शायद भारत में सुपरनोवा का अवलोकन किया गया था – प्रदीप

बात 4 जुलाई 1054 की है जब चीन और जापान के शाही ज्योतिषियों ने रात्रि आकाश के एक कोने में वृषभ राशि के अंदर अचानक एक प्रकाशपुंज को उभरते हुए देखा था जबकि कुछ ही देर पहले वहां कुछ नहीं था। अचानक ही वहां तारे जैसा कुछ चमकने लगा। इसके बाद वह इस कदर चमकीला होता गया कि उसकी चमक शुक्र ग्रह की चमक से पांच गुना ज़्यादा हो गई। पूरे 23 दिनों तक वह तारा दिन के उजाले में भी चमकता रहा! ज्योतिषी इसे देखकर हैरान हो गए होंगे; उन्हें बिलकुल भी समझ में नहीं आया होगा कि आखिर वह चीज़ थी क्या और अचानक कहां से प्रकट हुई थी? चीनी ज्योतिषियों ने एकाएक प्रकट होने वाले इस तारे को ‘काई ज़िंग’ या ‘मेहमान तारा’ नाम दिया। वह मेहमान तारा तकरीबन दो साल बाद आकाश से ओझल हो गया!

वृषभ राशि के ठीक उसी स्थान पर युरोपीय खगोलविदों ने 700 वर्ष बाद सन 1731 में दूरबीन से एक तारा देखा। फिर 1758 में खगोलविद शार्ल मेसिए ने बताया कि वह कोई तारा नहीं है, बल्कि एक निहारिका (नेबुला) है। चीनियों द्वारा देखे गए ‘मेहमान तारे’ के विस्फोट के अवशेष कर्क निहारिका (क्रैब नेबुला) के रूप में आज भी मौजूद हैं। ऐसे ही विस्फोटित तारों को अब वैज्ञानिक नोवा या सुपरनोवा नाम देते हैं। जब कोई तारा बतौर सुपरनोवा विस्फोटित होता है तब उसकी चमक कुछ देर के लिए समूची मंदाकिनी को भी फीका कर देती है। यही नहीं, इस दौरान इतनी अधिक मात्रा में ऊर्जा निकलती है कि उतनी ऊर्जा हमारा सूर्य अपने पूरे जीवनकाल में नहीं उत्सर्जित कर सकता!

एक सहस्राब्दी में कोरी आंखों से चंद सुपरनोवा विस्फोट ही दिखाई देते हैं। इस लिहाज़ से सुपरनोवा का दिखाई देना एक दुर्लभ खगोलीय घटना है। क्रैब सुपरनोवा के बाद खगोलविद टायको ब्रााहे ने 1572 में और जोहांस केपलर ने 1604 में हमारी आकाशगंगा में  प्रकट हुए सुपरनोवा देखे थे।

खगोलविदों का मानना है कि 1054 के सुपरनोवा को चीन और जापान के अलावा दुनिया में और भी जगहों पर (मसलन भारत, यूरोप, मध्यपूर्व और अमेरिका) में भी लोगों ने देखा होगा। आश्चर्य की बात यह है इस अद्भुत खगोलीय घटना को भारत में देखे जाने का कोई भी उल्लेख या रिकॉर्ड अभी तक नहीं मिला था, जबकि उस समय भारत में सैद्धांतिक खगोल विज्ञान का स्वर्णयुग चल रहा था। यह युग पांचवी शताब्दी में आर्यभट से लेकर बारहवीं शताब्दी में भास्कर द्वितीय तक चला। प्रसिद्ध खगोल शास्त्री जयंत नार्लीकर और संस्कृत और प्राकृत भाषा की विद्वान सरोजा भाटे ने उस काल में रचित साहित्य, अभिलेखों आदि की जांच-पड़ताल की जिस काल में क्रैब सुपरनोवा की घटना घटी थी, तो उन्हें भारतीयों द्वारा सुपरनोवा देखने का कोई भी साक्ष्य या उल्लेख नहीं मिला।

अब जवाहरलाल नेहरू प्लेनेटेरियम, बैंगलुरु की भूतपूर्व निदेशक डॉ. बी.एस. शैलजा ने इंडिया साइंस वायर में प्रकाशित एक फीचर आलेख में यह जानकारी दी है कि हाल में किए गए अध्ययनों में कुछ शिलालेखों में भारतीयों द्वारा उक्त सुपरनोवा को देखने के साक्ष्य मिले हैं। आगे डॉ. शैलजा को ही उद्धरित कर रहा हूं।

दक्षिण भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में पत्थरों पर लिखने की परंपरा रही है। इन शिलालेखों में प्रयुक्त भाषा संस्कृत थी, जिसका अभिप्राय समझना सरल था। इन शिलालेखों में ग्रहणों और ग्रहों की युतियों से सम्बंधित खगोलीय विवरण मिलते हैं।

कंबोडिया में एक ऐसा शिलालेख मिला है, जिसमें किसी साधु द्वारा शिवलिंग की स्थापना के समय शिव के लिए ‘शुक्रतारा प्रभावाय’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है, अर्थात वह जो शुक्र जैसी तीव्र कांति उत्पन्न कर सकता है। शिलालेख शुक्र जैसे चमकीले किसी तारे के प्रेक्षण की ओर संकेत करता है और शायद वह सुपरनोवा देखने की घटना थी।

एक और ऐसा शिलालेख मिला है जो अजिला साम्राज्य के समय का है। इसमें कर्नाटक के वेनुरु नामक कस्बे में बाहुबली की विशाल प्रतिमा की स्थापना के बारे में लिखा है। एक समय में कर्नाटक जैन धर्म का प्रमुख केंद्र था। यद्यपि यह शिलालेख कन्नड़ लिपि में लिखा गया है, पर इसकी भाषा संस्कृत है। शिलालेख में उस समय की पूरी तारीख लिखी है; दिन, महीना और वर्ष सहित। इस शिलालेख में 1604 के सुपरनोवा का ज़िक्र है।

शिलालेख में इस स्तंभ को ‘क्षीरामबुधि में निशापति’ की संज्ञा दी गई है। निशापति चंद्रमा को कहते हैं। यह शब्द कपूर के लिए भी प्रयुक्त होता है। क्षीरामबुधि के दो अर्थ संभव हैं, कर्नाटक का बेलागोला (कन्नड़ में जिसका अर्थ सफेद झील है) कस्बा, और दूसरा आकाशगंगा। वर्ष 1604 का सुपरनोवा धनु राशि के क्षेत्र में देखा गया था, जो आकाशगंगा में स्थित है।

एस्ट्रोलेब नामक प्राचीन खगोलीय यंत्र का उपयोग पुराने समय में समुद्री यात्राओं में दिशाज्ञान के लिए किया जाता था। एस्ट्रोलेब दरअसल तारों-नक्षत्रों की क्षितिज से ऊंचाई बताता है। एक इतिहासकार प्रोफेसर एस.आर. शर्मा ने जब विश्व भर के संग्रहालयों में विभिन्न एस्ट्रोलेब यंत्रों का अध्ययन किया तो उन्हें 25 दिसंबर 1605 का बना एक एस्ट्रोलेब मिला। इसमें धनुषाग्र और धनुकोटि नाम के दो तारे अंकित मिले। तारा धनुकोटि तो लगभग सभी एस्ट्रोलेब में मिलता है और उसका पाश्चात्य नाम है ‘अल्फा ओफियुकी’ या अरबी नाम ‘रासअलहाइग’ है पर तारा धनुषाग्र केवल इसी एस्ट्रोलेब में मिला और इसकी स्थिति वर्ष 1604 के सुपरनोवा के स्थान पर मिली। इस प्रकार हमें दो ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में इस सुपरनोवा का उल्लेख मिलता है।

इसी प्रकार, हमें 1572 के सुपरनोवा का उल्लेख संस्कृत व्याकरण की एक पुस्तक में मिलता है, जिसे संस्कृत के एक विद्वान अप्पया दीक्षित (1520-1593) ने लिखा था। उनकी रचना ‘कुवाल्यानंदा’ में लिखा है – “व्योमगंगा (आकाशगंगा) में यह क्या है? कमल जैसा है। चंद्रमा भी नहीं है। सूर्य भी नहीं, क्योंकि समय रात का है।” इन उल्लेखों को देखते हुए लगता है कि अन्य भारतीय भाषाओं में ऐसे संदर्भों में इन खगोलीय घटनाओं को खोजना उपयोगी हो सकता है।

उपरोक्त आधार पर हम कह सकते हैं कि शायद विद्वानों का यह मत सही नहीं है कि भारतीय लेखन में सुपरनोवा जैसी महत्वपूर्ण आकाशीय घटनाओं का उल्लेख नहीं मिलता। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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