त्रासदी के 40 साल बाद भी भारत में ढीले कानून – विवेक मिश्रा

भोपाल गैस त्रासदी (Bhopal Gas Tragedy) के चालीस साल हो गए हैं, और इन चालीस सालों में भारत दुनिया का छठवां सबसे बड़ा रसायन उत्पादक देश बन गया है। तेज़ी से बढ़ते रसायन उद्योग के साथ भारत में रासायनिक दुर्घटनाएं (chemical accidents) भी बढ़ रही हैं। सवाल है कि ऐसा क्यों है?

कोविड-19 महामारी (2020-2023) के दौरान भारत में 29 रासायनिक दुर्घटनाएं हुईं। इन दुर्घटनाओं में 118 मौतें हुईं और लगभग 257 लोग घायल हुए। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने इन दुर्घटनाओं का कारण प्लांट की खराबी, रासायनिक रिसाव (chemical leakage), विस्फोट (explosion) और फैक्ट्री में आग लगना पाया है।

वैज्ञानिकों के एक समूह साइंटिस्ट फॉर पीपल (scientist for people) ने 2021 में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भोपाल गैस त्रासदी के 40 साल बाद भी रासायनिक प्रक्रियाओं के लिए सुरक्षा सम्बंधी नियम-कायदों में कोई सुधार नहीं हुआ है।

भारत का फलता-फूलता औद्योगिक क्षेत्र लगातार ट्रेड सीक्रेट संरक्षण कानून (Trade secret protection law) की मांग कर रहा है। ऐसे कानून कंपनियों को बौद्धिक संपदा की आड़ में महत्वपूर्ण जानकारी गोपनीय रखने की अनुमति देते हैं। एक ओर जहां ट्रेड सीक्रेट को गोपनीय रखना किसी कंपनी को प्रतिस्पर्धात्मक फायदा दे सकता है, वहीं दूसरी ओर, पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य सम्बंधी जोखिम पैदा करने वाली कंपनियां अक्सर इस गोपनीयता का दुरुपयोग करती हैं। ट्रेड सीक्रेट संरक्षण कानून की अनुपस्थिति में, कंपनियां फिलहाल व्यावसायिक प्रक्रियाओं की जानकारी उजागर होने से रोकने के लिए गैर-प्रकटीकरण (नॉन-डिसक्लोज़र) समझौतों पर निर्भर हैं।

पश्चिम बंगाल नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरिडिकल साइंसेज़ (west Bengal national university of juridical sciences) के प्रोफेसर अनिरबन मजूमदार कहते हैं, “कंपनियां खुद को बचाने के लिए गैर-प्रकटीकरण समझौतों का उपयोग करती हैं, और भारत में ट्रेड सीक्रेट को लेकर कोई विशिष्ट कानून नहीं है। सूचना का अधिकार अधिनियम(RTI), 2005  की धारा 8(i) के तहत सार्वजनिक हित के उद्देश्य से बौद्धिक संपदा और ट्रेड सीक्रेट से सम्बंधित जानकारी मांगने की अनुमति देता है, लेकिन यह अधिनियम निजी कंपनियों पर लागू नहीं होता है।“

मजूमदार एक उदाहरण के तौर पर भोपाल गैस त्रासदी का हवाला देते हैं। “डॉऊ केमिकल्स(Dow Chemicals), जिसने 2001 में यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन (Union Carbide Corporation) का अधिग्रहण किया था, ने रिसी हुई गैस के रासायनिक संघटन (chemical composition) का खुलासा करने से इन्कार कर दिया था। यदि संघटन उजागर कर दिया जाता तो उसके आधार पर पीड़ितों का प्रभावी ढंग से इलाज किया जा सकता था। यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन 1950 के दशक से ही ट्रेड सीक्रेट संरक्षण का उपयोग कर रहा है।

मिक का उपयोग जारी है 

यहां भोपाल गैस त्रासदी एक प्रासंगिक उदाहरण होगा क्योंकि भारत में मिथाइल आइसोसाइनेट (mic) का उपयोग अब तक जारी है। मिक को खतरनाक रसायनों के निर्माण, भंडारण और आयात नियम, 1989 (अनुसूची 1) के तहत एक खतरनाक रसायन के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

डाउन टू अर्थ द्वारा सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत मिक के उपयोग की मात्रा और स्थानों के बारे में सवाल के जवाब में रसायन और पेट्रोकेमिकल्स विभाग ने जानकारी नहीं दी। मजूमदार बताते हैं कि कुछ रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि डाऊ केमिकल्स सिंगापुर स्थित कंपनी मेगा वीसा के माध्यम से भारत में यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन के उत्पादों का व्यापार जारी रखे हुए है।

टॉक्सिक्स वॉच अलाएंस के गोपाल कृष्ण ने उजागर किया है कि कई खतरनाक रसायनों (hazardeous chemicals) को अभी भी ‘खतरनाक’ के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है या ‘दर्ज’ करने योग्य ही नहीं माना गया है। उनका आरोप है कि भोपाल में यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन के अनुसंधान और विकास केंद्र ने अमेरिका में युद्ध हथियार निर्माण के लिए प्रतिबंधित गैसों और रसायनों के साथ प्रयोग किए हैं। त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार गैस की सटीक पहचान आज भी अज्ञात है।

यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन का भोपाल संयंत्र कीटनाशक कार्बेरिल (sevin) के निर्माण के लिए मिक का उपयोग एक मध्यवर्ती के रूप में करता था। इसे त्रासदी के लगभग तीन दशक बाद 8 अगस्त, 2018 को भारत में प्रतिबंधित किया गया। प्रतिबंध लगाने में इस देरी का कारण बताया नहीं गया है।

हमारा भोजन

इस बीच, कई खतरनाक कृषि रसायन नियमन/नियंत्रण से बाहर बने हुए हैं। जैसे संश्लेषित कीटनाशक डीडीटी (DDT) (डाइफिनाइलट्राइक्लोरोइथेन), जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए खतरनाक है। वैश्विक स्तर पर चरणबद्ध तरीके से इसे समाप्त किए जाने के निर्णय के बावजूद भारत में, एचआईएल लिमिटेड (HIL Limited) के माध्यम से अफ्रीकी देशों को निर्यात के लिए इसका उत्पादन जारी है। 17वीं लोकसभा की रसायन और उर्वरक स्थायी समिति (2023-24) के अनुसार, सरकार ने डीडीटी को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की बात को दिसंबर 2024 तक के लिए टाल दिया है।

2022 में, पेस्टिसाइड्स एक्शन नेटवर्क इंडिया (PAN India) ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी: भारत में क्लोरपाइरीफॉस, फिप्रोनिल, एट्राज़ीन और पैराक्वाट डाइक्लोराइड की स्थिति। रिपोर्ट में मानव स्वास्थ्य, पर्यावरण और अन्य जीवों पर गंभीर जोखिमों के कारण अत्यधिक विषैले कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाने की तत्काल आवश्यकता बताई गई है।

केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने अपनी 1989 की अधिसूचना के माध्यम से, खतरनाक रसायन (प्रबंधन और हैंडलिंग) नियमों की अनुसूची 1 के तहत 684 खतरनाक रसायनों को सूचीबद्ध किया है। अलबत्ता, इस सूची से कई खतरनाक रसायन नदारद हैं। गोपाल कृष्ण के अनुसार, यह एक अत्यंत सीमित सूची है। भारत में अब तक एस्बेस्टस जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंधित रसायनों का उपयोग हो रहा है।

भारत में अनियंत्रित या अल्प-नियंत्रित संश्लेषित रसायनों का एक और उदाहरण है: पर-एंड-पॉलीफ्लोरोएल्काइल पदार्थ (PFAS), जिन्हें ‘शाश्वत रसायन’ भी कहा जाता है। नॉन-स्टिक बर्तन, खाद्य पैकेजिंग और जल-रोधी उत्पादों में खूब उपयोग किए जाने वाले PFAS पर्यावरण में बने रहने और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव के लिए जाने जाते हैं। युरोपीय रसायन एजेंसी ने युरोप में इन्हें नियंत्रित करने के लिए कदम उठाए हैं, लेकिन इस संदर्भ में भारत में कोई प्रगति नहीं हुई है।

अक्टूबर 2024 में डाउन टू अर्थ ने एक बार फिर सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत मिक और अन्य खतरनाक रसायनों पर जानकारी तलब की थी। रसायन विभाग का जवाब था, “सूचना अधिकारी के पास ऐसी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।” यदि ट्रेड सीक्रेट संरक्षण विधेयक, 2024 पारित हो जाता है तो कंपनियों को, राष्ट्रीय आपात स्थिति या सार्वजनिक हित के मामलों को छोड़कर, महत्वपूर्ण जानकारी रोकने की और अधिक शक्ति मिल जाएगी।

भारत में रसायन उद्योग का विस्तार जारी है। केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय का अनुमान है कि 2040 तक यह 1 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा। रासायनिक प्रबंधन और सुरक्षा नियमों का मसौदा अधूरा है: भारत में अमेरिका या युरोपीय संघ के जैसे व्यापक नियमों का अभाव है। इसके अलावा, भारत में न तो कोई रासायनिक सूची है या न ही रासायनिक पंजीकरण अनिवार्य है।

पब्लिक पॉलिसी और PAN India से जुड़े नरसिम्हा रेड्डी दोंती का कहना है, “हमारे पास शस्त्र कानून जैसे मज़बूत कानून का अभाव है। बंदूक रखने पर सात वर्ष के कठोर कारावास की सज़ा हो सकती है, लेकिन खतरनाक रसायनों से भरा डिब्बा खरीदने पर अक्सर कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ता। हमें क्रियान्वयन के लिए सख्त कानून, नियम और संस्थागत तंत्र की आवश्यकता है।”

टॉक्सिक्स लिंक के पीयूष महापात्रा बताते हैं कि मौजूदा नीतियां औद्योगिक हितों को प्राथमिकता देती हैं और रासायनिक प्रबंधन और खतरे के वर्गीकरण को नज़रअंदाज़ करती हैं। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और समझौतों में शामिल होने के बावजूद नीतियों का कार्यान्वयन बदतर बना हुआ है।

लगभग पांच साल पहले 2019 में, डाउन टू अर्थ ने ई-मेल के माध्यम से बातचीत के एक लंबी शृंखला में देश में मिक के उत्पादन और उपयोग पर सरकार से जानकारी मांगी थी। उत्तर मिला: “रसायन विभाग के संयुक्त सचिव मिक जैसी विषाक्त गैस की अधिसूचना पर काम कर रहे हैं। उनके संपर्क में रहें।” अब तक मंत्रालय की ओर से ऐसी कोई अधिसूचना नहीं आई है। रसायन (प्रबंधन और सुरक्षा) नियमों का मसौदा तैयार है, लेकिन अभी तक इसे अंतिम रूप नहीं दिया गया है।

हालांकि भारत में रासायनिक उद्योग के विभिन्न पहलुओं को नियंत्रित करने वाले 15 कानून और 19 नियम हैं, लेकिन उनमें से कोई भी विशेष रूप से रसायनों के उपयोग, उत्पादन और सुरक्षा को पूरे उद्योग के स्तर पर संबोधित नहीं करता। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व वैज्ञानिक डीडी बसु ने ज़ोर देकर कहा है, “हमें रासायनिक उपयोग, उत्पादन और सुरक्षा को विनियमित करने के लिए व्यापक कानून की आवश्यकता है।”

अन्य देश हानिकारक रसायनों पर नियंत्रण और प्रतिबंध लगाने के प्रयासों को गति दे रहे हैं, लेकिन भारत इसमें अभी भी पिछड़ा है। दोंती का निष्कर्ष है, “भारत को एक मज़बूत नियामक ढांचे की आवश्यकता है जो न केवल ट्रेड सीक्रेट को संबोधित करता हो बल्कि आपूर्ति शृंखलाओं में पारदर्शिता भी सुनिश्चित करता हो। उद्योगों ने ऐसी प्रणालियां बनाई हैं जो उन्हें जांच से बचाती हैं जबकि जनता को नुकसान पहुंचाती हैं।” (स्रोत फीचर्स)

यह लेख मूलत: डाउन टू अर्थ में अंग्रेज़ी में Bhopal Gas Tragedy at 40: Harmful chemicals, including methyl isocyanate, are still used in India due to lax laws; can this change?  शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वर्ष 2024 अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान जगत – चक्रेश जैन

साल 2024 में कृत्रिम बुद्धि (artificial intelligence) यानी एआई के उपयोग का दायरा बढ़ता रहा – मौलिक कविता लेखन से लेकर चुनाव में मतदाताओं को लुभाने तक इसका इस्तेमाल हुआ। कहना मुश्किल है कि यह विस्तार कहां पहुंच कर थमेगा।

यह वही वर्ष है, जब जनरेटिव एआई से सृजित लार्ज लैंग्वैज मॉडल द्वारा शोध पत्रों की समकक्ष समीक्षा (peer review) ने नए सवालों को जन्म दिया। 2024 के भौतिकी और रसायन विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों (nobel prize) ने एआई आधारित अनुसंधान कार्य को मुहर अचंभित कर दिया।

इस वर्ष पेरिस में आयोजित ओलंपिक खेलों (Olympic games) में एआई का जलवा दिखा। खिलाड़ियों के प्रशिक्षण से लेकर कार्यक्रमों के प्रसारण में एआई शामिल रहा। वर्जीनिया युनिवर्सिटी के गणितज्ञ केन ओनो ने गणितीय मॉडलिंग के ज़रिए अमेरिकी तैराकों को इस लायक बनाया कि वे शानदार प्रदर्शन करते हुए पदक बटोरने में कामयाब रहे।

वर्ष 2024 में जापान ने अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में दो ऐतिहासिक सफलताएं हासिल कीं। 20 जनवरी को वह चंद्रमा पर सफलतापूर्वक सॉफ्ट लैंडिंग करने वाला दुनिया का पांचवा देश बन गया। 5 नवंबर को लकड़ी से बना उपग्रह अंतरिक्ष में भेज कर इतिहास रचा। ऐसा कर जापान ने इको फ्रेंडली उपग्रहों का मार्ग प्रशस्त किया है। इस उपग्रह को ‘लिगनोसैट’ नाम दिया गया है।

इसी वर्ष साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित एक अध्ययन में यह खुलासा किया गया कि मंगल ग्रह (mars) पर अरबों साल पहले पानी मौजूद था। सच तो यह है कि काफी समय से यह माना जाता रहा है कि मंगल ग्रह के आरंभिक इतिहास में पानी की अहम भूमिका रही है।

साल की शुरुआत में ही नासा(NASA) ने आर्टिमिस चंद्र मिशन कार्यक्रम एक वर्ष के लिए स्थगित कर दिया। इस मिशन का उद्देश्य अंतरिक्ष यात्रियों को चंद्रमा पर पुन: उतारना है।

वर्ष 2024 में अंतरिक्ष में पहली बार एक निजी कंपनी ने अपने शक्तिशाली रॉकेट से एक केला भेजा, इसका उद्देश्य अंतरिक्ष में शून्य गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव का अध्ययन करना है।

इसी वर्ष चीन का अंतरिक्ष यान चांग-ए-6 (chang’e-A-6) यान 53 दिनों की यात्रा पूरी कर चंद्रमा के सुदूर क्षेत्र से मिट्टी और चट्टानों के नमूने एकत्रित करके पृथ्वी पर लौट आया है। चीन को इस दिशा में पहली बार बड़ी सफलता मिली है। अमेरिका और सोवियत संघ पहले ही चंद्रमा के निकटस्थ भाग से नमूने ला चुके हैं।

विदा हो चुके वर्ष 2024 में पहली बार प्रतिपदार्थ (anti matter)को प्रयोगशाला से बाहर ले जाने का प्रयास किया गया। इस असाधारण उपलब्धि के लिए सर्न (CERN) प्रयोगशाला के अनुसंधानकर्ताओं की दो टीमों में होड़ जारी रही। हर पदार्थ-कण का एक प्रतिपदार्थ होता है। भौतिकशास्त्र के अध्येताओं का मानना है कि बिग बैंग के दौरान प्रतिपदार्थ और पदार्थ समान मात्रा में बने थे। प्रतिपदार्थ को पृथ्वी पर सबसे महंगा पदार्थ माना जाता है। एक ग्राम प्रतिपदार्थ बनाने की लागत खरबों डॉलर आएगी।

इसी वर्ष अनुसंधानकर्ताओं ने एक फोटॉन से दुनिया का सबसे छोटा क्वांटम कंप्यूटर (quantum computer) बनाने में सफलता हासिल की। क्वांटम कंप्यूटर क्वांटम यांत्रिकी सिद्धांत पर आधारित होते हैं।

साल 2024 में पहली बार मनुष्य में जेनेटिक रूप से संशोधित सुअर के गुर्दे का सफलतापूर्वक प्रत्यारोपण (pig kidney transplant) किया गया। अंग प्रत्यारोपण के क्षेत्र में इसे बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है।

वर्ष 2024 में जीवविज्ञान की सबसे महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी परियोजना मानव कोशिका एटलस (ATLAS) का पहला मसौदा जारी किया गया। इस परियोजना का उद्देश्य मनुष्य की प्रत्येक कोशिका का जेनेटिक मानचित्र तैयार करना है। फिलहाल इसमें 620 लाख मानव कोशिकाओं का डैटा है। इस अनुसंधान से आगे चलकर गंभीर बीमारियों के बारे में सटीक जानकारियां उपलब्ध हो सकेंगी। ‘विकिपीडिया फॉर सेल्स’ नाम की इस परियोजना की शुरुआत 2016 में हुई थी। दस वर्षीय परियोजना पूरी होने की दहलीज पर है। इसमें 102 देशों ने सहभागिता की है।

नेचर के अनुसार पहली बार माइटोकॉन्ड्रिया के दो प्रकारों का पता चला। माइटोकॉन्ड्रिया को कोशिका का ऊर्जा भण्डार कहा जाता है। वहीं अनुसंधानकर्ताओं ने टमाटर में से दो जीन हटाकर मीठे टमाटर (sweet tomato) का सृजन किया, जिसका उपयोग मधुमेह रोग से लड़ने में हो सकता है।

नेचर पत्रिका के अनुसार पहली बार एक महिला वैज्ञानिक ने प्रयोगशाला में वायरस का सृजन कर अपने कैंसर का इलाज किया। यह अपने ढंग का अनूठा और चुनौतीपूर्ण प्रयोग था।

इसी साल जनवरी में कंपनी न्यूरालिंक (neuralink) ने पहली बार किसी मनुष्य में इलेक्ट्रॉनिक चिप प्रत्यारोपित (electronic chip transplant) किया। यह पहला मानव परीक्षण था।

पुरस्कार (awards)  समारोह

साल 2024 के विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों के लिए सात वैज्ञानिकों का चयन किया गया। चिकित्सा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार के लिए विक्टर एम्ब्रोस और गैरी रूवकुन को संयुक्त रूप से चुना गया। दोनों वैज्ञानिकों को यह सम्मान माइक्रो आरएनए (mRNA) पर अनुसंधान के लिए दिया गया है।

भौतिकशास्त्र में नोबेल सम्मान जेफ्री हिंटन और जॉन हॉपफील्ड को मशीन लर्निंग को सक्षम बनाने के लिए मिला है। वस्तुत: दोनों अनुसंधानकर्ताओं ने आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क (neural network) को प्रशिक्षित किया है ताकि वह मनुष्यों की भांति सोच सके और सीख सके।

इस साल का रसायन विज्ञान का नोबेल सम्मान डेविड बेकर, डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया है। जहां डेविड बेकर ने कंप्यूटेशनल प्रोटीन (computational protein) डिज़ाइन पर अनुसंधान किया है, वहीं डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर ने प्रोटीन संरचना की भविष्यवाणी को लेकर शोधकार्य किया है।

ब्रिटिश भौतिकीविद सर रिचर्ड हेनरी फ्रेंड को अर्द्ध चालक पदार्थों के क्षेत्र में शोध के लिए इंस्टीट्यूट ऑफ फिज़िक्स द्वारा आइज़ैक न्यूटन मेडल (Isaac newton medal) से पुरस्कृत किया गया।

साल 2024 का बुनियादी चिकित्सा अल्बर्ट लास्कर पुरस्कार चीनी-अमेरिकी जैव रसायनविद ज़िजियान जेम्स चेन को दिया गया है। इस वर्ष का लास्कर (lasker award) ब्लूमबर्ग लोकसेवा पुरस्कार कुरैशा अब्दुल करीम और सलीम अब्दुल करीम को संयुक्त रूप से दिया गया है। दोनों ही अध्येता कोलंबिया युनिवर्सिटी में रोग प्रसार विज्ञान के विशेषज्ञ हैं।

साल 2024 का एबेल पुरस्कार (Abel prize) फ्रांसीसी गणितज्ञ मिशेल पियरे टैलाग्रेंड (Michel Talagrand) को दिया गया है। उन्हें यह सम्मान गणितीय भौतिकी और सांख्यिकी में संभाव्यता सिद्धांत व कार्यात्मक विश्लेषण में विशेष योगदान के लिए मिला है।

अजरबैजान की राजधानी बाकू में 29वां संयुक्त राष्ट्र वार्षिक शिखर सम्मेलन (COP-29) हुआ। इसमें जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी विभिन्न मुद्दों पर चर्चा हुई। सबसे ज़्यादा ज़ोर जलवायु वित्त पोषण पर रहा। सम्मेलन को दी फाइनेंस कॉप नाम दिया गया है। सम्मेलन में विकसित और विकासशील देशों के बीच गहरे मतभेदों के कारण प्रमुख मुद्दों पर प्रगति अवरुद्ध रही।

वर्ष 2024 ‘इंटरनेशनल ईयर ऑफ कैमेलिड्स’ (international year of camelids) के रूप में मनाया गया। संयुक्त राष्ट्र के आव्हान पर अंतर्राष्ट्रीय ऊंट वर्ष मनाने का मुख्य उद्देश्य पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा, जैव विविधता संरक्षण, खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में ऊंट की अहम भूमिका उजागर करना था।

इस वर्ष अमेरिकन केमिकल सोसायटी द्वारा प्रकाशित पत्रिका केमिकल रिव्यूज़ के सौ साल पूरे हुए। यह रसायन विज्ञान का शीर्षस्थ जर्नल है, जिसका प्रकाशन 1924 में शुरू हुआ था।

इसी साल 25 नवंबर को दक्षिण कोरिया के बुसान में आयोजित संयुक्त राष्ट्र वैश्विक प्लास्टिक संधि (plastic treaty) पर आयोजित वार्ता में दुनिया भर के देशों के प्रतिनिधि जुटे। इस बार कुछ प्रस्तावों पर सहमति दिखाई दी, लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दे नहीं सुलझे और वार्ता बिखर गई।

इसी साल मेक्सिको में चुनाव संपन्न हुए, जिसमें देशवासियों ने पहली बार महिला वैज्ञानिक (women scientist) क्लॉडिया शीनबॉम को राष्ट्रपति चुना। उन्होंने वैज्ञानिक से राष्ट्रपति पद तक पहुंचने के सफर में कई चुनौतियों का सामना किया है।

स्मृतिशेष

साल 2024 में हमने कई नोबेल पुरस्कार विजेताओं को खो दिया। 8 अप्रैल को ब्रिटिश भौतिकशास्त्री और तथाकथित गॉड पार्टिकल (God Particle) के खोजकर्ता पीटर हिग्ज़ (Peter Higgs) का निधन हो गया। उन्हें 2013 में भौतिकशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

अतिचालकता (superconductivity) सिद्धांत के अनुसंधानकर्ता लियान कूपर (leon cooper) का 23 अक्टूबर को 94 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें इस क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए 1972 में नोबेल सम्मान (Nobel Prize) मिला था।

इसी वर्ष 4 अगस्त को विख्यात भौतिकीविद(physicist) प्रोफेसर त्संग दाओ ली (Tsung Dao Lee) का 97 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें 1957 में भौतिकी का नोबेल सम्मान मिला था। वे सबसे कम उम्र में नोबेल पुरस्कार के लिए चुने गए दूसरे वैज्ञानिक थे। उन्होंने कण भौतिकी में विशेष योगदान दिया था।

स्वीडिश जैव रसायनज्ञ बेंग्ट सैमुएलसन (Bengt samuelsson) की 5 जुलाई और जे. रॉबिन वारेन की 23 जुलाई को मृत्यु हो गई। दोनों वैज्ञानिकों को चिकित्सा विज्ञान के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया था। 17 अक्टूबर को चिकित्सा विज्ञान में नोबेल विजेता एंड्रयू वी. स्काली (Andrew v. schally) का देहांत हो गया। उन्होंने दो दशकों तक मस्तिष्क में मौजूद हारमोन की भूमिका पर अनुसंधान किया था। उन्हें इस शोधकार्य के लिए 1975 में अल्बर्ट लास्कर पुरस्कार और 1977 में चिकित्सा विज्ञान का नोबेल सम्मान प्रदान किया गया था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हिमालय की हिमनद झीलों से बाढ़ का खतरा

जलवायु परिवर्तन (climate change) के कारण हिमालय (Himalayas) की ऊंचाइयों में हिमनद झीलें (glacial lakes) तेज़ी से फैल रही हैं, जिससे नीचे के इलाकों में विनाशकारी बाढ़ (catastrophic floods) का खतरा बढ़ रहा है। एक हालिया अध्ययन में पाया गया है कि 2011 के बाद से भारत, चीन, नेपाल और भूटान (India, China, Nepal, Bhutan) में निरीक्षण की गई 902 हिमनद झीलों (lake expansion)  में से आधी से अधिक का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है। बर्फ और हिमनदों के पिघलने से निर्मित इन झीलों का क्षेत्रफल अब तक 11 प्रतिशत तक बढ़ा है, जबकि कुछ झीलें तो 40 प्रतिशत से अधिक फैल गई हैं। 

यह चिंताजनक स्थिति वैश्विक तापमान (global warming) वृद्धि से जुड़ी है, जो हिमनदों के पिघलने की गति को तेज़ कर रही है। इन झीलों को अक्सर बर्फ और गिट्टियों जैसी नाज़ुक प्राकृतिक बाधाएं रोके रखती हैं, जो अचानक टूट सकती हैं और खतरनाक बाढ़ ला सकती हैं। इन्हें ‘आउटबर्स्ट फ्लड्स’ (outburst floods) कहा जाता है। बीते दशक में हिमालयी क्षेत्र में ऐसी घटनाओं ने भारी विनाश और जान-माल का नुकसान किया है। इन बाढ़ों की अप्रत्याशित प्रकृति के चलते हिमनद झीलों, खासकर छोटी लेकिन खतरनाक झीलों, की सख्त निगरानी (strict monitoring) निहायत आवश्यक है।

उपग्रह (satellite) और हवाई सर्वेक्षण (aerial surveys) इन परिवर्तनों को ट्रैक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसरो (ISRO) ने एक अन्य अध्ययन में पाया है कि 1984 से 2016 के बीच अध्ययन की गई 2400 से अधिक झीलों में से लगभग 28 प्रतिशत झीलों के आकार में वृद्धि हुई है।

भारत सरकार (indian government) ने हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश (Himachal Pradesh, Uttarakhand, Sikkim, Arunachal Pradesh) में इन जोखिमों से निपटने के लिए 150 करोड़ रुपए की योजना शुरू की है। इसके तहत, झीलों की संवेदनशीलता (lake vulnerability) का आकलन और सुरक्षा उपाय (safety measures) लागू करने के प्रयास किए जा रहे हैं। इनमें निगरानी प्रणाली स्थापित करना और जल धारा का मार्ग बदलने के लिए चैनल (water channeling) बनाना शामिल है। इसके आलावा सिक्किम में शोधकर्ताओं ने सर्वाधिक जोखिम वाली झीलों (high risk lakes) के लिए प्राथमिकता के आधार पर रोकथाम रणनीतियां (prevention strategies) तैयार की हैं।

आपदा प्रबंधन अधिकारी (disaster management officials) इन झीलों के नीचे स्थित बांधों (dams) की तैयारियों का आकलन कर रहे हैं। 47 चिंहित बांधों में से 31 की रिपोर्ट में यह जांच की जा रही है कि उनके स्पिलवे संभावित बाढ़ का सामना कर सकते हैं या नहीं। पूर्वी हिमालय पर किए गए हालिया अध्ययन में बताया गया है कि ऐसी बाढ़ों से 10,000 से अधिक लोग, 2000 बस्तियां, पांच पुल और दो पनबिजली संयंत्र खतरे में पड़ सकते हैं। 

भौगोलिक स्थिति (geographical factors) और अंतर्राष्ट्रीय सरहदों (international borders) के लिहाज़ से इन झीलों के जलग्रहण क्षेत्र कई देशों में फैले हुए हैं। इसके लिए विशेषज्ञ हिमालयी देशों के बीच सीमापार सहयोग (joint efforts) की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। इस नाज़ुक क्षेत्र में जीवन, बुनियादी ढांचे और पारिस्थितिक तंत्र पर बढ़ते खतरों से निपटने के लिए संयुक्त प्रयासों और सतत सतर्कता की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वैश्विक खाद्य व्यापार: लाभ या समस्याओं की थाली?

परस्पर जुड़ी इस दुनिया में अक्सर हमारे भोजन को थाली तक पहुंचने के लिए लंबी दूरी तय करना पड़ती है। उदाहरण के लिए, एक आम अमेरिकी (American Breakfast) नाश्ते पर गौर करें: आयरलैंड की जौं के दलिया को मीठा करने के लिए ब्राज़ील की चीनी (Brazilian sugar) डाली जाती है और इसके ऊपर डाला जाता है कोस्टा रिका (costa rican banana) का केला। सिर्फ इतना ही नहीं साथ में इथोपिया, कोलंबिया, सुमात्रा और होंडुरास के मिश्रित बीजों से बनी कॉफी (Global coffee trade )होती है। यह मिश्रण दर्शाता है कि भोजन का वैश्विक कारोबर (Global food trade) हमारे जीवन का कितना अहम हिस्सा बन गया है, जिसने न सिर्फ हमारे खानपान बल्कि अर्थव्यवस्थाओं (Economy impact of food trade) को भी बदल दिया है। लेकिन यह व्यापार जितना लाभदायक दिखता है, उतने ही बड़े खतरे और चुनौतियां भी लेकर आता है।

बढ़ता जाल

पिछले कुछ दशकों में, खाद्यान्न दुनिया की सबसे अधिक व्यापार की जाने वाली वस्तुओं (most traded commodities) में से एक बन गया है। भले ही लोगों को ‘स्थानीय भोजन’ (local food) खाने के लिए प्रेरित करने वाले अभियान चलाए जा रहे हों, लेकिन हमारा खानपान धीरे-धीरे अंतर्राष्ट्रीय होता जा रहा है। दुनिया की लगभग 80 प्रतिशत आबादी ऐसे देशों में रहती है जो खाद्य पदार्थों का निर्यात कम, आयात (Food import and export) अधिक करते हैं। एक अनुमान है कि 2050 तक, विश्व की आधी आबादी ऐसे खाद्य पदार्थों पर निर्भर होगी जो हज़ारों किलोमीटर दूर उगाए जाते हैं।

मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका (Middle East and North Africa) जैसे शुष्क जलवायु वाले देश आयात पर सबसे ज़्यादा निर्भर हैं। सऊदी अरब अपना 90 प्रतिशत खाद्य आयात करता है। हैरत की बात यह है कि कृषि समृद्ध देश भी कुछ विशेष खाद्य पदार्थों के बड़े आयातक हैं। ब्रेक्ज़िट (यानी ब्रिटेन द्वारा युरोपीय संघ छोड़ने) से पहले, यूके (UK food dependency) अपने विटामिन सी की लगभग आधी ज़रूरत को पूरा करने के लिए आयातित केले (Imported bananas) पर निर्भर था। स्पष्ट है कि वैश्विक व्यापार किस तरह खाद्य सुरक्षा वाले क्षेत्रों में भी आहार विविधता बनाए रखने में मदद करता है।

अंतर्राष्ट्रीय खाद्य व्यापार में इस तेज़ी का कारण है 1995 में विश्व व्यापार संगठन (WTO) की स्थापना। संगठन ने शुल्क और मूल्य नियंत्रण जैसी बाधाओं को हटाकर आयात-निर्यात आसान बना दिया। 2001 में संगठन में चीन (China food import) के प्रवेश ने इस व्यापार को और बढ़ाया, और चीन काफी तेज़ी से खाद्य पदार्थों (खासकर सोयाबीन) का सबसे बड़ा आयातक बन गया। आज, चीन दुनिया की करीब 70 प्रतिशत सोयाबीन आयात करता हैै।

वैश्विक खानपान के लाभ

एक मायने में वैश्विक खाद्य व्यापार (global food trade benefits) काफी लाभदायक रहा है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे उन देशों को खाद्य सुरक्षा (food security in dry regions) मिली, जहां सूखा, बाढ़ या प्रतिकूल जलवायु के कारण घरेलू उत्पादन में समस्या रहती है। भोजन आयात (food import benefits) करने से ये देश अकाल और अभाव जैसी स्थितियों से बच सकते हैं और अपने नागरिकों के लिए स्थिर आपूर्ति बनाए रख सकते हैं।

इसके अलावा, उत्पादक देशों (producing nations) को भी आर्थिक रूप से लाभ होता है। भोजन का निर्यात रोज़गार पैदा करता है, अर्थव्यवस्थाओं को मज़बूत करता है, और किसानों और मज़दूरों के लिए आय का एक स्थिर स्रोत बनाता है। उदाहरण के लिए, ब्राज़ील और भारत क्रमशः सोयाबीन (soyabean) और मसालों (spices) के वैश्विक उत्पादक बन गए हैं, जिससे लाखों लोगों को आजीविका मिलती है।

वैश्विक व्यापार (international trade) से आहार में विविधता भी बढ़ती है। अलग-अलग देशों से मिलने वाले फलों (fruits), सब्ज़ियों(vegetables), अनाज और मसालों से भोजन की पौष्टिकता बढ़ती है और भोजन स्वादिष्ट तथा आनंददायक(flavourful) बनता है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार यह भी सुनिश्चित करता है कि मौसमी उत्पाद साल भर उपलब्ध रहें।

अदृश्य लागतें

वैश्विक खाद्य व्यापार के लाभ तो स्पष्ट हैं, लेकिन इसके साथ कुछ गंभीर समस्याएं (global food trade challenges) भी जुड़ी हुई हैं। पर्यावरण सम्बंधी चिंताएं (environmental concerns) सबसे प्रमुख हैं। निर्यात की मांग को पूरा करने के लिए, उत्पादक देश अक्सर प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन करते हैं। उदाहरण के लिए, ब्राज़ील ने सोयाबीन उगाने और पशुपालन के लिए अमेज़ॉन वर्षावन (amazon rainforest) के बड़े हिस्सों को साफ कर दिया है, जिससे जैव विविधता को भारी नुकसान हुआ है। इसी तरह, दुनिया के अनानास की आधी आपूर्ति करने वाले कोस्टा रिका ने इसकी खेती के लिए भारी मात्रा में कीटनाशकों का उपयोग किया जिससे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को गंभीर नुकसान पहुंचा है।

उत्पादन के अलावा खाद्य पदार्थों को अलग-अलग महाद्वीपों पर पहुंचाना पर्यावरणीय समस्याओं को और बढ़ा देता है। शिपिंग, रेफ्रिजरेशन और पैकेजिंग से वैश्विक कार्बन उत्सर्जन (carbon emission) में काफी वृद्धि होती है। कृषि और उससे जुड़े कार्य मिलकर सभी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग एक-तिहाई हिस्सा होते हैं, जिससे वैश्विक खाद्य व्यापार जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख कारण बन जाता है।

स्वास्थ्य पर प्रभाव

पर्यावरणीय लागतों के अलावा, वैश्विक खाद्य व्यापार का प्रभाव जन स्वास्थ्य (public health impact) पर भी पड़ता है। यह सही है कि आयातित फलों(import fruits), सब्ज़ियों और मेवों तक पहुंच पोषण में सुधार करती है और वैश्विक मृत्यु दर को कम करती है। 2023 में नेचर फूड में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार हर साल 14 लाख लोगों की जान बचाता है क्योंकि यह बेहतर और स्वस्थ भोजन विकल्प उपलब्ध कराता है।

दूसरी ओर, प्रोसेस्ड फूड (processed food) और रेड मीट (red meat) के व्यापार का असर इसके विपरीत है। जिन देशों में पहले इन सामग्रियों तक पहुंच नहीं थी, वहां अब मधुमेह, हृदय रोग और कुछ प्रकार के कैंसर जैसी गंभीर बीमारियां बढ़ रही हैं। रेड मीट उपभोग का सम्बंध इन बीमारियों से देखा गया है। इसका निर्यात मुख्य रूप से अमेरिका और जर्मनी जैसे देश करते हैं। शोधकर्ताओं ने इसे ‘बीमारियों का निर्यात’ कहा है, जो इस बात पर ज़ोर देता है कि व्यापार नीतियां मुनाफे से अधिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दें।

नाज़ुक खाद्य प्रणाली 

वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं (global food chain) पर निर्भरता ने खाद्य प्रणाली को अधिक कुशल बनाया है, लेकिन इसे कमज़ोर भी किया है। मुख्य फसलों जैसे गेहूं, चावल, मक्का और सोयाबीन के निर्यात में केवल 10 देश प्रमुख भूमिका निभाते हैं, जिससे कुछ ही देशों पर अत्यधिक निर्भरता बढ़ गई है। उदाहरण के लिए, अमेरिका विश्व के कुल खाद्य पदार्थों का लगभग 25 प्रतिशत निर्यात करता है, और इसका अधिकांश हिस्सा कैलिफोर्निया और टेक्सास जैसे कुछ राज्यों से आता है। ऐसे में जब ये क्षेत्र सूखे या प्राकृतिक आपदाओं का सामना करते हैं, तब वैश्विक खाद्य कीमतें तेज़ी से बढ़ जाती हैं।

यूक्रेन युद्ध (Ukraine war) इस कमज़ोर व्यवस्था का ज्वलंत उदाहरण है। यूक्रेन और रूस मिलकर वैश्विक गेहूं निर्यात (global wheat export) का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा प्रदान करते हैं। 2022 में युद्ध के कारण जब इनका उत्पादन बाधित हुआ तो गेहूं की कीमतों (prise rise) में भारी उछाल आया, जिससे उन देशों पर असर पड़ा जो इस आपूर्ति पर निर्भर थे। हालांकि, भारत और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने इस कमी को पूरा करने का प्रयास किया, लेकिन इस संकट ने यह स्पष्ट कर दिया कि वैश्विक खाद्य आपूर्ति शृंखला कितनी संवेदनशील है।

जटिल भविष्य की तैयारी

वैश्विक खाद्य व्यापार (global food trade) की चुनौतियां आने वाले समय में और गंभीर हो सकती हैं। 2080 के दशक के मध्य तक पृथ्वी की जनसंख्या 10 अरब तक पहुंचने का अनुमान है, जिससे खाद्य प्रणालियों पर भारी दबाव पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा और तापमान पर अनिश्चित प्रभाव से फसल उत्पादन (crop production) घट सकता है और कृषि उद्योग अधिक अस्थिर बन सकता है।

इन जोखिमों से निपटने के लिए देशों को अधिक मज़बूत खाद्य प्रणालियां बनानी होंगी। इसमें घरेलू उत्पादन में वृद्धि, आयात के स्रोतों को अधिक विविध बनाने और अनाज भंडारण तथा बंदरगाह जैसे बुनियादी ढांचे में निवेश करना होगा। नीति निर्माताओं को इसके लिए अधिक डैटा की आवश्यकता होगी।

फूड एंड क्लाइमेट सिस्टम्स ट्रांसफॉर्मेशन अलाएंस (food and climate systems transformation alliance) जैसी पहल ऐसे साधन विकसित कर रही हैं जो यह अनुमान लगाने में मदद करेंगे कि जलवायु, भू-राजनीति, और बाज़ार में उतार-चढ़ाव 2050 तक खाद्य सुरक्षा को कैसे प्रभावित करेंगे। इनका उपयोग करके देश अपनी खाद्य नीतियों के बारे में प्रभावी निर्णय ले सकते हैं।

वैश्विक खाद्य व्यापार का भविष्य दक्षता और स्थिरता (efficiency and stbility) के बीच संतुलन खोजने पर निर्भर करेगा। देशों को यह फिर से विचार करना होगा कि वे क्या उत्पादन करें, उत्पादन कैसे करें, और आयात पर कितना निर्भर रहें। इसके लिए अपव्यय को कम करना, टिकाऊ कृषि प्रथाओं को अपनाना और निर्यात के पर्यावरणीय प्रभाव को सीमित करना महत्वपूर्ण होगा। यह तो ज़रूरी नहीं है कि आयातित कॉफी या उष्णकटिबंधीय फलों का उपभोग छोड़ दिया जाए लेकिन पर्यावरण पर अधिक दबाव डालने वाले उत्पादों की खपत को नियंत्रित करने से महत्वपूर्ण अंतर पड़ सकता है।

बहरहाल, वैश्विक खाद्य व्यापार आधुनिक अर्थव्यवस्था का एक अद्भुत उदाहरण है, लेकिन इसकी कई चुनौतियां भी हैं। इसके पर्यावरणीय प्रभावों, स्वास्थ्य सम्बंधी प्रभावों और व्यवधानों के प्रति दुर्बलता को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। जो निर्णय हम आज लेंगे, वही यह तय करेंगे कि वैश्विक व्यापार मानवता को पोषण देता रहेगा या हमें समाधान के लिए तरसने पर मजबूर करेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्लास्टिक प्रदूषण पर लगाम के प्रयास और अड़चनें

प्लास्टिक प्रदूषण(plastic pollution) की बढ़ती समस्या को थामने के लिए लोगों में जागरूकता फैलाने के प्रयास करीब-करीब विफल ही रहे हैं। जो थोड़ी-बहुत सफलता मिलती है वह इसके उत्पादन(plastic production) की मात्रा के सामने फीकी है। प्रति वर्ष करीब 46 करोड़ टन नए प्लास्टिक(new plastic) का उत्पादन होता है, और 2060 तक इसका उत्पादन तिगुना होने की संभावना है। इसमें भी एक बार इस्तेमाल करके फेंक दिया जाने वाला प्लास्टिक अधिक होता है।

प्लास्टिक प्रदूषण को थामने के प्रयासों में सफलता बहुत सीमित रही है – कुल उत्पादन का महज़ 10 प्रतिशत प्लास्टिक ही पुनर्चक्रित (recycle) हो पाता है, बाकी समुद्रों में और यहां-वहां फेंक दिया जाता है। यह पर्यावरण(environment), जीव-जंतुओं(wildlife) और मानव स्वास्थ्य(human health) के लिए समस्या पैदा करता है।

ऐसे में स्थानीय, राज्य या राष्ट्र के स्तर पर किए जा रहे प्रयासों से बढ़कर वैश्विक स्तर(global level) पर कार्रवाई की ज़रूरत लगती है। इस प्रयास में वर्ष 2022 में दुनिया भर के देशों ने मिलकर प्लास्टिक प्रदूषण को थामने के लिए एक वैश्विक संधि(global treaty) के तहत प्लास्टिक प्रदूषण को थामने के लिए नियम-कायदे तय करने की शुरुआत की थी। पिछले दिनों, दक्षिण कोरिया के बुसान में 175 देशों के वार्ताकार इस संधि के पांचवें और अंतिम सत्र के लिए एकत्रित हुए थे। उम्मीद की जा रही थी कि दक्षिण कोरिया के बुसान में जारी वार्ता के परिणामस्वरूप दुनिया को प्लास्टिक प्रदूषण से बचाने के लिए एक सशक्त संधि मिलेगी। लेकिन 1 दिसंबर को वार्ता बगैर किसी निर्णय के समाप्त हो गई। हालांकि, वैश्विक स्तर पर सहमति बनने तक कई शहर और देश अपनी-अपनी नीतियां बना रहे हैं।

बैठक में आए सभी प्रतिनिधियों के अपने-अपने मत हैं। वैज्ञानिकों समेत सहित कुछ समूह चाहते हैं कि गैर-ज़रूरी (non-essential plastic) प्लास्टिक के उत्पादन को कम किया जाए, जो तेज़ी से अनियंत्रित स्तर तक बढ़ गया है। लेकिन कुछ राष्ट्र, विशेष रूप से पेट्रोकेमिकल्स उत्पादनकर्ता राष्ट्र (petrochemical-producing nations) चाहते हैं कि संधि में उत्पादन रोकने की बजाय रीसाइक्लिंग सहित अपशिष्ट प्रबंधन पर अधिक ज़ोर हो।

अब तक, 90 से ज़्यादा देशों ने एक बार उपयोग वाले प्लास्टिक उत्पादों (जैसे पोलीथीन थैलियों) (single use plastic) पर पूर्ण या आंशिक प्रतिबंध लगाया है। ये प्रतिबंध काफी प्रभावी हो सकते हैं। एक विश्लेषण बताता है कि पांच अमेरिकी राज्यों और शहरों में इस तरह के प्रतिबंधों ने प्रति वर्ष एक बार उपयोग की जाने वाली लगभग छह अरब पोलीथीन थैलियों की खपत में कमी की है। जलनिकास मार्ग/जलमार्गों में बहने/फंसने वाले प्लास्टिक में भारी कमी भी दिखाई दी है।

प्लास्टिक उपयोग पर शुल्क वसूलना (plastic tax) भी काम कर सकता है। यूके में एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि एक बार उपयोग वाली थैलियों के उपयोग पर शुल्क लगाने के बाद समुद्र तटों पर प्लास्टिक की थैलियों की संख्या में 80 प्रतिशत की कमी आई, हालांकि इससे अन्य तरह का कूड़ा बढ़ गया है।

खराब डिज़ाइन किए गए या लागू किए गए प्रतिबंध अप्रभावी होने की संभावना भी होती है। इसका एक उदाहरण कैलिफोर्निया में देखने को मिला है: वहां दुकानों को मोटी और पुन: उपयोग (reusable plastic bags) की जा सकने वाली प्लास्टिक थैलियों का इस्तेमाल करने की अनुमति दी गई थी – लेकिन लोगों ने पुन: उपयोग करने के बजाय उन्हें भी फेंक दिया, जिससे पहले की तुलना में प्लास्टिक कचरा बढ़ गया। इसलिए लागू की जानी वाली नीतियों की सतत निगरानी और समीक्षा की ज़रूरत है।

फिर, कई देशों में प्लास्टिक पैकेजिंग निर्माता (plastic packaging manufaturers) कंपनियों से उनके द्वारा बनाए गए प्लास्टिक को पुनर्चक्रित करने के लिए पैसा लिया जाता है। ऐसा करने से पुनर्चक्रण की दर बढ़ी है। जैसे स्पेन ने ‘उत्पादक की विस्तारित ज़िम्मेदारी’ (extended producer responsibility) नीति शुरू की, जिससे कागज़ और प्लास्टिक के पुनर्चक्रण की दर 5 प्रतिशत से बढ़कर 81 प्रतिशत हो गई है। ऐसी नीतियों का उद्देश्य कंपनियों को अपनी पैकेजिंग को नए सिरे से, नए तरीके से डिज़ाइन करने के लिए प्रोत्साहित करना भी है। लेकिन चूंकि पैकेज़िंग के लिए अधिकांश शुल्क वज़न के हिसाब से लिया जाता है इसलिए यह तरीका मुख्य रूप से सिर्फ पैकेजिंग की मात्रा को कम करने में प्रभावी होता है, न कि पैकेजिंग की सामग्री को बदलने में। विशेषज्ञों का सुझाव है कि ऐसी नीतियां अधिक कारगर हो सकती हैं जो पैकेजिंग को पुनर्चक्रित सामग्री से बनाने का प्रोत्साहन देती हों। जैसे यूके में प्लास्टिक उत्पादकों को प्रति टन प्लास्टिक पर कर देना होता है, लेकिन सिर्फ उन उत्पादों पर जिन्हें बनाने में 30 प्रतिशत से कम पुनर्चक्रित सामग्री का इस्तेमाल किया गया हो। ऐसे प्रोत्साहन प्लास्टिक मांग की सही तरीके से आपूर्ति कर सकते हैं।

ज़ाहिर है, हर नीति के कुछ फायदे-नुकसान होते हैं। पुनर्चक्रण की नीतियों में भी ऐसा ही देखने को मिलता है; इनसे पुनर्चक्रण केंद्र और पुनर्चक्रण की दर तो बढ़ जाती है लेकिन पुनर्चक्रण कर्मचारियों के लिए सुरक्षा मानक न के बराबर होते हैं।

प्लास्टिक प्रदूषण के सबसे खतरनाक रूपों में से एक है माइक्रोप्लास्टिक(microplastic)। प्लास्टिक के बारीक-बारीक टुकड़े जो कार के टायरों के घिसने से, कपड़ों की धुलाई से या सौंदर्य प्रसाधनों आदि के उपयोग से पर्यावरण में झड़ते रहते हैं। ऐसा अनुमान है कि हर साल समुद्र में छोड़े जाने वाले करीब 10 लाख टन प्लास्टिक में 15-31 प्रतिशत माइक्रोप्लास्टिक होता है। इसे कम करने के प्रयास में कई देशों ने सौंदर्य प्रसाधनों में माइक्रोबीड्स के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है, जिससे कंपनियों पर इनका उपयोग बंद करने के लिए दबाव पड़ा है।

फ्रांस पहला ऐसा देश है जिसने नई वाशिंग मशीनों (washing machine) में माइक्रोफाइबर फिल्टर (microfiber filter) अनिवार्य कर दिया है। परीक्षणों में एक तरह का फिल्टर 75 प्रतिशत तक माइक्रोफाइबर कम करने में कारगर रहा। हालांकि कपड़ों में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक के प्रसार को थामने के लिए फिल्टर लगाना बहुत प्रभावी उपाय नहीं है क्योंकि कपड़े पहनते-रखते समय भी करीब उतने ही महीन रेशे झड़ते हैं। और तो और, फिल्टर से निकाल कर भी रेशे पर्यावरण में ही कहीं फेंके जाएंगे। इसलिए बेहतर होगा कि कपड़ों को बनाने के तरीके में बदलाव किए जाएं, लेकिन राष्ट्रीय कानूनों के ज़रिए यह मुश्किल ही साबित हुआ है। इस तरह की अड़चनों और बाधाओं को कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संधि (international treaty) आवश्यक है। राष्ट्र संघ (United Nations) का प्रस्ताव था कि सभी राष्ट्र एक संधि पर सहमत हों। लेकिन कई मुद्दों पर राष्ट्रों के बीच मतभेदों के चलते वार्ता टूट गई। अब बात वार्ता के अगले दौर तक के लिए टल गई है जो अगले साल होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अनचाहे मेहमान: बाहरी प्रजातियां जब आक्रामक हो जाएं

सीमा मुंडोली

क्या आप ऐसे बिनबुलाए-अनचाहे मेहमानों को जानते हैं जो आपके घर आते हैं, आपके घर को बिलकुल अपना ही घर समझते हैं, आराम से रहते (या पसर जाते) हैं, और जाने का नाम ही नहीं लेते, आप चाहे जो कर लें? खैर, प्रकृति में भी ऐसे ‘मेहमान’ होते हैं जिनमें पौधों (plants), पक्षियों (birds), जंतुओं (animals), कीटों (insects) और यहां तक कि सूक्ष्मजीवों (microorganisms) की कई प्रजातियां शामिल हैं।
हम अक्सर ‘देशज’ (native species) और ‘गैर-देशज’ (non-native species) शब्द सुनते रहते हैं। ‘देशज’ प्रजातियां वे हैं जो किसी क्षेत्र में नैसर्गिक रूप से पाई जाती हैं, और वहां की परिस्थितियों के अनुसार विकसित और अनुकूलित होती हैं। ‘गैर-देशज’ प्रजातियां – जिन्हें बाहर से प्रविष्ट (introduced species), विदेशी (exotic species) या बाहरी प्रजातियां भी कहा जाता है – या तो इरादतन किसी ऐसे क्षेत्र में लाई जाती हैं जहां वे नैसर्गिक रूप से नहीं पाई जाती हैं या संयोगवश वहां पहुंच जाती हैं। उदाहरण के लिए, आज हमारे खान-पान का हिस्सा बन चुके कई फल (fruits) और सब्ज़ियां (vegetables) पारंपरिक रूप से भारत में नहीं पाई जाती थीं। आलू (potato) को ही लें – यह दक्षिण अमेरिका (South America) के एंडीज़ क्षेत्र (Andes region) का मूल निवासी है और आज भारत सहित पूरी दुनिया के व्यंजनों में इसका खूब उपयोग होता है। या इमली (tamarind) को ही लें, जो मध्य अफ्रीका (Central Africa) की देशज है, इसे हज़ारों साल पहले भारत लाया गया था और आज यह हमारे शोरबों और चटनियों (soups and chutneys) का अभिन्न हिस्सा है।
लेकिन ऐसी अन्य प्रजातियां भी हैं जिनका जाने-अनजाने, किसी भी तरह से, आना हमेशा उपयोगी नहीं होता। इन्हें विदेशी आक्रामक प्रजातियां (invasive alien species) कहा जाता है। वे किसी स्थान पर आती हैं, वहां बस जाती हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात – अनुकूल पारिस्थितिक परिस्थितियों (favorable ecological conditions) और अपने शिकारियों (predators) की अनुपस्थिति में – स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र (local ecosystem) और लोगों को नुकसान पहुंचाते हुए फैलती रहती हैं।

आम तौर पर यह बताना मुश्किल होता है कि इनमें से कई आक्रामक प्रजातियां ठीक किस समय आई थीं, या क्यों/कैसे लाई गई थीं। लेकिन युरोपीय औपनिवेशिक उद्यम (European colonial enterprise) के लिए विभिन्न महाद्वीपों (continents) पर जहाज़ों (ships) द्वारा किए गए आवागमन ने आक्रामक प्रजातियों के फैलने में अहम भूमिका निभाई है। हो सकता है कि या तो बाहरी आक्रामक प्रजातियों को सजावटी पौधों (ornamental plants) या पालतू जानवरों (pets) के रूप में इरादतन लाया गया हो, और उन्हें या तो परिवेश में जानबूझकर छोड़ दिया गया हो या वे निकल भागी हों। या यह भी हो सकता है कि वे आवागमन के वाहनों (transportation vehicles) में या तो गलती से सवार होकर आ गई हों, या बीजों/अनाजों (seeds/grains) जैसे अन्य उत्पादों में गिरकर/मिलावट के रूप में आ गई हों। पौधे, सूक्ष्मजीव (microbes), मछलियां (fish), क्रस्टेशियन्स (crustaceans), पक्षी, सरीसृप (reptiles) – सभी अपने मूल क्षेत्रों (native regions) से दुनिया के विभिन्न हिस्सों में हम मनुष्यों के साथ यात्रा कर चुके हैं (पेत्र पाइसेक एवं साथी, 2020; जूली लॉकवुड, 2023)।

यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि आज दुनिया भर में कितनी प्रजातियों को आक्रामक (invasive species) के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। आक्रामक प्रजातियों और उनके जैविक प्रभावों (biological impacts) की सूची तैयार करने का एक प्रयास है ग्लोबल रजिस्टर ऑफ इन्ट्रोड्यूस्ड एंड इनवेसिव स्पीशीज़ (Global Register of Introduced and Invasive Species)। यह काम प्रगति पर है, और अब तक इस रजिस्टर में 20 देशों की 11,000 प्रजातियां दर्ज की जा चुकी हैं, जिनमें थलीय (terrestrial) और समुद्री (marine) दोनों किस्म की प्रजातियां शामिल हैं। यह आंकड़ा जैविक घुसपैठ के परिमाण का एक अंदाज़ा देता है (श्यामा पगड़ एवं साथी, 2018)।

लेकिन आक्रामक प्रजातियों (invasive species) को लेकर इतना शोर क्यों? चिंता इसलिए है क्योंकि आलू (potato) और इमली (tamarind), जिनके बिना हम आज अपने व्यंजनों (cuisines) की कल्पना भी नहीं कर सकते, के विपरीत विदेशी आक्रामक प्रजातियां (invasive alien species) प्रतिकूल पर्यावरणीय (environmental), सामाजिक (social) और आर्थिक (economic) कीमत के साथ आती हैं – और ये सभी समस्याएं आपस में जुड़ी हुई हैं।

भारत में, सबसे आम आक्रामक पौधों (invasive plants) में से एक लैंटाना (lantana) है। ऐसा माना जाता है कि लैंटाना को 1807 में बागड़ बांधने वाले सजावटी पौधे (ornamental plants) के रूप में भारत में लाया गया था (जी.सी.एस. नेगी एवं साथी, 2019)। इसके छोटे बहुरंगी फूलों (multicolored flowers) के कारण यह वास्तव में बहुत सुंदर दिखता है। लेकिन इसकी सुंदरता से इतर, लैंटाना पूरे देश में तेज़ी से फैल गया है और पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) के लिए इसके विनाशकारी परिणाम (devastating consequences) सामने आए हैं। बिलिगिरी रंगास्वामी वन्यजीव अभयारण्य (Biligiri Rangaswamy Wildlife Sanctuary) और टाइगर रिज़र्व (Tiger Reserve) में लैंटाना इतने बड़े पैमाने पर फैल गया है कि देशज पादप प्रजातियां (native plant species), जिन पर जंगली जानवर (wild animals) भोजन के लिए निर्भर हैं, कम हो गईं हैं। नतीजतन जंगली जानवर सोलिगा आदिवासियों (Soliga tribals) की फसलों (crops) पर धावा बोलने लगे हैं। सोलिगा लोगों ने यह भी कहा कि लैंटाना के फैलने की वजह से जंगल के खाद्य पदार्थों (forest foods) की वृद्धि कम हो गई है, जिन पर सोलिगा समुदाय (Soliga community) कभी निर्भर थे (सीमा मुंडोली एवं साथी, 2016)।

जलकुंभी (water hyacinth) एक अन्य आक्रामक प्रजाति (invasive species) है, जो बहुतायत में दिखती है। इसने आर्द्रभूमि (wetlands) और जल राशियों (water bodies) पर कब्ज़ा जमा लिया है और उनका दम घोंट दिया है – इसके नाज़ुक बैंगनी फूलों (delicate purple flowers) के (सुंदर) चंगुल में न फंसना! दक्षिण अमेरिका (South America) का मूल निवासी यह पौधा न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में सबसे आक्रामक पौधों (aggressive plants) में से एक माना जाता है। जलकुंभी पानी की सतह (water surface) को हरे रंग की चादर (green sheet) से पूरी तरह ढंक देती है जो प्रकाश (light) को पानी में प्रवेश नहीं करने देती है, जिससे पानी में ऑक्सीजन (oxygen) की कमी हो जाती है और यह स्थिति मछलियों (fish) की मौत (death) का कारण बनती है। जलकुंभी किसान (farmers) और मछुआरों (fishermen) की भी दोस्त नहीं है और इससे छुटकारा पाने के लिए काफी अधिक समय (time), श्रम (labour) और धन (money) लगाना पड़ता है।

पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) और आजीविका (livelihood) को प्रभावित करने के अलावा आक्रामक विदेशी प्रजातियां (invasive alien species) स्वास्थ्य (health) के लिए भी जोखिम (risk) पैदा करती हैं। पीत ज्वर फैलाने वाले येलो फीवर मच्छर (Aedes aegypti) संभवत: 500 साल पहले अफ्रीका (Africa) से बाहर निकले और हाल के दशकों में दुनिया भर में तेज़ी से फैल रहे हैं (जोशुआ सोकोल, 2023)। यह प्रजाति डेंगू (dengue) और चिकनगुनिया (chikungunya) वायरस (viruses) की वाहक (vectors) है। हाल ही में भारत (India) के विभिन्न क्षेत्रों में इन बीमारियों (diseases) का प्रकोप (outbreak) चिंता का विषय रहा है (रेड्डी एवं साथी, 2023)। इसी तरह, विशाल अफ्रीकी घोंघा (Giant African Snail), जिसे दुनिया की 100 सबसे आक्रामक प्रजातियों (invasive species) में से एक के रूप में वर्गीकृत किया गया है, न केवल फसलों (crops) को नष्ट (destroy) करता है बल्कि मेनिन्जाइटिस (meningitis) का कारण (cause) बनता है, जो जानलेवा (deadly) हो सकता है।

वास्तव में हम यह पूरी तरह नहीं जानते कि वर्तमान में भारत (India) में ऐसी कितनी बाह्य आक्रामक प्रजातियां (foreign invasive species) मौजूद हैं, लेकिन पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem), आजीविका (livelihood) और मानव स्वास्थ्य (human health) पर उनके प्रभावों (impacts) का दस्तावेज़ीकरण (documentation) किया जा चुका है। आर्थिक दृष्टि से (economic perspective), यह अनुमान लगाया गया है कि 1960 से 2020 के बीच आक्रामक प्रजातियों (invasive species) ने भारतीय अर्थव्यवस्था (Indian economy) को 8.3 से 11.9 लाख करोड़ रुपए (8.3 to 11.9 trillion rupees) के बीच नुकसान (loss) पहुंचाया है – और हो सकता है कि वास्तविक नुकसान (real loss) कहीं अधिक हो। (अलोक बंग एवं साथी, 2022)।

लेकिन क्या आक्रामक प्रजातियों (invasive species) का कोई उपयोग (use) भी है? यह बात प्रजाति-प्रजाति (species-wise) पर निर्भर (depends) करती है। ऐसे उदाहरण (examples) भी हैं जहां कोई आक्रामक प्रजाति (invasive species) स्थानीय आबादी (local population) के लिए फायदेमंद (beneficial) साबित हुई है, भले ही वह उस क्षेत्र (region) की पारिस्थितिकी (ecology) के लिए फायदेमंद न रही हो। दक्षिण अमेरिका (South America) की मेसक्वाइट (mesquite) को 1817 में चारे (fodder) और ईंधन (fuel) के स्रोत (sources) के रूप में भारत (India) लाया गया था। कच्छ, गुजरात (Kutch, Gujarat) के बन्नी घास के मैदान (grasslands) के स्थानीय समुदाय (local communities) घास की कई प्रजातियों (grasses) के बीज (seeds) खाते थे। लेकिन मेसक्वाइट, जिसे स्थानीय रूप से गांडा (pugal) बबूल (Acacia) नाम से जाना जाता है, के आने और फैलने (spread) से घास के मैदानों (grasslands) का ह्रास (degradation) हुआ और खाने योग्य घास की प्रजातियां (edible grass species) खत्म (extinct) हो गई हैं। लेकिन, स्थानीय लोग गांडा बबूल की लकड़ी (wood) जलाकर कोयला (coal) बनाते हैं और अतिरिक्त आय (additional income) कमाते हैं। पेड़ से निकलने वाला रस (sap) कैंडी (candy) की तरह चूसा जाता है (ए.पी.रहमान, 2024).

एक और आक्रामक प्रजाति (invasive species), एलेगेटर वीड (alligator weed), पशुओं (livestock) के लिए बेहतरीन चारा (fodder) माना जाता है। बेंगलुरु (Bengaluru) के इर्द-गिर्द की झीलों (lakes) की सतह (surface) पर तैरती एलेगेटर वीड (Alligator weed) को पशुपालक (herders) पैदल या नाव (boat) से घूमकर इकट्ठा (collect) करते हैं।

लेकिन इस बात से इन्कार (deny) नहीं किया जा सकता कि आक्रामक प्रजातियां (invasive species) मुख्य रूप से स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र (local ecosystem) पर, लोगों के स्वास्थ्य (human health) पर और देश (country) की अर्थव्यवस्था (economy) पर प्रतिकूल (adverse) प्रभाव डालती हैं। माना जाता है कि उन्होंने 16 प्रतिशत प्रजातियों (species) की विलुप्ति (extinction) में योगदान (contribution) दिया है, और अब भी पूरे विश्व (worldwide) की जैव विविधता (biodiversity) के लिए एक बड़ा खतरा (major threat) बनी हुई हैं (के. स्मिथ, 2020)। और, जैव विविधता (biodiversity) पर ही तो हमारा अस्तित्व (existence) टिका है।

आज, हम आक्रामक प्रजातियों (invasive species) के फैलाव (spread), प्रभावों (impacts) और कीमतों/नुकसान (costs/damages) को समझने की जटिल चुनौतियों (challenges) से जूझ रहे हैं, जलवायु परिवर्तन (climate change) का दौर इन चुनौतियों (challenges) को और भी बढ़ा देगा। प्रजातियां (species) बदलती जलवायु परिस्थितियों (climate conditions) से बचने के लिए स्वाभाविक रूप से अपने इलाकों (habitats) को बदलेंगी। हम यह नहीं जानते (don’t know) कि इनमें से कितनी प्रजातियां (species) नई जगहों (new places) पर जाकर आक्रामक (become invasive) हो जाएंगी। इस बीच हम केवल इतना ही कर सकते हैं कि प्रजातियों (species) को गैर-देशज (non-native) आवासों (habitats) में लाने से सम्बंधित कायदे-कानून (laws) कायम रखें और जितना संभव हो. आक्रामक प्रजातियों (invasive species) के प्रसार (spread) को नियंत्रित (control) करें, और मेहमानों (guests) के रूप में छिपे इन नुकसानदेहों (harmful ones) पर कड़ी निगाह रखें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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धरती पर चुनौतियों, अंतरिक्ष में उपलब्धियों का वर्ष

चक्रेश जैन

गुज़रे साल 2024 में भारत के विज्ञान परिदृश्य पर गौर करें तो लगता है अंतरिक्ष विज्ञान (space science) में सफलताओं का विस्तार हुआ। साल 2024 की शुरुआत में ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के वैज्ञानिकों ने आदित्य एल-1 को निर्धारित कक्षा में स्थापित कर बड़ी सफलता प्राप्त की। आदित्य एल-1 मिशन लैग्रेंजियन बिंदु एल-1 (Lagrangian Point L1) पर स्थित भारतीय सौर वेधशाला (solar observatory) है। 2 जुलाई को आदित्य एल-1 ने सूर्य और पृथ्वी के बीच के एल-1 बिंदु के चारों ओर परिक्रमा पूरी की। यह भारत का पहला मिशन है, जिसे सूर्य की गतिविधियों को समझने के लिए भेजा गया है।

जनवरी में इसरो ने एक्सपोसैट (XPoSat) को अंतरिक्ष में भेजा। इसका उद्देश्य ब्लैक होल (black hole) के रहस्यों पर से पर्दा हटाना है। जून के अंतिम सप्ताह में इसरो ने पुन: उपयोग में लाए जा सकने वाले प्रक्षेपण यान आरएलवी पुष्पक (Reusable Launch Vehicle – RLV) का लगातार तीसरी बार सफल परीक्षण किया। इस मिशन में अंतरिक्ष से लौटने वाले यान को तेज़ हवा के बीच उतारने का अभ्यास किया गया था। इससे आरएलवी के विकास के लिए ज़रूरी महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियां प्राप्त करने में मदद मिली है।

नवंबर में इसरो ने पहली बार एक निजी कंपनी की सहायता से जीसैट एन-2 संचार उपग्रह (communication satellite) अंतरिक्ष में भेजा। यह आधुनिक संचार उपग्रह है, जिसका जीवनकाल 14 वर्ष है। इससे ब्रॉडबैंड सेवाओं (broadband services) का विस्तार होगा।

16 अगस्त को इसरो ने अर्थ ऑब्ज़र्वेशन सैटेलाइट-8 (Earth Observation Satellite – EOS-8) को अंतरिक्ष में स्थापित किया। इससे छोटे उपग्रहों (small satellites) के व्यावसायिक प्रक्षेपण का मार्ग प्रशस्त हो गया।

इसरो ने लेह में देश का प्रथम एनालॉग अंतरिक्ष मिशन (analog space mission) शुरू किया है। यहां अंतरिक्ष यात्रियों को प्रशिक्षण (astronaut training) दिया जाएगा। इसके साथ ही यहां चंद्रमा और मंगल ग्रह पर बेस स्टेशन स्थापित करने में आने वाली चुनौतियों का अध्ययन भी किया जाएगा।

वर्ष 2024 में मानव अभियान गगनयान मिशन (Gaganyaan Mission) की तैयारियां जारी रहीं। इसके लिए परीक्षणों की एक शृंखला तैयार की गई थी। अगस्त में एक्सिओम-4 मिशन (Axiom-4 Mission) के लिए चुने गए दो गगन यात्रियों शुभांशु शुक्ला और प्रशांत बालकृष्ण नायर ने अंतरिक्ष यात्रा के लिए अमेरिका में प्रारंभिक दौर का प्रशिक्षण पूरा किया। यह मिशन इसरो-नासा (ISRO-NASA) की संयुक्त उड़ान के तहत अगले वर्ष अप्रैल में अंतरिक्ष यात्रा पर रवाना होगा।

मई में चेन्नई की अंतरिक्ष स्टार्ट-अप कंपनी अग्निकुल कॉसमॉस (Agnikul Cosmos) ने अपने प्रथम एक मंज़िला रॉकेट अग्निबाण सब-ऑर्बाइटल टेक्नॉलॉजी डिमॉन्स्ट्रेटर (Agnibaan Sub-orbital Technology Demonstrator) का सफल परीक्षण किया। इसे स्वदेशी तकनीकी विकास (indigenous technology development) की दिशा में बड़ी सफलता कहा जा सकता है। इसके पहले 2022 में निजी अंतरिक्ष स्टार्ट-अप कंपनी स्काइरूट (Skyroot) ने अपना प्रथम सब-ऑर्बाइटल रॉकेट अंतरिक्ष में भेजा था। अग्निबाण रॉकेट में अनेक विशेषताएं हैं। इसमें थ्री-डी प्रिटेंड सेमी-क्रायोजेनिक इंजन (3D-printed semi-cryogenic engine), मॉड्यूलर डिज़ाइन, कम लागत और स्वदेशी प्रौद्योगिकी प्रमुख हैं।

इसी साल के अंत में इसरो ने प्रोबा-3 (Proba-3) को सफलतापूर्वक तैनात किया। प्रोबा-3 युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (European Space Agency – ESA) का महत्वपूर्ण कार्यक्रम है, जिसके अंतर्गत दो उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजा गया है। ये दोनों एक-दूसरे से बराबर दूरी बनाए रखेंगे और सूर्य के बाहरी वातावरण का अध्ययन करेंगे।

इस वर्ष पहली बार 23 अगस्त को प्रथम राष्ट्रीय अंतरिक्ष विज्ञान दिवस मनाया गया, जो 2023 में भारत के चंद्रयान-3 (Chandrayaan-3) के चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सफलतापूर्वक उतरने की याद में मनाया गया। इस उत्सव की थीम थी: ‘चंद्रमा का स्पर्श करते हुए जीवन का स्पर्श: भारत की अंतरिक्ष गाथा’ (Touching the Moon, Touching Lives: India’s Space Saga)।
अंतरिक्ष विज़न 2047 (Space Vision 2047) के अनुसार, 2035 तक चंद्रमा पर भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन (Indian Lunar Space Station) की स्थापना और 2040 तक भारतीय अंतरिक्ष यात्री (Indian Astronaut) को चंद्रमा पर उतारना शामिल है।

साल 2024 में भारतीय मूल की अंतरिक्ष वैज्ञानिक सुनीता विलियम्स विज्ञान जगत की खबरों की सुर्खियों में बनी रहीं। सुनीता विलियम्स(Sunita williams) 5 जून को लगभग एक सप्ताह के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन (international space station) पर पहुंची थीं, लेकिन स्टारलाइनर अंतरिक्ष यान में तकनीकी समस्या आने के कारण अभी तक पृथ्वी पर वापस नहीं लौटी हैं। उनकी वापसी अगले साल फरवरी में होगी। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन का कंमाडर बनने और लंबा समय अंतरिक्ष में बिता कर मनुष्य की सेहत पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों के अध्ययन को समृद्ध किया है। भारत सरकार ने 2008 में सुनीता विलियम्स को पद्मभूषण(Padma Bhushan) से सम्मानित किया था।

सुपरकंप्यूटर ‘परम रुद्र’ (Supercomputer ‘Param Rudra’)
26 सितंबर को देश में ही विकसित तीन परम रुद्र सुपर कंप्यूटर (supercomputers) राष्ट्र को समर्पित किए गए। इनका विकास नेशनल सुपरकंप्यूटिंग मिशन (National Supercomputing Mission) के तहत किया गया है। ये सुपरकंप्यूटिंग (supercomputing) के क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में आगे ले जाएंगे। मिशन 2015 में शुरू किया गया था। तीन सुपर कंप्यूटरों के विकास पर 130 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। इन्हें वैज्ञानिक अनुसंधान (scientific research) के लिए नई दिल्ली, कोलकाता और पुणे में स्थापित किया जाएगा। दिल्ली में इंटर युनिवर्सिटी एक्सलरेटर सेंटर (Inter University Accelerator Centre) में पदार्थ विज्ञान (material science) और परमाणु भौतिकी (nuclear physics) जैसे क्षेत्रों में शोध के लिए; पुणे में विशाल मीटर रेडियो टेलीस्कोप (Giant Metrewave Radio Telescope), फास्ट रेडियो बर्स्ट (fast radio bursts) और अन्य खगोलीय घटनाओं (astronomical events) के अध्ययन के लिए; और कोलकाता स्थित सत्येन्द्रनाथ बोस केंद्र (Satyendra Nath Bose Centre) में भौतिक विज्ञान (physical sciences), ब्रह्मांड (cosmology) और पृथ्वी विज्ञान (earth sciences) जैसे क्षेत्रों में उन्नत शोधकार्यों के लिए।

पहली अंडरवाटर मेट्रो लाइन (First Underwater Metro Line)
इस वर्ष मार्च में कोलकाता में देश की पहली अंडरवाटर मेट्रो लाइन (underwater metro line) का शुभारंभ हुआ। इसी के साथ हुगली नदी (Hooghly River) में सुरंग बनाने और मेट्रो ट्रेन (metro train) चलाने का 105 वर्ष पुराना सपना साकार हो गया। मेट्रो ट्रेन ज़मीन से 33 मीटर नीचे और हुगली नदी के तल से 13 मीटर नीचे बने ट्रेक पर दौड़ रही है। इसके लिए हावड़ा से लेकर महाकरण स्टेशन (Mahakaran Station) तक 520 मीटर लंबी सुरंग बनाई गई है। मेट्रो इस सुरंग को 80 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से 45 सेकंड में पार करती है।

मौसम विभाग के 150 साल (Indian Meteorological Department 150 years)
1875 में स्थापित भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (Indian Meteorological Department – IMD) के 150 वर्ष 2025 में पूरे हो रहे हैं। 2024 में विभाग ने राष्ट्र सेवा के 150वें वर्ष का उत्सव मनाया। यह देश का सबसे पुराना वैज्ञानिक विभाग (scientific department) है।
बीते वर्षों में मौसम विज्ञान विभाग (meteorological services) की सेवाओं का विस्तार हुआ है। मानसून पूर्वानुमानों (monsoon forecasting) से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान (space science) और कृषि (agriculture) से लेकर पर्यटन (tourism) तथा पर्यावरण (environment) से लेकर परिवहन (transportation) में इसकी सेवाओं का उपयोग हो रहा है। विभाग ने किसानों को पंचायत मौसम सुविधा (Panchayat Weather Services) उपलब्ध कराई है।

बायो ई-3 नीति (Bio E3 Policy)
इसी वर्ष भारत की जैव अर्थव्यवस्था (bioeconomy) को मंज़ूरी दी गई, जिसे संक्षेप में बायो-ई3 नीति (Bio E3 Policy) कहा जाता है। नीति में अर्थव्यवस्था (economy), रोज़गार (employment) और पर्यावरणीय प्रतिबद्धता (environmental commitment) को बढ़ावा देने का वादा किया गया है। बायो ई-3 नीति को जलवायु परिवर्तन (climate change) से निपटने की सोच के साथ तैयार किया गया है। यह नीति विभिन्न क्षेत्रों में उद्यमिता (entrepreneurship) को प्रोत्साहित करती है।

योजनाएं
इसी वर्ष 5 जनवरी को केंद्र सरकार ने 4797 करोड़ रुपए की ‘पृथ्वी विज्ञान योजना’ (Earth Sciences Scheme) को मंज़ूरी प्रदान की। योजना का उद्देश्य भू-प्रणाली और परिवर्तन के महत्वपूर्ण संकेतों (Key Indicators) को रिकॉर्ड करने के लिए वायुमंडल (Atmosphere), समुद्र (Ocean), भू-मंडल (Lithosphere), हिम मंडल (Cryosphere) और पृथ्वी के ठोस हिस्से का दीर्घकालिक अवलोकन करना है। साथ ही मौसम, समुद्र और जलवायु खतरों (Climate Hazards) को समझने और अनुमान लगाने तथा जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के विज्ञान को समझने के लिए मॉडलिंग प्रणालियों का विकास भी सम्मिलित है।

गुज़रे साल 11-13 सितंबर के दौरान ग्रेटर नोएडा में ‘सेमीकंडक्टर भविष्य को आकार देना’ (Shaping the Future of Semiconductors) विषय पर सेमिनार आयोजित किया गया, जिसका उद्देश्य देश में ही सेमीकंडक्टर उद्योग (Semiconductor Industry) को प्रोत्साहन देना था। सरकार द्वारा देश में ही सेमीकंडक्टर चिप (Chip Manufacturing) बनाने के लिए गुजरात के साणंद और धोलेरा तथा असम के मोरीगांव में संयंत्र स्थापित किए जा रहे हैं। वर्ष 2025 में उत्पादन शुरू होने की उम्मीद है।

भारतीय सेमीकंडक्टर मिशन (Indian Semiconductor Mission) की घोषणा 2021 में की गई थी। हमारे देश में सेमीकंडक्टर चिप निर्माण की प्रयोगशाला चंडीगढ़ में है। दुनिया में सेमीकंडक्टर चिप बनाने वाले पांच देश हैं, जिनमें ताइवान (Taiwan) की हिस्सेदारी सबसे ज़्यादा है। मोबाइल से लेकर मिसाइलों तक में सेमीकंडक्टर चिप हमारे रोज़मर्रा के जीवन (Everyday Life) का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं।

नई प्रजाति की खोज (Discovery of New Species)
अरुणाचल प्रदेश की सियांग घाटी (Siang Valley) में चींटी की एक नई प्रजाति मिली है। यह जगह जैव विविधता केंद्र (Biodiversity Hotspot) के रूप में विख्यात है। नई प्रजाति को पैरापैराट्रेचिना नीला (Paraparatrechina neela) नाम दिया गया है।
विज्ञान पत्रिका ज़ुओकीस (Scientific Journal Zookeys) ने बताया है कि चींटी की नई प्रजाति लाल अथवा भूरी चींटियों जैसी नहीं है। इस छोटी चींटी की लंबाई दो मिलीमीटर से भी कम है और इसका शरीर धातुई नीले रंग का है। अनुसंधानकर्ता चींटी के नीले रंग (Blue Coloration) को लेकर उत्साहित हैं और इसके कारण की खोज में हैं।

गुज़रे साल वैज्ञानिकों ने पश्चिम हिमालय में सांप की एक नई प्रजाति की खोजी है। इसका नाम एंगइकुलस डिकेप्रियोई (Anguiculus dicaprioi) रखा गया है। एंगइकुलस लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है छोटा सांप। यह सांप कोलुब्रिडे परिवार का सदस्य है जो पृथ्वी पर सांपों का सबसे बड़ा कुल है। इसमें 1938 प्रजातियां सम्मिलित हैं।

इसी वर्ष भारत अपने यहां के सभी जीव-जंतुओं की सूची बनाने वाला पहला देश बन गया है। इस सूची में लगभग एक लाख प्रजातियां शामिल हैं। यह सूची वर्गीकरण विज्ञानियों, संरक्षण प्रबंधकों, शिक्षाविदों, शोधार्थियों और नीति निर्माताओं के लिए एक अमूल्य संदर्भ ग्रंथ है। इस सूची में विलुप्तप्राय जीवों को भी शामिल किया गया है।

सम्मान व समारोह (Awards and Celebrations)

पहली बार नव-स्थापित राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कार (National Science Awards) प्रदान किए गए। राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कारों की स्थापना 2023 में की गई थी। चार श्रेणियों में दिए जाने वाले इन पुरस्कारों के लिए 33 वैज्ञानिकों का चयन किया गया। प्रथम विज्ञान रत्न सम्मान विख्यात जैव रसायनविद प्रोफेसर जी. पद्मनाभन को दिया गया। 13 वैज्ञानिकों को विज्ञानश्री से सम्मानित किया गया। विज्ञान और प्रौद्योगिकी में असाधारण योगदान के लिए 18 वैज्ञानिकों को युवा शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार प्रदान किया गया। इसरो की चंद्रयान-3 की टीम को विज्ञान टीम पुरस्कार से नवाज़ा गया।

इस वर्ष वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की प्रयोगशालाओं के तीन वैज्ञानिकों को राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरडिसिप्लीनरी साइंस एंड टेक्नॉलॉजी (एनआईआईएसटी), तिरुवनंतपुरम के निदेशक डॉ. आनंदरामकृष्णन और नेशनल बॉटेनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट (एनबीआरआई), लखनऊ के प्रोफेसर सैय्यद वजीह अहमद नकवी को विज्ञानश्री से पुरस्कृत किया गया है। नेशनल मैटलर्जिकल लैबोरेटरी (एनएमएल), जमशेदपुर के डॉ. अभिलाष को विज्ञान युवा शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से नवाज़ा गया है।

इसी वर्ष विख्यात वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन को मरणोपरांत देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया।

इसी वर्ष विज्ञान लोकप्रियकरण की अंग्रेज़ी पत्रिका साइंस रिपोर्टर के प्रकाशन के साठ वर्ष पूरे हुए। इसका पहला अंक 1964 में प्रकाशित हुआ था।

जिन्हें हमने खो दिया (Remembering Those We Lost)
वर्ष 2024 में हमने भारतीय विज्ञान जगत की कई महान हस्तियों को खो दिया। 25 अक्टूबर को पार्टिकल फिज़िक्स (Particle Physics) की अध्येता प्रोफेसर रोहिणी गोडबोले का निधन हो गया। उन्होंने महिलाओं में विज्ञान शिक्षा के प्रसार में सक्रिय योगदान दिया। उन्हें पद्मश्री सहित कई सम्मान मिले हैं।

इसी वर्ष 27 जनवरी को देश में ही विकसित गर्भ निरोधक गोली ‘सहेली’ के जनक और सीएसआईआर की लखनऊ स्थित प्रयोगशाला सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीडीआरआई) के पूर्व निदेशक डॉ. नित्यानन्द का देहांत हो गया।

15 अगस्त को अग्नि मिसाइल के जनक डॉ. रामनारायण अग्रवाल नहीं रहे। पहली स्वदेशी क्लॉट बस्टर ड्रग के विकास में अहम भूमिका निभा चुके डॉ.गिरीश साहनी का इस वर्ष 19 अगस्त को निधन हो गया।

बीते वर्ष विज्ञान के क्षेत्र में कई नई सफलताएं देखने को मिलीं, वहीँ दूसरी ओर पृथ्वी पर  जलवायु परिवर्तन (climate change), प्रदूषण (pollution), और जैव विविधता ह्रास (biodiversity loss) जैसी चिंताओं की लकीर भी लंबी होती चली गई। साल 2024 में जीएम खाद्य फसलों (GM food crops) के विरोध में एक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें इन फसलों को भारत के लिए अवांछित (undesirable for India) बताया गया। प्रस्ताव में जीएम फसलों को लेकर व्यापक विचार-विमर्श (wider discussions) की मांग की गई। बीटी कपास (BT cotton) की मंजूरी के अलावा अन्य जीएम फसल को स्वीकृति नहीं मिली है। विदा हो चुके वर्ष में भारतीय विज्ञान कांग्रेस एसोसिएशन (Indian Science Congress Association) का जनवरी में होने वाला वार्षिक सम्मेलन स्थगित हो गया। यह विज्ञान कांग्रेस के 100 वर्षों के इतिहास में पहली बार हुआ है। साल 2021 और 2022 में कोविड महामारी के कारण यह सम्मेलन नहीं हुआ था। हालांकि, साल 2023 में इसका आयोजन हुआ, लेकिन प्रधानमंत्री इसमें ऑनलाइन (online) शामिल हुए थे। भारतीय विज्ञान कांग्रेस एसोसिएशन का सालाना आयोजन विज्ञान जगत की महत्वपूर्ण घटनाओं में शामिल है, जिसके शुभारंभ कार्यक्रम में अभी तक प्रधानमंत्री सम्मिलित होते रहे हैं। सम्मेलन में मुख्य विषय पर विचार मंथन के बाद की गई सिफारिशों का उपयोग सरकार की विज्ञान नीति तैयार करने में किया जाता है। विज्ञान जगत के समीक्षकों के अनुसार अब इस आयोजन से देश के नामचीन वैज्ञानिकों ने दूरी बना ली है और यह आयोजन विश्वविद्यालयों और कॉलेज शिक्षकों का मंच बन कर रह गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जेनेटिक इंजीनियरिंग से टमाटर को मीठा बनाया

बेजिंग स्थित चाइनीज़ एकेडमी ऑफ एग्रीकल्चर साइन्सेज़ के जिंज़े झांग और साथियों द्वारा नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक टमाटर में जेनेटिक इंजीनियरिंग (Genetic Engineering) की मदद से ऐसे परिवर्तन किए गए हैं कि उनमें शर्करा (Glucose और Fructose) की मात्रा 30 प्रतिशत तक अधिक हो गई है। इन शर्कराओं की मात्रा बढ़ने से टमाटर ज़्यादा मीठे हो गए हैं। और तो और, इनका आकार (Size), वज़न (Weight) वगैरह भी फिलहाल उपलब्ध टमाटरों जैसा ही है।

गौरतलब है कि दुनिया भर में करीब 19 करोड़ टन टमाटर का उत्पादन होता है और यह कई व्यंजनों (Recipes), चटनियों (Chutneys), सॉस (Sauces) वगैरह का प्रमुख घटक है। टमाटर को सदियों पहले पालतू (Domesticated) बनाया गया था और लगातार चयन का परिणाम है कि आज हमें जो टमाटर मिलते हैं वे अपने मूल कुदरती पूर्वजों (Wild Ancestors) की तुलना में कई गुना बड़े होते हैं। लेकिन साइज़ बढ़ने के साथ उनमें शर्करा की मात्रा कम होती जाती है। झांग की टीम इसी चीज़ का अध्ययन कर रही थी। वे यही जानना चाहते थे कि फलों में शर्कराओं का संश्लेषण (Sugar Synthesis) कैसे होता है और उन्हें भंडारित (Storage) कैसे किया जाता है। यह समझने के लिए झांग की टीम ने वर्तमान में उगाए जाने वाले टमाटर (Cultivated Tomatoes) (Solanum lycopersicum) के जीनोम (Genome) की तुलना अधिक मीठे टमाटर किस्मों से की। उन्होंने पाया कि मिठास का बिंदु दो जीन्स (Genes) में हैं। ये दो जीन्स ऐसे प्रोटीन (Proteins) का निर्माण करते हैं जो उस एंज़ाइम (Enzyme) को नष्ट करते हैं जो शर्करा उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार होता है। यानी ये शर्करा का उत्पादन रोकते हैं।

बस, फिर क्या था। शोधकर्ताओं ने जीन संपादन (Gene Editing) की क्रिस्पर-कास 9 (CRISPR-Cas9) नामक तकनीक का उपयोग करके इन दो जीन्स को निष्क्रिय कर दिया। नतीजतन जो पौधे विकसित हुए उन पर लगने वाले टमाटर कहीं अधिक मीठे थे।

इस अध्ययन का प्रत्यक्ष परिणाम तो टमाटर को मीठा करेगा लेकिन इसके कुछ व्यापक निहितार्थ (Implications) भी हैं। ये दो जीन्स कई पादप प्रजातियों (Plant Species) में पाए जाते हैं। यदि शर्करा निर्माण की यह क्रियाविधि विभिन्न फलों (Fruits) में काम करती है, तो ज़ाहिर है कि इस अध्ययन के निष्कर्षों का इस्तेमाल अन्यत्र भी संभव होगा। वैसे भी यह अध्ययन हमें यह समझने की दिशा में आगे ले जाएगा कि फलों में शर्करा का संश्लेषण कैसे होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्भावस्था में अतिरिक्त रक्त की आपूर्ति – अर्पिता व्यास

र्भावस्था में बढ़ते बच्चे और आंवल को पोषण देने के लिए अतिरिक्त रक्त की आवश्यकता होती है। महिलाओं में 9 महीने के गर्भकाल के अंत में करीब 20 प्रतिशत अतिरिक्त लाल रक्त कोशिकाओं की आवश्यकता होती है। यह वृद्धि कुछ हद तक हार्मोन्स के नियंत्रण में होती है लेकिन शोधकर्ता अभी तक निश्चित तौर पर यह नहीं कह सकते थे कि स्तनधारियों में खून में यह वृद्धि ठीक-ठीक कैसे होती है।

हाल ही में इसके लिए एक नई व्याख्या सामने आई है। जिसमें ट्रांसपोज़ॉन के सक्रिय होने का सम्बंध लाल रक्त कोशिकाओं के बनने से देखा गया है।

ट्रांसपोज़ॉन को जंपिंग जीन भी कहते हैं। ये डीएनए के ऐसे खंड होते हैं जो जीनोम में एक जगह से कटकर दूसरी जगह चिपक जाते हैं। मानव जीनोम का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा ऐसे ही जंपिंग जीन से बना होता है। पहले माना जाता था कि ये कोई काम नहीं करते हैं; बस खुद की कॉपी बना-बनाकर डीएनए में अन्यत्र चिपकते रहते हैं। कभी-कभार ये उछल कर किसी अन्य जीन में चिपक जाते हैं और उत्परिवर्तन का कारण बनते हैं।

साइंस में प्रकाशित नई व्याख्या के मुताबिक गर्भावस्था के दौरान जीनोम में पड़े कुछ सुप्त ट्रांसपोज़ॉन्स सक्रिय हो जाते हैं जिसकी वजह से मां के शरीर में प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप रक्त कोशिकाएं बनने लगती हैं। चूहों और मनुष्यों में स्टेम कोशिकाओं के जीनोम के अध्ययन से इस बात का पता चला है।

वैसे तो स्तनधारियों में ज़्यादातर ट्रांसपोज़ॉन्स उद्विकास के दौरान निष्क्रिय हो गए हैं, लेकिन अनुसंधानों से स्पष्ट हुआ है कि ये अन्य जीन्स की अभिव्यक्ति के नियमन तथा नई जेनेटिक विविधता पैदा करने में और संभवत: भ्रूण के विकास में भी भूमिका निभाते हैं।

टेक्सास विश्वविद्यालय साउथवेस्टर्न मेडिकल सेंटर के चिल्ड्रन्स मेडिकल सेंटर रिसर्च इंस्टीट्यूट के स्टेम सेल जीव विज्ञानी सीन मॉरीसन और उनके साथी पहले यह दर्शा चुके थे कि गर्भावस्था में एस्ट्रोजन नामक हार्मोन की मात्रा में वृद्धि होती है जो स्प्लीन (तिल्ली) की स्टेम कोशिकाओं को विभाजित होकर लाल रक्त कोशिकाएं बनाने को प्रेरित करता है। इसी काम को आगे बढ़ाते हुए मॉरीसन की छात्रा जूलिया फान गर्भवती और सामान्य मादा चूहों में स्टेम सेल्स की जीन अभिव्यक्ति की तुलना कर रही थी।

अपने विश्लेषण में उन्होंने ट्रांसपोज़ॉन्स की गतिविधि को खारिज नहीं किया जो सामान्य तौर पर किया जाता है। उन्होंने पाया कि स्प्लीन की रक्त-निर्माता स्टेम कोशिकाओं में कुछ खास किस्म के जंपिंग जीन (रिट्रोट्रांसपोज़ॉन्स) काफी सक्रिय हो गए थे, और अस्थि मज्जा में कुछ कम सक्रिय हुए थे। तो सवाल था कि क्या इन रिट्रोट्रांसपोज़ॉन्स की सक्रियता की रक्त निर्माण में कुछ भूमिका है?

टीम ने पाया कि रिट्रोट्रांसपोज़ॉन्स की इस बाढ़ के  प्रतिक्रियास्वरूप स्टेम कोशिकाएं ऐसे प्रोटीन्स बना रही थीं जो वायरस-रोधी प्रतिरक्षा में प्रमुख रूप से शामिल होते हैं – ये प्रोटीन्स फिर इन कोशिकाओं के विभाजित होने तथा कुछ मामलों में लाल रक्त कोशिकाएं बनाने को प्रेरित कर रहे थे। कुछ चूहों में उन्होंने ये प्रतिरक्षा जीन्स ठप कर दिए थे या उन्हें वह एंज़ाइम बनाने से रोक दिया था जिसका उपयोग रिट्रोट्रांसपोज़ॉन्स अपनी नकल बनाकर चिपकने के लिए करते हैं। इन चूहों में रक्त निर्माण में बढ़ोतरी देखने को नहीं मिली।

मनुष्यों में भी देखा गया कि गर्भवती महिलाओं की स्टेम कोशिकाओं में रिट्रोट्रांसपोज़ॉन सक्रियता थी जबकि गैर-गर्भवती स्त्रियों में नहीं। जब इन गर्भवती महिलाओं को रीवर्स ट्रांसक्रिप्प्टेस रोधी एंज़ाइम से उपचारित किया गया, तब उन महिलाओं में रक्त की कमी (एनीमिया) हो गई। यदि इन निष्कर्षों की पुष्टि होती है तो ये शरीर में रक्त निर्माण की एक नई क्रियाविधि को उजागर करेंगे और शायद कुछ एनीमिया पीड़ित लोगों के लिए मददगार साबित हों।

यह समझना अभी बाकी है कि गर्भावस्था में रेट्रोट्रांसपोज़ॉन्स क्यों व कैसे सक्रिय हो जाते हैं। क्या ये गर्भधारण करते ही सक्रिय हो जाते हैं या बाद में सक्रिय होते हैं? यह भी स्पष्ट नहीं है कि रेट्रोट्रांसपोज़ॉन्स गर्भावस्था से प्रेरित होते हैं या फिर एस्ट्रोजन के बढ़ने से। कई शोधकर्ताओं का मानना है कि यह एक आश्चर्यजनक बात है कि स्तनधारियों में यह प्रक्रिया रेट्रोट्रांसपोज़ॉन्स की गतिविधि पर निर्भर करती है, जो कोशिकाओं में उत्परिवर्तन का कारण बनता है। मॉरीसन का अनुमान है कि शरीर किसी तरह इन वायरसनुमा जीन अनुक्रमों को जीनोम में जुड़ने से रोकता है या मात्र स्टेम कोशिकाओं में सक्रिय होने देता है। बहरहाल, क्रियाविधि कुछ भी हो, रेट्रोट्रांसपोज़ॉन की क्रिया को अनदेखा नहीं करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अथाह महासागर में ये जीव सूंघकर घर लौटते हैं – स्निग्धा दास

नाब, आप तो सूंघकर लज़ीज़ भोजन या किसी खुशबूदार या बदबूदार चीज़ का बखूबी पता लगा लेते होंगे पर कोई आपसे सूंघकर घर तक पहुंचने की बात कर दे तो? यह तो नामुमकिन ही लगेगा, भला कोई अपने घर तक सूंघकर कैसे पहुंच सकता है?

लेकिन कुछ ऐसे जीव हैं जो यह कर पाते हैं। हाल ही में एक और ऐसे ही जीव का पता चला है जो समुद्र की गहराइयों में अपने घर का पता सूंघकर लगा लेते हैं!

महासागर विशाल है और अगर आप एक ऐसे जीव हैं जो महज 1 मिलीमीटर लंबा है, तो वहां खो जाना आसान है। हालांकि, माईसिड्स नामक छोटे झींगा जैसे क्रस्टेशियन्स गहरे पानी में खोह, जो उनका घर होती है, का रास्ता अपनी सूंघने की क्षमता से ढूंढ सकते हैं। यह खोज उन समुद्री जीवों की सूची में एक और जीव जोड़ती है, जो रासायनिक संकेतों का उपयोग करके रास्ता खोजते हैं। इन जीवों में सैल्मन मछली भी शामिल है।

एंडोम मरीन स्टेशन के समुद्री पारिस्थितिकीविद और अध्ययन के लेखक थेरी पेरेज़ कहते हैं, “चौंकाने वाली बात यह थी कि हमने एक सच्चा घर वापसी व्यवहार देखा, माईसिड्स अपनी खोह का पता लगा सकते हैं, लेकिन हर किसी खोह का नहीं – बल्कि वह खोह जहां वे पैदा हुए थे।”

प्रत्येक रात भूमध्य सागर के कुछ हिस्सों में, लाखों माईसिड्स (Hemimysis margalefi) दैनिक प्रवास करते हैं। सूर्यास्त के समय, वे अपने गृह-खोहों को छोड़कर खुले समुद्र में भोजन की तलाश में निकल जाते हैं। शिकारियों से बचने के लिए, वे दिन उगने से पहले खोहों में लौट आते हैं। पिछले शोधों से यह पता चला था कि जब माईसिड्स अपनी खोहों को छोड़ते हैं, तो वे प्रकाश की मदद से मार्ग-निर्धारण करते हैं। लेकिन अंधेरे में ये जीव अपने घर का रास्ता कैसे ढूंढते होंगे?

पेरेज़ और उनके सहयोगियों का विचार था कि जैसे सैल्मन, रासायनिक संकेतों का अनुसरण करके उन नदियों तक पहुंचते हैं जहां वे पैदा हुए थे, वैसे ही माईसिड्स भी अपनी सूंघने की क्षमता का उपयोग करके अंधकार में अपना रास्ता खोजते होंगे।

इस विचार को परखने के लिए, शोधकर्ताओं ने फ्रांस के मार्सेल के पास दक्षिणी तट में पानी के नीचे की दो खोहों से माईसिड्स इकट्ठा किए। फिर, प्रयोगशाला में उन्होंने इनमें से एक-एक जंतु को छोटे Y-आकार के पात्र में रखा। कभी-कभी, Y की एक भुजा माईसिड्स के गृह-खोह से लिए गए समुद्री पानी की ओर जाती थी, जबकि दूसरी भुजा किसी अन्य खोह या स्थान से लिए गए समुद्री पानी की ओर। कभी-कभी ऐसा भी होता था कि दोनों ही भुजाएं गृह-खोह के पानी की ओर नहीं जाती थी। शोधकर्ताओं ने फ्रंटियर्स इन मरीन साइंस जर्नल में बताया है कि माईसिड्स अपनी गृह-खोह का पानी ताड़ लेते थे और उसी में रहना पसंद करते थे।

अपने अध्ययन के दूसरे भाग में, शोधकर्ताओं ने दिखाया कि प्रत्येक खोह से लिया गया पानी अपनी अलग रासायनिक पहचान रखता था, जो शायद माईसिड्स का मार्गदर्शन करता है। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि वास्तव में प्रत्येक खोह को उसकी अनूठी ‘गंध’ किस चीज़ से मिलती है। शोधकर्ताओं का मत है कि शायद खोहों में रहने वाले स्पंज द्वारा छोड़े गए यौगिकों की इसमें कुछ भूमिका हो सकती है।

एक समुद्री पारिस्थितिकीविद फर्नांडो काल्डेरोन गुटिरेज़ का मत है कि “अध्ययन बहुत अच्छी तरह से किया गया है, और बहुत सरल है, जो इस अध्ययन की एक खूबसूरती है।” उनका कहना है कि इसी तरह के प्रयोगों से यह पता लगाने में मदद मिल सकती है कि क्या अन्य जीव भी रास्ता खोजने के लिए गंध पर निर्भर हैं?

दूसरी ओर, पेरेज़ को कई खतरों का अंदेशा है। जैसे समुद्री प्रदूषण में वृद्धि और कुछ स्पंज प्रजातियों का खोहों से लुप्त होना वगैरह। ये अंततः समुद्र के रासायनिक परिदृश्य को नुकसान पहुंचा सकते हैं। तब, पेरेज़ को डर है कि, माईसिड्स ‘अथाह समुद्र के अंधकार में खो जाएंगे और अपने घर ढूंढने में असमर्थ हो जाएंगे।’ (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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