पांच सौ साल चलेगा यह प्रयोग!

न 2014 में एडिनबरा विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक चार्ल्स कॉकेल और उनके कुछ साथियों ने मिलकर एक प्रयोग इस उम्मीद के साथ शुरू किया था कि वह 2514 तक (यानी 500 साल तक) चलेगा। वैसे तो लंबे-लंबे वैज्ञानिक प्रयोगों का लंबा इतिहास रहा है मगर कॉकेल और साथियों का यह प्रयोग अत्यंत महत्वाकांक्षी है।

प्रयोग वैसे तो काफी आसान है। सादे कांच के 800 कैप्सूल्स हैं और प्रत्येक में या तो क्रूकॉक्सीडोप्सिस या बैसिलस सब्टिलिस नामक बैक्टीरिया के नमूने रखे गए हैं। कांच के इन कैप्सूल्स को अच्छी तरह सील कर दिया गया है। इनमें से आधे कैप्सूल्स पर सीसे का आवरण है ताकि ये डीएनए को क्षति पहुंचाने वाले विकिरण से सुरक्षित रहें। कैप्सूल्स का एक पूरा सेट लंदन प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय में बैक-अप के तौर पर रखा गया है।

प्रयोग का मकसद यह देखना है कि बैक्टीरिया शुष्क परिस्थिति में कितने समय तक जीवनक्षम बने रहते हैं। प्रयोग की शुरुआत एक आकस्मिक अवलोकन के आधार पर हुई थी। कॉकेल ने एक तश्तरी में बैक्टीरिया क्रूकॉक्सीडॉप्सिस रखा था और फिर वे उसे भूल गए थे। 10 वर्षों बाद जब उन्होंने उस तश्तरी पर ध्यान दिया तो पता चला कि बैक्टीरिया जीवनक्षम थे। इससे पहले भी कुछ वैज्ञानिकों ने मांस के 118 वर्ष पुराने डिब्बों में से सही सलामत बैक्टीरिया प्राप्त किए थे और एक शोध का परिणाम था कि एंबर और लवण के क्रिस्टल में कुछ बैक्टीरिया लाखों वर्षों बाद भी जीवनक्षम पाए गए थे, हालांकि इसे लेकर विवाद है।

उक्त अवलोकन ने कॉकेल के मन में यह जिज्ञासा पैदा कर दी कि आखिर बैक्टीरिया कितने वर्षों तक जीवनक्षम बने रहते हैं। इसी जिज्ञासा से प्रेरित होकर उन्होंने इस आधी सहस्त्राब्दी के प्रयोग की कल्पना की। ज़ाहिर है, यह प्रयोग पूरा होने से बहुत पहले मूल शोधकर्ता तो सिधार चुके होंगे। इसलिए उन्होंने हर पच्चीस वर्षों में इसके अवलोकन की व्यवस्था की है। व्यवस्था यह है कि पहले 24 वर्षों तक हर दूसरे साल और उसके बाद 475 वर्षों तक हर पच्चीस साल में एक बार कुछ वैज्ञानिक विश्वविद्यालय आएंगे और दोनों तरह के एक-एक कैप्सूल को खोलेंगे और उसमें रखे गए बैक्टीरिया को पनपाने की कोशिश करेंगे। उन्होंने इसके लिए निर्देश लिखकर एक यूएसबी स्टिक में डालकर रख दिए हैं। मगर टेक्नॉलॉजी की प्रगति को देखते हुए उन्हें लगा कि शायद यूएसबी स्टिक जल्दी ही पुरानी पड़ जाएगी। इसलिए कागज़ पर भी निर्देश रख छोड़े हैं, और एक निर्देश यह दिया है कि जो भी वैज्ञानिक यह काम करे वह इन निर्देशों की एक नवीन प्रतिलिपि बनाकर रख दे, क्योंकि 500 सालों में कागज़ की हालत पता नहीं क्या हो जाएगी।

शोधकर्ताओं ने यह भी विचार किया है कि शायद उस समय तक विश्वविद्यालय जैसी संस्था रहे ना रहे, वैज्ञानिक कार्य के लिए फंडिंग उपलब्ध रहे ना रहे। तो उन्होंने इस प्रयोग को जारी रखने के लिए एक ट्रस्ट बना दिया है। हम-आप तो इस प्रयोग के परिणाम जानने को यहां नहीं रहेंगे मगर उम्मीद की जानी चाहिए कि यह प्रयोग नियमित रूप से पूरा होगा और कुछ रोचक निष्कर्ष (लगभग) 20 पीढ़ी बाद के वैज्ञानिकों को मिलेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में आधुनिक विज्ञान की शुरुआत – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पिछले कुछ हफ्तों में इस बात पर महत्वपूर्ण चर्चा और बहस चली थी कि भारत में प्राचीन समय से अब तक विज्ञान और तकनीक का कारोबार किस तरह चला है। अफसोस की बात है कि कुछ लोग पौराणिक घटनाओं को आधुनिक खोज और आविष्कार बता रहे थे और दावा कर रहे थे कि यह सब भारत में सदियों पहले मौजूद था। इस संदर्भ में, इतिहासकार ए. रामनाथ (दी हिंदू, 15 जनवरी 2019) ने एकदम ठीक लिखा है कि भारत में विज्ञान के इतिहास को एक गंभीर विषय के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि अटकलबाज़ी की तरह। लेख में रामनाथ ने इतिहासकार डेविड अरनॉल्ड के कथन को दोहराया है। अरनॉल्ड ने चेताया था कि भले ही प्राचीन काल के ज्ञानी-संतों के पास परमाणु सिद्धांत जैसे विचार रहे होंगे मगर उनका यह अंतर्बोध विश्वसनीय उपकरणों पर आधारित आधुनिक विज्ञान पद्धति से अलग है।

ऐसा लगता है कि अंतर्बोध की यह परंपरा प्राचीन समय में न सिर्फ भारत में बल्कि अन्य जगहों पर भी प्रचलित थी। किंतु आज आधुनिक विज्ञान या बेकनवादी विधि (फ्रांसिस बेकन द्वारा दी गई विधि) पर आधारित विज्ञान किया जाता है। आधुनिक विज्ञान करना यानी सवाल करें या कोई परिकल्पना बनाएं, सावधानी पूर्वक प्रयोग या अवलोकन करें, प्रयोग या अवलोकन के आधार पर परिणाम का विश्लेषण करें, तर्कपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचें, अन्य लोगों द्वारा प्रयोग दोहरा कर देखे जाएं और निष्कर्ष की जांच की जाए, और यदि अन्य लोग सिद्धांत की पुष्टि करते हैं तो सिद्धांत या परिकल्पना सही मानी जाए। ध्यान दें कि नई खोज, नए सिद्धांत आने पर पुराने सिद्धांत में बदलाव किए जा सकते हैं, उन्हें खारिज किया जा सकता है।

1490 के दशक में, वास्को डी गामा, जॉन कैबोट, फर्डिनेंड मैजीलेन और अन्य युरोपीय खोजकर्ताओं के ईस्ट इंडीज (यानी भारत) आने के साथ भारत में आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति उभरना शुरु हुई। इनके पीछे-पीछे इंग्लैंड, फ्रांस और युरोप के कुछ अन्य हिस्सों के व्यापारी और खोजी आए। इनमें से कई व्यापारियों और पूंजीपतियों ने भारत और भारत के पर्यावरण, धन और स्वास्थ्य, धातुओं और खनिजों को खोजा और अपने औपनिवेशिक लाभ के लिए लूटना शुरू कर दिया। ऐसा करने के लिए उन्होंने वैज्ञानिक तरीकों को अपनाया। इसके अलावा, उनमें से कई जो समकालीन विज्ञान, प्रौद्योगिकी, कृषि और चिकित्सा विज्ञान का कामकाज करते थे, उन्होंने इस ज्ञान को यहां के मूल निवासियों में भी फैलाया।

यह औपनिवेशिक भारत में आधुनिक विज्ञान की शुरुआत थी। इस विषय पर एक लेख इंडियन जर्नल ऑफ हिस्ट्री ऑफ साइंस के दिसंबर 2018 अंक में प्रकाशित हुआ था (https://insa.nic.in)। इस अंक के संपादन में आई.आई.एस.सी. बैंगलुरु के भौतिक विज्ञानी प्रो. अर्नब रायचौधरी और जेएनयू के प्रो.दीपक कुमार अतिथि संपादक रहे। प्रो. रायचौधरी विज्ञान इतिहासकार भी हैं और पश्चिम देशों के बाहर पश्चिमी विज्ञान: भारतीय परिदृश्य में निजी विचार पर उनका पैना विश्लेषण आज और भी ज़्यादा प्रासंगिक है। उनका यह विश्लेषण जर्नल ऑफ सोशल स्टडीज़ ऑफ साइंस के अगस्त 1985 के अंक में प्रकाशित हुआ था। प्रो. दीपक कुमार जे.एन.यू. के जाने-माने इतिहासकार हैं। उन्होंने भारत में विज्ञान के इतिहास पर दो किताबें साइंस एंड दी राज (2006) और टेक्नॉलॉजी एंड दी राज (1995) लिखी हैं।

जर्नल के इस अंक का संपादकीय लेख डॉ. ए. के. बाग ने लिखा था। यह लेख विद्वतापूर्ण, अपने में संपूर्ण और शिक्षाप्रद है। डॉ. बाग भारत में प्राचीन और आधुनिक विज्ञान के इतिहासकार हैं। उन्होंने भारत-युरोप संपर्क और उपनिवेश-पूर्व और औपनिवेशिक भारत में आधुनिक विज्ञान की विशेषताओं का पता लगाया था। जर्नल के इस अंक में 30 अन्य लेख भी हैं जो इस बारे में बात करते हैं कि कैसे बंगाल पुनर्जागरण हुआ और ब्रिटिश भारत की पूर्व राजधानी कलकत्ता ने बंगाल (कलकत्ता/ढाका) को भारत में आधुनिक विज्ञान की प्रारंभिक राजधानी बनने में मदद की। वैसे तो विज्ञान से जुड़े अधिकतर लेख जे.सी. बोस, सी.वी. रमन, एस.एन. बोस, पी.सी. रे और मेघनाद साहा पर केंद्रित होते हैं। किंतु डॉ. राजिंदर सिंह ने इन तीन विभूतियों (सी.वी. रमन, एस.एन. बोस और एम.एन. साहा) के इतर प्रो. बी. बी. रे, डी. एम. बोस और एस .सी. मित्रा पर लेख लिखा है। डॉ. जॉन मैथ्यू द्वारा लिखित लेख: रोनाल्ड रॉस टू यू. एन. ब्राहृचारी: मेडिकल रिसर्च इन कोलोनियल इंडिया बताता है कि कैसे प्रो. ब्रहृचारी की दवा यूरिया स्टिबामाइन ने कालाज़ार नामक रोग से हज़ारों लोगों की जान बचाई थी। संयोग से, ब्रहृचारी ने भी 1936 में इंदौर में आयोजित 23वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस में अपने अध्यक्षीय भाषण में इस बारे में बात की थी। ऑर्गेनिक केमिस्ट्स ऑफ प्री-इंडिपेंडेंस इंडिया नामक लेख में प्रो. सलीमुज़्ज़मान सिद्दीकी का विशेष उल्लेख है। प्रो. सलीमुज़्ज़मान सिद्दीकी ने नीम के पेड़ से एज़ेडिरैक्टिन और सर्पगंधा से रेसरपाइन जैसी महत्वपूर्ण औषधियां पृथक की थीं। विभाजन के समय उन्हें पाकिस्तान आने का न्यौता मिला था। पहले उन्होंने पाकिस्तान आने से मना कर दिया था, लेकिन वर्ष 1951 में वे पाकिस्तान चले गए। वहां उन्होंने पाकिस्तान के सीएसआईआर और परमाणु ऊर्जा प्रयोगशालाएं शुरू करने में मदद की। साथ ही उन्होंने उत्कृष्ट कार्बनिक रसायन विज्ञान की शुरुआत भी की जो आज भी बढ़िया चल रहा है। इस तरह उन्हें एक नवोदित देश (पाकिस्तान) में विज्ञान की नींव रखने वाले की तरह याद जा सकता है।

तीन और लोगों के योगदान उल्लेखनीय हैं। उनमें से पहले हैं दो भारतीय पुलिस अधिकारी। सोढ़ी और कौर ने अपने लेख दी फॉरगॉटन पायोनियर्स ऑफ फिंगरप्रिंट साइंस: फालऑउट ऑफ कोलोनिएनिज़्म में दो भारतीय पुलिस अधिकारियों, अज़ीज़ुल हक और हेमचंद्र बोस के बारे में लिखा है। इन दोनों अधीनस्थ पुलिस कर्मियों ने कड़ी मेहनत और विश्लेषणात्मक पैटर्न विधि की मदद से फिंगरप्रिंटिंग को मानकीकृत किया था, लेकिन उनके काम का सारा श्रेय उनके बॉस पुलिस महानिरीक्षक एडवर्ड हेनरी ने ले लिया! अज़ीज़ुल हक ने 5 साल बाद अपने काम को राज्यपाल को फिर से प्रस्तुत किया। उन्हें 5,000 और बोस को 10,000 रुपए का मानदेय दिया गया।

दूसरा नाम है नैन सिंह रावत का। उन्होंने ताजिकिस्तान सीमा से लगे हिमालय से नीचे तक फैले पूरे हिमालयी पथ का सफर किया। इस सफर के दौरान उन्होंने सावधानीपूर्वक नोट्स लिए और उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ऊपरी रास्ते का नक्शा तैयार करने में मदद की। बाद में इससे सर्वे ऑफ इंडिया को काफी मदद मिली।

और तीसरा नाम है कलकत्ता के राधानाथ शिकधर का है। उन्होंने गणना करके पता लगाया था कि चोटी XV 29,029 फीट ऊंची है। यह हिमालय पर्वतमाला की सबसे ऊंची चोटी है, और विश्व की भी। हालांकि भारतीय स्थलाकृतिक सर्वेक्षण के प्रधान अधिकारी के नाम पर बाद में इस चोटी का नाम माउंट एवरेस्ट रख दिया गया। डॉ. बाग ने अपने संपादकीय लेख में इन दो खोजों का उल्लेख किया है और बताया है कि कैसे भारत सरकार ने नैन सिंह रावत और राधानाथ शिकधर के सम्मान में 2004 में डाक टिकट जारी किया।

यहां हमने जर्नल के कुछ ही लेखों पर प्रकाश डाला है। जर्नल का पूरा अंक भारत में आधुनिक विज्ञान के जन्म और विकास पर केंद्रित लेखों का संग्रह है। सारे लेख सावधानी पूर्वक किए गए शोध पर आधारित छोटे-छोटे और आसानी से पढ़ने-समझने योग्य हैं। और ये लेख विज्ञान की आदर्श शिक्षण और शोध सामग्री बन सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कयामत की घड़ी नज़दीक आई

नवरी 24 के दिन बुलेटिन ऑफ एटॉमिक साइन्टिस्ट्स (बीएएस) ने अपनी कयामत की घड़ी को अपडेट करके बताया है कि मानवता कयामत के और नज़दीक पहुंच गई है। उनकी परिकल्पित कयामत की घड़ी के कांटे मध्य रात्रि से बहुत दूर नहीं हैं। इस घड़ी पर मध्य रात्रि के समय को प्रलय की घड़ी माना गया है।

पिछले वर्ष कयामत की घड़ी के कांटों के अनुसार मध्य रात्रि में 2 मिनट का समय शेष रहा था। वह अब तक का सबसे नज़दीक समय था। 24 जनवरी को बीएएस ने घोषित किया कि कांटे इस वर्ष भी मध्य रात्रि से दो मिनट दूर ही रहेंगे। यह सही है कि घड़ी के कांटे आगे नहीं बढ़े हैं किंतु परमाणु हथियारों के प्रसार और जलवायु परिवर्तन की लगातार अधोगति आज भी चिंता के सबब बने हुए हैं। और गलत सूचनाओं और फेक न्यूज़ का बढ़ता चलन आग में घी का काम कर रहे हैं। बीएएस के प्रतिनिधियों का कहना है कि 2018 के बाद कांटे आगे नहीं बढ़े हैं, तो इसे स्थिरता का संकेत न मानकर दुनिया भर के नागरिकों और नेताओं के लिए चेतावनी का संकेत माना जाना चाहिए।

बीएएस के वैज्ञानिक साल में दो बार विश्व स्तर पर घटनाओं का विश्लेषण करके यह आकलन करने की कोशिश करते हैं कि हम कयामत से कितनी दूर या कितने नज़दीक हैं। 2018 में उन्होंने देखा था कि परमाणु युद्ध का मंडराता खतरा और वैश्विक तापमान में लगातार वृद्धि विश्व को विनाश की ओर धकेल रहे हैं। उनका कहना है कि इन खतरों ने एक खतरनाक और अनिर्वहनीय यथास्थिति का निर्माण कर दिया है। जितने लंबे समय तक हम इस असामान्य यथास्थिति से आंखें मूंदे रहेंगे, उतना ही हम खतरे के निकट पहुंचेंगे।

वैज्ञानिकों का कहना है कि यूएस और उत्तरी कोरिया के बीच परमाणु शब्दबाण तो थमे हैं किंतु दुनिया भर में परमाणु हथियारों पर निर्भरता बढ़ी है। शीत युद्ध की मानसिकता ने परमाणु युद्ध से बचने के कई दशकों के प्रयासों पर पानी फेर दिया है। और तो और, यूएस और रूस के सम्बंध तनावपूर्ण बने हुए हैं। ये दो देश दुनिया के 90 प्रतिशत परमाणु हथियारों के मालिक हैं।

जहां तक जलवायु परिवर्तन का सम्बंध है, तो पिछले कुछ वर्षों का घटनाक्रम चिंताजनक रहा है। खास तौर से यूएस कार्बन उत्सर्जन को थामने में नाकाम रहा है और ऐसे विकास को बढ़ावा दे रहा है जो जीवाश्म र्इंधन पर निर्भर है। जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ता जा रहा है और 275 अध्ययनों के आधार पर एक रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि जलवायु का संकट सूखा, बाढ़, प्रदूषण और समुद्र तल में वृद्धि जैसे कारणों से लाखों लोगों का जीवन संकट में डाल देगा। वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन प्रति वर्ष ढाई लाख लोगों के लिए जानलेवा साबित होगा और अगले 12 वर्षों में 10 करोड़ लोग अतिशय गरीबी में धकेले जाएंगे।

कयामत की घड़ी की कल्पना 1947 में की गई थी और उस समय यह मुख्य रूप से परमाणु खतरों का आकलन करती थी। वैसे वैज्ञानिकों का विश्वास है कि हम इस घड़ी को पीछे खिसका सकते हैं, बशर्ते कि दुनिया भर में इसके लिए प्रयास किए जाएं। (स्रोत फीचर्स)

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चांद पर कपास के बीज उगे, अंकुर मर गए

चीन द्वारा चांग-4 अंतरिक्ष यान के साथ चांद पर भेजे गए ल्यूनर रोवर पर एक जैव मंडल (वज़न 2.6 कि.ग्रा.) भी भेजा गया था जिसमें आलू के बीज, पत्ता गोभी सरीखा एक पौधा और रेशम के कीड़े की इल्लियों के अलावा कुछ कपास के बीज भी थे। कपास के बीज चांद पर भी अंकुरित हुए हालांकि उनके अंकुर पृथ्वी पर तुलना के लिए रखे गए कपास के अंकुरों से छोटे रहे। मगर उल्लेखनीय बात यह मानी जा रही है कि ये बीज यान के प्रक्षेपण, चांद तक की मुश्किल यात्रा को झेलकर चांद के दुर्बल गुरुत्वाकर्षण और वहां मौजूद तीव्र विकिरण के बावजूद पनपे थे। खास बात यह है कि उसी जैव मंडल में अन्य किसी प्रजाति में इस तरह जीवन के लक्षण नज़र नहीं आए थे। किंतु अब कपास के वे अंकुर भी मर चुके हैं।

चांग-4 के प्रोजेक्ट लीडर लिऊ हानलॉन्ग ने इस घटना की व्याख्या करते हुए बताया है कि चांग-4 चांद के दूरस्थ हिस्से पर उतरा है। जैसे ही रात हुई, लघु जैव मंडल का तापमान एकदम कम हो गया। उन्होंने बताया कि जैव मंडल कक्ष के अंदर का तापमान शून्य से 52 डिग्री सेल्सियस नीचे चला गया था। अंदेशा यह है कि तापमान में और गिरावट होगी और यह ऋण 180 डिग्री सेल्सियस तक चला जाएगा। जैव मंडल को गर्म रखने का कोई इंतज़ाम नहीं है।

आम तौर पर पौधों में कम तापमान को झेलने के लिए अंदरुनी व्यवस्थाएं होती हैं। जैसे तापमान कम होने पर पौधों की कोशिकाओं में शर्करा और कुछ अन्य रसायनों की मात्रा बढ़ती है जिसके चलते कोशिकाओं के अंदर पानी के बर्फ बनने का तापमान (हिमांक) कम हो जाता है। इसके कारण कोशिकाओं में पानी बर्फ नहीं बनता अन्यथा यह बर्फ कोशिकाओं को फैलाता है और तोड़ देता है। कुछ अन्य पौधों में कोशिका झिल्लियां सख्त हो जाती हैं जबकि कुछ पौधों में पानी को कोशिका से बाहर निकाल दिया जाता है ताकि बर्फ बनने की नौबत ही न आए।

मगर इन प्रक्रियाओं के काम करने के लिए ज़रूरी होता है कि पर्यावरण से यह संकेत मिलता रहे कि ठंड आ रही है। मगर यदि तापमान अचानक कम हो जाए तो ये व्यवस्थाएं पौधे को बचा नहीं पातीं। इसलिए यकायक पाला पड़े तो पृथ्वी की ठंडी जलवायु वाले पौधे भी बच नहीं पाते। कपास तो गर्म जलवायु का पौधा है। और चांद पर जो ठंड आई होगी वह धीरेधीरे जाड़े का मौसम आने जैसा कदापि नहीं था। चांद पर दिन के समय (वहां का दिन हमारे 13 दिन के बराबर होता है) का तापमान तो 100 डिग्री सेल्सियस (पानी के क्वथनांक) तक हो जाता है जबकि रात में यह ऋण 173 डिग्री तक गिर जाता है।

तो ऐसा लगता है कि यह शीत लहर कपास की क्षमता से बाहर थी। पहले तो कोशिकाओं का पानी बर्फ बन गया होगा, जिसने उन्हें अंदर से फोड़ दिया होगा। फिर कोशिकाओं के बीच के पानी का नंबर आया होगा जिसने पूरे अंकुर को नष्ट कर दिया होगा। हानलॉन्ग के मुताबिक अब यह प्रयोग समाप्त माना जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान का मिथकीकरण – प्रदीप

हाल ही में 106वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस का सालाना अधिवेशन जालंधर की लवली प्रोफेशनल युनिवर्सिटी में सम्पन्न हुआ। वैसे तो मुख्यधारा का मीडिया हमेशा से ही इसके कवरेज से बचता आया है, मगर विगत कुछ वर्षों से वेदोंपुराणों के प्रमाणहीन दावों को विज्ञान बताने से जुड़े विवादों के चलते यह सुर्खियों में रहा है। इस अधिवेशन में भी प्राचीन भारत के विज्ञान और टेक्नॉलॉजी की उपलब्धियों का इस तरह बखान किया गया कि वैज्ञानिक माहौल को बढ़ावा देने वाला यह विशाल आयोजन किसी धार्मिक जलसे जैसा ही रहा! विज्ञान कांग्रेस की हर साल एक थीम होती है। इस वर्ष के सम्मेलन की थीम थी फ्यूचर इंडिया: साइंस एंड टेक्नॉलॉजी। भविष्य में भारत के विकास का मार्ग विज्ञान और प्रौद्योगिकी किस प्रकार प्रशस्त करेंगे, इसकी चर्चा की बजाय प्राचीन भारत से जुड़े निरर्थक, प्रमाणहीन और हास्यास्पद छद्मवैज्ञानिक दावों ने ज़्यादा सुर्खियां बटोरी।

आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति और अकार्बनिक रसायन विज्ञान के प्रोफेसर जी. नागेश्वर राव ने कौरवों की पैदाइश को टेस्ट ट्यूब बेबी और स्टेम सेल रिसर्च टेक्नॉलॉजी से जोड़ा तथा श्रीराम के लक्ष्य भेदन के बाद तुरीण में वापस लौटने वाले बाणों और रावण के 24 प्रकार के विमानों की बात कहकर सभी को चौंका दिया। तमिलनाडु के वर्ल्ड कम्यूनिटी सेंटर से जुड़े शोधकर्ता कन्नन जोगथला कृष्णन ने तो न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त और आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धान्त को ही खारिज करते हुए कहा कि उनके शोध में भौतिक विज्ञान के सभी सवालों के जवाब हैं।  वे यहीं पर नहीं रुके। आगे उन्होंने कहा कि भविष्य में जब वे गुरुत्वाकर्षण के बारे में लोगों के विचार बदल देंगे, तब गुरुत्वीय तरंगों को नरेंद्र मोदी तरंगके नाम से तथा गुरुत्वाकर्षण प्रभाव को हर्षवर्धन प्रभावके नाम से जाना जाएगा।

भूगर्भ विज्ञान की प्रोफेसर आशु खोसला के द्वारा इसी भारतीय विज्ञान कांग्रेस में प्रस्तुत पर्चे में कहा गया है कि भगवान ब्राहृा इस ब्राहृांड के सबसे महान वैज्ञानिक थे। वे डायनासौर के बारे में जानते थे और वेदों में इसका उल्लेख भी किया है।

इतने प्रतिष्ठित आयोजन में अवैज्ञानिक और अतार्किक दावों का ये चलन 2015 से पहले शायद ही देखा गया हो।

हालांकि प्राचीन भारतीय विज्ञान की बखिया उधेड़ने का यह सिलसिला कोई नया नहीं है। इससे पहले आम नेतामंत्री से लेकर मुख्यमंत्री, और प्रधानमंत्री तक भी मिथक, अंधविश्वास और विज्ञान का घालमेल कर चुके हैं। उनके दावों के मुताबिक यदि प्राचीन भारतीय ग्रंथों की भलीभांति व्याख्या की जाए, तो आधुनिक विज्ञान के सभी आविष्कार उसमें पाए जा सकते हैं। जैसे राडार प्रणाली, मिसाइल तकनीक, ब्लैक होल, सापेक्षता सिद्धांत एवं क्वांटम सिद्धांत, टेस्ट ट्यूब बेबी, अंग प्रत्यारोपण, विमानों की भरमार, संजय द्वारा दूरस्थ स्थान पर घटित घटनाओं को देखने की तकनीक, समय विस्तारण सिद्धांत, अनिश्चितता का सिद्धांत, संजीवनी औषधि, कई सिर वाले लोग, क्लोनिंग, इंटरनेट, भांतिभांति के यंत्रोंपकरण वगैरह। वेदों, पुराणों में विज्ञान के जिस अक्षय भंडार को स्वयं आदि शंकराचार्य, यास्क से सायण तक के वेदज्ञ, आर्यभट, वराह मिहिर, ब्राहृगुप्त और भास्कराचार्य जैसे गणितज्ञज्योतिषी नहीं खोज पाए, उसको हमारे वैज्ञानिकों और नेताओं ने ढूंढ निकाला!

भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जिसके संविधान द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए प्रतिबद्धता को प्रत्येक नागरिक का मौलिक कर्तव्य बताया गया है। अत: यह हमारा दायित्व है कि हम अपने समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दें। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के महत्व को जवाहरलाल नेहरु ने 1946 में अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में विचारार्थ प्रस्तुत किया था। उन्होंने इसे लोकहितकारी और सत्य को खोजने का मार्ग बताया था।

पिछले सत्तर वर्षों में हमारे देश में दर्जनों उच्च कोटि के वैज्ञानिक संस्थान अस्तित्व में आए हैं और उन्होंने हमारे देश के समग्र विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया है। हमारे मन में अत्याधुनिक तकनीकी ज्ञान तो रचबस गया है, मगर हमने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को खिड़की से बाहर फेंक दिया है। वैश्वीकरण के प्रबल समर्थक और उससे सर्वाधिक लाभ अर्जित करने वाले लोग ही भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर आज आक्रामक तरीके से यह विचार सामने लाने की खूब कोशिश कर रहे हैं कि प्राचीन भारत आधुनिक काल से अधिक वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी सम्पन्न था। पौराणिक कथाओं को विज्ञान बताया जा रहा है।

आज यह दावा किया जाता है कि हमारे वेदोंपुराणों में परमाणु बम बनाने की विधि दी हुई है। विज्ञान समानुपाती एवं समतुल्य होता है। अगर हम यह मान भी लें कि वैदिक काल में परमाणु बम बनाने का सिद्धांत एवं अन्य उच्च प्रौद्योगिकियां उपलब्ध थीं, तो तत्कालीन वैदिक सभ्यता अन्य सामान्य वैज्ञानिक सिद्धांतों एवं आविष्कारों को खोजने में कैसे पीछे रह गई? नाभिकीय सिद्धांत को खोजने की तुलना में विद्युत या चुंबकीय शक्तियों को पहचानना और उन्हें दैनिक प्रयोग में लाना अधिक सरल है। मगर वेदों में इस ज्ञान को प्रयोग करने का कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता है। यहां तक कि इंद्र के स्वर्ग में भी बिजली नहीं थी, जबकि आज गांवगांव में बिजली उपलब्ध है। तकनीक की ऐसी रिक्तियां विरोधाभास उत्पन्न करती हैं। निश्चित रूप से इससे यह तर्क मजबूत होता है कि वैदिक सभ्यता को नाभिकीय बम बनाने का सिद्धांत ज्ञात नहीं था। मगर इससे हमें वैदिक ग्रंथों के रचनाकारों की अद्भुत कल्पनाशक्ति के बारे में पता चलता है। निसंदेह कल्पना एक बेहद शक्तिशाली एवं रचनात्मक शक्ति है।

आज के इस आधुनिक युग में जिस प्रकार से कोई खुद को अंधविश्वासी, नस्लवादी या स्त्री शिक्षा विरोधी कहलाना पसंद नहीं करता, उसी प्रकार से खुद को अवैज्ञानिक कहलाना भी पसंद नहीं करता है। वह अपनी अतार्किक बात को वैज्ञानिक सिद्ध करने के लिए मूलभूत सच्चाई की नकल उतारने वाले छलकपट युक्त छद्म विज्ञान का सहारा लेता है। आज प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों से जुड़े जो मनगढ़ंत और हवाई दावे किए जा रहे हैं वे छद्मविज्ञान के ही उदाहरण हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्राचीन भारत ने आर्यभट, भास्कराचार्य, ब्राहृगुप्त, सुश्रुत और चरक जैसे उत्कृष्ट वैज्ञानिक दुनिया को दिए। परंतु यह मानना कि हज़ारों साल पहले भी भारत को विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में महारथ हासिल थी, स्वयं को महिमामंडित करने का हास्यास्पद प्रयास है। दरअसल ऐसे पोगापंथियों के चलते हमारे प्राचीन भारत के वास्तविक योगदान भी ओझल हो रहे हैं क्योंकि आधुनिकता में प्राचीन भारतीय विज्ञान का विरोध तो होता ही नहीं है, विरोध तो रूढ़ियों का होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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समुद्र के पेंदे से 200 फीट नीचे सूक्ष्मजीव पाए गए

जापान के समुद्र के पेंदे में सैकड़ों फुट नीचे कुछ सूक्ष्मजीव मिले हैं। समुद्र में इतनी गहराई पर तापमान शून्य से कई डिग्री नीचे होता है और दबाव हज़ारों वायुमंडल के बराबर होता है। इतना कम तापमान और दबाव किसी भी जीवन की संभावना को खारिज कर देता है किंतु हाल ही में जापान के मैजी विश्वविद्यालय के ग्लेन स्नाइडर ने इसी गहराई में ये सूक्ष्मजीव प्राप्त किए हैं।

स्नाइडर और उनके साथी जापान के पश्चिमी तट से काफी अंदर गैस हायड्रेट की तलाश कर रहे थे। गैस हायड्रेट गैस और पानी से मिलकर बने रवेदार ठोस होते हैं। यह मिश्रण समुद्र की गहराई में मौजूद अत्यंत कम तापमान और अत्यंत उच्च दबाव पर ठोस बन जाता है। उन्होंने पाया कि बड़ेबड़े (5-5 मीटर चौड़े) गैस हायड्रेट में अंदर डोलोमाइट के रवे फंसे हुए हैं। डोलोमाइट के ये कण बहुत छोटेछोटे थे (व्यास मात्र 30 माइक्रॉन)। और इन डोलोमाइट रवों के अंदर एक और गहरे रंग का बिंदु था। इस बिंदु ने शोधकर्ताओं की जिज्ञासा बढ़ा दी।

जब रासायनिक विधि से हायड्रेट को अलग कर दिया गया तो शोधकर्ताओं को डोलोमाइट का अवशेष मिला। उन्होंने अमेरिकन जियोफिज़िकल युनियन के सम्मेलन में बताया कि जब उक्त सूक्ष्म धब्बों का फ्लोरेसेंट रंजक से रंगकर अवलोकन किया तो पता चला कि इनमें जेनेटिक पदार्थ उपस्थित है। यह जेनेटिक पदार्थ सूक्ष्मजीवों का द्योतक है।

यह तो पहले से पता है कि सूक्ष्मजीव हायड्रेट्स के आसपास रहते हैं किंतु यह पूरी तरह अनपेक्षित था कि ये हायड्रेड्स के अंदर डोलोमाइट में निवास करते होंगे। अवलोकन से यह तो पता नहीं चला है कि ये सूक्ष्मजीव जीवित हैं या मृत किंतु इनका वहां पाया जाना ही आश्चर्य की बात है। चूंकि ये हायड्रेट्स के अंदर के अनछुए वातावरण में मिले हैं इसलिए यह निश्चित है कि ये वहीं के वासी होंगे; ये वहां किसी इंसानी क्रियाकलाप की वजह से नहीं पहुंचे होंगे।

वैज्ञानिकों का विचार है कि मंगल ग्रह पर भी ऐसे हायड्रेट्स पाए जाते हैं और काफी संभावना बनती है कि उनके अंदर ऐसे सूक्ष्मजीवों का घर हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी ने एक ग्रह को निगला और जीवन अस्तित्व में आया

साढ़े चार अरब साल पहले, मंगल ग्रह के आकार का एक पिंड पृथ्वी से टकराया, जिसकी वजह से चंद्रमा टूटकर अलग हुआ और पृथ्वी के निकट एक स्थायी कक्षा में स्थापित हुआ था। एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि इसके साथ ही जीवन के लिए आवश्यक अवयव भी पृथ्वी पर आए। वैज्ञानिकों ने जर्नल साइंस एडवांसेस में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया है कि इस घटना ने हमारे ग्रह पर जीवन के लिए ज़रूरी कार्बन, नाइट्रोजन और सल्फर पहुंचाया था।

इस घटना से पूर्व पृथ्वी कुछकुछ आज के मंगल ग्रह जैसी थी। इसमें भी एक कोर और एक मैंटल था, लेकिन इसके गैरकोर वाले भाग में नाइट्रोजन, कार्बन और सल्फर जैसे वाष्पशील तत्वों की काफी कमी थी। पृथ्वी के गैरकोर हिस्से में मौजूद तत्वों को बल्क सिलिकेट अर्थकहते हैं, ये तत्व एकदूसरे के साथ आपस में तो क्रिया करते हैं, लेकिन वे कभी भी कोर हिस्से के तत्वों के साथ क्रिया नहीं करते हैं। हालांकि कुछ वाष्पशील तत्व कोर में मौजूद तो थे लेकिन वे ग्रह की बाहरी परतों तक नहीं पहुंच सके थे। और तभी टक्कर हुई।

एक सिद्धांत अनुसार विशेष प्रकार के उल्कापिंड, जिन्हें कार्बोनेशियस कॉन्ड्राइट्स कहा जाता है, पृथ्वी से टकराए और बल्क सिलिकेट अर्थ को ये वाष्पशील तत्व प्रदान किए। वास्तव में नाइट्रोजन, कार्बन और हाइड्रोजन के समस्थानिकों के अनुपात इन उल्कापिंडों पर पाए गए अनुपात से मेल खाते प्रतीत होते हैं। तो इस सिद्धांत के समर्थक कहते हैं कि उल्कापिंड ही इन तत्वों का स्रोत होना चाहिए।

लेकिन राइस विश्वविद्यालय, ह्यूस्टन के शोधकर्ता दमनवीर ग्रेवाल के अनुसार इन उल्कापिंडों में एक भाग नाइट्रोजन पर लगभग 20 भाग कार्बन होता है, जबकि पृथ्वी के गैरकोर भाग में एक भाग नाइट्रोजन पर लगभग 40 भाग कार्बन होता है। इसलिए, उन्होंने एक अन्य सिद्धांत का परीक्षण करने का फैसला किया।

ग्रेवाल और उनकी टीम ने लैब में एक विशेष प्रकार की भट्टी में उच्चतापमान और उच्च दबाव पर किसी ग्रह के कोर और मैंटल का मॉडल बनाया।

उन्होंने अपने प्रयोगों में तापमान, दबाव और सल्फर के अनुपात को अलगअलग करके यह जानने की कोशिश की कि ये तत्व कोर और (कल्पित) ग्रह के बाकी हिस्सों के बीच कैसे विभाजित होते हैं। उन्होंने पाया कि नाइट्रोजन और सल्फर की उच्च सांद्रता हो तो कार्बन लोहे के साथ बंधन का इच्छुक नहीं होता, जबकि बहुत अधिक सल्फर मौजूद होने पर भी लोहा नाइट्रोजन के साथ बंधन बनाता है। अर्थात नाइट्रोजन को कोर से बाहर निकलकर ग्रह के अन्य हिस्सों में फैलना है तो सल्फर की मात्रा बहुत अधिक होनी चाहिए।

इसके बाद उन्होंने इन सभी सम्भावनाओं के आधार पर एक सिमुलेशन तैयार किया जिसमें विभिन्न वाष्पशील तत्वों के व्यवहार की जानकारी और पृथ्वी की बाहरी परतों में कार्बन, नाइट्रोजन और सल्फर की वर्तमान मात्रा को रखा।

एक करोड़ से अधिक सिमुलेशन चलने के बाद, उनको समझ आया कि नाइट्रोजन एवं कार्बन का वर्तमान अनुपात तभी बन सकता है जब पृथ्वी की टक्कर मंगल के आकार के किसी ग्रह के साथ हुई होगी जिसके कोर में सल्फर की मात्रा लगभग 25 से 30 प्रतिशत रही होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आकाश गंगा के 11 रोचक तथ्य

दि आप किसी ऐसे स्थान पर रहते हैं जहां कृत्रिम प्रकाश कम या नदारद है, तो अंधेरी रात के साफ आसमान में आपको एक बादली पट्टी सी दिखेगी। ज़ाहिर है प्राचीन काल में यह साफ नज़र आती होगी। यही आकाशगंगा है। हमारी आकाशगंगा एक निहारिका है जो तारों, सुपरनोवा, नेबुला, ऊर्जा और अदृश्य पदार्थ से भरी है जिसके कई पहलू वैज्ञानिकों के लिए भी रहस्य बने हुए हैं। आकाशगंगा के बारे में कुछ रोचक तथ्य प्रस्तुत हैं।

आकाशगंगा एक प्राचीन नाम है

संस्कृत और कई अन्य इंडोआर्य भाषाओं में हमारी निहारिका यानी गैलेक्सी को आकाशगंगाकहते हैं। पुराणों में आकाशगंगा और पृथ्वी पर स्थित गंगा नदी को एक दूसरे का जोड़ा माना जाता था और दोनों को पवित्र माना जाता था। आकाशगंगा को क्षीर (यानी दूध) भी कहा गया है। भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर भी कई सभ्यताओं को आकाशगंगा दूधिया लगी। गैलेक्सीशब्द का मूल यूनानी भाषा का गालाशब्द है, जिसका अर्थ भी दूध होता है। संस्कृत की तरह फारसी भी एक इंडोईरानी भाषा है, इसलिए उसका दूधके लिए शब्द संस्कृत के क्षीरसे मिलताजुलता सजातीय शब्द शीरहै और आकाशगंगा को राहशीरीकहा जाता है। अंग्रेज़ी में आकाशगंगा को मिल्की वेकहते हैं। यह नाम यूनानियों से प्राप्त हुआ है। एक दंतकथा के मुताबिक शिशु हरक्युलिस को देवी हेरा सोते हुए स्तनपान करा रही है। जब वह जागती है तो स्तन का दूध आसमान में फैल जाता है। इसे मिल्की वेकहा जाने लगा।

आकाशगंगा में कितने तारे हैं

तारों की गणना एक थकाऊ काम है। खगोलविदों के बीच इसके तरीकों को लेकर काफी बहस है। दूरबीन से हमें आकाशगंगा में केवल सबसे चमकीले तारे दिखते हैं, जबकि अधिकांश तारे तो गैस और धूल में ओझल हैं। आकाशगंगा में तारासंख्या का अनुमान लगाने का एक तरीका यह है कि यह देखा जाए कि इसके भीतर तारे कितनी तेज़ी से परिक्रमा कर रहे हैं। इससे आकाशगंगा में गुरुत्वाकर्षण खिंचाव का अंदाज़ा लगेगा। और गुरुत्वाकर्षण से आकाशगंगा के द्रव्यमान की गणना की जा सकती है। फिर इस द्रव्यमान में एक औसत तारे के द्रव्यमान से भाग देकर तारों की संख्या का अनुमान किया जा सकता है। लेकिन इथाका कॉलेज, न्यूयॉर्क के खगोल शास्त्री डेविड कॉर्नराइश के अनुसार यह एक अनुमान भर है। सितारों की साइज़ में बहुत विविधता होती है, और अनुमान लगाने में कई मान्यताएं लेनी होती हैं।

युरोपीय अन्तरिक्ष एजेंसी के गैया उपग्रह ने आकाशगंगा में 1 अरब तारों का स्थान निर्धारण किया है, और वैज्ञानिकों का मानना है कि यह कुल संख्या का एक प्रतिशत है। तो शायद आकाशगंगा में 100 अरब तारे हैं।

आकाशगंगा का वज़न

तारासंख्या के समान, खगोलविद आकाशगंगा के वज़न को लेकर भी अनिश्चित हैं। विभिन्न अनुमान सूर्य के द्रव्यमान से 700 अरब गुना से लेकर 20 खरब गुना तक है। टक्सन में एरिज़ोना विश्वविद्यालय की खगोलविद एकता पटेल के अनुसार, आकाशगंगा का अधिकांश द्रव्यमान, लगभग 85 प्रतिशत,अदृश्य पदार्थ (डार्क मैटर) के रूप में है। इस डार्क मैटर से प्रकाश नहीं निकलता और इसलिए इसका सीधे अवलोकन करना असंभव है। उन्होंने हाल में इस बात का अध्ययन किया है कि हमारी विशालकाय आकाशगंगा आसपास की छोटी निहारिकाओं पर कितना गुरुत्वाकर्षण बल लगाती है। इसके आधार पर उनका अनुमान है कि आकाशगंगा सूर्य से 960 अरब गुना भारी है।

यह ब्राहृांड के खाली स्थान में है

कई अध्ययनों से यह मालूम चला है कि हम इस ब्राहृांड के एक वीरान कोने में जी रहे हैं। दूर से, ब्राहृांड की संरचना एक विशाल ब्राहृांडीय जाल की तरह दिखती है, जिसमें ज़्यादातर खाली जगह (रिक्तियां) है। आकाशगंगा केबीसी रिक्ति में स्थित है। इसका यह नाम तीन खगोलविदों कीनन, बर्जर और काउवी के नाम पर रखा गया था जिन्होंने इसकी खोज की थी। पिछले साल एक और टीम ने इस बात की पुष्टि कि हम एक बड़े, खाली क्षेत्र में तैर रहे हैं।

आकाशगंगा के केंद्र में ब्लैक होल

हमारी आकाशगंगा के केंद्र में एक विशाल ब्लैक होल है, जो सूरज से 40 गुना वज़नी है। वैज्ञानिकों ने इस ब्लैक की उपस्थिति का अंदाज़ा आकाशगंगा के तारों के परिक्रमा पथ के आधार पर लगाया है क्योंकि वे देख सकते हैं कि ये तारे आकाशगंगा के केंद्र में एक निहायत भारीभरकम पिंड की परिक्रमा कर रहे हैं जो दिखाई नहीं देता। लेकिन हाल ही में, खगोलविद ब्लैक होल के आसपास के वातावरण, जो गैस और धूल से भरा हुआ है, की एक झलक पाने के लिए कई रेडियो दूरबीनों के अवलोकनों का मिलाजुला अध्ययन कर रहे हैं। इवेंट होराइज़न टेलीस्कोप नाम के इस प्रोजेक्ट की मदद से आने वाले महीनों में ब्लैक होल के किनारे की प्रारंभिक छवियां प्राप्त होने की उम्मीद है।

छोटी निहारिकाएं आकाशगंगा की परिक्रमा करती हैं और कभीकभी इससे टकरा भी जाती हैं

युरोपीय दक्षिणी वेधशाला के अनुसार, जब पुर्तगाली खोजकर्ता फर्डिनेंड मेजिलेन 16 वीं शताब्दी में दक्षिणी गोलार्ध की समुद्री यात्रा पर थे, तब उन्होंने रात में आकाश में तारों के वृत्ताकार झुंड देखे। ये झुंड वास्तव में छोटीछोटी निहारिकाएं हैं जो हमारी आकाशगंगा की परिक्रमा ठीक उसी तरह करती हैं जैसे ग्रह किसी तारे के चारों ओर चक्कर काटते हैं। इन्हें छोटे और बड़े मेजेलिनिक बादल कहते हैं। ऐसी कई छोटीछोटी निहारिकाएं आकाशगंगा की परिक्रमा करती हैं और कभीकभी वे हमारी विशाल आकाशगंगा में समा जाती हैं।

आकाशगंगा ज़हरीले ग्रीस से भरी है

हमारी आकाशगंगा में तारों के बीच ज़्यादातर खाली जगह में ग्रीस तैर रहा है। कुछ तैलीय कार्बनिक अणु (जो एलिफेटिक कार्बन यौगिक  होते हैं) कुछ विशेष प्रकार के तारों में उत्पन्न होते हैं और फिर अन्तर्तारकीय अन्तरिक्ष में रिस जाते हैं। हाल ही में हुए एक अध्ययन में पाया गया है कि आकाशगंगा के अन्तर्तारकीय कार्बन में से एक चौथाई से आधे तक यह ग्रीस जैसा पदार्थ हो सकता है। यह मात्रा पहले मान्य मात्रा की तुलना में पांच गुना अधिक है। कार्बन सजीवों की एक आवश्यक निर्माण इकाई है। पूरी आकाशगंगा में इसका बहुतायत में मिलना अन्य तारा प्रणालियों में जीवन की सम्भावना जताता है।

आकाशगंगा 4 अरब वर्षों में अपने पड़ोसी से टकराने वाली है

हमारी आकाशगंगा शाश्वत नहीं है। खगोलविदों को यह पता है कि वर्तमान में हम अपने पड़ोसी, एंड्रोमिडा निहारिका की ओर लगभग 400,000 कि.मी./घंटा की गति से बढ़ रहे हैं। अधिकांश शोध से मालूम चला है कि ऐसी दुर्घटना के समय अधिक विशाल एंड्रोमिडा हमारी आकाशगंगा को निगल कर खुद जीवित रहेगी। लेकिन हाल ही में खगोलविदों ने बताया है कि एंड्रोमिडा मात्र लगभग 800 अरब सूर्य के बराबर है। यानी इसका द्रव्यमान आकाशगंगा के द्रव्यमान के बराबर है। तो कौनसी निहारिका इस दुर्घटना में बची रहेगी यह एक खुला सवाल है।

हमारी पड़ोसी निहारिका के तारे आकाशगंगा के करीब आ रहे हैं

लगता है निहारिकाएं तारों का आदानप्रदान भी करती हैं। शोधकर्ता हाल ही में तेज़ गति वाले तारों की खोज कर रहे थे, जो आकाशगंगा के केंद्र में स्थित ब्लैक होल से संपर्क के बाद तेज़ गति से बाहर निकल जाते हैं। लेकिन जो कुछ सामने आया वह चौंकाने वाला है। हमारी आकाशगंगा से दूर जाने की बजाय, शोधकर्ताओं द्वारा देखे गए अधिकांश तेज़ तारे हमारी ओर बढ़ रहे थे। रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी के मंथली नोटिसेस में प्रकाशित रिपोर्ट में लेखकों का सुझाव है कि ये अजीब तारे बड़े मेजेलिनिक क्लाउड या किसी दूरस्थ निहारिका से आए हो सकते हैं।

आकाशगंगा से निकलने वाले रहस्यमय बुलबुले

यदि आपको अचानक पता चले कि आपके घर में, जिसे आप न जाने कितनी बार देखते होंगे, उसमें एक हाथी है, तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? 2010 में वैज्ञानिकों के साथ कमोबेश ऐसा ही हुआ था। जब उन्होंने आकाशगंगा के ऊपर और नीचे 25,000 प्रकाशवर्ष जितनी विशालकाय संरचना को देखा जो पहले कभी नहीं देखी गई थी। जिस दूरबीन से इन्हें देखा गया था उसी के नाम पर इन्हें फर्मी बुलबुलेनाम दिया गया। खगोलविद इन गामारेउत्सर्जक पिंडों का स्पष्टीकरण करने में असफल रहे हैं। पिछले साल, एक टीम ने ऐसे प्रमाण एकत्रित किए थे जो दर्शाते थे कि ये बुलबुले 60 से 90 लाख साल पहले एक ऊर्जाजनक घटना के बाद उत्पन्न हुए थे। उस घटना में आकाशगंगा के केंद्र में स्थित ब्लैक होल ने भारी मात्रा में पदार्थ (गैस और धूल) निगल लिया था और फिर ये विशाल चमकते बादल उगले थे।

हमारी आकाशगंगा पर ब्राहृांड के दूसरी ओर से विचित्र ऊर्जा पल्स की बौछार हो रही है

पिछले एक दशक में, खगोलविद सुदूर ब्राहृांड से आने वाली प्रकाश की विचित्र कौंध देख रहे हैं। इन रहस्यमय संकेतों पर कोई सहमति नहीं बन पाई है। 10 से अधिक वर्षों तक उनके बारे में जानने के बावजूद, शोधकर्ता ऐसे केवल 30 कौंध देख पाए थे। लेकिन एक हालिया अध्ययन में, ऑस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों ने 20 और चमक देखीं। हालांकि वे अभी भी अजीब चमक की उत्पत्ति नहीं जानते, लेकिन टीम यह निर्धारित करने में सफल रही है कि इस प्रकाश ने कई अरब प्रकाशवर्ष गैस और धूल से होकर यात्रा की थी, जिससे पता चलता है कि ये काफी दूर से आ रही है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रयोगशाला में अनेक सिर वाला जीव बनाया गया

नेक सिरों वाला एक जीव प्रयोगशाला में बनाया गया है। इसे दशानन की तर्ज़ पर अनेकानन कह सकते हैं। दरअसल हायड्रा एक जलीय जीव है जिसमें पुनर्जनन का अनोखा गुण होता है। इसके शरीर का छोटा से टुकड़ा भी बच जाए तो यह पूरा शरीर बनाने की क्षमता रखता है। वैसे हायड्रा का शरीर काफी सरल होता है एक बेलनाकार धड़ और उस पर स्पर्शकों से घिरा सिर।

शोधकर्ता इसकी जेनेटिक संरचना में एक फेरबदल करके ऐसा हायड्रा बना सकते हैं जिसके पूरे शरीर पर सिर ही सिर होंगे। यूनानी दंतकथा में ऐसे अनेकानन हायड्रा का ज़िक्र भी आता है। मगर अब समझ में आया है कि प्राकृतिक रूप से ऐसा क्यों नहीं होता। क्या चीज़ है जो ऐसे अनेक सिर वाले हायड्रा को बनने से रोकती है। यह समझ कैंसर अनुसंधान में काफी उपयोगी साबित हो सकती है।

हायड्रा सरल जीव अवश्य है किंतु शरीर को फिर से विकसित कर लेना कोई हंसीखेल नहीं है। हर बार पुनर्जनन के दौरान हायड्रा को पूरी प्रक्रिया को नियंत्रित करना पड़ता है ताकि हर बार एक ही सिर बने। शोधकर्ता यह तो पहले से जानते थे कि एक जीन (Wnt3) होता है जो सिर के विकास का संदेश देता है। उन्हें यह भी पता था कि इस जीन के लिए कोई आणविक अंकुश भी होना चाहिए अन्यथा हायड्रा के पूरे शरीर पर सिर उगेंगे। शोधकर्ताओं को यह भी पता था कि बीटाकैटिनीन/टीसीएफ नामक एक ग्राही और जीन एक्टिवेटर होता है जो सिर के विकास की प्रक्रिया को शुरू करवाता है।

मगर उन्हें यह पता नहीं था कि इस प्रक्रिया को बंद करने वाला स्विच कौनसा है। जेनेवा विश्वविद्यालय के जेनेटिक्स व जैव विकास की प्रोफेसर ब्रिगिटे गैलियॉट और उनके साथी इसी स्विच की खोज में थे। पहले उन्होंने हायड्रा के निकट सम्बंधी प्लेनेरियन्स (चपटा कृमि) पर ध्यान दिया। ये कृमि भी पुनर्जनन करते हैं। उन्होंने पाया कि 440 जीन्स ऐसे हैं जो बीटाकैटिनीन/टीसीएफ से संकेत मिलने पर अवरुद्ध हो जाते हैं। इसके आधार पर उन्होंने हायड्रा में छानबीन की। देखा गया कि इनमें से 124 जीन्स हायड्रा में भी पाए जाते हैं।

इन 124 में से भी उन्हें पांच जीन्स ऐसे मिले जो हायड्रा के बेलनाकार शरीर के ऊपरी हिस्से में सक्रिय होते हैं और निचले हिस्से में सबसे कम सक्रिय होते हैं। इसका मतलब है कि ये सिर के विकास से सम्बंधित हैं। अब गैलियॉट और उनके साथियों ने यह देखने की कोशिश की कि कौनसे जीन्स पुनर्जनन की प्रक्रिया के दौरान अधिक सक्रिय होते हैं। इस तरह से तीन जीन्स बचे: Wnt3, Wnt5और Sp5

इनमें से पहले दो जीन्स (Wnt3, Wnt5) के बारे में तो पता था कि ये सिर के विकास की प्रक्रिया को शुरू करवाते हैं। इसलिए उन्होंने तीसरे जीन (Sp5) पर ध्यान केंद्रित किया। रोचक बात यह पता चली कि बीटाकैटिनीन/टीसीएफ से प्राप्त संकेत से Sp5 की सक्रियता बढ़ती है किंतु वह Wnt3 की क्रिया को दबाकर बीटाकैटिनीन/टीसीएफ संकेत को बंद कर देता है। यानी यही (Sp5) वह अंकुश है जो सिर के विकास की प्रक्रिया को रोकता है। इसकी जांच के लिए उन्होंने ऐसे हायड्रा तैयार किए जिनमें Sp5 अभिव्यक्त नहीं होता। और इन हायड्रा ने पुनर्जनन में कई सिरों का विकास किया। कुल मिलाकर पूरी प्रक्रिया अभिव्यक्ति और उसके दमन के नाज़ुक संतुलन पर टिकी है। गौरतलब बात है कि Wnt3 मात्र हायड्रा या चपटे कृमियों तक सीमित नहीं है। यह इंसानों में भी पाया जाता है और यहां भी यह विकास में भूमिका निभाता है। इसके अलावा यही जीन कैंसर के विकास में भी भूमिका निभाता (स्रोत फीचर्स)

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एक टिकाऊ भविष्य के लिए आहार में परिवर्तन – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

भारतीय लोग रोज़ाना लगभग 52-55 ग्राम प्रोटीन खाते हैं। यह उन्हें अधिकांशत: फलियों, मछली और पोल्ट्री से मिलता है। कुछ लोग, खास तौर से विकसित देशों में, ज़रूरत से कहीं ज़्यादा प्रोटीन का सेवन करते हैं। वॉशिंगटन स्थित संस्था वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट ने हाल ही में सुझाया है कि लोगों को बीफ (गौमांस) खाना बंद नहीं तो कम अवश्य कर देना चाहिए। यह सुझाव हमारे देश के कई शाकाहारियों का दिल खुश कर देगा और गौरक्षकों की बांछें खिल जाएंगी। किंतु वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के इस सुझाव के पीछे कारण आस्थाआधारित न होकर कहीं अधिक गहरे हैं। आने वाले वर्षों में बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए एक टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित करने के लिए अपनाए जाने वाले तौरतरीकों की चिंता इसके मूल में है। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यू ने इस सम्बंध एक निहायत पठनीय व शोधपरक पुस्तक प्रकाशित की है: शिÏफ्टग डाएट्स फॉर ए सस्टेनेबल फ्यूचर (एक टिकाऊ भविष्य के लिए आहार में परिवर्तन, इसे नेट से मुफ्त में डाउनलोड किया जा सकता है)।

संस्था ने इसमें तीन परस्पर सम्बंधित तर्क प्रस्तुत किए हैं। पहला तर्क है कि कुछ लोग अपनी दैनिक ज़रूरत से कहीं अधिक प्रोटीन का सेवन करते हैं। यह बात दुनिया के सारे इलाकों के लिए सही है, और विकसित देशों पर सबसे ज़्यादा लागू होती है। एक औसत अमरीकी, कनाडियन, युरोपियन या रूसी व्यक्ति रोज़ाना 75-90 ग्राम प्रोटीन खा जाता है इसमें से 30 ग्राम वनस्पतियों से और 50 ग्राम जंतुओं से प्राप्त होता है। 62 कि.ग्रा. वज़न वाले एक औसत वयस्क को 50 ग्राम प्रतिदिन से अधिक की ज़रूरत नहीं होती।

तुलना के लिए देखें, तो भारतीय व अन्य दक्षिण एशियाई लोग लगभग 52-55 ग्राम प्रोटीन का भक्षण करते हैं (जो अधिकांशत: फलियों, मछलियों और पोल्ट्री से प्राप्त होता है)। यही हाल उपसहारा अफ्रीका के निवासियों का है (हालांकि वे हमसे थोड़ा ज़्यादा मांस खाते हैं)। मगर समस्या यह है कि आजकल ब्राज़ील और चीन जैसी उभरती अर्थ व्यवस्थाओं के ज़्यादा लोग पश्चिम की नकल कर रहे हैं और अपने भोजन में ज़्यादा गौमांस को शामिल करने लगे हैं। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक दुनिया में गौमांस की मांग 95 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। दूसरे शब्दों में यह मांग लगभग दुगनी हो जाएगी। यह इसके बावजूद है कि यूएस में लाल मांसखाने को लेकर स्वास्थ्य सम्बंधी चिंताओं के चलते गौमांस भक्षण में गिरावट आई है।

चलतेचलते यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि जब बीफ की बात होती है तो उसमें गाय के अलावा सांड, भैंस, घोड़े, भेड़ें और बकरियां शामिल मानी जाती हैं। फिलहाल विश्व में 1.3 अरब कैटल हैं (इनमें से 30 करोड़ भारत में पाले जाते हैं)। उपरोक्त अनुमान का मतलब यह है कि आज से 30 साल बाद हमें 2.6 अरब कैटल की ज़रूरत होगी।

वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का दूसरा तर्क है कि कैटल पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित करते हैं। ये ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती के औसत तापमान में वृद्धि में योगदान देते हैं। इसके अलावा, कैटल के लिए काफी सारे चारागाहों की ज़रूरत होती है (एक अनुमान के मुताबिक अंटार्कटिक को छोड़कर पृथ्वी के कुल भूभाग का 25 प्रतिशत चारागाह के लिए लगेगा)। यह भी अनुमान लगाया गया है कि वि·ा के पानी में से एकतिहाई पानी तो पालतू पशु उत्पादन में खर्च होता है। इस सबके अलावा, चिंता का एक मुद्दा यह भी है कि गाएं, भैंसें, भेड़बकरी व अन्य खुरवाले जानवर खूब डकारें लेते हैं। मात्र उनकी डकार के साथ जो ग्रीनहाउस गैसें निकलती है, वे ग्लोबल वार्मिंग में 60 प्रतिशत का योगदान देती हैं।

इसके विपरीत गेहूं, धान, मक्का, दालें, कंदमूल जैसी फसलों के लिए चारागाह की कोई ज़रूरत नहीं होती और इनकी पानी की मांग भी काफी कम होती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इनसे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन नहीं होता या बहुत कम होता है। हमने वचन दिया है कि अगले बीस वर्षों में धरती के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक वृद्धि नहीं होने देंगे। किंतु कैटल की संख्या में उपरोक्त अनुमानित वृद्धि के चलते स्थिति और विकट हो जाएगी।

अतिभक्षण से बचें

इस नज़ारे के मद्देनज़र, वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का सुझाव है कि हम, यानी विकसित व तेज़ी से उभरती अर्थ व्यवस्थाओं के सम्पन्न लोग, आने वाले वर्षों में अपने भोजन में कई तरह से परिवर्तन लाएं। पहला परिवर्तन होगा अतिभक्षण से बचें। दूसरे शब्दों में ज़रूरत से ज़्यादा कैलोरी का उपभोग न करें। हमें रोज़ाना 2500 कैलोरी की ज़रूरत नहीं है, 2000 पर्याप्त है। आज लगभग 20 प्रतिशत दुनिया ज़रूरत से ज़्यादा खाती है, जिसकी वजह से मोटापा बढ़ रहा है। इसके स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों से सब वाकिफ हैं। कैलोरी खपत को यथेष्ट स्तर तक कम करने से स्वास्थ्य सम्बंधी लाभ तो मिलेंगे ही, इससे ज़मीन व पानी की बचत भी होगी।

भोजन में दूसरा परिवर्तन यह सुझाया गया है कि प्रोटीन के उपभोग को न्यूनतम अनुशंसित स्तर पर लाया जाए। इसके लिए खास तौर से जंतुआधारित भोजन में कटौती करना होगा। जब प्रतिदिन 55 ग्राम से अधिक प्रोटीन की ज़रूरत नहीं है, तो 75-90 ग्राम क्यों खाएं? और इसकी पूर्ति भी जंतुआधारित प्रोटीन की जगह वनस्पति प्रोटीन से की जा सकती है। सुझाव है कि पारम्परिक भूमध्यसागरीय भोजन (कम मात्रा में मछली और पोल्ट्री मांस) तथा शाकाहारी भोजन (दालफली आधारित प्रोटीन) को तरजीह दी जाए।

और भोजन में तीसरा परिवर्तन ज़्यादा विशिष्ट है: खास तौर से बीफ का उपभोग कम करें।बीफ (सामान्य रूप से कैटल) में कटौती करने से भोजन सम्बंधी और पर्यावरणसम्बंधी, दोनों तरह के लाभ मिलेंगे। पर्यावरणीय लाभ तो स्पष्ट हैं: इससे कृषि के लिए भूमि मिलेगी और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा। बीफ की बजाय हम पोर्क (सूअर का मांस), पोल्ट्री, मछली और दालों का उपभोग बढ़ा सकते हैं।

शाकाहारी बनें या वेगन?

हालांकि वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट विशिष्ट रूप से इसकी सलाह नहीं देता किंतु ऐसा करने से मदद मिल सकती है। ज़ाहिर है, यह बहुत बड़ी मांग है और इसके लिए सामाजिक व सांस्कृतिक परिवर्तन की दरकार होगी। मनुष्य सहस्त्राब्दियों से मांस खाते आए हैं। लोगों को मांस भक्षण छोड़ने को राज़ी करना बहुत मुश्किल होगा। शायद बीफ को छोड़कर पोर्क, मछली, मुर्गे व अंडे की ओर जाना सांस्कृतिक रूप से ज़्यादा स्वीकार्य शुरुआत होगी। स्वास्थ्य के प्रति जागरूक और जलवायुस्नेही लोग लचीलाहारीहोने की दिशा में आगे बढ़े हैं। लचीलाहारीशब्द एक लेखक ने दी इकॉनॉमिस्ट के एक लेख में उपयोग किया था। हिंदी में इसे मौकाहारीभी कह सकते हैं। दरअसल भारतीय सेना में एक शब्द मौकाटेरियनका इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जो वैसे तो शाकाहारी होते हैं किंतु मौका मिलने पर मांस पर हाथ साफ कर लेते हैं। इन पंक्तियों का लेखक भी मौकाटेरियन है।

शाकाहार की ओर परिवर्तन भारतीय और यूनानी लोगों ने करीब 1500-500 ईसा पूर्व के बीच शुरू किया था। इसका सम्बंध जीवजंतुओं के प्रति अहिंसा के विचार से था और इसे धर्म और दर्शन द्वारा बढ़ावा दिया गया था। तमिल अध्येताकवि तिरुवल्लुवर, मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त व अशोक,और यूनानी संत पायथागोरस शाकाहारी थे

शाकाहार की ओर वर्तमान रुझान एक कदम आगे गया है। इसे वेगन आहार कहते हैं और इसमें दूध, चीज़, दही जैसे डेयरी उत्पादों के अलावा जंतुओं से प्राप्त होने वाले किसी भी पदार्थ की मुमानियत होती है। फिलहाल करीब 30 करोड़ भारतीय शाकाहारी हैं जिनमें से शायद मात्र 20 लाख लोग वेगन होंगे, हालांकि यह आंकड़ा पक्का नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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