था। वहीं हाल में दिल्ली में प्रदूषक पीएम 2.5 का सूचकांक 462 था, जो 50 से भी कम होना चाहिए। ब्रिटेन की राजधानी लंदन में पीएम 2.5 का स्तर 17, बर्लिन में 20, न्यूयार्क में 38  और बीजिंग में 59 है।

डालबर्ग एडवाइज़र के साथ क्लीन एयर फंड और कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) ने मिलकर काम किया और बताया कि वायु प्रदूषण पर तुरंत कार्रवाई की आवश्यकता है क्योंकि इसकी वजह से भारत की अर्थव्यवस्था पर काफी प्रभाव पड़ रहा है और स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है। डालबर्ग का अनुमान है कि भारत के दिहाड़ी मज़दूर वायु प्रदूषण की वजह से सेहत खराब होने के कारण जो अवकाश लेते हैं उसकी वजह से राजस्‍व में 6 अरब अमरीकी डॉलर का नुकसान होता है। वायु प्रदूषण की वजह से दिहाड़ी मज़दूरों के कार्य करने की क्षमता के साथ उनकी सोचने-समझने की शक्ति पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण उनकी श्रम शक्ति भी कम होती है जिससे राजस्‍व 24 अरब डॉलर तक कम हो रहा है।

वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए केन्द्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा वायु प्रदूषण सम्बंधी विभिन्न अधिनियम, नियम और अधिसूचनाएं जारी की गई हैं, किंतु विभिन्न शोधों से पता चलता है कि इन सबके बावजूद भी वायु प्रदूषण पर नियंत्रण पाने में सफलता नहीं मिल पा रही है। प्रदूषण के स्तर में स्थायी कमी लाने के लिए पराली जलाने पर नियंत्रण के साथ ही वाहनों, उद्योग, बिजली संयंत्रों इत्यादि से होने वाले प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए ठोस कार्य योजना बनाने और उनके सही से क्रियान्वयन की आवश्यकता है अन्यथा इसके परिणाम भयावह होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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मछलियां जोड़ना-घटाना सीख सकती हैं

म धारणा है कि मछलियां जोड़ना-घटाना कैसे करेंगी, क्योंकि उनके पास हमारी तरह जोड़ने-घटाने के साधन (यानी उंगलियां) नहीं हैं। लेकिन एक नए अध्ययन से पता चला है कि वे कम से कम छोटी संख्याओं के साथ ऐसा कर सकती हैं।

मछलियों में जोड़ने-घटाने की क्षमता जांचने के लिए बॉन विश्वविद्यालय की प्राणी विज्ञानी वेरा श्यूसल और उनके साथियों ने हड्डियों वाली सिक्लिड्स (स्यूडोट्रॉफियस ज़ेब्रा) और उपास्थि वाली स्टिंग रे (पोटामोट्रीगॉन मोटरो) को चुना।

प्रशिक्षण के लिए शोधकर्ताओं ने एक टैंक में प्रत्येक मछली को 5 तक वर्ग, वृत्त और त्रिभुज की छवियां दिखाईं जो सभी या तो नीले रंग की थीं या पीले रंग की। मछली को इन आकृतियों की संख्या और रंग याद करने के लिए 5 सेकंड का समय दिया गया। फिर टैंक का द्वार खोला गया, जिसमें मछलियों को दो दरवाज़ों में से एक दरवाज़े को चुनना था: एक दरवाज़ा वह था जिसमें पहले दिखाई गई आकृतियों से एक अधिक थी जबकि दूसरे दरवाज़े में एक आकृति कम थी।

नियम सरल थे: यदि पहले दिखाई गई आकृतियां नीले रंग की थीं, तो एक अतिरिक्त आकृति वाला दरवाज़ा चुनना था; और यदि आकृतियां पीले रंग की थीं, तो एक कम आकृति वाला दरवाज़ा चुनना था। सही दरवाज़ा चुनने पर मछलियों को इनाम स्वरूप भोजन मिलता था।

आठ सिक्लिड में से छह और आठ स्टिंग रे में से सिर्फ चार ने सफलतापूर्वक प्रशिक्षण पूरा किया। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में शोधकर्ताओं ने बताया है कि जितनी भी मछलियां परीक्षण के चरण से गुज़रीं उनके प्रदर्शन की व्याख्या मात्र संयोग कहकर नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए, परीक्षण में जब मछलियों को तीन नीली आकृतियां दिखाई गईं तो स्टिंग रे और सिक्लिड ने क्रमशः 96 प्रतिशत और 82 प्रतिशत सटीकता से चार आकृति वाला दरवाज़ा चुना। देखा गया कि दोनों प्रजातियों की मछलियों के लिए जोड़ की तुलना में घटाना थोड़ा अधिक कठिन था; बच्चों को भी जोड़ने की अपेक्षा घटाने में कठिनाई होती है।

यह सुनिश्चित करने के लिए कि मछलियां सिर्फ पैटर्न याद नहीं रख रहीं हैं, शोधकर्ताओं ने अगले परीक्षणों में आकृतियों की संख्या और साइज़ बदल दिए। उदाहरण के लिए एक परीक्षण में, तीन नीली आकृतियां दिखाने पर मछलियों को चार या पांच आकृतियों वाले दरवाज़ों में से एक दरवाज़े को चुनना था – यानी उनके सामने ‘एक जोड़ने’ और ‘एक घटाने’ के विकल्प के अलावा ‘एक जोड़ने’ और ‘दो जोड़ने’ के विकल्प भी थे। देखा गया कि मछलियों ने सिर्फ यह नहीं किया बड़ी संख्या को चुन लें, बल्कि हर बार उन्होंने ‘एक जोड़ने’ वाले निर्देश का पालन किया – यानी मछलियां वांछित सम्बंध समझती हैं।

पहले देखा गया था कि मछलियां छोटी-बड़ी संख्या/मात्रा में अंतर कर पाती हैं। लेकिन यह अध्ययन उससे एक कदम आगे जाता है। सिक्लिड्स और उपास्थि वाली स्टिंग रे विकास में 40 करोड़ वर्ष पहले पृथक हो गई थीं। यानी यह क्षमता उससे पहले विकसित हुई होगी। (स्रोत फीचर्स)

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एक मकबरे के रहस्य की गंध

दो प्राचीन मिस्रवासियों को दफनाने के 3400 से अधिक वर्षों के बाद, उनके साथ दफनाए गए भोजन भरे मर्तबानों से अब तक मीठी गंध आ रही थी। हाल ही में रसायनज्ञों और पुरातत्ववेत्ताओं के दल ने इन गंधों का विश्लेषण करके पता लगाने की कोशिश की है कि इनमें क्या रखा गया था। यह अध्ययन गंध के पुरातत्व के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है।

1906 में लक्सर के निकट दायर अल-मदीना कब्रिस्तान से खा और मेरिट के साबुत मकबरे खोदे गए थे। ‘मुकद्दम’ या वास्तुकार रहे खा और उनकी पत्नी मेरिट का मकबरा मिस्र का अब तक का सबसे पूर्ण गैर-शाही प्राचीन मकबरा है, जो बताता है कि मृत्यु के बाद उच्च वर्ग के लोगों के साथ क्या किया जाता था। इस मकबरे में अद्भुत चीज़ों का संग्रह है। यहां तक कि मकबरे में खा के लिनेन के अंत:वस्त्र भी हैं, जिन पर उसके नाम की कढ़ाई की गई है।

लेकिन खुदाई के समय मकबरे की खोज करने वाले पुरातत्वविदों ने ममियों को खोलने या उनके साथ दफन सीलबंद सुराही, मर्तबान और जग को खोलने से खुद को रोके रखा, यहां तक कि इन्हें इटली के मिस्री संग्रहालय में रखे जाने के बाद भी इनका अध्ययन नहीं किया। इनमें से कई पात्रों में क्या रखा था/है यह अब भी रहस्य है। हालांकि इनमें क्या होगा इसके कुछ संकेत मिलते हैं। एक मत है कि इनमें से कुछ पात्रों में फलों की महक थी।

महक के विश्लेषण के लिए युनिवर्सिटी ऑफ पीसा की रसायनज्ञ इलारिया डिगानो और उनके साथियों ने सीलबंद मर्तबान और प्राचीन भोजन के अवशेष लगी कड़छी सहित विभिन्न वस्तुओं को प्लास्टिक की थैलियों में बंद करके रखा ताकि इनमें से निकलने वाले वाष्पशील अणुओं को इकट्ठा किया जा सके। प्राप्त नमूनों का मास स्पेक्ट्रोमेट्री अध्ययन करने पर एल्डिहाइड और लंबी शृंखला वाले हाइड्रोकार्बन मिले, जो इनमें मधुमक्खी के छत्ते का मोम होने का संकेत देते हैं; ट्राइमेथिलअमीन मिला जो सूखी मछली की उपस्थिति दर्शाता है; और फलों में आम तौर पर मौजूद अन्य एल्डिहाइड मिले। इन नतीजों को मकबरे से मिली सामग्रियों के पुन:विश्लेषण करने की एक बड़ी परियोजना में शामिल किया जाएगा, जिससे खा और मेरिट के काल में (तुतनखामुन के तख्तनशीं होने से लगभग 70 साल पहले) गैर-शाही लोगों को दफनाने के रीति-रिवाजों की एक अधिक व्यापक तस्वीर मिलेगी।

वैसे ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि सुगंधित यौगिकों ने प्राचीन मिस्र के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी है। वर्ष 2014 में, शोधकर्ताओं ने 6300 और 5000 साल पुरानी लिनेन की पट्टियों से वाष्पशील अणु प्राप्त किए थे। इन पट्टियों का उपयोग मिस्र के कुछ सबसे प्राचीन ज्ञात कब्रिस्तानों के शवों को लपेटने के लिए किया गया था। इन अणुओं से जीवाणुरोधी गुणों वाले लेप की उपस्थिति की पुष्टि हुई थी, अर्थात मिस्र के लोग अनुमान से लगभग 1500 साल पहले से ममीकरण का प्रयोग कर रहे थे।

लेकिन अब भी पुरातत्व में गंध विश्लेषण पर इतना काम नहीं हो रहा है। पुरावेत्ताओं द्वारा वाष्पशील अणुओं/यौगिकों को यह मानकर नज़रअंदाज़ किया जाता है कि ये तो उड़ गए होंगे। लेकिन प्राचीन मिस्रवासियों को अच्छे से समझने के लिए गंध की दुनिया में उतरना होगा। उदाहरण के लिए, यही देखें कि सुगंधित रेज़िन (राल) से प्राप्त सुगंधित धूप/अगरबत्ती प्राचीन मिस्रवासियों के लिए अहम थी। उनके धार्मिक अनुष्ठानों और अंतिम संस्कार की कुछ रस्मों में धूप/अगरबत्ती अवश्य होती थी। चूंकि मिस्र में राल पैदा करने वाले पेड़ नहीं उगते थे, इसलिए सुंगधित राल प्राप्त करने के लिए वे लंबी दूरी तय करते होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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कोविड से मधुमेह के जोखिम में वृद्धि

हाल ही में दो लाख लोगों पर किए गए एक व्यापक अध्ययन से पता चला है कि सार्स-कोव-2 से संक्रमित लोगों में मधुमेह का जोखिम काफी बढ़ जाता है। दी लैंसेट डायबिटीज़ एंड एंडोक्रायनोलॉजी में प्रकाशित इस रिपोर्ट के अनुसार मधुमेह का जोखिम कोविड-19 से संक्रमित होने के कई महीनों बाद विकसित हो सकता है।

मिसौरी स्थित सेंट लुइस हेल्थकेयर सिस्टम के वेटरन्स अफेयर्स (वीए) के शोधकर्ता ज़ियाद अल-अली और उनके सहयोगी यान ज़ी ने 1,80,000 से अधिक ऐसे लोगों के मेडिकल रिकॉर्ड का अध्ययन किया जो कोविड-19 से पीड़ित होने के बाद कम से कम एक महीने से अधिक समय तक जीवित रहे थे। इसके बाद उन्होंने इन रिकॉर्ड्स की तुलना दो समूहों (तुलना समूहों) से की जिनमें प्रत्येक समूह में सार्स-कोव-2 से असंक्रमित लगभग 40-40 लाख लोग शामिल थे। ये वे लोग थे जिन्होंने या तो महामारी के पहले या फिर महामारी के दौरान बुज़ुर्ग स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का उपयोग किया था। इस नए विश्लेषण के अनुसार तुलना समूह के वृद्ध लोगों की तुलना में संक्रमित लोगों में एक वर्ष बाद तक मधुमेह विकसित होने की संभावना लगभग 40 प्रतिशत अधिक थी। लगभग सभी मामलों में टाइप-2 मधुमेह पाया गया जिसमें शरीर या तो इंसुलिन के प्रति संवेदी नहीं रहता या पर्याप्त इंसुलिन का उत्पादन नहीं कर पाता।

जिन लोगों में संक्रमण हल्का था और पूर्व में मधुमेह का कोई जोखिम नहीं था उनमें भी मधुमेह विकसित होने की संभावना बढ़ गई थी लेकिन रोग की बढ़ती गंभीरता के साथ मधुमेह विकसित होने की संभावना भी अधिक होती है। अस्पताल या आईसीयू में भर्ती लोगों में तो मधुमेह का जोखिम तीन गुना अधिक पाया गया। मोटापे और टाइप-2 मधुमेह के जोखिम वाले लोगों में संक्रमण के बाद मधुमेह विकसित होने का जोखिम दुगने से अधिक हो गया।

देखा जाए तो कोविड-19 से पीड़ित लोगों की बड़ी संख्या (विश्व में 48 करोड़) के चलते मधुमेह के जोखिम में मामूली-सी वृद्धि से भी मधुमेह से पीड़ित लोगों की संख्या में भारी वृद्धि हो सकती है।

वैसे ज़रूरी नहीं कि ये निष्कर्ष अन्य समूहों पर भी लागू हों। जैसे, युनिवर्सिटी ऑफ वोलोन्गोंग (ऑस्ट्रेलिया) के महामारी विज्ञानी गीडियोन मेयेरोविट्ज़-काट्ज़ के अनुसार इस अध्ययन में शामिल किए गए अमरीकियों में अधिकांश वृद्ध, श्वेत पुरुष थे जिनका रक्तचाप अधिक था और वज़न भी अधिक था जिसके कारण उनमें मधुमेह का खतरा भी अधिक था।

फिलहाल यह पक्का नहीं कहा जा सकता कि मधुमेह के बढ़े हुए जोखिम का कारण सार्स-कोव-2 संक्रमण ही है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार कोविड-19 से उबरने वाले लोगों में मधुमेह में वृद्धि के अन्य कारक भी हो सकते हैं। जैसे, संभव है कि जब तक लोगों ने कोविड-19 के लिए स्वास्थ्य सेवा की मांग न की हो तब तक उनमें मधुमेह की उपस्थिति का पता ही न चला हो।

गौरतलब है कि महामारी की शुरुआत में ही शोधकर्ताओं ने युवाओं और बच्चों की रिपोर्टों के आधार पर बताया था कि अन्य वायरसों की तरह सार्स-कोव-2 भी पैंक्रियाज़ की इंसुलिन का उत्पादन करने वाली कोशिकाओं को क्षति पहुंचा सकता है। जो टाइप-1 मधुमेह का कारण बनता है। अध्ययनों में ऐसे कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं जो यह साबित कर सके कि सार्स-कोव-2 युवाओं और बच्चों में टाइप-1 मधुमेह में वृद्धि का कारण बन रहा है। वैसे एक प्रयोगशाला अध्ययन ने सार्स-कोव-2 द्वारा इंसुलिन उत्पादन करने वाली पैंक्रियाज़ कोशिकाओं को नष्ट करने के विचार को भी चुनौती दी है।

एक सवाल यह है कि क्या कोविड-19 से ग्रसित लोगों में एक वर्ष के बाद भी चयापचय सम्बंधी परिवर्तन बने रहेंगे। विशेषज्ञों का मत है कि मधुमेह के शुरू होने के रुझानों का और अधिक अध्ययन ज़रूरी है ताकि यह समझा जा सके कि ऐसा किन कारणों से हो रहा है। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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