फिलीपींस में मिली आदिमानव की नई प्रजाति – प्रदीप

हम आधुनिक मानव (होमो सेपिएंस) पिछले दस हज़ार सालों से एकमात्र मानव प्रजाति होने के इस कदर अभ्यस्त हो चुके हैं कि किसी दूसरी मानव प्रजाति के बारे में कल्पना करना भी मुश्किल लगता है। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के आरंभ में मानव वैज्ञानिकों और पुरातत्वविदों ने हमारी इस सोच को बदलते हुए बताया कि वास्तव में सेपिएंस कई मानव प्रजातियों में से महज एक है। आज से तकरीबन एक लाख साल पहले पृथ्वी कम से कम सात होमो प्रजातियों का घर हुआ करती थी। और इस दिशा में खोज की दर इतनी तेज़ है कि साल-दर-साल मानव वंश वृक्ष (फैमिली ट्री) में नए-नए नाम जुड़ते जा रहें हैं। इसी कड़ी में हाल ही में पुरातत्वविदों को उत्तरी फिलीपींस में आदिमानव की एक अलग और नई प्रजाति के अवशेष खोज निकालने में सफलता मिली है।

इस हालिया खोज से यह पता चला है कि जिस समय वर्तमान मानव प्रजाति यानी होमो सेपिएंस अफ्रीका से बाहर निकलकर दक्षिण पूर्व एशिया में फैल रही थी उस वक्त फिलीपींस में एक और मानव प्रजाति मौजूद थी। मानव वैज्ञानिकों को फिलीपींस के लूज़ोन द्वीप में मानव की उस प्रजाति के पुख्ता सबूत मिले हैं। इसके अवशेष लूज़ोन द्वीप में पाए गए हैं इसलिए इस प्रजाति का नाम होमो लूज़ोनेंसिस रखा गया है। मनुष्य के ये दूर के सम्बंधी आज से 50 से 67 हज़ार साल पहले फिलीपींस के इस द्वीप पर रहते थे।

बीते 10 अप्रैल को विज्ञान पत्रिका नेचर में इस खोज का खुलासा किया गया है। नेचर पत्रिका के मुताबिक होमो लूज़ोनेंसिस के अवशेष लूज़ोन के उत्तर में मौजूद कैलाओ गुफा में मिले हैं। ये अवशेष कम से कम तीन लोगों के हैं जिनमें एक युवा है। साल 2007, 2011 और 2015 में ही इस गुफा से सात दांत, पैरों की छह हड्डियां, हाथ और टांग की हड्डियां प्राप्त हुई थीं। अब इस मानव प्रजाति को होमो लूज़ोनेंसिस नाम दिया गया है।

 होमो लूज़ोनेंसिस के अवशेषों में पैरों की उंगलियां भीतर की तरफ मुड़ी हुई हैं, जो इस बात की ओर इशारा करती हैं कि शायद इनके लिए पेड़ों पर चढ़ना एक बेहद ज़रूरी काम हुआ करता था। छोटे दांतों के आधार पर इनके छोटे कद के होने का भी दावा किया जा रहा है। इसकी कुछ विशेषताएं मौजूदा मानव प्रजाति से मिलती हैं (जैसे सीधे खड़े हो कर चलना), जबकि कई विशेषताएं आदि वानरों के एक आरंभिक जीनस ऑस्ट्रलोपीथेकस से मिलती-जुलती हैं जो करीब 20 से 40 लाख साल पहले पूर्वी अफ्रीका में पाए जाते थे। इसलिए अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि आदि मानव के ये सम्बंधी अफ्रीका से जुड़े हो सकते हैं जो बाद में दक्षिण पूर्व एशिया में आ कर बस गए होंगे। गौरतलब है कि इस खोज से पहले ऐसा होना लगभग असंभव माना जा रहा था। इस खोज के बाद अब यह माना जा रहा है कि फिलीपींस और पूर्वी एशिया में मानव प्रजाति का विकास बेहद जटिलता से भरा हो सकता है क्योंकि यहां पहले से ही तीन या उससे ज़्यादा मानव प्रजातियां निवास कर रही थीं। इनमें से एक थे इंडोनेशिया के फ्लोर्स द्वीप के निवासी छोटे कद वाले हॉबिट या होमो फ्लोरसीएंसिस। इनकी ऊंचाई अधिकतम एक मीटर होती थी!

गौरतलब है कि होमो लूज़ोनेंसिस पूर्वी एशिया में उस समय रह रहे थे जब होमो सेपियंस, होमो निएंडरथल्स, डेनिसोवंस और होमो फ्लोरसीएंसिस भी पृथ्वी के अलग अलग हिस्सों में मौजूद थीं। अब तक वैज्ञानिकों का यह मानना था कि मनुष्य जैसी दिखने वाली सबसे पुरानी प्रजाति होमो इरेक्टस अफ्रीका से बाहर निकलकर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में फैली और बाकी मानव प्रजातियां होमो इरेक्टस के क्रमिक विकास की ही देन हैं। इस निष्कर्ष को अब होमो लूज़ोनेंसिस की खोज से चुनौती मिलने लगी है, जो होमो इरेक्टस के वंशज प्रतीत नहीं होते हैं। नेचर पत्रिका में इस खोज के बारे में लिखा गया है कि यह खोज इस बात की सबूत है कि मानवीय विकास एक सीधी रेखा में नहीं हुआ है जैसा कि आम तौर पर समझा जाता रहा है। यह सवाल भी है कि आखिर यह प्रजाति चारों ओर पानी से घिरे लूज़ोन द्वीप पर कैसी पहुंची? अफ्रीका से प्रवास करने वाले आदिमानव के किस वंशज से ये जुड़े हैं? फिलीपींस से मानव की इस प्रजाति के खत्म होने के क्या कारण थे? लेकहेड युनिवर्सिटी के मानव वैज्ञानिक मैथ्यू टोचेरी के मुताबिक, “इससे समझ में आता है कि एशिया में मानव का क्रमिक विकास कितना जटिल और खलबली से भरा हुआ था।” (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फसलों के मित्र पौधे कीटों से बचाव करते हैं – एस. अनंतनारायणन

बड़े पैमाने पर खेती करने से फसल को खाने वाले कीटों की आबादी में बहुत तेजी से इज़ाफा होता है, खासतौर पर तब जब फसल एक ही प्रकार की हो। कीटों की संख्या बहुत बढ़ जाने पर किसानों को कीटनाशकों का छिड़काव करना पड़ता है, जिससे लागत बढ़ती है। साथ ही कीटनाशक छिड़काव के नुकसान भी होते हैं। कीटनाशक प्रदूषणकारी तो हैं ही इसके अलावा ये मिट्टी में रहने वाले उपयोगी जीवों और पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं। इनके कारण कीटों के प्रति पौधों की अपनी रक्षा प्रणाली गड़बड़ा जाती है। और तो और, कुछ समय बाद कीटनाशक कीटों पर भी उतने प्रभावी भी नहीं रहते।

कीटों पर काबू पाने के संदर्भ में यूके के कुछ पर्यावरण विज्ञानियों ने मालियों/बागवानों के काम करने के तौर-तरीकों की ओर ध्यान दिया। उन्होंने गौर किया कि मालियों ने टमाटर के पौधों को सफेद फुद्दियों (Greenhouse Whitefly) से बचाने के लिए उनके साथ फ्रेंच मैरीगोल्ड (गेंदे) के पौधे लगाए थे। ये फुद्दियां टमाटर को काफी नुकसान पहुंचाती हैं। वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों के बारे में प्लॉस वन पत्रिका में बताया है। उनके अध्ययनों में यह जानने की कोशिश की गई थी कि कैसे गेंदे के पौधे टमाटर के पौधों की कीटों से सुरक्षा करते हैं और वे यह भी समझना चाहते थे कि क्या यह तरीका टमाटर के अलावा अन्य फसलों के बचाव में मददगार हो सकता है।

अधिकतर ग्लासहाउस के आस-पास पाई जाने वाली यह सफेद फुद्दी आकार में छोटी और पतंगे जैसी होती है। ये अपने अंडे सब्जियों या अन्य फसलों की पत्तियों पर नीचे की ओर देती हैं। अंडों से निकले लार्वा व्यस्क होने तक और उसके बाद भी पौधों से ही अपना पोषण लेते हैं। इसके लिए वे पत्तियों की शिराओं में छेद कर पौधों के रस और अन्य पदार्थ तक पहुंचते हैं। कीटों द्वारा रस निकालने की प्रक्रिया में कुछ रस पत्तियों की सतह पर जमा हो जाता है जिसके कारण पत्तियों पर फफूंद भी पनपने लगती है, जो प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को बाधित कर देती है। और जब लार्वा व्यस्क कीट बन जाते हैं तब ये पौधों में वायरल संक्रमण फैलाते है। इस तरह ये कीट पौधे को काफी प्रभावित करते हैं।

फसलों पर गेंदे व अन्य पौधों के सुरक्षात्मक प्रभाव को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने अलग-अलग समय पर और फसलों को सुरक्षा के अलग-अलग तरीके उपलब्ध करवाकर प्रयोग किए। पहले प्रयोग में शोधकर्ताओं ने शुरुआत से ही टमाटर की फसल के साथ गेंदे के पौधों को लगाया। और बाद में उन पौधों को भी लगाया, जो सफेद फुद्दियों को दूर भगाते थे। इनके प्रभाव की तुलना के लिए उन्होंने कंट्रोल के तौर पर एक समूह में सिर्फ टमाटर के पौधे लगाए। वैज्ञानिक यह भी देखना चाहते थे कि क्या किसान गेंदे के पौधों का उपयोग रोकथाम के लिए करने के अलावा क्या तब भी कर सकते हैं जब फुद्दियों की अच्छी-खासी आबादी पनप चुकी हो। इसके लिए गेंदे के पौधे थोड़े विलंब से लगाए गए जब सफेद फुद्दियां फसलों पर मंडराने लगीं थी। तीसरे प्रयोग में टमाटर के साथ उन पौधों को लगाया गया जो सफेद फुद्दियों को अपनी ओर आकर्षित करते थे, ताकि यह पता किया जा सके कि कीटों को टमाटर के पौधों से दूर आकर्षित करने पर कोई फर्क पड़ता है या नहीं।

अध्ययन में पाया गया कि गेंदे के पौधों की मौजूदगी ने सफेद फुद्दियों को फसल से निश्चित तौर पर दूर रखा। सबसे ज़्यादा असर तब देखा गया जब गेंदे के पौधे शुरुआत से ही फसलों के साथ लगाए गए थे। और जब गेंदे के साथ अन्य कीट-विकर्षक पौधे भी लगाए गए तब असर कमतर रहा। और तब तो लगभग कोई असर नहीं हुआ जब सफेद फुद्दियों को अपनी ओर आकर्षित करने वाले अन्य पौधे फसल के आसपास लगाए गए थे जो एक मायने में कीटों के लिए वैकल्पिक मेज़बान थे।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने उस प्रभावी घटक को गेंदे के पौधे से पृथक किया। यह लिमोनीन नाम का एक पदार्थ है। लिमोनीन नींबू कुल के फलों के छिलकों में पाया जाता है। गेंदे के पौधे से निकले रस में काफी मात्रा में लिमोनीन मौजूद पाया गया।

इसके बाद उन्होंने टमाटर की क्यारियों में गेंदें के पौधों की बजाए लिमोनीन डिसपेंसर को रखा। लीमोनीन डिस्पेंसर एक यंत्र होता है जो लगातार लीमोनीन छोड़ता रहता है। पाया गया कि लिमोनीन भी सफेद फुद्दियों को फसल से दूर रखने में प्रभावी रहा। यानी यह गेंदे का क्रियाकारी तत्व है। और आपात स्थिति यानी जब अचानक काफी संख्या में सफेद फुद्दिया फसल पर मंडराने लगी तब भी डिस्पेंसर गेंदे के पौधे लगाने की तुलना में अधिक प्रभावी रहा। लेकिन यह पता लगाना शेष है कि फसलों की सुरक्षा के लिए गेंदें के कितने पौधे लगाए जाएं या कितने लिमोनीन डिस्पेंसर लगाए जाएं।

गेंदे के अलावा, कई अन्य पौधे हैं जो सफेद फुद्दियों और अन्य कीटों को फसल से दूर भगाने में मददगार हैं। यानी कुछ पौधे और उनसे निकले वाष्पशील पदार्थ के डिस्पेंसर कीटनाशकों की जगह इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इसके कई अन्य फायदे भी है। पहला, कीटनाशक के छिड़काव में लगने वाली लागत की बचत होगी। दूसरा, रासायनिक कीटनाशकों के उत्पादन में लगने वाली ऊर्जा की बचत होगी। तीसरा, कीटनाशकों के कारण मिट्टी, पानी और पौधों में फैल रहा प्रदूषण कम होगा। और चौथा, कीट कीटनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध हासिल कर लेते हैं लेकिन वे पौधों के खिलाफ प्रतिरोध हासिल नहीं कर पाएंगे।

प्रतिरोध हासिल करने की प्रक्रिया यह है कि जब कोई जीव किसी बाहरी हस्तक्षेप के कारण मारे जाते हैं तो कभी-कभार कुछ जीव उस परिस्थिति के खिलाफ प्रतिरक्षा के कारण जीवित बच जाते हैं। यह प्रतिरक्षा उन्हें संयोगवश हुए किसी उत्परिवर्तन के कारण हासिल हो चुकी होती है। फिर ये जीव संतान पैदा करते हैं और संख्यावृद्धि करते हैं। कुछ ही पीढि़यों में पूरी आबादी प्रतिरोधी जीवों की हो जाती है। जब इन कीटों का सफाया करने की बजाए दूर भगाने की विधि का उपयोग किया जाता है तो कुछ कीट फिर भी दूर नहीं जाते और उन्हें भोजन पाने व प्रजनन करने में थोड़ा लाभ मिलता है। शेष कीट दूर तो चले जाते हैं लेकिन मरते नहीं हैं। अत: प्रतिरोधी कीट अन्य कीटों के मुकाबले इतने हावी नहीं हो पाते कि पूरी आबादी में प्रतिरोध पैदा हो जाए। आबादी में दोनों तरह के कीट बने रहते हैं।

वर्ष 2015 में स्वीडन और मेक्सिको सिटी के शोधकर्ताओं ने ट्रेंड्स इन प्लांट साइंस पत्रिका में बताया था कि कैसे उन पौधों को फसलों के साथ लगाना कारगर होता है, जो फसलों पर मंडराने वाले कीटों के शिकारियों को आकर्षित करने वाले रसायन उत्पन्न करते हैं। उनके अनुसार जंगली पौधे अक्सर वाष्पशील कार्बनिक यौगिक छोड़ते हैं जिनकी गंध अन्य पौधों को इस बात का संकेत देती है कि उनकी पत्तियों को खाने वाला या नुकसान पहुंचाने वाला जीव आस-पास है। ऐसी ही एक गंध, जिससे हम सब वाकिफ हैं, तब आती है जब किसी मैदान या बगीचे की घास की छंटाई की जाती है। वाष्पशील कार्बनिक यौगिक कई किस्म के होते हैं और इससे पता चल जाता है कि खतरा किस तरह का है। जैसे यदि पौधों को शाकाहारी जानवरों द्वारा खाया जा रहा है तो पौधे वाष्पशील कार्बनिक यौगिक छोड़कर उस शाकाहारी जानवर के विशिष्ट शिकारी को इसका संकेत देते हैं।

मेक्सिको सिटी के शोध पत्र के अनुसार पौधों की कई विशेषताएं जो कीटों से सीधे-सीधे प्रतिरोध प्रदान करती थीं वे पालतूकरण (खेती) की प्रक्रिया में छूटती गर्इं, क्योंकि वे क्षमताएं कुछ ऐसे गुणों की बदौलत होती थीं जो मनुष्य को अवांछित लगते थे। जैसे कड़वापन, अत्यधिक रोएं, कठोरता या विषैलापन। इनके छूट जाने के पीछे एक और कारण यह है कि यदि यह प्रतिरोध अभिव्यक्त होने के लिए पौधे के काफी संसाधनों की खपत होती है जिसकी वजह से पैदावार कम हो जाती है। सब्जि़यों के मामले में शायद यही हुआ है।

प्लॉस वन में प्रकाशित शोध पत्र यह भी कहता है कि टमाटर जैसी फसलों की सुरक्षा के लिए लगाए गए पौधे आर्थिक महत्व की दृष्टि से भी लगाए जा सकते हैं। जैसे वे खाने योग्य हो सकते हैं या सजावटी उपयोग के हो सकते हैं। ऐसा हुआ तो लोग इन्हें लगाने में रुचि दिखाएंगे। यह समाज और पर्यावरण दोनों के लिए फायदेमंद होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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घातक हो सकती है कृत्रिम बुद्धि – तनिष्का वैद्य

बीते कुछ सालों में तकनीकी जगत में एक शब्द बड़ा आम हो गया है – ‘आर्टिफिशियल इंटेललिजेंस’ यानी कृत्रिम बुद्धि। हाल ही में चीन की सिन्हुआ समाचार एजेंसी पूरी दुनिया के लिए तब समाचार बन गई जब उसने अपने यहां समाचार पढ़ने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंट न्यूज़ एंकर (समाचार वाचक) का उपयोग किया। यह वाचक अंग्रेज़ी में खबरें पढ़ता है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि ऐसे एंकर 24X7 बिना थके या बिना छुट्टी लिए अपना काम करने में सक्षम है। इसमें वाइस रिकॉग्नीशन (वाणी पहचान) और खबरों के अनुरूप चेहरे के हाव-भाव बदलने के लिए मशीन लर्निंग का उपयोग किया गया है।

उक्त न्यूज़ एंकर से खबरें पढ़वाने के साथ ही पूरी दुनिया में एक बार फिर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के नफे-नुकसान पर चर्चा तेज़ हो गई है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस या कृत्रिम बुद्धि ऐसी बुद्धिमत्ता है जो मशीनें सीखने की एक खास प्रक्रिया के तहत सीखती हैं। वे मशीनें धीरे-धीरे इस बुद्धिमत्ता को अपने में अंगीकार कर लेती हैं। इसके बाद मशीनें भी किसी मनुष्य की तरह अपेक्षित काम पूरी गंभीरता और बारीकी के साथ करने लगती हैं। चूंकि ये मशीनें कृत्रिम रूप से इसे ग्रहण करती हैं इसीलिए इन्हें कृत्रिम बुद्धिमान कहा जाता है। अलबत्ता, यह बहुत हद तक प्राकृतिक बुद्धि की तरह ही होती है।

सबसे पहले कृत्रिम बुद्धिमत्ता की अवधारणा जॉन मैक्कार्थी ने 1956 में दी थी। उन्होंने इसके लिए एक नई प्रोग्रामिंग लैंग्वेज भी बनाई थी जिसे उन्होंने लिस्प (लिस्ट प्रोसेसिंग) नाम दिया था। यह लैंग्वेज कृत्रिम बुद्धिमत्ता सम्बंधी अनुसंधान के लिए बनाई गई थी।

अब ऐसी मशीनों के साकार होने से यह बहस फिर से शुरू हो गई है कि इनका उपयोग किस हद तक किया जाना ठीक है और इसके क्या खतरे या चुनौतियां हो सकती हैं। आखिरकार ये हैं तो मशीनें ही, इनमें एक मनुष्य की तरह की भावनाएं कैसे आएंगी। ये हमारा काम ज़रूर आसान बना सकती हैं पर मानवीय भावनाएं नहीं होने के कारण ये किसी भी काम को करने से पहले गलत-सही का फैसला करने में असमर्थ रहेंगी और गलत कदम भी उठा सकती हैं।

इनमें तो भावनाओं की कोई जगह ही नहीं है। आजकल हम वैसे ही दुनिया और समाज से बेखबर अपने पड़ोस तो दूर, घर के लोगों से भी कटे-कटे से रहते हैं। ऐसे में मशीनी मानव हमें समाज से काटकर और भी अकेला बना देंगे। इससे नई पीढ़ी में मनुष्यता के गुणों का और भी ह्यास होगा। आजकल बहुसंख्य लोगों के पास मोबाइल है और कई लोग दिन-भर उस मोबाइल में लगे रहते हैं। बार-बार देखते हैं कि कहीं कोई ज़रूरी मेसेज तो नहीं आया। मोबाइल के माध्यम से हम दुनिया भर से जुड़े हैं परंतु अपने आस-पास क्या हो रहा है इसकी हमें खबर नहीं होती। कई लोग तो मोबाइल में इतने डूब जाते हैं कि पास वाले व्यक्ति की तकलीफ दिखाई तक नहीं देती। इस आभासी या वर्चुअल दुनिया में कहीं-ना-कहीं हम असल दुनिया को भूलते जा रहे हैं और इसके कारण हमारे अंदर की मनुष्यता खत्म होती जा रही है।

महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग ने भी कहा था कि अगर आर्टिफिशियल इंटेललिजेंट मशीनों को बनाया गया तो ये मानव सभ्यता को खत्म कर देंगी। जब एक बार मनुष्य आर्टिफिशयल इंटेलीजेंट यंत्र बना लेगा तो यह यंत्र खुद ही अपनी प्रतिलिपियां बना सकेंगे और ऐसा भी हो सकता है कि भविष्य में मनुष्य कम रह जाएं और मशीनी मानव उनके ऊपर राज करें। उनकी यह आशंका कहां तक सच होगी, यह तो फिलहाल नहीं कह सकते लेकिन मशीनी मानव हमारे मानवीय गुणों और संवेदनाओं के लिए यकीनन नुकसानदायक हैं।

पहले से ही खत्म होते रोज़गार के इस दौर में यह बेरोज़गारी बढ़ाने वाला एक और कदम साबित होगा। ऐसे यंत्रों के बनने से कई लोगों की नौकरियां भी चली जाएंगी क्योंकि इनकी उपयोगिता बढ़ने के साथ हर जगह ऐसी मशीनें लोगों की जगह लेती जाएंगी। जैसे-जैसे मशीनीकरण बढ़ेगा वैसे-वैसे काम करने के लिए लोगों की ज़रूरत कम होती जाएगी। बढ़ता मशीनीकरण बेरोज़गारी तो बढ़ाएगा ही साथ ही अपराध भी बढ़ाएगा। जब लोगों के पास करने को कोई ढंग का काम नहीं होगा तो वे रोज़ी-रोटी कमाने के लिए ज़ुर्म करेंगे। इससे पूरी दुनिया में अराजकता फैल सकती है।

अंतरिक्ष यान बनाने वाली दुनिया की मशहूर कंपनी स्पेस एक्स और टेस्ला के सीईओ इलोन मस्क भी मानते हैं कि तृतीय विश्व युद्ध का मुख्य कारण आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस होगा। इस तरह लगता है कि आर्टिफिशल इंटेलिजेंस जितना मददगार है, लंबे समय में उतना ही ज़्यादा प्रलयकारी भी। अगर इसे सही तरह से इस्तेमाल नहीं किया गया तो यह पूरी दुनिया में तबाही मचा सकता है। ऐसे यंत्र भले ही अभी हमारी भलाई के लिए बनाए जा रहे हों पर दीर्घावधि में यही सबसे ज़्यादा हानिकारक होने वाले हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अगर भू-चुंबकत्व खत्म हो जाए तो? – ज़ुबैर सिद्दिकी

हमारी पृथ्वी के बारे में कई चीज़ें ऐसी हैं जिन पर हम रोज़मर्रा के जीवन में कभी ध्यान नहीं देते। यूं तो मानव सभ्यता विश्व के हर कोने में मौजूद है फिर भी हमारा अस्तित्व प्राकृतिक घटनाओं के संतुलन पर निर्भर करता है और वे हमारे नियंत्रण से बाहर हैं। सूरज से पृथ्वी की दूरी की बदौलत ही यहां जीवन संभव हुआ है, और ज़ाहिर है कि इस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। पृथ्वी का भव्य परिदृश्य भी प्राकृतिक घटनाओं का नतीजा है। हिमालय पर्वत हो या माउंट फूजी और माउंट वेसुवियस या फिर महासागरों और महाद्वीपों का आकार, ये सब प्लेट टेक्टोनिक्स की देन हैं। हमारे ग्रह की कई छोटी-छोटी खासियतें इसे सुंदर और रहने योग्य बनाती हैं। लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि इनमें कोई मामूली-सा बदलाव करने पर क्या होगा? जैसे कल्पना कीजिए कि यदि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र गायब हो जाए तो क्या होगा?

कल्पना कीजिए कि पृथ्वी तो ठीक वैसी ही रहे, बस भू-चुंबकत्व को खत्म कर दिया जाए। वैसे ऐसा होने की संभावना तो कम है लेकिन विचार करने के हिसाब से यह एक अच्छा प्रयोग है। इस प्रभाव के कुछ परिणाम तो मामूली हो सकते हैं लेकिन कुछ निहायत विनाशकारी भी हो सकते हैं। चलिए देखते हैं।

दिशाओं का ज्ञान

दिशासूचक या कंपास को ही ले लीजिए। कंपास वास्तव में एक छोटा चुंबक है, जो किसी आम चुंबक की तरह खुद को नज़दीक के चुंबकीय क्षेत्र की सीध में ले आता है। पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र काफी शक्तिशाली है और वह कंपास की सुई को उत्तर-दक्षिण दिशा में रखता है। यदि यह गायब हो जाए, तो कंपास सबसे नज़दीकी चुंबकीय रुाोत की सीध में आ जाएगा। वैज्ञानिकों ने इसका अवलोकन भी किया है। पृथ्वी पर ऐसे स्थान हैं जहां चुंबकीय विसंगतियां पाई गई हैं। उदाहरण के तौर पर, मध्य अफ्रीकी गणराज्य में, पृथ्वी की ऊपरी सतह में चुंबकीय विविधताओं के कारण कंपास की सुई अलग-अलग दिशाओं में ठहरती है जिससे उस क्षेत्र में समुद्री यात्राओं में कंपास बेकार साबित होता है। यदि पूरे ग्रह का चुंबकीय क्षेत्र गायब जाता है तो हमारे पास ऐसे मनमानी दिशाओं में ठहरने वाले कंपास ही बचेंगे।

केवल मनुष्य ही दिशाज्ञान के लिए पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का उपयोग नहीं करते। कई पक्षी, समुद्री कछुए, लॉबस्टर, मधुमक्खियां, सैल्मन और यहां तक कि फल मक्खियों के शरीर में जैविक कंपास होते हैं, जिन्हें ‘मैग्नेटोरिसेप्टर्स’ कहा जाता है। पक्षी इनका उपयोग सर्दियों के समय गर्म स्थानों की तलाश के लिए करते हैं, जबकि समुद्री कछुए खुले समुद्र में इनका उपयोग करते हैं और अपने अंडे देने के लिए समुद्र तटों की तलाश करते हैं। यहां तक कि अधिकतर मादा समुद्री कछुए हर साल एक ही समुद्र तट पर लौटती हैं।

यदि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र गायब हो जाता है तो कंपास की मदद से यात्राएं करने वाले जीव गंभीर संकट में पड़ सकते हैं।

ध्रुवीय ज्योति अलग होगी

पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में नुकसान होने से पृथ्वी की ध्रुवीय ज्योति में भी बदलाव आ सकता है। इन्हें आम तौर पर उत्तर ध्रुवीय और दक्षिण ध्रुवीय प्रकाश कहा जाता है। आम तौर पर हमारे ग्रह का चुंबकीय क्षेत्र (मैग्नेटोस्फीयर) सूरज से आने वाले आवेशित कणों (सौर हवाओं) को परावर्तित कर देता है। लेकिन उत्तर और दक्षिण ध्रुवों के आसपास मैग्नेटोस्फीयर अंदर की ओर धंसा होता है, जिससे सौर हवाएं हमारे ऊपरी वायुमंडल के साथ खिलवाड़ कर पाती हैं। इसके परिणामस्वरुप शानदार, बहुरंगी पट्टियां उत्पन्न होती हैं। इसी को ध्रुवीय ज्योति कहा जाता है।

पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के अभाव में, हमारा पूरा ऊपरी वातावरण सौर हवा के लिए खुल जाएगा जिससे ध्रुवीय ज्योति कुछ अलग ही तरह से प्रकट होगी; शायद शुक्र और मंगल ग्रह की ध्रुवीय ज्योति के समान। चूंकि इन दोनों ग्रहों के पास कोई उल्लेखनीय चुंबकीय क्षेत्र नहीं है, इसलिए वहां ध्रुवीय ज्योति कभी-कभी धुंधली और बेरंग होती है और रात के पूरे आकाश में बिखरी होती है। इस प्रकार, हमारे चुंबकीय क्षेत्र के गायब होने से पृथ्वी के सबसे लुभावने प्राकृतिक नज़ारे निस्तेज हो सकते हैं।

कॉस्मिक किरणें धरती तक पहुंचेंगी

हमारा चुंबकीय क्षेत्र सिर्फ सुंदर ध्रुवीय ज्योति उत्पन्न नहीं करता बल्कि वह हमें जीवित रखता है। सूर्य से निकलने वाली कॉस्मिक किरणें और सौर हवा पृथ्वी पर जीवन के लिए हानिकारक हैं। चुंबकीय आवरण की उपस्थिति के बिना हमारे ग्रह पर निरंतर इन घातक कणों का हमला होता रहेगा। शरीर पर कॉस्मिक किरणों का प्रभाव काफी भयानक हो सकता है। इसके उदाहरण के तौर पर ल्यूनर मिशन के दौरान अंतरिक्ष यात्रियों ने अक्सर अपनी आंखें बंद करने पर प्रकाश की चमक देखने की सूचना दी थी। कॉस्मिक किरणों का सीधा परिणाम उनके रेटिना पर हुआ था और उनमें से कुछ को आगे चलकर मोतियाबिंद की समस्या भी हुई।

लंबे समय की अंतरिक्ष यात्रा के संदर्भ में कॉस्मिक किरणें वास्तविक चिंता का विषय है। मंगल ग्रह पर जाने वाले संभावित अंतरिक्ष यात्रियों को पृथ्वी की तुलना में 1000 गुना तक अधिक कॉस्मिक किरणों का सामना करना पड़ सकता है। यदि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र गायब हो गया, तो पूरी मानव जाति और अन्य सभी जीवों को अंतरिक्ष यात्रियों के समान 1000 गुना अधिक विकिरण का सामना करना होगा। कॉस्मिक किरणें हमारे शरीर और हमारे डीएनए को भी नुकसान पहुंचा सकती हैं, जिससे दुनिया भर में कैंसर और अन्य बीमारियों का खतरा बढ़ जाएगा।

बिजली कटौतियां और क्षतिग्रस्त उपग्रह

भू-चुंबकत्व के बिना, हमारी आधुनिक टेक्नॉलॉजी भी जोखिम में होगी। चुंबकीय क्षेत्र के बिना न केवल उपग्रहों को सौर तूफानों से नुकसान हो सकता है, बल्कि हर इलेक्ट्रॉनिक उपकरण कॉस्मिक किरणों और सौर हवा के उच्च ऊर्जा वाले कणों के संपर्क में आ सकता है।

वास्तव में, सौर गतिविधि के कारण पहले भी ऐसी समस्याएं हो चुकी हैं। 1989 में, बड़े पैमाने पर सूरज की सतह से अत्यंत गर्म प्लाज़्मा विस्फोट ने पृथ्वी के मैग्नेटोस्फीयर पर हमला किया था, तब कनाडा के क्यूबेक प्रांत में बिजली आपूर्ति पूरी तरह ठप्प हो गई थी। पूरे प्रांत का पावर ग्रिड 12 घंटे के लिए बंद रहा था और आसपास के क्षेत्रों को अपने अपने ग्रिड चालू रखने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। कुछ उपग्रहों को भी नुकसान हुआ था। उनके नाज़ुक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण एक विशाल सौर तूफान से निपटने के लिए डिज़ाइन नहीं किए गए थे। इस दौरान कई उपग्रह तो घंटों नियंत्रण से बाहर रहे।

यह सही है कि 1989 का भू-चुंबकीय तूफान असामान्य रूप से बड़े पैमाने का था, लेकिन सौर हवाएं सामान्य सौर गतिविधियों के दौरान भी मैग्नेटोस्फीयर पर निरंतर हमला कर रही हैं। यदि पृथ्वी अपने चुंबकीय क्षेत्र को खो देती है, तो मामूली सौर तूफानों से बचने का भी कोई साधन नहीं होगा। हमारे पॉवर ग्रिड और अधिक संवेदनशील हो जाएंगे। यहां तक कि कंप्यूटर और अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को भी काफी नुकसान होगा।

इससे भी अधिक खतरनाक तो उस वायुमंडल का खत्म हो जाना है जिसमें हम सांस ले रहे हैं। सूरज की सौर हवाएं इतनी शक्तिशाली होती हैं कि यह एक ग्रह के वायुमंडल से गैसों को आसानी से चीरकर खत्म कर सकती हैं। ऐसी संभावना है कि ऐसा मंगल ग्रह पर हो चुका है। मंगल ग्रह पर भी पृथ्वी की तरह महासागर और घना वातावरण मौजूद था लेकिन इसका चुंबकीय क्षेत्र अरबों साल पहले गायब हो चुका था। जिसके बाद से यह वातावरण पूरी तरह से असुरक्षित हो गया और धीरे-धीरे यह पूरी तरह से खत्म हो गया। जब इसका वायुमंडलीय दबाव काफी कम हो गया, तो इसका पानी वाष्पीकृत होने लगा। यह संभव है कि भू-चुंबकीय क्षेत्र के बिना हमारे वायुमंडल, हमारे महासागर और जीवन खतरे में होंगे।

भू-चुंबकीय क्षेत्र के अलावा ऐसी और भी कई मूल चीज़ें हैं जिनका हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव है। प्रकृति में हर चीज़ किसी न किसी पर निर्भर है और उसके खत्म हो जाने के बाद ही हमें उसकी महत्ता का अनुभव होता है। आधुनिक काल में बड़ी-बड़ी तकनीकों के विकसित होने के बाद भी मानव जाति सबको नियंत्रित करने में असमर्थ है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शायद भारत में सुपरनोवा का अवलोकन किया गया था – प्रदीप

बात 4 जुलाई 1054 की है जब चीन और जापान के शाही ज्योतिषियों ने रात्रि आकाश के एक कोने में वृषभ राशि के अंदर अचानक एक प्रकाशपुंज को उभरते हुए देखा था जबकि कुछ ही देर पहले वहां कुछ नहीं था। अचानक ही वहां तारे जैसा कुछ चमकने लगा। इसके बाद वह इस कदर चमकीला होता गया कि उसकी चमक शुक्र ग्रह की चमक से पांच गुना ज़्यादा हो गई। पूरे 23 दिनों तक वह तारा दिन के उजाले में भी चमकता रहा! ज्योतिषी इसे देखकर हैरान हो गए होंगे; उन्हें बिलकुल भी समझ में नहीं आया होगा कि आखिर वह चीज़ थी क्या और अचानक कहां से प्रकट हुई थी? चीनी ज्योतिषियों ने एकाएक प्रकट होने वाले इस तारे को ‘काई ज़िंग’ या ‘मेहमान तारा’ नाम दिया। वह मेहमान तारा तकरीबन दो साल बाद आकाश से ओझल हो गया!

वृषभ राशि के ठीक उसी स्थान पर युरोपीय खगोलविदों ने 700 वर्ष बाद सन 1731 में दूरबीन से एक तारा देखा। फिर 1758 में खगोलविद शार्ल मेसिए ने बताया कि वह कोई तारा नहीं है, बल्कि एक निहारिका (नेबुला) है। चीनियों द्वारा देखे गए ‘मेहमान तारे’ के विस्फोट के अवशेष कर्क निहारिका (क्रैब नेबुला) के रूप में आज भी मौजूद हैं। ऐसे ही विस्फोटित तारों को अब वैज्ञानिक नोवा या सुपरनोवा नाम देते हैं। जब कोई तारा बतौर सुपरनोवा विस्फोटित होता है तब उसकी चमक कुछ देर के लिए समूची मंदाकिनी को भी फीका कर देती है। यही नहीं, इस दौरान इतनी अधिक मात्रा में ऊर्जा निकलती है कि उतनी ऊर्जा हमारा सूर्य अपने पूरे जीवनकाल में नहीं उत्सर्जित कर सकता!

एक सहस्राब्दी में कोरी आंखों से चंद सुपरनोवा विस्फोट ही दिखाई देते हैं। इस लिहाज़ से सुपरनोवा का दिखाई देना एक दुर्लभ खगोलीय घटना है। क्रैब सुपरनोवा के बाद खगोलविद टायको ब्रााहे ने 1572 में और जोहांस केपलर ने 1604 में हमारी आकाशगंगा में  प्रकट हुए सुपरनोवा देखे थे।

खगोलविदों का मानना है कि 1054 के सुपरनोवा को चीन और जापान के अलावा दुनिया में और भी जगहों पर (मसलन भारत, यूरोप, मध्यपूर्व और अमेरिका) में भी लोगों ने देखा होगा। आश्चर्य की बात यह है इस अद्भुत खगोलीय घटना को भारत में देखे जाने का कोई भी उल्लेख या रिकॉर्ड अभी तक नहीं मिला था, जबकि उस समय भारत में सैद्धांतिक खगोल विज्ञान का स्वर्णयुग चल रहा था। यह युग पांचवी शताब्दी में आर्यभट से लेकर बारहवीं शताब्दी में भास्कर द्वितीय तक चला। प्रसिद्ध खगोल शास्त्री जयंत नार्लीकर और संस्कृत और प्राकृत भाषा की विद्वान सरोजा भाटे ने उस काल में रचित साहित्य, अभिलेखों आदि की जांच-पड़ताल की जिस काल में क्रैब सुपरनोवा की घटना घटी थी, तो उन्हें भारतीयों द्वारा सुपरनोवा देखने का कोई भी साक्ष्य या उल्लेख नहीं मिला।

अब जवाहरलाल नेहरू प्लेनेटेरियम, बैंगलुरु की भूतपूर्व निदेशक डॉ. बी.एस. शैलजा ने इंडिया साइंस वायर में प्रकाशित एक फीचर आलेख में यह जानकारी दी है कि हाल में किए गए अध्ययनों में कुछ शिलालेखों में भारतीयों द्वारा उक्त सुपरनोवा को देखने के साक्ष्य मिले हैं। आगे डॉ. शैलजा को ही उद्धरित कर रहा हूं।

दक्षिण भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में पत्थरों पर लिखने की परंपरा रही है। इन शिलालेखों में प्रयुक्त भाषा संस्कृत थी, जिसका अभिप्राय समझना सरल था। इन शिलालेखों में ग्रहणों और ग्रहों की युतियों से सम्बंधित खगोलीय विवरण मिलते हैं।

कंबोडिया में एक ऐसा शिलालेख मिला है, जिसमें किसी साधु द्वारा शिवलिंग की स्थापना के समय शिव के लिए ‘शुक्रतारा प्रभावाय’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है, अर्थात वह जो शुक्र जैसी तीव्र कांति उत्पन्न कर सकता है। शिलालेख शुक्र जैसे चमकीले किसी तारे के प्रेक्षण की ओर संकेत करता है और शायद वह सुपरनोवा देखने की घटना थी।

एक और ऐसा शिलालेख मिला है जो अजिला साम्राज्य के समय का है। इसमें कर्नाटक के वेनुरु नामक कस्बे में बाहुबली की विशाल प्रतिमा की स्थापना के बारे में लिखा है। एक समय में कर्नाटक जैन धर्म का प्रमुख केंद्र था। यद्यपि यह शिलालेख कन्नड़ लिपि में लिखा गया है, पर इसकी भाषा संस्कृत है। शिलालेख में उस समय की पूरी तारीख लिखी है; दिन, महीना और वर्ष सहित। इस शिलालेख में 1604 के सुपरनोवा का ज़िक्र है।

शिलालेख में इस स्तंभ को ‘क्षीरामबुधि में निशापति’ की संज्ञा दी गई है। निशापति चंद्रमा को कहते हैं। यह शब्द कपूर के लिए भी प्रयुक्त होता है। क्षीरामबुधि के दो अर्थ संभव हैं, कर्नाटक का बेलागोला (कन्नड़ में जिसका अर्थ सफेद झील है) कस्बा, और दूसरा आकाशगंगा। वर्ष 1604 का सुपरनोवा धनु राशि के क्षेत्र में देखा गया था, जो आकाशगंगा में स्थित है।

एस्ट्रोलेब नामक प्राचीन खगोलीय यंत्र का उपयोग पुराने समय में समुद्री यात्राओं में दिशाज्ञान के लिए किया जाता था। एस्ट्रोलेब दरअसल तारों-नक्षत्रों की क्षितिज से ऊंचाई बताता है। एक इतिहासकार प्रोफेसर एस.आर. शर्मा ने जब विश्व भर के संग्रहालयों में विभिन्न एस्ट्रोलेब यंत्रों का अध्ययन किया तो उन्हें 25 दिसंबर 1605 का बना एक एस्ट्रोलेब मिला। इसमें धनुषाग्र और धनुकोटि नाम के दो तारे अंकित मिले। तारा धनुकोटि तो लगभग सभी एस्ट्रोलेब में मिलता है और उसका पाश्चात्य नाम है ‘अल्फा ओफियुकी’ या अरबी नाम ‘रासअलहाइग’ है पर तारा धनुषाग्र केवल इसी एस्ट्रोलेब में मिला और इसकी स्थिति वर्ष 1604 के सुपरनोवा के स्थान पर मिली। इस प्रकार हमें दो ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में इस सुपरनोवा का उल्लेख मिलता है।

इसी प्रकार, हमें 1572 के सुपरनोवा का उल्लेख संस्कृत व्याकरण की एक पुस्तक में मिलता है, जिसे संस्कृत के एक विद्वान अप्पया दीक्षित (1520-1593) ने लिखा था। उनकी रचना ‘कुवाल्यानंदा’ में लिखा है – “व्योमगंगा (आकाशगंगा) में यह क्या है? कमल जैसा है। चंद्रमा भी नहीं है। सूर्य भी नहीं, क्योंकि समय रात का है।” इन उल्लेखों को देखते हुए लगता है कि अन्य भारतीय भाषाओं में ऐसे संदर्भों में इन खगोलीय घटनाओं को खोजना उपयोगी हो सकता है।

उपरोक्त आधार पर हम कह सकते हैं कि शायद विद्वानों का यह मत सही नहीं है कि भारतीय लेखन में सुपरनोवा जैसी महत्वपूर्ण आकाशीय घटनाओं का उल्लेख नहीं मिलता। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फ्रोज़न वृषण से शुक्राणु लेकर बंदर शिशु का जन्म

ह तो एक जानी-मानी टेक्नॉलॉजी बन चुकी है कि किसी स्त्री के अंडाशय को अत्यंत कम तापमान पर संरक्षित रख लिया जाए और बाद में उसे सक्रिय करके अंडाणु उत्पादन करवाया जाए। यह तकनीक उन मामलों में उपयोगी पाई गई है जब किसी स्त्री को कैंसर का उपचार करवाते हुए अंडाशय को क्षति पहुंचने की आशंका होती है। मगर पुरुषों के वृषण को इस तरह संरक्षित करके शुक्राणु उत्पादन की तकनीक का दूसरा सफल प्रयोग हाल ही में पिटसबर्ग विश्वविद्यालय में संपन्न हुआ। यह प्रयोग साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

इस प्रयोग में 5 रीसस बंदरों के वृषण के ऊतक निकालकर कम तापमान पर सहेज लिए गए। जब वृषण निकाले गए थे तब ये सभी बंदर बच्चे थे और इनके वृषण ने शुक्राणु निर्माण शुरू नहीं किया था। इसके बाद इन बंदरों को वंध्या कर दिया गया। इसके बाद जब ये बंदर किशोरावस्था में पहुंचे तब बर्फ में रखे वृषण-ऊतक निकालकर उन्हीं बंदरों के वृषणकोश में प्रत्यारोपित कर दिए गए, जिनसे ये निकाले गए थे।

आठ से बारह महीने बाद इन प्रत्यारोपित ऊतकों की जांच करने पर पता चला कि इनमें शुक्राणु का उत्पादन होने लगा है। इन शुक्राणुओं की मदद से 138 अंडों को निषेचित किया गया। इनमें से मात्र 16 ही ऐसे भ्रूण बने जिनका प्रत्यारोपण मादा बंदरों में किया जा सकता था। इनमें से भी मात्र एक ही गर्भावस्था तक पहुंचा और जीवित जन्म हुआ।

यह सही है कि 138 निषेचित अंडों से शुरू करके मात्र एक शिशु का जन्म होना बहुत कम प्रतिशत है लेकिन यह बहुत आशाजनक है कि अविकसित वृषण की स्टेम कोशिकाओं को सहेजकर रखा जा सकता है और वे बाद में विभेदित होकर शुक्राणु का उत्पादन कर सकती हैं। अब अगला कदम मनुष्यों के लिए इस तकनीक की उपयोगिता की जांच का होगा। (स्रोत फीचर्स)

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परमाणु विखंडन का एक दुर्लभ ढंग देखा गया

टली के एक पर्वत के अंदर बैठकर वैज्ञानिकों का एक दल डार्क मैटर की खोज में जुटा है। उन्हें अभी तक डार्क मैटर यानी अदृश्य पदार्थ के ‘दर्शन’ तो नहीं हुए हैं लेकिन एक दुर्लभ किस्म के परमाणु विखंडन की प्रक्रिया को देखने और अध्ययन करने का मौका ज़रूर मिल गया।

यह प्रयोग ज़ीनॉन सहयोग है। इसमें एक बड़-सी टंकी में 3200 किलोग्राम ज़ीनॉन गैस भरी है। ज़ीनॉन एक अक्रिय गैस है और विकिरण से सुरक्षित है। इसलिए ऐसा माना जाता है कि यदि ब्राहृांड में कणों की कोई अत्यंत दुर्लभ अंतर्क्रिया हुई तो ज़ीनॉन की इस टंकी में उसे कैद करना और उसका अध्ययन करना सबसे बढ़िया ढंग से हो सकेगा।

अलबत्ता, ऐसी कोई अंतर्क्रिया तो देखी नहीं गई है जो अदृश्य पदार्थ का सुराग दे सके लेकिन ज़ीनॉन के परमाणु का विखंडन ज़रूर देख लिया गया है जो अपने-आप में एक दुर्लभ घटना है।  इस घटना की दुर्लभता को समझने के लिए यह आंकड़ा पर्याप्त होगा कि ज़ीनॉन-124 की अर्ध-आयु 1.8×1022 वर्ष है। यह ब्राहृांड की वर्तमान उम्र से लगभग 1 खरब गुना है। अर्ध-आयु का मतलब होता है कि किसी पदार्थ के जितने परमाणु हैं उनमें से आधे के विखंडन में लगने वाला समय।

ज़ीनॉन का परमाणु भार 124 है और इसके केंद्रक में 54 प्रोटॉन होते हैं। इसके परमाणु का विखंडन होता है तो एक अन्य तत्व टेलुरियम-124 बनता है। यह विखंडन सामान्य विखंडन नहीं है बल्कि थोड़ा असाधारण है। ज़ीनॉन-124 के विखंडन में होता यह है कि उसके केंद्रक के इर्द-गिर्द घूम रहे 54 इलेक्ट्रॉन में से 2 केंद्रक में प्रवेश कर जाते हैं। केंद्रक में पहुंचकर ये दोनों एक-एक प्रोटॉन से जुड़कर उन्हें न्यूट्रॉन में बदल देते हैं। इस प्रक्रिया में न्यूट्रिनो नामक कण मुक्त होते हैं। न्यूट्रिनो एक रहस्यमय कण है जिस पर कोई आवेश नहीं होता और जिसका द्रव्यमान भी नगण्य होता है। इसलिए यह कण अन्य कणों से कोई अंतर्क्रिया करे तो भी पता नहीं चलता।

बहरहाल, विखंडन की इस प्रक्रिया में ऊर्जा मुक्त होती है जो एक्स-रे के रूप में निकलती है। ज़ीनॉन सहयोग के दल ने इसी एक्स-रे के आधार पर पता लगाया है कि ज़ीनॉन की टंकी में यह दुर्लभ विखंडन हुआ है। इसकी मदद से उन्होंने इस क्रिया के समय का मापन भी किया है। इसके आधार पर वे ज़ीनॉन-124 की अर्ध-आयु निकालने में सफल रहे हैं। यह प्रयोग द्वारा निकाली गई सबसे लंबी अर्ध-आयु है। वैसे इससे अधिक अर्ध-आयु टेलुरियम-128 की है किंतु उसे प्रयोग द्वारा नहीं निकाला गया है बल्कि उसकी गणना ही की गई है। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी धुरी पर क्यों घूमती है?

पृथ्वी के अस्तित्व में आने से लेकर अभी तक वह लगातार अपनी धुरी पर घूम रही है। इसके घूमने से ही हम रोज़ सूर्योदय और सूर्यास्त देखते हैं। और जब तक सूरज एक लाल दैत्य में परिवर्तित होकर पृथ्वी को निगल नहीं जाता तब तक ऐसे ही घूमती रहेगी।  लेकिन सवाल यह है कि पृथ्वी घूमती क्यों है?

पृथ्वी का निर्माण सूर्य के चारों ओर घूमने वाली गैस और धूल की एक डिस्क से हुआ। इस डिस्क में धूल और चट्टान के टुकड़े आपस में चिपक गए और पृथ्वी का निर्माण हुआ। जैसे-जैसे इसका आकार बढ़ता गया, अंतरिक्ष की चट्टानें इस नए-नवेले ग्रह से टकराती रहीं और इन टक्करों की शक्ति से पृथ्वी घूमने लगी। चूंकि प्रारंभिक सौर मंडल में सारा मलबा सूर्य के चारों ओर एक ही दिशा में घूम रहा था, टकराव ने पृथ्वी और सौर मंडल की सभी चीज़ों को उसी दिशा में घुमाना शुरू कर दिया।

लेकिन सवाल यह उठता है सौर मंडल क्यों घूम रहा था? धूल और गैस के बादल का अपने ही वज़न से सिकुड़ने के कारण सूर्य और सौर मंडल का निर्माण हुआ था। अधिकांश गैस संघनित होकर सूर्य में परिवर्तित हो गई, जबकि शेष पदार्थ ग्रह बनाने वाली तश्तरी के रूप में बना रहा। इसके संकुचन से पहले, गैस के अणु और धूल के कण हर दिशा में गति कर रहे थे किंतु किसी समय पर कुछ कण एक विशेष दिशा में गति करने लगे। जिससे इनका घूर्णन शुरू हो गया। जब गैस बादल पिचक गया तब बादल का घूमना और तेज़ हो गया। जैसे जब कोई स्केटर अपने हाथों को समेट लेता है तो उसकी घूमने की गति बढ़ जाती है। अब अंतरिक्ष में चीज़ों को धीमा करने के लिए तो कुछ है नहीं, इसलिए, एक बार जब कोई चीज़ घूमने लगती है, तो घूमती रहती है। ऐसा लगता है कि शैशवावस्था में सौर मंडल के सारे पिंड एक ही दिशा में घूर्णन कर रहे थे।

अलबत्ता, बाद में कुछ ग्रहों ने अपने स्वयं का घूर्णन को निर्धारित किया है। शुक्र पृथ्वी के विपरीत दिशा में घूमता है, और यूरेनस की घूर्णन धुरी 90 डिग्री झुकी हुई है। वैज्ञानिकों के पास इसका कोई ठोस उत्तर तो नहीं है किंतु कुछ अनुमान ज़रूर हैं। जैसे, हो सकता है कि किसी पिंड से टक्कर के कारण शुक्र उल्टी दिशा में घूमने लगा हो। या यह भी हो सकता है कि शुक्र के घने बादलों पर सूर्य के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव और शुक्र के अपने कोर व मेंटल के बीच घर्षण की वजह से ऐसा हुआ हो। यूरेनस के मामले में वैज्ञानिकों ने सुझाया है कि या तो एक पिंड से ज़ोरदार टक्कर या दो पिंडों से टक्कर ने उसे पटखनी दी है।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ ग्रह ही अपनी धुरी पर घूमते हैं। सौर मंडल में मौजूद सभी चीज़ें (क्षुद्रग्रह, तारे, और यहां तक कि आकाश गंगा भी) घूमती हैं।

चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण से पृथ्वी की गति में भी कमी आती है। 2016 में प्रोसिडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी के अनुसार एक सदी में पृथ्वी का एक चक्कर 1.78 मिलीसेकंड धीमा हो गया है। (स्रोत फीचर्स)

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क्या सीखते हैं हम जंतुओं पर प्रयोग करके – डॉ. सुशील जोशी

किसी ने एक सवाल पूछा था कि चूहों पर इतने प्रयोग क्यों किए जाते हैं। परंतु उस सवाल में उलझने से पहले यह देखना दिलचस्प होगा कि जंतुओं पर प्रयोग किए ही क्यों जाते हैं। वैसे इस संदर्भ में आम लोगों के मन में यह धारणा है कि जंतुओं पर प्रयोग इंसानों की बीमारियों के इलाज खोजने के लिए किए जाते हैं। यह धारणा कुछ हद तक सही है किंतु पूरी तरह सही नहीं है। तो चलिए देखते हैं कि मनुष्यों ने जंतुओं पर प्रयोग करना कब शुरू किया था, किस मकसद से ये प्रयोग किए जाते हैं और किन जंतुओं पर किए जाते हैं।

कुछ आंकड़े

सबसे पहले यह देखते हैं कि आजकल प्रयोगों में कितने जंतुओं का उपयोग होता है। कई कारणों से इस सम्बंध में कोई पक्का या विश्वसनीय आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। एक कारण तो यह है कि जंतुओं पर प्रयोग करने को लेकर अलग-अलग देशों में अलग-अलग कानून और व्यवस्थाएं हैं। कुछ देशों में सारे जंतु प्रयोगों की रिपोर्ट देनी होती है तो कुछ देशों में कोई रिपोर्ट देना ज़रूरी नहीं है। कुछ देशों में जंतु कल्याण कानून लागू है और इन देशों में सिर्फ उन जंतुओं के बारे में रिपोर्ट देनी पड़ती है जो इस कानूनी में शामिल हैं। फिर ‘प्रयोग में जंतु का उपयोग’ की परिभाषाएं भी अलग-अलग हैं – जैसे किसी देश में प्रयोग के लिए जंतुओं को प्रयोगशाला में रखना भी प्रयोग माना जाता है, तो किसी देश में प्रयोग होने का सम्बंध जंतु की चीरफाड़ से माना जाता है।

बहरहाल, ब्यूटी विदाउट क्रुएल्टी नामक संस्था के मुताबिक हर साल दुनिया भर में 11.5 करोड़ जंतु प्रयोगशालाओं में मारे जाते हैं। अमरीकी कृषि विभाग के एनिमल एंड प्लांट हेल्थ इंस्पेक्शन सर्विस (जंतु एवं वनस्पति स्वास्थ्य निरीक्षण सेवा) की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2016 में अमरीका में सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओं में लगभग 8,20,000 जंतुओं पर प्रयोग किए गए थे। किंतु इनमें सिर्फ वही जंतु शामिल हैं जो अमरीका के एनिमल वेलफेयर कानून में शामिल हैं। माइस, चूहे, मछलियां वगैरह इस कानून में कवर नहीं होते। इसके अलावा इस आंकड़े में उन 1,37,000 से अधिक जंतुओं को भी शामिल नहीं किया गया है जिन्हें प्रयोगशालाओं में रखा गया था किंतु वे किसी प्रयोग का हिस्सा नहीं थे। एक अनुमान के मुताबिक, यदि अन्य जंतुओं को भी जोड़ा जाए, तो अकेले अमरीका में प्रयोगों में इस्तेमाल किए गए जंतुओं की संख्या 1.2-2.7 करोड़ तक हो सकती है। एक शोध पत्र के मुताबिक दुनिया भर में प्रयोगों में प्रति वर्ष करीब 11 करोड़ जंतुओं का इस्तेमाल किया जाता है। भारत के बारे में अलग से कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।

मकसद

यह तो सही है कि आजकल जंतु प्रयोग दवाइयों के विकास या सौंदर्य प्रसाधनों की जांच के लिए किए जाते हैं। किंतु ऐसा भी नहीं है कि सारे जंतु प्रयोग मात्र इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किए जाते हैं। कई जंतु प्रयोग मूलभूत जीव वैज्ञानिक प्रक्रियाओं को समझने के लिए भी किए जाते हैं।

ऐतिहासिक रूप से जंतु प्रयोगों का मूल मकसद जीव विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में समझ बढ़ाने का रहा है। प्रयोगों में जंतुओं का उपयोग मूलत: इस समझ पर टिका है कि सारे जीव-जंतु विकास के माध्यम से परस्पर सम्बंधित हैं। विकास की दृष्टि से देखें तो कुछ जंतु परस्पर ज़्यादा निकट हैं जबकि कुछ अपेक्षाकृत अधिक भिन्न हैं। जैसे यदि हम आनुवंशिकी का अध्ययन करना चाहते हैं तो कोई भी जीव इसमें सहायक हो सकता है क्योंकि विकास की लंबी अवधि में पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुणों के हस्तांतरण की विधि एक-सी रही है। किसी प्रक्रिया या परिघटना के अध्ययन के लिए जिस जीव को चुना जाता है उसे ‘मॉडल’ कहते हैं। कभी-कभी कोई जीव किसी रोग विशेष या परिघटना विशेष का मॉडल भी होता है।

‘मॉडल’ जीवों का चयन उनके साथ काम करने तथा उनमें फेरबदल करने की सरलता पर निर्भर है। आणविक जीव विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे सर्वप्रथम ‘मॉडल’ जीव एक किस्म के वायरस थे जिन्हें बैक्टीरिया-भक्षी वायरस (बैक्टीरियोफेज) कहते हैं। ये वायरस बैक्टीरिया को संक्रमित करते हैं। ये काफी रफ्तार से संख्यावृद्धि करते हैं। इसलिए इनके साथ काम करना सुविधाजनक है। बैक्टीरियाभक्षी वायरस भी प्रजनन करते हैं और मनुष्य भी। यह सही है कि प्रजनन की प्रक्रिया की बारीकियों में अंतर होते हैं किंतु जीवन के सबसे ‘निचले’ से लेकर सबसे ‘ऊपरी’ स्तर तक सिद्धांत वही रहता है। बैक्टीरिया-भक्षियों ने हमें यह खोज करने में मदद दी कि आनुवंशिक पदार्थ प्रोटीन नहीं बल्कि डीएनए है।

अलबत्ता, वायरस स्वतंत्र जीव नहीं होते और उन्हें अपना कामकाज चलाने के लिए किसी अधिक विकसित जीव के सहारे की ज़रूरत होती है। इसलिए मशहूर एशरीशिया कोली (E. coli) नामक बैक्टीरिया जीवन का बेहतर मॉडल बन गया। इस बैक्टीरिया ने न सिर्फ प्रजनन के मूल रूप को समझने में मदद की बल्कि यह समझने में भी मदद की कि आम तौर पर शरीर की बुनियादी क्रियाएं यानी चयापचय कैसे चलती हैं और कोशिका नामक सजीव कारखाना कैसे जीवनदायी रसायनों के उपभोग व उत्पादन का नियमन करता है।

लेकिन ई. कोली व अन्य बैक्टीरिया मनुष्य से बहुत भिन्न होते हैं। इनकी कोशिकाओं में केंद्रक तथा अन्य कोशिकांग नहीं होते। इसलिए खमीर कोशिकाओं जैसी ज़्यादा पेचीदा केंद्रक-युक्त कोशिकाएं मनुष्य की कोशिकीय प्रक्रियाओं को समझने का बेहतर मॉडल बनकर उभरीं। अलबत्ता, खमीर यानी यीस्ट एक-कोशिकीय जीव होते हैं जबकि मनुष्य बहु-कोशिकीय हैं। किसी बहु-कोशिकीय जीव का जीवन कहीं अधिक पेचीदा होता है। बहु-कोशिकीय जीवों में अलग-अलग कोशिकाएं अलग-अलग काम करने लगती हैं, उनके बीच परस्पर संवाद और सहयोग की ज़रूरत होती है। लिहाज़ा, बहु-कोशिकीय मगर काम करने में आसान फ्रूट फ्लाई (फल-मक्खी) और अन्य कृमि मनुष्य के जीव विज्ञान के अध्ययन के बेहतर मॉडल बन गए।

यहां यह कहना ज़रूरी है कि कई वैज्ञानिकों ने मनुष्य की शरीर क्रियाओं के अध्ययन के लिए स्वयं पर भी प्रयोग किए हैं। ऐसे वैज्ञानिकों में ब्रिटिश वैज्ञानिक (जिन्होंने आगे चलकर भारत की नागरिकता ले ली थी) जे.बी.एस. हाल्डेन का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। हाल्डेन ने कई खतरनाक प्रयोग स्वयं पर किए थे।

इसके बाद आती है बीमारियों को समझने और उनका उपचार करने की ज़रूरत। इसके लिए ऐसे जीवों का चयन करना होता है जिनमें वह बीमारी या तो कुदरती रूप से होती हो या कृत्रिम रूप से पैदा की जा सके। इसके लिए हमें चूहों, खरगोशों और बंदरों का उपयोग करना होता है। कई बार हमें इनके जेनेटिक रूप से परिवर्तित रूपों का भी उपयोग करना पड़ता है। इन अध्ययनों के चलते न सिर्फ कई महत्वपूर्ण खोजें हुर्इं बल्कि इन्होंने जंतु अधिकार सम्बंधी कई विवादों को भी जन्म दिया।

बड़े जंतुओं पर प्रयोग

बड़े जंतुओं पर प्रयोग कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं। छोटे जंतुओं (जैसे वायरस, बैक्टीरिया, फल-मक्खी, कृमि वगैरह) पर प्रयोग बुनियादी जीवन क्रियाओं के संदर्भ में उपयोगी होते हैं क्योंकि बुनियादी स्तर पर ये क्रियाएं लगभग एक समान होती हैं। किंतु यदि विशेष रूप से किसी बीमारी या ऐसे गुणधर्म का अध्ययन करना हो जो मनुष्यों के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है तो ऐसे जंतु का चयन करना होता है जिसे वह बीमारी होती हो या उस गुणधर्म विशेष के मामले में कुछ समानता हो। जैसे यदि आप दर्द की प्रक्रिया को समझना चाहते हैं तो जंतु ऐसा होना चाहिए जिसे दर्द होता हो। इस दृष्टि से बड़े जंतुओं पर प्रयोग महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

उदाहरण के लिए एंतोन लेवॉज़िए ने गिनी पिग (एक किस्म का चूहा) पर प्रयोगों की मदद से ही यह स्पष्ट किया था कि श्वसन एक किस्म का नियंत्रित दहन ही है। इसी प्रकार से भेड़ों में एंथ्रेक्स का संक्रमण करके लुई पाश्चर ने रोगों का कीटाणु सिद्धांत विकसित किया था जो आधुनिक चिकित्सा की एक अहम बुनियाद है। जंतुओं पर प्रयोगों से ही पाचन क्रिया की समझ विकसित हुई थी और यह स्पष्ट हुआ था कि पाचन एक भौतिक नहीं बल्कि रासायनिक प्रक्रिया है।

जंतुओं पर प्रयोगों ने हमें मनुष्य की शरीर क्रियाओं को समझने में बहुत मदद की है। इसके अलावा संक्रामक रोगों को समझने व उनका उपचार करने की दिशा में भी जंतु प्रयोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जैसे 1940 में जोनास साल्क ने रीसस बंदरों पर प्रयोग किए थे और पोलियो के सबसे संक्रामक वायरस को अलग किया था जिसके आधार पर पहला पोलियो का टीका बनाया गया था। इसके बाद अल्बर्ट सेबिन ने विभिन्न जंतुओं पर प्रयोग करके इस टीके में सुधार किया और इसने दुनिया से पोलियो का सफाया करने में मदद की। इसी प्रकार से थॉमस हंट मॉर्गन ने फल-मक्खी ड्रोसोफिला पर प्रयोगों के माध्यम से यह स्पष्ट किया था कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुणों का हस्तांतरण करने वाले जीन्स गुणसूत्रों के माध्यम से फैलते हैं। आज भी फल-मक्खी भ्रूणीय विकास और आनुवंशिकी को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण मॉडल जंतु है।

माउस (Mus musculus) एक प्रकार का चूहा होता है और इस पर ढेरों प्रयोग किए जाते हैं। दरअसल विलियम कासल और एबी लेथ्रॉप ने माउस की एक विशेष किस्म विकसित की थी। तब से ही माउस कई जीव वैज्ञानिक खोजों के लिए मॉडल जंतु रहा है।

गिनी पिग (Cavia porcellus) एक और चूहा है जिसने वैज्ञानिक खोजों में योगदान दिया है। जैसे, उन्नीसवीं सदी के अंत में डिप्थेरिया विष को पृथक करके गिनी पिग में उसके असर को देखा गया था। इसी आधार पर प्रतिविष बनाया गया था। यह टीकाकरण की आधुनिक विधि के विकास का पहला कदम था।

कुत्तों पर किए गए शोध से पता चला था कि अग्न्याशय के स्राव का उपयोग करके कुत्तों में मधुमेह पर नियंत्रण किया जा सकता है। इसके आधार पर 1922 में इंसुलिन की खोज हुई और इसका उपयोग मनुष्यों में मधुमेह के उपचार में शुरू हुआ। गिनी पिग्स पर अनुसंधान से पता चला था कि लीथियम के लवण मिर्गी जैसे दौरे में असरकारक हैं। इसके परिणामस्वरूप बाईपोलर गड़बड़ी के इलाज में बिजली के झटकों का उपयोग बंद हुआ। निश्चेतकों का आविष्कार भी जंतुओं पर किए गए प्रयोगों से ही संभव हुआ है और अंग प्रत्यारोपण की तकनीकों का विकास भी हुआ है।

जंतु का चयन

यह तो सही है कि विकास के ज़रिए सभी जंतु परस्पर सम्बंधित हैं और कई गुणधर्म साझा करते हैं। मगर कुछ जंतु मनुष्य के ज़्यादा करीब हैं। मनुष्य की शरीर क्रिया या रोगों को समझने के लिए ऐसे ही जंतुओं के साथ प्रयोग करने की ज़रूरत होती है। अध्ययनों से पता चला है कि हमारे सबसे करीबी जीव चिम्पैंज़ी हैं। मनुष्य और चिम्पैंज़ी के जीनोम में 98.4 प्रतिशत समानता है। शरीर क्रिया की दृष्टि से देखें तो चूहे जैसे कृंतक (कुतरने वाले जीव) भी हमसे बहुत अलग नहीं हैं। चिम्पैंज़ी पर प्रयोग करना काफी मुश्किल काम है। एक तो इनकी आबादी बहुत कम है, और ऊपर से इनका प्रजनन भी काफी धीमी गति से होता है और इन्हें पालना आसान नहीं है। और सबसे बड़ी बात है कि अधिकांश देशों में चिम्पैंज़ी तथा अन्य वानर प्रजातियों को सख्त कानूनी संरक्षण प्राप्त है। इसलिए चूहे, माउस, गिनी पिग वगैरह सबसे सुलभ मॉडल जीव बन गए हैं।

विकल्प

कई शोधकर्ताओं ने जंतु प्रयोगों की समीक्षाओं में बताया है कि पिछले कई वर्षों में नई-नई औषधियां खोजने के मसकद से किए गए जंतु प्रयोग निष्फल रहे हैं। जंतुओं पर प्रयोगों से प्राप्त जानकारी प्राय: मनुष्यों के संदर्भ में लागू नहीं हो पाती है। विकल्प के तौर पर कई सुझाव आए हैं और कई प्रयोगशालाओं में जंतु प्रयोगों को कम से कम करने के प्रयास भी किए जा रहे हैं। जैसे आजकल कंप्यूटरों की मदद से कई रसायनों के प्रभावों के बारे में काफी कुछ जाना जा सकता है। कोशिकाओं और प्रयोगशाला में निर्मित ऊतकों पर अध्ययन ने भी नए-नए मॉडल उपलब्ध कराएं। और इनके अलावा आजकल प्रयोगशालाओं में विकसित कृत्रिम अंगों का उपयोग भी किया जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नए जलवायु मॉडल की भविष्यवाणी

गभग पिछले 40 वर्षों से कंप्यूटर मॉडल कार्बन उत्सर्जन के कारण धरती के तेज़ी से गर्म होने के संकेत दे रहे हैं। लेकिन 2021 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा ग्लोबल वार्मिंग का आकलन करने के लिए जो नए मॉडल विकसित किए गए हैं, वे अजीब लेकिन निश्चित रुझान दिखा रहे हैं। इन मॉडल्स के अनुसार, धरती का तापमान पूर्व के अनुमानों की अपेक्षा कहीं अधिक होगा।

पहले के मॉडल्स के अनुसार, उद्योग-पूर्व युग के मुकाबले यदि वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) दुगनी हो जाए, तो संतुलन स्थापित होने तक पृथ्वी के तापमान में 2 से 4.5 डिग्री के बीच वृद्धि का अनुमान लगाया था। लेकिन यूएस, यूके, कनाडा और फ्रांस के केंद्रों द्वारा निर्मित अगली पीढ़ी के मॉडलों ने “संतुलित परिस्थिति” में 5 डिग्री सेल्सियस या अधिक वृद्धि का अनुमान लगाया है। इन मॉडलों को बनाने वाले यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि वह क्या चीज़ है जो उनके मॉडल्स द्वारा व्यक्त इस अतिरिक्त वृद्धि की व्याख्या कर सकती है।

अलबत्ता, यदि इन परिणामों पर विश्वास किया जाए, तो हमारे पास ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस या 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए पहले की तुलना में काफी कम समय है। वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड पहले ही 408 पीपीएम हो चुकी है। इसके आधार पर पहले के मॉडल्स ने भी आगामी चंद दशकों में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि का अनुमान लगाया था। एक विशेषज्ञ के मुताबिक इन नए मॉडलों के परिणामों पर अभी चर्चा की जा रही है। ऐसे में परेशान होने की ज़रूरत नहीं है किंतु यह पक्की बात है कि हमारे सामने जो संभावनाएं हैं वे काफी निराशाजनक हैं।

कई वैज्ञानिकों को इस पर काफी संदेह है। उनके मुताबिक पूर्व में दर्ज किए गए जलवायु परिवर्तन के आंकड़े इस उच्च जलवायु संवेदनशीलता या तापमान वृद्धि की तेज़तर गति का समर्थन नहीं करते। मॉडल बनाने वाले लोग भी इस बात से सहमत हैं और मॉडलों में सुधार का काम कर रहे हैं। लेकिन मॉडल में इन सुधारों के साथ भी पृथ्वी तेज़ी से गर्म होती मालूम हो रही है।

कुल मिलाकर, मॉडल के परिणाम निराशाजनक हैं, ग्रह पहले से ही तेज़ी से गर्म हो रहा है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह मॉडल सही भी हो सकता है। अगर ऐसा रहा तो यह काफी विनाशकारी होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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