मधुमक्खियां जोड़-घटा भी सकती हैं

वैज्ञानिक यह तो पता कर चुके हैं कि मधुमक्खियां 4 तक गिन सकती हैं और शून्य को समझती हैं। लेकिन हाल ही में साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि मधुमक्खियां जोड़ना-घटाना भी कर सकती हैं। अंतर इतना है कि इसके लिए वे धन-ऋण के चिंहों की जगह अलग-अलग रंगों का उपयोग करती हैं।

जीव-जगत में गिनना या अलग-अलग मात्राओं की पहचान करना कोई अनसुनी बात नहीं है। ये क्षमता मेंढकों, मकड़ियों और यहां तक कि मछलियों में भी देखने को मिलती है। लेकिन प्रतीकों की मदद से समीकरण को हल कर पाने की क्षमता दुर्लभ है। अब तक ये क्षमता सिर्फ चिम्पैंज़ी और अफ्रिकन भूरे तोते में देखी गई है।

शोधकर्ता जानना चाहते थे कि मधुमक्खियों (Apis mellifera) का छोटा-सा दिमाग गिनने के अलावा और क्या-क्या कर सकता है। शोघकर्ताओं ने पहले तो मधुमक्खियों को नीले और पीले रंग का सम्बंध जोड़ने और घटाने की क्रिया से बनाने के लिए प्रशिक्षित किया। उन्होंने 14 मधुमक्खियों को Y-आकृति की भूलभुलैया में प्रवेश यानी Y-आकृति की निचली भुजा (जहां से दो में से एक रास्ते का चुनाव करना होता था) में रखा और वहां उन्हें नीले और पीले रंग की वस्तुएं दिखाई गर्इं। जब उन्हें नीले रंग की कुछ वस्तुएं दिखाई जातीं और मधुमक्खियां उस ओर जातीं जहां दिखाई गई वस्तु से एक अधिक वस्तु है तो उन्हें इनाम मिलता था। Y-आकार की दूसरी भुजा के अंत में एक कम वस्तु होती थी। पीले रंग की वस्तुएं दिखाने पर यदि मक्खियां एक कम वस्तु वाली भुजा की तरफ जातीं तो उन्हें इनाम मिलता था।

इसके बाद उन्हें जांचा गया। मधुमक्खियों ने 63-72 प्रतिशत मामलों में सही जवाब दिए। पीला रंग दिखाने पर उन्होंने एक वस्तु ‘घटाई’ या नीला रंग दिखाने पर एक वस्तु ‘जोड़ी’ तब माना गया कि उन्होंने सही जवाब दिया है। यह प्रयोग मात्र 14 मधुमक्खियों पर किया गया है किंतु शोधकर्ताओं का मत है कि मनुष्य की तुलना में बीस हज़ार गुना छोटे दिमाग के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी की प्राचीन चट्टान चांद पर मिली

पृथ्वी की सबसे पुरानी चट्टानों में से एक चांद पर मिली है। अपोलो के अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा प्राप्त की गई एक विशाल चट्टान में 2 से.मी. की किरच धंसी हुई मिली है जो आश्चर्यजनक रूप से हमारी अपनी धरती की 4 अरब वर्ष पुरानी चट्टान का टुकड़ा है। फ्लोरिडा स्टेट विश्वविद्यालय के खगोल-रसायनज्ञ मुनीर हुमायूं का कहना है कि यह अत्यंत चौंकाने वाला निष्कर्ष है मगर सत्य हो सकता है।

इस खोज के बाद हमें पृथ्वी के प्रारंभिक इतिहास और उस पर होने वाली आकाशीय ‘बमबारी’ के बारे नए ढंग से सोचने में मदद मिलेगी। चांद पर मिले इस पत्थर की जानकारी हाल ही में अर्थ एंड प्लेनेटरी साइंस लेटर्स में प्रकाशित हुई है। इस शोध में शामिल चंद्र-भूगर्भ विशेषज्ञ डेविड किं्रग का कहना है कि चट्टान के बनने के बाद एक उल्का की टक्कर के कारण वह अंतरिक्ष में बिखर गई होगी और चांद पर पहुंच गई होगी। गौरतलब है कि उस समय चांद पृथ्वी के बहुत निकट था – आज के मुकाबले एक-तिहाई दूरी पर ही था। किसी तरह से यह टुकड़ा चांद की किसी चट्टान में समाहित हो गया और अंतत: 1971 में अपोलो 14 के अंतरिक्ष यात्री इसे वापिस पृथ्वी पर ले आए। यह पहली बार है कि चांद से मिली किसी चट्टान को पृथ्वी की मूल निवासी बताया गया है।

दरअसल, कई वर्ष पहले क्रिंग और उनके साथियों को इसी तरह की चांद की चट्टान में उल्काओं के टुकड़े मिले थे। इस आधार पर ही वे वहां पृथ्वी के टुकड़ों की खोज कर रहे थे। उक्त चट्टान के खनिज का विश्लेषण करने पर उसकी उत्पत्ति का सुराग मिल गया। जैसे, चट्टान में उपस्थित युरेनियम तथा उसके विखंडन से बने तत्वों के विश्लेषण से चट्टान के निर्माण का समय पता चला और टाइटेनियम की मात्रा के आधार पर उस समय के तापमान और दबाव का अंदाज़ लग गया।

क्रिंग के मुताबिक इस विश्लेषण के परिणामों से स्पष्ट हो गया कि इस चट्टान का निर्माण ऐसे स्थान पर हुआ था जहां पानी प्रचुर मात्रा में मौजूद था। निर्माण के समय के तापमान और दबाव से संकेत मिलता था कि यह चट्टान या तो पृथ्वी पर 19 कि.मी. की गहराई पर अथवा चांद पर 170 कि.मी. की गहराई पर बनी होगी। चूंकि 170 कि.मी. की गहराई की बात अजीब लगती है, इसलिए ज़्यादा संभावना यही है कि इसकी उत्पत्ति पृथ्वी पर हुई है।

यदि यह चट्टान वास्तव में पृथ्वी की है तो इसमें उस प्राचीन काल के सुराग मौजूद होंगे जिसे हैडियन कहते हैं। इसका यह भी मतलब होगा कि उस काल में पृथ्वी पर उल्काओं की ऐसी ज़ोरदार बारिश हुआ करती थी कि कोई टुकड़ा उछलकर चांद तक पहुंच सकता था। चांद से अलग-अलग यानों द्वारा कुल मिलाकर 382 कि.ग्रा. पत्थर लाए जा चुके हैं। ज़ाहिर है अब वैज्ञानिक इनकी छानबीन में जुट जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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नई कोयला खदान खोलने पर रोक

हाल ही में ऑस्ट्रेलिया की अदालत ने कोयला खदानों के कारण बढ़ रहे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग के मद्देनज़र कोयला खनन कंपनी की नई खुली खदान लगाने की अर्जी खारिज कर दी है।

ऑस्ट्रेलिया विश्व का सबसे बड़ा कोयला निर्यातक देश है। कोयला खनन कंपनी, ग्लॉसेस्टर रिसोर्सेस, हंटर घाटी के ग्लॉसेस्टर शहर के पास एक खुली कोयला खदान शुरू करना चाहती थी। इसके पहले पर्यावरणीय कारणों से न्यू साउथ वेल्स की भूमि व पर्यावरण अदालत ने कंपनी की अर्जी खारिज कर दी थी। कंपनी ने खदान लगाने के लिए दोबारा अर्जी दी थी। ऑस्ट्रेलिया में ऐसा पहली बार हुआ है कि नई कोयला खदान के लिए अनुमति ना मिली हो।

चीफ जज ब्रायन प्रेस्टन ने अपने आदेश में कहा है कि इस कोयला खनन परियोजना को इसलिए अस्वीकृत किया जा रहा है क्योंकि कोयला खदानों और उनके उत्पादों से निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसें विश्व स्तर पर पर्यावरण को प्रभावित करती हैं और इस समय पर्यावरण सम्बंधी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इन गैसों के उत्सर्जन को बहुत कम करने की ज़रूरत है।

दुनिया भर में पर्यावरण बदलाव के प्रभाव नज़र आ रहे हैं। विगत जनवरी का महीना ऑस्ट्रेलिया के अब तक के सबसे गर्म महीनों में दर्ज हुआ। इसी दौरान बिगड़े मौसम के कारण ऑस्ट्रेलिया के कई हिस्सों में भारी नुकसान हुए हैं। तस्मानिया का लगभग तीन प्रतिशत हिस्सा दावानल की चपेट में आया, उत्तरी क्वींसलैंड ने भारी बारिश के कारण बाढ़ का सामना किया। और अनुमान है कि दुनिया के कई हिस्सों में पर्यावरण बदलाव के कारण मौसम सम्बंधी अप्रत्याशित घटनाओं का सामना करना पड़ सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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कितने समय से पांडा सिर्फ बांस खाकर ज़िन्दा है

रीर पर बड़े-काले धब्बे वाले पांडा (Ailuropoda melanoleuca) चीन के बांस के जंगलों में रहते हैं और उनका भोजन सिर्फ बांस है। लेकिन सवाल यह है कि कब से पांडा ने सिर्फ बांस को अपना भोजन बना लिया। हमेशा से बांस पांडा का भोजन नहीं रहा है और ना ही पूर्व में उनका आवास स्थान बांस के जंगल था, उनमें काफी विविधता थी। पूर्व में हुए शोध के आधार पर वैज्ञानिकों का मानना था कि पांडा ने लाखों साल पहले ही बांस को अपना भोजन बना लिया था। लेकिन हाल का एक अध्ययन बताता है कि ऐसा नहीं है। करंट बायोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित शोध के अनुसार पांडा ने लाखों साल पहले नहीं बल्कि कुछ हज़ार साल (5-7 हज़ार साल) पहले ही बांस को अपना एकमेव भोजन बनाया है।

पांडा के भोजन और आवास में परिवर्तन कब आए, यह जानने के लिए चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंस के संरक्षण जीव विज्ञानी फुवेन वेई और उनके साथियों ने प्राचीन और आधुनिक पांडा की हड्डियों और दांतों में मौजूद स्थिर समस्थानिकों (तत्वों के ऐसे समस्थानिक जो समय के साथ क्षय नहीं होते) के अनुपात की तुलना की।

कोई भी जीव जो भोजन खाता है, उस भोजन की रासायनिक पहचान उसके शरीर में आ जाती है। वैज्ञानिक शरीर के अलग-अलग ऊतकों की जांच करके यह पता कर सकते हैं कि किसी जीव के जीवन काल के अलग-अलग समय पर उसका भोजन कैसा रहा होगा। हड्डियों में मौजूद समस्थानिकों की मदद से पता किया जा सकता है कि जीवन के अंतिम कुछ सालों में किसी जीव का भोजन कैसा रहा होगा। दांतों के नमूने से यह पता किया जा सकता है कि किसी जीव के शुरुआती जीवन में उसका भोजन कैसा रहा होगा।

शोधकर्ताओं की टीम ने तकरीबन 5000 साल पूर्व के पांडा जीवाश्म और आधुनिक मृत पांडा के दांतों और हड्डियों के समस्थानिकों की मात्रा तुलना की। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि पांडा के पूर्वजों का भोजन आधुनिक पांडा से बहुत अलग था और वे ऊष्ण कटिबंधीय जंगलों में रहते थे। हालांकि विश्लेषण में इस बात का पता नहीं चला है कि पांडा के पूर्वजों का भोजन क्या था।

पांडा के पूर्वज असल में खाते क्या थे, यह जानने के लिए यह पता करना होगा कि पांडा के पूर्वजों के पेट में क्या पहुंचता था। लेकिन यह पता करना आसान नहीं है। जीवाश्मों में उनका भोजन मिलना मुश्किल है। मगर इस तरह के अध्ययनों से इस बात के संकेत तो मिल ही सकते हैं कि क्यों पांडा सिर्फ बांस को ही अपना भोजन बनाने को मजबूर हुए, और उनका आवास स्थान इतना सीमित कैसे हो गया। यदि इन कारणों का पता लग जाए तो हम वर्तमान में बचे हुए पांडा का संरक्षण कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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माजूफल: फल दिखता है, फल होता नहीं – डॉ. किशोर पंवार

माजूफल, जायफल, और कायफल भारत तथा एशिया के कई देशों में घरेलू चिकित्सा के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। पहले तो ये तीनों अपने मूल स्वरूप में हर घर में मिलते थे परंतु अब इनके उत्पाद मिलते हैं पावडर या कैप्सूल के रूप में। आइए देखते हैं कि ये फल वास्तव में कितने फल है।

पहले बात करते हैं जायफल की। अंग्रेज़ी में इसे नटमेग कहते हैं। वनस्पति विज्ञानी इसे मायरिस्टिका फ्रेगरेंस नाम से जानते हैं। नाम से ही पता चलता है कि यह कोई सुगंधित वस्तु है। संस्कृत साहित्य में इसे जाति फलम कहा गया है। इसके पेड़ जावा, सुमात्रा, सिंगापुर, लंका तथा वेस्ट इंडीज़ में अधिक पाए जाते हैं। हमारे यहां तमिलनाडु और केरल में इसके पेड़ लगाए गए हैं। जायफल का वृक्ष सदाबहार होता है। फूल सफेद और फल छोटे-छोटे, लगभग अंडाकार लाल-पीले होते हैं जो पकने पर दो भागों में फट जाते हैं। फटने पर सूखे हुए बीज को घेरे हुए सुर्ख लाल रंग की एक जाल सी रचना नज़र आती है। यह भूरा, अंडाकार तथा लगभग 2-5 सेंटीमीटर का बीज ही जायफल है।

फल का उपयोग सुगंध, उत्तेजक, मुख दुर्गंध नाशक और वेदनाहर के रूप में किया जाता है।

अब जरा जावित्री की बात कर लेते हैं। यह लाल नारंगी रंग की मोटी जाल समान रचना है जो टुकड़ों के रूप में बाज़ार में मिलती है। जावित्री दरअसल जायफल के बीज पर लगी एक विशेष रचना है, जो सुगंधित और तीखी होती है। इसमें मुख्य रूप से वाष्पशील तेल, वसा और गोंद होते हैं। इसके गुण भी जायफल की तरह होते हैं इसे हम बीज का तीसरा छिलका या विज्ञान की भाषा में एरील कहते हैं।

अब बात करें कायफल की। वनस्पति शास्त्र में मिरिका एस्कूलेंटा नाम से ज्ञात यह पेड़ हिमालय के उष्ण प्रदेशों में खासी पहाड़ियों में पाया जाता है। सिंगापुर में भी मिलता है। चीन तथा जापान में इसकी खेती की जाती है। इसके मध्यम ऊंचाई के वृक्ष सदाबहार होते हैं, छाल बादामी-धूसर और सुगंधित होती है। फल लगभग आधा इंच लंबे अंडाकार दानेदार बादामी होते हैं। यद्यपि वृक्ष का नाम कायफल है, तब भी औषधि के रूप में इसकी छाल का ही प्रयोग कायफल के नाम से किया जाता है। अत: यह फल नहीं, एक पेड़ की छाल है। इसकी छाल को सूंघने से छींक आती है, तथा पानी में डालने पर लाल हो जाती है। 

अब बात एक बिलकुल ही नकली फल – माजूफल – की। यह नकली फल क्वेर्कस इनफेक्टोरिया नामक एक ओक प्रजाति का है और गाल्स के रूप में बनता है। सदियों से एशिया महाद्वीप में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में इन गाल्स का उपयोग किया जाता रहा है। मलेशिया में इसे मंजाकानी कहते हैं। इसका उपयोग चमड़े को मुलायम करने और काले रंग की स्याही बनाने में वर्षो से हो रहा है। भारत में इसे माजूफल कहते हैं। 

क्वेर्कस इनफेक्टोरिया एक छोटा पेड़ है, जो एशिया माइनर का मूल निवासी है। पत्तियां चिकनी और चमकदार हरी होती हैं। जब ततैया शाखाओं पर छेद कर उनमें अपने अंडे देती है तो इन अंडों से निकलने वाले लार्वा और तने की कोशिकाओं के बीच रासायनिक अभिक्रिया होती है जिसके फलस्वरूप शाखाओं पर फल जैसी गोल-गोल कठोर रचनाएं बन जाती है, जो दिखने में खुरदरी होती हैं। इन्हें गाल कहते हैं और यही माजूफल है। 

इस गाल में अन्य रसायनों के अलावा टैनिन काफी मात्रा में पाया जाता है। भारत में माजूफल का उपयोग दंत मंजन बनाने, दांत के दर्द और पायरिया के उपचार में किया जाता है। इस गाल से मिलने वाला टैनिक एसिड गोल्ड सॉल बनाने के काम आता है। गोल्ड सॉल का उपयोग इम्यूनोसाइटोकेमेस्ट्री में मार्कर के रूप में किया जाता है। वर्तमान में इसका उपयोग खाद्य पदार्थों, दवा उद्योग, स्याही बनाने और धातु कर्म में बड़े पैमाने पर किया जाता है। माजूफल का उपयोग प्रसव के बाद गर्भाशय को पूर्व स्थिति में लाने के लिए भी किया जाता है।

तो हमने देखा कि ये तीन विचित्र चीज़ें हैं, जिनका उपयोग फल कहकर किया जाता है। इनमें से एक (जायफल) तो फल नहीं बीज है। दूसरा (कायफल) छाल है जबकि तीसरा (माजूफल) तो फलनुमा दिखने के बावजूद गाल नामक एक विशेष संरचना है। (स्रोत फीचर्स)

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क्या चांद के चांद हो सकते हैं?

हाल ही में खगोल शास्त्रियों ने एक सैद्धांतिक संभावना व्यक्त की है कि ग्रहों के चक्कर काटने वाले चंद्रमाओं के भी चंद्रमा हो सकते हैं। उन्होंने ऐसा होने के लिए कुछ शर्तें भी बताई हैं। और यह बहस शुरू हो गई है कि इन आकाशीय पिंडों को नाम क्या देंगे।

पहले तो यह देख लीजिए कि चंद्रमा का मतलब क्या होता है। चंद्रमा उन आकाशीय पिंडों को कहते हैं जो किसी प्राकृतिक ग्रह (जैसे पृथ्वी, बृहस्पति वगैरह) के चक्कर काटते हों। ग्रह तो स्वयं सूर्य के चक्कर काटता है।

साइन्स एलर्ट में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कार्नेजी इंस्टीट्यूशन की वेधशाला के खगोल शास्त्री जूना कोलमेयर और बोर्डो विश्वविद्यालय के खगोलविद सीन रेमंड ने ऐसे चंद्रमा के चंद्रमाओं की संभावना जताई है और इनके लिए उपचंद्रमा नाम प्रस्तावित किया है।

कोलमेयर और रेमंड ने अनुमान लगाने की कोशिश की है कि किस तरह चांद के अपने उप-चंद्रमा हो सकते हैं और इन उप-चंद्रमाओं और चंद्रमा का परस्पर सम्बंध क्या होगा। उनका कहना है कि सैद्धांतिक रूप से किसी चंद्रमा के उप-चंद्रमा तभी संभव हैं जब वह चंद्रमा स्वयं काफी विशाल हो और उप-चंद्रमा काफी छोटा हो।

इसे समझने के लिए हिल स्फीयर की अवधारणा को समझना होगा। हिल स्फीयर की अवधारणा अमेरिकी खगोल शास्त्री जॉर्ज विलियम हिल ने विकसित की थी। किसी भी ग्रह के आसपास के उस क्षेत्र को उसका हिल स्फीयर कहते हैं जहां ग्रह का गुरुत्वाकर्षण प्रमुख चालक शक्ति होता है। इसके बाहर सूर्य का गुरुत्वाकर्षण प्रमुख हो जाता है। उदाहरण के लिए पृथ्वी के हिल स्फीयर की त्रिज्या 15 लाख कि.मी. है। यानी पृथ्वी के चारों ओर 15 लाख कि.मी. की दूरी तक पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण सबसे प्रभावी बल रहता है। किसी भी ग्रह का प्राकृतिक उपग्रह (चंद्रमा) इस हिल स्फीयर के अंदर ही रह सकता है। हमारा चांद पृथ्वी से पौने चार लाख कि.मी. दूर है यानी हिल स्फीयर के अंदर ही है। यदि किसी वजह से चांद इस हिल स्फीयर से बाहर निकल जाए तो वह पृथ्वी की परिक्रमा करने की बजाय सीधे सूर्य की परिक्रमा करने लगेगा और स्वयं एक ग्रह कहलाने का पात्र हो जाएगा। तुलना के लिए बृहस्पति का हिल स्फीयर लगभग साढ़े पांच करोड़ कि.मी. का है। यही वजह है कि बृहस्पति के 79 चंद्रमा हैं।

अब अपने चांद पर विचार करें। उसका हिल स्फीयर उसके चारों ओर 60,000 कि.मी. की दूरी तक फैला है। तो हमारे चांद को यदि किसी चंद्रमा से स्थायी रिश्ता बनाकर रखना है तो वह उप-चंद्रमा चांद से अधिकतम 60,000 कि.मी. की दूरी पर हो सकता है। मगर यहां एक दिक्कत है।

यदि चांद का उप-चंद्रमा उसके इतना नज़दीक हुआ तो उस पर चंद्रमा के कारण ज्वारीय प्रभाव बहुत विकट हो जाएंगे और उसका परिक्रमा पथ धीरे-धीरे छोटा होता जाएगा और एक समय आएगा जब वह चांद में समा जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो वह घटना काफी उग्र होगी। यह भी हो सकता है कि मूल ग्रह के ज्वारीय प्रभाव से या तो चंद्रमा और उप-चंद्रमा आपस में टकराकर चकनाचूर हो जाएं या उप-चंद्रमा अपनी कक्षा को छोड़कर अंतरिक्ष में निकल जाए।

उप-चंद्रमा के स्थायी रूप से चांद के चक्कर लगाने की प्रमुख शर्त यह है कि वह चांद के हिल स्फीयर में हो तथा इस उप-चंद्रमा की परिक्रमा कक्षा तथा मूल ग्रह की परिक्रमा कक्षा के बीच स्पष्ट फासला हो। वैसे उप-चंद्रमा मिलें ना मिलें, इस अध्ययन से उपग्रह निर्माण तथा ग्रह मंडलों के विकास को समझने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

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वेटलैंड एक महत्वपूर्ण इकोसिस्टम है – डॉ. दीपक कोहली

जीव-जन्तु विभिन्न प्रकार के प्राकृतवासों में रहते हैं। इन्हीं में से एक है वेटलैंड यानी नमभूमि। सामान्य भाषा में वेटलैंड ताल, झील, पोखर, जलाशय, दलदल आदि के नाम से जाने जाते हैं। सामान्यतया वर्षा ऋतु में ये पूर्ण रूप से जलमग्न हो जाते हैं। वेटलैंड्स का जलस्तर परिवर्तित होता रहता है। कई वेटलैंड वर्ष भर जल प्लावित रहते हैं जबकि कई ग्रीष्म ऋतु में सूख जाते हैं।

वेटलैंड एक विशिष्ट प्रकार का पारिस्थितिक तंत्र है तथा जैव विविधता का महत्वपूर्ण अंग है। ज़मीन व जल क्षेत्र का मिलन स्थल होने के कारण वेटलैंड समृद्ध पारिस्थितिक तंत्र होता है। वेटलैंड न केवल जल भंडारण का कार्य करते हैं, अपितु बाढ़ की विभीषिका कम करते हैं और पर्यावरण संतुलन में सहायक हैं।

वेटलैंड्स को जैविक सुपर मार्केट कहा जाता है। इनमें विस्तृत खाद्य जाल पाया जाता है। इन्हें धरती के गुर्दे भी कहा जाता है, क्योंकि ये जल को शुद्ध करते हैं। ये मछली, खाद्य वनस्पति, लकड़ी, छप्पर बनाने व ईंधन के रूप में उपयोगी वनस्पति एवं औषधीय पौधों के उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

वेटलैंड्स असंख्य लोगों को भोजन (मछली व चावल) प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वेटलैंड्स कार्बन अवशोषण व भूजल स्तर में वृद्धि जैसी महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। ये पक्षियों और जानवरों, देशज पौधों और कीटों को आवास उपलब्ध कराते हैं।

भारत के अधिकांश वेटलैंड्स गंगा, कावेरी, कृष्णा, गोदावरी और ताप्ती जैसी प्रमुख नदी तंत्रों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुडे हुए हैं। एशियन वेटलैंड्स कोश के अनुसार वेटलैंड्स का देश के क्षेत्रफल (नदियों को छोड़कर) में 18.4 प्रतिशत हिस्सा है, जिसके 70 प्रतिशत भाग में धान की खेती होती है। भारत में वेटलैंड्स का अनुमानित क्षेत्रफल 41 लाख हैक्टर है, जिसमें 15 लाख हैक्टर प्राकृतिक और 26 लाख हैक्टर मानव निर्मित है। तटीय वेटलैंड्स का क्षेत्रफल 6750 वर्ग किलोमीटर है और यहां मुख्यत: मैंग्रोव पाए जाते हैं।

वर्तमान में प्रदूषण और औद्योगीकरण के कारण वेटलैंड्स पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। आजकल वेटलैंड्स के किनारे कूड़ा डम्प किया जा रहा है जिसके कारण ये प्रदूषित हो रहे हैं। कई जगहों पर वेटलैंड्स को पाटकर उन पर कांक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं। वेटलैंड्स के संकटग्रस्त होने के कारण वहां रहने वाले पशु, पक्षी एवं वनस्पतियों का अस्तित्व भी संकट में है। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल के दलदली क्षेत्र में पाया जाने वाला दलदली हिरण कम हो रहा है। इसी प्रकार तराई क्षेत्र में पाई जाने वाली फिशिंग कैट पर भी बुरा असर पड़ रहा है। गुजरात के कच्छ क्षेत्र में जंगली गधा भी खतरे में है। असम के काजीरंगा का एक सींग वाला भारतीय गैंडा भी संकटग्रस्त प्राणियों की श्रेणी में शामिल है। इसी प्रकार ओटर, गंगा डॉल्फिन, डूगोंग, एशियाई जलीय भैंस जैसे वेटलैंड से जुड़े अनेक जीव खतरे में हैं।

वेटलैंड संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास में ‘रामसर संधि’ प्रमुख है। यह एक अन्तर-सरकारी संधि है, जो वेटलैंड्स और उनके संसाधनों के संरक्षण और बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग के लिए राष्ट्रीय कार्य और अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग का ढांचा उपलब्ध कराती है। 1971 में देशों ने ईरान के रामसर में विश्व के वेटलैंड्स के संरक्षण हेतु एक संधि पर हस्ताक्षर किए थे। इस दिन ‘विश्व वेटलैंड्स दिवस’ का आयोजन किया जाता है।

वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व में 2200 से अधिक वेटलैंड्स हैं, जिन्हें अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के वेटलैंड्स की रामसर सूची में शामिल किया गया है । रामसर कन्वेंशन में शामिल होने वाले देश वेटलैंड्स को पहुंची हानि और उनके स्तर में आई गिरावट को दूर करने के लिए सहायता प्रदान करने हेतु प्रतिबद्ध हैं।

वेटलैंड्स संरक्षण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रयास किए गए हैं। 1986 में केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों के सहयोग से राष्ट्रीय वेटलैंड संरक्षण कार्यक्रम शुरू किया गया था। इसके अन्तर्गत संरक्षण और प्रबंधन के लिए पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा देश में 115 वेटलैंड्स की पहचान की गई थी।

वर्ष 2017 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा वेटलैंड्स के संरक्षण से सम्बंधित नए नियम अधिसूचित किए गए थे। नए नियमों में वेटलैंड्स प्रबंधन के प्रति विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण अपनाया गया है, ताकि क्षेत्रीय विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके और राज्य अपनी प्राथमिकताएं निर्धारित कर सकें।

उल्लेखनीय है कि देश में मौजूद 26 वेटलैंड्स को ही संरक्षित किया गया है, लेकिन ऐसे हज़ारों वेटलैंड्स हैं जो जैविक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण तो हैं लेकिन उनकी कानूनी स्थिति स्पष्ट नहीं है।

वेटलैंड परितंत्र के अदृश्य अर्थतंत्र का आकलन करने वाली संस्था ‘दी इकॉनॉमिक्स ऑफ इकोसिस्टम एंड बायोडायवर्सिटी सर्विसेज़’ के अनुसार समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिए वेटलैंड जीवनरेखा है। वेटलैंड्स की सेवाओं को चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

(क) जीवन-यापन के रुाोत उपलब्ध कराना ताकि इन क्षेत्रों में निवास करने वाले गरीब लोगों को कमाई का अवसर मिल सके। वेटलैंड से शुद्ध पेयजल, भोजन, रेशे, र्इंधन, जेनेटिक संसाधन, जैव रसायन, प्राकृतिक औषधियां आदि प्राप्त होते हैं।

(ख) स्थानीय जलवायु विनियमन, ग्रीनहाउस गैसों के नियंत्रण हेतु एक वृहद कार्बन सिंक, जलीय चक्र को रेगुलेट करना और भूमिगत जल के स्तर को नियंत्रित करना भी वेटलैंड के लाभ के अन्तर्गत आता है। आपदा जोखिम को कम करना, खासकर बाढ़ और आंधी से बचाव। मृदा सृजन और मृदा अपरदन का नियंत्रण, सतही और भूमिगत जल में उपस्थित जैव रसायन और आर्सेनिक, लेड, आयरन, फ्लोरीन आदि का उपचार। वेटलैंड्स जल का शुद्धिकरण करते हैं और प्राकृतिक संतुलन बनाने में भूमिका निभाते हैं।

(ग) वेटलैंड्स सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आस्था का केंद्र माने जाते हैं। ग्रामीण अंचल में लोग इनकी पूजा करते हैं। आजकल वेटलैंड्स को इकोटूरिज़्म के विशेष केंद्र के तौर पर देखा जा रहा है। इकोटूरिज़्म के साथ-साथ शिक्षा और वैज्ञानिक-शोध के केंद्र के तौर पर भी इन्हें विकसित किया जा रहा है।

(घ) वेटलैंड्स को जैव विविधता का स्वर्ग भी कहा जाता है। ये शीतकालीन पक्षियों और विभिन्न जीव-जन्तुओं का आश्रय स्थल होते हैं। विभिन्न प्रकार की मछलियों और जन्तुओं के प्रजनन के लिए भी ये उपयुक्त होते हैं।

वेटलैंड्स से हमारा जीवन प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है। वेटलैंड्स बचाए बगैर न तो वैश्विक तापमान में वृद्धि रोकी जा सकती है और न ही जलवायु परिवर्तन की मार से बचा जा सकता है। अत: अपने स्वार्थ के लिए सही, अब ज़रूरी हो गया है कि वेटलैंड्स को बचाएं। (स्रोत फीचर्स)

भारत के प्रमुख वेटलैंड्स

भितरकनिका (उड़ीसा), चिलिका (उड़ीसा), भोज ताल (मध्य प्रदेश), चंद्रताल (हिमाचल प्रदेश), पोंग बांध झील (हिमाचल प्रदेश)रेणुका नमभूमि (हिमाचल प्रदेश), डिपोल बिल (असम), पूर्वी कोलकाता नमभूमि (पश्चिम बंगाल), हरिका झील (पंजाब), कंजली (पंजाब), रोपर (पंजाब), सांभर झील (राजस्थान), केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान (राजस्थान), कौलुरू झील (आंध्र प्रदेश), लोकटक झील (मणिपुर), नलसरोवर पक्षी अभयारण्य (गुजरात), पाइंट कैलियर पक्षी विहार (तमिलनाडु), रूद्रसागर झील (त्रिपुरा), ऊपरी गंगा नदी (उत्तर प्रदेश), अष्टमुडी (केरल), वायनाड-कोल नमभूमि (केरल), साथामुकोटा झील (केरल), सौमित्री (जम्मू एवं कश्मीर), सुरिनसर-मान्सर झील (जम्मू एवं कश्मीर), होकेरा (जम्मू एवं कश्मीर) तथा वूलर झील (जम्मू एवं कश्मीर)।

प्रमुख जीव-जन्तु और वनस्पतियां

गैंडा, हिस्पिड हेअर (खरगोश), हिरण, ऊदबिलाव, गंगा डॉल्फिन, बारहसिंघा, बंगाल फ्लोरिकन, सारस, ककेर, घड़ियाल, मगर, फ्रेशवाटर टर्टल्स, पनकौआ, ब्लैक नेक्ड स्टॉर्क, संगमरमरी टील आदि। वनस्पतियों में सरपत, मूंज, नरकुल, सेवार, तिन्नाधान, कसेरू, कमलगट्टा, मखाना, सिंघाड़ा आदि प्रमुख हैं।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अपने खुद के रक्तदाता बनिए – नरेंद्र देवांगन

क महिला स्विट्जरलैंड की सीमा शुल्क चौकी पर एक छोटा-सा सूटकेस तथा प्लास्टिक की बर्फपेटी लिए कतार में लगी थी। सीमा शुल्क अधिकारी ने पूछा कि इस पेटी में क्या है? उसे लगा था कि उसमें कोई फ्रांसीसी व्यंजन है जो वह दोस्तों के लिए ले जा रही है।

लेकिन उत्तर मिला, खून अधिकारी चौंक गया, खून? महिला ने स्पष्ट किया कि बर्फपेटी में स्वयं उसके खून की तीन थैलियां बर्फ में दबाकर रखी हैं जो पेरिस के ब्रूसे अस्पताल में पिछले तीन सप्ताह में उसके शरीर से निकाला गया था। कल यही खून लौसाने स्थित एक अस्पताल में उसकी ह्मदय की बायपास सर्जरी के बाद उसे ही चढ़ा दिया जाएगा। सर्जन वहां सर्जरी के दौरान निकले खून को सोखने तथा शोधन के लिए सेल वॉशर का भी उपयोग करते थे। इस प्रकार, सर्जरी के दौरान व बाद में उसे अपना ही खून दिया जाने वाला था ताकि एड्स या हेपेटाइटिस का कोई जोखिम न रहे।

अध्ययन दर्शाते हैं कि दान किए गए खून में एड्स वायरस (एचआईवी) मिलावट की संभावना बनी रहती है, भले यह अत्यल्प है। जॉर्जिया के अटलांटा स्थित अमरीकी रोग नियंत्रण केंद्र के अनुसार दान किए गए खून द्वारा या किसी ओर का खून चढ़ाए जाने के कारण अमरीका में 1985 से अब तक प्रति वर्ष लगभग 460 व्यक्ति एड्स वायरस से संक्रमित होते रहे हैं। प्रसंगवश, इसी वर्ष दान में आए खून की एड्स सम्बंधी जांच अनिवार्य की गई थी।

वैसे शल्य चिकित्सा के अधिकांश मामलों में खून चढ़ाने की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन कई सर्जरी के दौरान अत्यधिक खून बह सकता है। जैसे बायपास सर्जरी में 2 से 4.7 लीटर तक खून बह सकता है जो औसत वयस्क व्यक्ति के कुल खून का आधा है। इस कमी को पूरा करने की तत्काल आवश्यकता होती है वरना रोगी गहरे आघात वाली स्थिति में पहुंच सकता है तथा उसकी मृत्यु भी हो सकती है।

पहले कुछ ही रोगी पर-रक्ताधान (किसी अन्य का खून लेना) के खतरों के प्रति चिंतित रहा करते थे। उदाहरण के लिए, एक पोत के सेवानिवृत्त कप्तान राइटेर को 1980 में न्यूयॉर्क के अस्पताल में कूल्हा बदलवाना पड़ा। वह जानता था कि इस प्रक्रिया में उसे अत्यधिक खून गंवाना पड़ेगा, लेकिन वह यह भी जानता था कि खून की कमी की पूर्ति किसी रक्तदान केंद्र से सही ग्रुप के खून से कर दी जाएगी। पर न तो राइटेर और न ही उसके चिकित्सक वाकिफ थे कि ऐसे खून की एक-एक बूंद खतरे का कारण बन सकती है। इसके कुछ वर्षों बाद ही चिकित्सा क्षेत्र में यह जागरूकता आई कि एड्स का वायरस खून से भी एक से दूसरे तक पहुंचता है। तो अत्यधिक विश्वसनीय एवं जीवन रक्षक उपचार अचानक जोखिम से घिर गया।

खैर, राइटेर में तो कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं हुआ किंतु 1979 से 1985 में पर-रक्त प्राप्त करने वाले अन्य सभी लोग इतने भाग्यशाली न थे। अध्ययनों के अनुसार, जिन रोगियों को 80 के दशक के शुरू में पर-रक्त चढ़ाया गया था, उनमें से लगभग 5 से 6 प्रतिशत एड्स के संपर्क में आ गए, तथा 5 से 17 प्रतिशत हेपेटाइटिस-सी के विषाणुओं से संक्रमित हो गए।

पर-रक्त की सर्वथा निरापद आपूर्ति असंभव है। यद्यपि दान में आए रक्त में एचवाईवी की उपस्थिति की जांच अधिकतर देशों में अनिवार्य हो गई है, लेकिन वायरस आरंभिक अवस्था में हो तो वे पकड़ में नहीं आते हैं। अमरीकी रोग नियंत्रण केंद्रों के अनुसार सर्जरी में रोगी को 5 युनिट पर-रक्त देने पर एड्स विषाणु से संक्रमित होने की संभावना दस हज़ार में एक को होती है।

अत: पूर्णत: निरापद रूप से रक्त चढ़ाना हो तो इसका उपाय यही है कि रक्त स्वयं आपका ही हो। सर्जरी के अधिकतर मामलों में रक्तदान सर्जरी से तीन सप्ताह पहले शुरू कर दिया जाता है तथा सामान्यत: रक्त को संपूर्ण अथवा प्राकृतिक अवस्था में किसी आम रेफ्रिजरेटर में रख दिया जाता है। हां, रक्त ज़्यादा बह जाने की आशंका हो तो रक्तदान शल्य चिकित्सा से कई माह पहले भी शुरू हो सकता है। ऐसे में रक्त कोशिकाओं, जिन्हें केवल पांच सप्ताह तक सुरक्षित रखा जा सकता है, को अलग कर लिया जाता है तथा रोगी को चढ़ा दिया जाता है। शेष तरल रक्त प्लाज़्मा को शून्य से 56 डिग्री सेल्सियस कम तापमान पर एकदम से जमा कर फ्रीजर में रख दिया जाता है। इस अवस्था में इसे दो से तीन वर्षों तक अच्छी दशा में यथावत रखा जा सकता है।

घालमेल से बचने के लिए थैलियों पर पर्चियां लगा दी जाती हैं। अक्सर कंप्यूटर द्वारा पठनीय लिपि कोड तक संलग्न होता है जिसमें रोगी का नाम, खून का वर्ग, पहचान संख्या तथा आंकडे होते हैं। अतिरिक्त स्वरक्त चाहिए हो तो शल्य क्रिया के ठीक पहले लाल रक्त कोशिका के अनुपात में प्लाज़्मा चढ़ाया जाता है। इस तकनीक को रक्त तनुकरण कहा जाता है।

स्वरक्ताधान को महत्वपूर्ण तकनीकी बढ़ावा छोटे आकार के सेंट्रिफ्यूज जैसे यंत्र से मिला है जिसे सेल वॉशर कहते हैं। इससे सर्जरी के दौरान तथा बाद में बहे रक्त का उपयोग शोधन के बाद कर लिया जाता है। उदाहरण के लिए जब राइटेर ही दूसरी बाद कूल्हा बदलवाने के लिए गया तो उसके घावों से बहते खून को ‘नली’ द्वारा चूसकर ऑपरेशन की मेज़ के पास लगे सेल वॉशर में पहुंचा दिया गया।

इसके साथ ही साथ डॉक्टरों द्वारा अलग किए गए रक्त से भरे पतले स्पंजों को इकट्ठा कर चीनी मिट्टी के पात्र में निचोड़ा जाता है तथा रक्त की छोटी मात्रा को उसी नली का प्रयोग कर चूस लिया जाता है।

शल्य क्रिया के दौरान रक्त शोधन का दोहरा लाभ है। वॉशर लाल रक्त कोशिकाओं को पुन: चढ़ाए जाने के लिए 3 से 7 मिनटों में तैयार कर देता है और रोगी के अपने रक्त का प्रयोग होने के कारण रक्त के बेमेल होने, संक्रमित होने तथा एलर्जी होने के जोखिम समाप्त हो जाते हैं। राइटेर के मामले में सर्जरी के दौरान बहे रक्त का लगभग 75 प्रतिशत वॉशर द्वारा फिर से प्राप्त कर लिया गया। 4 युनिट रक्त सर्जरी से पहले निकाला गया था वह बाद में उसे चढ़ा दिया गया। 

यद्यपि ऐसे कई उदाहरण भी हैं जहां स्वरक्ताधान न तो संगत है, न ही अनुमोदनीय। उदाहरण के लिए कैंसर सर्जरी में रोगी का अपना रक्त शरीर के अन्य भागों में भी कैंसर को फैला देगा। फिर आपात सर्जरी के पहले से रक्तदान के लिए समय नहीं होता तथा हो सकता है कि अस्पताल में वॉशर न हो। फिर दुर्घटना में घायल रोगी के अपने खून का बड़ा हिस्सा दुर्घटनास्थल पर ही बह चुका होता है तथा दुर्बल तथा खून की कमी से ग्रस्त रोगी के मामले में स्वरक्तदान उसकी दशा और भी बिगाड़ सकते हैं। ऐसे मामलों में पररक्त के अलावा और कोई चारा नहीं है।

लेकिन ऐसे प्रत्येक रोगी को, जो स्वैच्छिक शल्य चिकित्सा करवाने जा रहा है, स्वरक्ताधान का विकल्प प्रस्तुत क्यों नहीं किया जाता है? एक कारण है धन। फ्रांस में ही वॉशर की कीमत लगभग 2 लाख यूरो है तथा रक्तदान केंद्रों द्वारा संशोधित रक्त का प्रयोग करना लगभग तीन गुना महंगा पड़ता है। इसी के परिणामस्वरूप अधिकतर अस्पताल मानते भी हैं कि दान किए गए पररक्त द्वारा एड्स तथा यकृतशोथ के संक्रमण होने के छोटे से जोखिम को देखते हुए ऐसी महंगी व्यवस्था तर्कसंगत नहीं है।

अपने रक्त की पर्याप्त आपूर्ति की सुनिश्चितता के लिए अस्पताल से दूर रहने वाले स्वैच्छिक रोगी अपने इलाके में भी स्वरक्तदान की व्यवस्था कर सकते हैं तथा रक्त को अपने साथ कहीं भी लाया ले जाया जा सकता है या विमान से भी भेजा जा सकता है। एक से दूसरे अस्पताल तथा एक से दूसरे देश के नियम पृथक होते हैं, इसलिए रोगी को पहले से ही रक्तदान और रक्ताधान के विषय में पूछताछ कर लेनी चाहिए। स्वरक्तदान द्वारा अब कम से कम दो घातक रोगों से बचने का उपाय उपलब्ध हो गया है। इसलिए सबसे निरापद यही है कि आप बन सकते हैं तो अपने खुद के रक्तदाता बनिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और छद्म विज्ञान – अरविंद

भारतीय विज्ञान कांग्रेस संघ का उद्देश्य भारत में विज्ञान को बेहतर करना और बढ़ावा देना रहा है। विज्ञान कांग्रेस संघ की स्थापना 1914 में हुई थी। स्थापना के बाद से ही विज्ञान कांग्रेस का आयोजन किया जाता रहा है। 1947 में तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विज्ञान कांग्रेस को, विज्ञान आधारित राष्ट्रीय एजेंडे और संविधान में उल्लेखित समाज में व्यापक पैमाने पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित और पोषित करने की प्रतिबद्धता से जोड़कर, बढ़ावा दिया था। 1976 में, विज्ञान कांग्रेस के एजेंडे में ऐसे मुद्दे शामिल किए गए थे जिनका सम्बंध विज्ञान व टेक्नॉलॉजी से था। आगे चलकर विज्ञान संचारकों की बैठक, स्कूल छात्रों के लिए विज्ञान और विज्ञान में महिलाएं वगैरह शामिल किए गए।

विज्ञान कांग्रेस में राजनीतिक नेताओं के शामिल होने का उद्देश्य था कि नेता चर्चाओं में भागीदारी करें और विज्ञान की दुनिया में हो रहे विकास को जानें और समझें कि कैसे राष्ट्र खुद को इनके अनुसार उन्मुख कर सकता है और आगे बढ़ सकता है। भारतीय वैज्ञानिकों की उपलब्धियों का प्रदर्शन भी विज्ञान कांग्रेस के एजेंडे का हिस्सा है। हाल में प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों की भागीदारी को भी जगह दी गई है।

विज्ञान कांग्रेस पिछले कुछ वर्षों में अपने एजेंडे या उद्देश्य से दूर होती गई है। आज़ादी के बाद राजनेता आयोजन में इसलिए शामिल होते थे ताकि वे विज्ञान से राष्ट्र निर्माण की योजनाओं या कार्यों के लिए वैधता हासिल कर सकें। लेकिन आजकल भूमिकाएं पलट गई हैं। अब राजनेता विज्ञान कांग्रेस के आयोजन में विज्ञान कांग्रेस का इस्तेमाल करने और उसे प्रभावित करने के उद्देश्य से शामिल होते हैं। राजनेता विज्ञान कांग्रेस के एजेंडे को निर्धारित करने को उत्सुक रहते हैं और चाहते हैं कि वैज्ञानिक इसे अपनाएं। पिछले कुछ वर्षों में वैज्ञानिक लोग विज्ञान कांग्रेस के आयोजन से अलग होते गए हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर वेंकटरमन रामकृष्णन ने विज्ञान कांग्रेस को एक सर्कस बताया था जिसमें अधिकांश प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक शामिल नहीं होते। वैज्ञानिकों के इससे अलग होने के कई कारण हैं: पहला, भारतीय वैज्ञानिकों को लगता है कि उनके लिए ऐसे आयोजनों में शामिल होना संभव नहीं है जो एक वैज्ञानिक आयोजन की जगह सरकार द्वारा प्रायोजित आयोजन लगे; दूसरा, वैज्ञानिकों में जनता के साथ जुड़ने के प्रति उदासीनता भी है, उन्हें अपने क्षेत्र में अपनी तरक्की अधिक महत्वपूर्ण लगती है। बहुत थोड़े से भारतीय वैज्ञानिक सार्वजनिक क्षेत्र में कदम रखने, विज्ञान को लोकप्रिय बनाने, वैज्ञानिक सोच फैलाने, या समाज के विभिन्न वर्गों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करने को आगे आते हैं।

इन हालात में विज्ञान कांग्रेस के मंच को छदम विज्ञान के समर्थकों ने अगवा कर लिया है, जो हमेशा से बड़े-बड़े दावे करते रहे हैं। दुर्भाग्य से, हाल ही में फगवाड़ा में आयोजित 106वीं विज्ञान कांग्रेस में स्कूली छात्रों के लिए सत्र के दौरान उनका यह एजेंडा खुलकर सामने आया।

छदम विज्ञान क्या करना चाहता है? वह यह दिखाना चाहता है कि प्राचीन भारत में आधुनिक विज्ञान पहले से ही मौजूद था। ऐसा मानना प्राचीन सभ्यता के ज्ञान और आधुनिक विज्ञान, दोनों के साथ ही अन्याय है। इतिहास में किसी दावे की ऐतिहासिकता को प्रमाणित करने के लिए साधनों/विधियों का उपयोग किया जाता है। इन दावों की ऐतिहासिकता और सत्यता की जांच के लिए उन्हें वैज्ञानिक तार्किकता की कसौटी पर भी कसा जाना चाहिए। अब तक, विज्ञान कांग्रेस की बैठकों में छदम विज्ञान के समर्थकों द्वारा किए गए टेस्ट-ट्यूब बेबी, पुष्पक विमान और मिसाइल प्रौद्योगिकी सम्बंधी बड़े-बड़े दावे इन परीक्षणों में विफल रहे हैं।

विज्ञान, एक निरंतर परिवर्तनशील और विकासमान ज्ञान प्रणाली है। इसमें ज्ञान का निर्माण तर्कसंगत जांच, प्रयोग द्वारा प्राप्त प्रमाणों और वैज्ञानिक समुदाय में आपसी सहमति के आधार पर होता है। विज्ञान में पहले की कई अवधारणाएं जो वैज्ञानिक रूप से सही मानी जाती थीं, उनकी जगह अब नई अवधारणाओं को मान्यता मिली है। जैसे, पिछले कुछ वर्षों में वैज्ञानिकों ने यह महसूस किया है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी सूचनाओं का हस्तांतरण मात्र डीएनए के माध्यम से नहीं होता है। वैज्ञानिक पहले डीएनए को ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी सूचना हस्तांतरण का एकमात्र ज़रिया मानते थे।

जिस तरह वैज्ञानिक ज्ञान में लगातार नया ज्ञान जुड़ता जा रहा है, क्या उसी तरह हम अपने पवित्र धार्मिक ग्रंथों को अपडेट करने के लिए तैयार हैं? यह तो कुफ्र माना जाएगा! जब आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान और धार्मिक ग्रंथों को एक साथ रखने का प्रयास करते हैं तब इस तरह की समस्या समाने आती हैं। इन दो ज्ञान प्रणालियों के बीच मतभेद और भी गहरे है; विज्ञान वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर वैज्ञानिक समुदाय द्वारा विकसित मानवीय ज्ञान प्रणाली है, इसलिए यह ज्ञान हमेशा अधूरा रहेगा और इसमें हमेशा नया ज्ञान जुड़ता रहेगा। दूसरी ओर, धार्मिक ग्रंथों का ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान है। माना जाता है कि यह देवताओं से उत्पन्न ज्ञान है। इसलिए वह संपूर्ण, अपरिवर्तनशील और अंतिम है। इसलिए इन दो ज्ञान प्रणालियों के एक साथ मिलने की बात निहित रूप से विरोधाभासी है।

इसके अलावा, ज़रूरत इस बात की है कि हम विज्ञान को सिर्फ तकनीक निर्माण के साधन के रूप में न देखकर जीवन जीने के एक तरीके के रूप में देखना शुरू करें। वैज्ञानिक विधि व्यक्ति को वैज्ञानिक तर्क के आधार पर स्थितियों का विश्लेषण करने के लिए तैयार करती है। विज्ञान का पाठ्यक्रम बनाते वक्त नीति-निर्माताओं और शिक्षाविदों, यहां तक कि खुद वैज्ञानिकों द्वारा इस पहलू को अनदेखा कर दिया गया है। भारत में ऐसी संस्थाएं हैं जो आम लोगों के बीच वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए काम करती हैं – विज्ञान कांग्रेस भी इन्हीं में से एक है – लेकिन इस काम को गंभीरता से नहीं किया जा रहा है।

विज्ञान कांग्रेस के आयोजकों को सुनिश्चित करना चाहिए कि ये आयोजन सही वैज्ञानिक भावना से हो। वैज्ञानिक समुदाय को और बेहतर तरीके से शामिल करने के प्रयास किए जाने चाहिए। देश की तीन विज्ञान अकादमियों – भारतीय विज्ञान अकादमी, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी और राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी – की विज्ञान कांग्रेस में ज़्यादा सघन भागीदारी होना चाहिए। सरकार को विज्ञान को बढ़ावा देने के उद्देश्य से एक मददगार के रूप में भाग लेना चाहिए, न कि अपने किसी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वार्ता और प्रस्तुतियां उन लोगों द्वारा दी जाएं जो सम्बंधित क्षेत्र में पेशेवर हों। विज्ञान अकादमियां इसमें मदद कर सकती हैं। विज्ञान के इतिहास और भारत में विज्ञान में प्राचीन योगदान के इतिहास का मूल्यांकन विज्ञान के इतिहासकारों के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। ऐसा करके विज्ञान कांग्रेस को पटरी पर लाया जा सकता है और विज्ञान कांग्रेस भारतीय समाज में विज्ञान को एकीकृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र गायब भी हुआ था

मारी पृथ्वी के चारों ओर एक चुंबकीय क्षेत्र मौजूद है। इसकी मदद से न केवल हमको दिशाओं का ज्ञान होता है बल्कि यह चुंबकीय क्षेत्र हमारे ग्रह को हानिकारक विकिरण और सौर हवाओं से बचाता भी है। लेकिन आज से 56 करोड़ वर्ष पहले यह चुंबकीय क्षेत्र लगभग गायब हो चुका था। लेकिन एक भूगर्भीय घटना के कारण यह बच गया। वैज्ञानिकों के अनुसार उस समय पृथ्वी का तरल केंद्र (कोर) ठोस होना शुरू हो गया था जिसके कारण चुंबकीय क्षेत्र वापस से मज़बूत हो गया।

वैज्ञानिकों को ग्रह के केंद्र की तत्कालीन संरचना का अंदाज़ रेत के दानों के आकार के क्रिस्टल को देखकर लगा। उन्होंने 56 करोड़ वर्ष पुराने प्लेजिओक्लेज़ और क्लिनोपायरॉक्सीन के नमूने लिए जो उनको पूर्वी क्यूबेक, कनाडा में मिले। इन नमूनों में लगभग 50 से 100 नैनोमीटर तक की चुंबकीय सुइयां मिलीं जो उस समय पिघली हुई चट्टान में चुंबकीय क्षेत्र की दिशा में स्थिर हो गई थीं। चट्टानों के ठंडा होने के बाद ये सुइयां अरबों वर्षों तक सुरक्षित रखी रहीं और पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का रिकॉर्ड बन गर्इं।

इन छोटे-छोटे क्रिस्टल्स को मैग्नेटोमीटर से जांचने पर कणों का चार्ज बहुत कम पाया गया। वास्तव में, 56 करोड़ साल पहले, पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र आज की तुलना में 10 गुना अधिक कमजोर रहा था। आगे मापन से पता चला कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के पलटने की आवृत्ति भी बहुत अधिक थी।

रोचेस्टर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन टारडूनो के अनुसार इस अध्ययन से पता चलता है कि उस समय पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र काफी असामान्य था। एक ऐसा समय भी था जब चुंबकीय क्षेत्र के निर्माण की प्रक्रिया (जियो-डाएनेमो) लगभग धराशायी हो गई थी।

पृथ्वी के शुरुआती दौर में धरती का केंद्र पिघली हुई अवस्था में था। फिर 2.5 अरब से 50 करोड़ साल पहले केंद्र का लोहा ठंडा होकर ठोस अवस्था में परिवर्तित होने लगा। जैसे ही आंतरिक कोर ने जमना शुरू किया सिलिकॉन, मैग्नीशियम और ऑक्सीजन जैसे हल्के तत्व कोर की बाहरी तरल परत में आ गए जिससे तरल पदार्थ और गर्मी का प्रवाह शुरू हुआ जिसे संवहन कहा जाता है। बाहरी कोर में द्रव की गति ने आवेशित कणों को गतिमान रखा, जिससे विद्युत धारा उत्पन्न हुई और विद्युत धारा ने चुंबकीय क्षेत्र को जन्म दिया। यही संवहन आज भी चुंबकीय क्षेत्र के लिए ज़िम्मेदार है। पृथ्वी की आंतरिक कोर का ठोस बनना अभी भी जारी है और आने वाले कई वर्षों तक ऐसा होता रहेगा।

एक संभावना यह व्यक्त की गई है कि कैम्ब्रियन युग में तेज़ जैव विकास का सम्बंध कमजोर चुंबकीय क्षेत्र से हो सकता है क्योंकि चुंबकीय क्षेत्र के कमज़ोर होने के चलते जो अधिक विकिरण धरती पर पहुंचा होगा उससे डीएनए की क्षति और उत्परिवर्तन दर ऊंची रही हो सकती है जिससे अधिक प्रजातियों के विकसित होने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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