स्मृति ह्रास से कैसे निपटें – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

स्सी की उम्र पार कर गए मुझ जैसे कई वरिष्ठ नागरिक अक्सर उन लोगों को भूल जाते हैं जिन्हें वे पहले मिल चुके होते हैं या बहुत अच्छी तरह से जानते थे। अक्सर वे ऐसी स्थिति में हैरान या शर्मिंदा हो जाते हैं जब उनकी मुलाकात ऐसे किसी व्यक्ति से हो जाती है और वे पूछ बैठते हैं कि “अंकल आप कैसे हैं?”, “अंकल, क्या आपको याद है मैं आपके घर आया था?” या, “हैलो मेरे दोस्त, कितने अरसे बाद मिले हो; कैसे हो तुम?”

इस प्रकार के अस्थायी ब्लैकआउट आम बात हैं। इस बारे में मेरे युवा सहकर्मी डॉ. दुर्गादास कस्बेकर ने कुछ प्रासंगिक और मज़ेदार उद्धरण सुनाए।

उनमें से एक सर नॉर्मन विसडम का है, जो लिखते हैं: “जैसे-जैसे आप बूढ़े होते हैं, तीन चीज़ें घटित होती हैं। पहली कि आपकी याददाश्त जाने लगती है, और बाकी दो मुझे याद नहीं हैं।”

ऐसा ही कुछ अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने भी लिखा था: “मैं जितना बूढ़ा होता जाता हूं, उतने ही अच्छे से मुझे वे चीज़ें याद रहती हैं (या याद आती हैं) जो पहले कभी हुई ही नहीं थीं!

विपरीत स्थिति

इसके एकदम विपरीत कई बहुत बूढ़े व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिन्हें अपने जीवन में घटी हर घटना और हर वह शख्स याद रहता है जिससे वे मिले थे। इसका एक बेहतरीन उदाहरण डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन हैं, जिनका हाल ही में 98 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने अपने प्रयासों से 50 वर्षों के भीतर भारत को खाद्य-आयात करने वाले देश से खाद्य-निर्यात करने वाले देश में बदल दिया। डॉ. स्वामीनाथन की स्मृति अद्भुत थी, उन्हें लोग और घटनाएं बहुत अच्छे से याद रहती थीं। निश्चित ही वे नॉर्मन विसडम और मार्क ट्वेन के कथनों के जवाब थे!

ऐसी ही एक और मिसाल बेहतरीन क्रिकेट खिलाड़ी सी. डी. गोपीनाथ की है, जिन्होंने 1951-52 में क्रिकेट में पदार्पण किया था और अब वे 93 वर्ष के हैं।

लेकिन प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक इतना खुशनसीब नहीं होता। तो हम भूलने की बीमारी से कैसे निपट सकते हैं? कुछ युक्तियां इस नए कौशल को सीखने में उपयोगी हो सकती हैं; नियमित दिनचर्या अपनाएं; कार्यों की योजना बनाएं, कामों की सूची बनाएं, और कैलेंडर एवं नोट्स जैसे मेमोरी टूल का उपयोग करें; अपना बटुआ, चाबियां, फोन और चश्मा हर दिन नियत जगह पर ही रखें; ऐसी गतिविधियां करें जिनमें दिमाग और शरीर दोनों व्यस्त रहते हैं; स्मृति ह्रास से निपटने के लिए अपने समुदाय में कोई काम स्वैच्छिक तौर पर करें – जैसे किसी स्कूल में या किसी इबादतगाह में; परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताएं; पर्याप्त नींद लें – सामान्यत: हर रात सात-आठ घंटे की; व्यायाम करें और अच्छा खाएं; उच्च रक्तचाप से बचें या नियंत्रित रखें; शराब पीने से बचें या कम कर दें; और यदि आप लगातार कई हफ्तों से मायूसी (अवसाद) महसूस कर रहे हैं तो डॉक्टर से परामर्श लें। व्यक्तिगत रूप से, मैंने इन सभी युक्तियों को अपनाने का प्रयास किया है, और इन्हें बहुत उपयोगी पाया है।

स्मृति ह्रास को धीमा करने और दिमाग को चुस्त और सक्रिय रखने के अन्य विभिन्न तरीके क्या हैं? आश्चर्य होगा कि आज के कंप्यूटर वीडियो गेम के ज़माने में स्मृति ह्रास को धीमा रखने के मामले में वर्ग पहेली ने कंप्यूटर गेम्स को मात दे दी है। यह रिपोर्ट कोलंबिया युनिवर्सिटी के डॉ. डी. पी. देवानंद और ड्यूक युनिवर्सिटी के मुरली दोरईस्वामी द्वारा हाल ही में 107 लोगों के साथ किए गए एक कंट्रोलशुदा रैंडम परीक्षण की है।

व्यक्तिगत तौर पर, मुझे वर्ग पहेलियां भरना, पांच, छह और सात अक्षरों के गड्ड-मड्ड मिश्रण से सार्थक शब्द बनाना (sufmao से famous) और सुडोकू हल करना बहुत उपयोगी लगता है। अन्य वरिष्ठ नागरिक अखबारों में छपे ऐसे और अन्य तरह के खेल, पहेलियां आज़मा सकते हैं। तो, मेरे बुज़ुर्ग मित्रों, स्मृति ह्रास को धीमा करने के लिए उपरोक्त सभी 11 युक्तियां अपनाएं और जो पहेलियां हल करना पसंद हो उन्हें हल करें!(स्रोत फीचर्स)

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इस लेख में पहेलियां हल करने का सुझाव दिया गया है। ऐसी ही एक पहेली सुडोकु है। करके देखिए। नियम तो आपको पता ही होंगे – हरेक छोटे चौखाने में 1 से 9 तक के अंक भरने हैं, लेकिन प्रत्येक आड़ी और खड़ी पंक्ति और प्रत्येक बड़े चौखाने में कोई अंक दोहराया नहीं जाएगा।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वर्ष 2024 में विज्ञान से अपेक्षाएं – ज़ुबैर सिद्दिकी

वर्ष 2024 विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में अभूतपूर्व विकास देखने के लिए तैयार है। उन्नत एआई, चंद्रमा मिशन और अल्ट्राफास्ट सुपर कंप्यूटर इस वर्ष के अनुसंधान को एक नया आकार देने वाले प्रमुख अनुसंधान होंगे। इस वर्ष अपेक्षित प्रमुख घटनाओं की एक झलक…

कृत्रिम बुद्धि (एआई)

वर्ष 2023 में चैटजीपीटी के विकास का विज्ञान पर गहरा प्रभाव पड़ा है। ओपनएआई द्वारा निर्मित इस एआई चैटबॉट का सबसे उन्नत मॉडल वर्तमान में जीपीटी-4 है और इस वर्ष के अंत तक अधिक उन्नत जीपीटी-5 जारी होने की उम्मीद है। इसके अलावा, जीपीटी-4 के गूगल द्वारा विकसित प्रतिस्पर्धी जेमिनी के रोल-आउट की भी उम्मीद है। यह विशाल भाषा मॉडल टेक्स्ट, कंप्यूटर कोड, चित्र, ऑडियो और वीडियो सहित कई प्रकार के इनपुट को संसाधित करने में सक्षम है।

इसी वर्ष गूगल डीपमाइंड के एआई टूल अल्फाफोल्ड का एक नया संस्करण भी जारी होने की अपेक्षा है; अल्फाफोल्ड का उपयोग शोधकर्ता प्रोटीन के 3डी आकार का अनुमान लगाने के लिए कर चुके हैं। यह एआई तकनीक परमाणु स्तर पर प्रोटीन, न्यूक्लिक एसिड और अन्य अणुओं के बीच परस्पर सम्बंध का मॉडलिंग करने में सक्षम होगा। हालांकि, इसमें एक बड़ा सवाल नियामक चिंताओं से जुड़ा है। कृत्रिम बुद्धि पर संयुक्त राष्ट्र की उच्च-स्तरीय सलाहकार संस्था 2024 के मध्य में अपनी अंतिम रिपोर्ट साझा करेगी, जिसमें एआई के अंतर्राष्ट्रीय विनियमन के लिए दिशानिर्देश दिए जाएंगे।

ब्रह्मांड पर नज़र

ब्रह्मांड की खोज जारी रखते हुए चिली स्थित वेरा सी. रुबिन वेधशाला 2024 के अंत तक संचालन शुरू करने के लिए तैयार है। 8.4 मीटर की दूरबीन और 3200 मेगापिक्सल के शक्तिशाली कैमरे से लैस होकर वैज्ञानिक दक्षिणी गोलार्ध के आकाश का अपना नियोजित दस-वर्षीय सर्वेक्षण समय से पूर्व शुरू कर पाएंगे। उन्हें नई क्षणिक घटनाओं को उजागर करने और पृथ्वी के निकट क्षुद्रग्रहों की पहचान करने की उम्मीद है।

इसके साथ ही, 2024 के मध्य में चिली के अटाकामा रेगिस्तान स्थित साइमंस वेधशाला के पूरा होने की भी संभावना है। इसका उद्देश्य ब्रह्मांडीय माइक्रोवेव पृष्ठभूमि में बिग बैंग के अवशेषों यानी आदिम गुरुत्वाकर्षण तरंगों की उपस्थिति का पता लगाना है। 50,000 प्रकाश-संग्राहक डिटेक्टरों से सुसज्जित और मौजूदा परियोजनाओं से दस गुना अधिक उन्नत यह वेधशाला ब्रह्मांड के शुरुआती क्षणों की महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करने में सक्षम है।

अलबत्ता, खगोलविद कृत्रिम चमकदार उपग्रहों की बढ़ती भीड़ से चिंतित हैं जो रात के आकाश में प्रकाश प्रदूषण फैलाकर ज़मीन-आधारित टेलीस्कोप डैटा को अनुपयोगी बना सकते हैं।

हथियारबंद मच्छर

विश्व मच्छर कार्यक्रम इस वर्ष ब्राज़ील स्थित एक फैक्टरी में रोग से लड़ने वाले मच्छरों का उत्पादन शुरू करेगा। इन मच्छरों को एक ऐसे बैक्टीरिया स्ट्रेन से संक्रमित किया जाएगा जो उन्हें रोगजनक वायरसों को फैलाने से रोकता है। उम्मीद है कि इस तकनीक से 7 करोड़ लोगों को डेंगू और ज़ीका जैसी बीमारियों से बचाया सकेगा। यह गैर-मुनाफा संगठन अगले कुछ दशकों मे प्रति वर्ष पांच अरब बैक्टीरिया-संक्रमित मच्छरों का उत्पादन करेगा।

महामारी से आगे

कोविड-19 संकट के बाद से अमेरिकी सरकार तीन उन्नत टीकों के परीक्षणों में निवेश कर रही है। इनमें से दो श्वसन मार्ग आधारित टीके हैं जिनका उद्देश्य श्वसन मार्ग के ऊतकों में प्रतिरक्षा उत्पन्न करके संक्रमण को रोकना है, जबकि तीसरा एमआरएनए वैक्सीन है जो एंटीबॉडी और टी-सेल प्रतिक्रियाओं को बढ़ाते हुए संभवत: सार्स-कोव-2 वेरिएंट की एक विस्तृत शृंखला के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करेगा।

इसके साथ ही, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) मई में 77वीं विश्व स्वास्थ्य सभा के दौरान एक महामारी संधि के अंतिम मसौदे का खुलासा करने जा रहा है। इस संधि का उद्देश्य भविष्य में महामारी की रोकथाम और प्रबंधन के लिए वैश्विक स्तर पर सरकारों को बेहतर ढंग से तैयार करना है। डब्ल्यूएचओ के 194 सदस्य देशों द्वारा इस समझौते की शर्तों को निर्धारित किया जाएगा जिसमें इस बात पर भी चर्चा होगी कि क्या इसका कोई प्रावधान कानूनी रूप से बाध्यकारी होगा। इस बातचीत में टीके, डैटा और विशेषज्ञता सहित आवश्यक उपकरणों तक उचित पहुंच सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा जो भविष्य की महामारी को रोकने के लिए महत्वपूर्ण है।

चंद्रमा मिशन

इस वर्ष नासा एक महत्वपूर्ण मानव युक्त चंद्र मिशन, आर्टेमिस-II पर काम कर रहा है। 1970 के दशक के बाद यह नासा का पहला चंद्र मिशन है जिसमें चालक दल भेजा जाएगा। तीन पुरुषों और एक महिला चालक दल वाले इस दस-दिवसीय मिशन को नवंबर में लॉन्च करने की उम्मीद है। यह एक फ्लायबाय मिशन होगा यानी यह चांद का चक्कर लगाकर लौट आएगा। यह आर्टेमिस-III के लिए आधार तैयार करेगा। गौरतलब है कि आर्टेमिस-III का लक्ष्य चांद की सतह पर पहली महिला और उसके बाद दूसरे पुरुष को उतारना है। इसी दौरान, चीन चांग’ई-6 चंद्र मिशन के लिए तैयारी कर रहा है, जिसका लक्ष्य चंद्रमा के दूरस्थ हिस्से से नमूने एकत्र करना है।

इसके अलावा बाहरी सौर मंडल के चंद्रमाओं की खोजबीन के भी आसार हैं। इसमें नासा का क्लिपर क्राफ्ट अक्टूबर में बृहस्पति के चंद्रमा युरोपा के लिए एक मिशन की तैयारी कर रहा है। इसका उद्देश्य युरोपा के भूमिगत समंदर में जीवन की संभावना की तलाश करना है। इसके अलावा, 2024 के लिए प्रस्तावित जापान का मार्शियन मून्स एक्सप्लोरेशन (एमएमएक्स) मिशन, मंगल के चंद्रमाओं फोबोस और डेमोस की पड़ताल करेगा। मिशन की योजना फोबोस की सतह के नमूने एकत्र करके 2029 तक पृथ्वी पर वापस लौटना है।

डार्क मैटर का रहस्य

उम्मीद है कि इस वर्ष सूर्य द्वारा उत्सर्जित रहस्यमयी डार्क-मैटर कण, एक्सियॉन का पता लगाने के उद्देश्य से किए गए प्रयोग के परिणाम सामने आ सकते हैं। डार्क मैटर को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण एक्सियॉन का निरीक्षण अब तक उसके छोटे आकार तथा संवेदनशील उपकरणों और एक मज़बूत चुंबकीय क्षेत्र के अभाव के चलते नहीं हो पाया है। इसके लिए हैम्बर्ग स्थित जर्मन इलेक्ट्रॉन सिंक्रोट्रॉन में प्रतिदिन 12 घंटे तक सूर्य के केंद्र को ट्रैक करने के लिए एक सौर दूरबीन में 10 मीटर लंबे चुंबक और अति-संवेदनशील, शोर-मुक्त एक्स-रे डिटेक्टरों का उपयोग किया जाता है ताकि एक्सियॉन के फोटॉन में रूपांतरण को देखा जा सके।

इसके अतिरिक्त, 2024 में कण भौतिकी के स्टैण्डर्ड मॉडल में सबसे रहस्यमय कण न्यूट्रिनो का द्रव्यमान ज्ञात करने में सफलता मिल सकती है। 2022 में कार्लस्रुहे ट्रिटियम न्यूट्रिनो प्रयोग से न्यूट्रिनो का द्रव्यमान अधिकतम 0.8 इलेक्ट्रॉन वोल्ट आंका गया था। शोधकर्ताओं की अपेक्षा है कि 2024 में डैटा संग्रह का कार्य पूरा करके न्यूट्रिनो के द्रव्यमान के एक निश्चित मान का निर्धारण किया जा सकेगा।

चेतना की बहस: दूसरा दौर

इस वर्ष चेतना की तंत्रिका उत्पत्ति पर नई जानकारी मिलने की उम्मीद है। उम्मीद है कि कुछ परस्पर विपरीत प्रयोगों के माध्यम से चेतना के दो सिद्धांतों (दर्शन बनाम तंत्रिका विज्ञान) का परीक्षण करने वाली एक परियोजना के दूसरे चरण के परिणाम 2024 के अंत तक सामने आ सकते हैं। प्रथम दौर में दोनों सिद्धांत पूरी तरह से मस्तिष्क-इमेजिंग डैटा की व्याख्या करने में विफल रहे थे। इसके चलते, इन दो सिद्धांतों के बीच 25 वर्ष पुरानी एक शर्त दर्शनशास्त्र के पक्ष में झुक गई थी। हो सकता है कि दूसरा दौर तंत्रिका विज्ञान को व्यक्तिपरक अनुभव के रहस्यों को उजागर करने के करीब ले आए।

ग्रह संरक्षण

इस वर्ष उत्तरार्ध में हेग स्थित अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय जलवायु परिवर्तन सम्बंधी राष्ट्रों के कानूनी दायित्वों पर अपनी राय दे सकता है और जलवायु को नुकसान पहुंचाने वालों के लिए परिणामों पर भी फैसला दे सकता है। हालांकि, यह फैसला कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं होगा, लेकिन अदालत की साख देशों को अपने जलवायु सम्बंधी लक्ष्यों को सुदृढ़ करने का दबाव बना सकती है और घरेलू स्तर पर कानूनी कार्रवाई में इसका हवाला दिया सकेगा।

प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समझौते के लिए संयुक्त राष्ट्र प्लास्टिक संधि की बातचीत इस वर्ष पूरी होने की उम्मीद है। शोधकर्ताओं के बीच इस बात को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं कि पिछले साल शुरू हुई संयुक्त राष्ट्र की ये वार्ताएं बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रही हैं। गौरतलब है कि पूरा विश्व 7 अरब टन से अधिक प्लास्टिक कचरे से जूझ रहा है जिसके कारण महासागरों और वन्यजीवों को काफी नुकसान हो रहा है।

सुपरफास्ट सुपरकंप्यूटर्स

इस वर्ष की शुरुआत में शोधकर्ता युरोप के पहले एक्सास्केल सुपरकंप्यूटर जूपिटर का उपयोग शुरू कर सकते हैं। यह विशाल मशीन प्रत्येक सेकंड एक क्विंटिलियन (एक अरब अरब) गणनाएं करने में सक्षम है। इसका उपयोग चिकित्सा उद्देश्यों के लिए मानव हृदय और मस्तिष्क के डिजिटल जुड़वां मॉडल बनाने और पृथ्वी की जलवायु की उच्च-विभेदन अनुकृतियों चलाने के लिए किया जाएगा।

यूएस के शोधकर्ता भी दो एक्सास्केल मशीनें स्थापित करेंगे: ऑरोरा, और एल कैपिटन। ऑरोरा का उपयोग मस्तिष्क के तंत्रिका सर्किट के मानचित्रण के लिए किया जाएगा जबकि एल कैपिटन का उपयोग परमाणु हथियार विस्फोटों के प्रभावों की अनुकृति तैयार करने के लिए किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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उम्मीद से भी अधिक गर्म रहा पिछला वर्ष

पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ते हुए वर्ष 2023 अब तक का सबसे गर्म साल रहा है। कॉपरनिकस जलवायु परिवर्तन सर्विस की हालिया रिपोर्ट में औसत सतही तापमान में लगभग 0.2 डिग्री सेल्सियस की अतिरिक्त वृद्धि दर्ज की गई है। 2023 का तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.48 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह झुलसा देने वाली गर्मी उस जलवायु से चिंताजनक प्रस्थान का संकेत देती है जिसमें हमारी सभ्यता विकसित हुई।

यह तो स्थापित है कि इस दीर्घकालिक वार्मिंग के प्रमुख दोषी जीवाश्म ईंधन हैं। लेकिन 2023 में हुई अतिरिक्त वृद्धि से वैज्ञानिक असमंजस में हैं। इस अतिरिक्त वृद्धि को मात्र जीवाश्म ईंधन दहन के आधार पर नहीं समझा जा सकता।

लगता है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि का एक कारक दो जलवायु पैटर्न के बीच अंतर है। 2020 से 2022 तक ला-नीना जलवायु पैटर्न रहा। इसके तहत प्रशांत महासागर की गहराइयों का ठंडा पानी सतह पर आ जाता है और वातावरण को ठंडा रखता है। लेकिन 2023 में ला नीना समाप्त हो गया और उसके स्थान पर एक अन्य पैटर्न एल नीनो प्रभावी हो गया जिसने प्रशांत महासागर पर गर्म पानी की चादर फैला दी और वातावरण गर्म होने लगा। आम तौर पर एल नीनो अपनी शुरुआत के एक वर्ष बाद वैश्विक तापमान पर असर दिखाता है। लेकिन इस बार 2023 में एल नीनो शुरू हुआ और इसी वर्ष असर दिखाने लगा। और तो और, प्रभाव एल नीनो क्षेत्र से दूर तक हुआ है – उत्तरी अटलांटिक और प्रशांत महासागरों से ऊपर तक।

2022 में हुए हुंगा टोंगा-हुंगा हपाई ज्वालामुखी विस्फोट को तापमान में वृद्धि का प्रमुख ज़िम्मेदार माना जा रहा था। यह दक्षिणी प्रशांत क्षेत्र में स्थित है। यह माना गया था कि इस विस्फोट ने समताप मंडल में भारी मात्रा में जलवाष्प छोड़ी जिसकी वजह से वातावरण गर्म हुआ। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि विस्फोट के साथ सल्फेट कण भी बिखरे होंगे और इन कणों ने प्रकाश को परावर्तित कर दिया होगा जिसके चलते वातावरण ठंडा हुआ होगा। गणनाओं के अनुसार इन सल्फेट कणों ने जलवाष्प द्वारा उत्पन्न वार्मिंग प्रभाव को काफी हद तक कम किया होगा। गणनाएं यह भी बताती हैं कि इन दो विपरीत घटनाओं के प्रभाव के चलते यह विस्फोट तापमान वृद्धि की दृष्टि से उदासीन ही रहा होगा।

2023 में अतिरिक्त तापमान वृद्धि की सर्वोत्तम व्याख्या शायद यह है कि वातावरण में प्रकाश अवरोधी प्रदूषण का स्तर कम हो गया है। इसका प्रमुख कारण स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों का बढ़ता उपयोग है।

नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर के वायुमंडलीय भौतिक विज्ञानी तियानले युआन के अनुसार प्रदूषण में कमी, विशेषत: जहाजों द्वारा उत्सर्जित सल्फर कणों में कमी, ने अनजाने में प्रकाश को वापिस अंतरिक्ष में परावर्तित करने वाले बादलों को कम किया है। उपग्रह अवलोकनों से पता चला है कि 2022 के बाद से इन बादलों में कमी आई है। सिर्फ इन बादलों का कम होना पिछले दशक में हुई तापमान वृद्धि का महत्वपूर्ण कारण हो सकता है।

प्रसिद्ध जलवायु वैज्ञानिक जेम्स हेन्सन द्वारा नवंबर 2023 में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार प्रदूषण में कमी से तापमान में 0.27 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की वृद्धि हुई है, जबकि 1970 और 2010 के बीच प्रति दशक वृद्धि 0.18 डिग्री सेल्सियस ही रही थी। यह वृद्धि अभी तक गहरे समुद्र के तापमान में नहीं देखी गई है। इसकी मदद से दीर्घकालिक रुझानों की अधिक सटीक जानकारी मिल सकती है।

बहरहाल, पिछले वर्ष की इन गुत्थियों ने भविष्य के अनुमानों पर अनिश्चितता पैदा की है। इसके साथ ही एल नीनो अस्थायी रूप से वैश्विक तापमान को पेरिस समझौते में निर्धारित 1.5 डिग्री सेल्सियस से आगे बढ़ा सकता है। लेकिन इस इन्तहाई गर्मी का उत्तरी महासागरों के तापमान में वृद्धि का रूप लेने में समय लगेगा और तभी पूरे विश्व के स्तर पर पेरिस सीमा का उल्लंघन होगा। फिर भी, दीर्घकालिक वार्मिंग पैटर्न की निरंतरता तब तक जारी रहेगी जब तक जीवाश्म ईंधन जलाना बंद नहीं हो जाता। यह निष्कर्ष कार्रवाई की ज़रूरत का आह्वान है। (स्रोत फीचर्स)

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कीटों से प्रेरित आधुनिक जलीय रोबोटिक्स




व्हर्लिगिग बीटल

प्रकृति से प्रेरणा लेते हुए वैज्ञानिकों द्वारा पानी पर तैरने वाले कीटों की अद्भुत क्षमताओं का उपयोग अब उन्नत जलीय रोबोट विकसित करने में किया जा रहा है। रिपल बग और व्हर्लिगिग बीटल नामक दो प्रजातियों की पानी पर अनोखी चपलता और गति ने एक जलीय रोबोट की एक नई तकनीक की प्रेरणा दी है।

इस खोज के लिए युनिवर्सिटी ऑफ मैन के जीवविज्ञानी विक्टर ओर्टेगा जिमेनेज़ ने रैगोवेलिया वॉटर स्ट्राइडर्स, जिसे रिपल बग भी कहा जाता है, की चाल-ढाल को समझने का प्रयास किया। जब ये छोटे कीट पानी की सतह पर तेज़ी से गुज़रते हैं तो पक्षियों जैसे प्रतीत होते हैं और इतनी तेज़ रफ्तार से मुड़ते हैं मानो हवा में उड़ रहे हों। जांच से पता चला कि कीट की बीच वाली टांगों के सिरों पर पंखे होते हैं। मुड़ते समय ये कीट अपने शरीर के एक तरफ के पंखे फैलाते हैं, जिससे शरीर के एक ओर रुकावट पैदा होती है जबकि दूसरी ओर की टांगें सामान्य ढंग से फिसलती रहती हैं। इस स्थिति में ये 50 मिलीसेकंड से भी कम समय में तेज़ी से 180° मुड़ जाते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान वे न्यूनतम ऊर्जा खर्च करते हुए लंबे समय तक ज़िगज़ैग मार्ग अपनाकर आगे बढ़ते हैं।

यह काफी आश्चर्य की बात है कि जब शोधकर्ताओं ने मृत स्ट्राइडर्स को पानी में डाला, तब भी उनके पंखे खुले क्योंकि उनके पैर सतह से नीचे डूबे थे। इससे यह पता चलता है कि पंखे खोलने के लिए मांसपेशियों की आवश्यकता नहीं होती है। इस तरह मुड़ने के लिए रिपल बग को केवल अपने शरीर को थोड़ा एक ओर झुकाने की ज़रूरत होती है, जिससे पंखे डूबकर खुल जाते हैं और एक तरफ रुकावट बढ़ जाती है।

रिपल बग

एजू विश्वविद्यालय के मेकेनिकल इंजीनियर किम डोंगजिन ने जिमेनेज़ के साथ मिलकर एक रैगो-बॉट का निर्माण किया जो रिपल बग की नकल करता है। हालांकि, इस रोबोट ने शांत पानी में काफी अच्छा प्रदर्शन किया है लेकिन व्यापक रोबोटिक अनुप्रयोगों के लिए जटिल पंखे तैयार करना चुनौतीपूर्ण है।

इसी प्रकार के एक अन्य अध्ययन में, कॉर्नेल युनिवर्सिटी के इंजीनियर क्रिस रोह ने एक छोटे कीट व्हर्लिगिग बीटल की जलीय कलाबाज़ियों का पता लगाया। इन प्राणियों ने प्रति सेकंड अपने शरीर से 100 गुना दूरी तेज़ गति से तय की। पूर्व धारणाओं के विपरीत, शोधदल ने पाया कि कीट ने यह गति पानी के माध्यम से अपने पैरों को पतवार की तरह सीधे पीछे धकेलकर नहीं बल्कि अपने पैरों को नीचे की ओर तथा शरीर के आर-पार ले जाकर हासिल की है। इस अनूठी गति ने हेलीकॉप्टर ब्लेड के समान एक लिफ्ट बल उत्पन्न किया, जिसने बीटल की गति में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

पानी में भंवर बनाने में व्हर्लिगिग बीटल और रिपल बग के बीच समानताओं को देखते हुए जिमेनेज़ ने बीटल की गति में लिफ्ट की भूमिका को निर्धारित करने के लिए द्रव गतिकी में अधिक गहन जांच की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है।

ये अध्ययन जलीय रोबोटिक्स के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकते हैं। और जीव विज्ञानियों, भौतिकविदों और इंजीनियरों के बीच सहयोग बायोमिमिक्री को सशक्त करेगा, जिसमें प्रकृति के जटिल तंत्र नवीन टेक्नॉलॉजीगत समाधानों की प्रेरणा बनते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जंगली खाद्य पदार्थों का सेवन – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

जकल जैव विविधता की अवधारणा पर बहुत जोर दिया जाता है। अधिकांश सरकारों के नीतिगत ढांचे में जैव विविधता के संरक्षण के महत्व को स्वीकार किया गया है। लेकिन विडंबना यह है कि विश्व भर के लोगों के भोजन में विविधता बेहद कम हो गई है। हम अपने कुल कैलोरी सेवन का 50 प्रतिशत से अधिक हिस्सा चावल, गेहूं, मक्का और चीनी से लेते हैं।

हमारे सुपरमार्केट के ताज़ा सब्ज़ियों वाले हिस्सों में भी यह प्रवृत्ति झलकती है, जहां हमेशा वही दो-चार तरह की सब्ज़ियां रखी होती हैं।

‘आहार विविधता’ में यह कमी हमारे आहार की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। कई अलग-अलग खाद्य समूहों से चुनकर भोजन करने से अच्छा पोषण मिलता है। लेकिन मोनोकल्चर खेती करने – भूमि के बड़े हिस्से पर एक ही तरह की फसल या सब्ज़ी उगाने – से न केवल ‘कृषि जैव विविधता’ कम होती है बल्कि दूसरे खाद्य विकल्पों की उपलब्धता के लिए दूर-दराज के क्षेत्रों से खाद्यान्नों को मंगाना उनकी कीमत बढ़ाता है और पर्यावरण पर भारी पड़ता है।

तरहतरह की किस्में

छोटी जोत वाले किसान, चारागाह पर चरवाहे और कृषि वानिकी करने वाले आदिवासी हमारे देश की पोषण विविधता में प्रमुख योगदान देते हैं। जब हम स्थानीय किस्मों की बात करते हैं, तो हम आम तौर पर उन सब्ज़ियों और फसलों के पैदावार की बात कर रहे होते हैं जो इन लोगों द्वारा छोटे पैमाने पर उगाई जाती हैं। क्षेत्र-दर-क्षेत्र इनका चुनाव काफी अलग-अलग और निराला हो सकता है। दक्षिण भारत में, हम हरी पत्तेदार सब्ज़ियां उगाते हैं जो आयरन और कैल्शियम से भरपूर होती हैं; जैसे जंगली चौलई (तमिल में कुप्पी कीराई) और ल्यूकस (तमिल में थंबई; संस्कृत में द्रोण पुष्पी)। कुछ मंडयुक्त कंद उगाते हैं, जैसे त्योखर या पूर्वी भारतीय अरारोट (तमिल में कुवा), जिनके कंद का पावडर पौष्टिक होता है और विशेष रूप से पेट के लिए अच्छा होता है।

हर जगह मिलने वाला विटामिन सी का भंडार भारतीय आंवला (तमिल में नेल्ली) है। मध्य भारत में, महुआ (तमिल में इलुपाई) होता है जिसके फूल खाने योग्य होते हैं, और बीजों से तेल निकाला जा सकता है। राजस्थान के राज्य वृक्ष खेजड़ी (तमिल में परंबई) से खाने योग्य फलियां मिलती हैं जिनसे स्वादिष्ट सिघरी भाजी बनती है, साथ ही यह वृक्ष मरुस्थलीकरण को भी रोकता है। हम सभी की शायद कोई न कोई ‘जंगली’ सब्ज़ी, फल, बेरी या कंद पसंद होगा, जो बहुत कम मिलता है।

झूम खेती

पूर्वोत्तर भारत के स्थानीय लोग झूम खेती करते थे, जिसमें भूमि के एक ही हिस्से पर लगभग 20 अलग-अलग तरह की खाद्य फसलें उगाई जाती थीं। खेती का यह रूप आधुनिक कृषि पद्धतियों के सर्वथा विपरीत है, लेकिन उनके आहार में काफी विविधता प्रदान करता है। अफसोस की बात है कि खेती का यह रूप अपनी जड़़ें छोड़ता जा रहा है। अरुणाचल प्रदेश के पासीघाट में केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने वर्ष 2022 में फूड सिक्योरिटी पत्रिका में बताया है कि अकेले पश्चिमी गारो ज़िले में झूम खेती का क्षेत्र वर्ष 2000 में 1328 वर्ग कि.मी. था जो घटकर मात्र 112 वर्ग कि.मी. रह गया था। 2015 में सुपारी, काली मिर्च और रबर इस भूमि पर पसंदीदा फसलें बन गईं थी।

उपभोक्ता और उनके खाने की पसंद विभिन्न प्रकार की जंगली किस्मों की उपलब्धता को प्रभावित करते हैं। कवीट या केथा और जामुन को अपने आहार में शामिल करने से आपके पोषण आहार की गुणवत्ता में तो वृद्धि होगी ही, साथ ही साथ छोटे उत्पादकों को मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पारदर्शी लकड़ी की मज़बूती

तीन दशक पूर्व एक जर्मन वनस्पतिशास्त्री सिगफ्राइड फिंक ने पौधों के प्राकृतिक स्वरूप को बाधित किए बिना उनकी आंतरिक कार्यप्रणाली का निरीक्षण करने की एक सरल इच्छा के साथ काम शुरू किया था। इसके लिए उन्होंने पौधों की कोशिकाओं के रंजक को ब्लीच करके पारदर्शी लकड़ी बनाई थी। अलबत्ता, उनकी यह खोज काफी समय तक अनदेखी रही। हाल ही में स्वीडन स्थित केटीएच रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के पदार्थ विज्ञानी लार्स बर्गलुंड इस अध्ययन को एक बार फिर चर्चा में लाए हैं।

फिंक के अध्ययन से प्रेरित बर्गलुंड ने वनस्पति शास्त्र के परे इसे पारदर्शी प्लास्टिक के एक अधिक मज़बूत विकल्प के रूप में देखा। वहीं, मैरीलैंड विश्वविद्यालय के शोधकर्ता भी काफी समय से लकड़ी की शक्ति का उपयोग अपरंपरागत उपयोगों के लिए करने का प्रयास करते रहे थे।

इन दोनों समूहों द्वारा कई वर्षों के प्रयोगों से अब कुछ रोमांचक संभावनाएं उत्पन्न हो रही हैं। और इसमें अत्यंत-मज़बूत स्मार्टफोन स्क्रीन से लेकर नरम, चमकदार प्रकाश उपकरण और रंग बदलने वाली खिड़कियां बनाने की संभावना दिख रही है।

पारदर्शी लकड़ी के निर्माण में काष्‍ठ अपद्रव्य को संशोधित किया जाता है। यह गोंदनुमा पदार्थ लकड़ी की कोशिकाओं को एक साथ जोड़े रखता है। इस पदार्थ को हटाने या ब्लीच करने से खोखली कोशिकाओं का एक दूधिया-सफेद ढांचा बना रहता है। इस परिणामी ढांचे की कोशिका दीवारों और खाली जगहों से हुए प्रकाश अपवर्तन में फर्क के कारण यह अपारदर्शी रहता है। इन खाली जगहों में एपॉक्सी रेज़िन जैसे पदार्थ डालने से लकड़ी पारदर्शी हो जाती है।

इससे प्राप्त एक मिलीमीटर से लेकर एक सेंटीमीटर से भी कम पतला उत्पाद मधुमक्खी के छत्ते जैसे एक मज़बूत ढांचे का निर्माण करता है। इसमें लकड़ी के छोटे फाइबर की मज़बूती सबसे बेहतरीन कार्बन फाइबर से भी अधिक होती है। इस पर किए गए परीक्षणों से पता चला है कि रेज़िन के मिश्रण से पारदर्शी लकड़ी प्लास्टिक और कांच से बेहतर प्रदर्शन करती है। इसमें प्लेक्सीग्लास की तुलना में तीन गुना अधिक ताकत और कांच की तुलना में दस गुना अधिक कठोरता होती है।

अलबत्ता, मोटाई बढ़ने पर पारदर्शिता कम हो जाती है। इसकी पतली चादरें 80 से 90 प्रतिशत प्रकाश को पार जाने देती हैं जबकि लगभग एक सेंटीमीटर मोटी लकड़ी केवल 40 प्रतिशत प्रकाश को आर-पार जाने देती है।

गौरतलब है कि इस शोध का मुख्य उद्देश्य पारदर्शी लकड़ी के वास्तुशिल्प अनुप्रयोगों पर केंद्रित है जो विशेष रूप से खिड़कियों के लिए उपयोगी माना जा रहा है। इसके साथ ही कांच की तुलना में यह बेहतर इन्सुलेशन दे सकता है। इसके अतिरिक्त, लकड़ी के ऐसे संस्करण कांच की तुलना में ऊष्मा के बेहतर कुचालक भी होते हैं।

हालांकि पारदर्शी लकड़ी की खिड़कियां मज़बूती और बेहतर तापमान नियंत्रण प्रदान करती हैं लेकिन घिसे हुए कांच की तुलना में काफी धुंधली होती हैं। फिर भी यह कम रोशनी चाहने वालों के लिए काफी उपयोगी है। इसके अलावा मोटी लकड़ी की वहन क्षमता को देखते हुए इसे आंशिक भार वहन करने वाले प्रकाश स्रोत के रूप में उपयोग किया जा सकता है। यह कमरे में नैसर्गिक रोशनी प्रदान करने में काफी उपयोगी हो सकती है।

वर्तमान शोध में पारदर्शी लकड़ी की कार्यक्षमता को बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, इस लकड़ी को स्मार्ट खिड़कियों में परिवर्तित किया जा सकता है जो विद्युत प्रवाह देने पर पारदर्शी से रंगीन हो सकती हैं।

पर्यावरण के दृष्टिकोण से यह नई खोज ज़हरीले रसायनों और जीवाश्म-आधारित पॉलीमर को सीमित कर सकती है। हालांकि इस नई खोज के बावजूद वर्तमान विश्लेषणों से संकेत मिलता है कि पारदर्शी लकड़ी की तुलना में कांच का पर्यावरणीय प्रभाव कम होता है। फिलहाल एक टिकाऊ सामग्री के रूप में इसकी क्षमता को देखते हुए, पारदर्शी लकड़ी को बाज़ार में लाने के लिए हरित उत्पादन और बड़े पैमाने पर उत्पादन की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन से कुछ जीव निशाचर बन रहे हैं

लवायु परिवर्तन के कारण कुछ जीवों के व्यवहार में परिवर्तन हो रहा है। निरंतर बढ़ते तापमान की स्थिति में जीवित रहने के लिए वे निशाचर बन रहे हैं। हाल ही में ब्राज़ील के पेंटानल वेटलैंड्स में पाए जाने वाले सफेद होंठ वाले पेकेरी (Tayassu pecari) पर अध्ययन ने यह चौंकाने वाला खुलासा किया है। शोधकर्ताओं के अनुसार आम तौर पर दिन के समय सक्रिय रहने वाला यह जीव अत्यधिक गर्मी के दौरान रात के समय अधिक गतिविधि करता पाया गया है।

बायोट्रॉपिका में प्रकाशित अध्ययन की सहलेखक मिशेला पीटरसन ने जलवायु परिवर्तन से जूझ रही प्रजातियों के लिए अनुकूलन विधि के रूप में इस प्रकार के व्यवहारिक लचीलेपन पर प्रकाश डाला है। अध्ययन से पता चलता है कि लगभग 27 डिग्री सेल्सियस से कम तापमान में पेकेरी दोपहर के समय सबसे अधिक सक्रिय थे। लेकिन जैसे-जैसे तापमान बढ़ा, उनकी गतिविधि सुबह के समय होने लगी, और दिन का तापमान 34 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने पर, उनकी चरम सक्रियता सूर्यास्त के बाद देखी गई।

शोधकर्ताओं ने विशाल एंट-ईटर और चीतों जैसी अन्य प्रजातियों के व्यवहार में भी इसी तरह के बदलाव देखे हैं, जो जीवों के व्यवहार में व्यापक परिवर्तन का संकेत देते हैं। दूसरी ओर, लीडेन विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकी विज्ञानी माइकल वेल्डुई के अनुसार इन परिवर्तनों के दीर्घकालिक प्रभाव पर अभी भी अनिश्चितता है तथा और अधिक शोध की आवश्यकता बनी हुई है।

गौरतलब है कि जीवों का निशाचर व्यवहार दिन की गर्मी से राहत देता है लेकिन यह प्यूमा जैसे निशाचर शिकारियों का शिकार बनने का जोखिम भी पैदा करता है। इसके अतिरिक्त, रात की गतिविधि में परिवर्तन इन जीवों को भोजन स्रोतों का पता लगाने में भी मुश्किल पैदा कर सकता है। हालांकि, शोधकर्ता अभी भी इस व्यवहारिक समायोजन को एक स्थायी बदलाव के रूप में नहीं देख रहे हैं। उनका मानना है कि संभवत: ये जीव अभी भी दिन की गतिविधि को प्राथमिकता दे रहे हों और केवल अत्यधिक गर्मी के दौरान रात में भोजन की तलाश का विकल्प अपना रहे हों।

कुछ विशेषज्ञों का सुझाव है कि दिन के उजाले के आदी जीव संभव होने पर रात की गतिविधि से परहेज़ कर सकते हैं। पेकेरी की सुबह की गतिविधि में प्रारंभिक बदलाव इस ओर संकेत देता है कि वे रात की स्थितियों की तुलना में अधिक उपलब्ध रोशनी के साथ ठंडे तापमान को प्राथमिकता देते हैं।

इस दिशा में चल रहे अध्ययन जलवायु परिवर्तन की स्थिति में जीवों के अनुकूलन की जटिलता पर ज़ोर देते हैं। यह वन्यजीवों के बदलते आवासों में बढ़ते तापमान से निपटने के लिए लचीलापन और संभावित चुनौतियों का भी संकेत देते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन जीवों की त्वचा के रंग की पहचान

ह तो हम जानते हैं कि हर जीव की त्वचा का खास रंग होता है जो उसे कई तरह से मदद करता है। जैसे छिपने, शरीर का तापमान नियंत्रित रखने वगैरह में। वर्तमान जीवों की तरह प्राचीन काल के जीव-जंतु भी तरह-तरह के रंगों के हुआ करते थे – इंद्रधनुषी पंखों वाले डायनासौर से लेकर भक्क काले रंग के स्किवड तक। लेकिन प्रचीन समय के जीवों की त्वचा का रंग भांपना एक बड़ी चुनौती है क्योंकि जीवों की त्वचा, फर और पंखों को रंगने वाले रंजक वगैरह अश्मीभूत होने के दौरान अक्सर नष्ट हो जाते हैं। विशेषज्ञों ने काले और भूरे जैसे गहरे रंगों की बनावट और रंजकों का पता लगाने के तरीके तो ढूंढ लिए हैं लेकिन पीले, लाल, नारंगी जैसे हल्के रंगों को पहचान पाना अब भी एक चुनौती है। ये रंग फिओमेलेनिन के कारण दिखते हैं, जो कि आसानी से पकड़ न आने वाला रंजक है।

हाल ही में नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने एक ऐसे तरीके का वर्णन किया है जो जीवाश्मों की त्वचा में फिओमेलेनिन से बनने वाले अदरक के रंग सरीखे इन रंगों को पहचानने में मदद कर सकता है।

देखा जाए तो इन रंगों को पहचानने का यह पहला प्रयास नहीं है। पूर्व में हुए अध्ययनों ने भी जीवाश्मों में फिओमेलेनिन से बनने वाले रंग पहचानने की कोशिश की थी लेकिन उनके परिणाम काफी हद तक अनिर्णायक ही रहे थे। उदाहरण के लिए, वैज्ञानिकों ने बोरीलोपेल्टा डायनासौर के जीवाश्म में लाल रंग की पहचान की थी। लेकिन वे यह भेद नहीं कर पाए थे कि यह जो फिओमेलेनिन उन्हें मिला है वह त्वचा के मूल रंजक का है या डायनासौर की मृत्यु के बाद हुए संदूषण का है।

इस फर्क को पहचानने के लिए युनिवर्सिटी कॉलेज कॉर्क की जीवाश्म विज्ञानी टिफैनी स्लेटर और साथियों ने एक परीक्षण तैयार किया, जो त्वचा, पंखों वगैरह के अदरक सदृश रंगों के मूल रंजक से छूटी छाप और संदूषण के कारण मिले रंजक से छूटी छाप में फर्क कर पाया। उन्होंने जीवों के अश्मीभूत होने के दौरान जैविक यौगिकों के टूटने की प्रक्रिया की नकल करने के लिए विभिन्न आधुनिक पक्षियों के पंखों को ओवन में तपाया। फिर तपाए हुए पंखों का सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन किया और विभिन्न प्रकार के मेलेनिन की पहचान के लिए रासायनिक परीक्षण किए। उन्होंने पाया कि जैविक रंजक जीवाश्मों में एक विशिष्ट एवं पहचानने योग्य छाप छोड़ते हैं। इसके बाद शोधकर्ताओं ने विभिन्न जीवाश्मों पर रंजकों की रासायनिक छाप पहचानने का प्रयास किया, और उन्हें करीब 1 करोड़ वर्ष पुराने एक मेंढक, कन्फ्यूशियसॉर्निस नामक पक्षी और सायनोर्निथोसॉरस डायनासौर में ये रंजक मिले।

उम्मीद है कि अब जीवाश्म की त्वचा के रंगों का अधिक सटीक निर्धारण किया जा सकेगा। मसलन, देखा जा सकेगा कि उड़ने वाले टेरोसौर में कौन से चटख रंग होते थे। आगे के अध्ययन शायद यह भी बता सकेंगे कि फिओमेलेनिन सबसे पहले कैसे और क्यों विकसित हुआ? क्योंकि फिओमेलेनिन के कारण कैंसर होने की संभावना हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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सबसे प्राचीन त्वचा

ह तो हम जानते हैं कि त्वचा से शरीर को तमाम फायदे होते हैं और सुरक्षा मिलती है। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि मृत्यु के बाद त्वचा लंबे समय तक टिकी नहीं रह पाती है और सड़-गल कर नष्ट हो जाती है। इसलिए यह पता कर पाना बड़ा कठिन है कि प्राचीन प्राणियों में त्वचा कैसे विकसित होती गई। खासकर यह सवाल अनसुलझा ही रहा है कि पेलियोज़ोइक एरा में यानी जब जीवों ने पानी से निकलकर भूमि पर रहना शुरू किया तो इस परिवर्तन के लिए उनकी त्वचा में किस तरह के बदलाव आए?

अब, ओक्लाहोमा स्थित रिचर्ड स्पर की चूना पत्थर की गुफाओं में शोधकर्ताओं को एक सरीसृप की त्वचा का एक बारीक टुकड़ा अश्मीभूत अवस्था में मिला है, जो पेलियोज़ोइक युग के अंत के समय का है। इसके विश्लेषण से लगता है कि सरीसृपों की शल्कदार जटिल संरचना वाली त्वचा एक बार विकसित होने के बाद से लगभग वैसी ही है।

यह जीवाश्म इगुआना जितने बड़े और छिपकली सरीखे सरीसृप जीव कैप्टोराइनस एगुटी का है, जो करीब 30 करोड़ वर्ष पुराना है। वैसे तो इन गुफाओं से सी. एगुटी के कई जीवाश्म मिले हैं, किंतु इनमें से अधिकतर जीवाश्म कंकाल रूप में ही हैं। लेकिन एक जीवाश्म में सी. एगुटी की थोड़ी सी बाह्यत्वचा (एपिडर्मिस) भी सलामत रह गई थी। त्वचा के सलामत बचने का कारण महीन अवसादी चट्टान और वहां का कम ऑक्सीजन वाला वातावरण था। यही कारण है कि रिचर्ड्स स्पर की इन गुफाओं में पैलियोज़ोइक युग के तरह-तरह के और अच्छी तरह से संरक्षित जीवाश्म मिलते हैं।

जब युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के एथान मूनी इन जीवाश्मों का अध्ययन कर रहे थे तो उन्हें एक जीवाश्म पर नाखून से भी छोटी और बाल से भी पतली, नाज़ुक सी बहुत सारी कण जैसी संरचनाएं दिखीं। पहले तो लगा कि ये हड्डी के ही हिस्से हैं। लेकिन सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन करने पर पता चला कि वास्तव में यह जीवाश्म तो किसी जीव की त्वचा का है, जिसमें बाह्यत्वचा और उसके नीचे वाली परत सुरक्षित है। त्वचा की बनावट कुछ-कुछ बबल वाली पॉलीथीन की तरह थी – त्वचा दूर-दूर स्थित मुड़े हुए शल्कों जैसी संरचना से बनी थी जिनके बीच में लचीले कब्जे थे, जो वृद्धि और हिलना-डुलना-मुड़ना संभव बनाते हैं।

शोध पत्रिका करंट बायोलॉजी में प्रकाशित त्वचा की संरचना वगैरह के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह त्वचा सी. एगुटी सरीसृप की है। हालांकि अभी वे इस बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं क्योंकि यह त्वचा कंकाल से चिपकी नहीं थी। लेकिन इसकी झुर्रीदार, बबल-पॉलीथीननुमा संरचना को देखकर इतना तो तय है कि यह त्वचा किसी सरीसृप की है। (स्रोत फीचर्स)

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वर्ष 2023 सबसे गर्म साल रहा

हां दिए गए ग्राफ में साफ दिखता है कि वर्ष 2023 में धरती की सतह का औसत तापमान उद्योग पूर्व समय (1850-1900) के औसत तापमान से 1.48 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहा। अर्थात यह पिछले 50 वर्षों में सबसे अधिक गर्म साल रहा है। ये आंकड़े युरोपीय संघ के कॉपरनिकस क्लायमेट चेंज सर्विस द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं। (स्रोत फीचर्स)


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