जीवन में रंग, प्रकृति के संग – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

प्राचीन यूनानी लोग पौधों के रंजक इंडिगो (नील) को इंडिकॉन नाम से बुलाते थे, जिसका मतलब होता है भारतीय। रोमन इसे ही इंडिकम कहते थे, जो बदलते-बदलते अंग्रेजी में इंडिगो हो गया। इस रंजक का अत्यधिक महत्व था –  शाही परिवार से लेकर सेना के कपड़ों को रंगने (जैसे नेवी ब्लू) तक में इसका उपयोग होता था। यह रंजक पौधों के ऊष्णकटिबंधीय जीनस इंडिगोफेरा से मिलता था, इस वंश के कुछ पौधे मूलत: भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाते थे।

इन पौधों की पत्तियों में 0.5 प्रतिशत तक इंडिकैन होता है जो ऑक्सीजन के संपर्क में आने पर नीला पदार्थ इंडिगोटिन बनाता है। इसकी बट्टियां (केक) भारत से व्यापार की प्रमुख वस्तु थी। मध्य पूर्व के समुद्र को पार करके अरब व्यापारी नील को रेगिस्तान के पार भूमध्यसागरीय क्षेत्र और युरोप में लेकर गए। यहां यह एक बेशकीमती वस्तु थी। इसका उपयोग रेशम की रंगाई में, चित्रों और भित्ति चित्रों में और सौंदर्य प्रसाधनों में किया जाता था।

युरोप से भारत के बीच समुद्री मार्ग बनने के बाद नील निर्यात में तेज़ी से वृद्धि हुई, क्योंकि यह आम लोगों के कपड़े (सूती कपड़े) को रंगने वाले चंद विश्वसनीय रंगों में से एक रंग था।

सुरंजी नाम का रंजक भारतीय शहतूत (मोरिंडा टिन्क्टोरिया, हिंदी में आल; तमिल में मंजनट्टी या मंजनुन्नई) से प्राप्त होता है। सुरंजी से सूती कपड़ों को चटख पीला-लाल रंग, या चॉकलेटी रंग, या यहां तक कि काला रंग दिया जाता है, यह इस पर निर्भर करता है कि ‘फिक्सिंग’ किस तरीके से किया जा रहा है।

मंजिष्ठा (रूबिया कॉर्डिफोलिया, हिंदी में मंजीठा; तमिल में मंडिट्टा) की जड़ें परप्यूरिन नामक एक लाल रंजक देती हैं। यह वर्ष 1869 में प्रयोगशाला में संश्लेषित पहला रंजक था – एलिज़रीन।

कुसुम (कार्थमस टिन्क्टोरियस, तमिल में कुसुम्बा) के बीजों का उपयोग तेल निकालने में किया जाता है और इसी वजह से वर्तमान में भारत इसका प्रमुख उत्पादक है। लेकिन अतीत में यह कार्थामाइन और कार्थामाइडिन का स्रोत हुआ करता था, जो सूती कपड़े को लाल रंग और रेशम को एक विशिष्ट नारंगी-लाल रंग प्रदान करते हैं।

रंगाई के लिए कृत्रिम एनिलीन रंजकों के उपयोग में आने के पहले इस पौधे के 160 टन से भी अधिक सूखे फूल प्रति वर्ष भारत से निर्यात किए जाते थे।

जींस का रंग

बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में, रसायन विज्ञान में त्वरित प्रगति ने नील के संश्लेषण के सस्ते तरीकों को जन्म दिया। अधिकांश उपयोगों में वनस्पति रंजक के स्थान पर कृत्रिम रंजक का इस्तेमाल किया जाने लगा। एक साधारण नीले जींस में 3-5 ग्राम कृत्रिम नील होती है। हर साल 40,000 टन से अधिक नील का उत्पादन होता है।

कृत्रिम रंजकों के उपयोग से पर्यावरण पर काफी प्रभाव पड़ता है, और वस्त्रों की रंगाई जल प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है। अधिकांश कृत्रिम रंग पेट्रो-रसायनों से बने होते हैं।

नील अपने आप में विषैला नहीं है, लेकिन यह पानी में अघुलनशील है और इसे घोलने और कपड़ों पर चढ़ाने के लिए अत्यधिक क्षारीय सोडियम या पोटेशियम हायड्रॉक्साइड घोल की ज़रूरत पड़ती है।

एक जीन पतलून को सिर्फ रंगने भर के लिए 100 लीटर से अधिक पानी लगता है, और लगभग 15 प्रतिशत रंजक और उसके साथ क्षार प्रदूषक के रूप में जल स्रोतों में चला जाता है। जागो, जींस पहनने वालों!

अलबत्ता, प्राकृतिक वनस्पति रंगों का उपयोग पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। नील की खेती जारी है। प्राकृतिक रंगों का पर्यावरण पर प्रभाव कृत्रिम रंजकों की तुलना में बहुत कम है। सामान्य रूप से उपलब्ध अन्य जड़ी-बूटियों, झाड़ियों और पेड़ों से मिलने वाले प्राकृतिक रंगों के उपयोग के लिए बेहतर-से-बेहतर तकनीकों और तरीकों की खोज जारी है।

इस संदर्भ में डॉ. पद्मा श्री वंकर (पूर्व में आईआईटी कानपुर में कार्यरत), उनके साथियों और अन्य भारतीय समूहों का काम उल्लेखनीय है। उन्होंने मिलकर कई पौधों से रंग प्राप्त करने और उनसे रंगाई के तरीकों का पता लगाया है और कभी-कभी सफलतापूर्वक पुन: निर्मित भी किया है।

ये पौधे हैं: (1) नेपाल बारबेरी (महोनिया नैपालेंसिस, हिंदी में दारुहल्दी; तमिल में मुल्लुमंजनती): अरुणाचल प्रदेश की अपतानी जनजाति ने लंबे समय तक इस पौधे का उपयोग अपनी बुनी हुई चीज़ों को रंगने के लिए किया है। (2) वाइल्ड कैना (कैना इंडिका, हिंदी में सर्वजया; तमिल में कलवाझाई): इस सजावटी पौधे के फूल सुर्ख लाल होते हैं, इससे अल्कोहल-घुलनशील डाई बनती है जो सूती कपड़े पर आसानी से और तेज़ी से चढ़ती है। (3) पलाश (ब्यूटिया मोनोस्पर्मा): पलाश मूलत: हमारे उपमहाद्वीप का पौधा है। इसमें आकर्षक फूल लगते हैं, जिनसे पारंपरिक तौर पर होली के लिए रंग बनाया जाता है। धूप में सुखाई गई पंखुड़ियां रंगों से भरपूर होती हैं, जिन्हें पानी में डालकर रंग प्राप्त किया जा सकता है।

पर्यावरण लागत

इन प्रयासों के साथ-साथ बायोटेक्नोलॉजिस्ट रासायनिक तरीकों की पर्यावरणीय कीमत को बायपास करना चाहते हैं। एक बैक्टीरिया को जेनेटिक रूप से परिवर्तित करके इंडिकैन (नील का पूर्ववर्ती) बनाने के लिए तैयार करके इस अवधारणा को परखा गया है।

वर्ष 2018 में नेचर केमिकल बायोलॉजी में टेमी एम ह्सू और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित पेपर बताता है कि गीले डेनिम की सतह पर इंडिकैन को एंज़ाइम रंजक में बदल देते हैं जिसके चलते कई ज़हरीले अपशिष्ट समाप्त हो जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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