सबसे प्राचीन त्वचा

ह तो हम जानते हैं कि त्वचा से शरीर को तमाम फायदे होते हैं और सुरक्षा मिलती है। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि मृत्यु के बाद त्वचा लंबे समय तक टिकी नहीं रह पाती है और सड़-गल कर नष्ट हो जाती है। इसलिए यह पता कर पाना बड़ा कठिन है कि प्राचीन प्राणियों में त्वचा कैसे विकसित होती गई। खासकर यह सवाल अनसुलझा ही रहा है कि पेलियोज़ोइक एरा में यानी जब जीवों ने पानी से निकलकर भूमि पर रहना शुरू किया तो इस परिवर्तन के लिए उनकी त्वचा में किस तरह के बदलाव आए?

अब, ओक्लाहोमा स्थित रिचर्ड स्पर की चूना पत्थर की गुफाओं में शोधकर्ताओं को एक सरीसृप की त्वचा का एक बारीक टुकड़ा अश्मीभूत अवस्था में मिला है, जो पेलियोज़ोइक युग के अंत के समय का है। इसके विश्लेषण से लगता है कि सरीसृपों की शल्कदार जटिल संरचना वाली त्वचा एक बार विकसित होने के बाद से लगभग वैसी ही है।

यह जीवाश्म इगुआना जितने बड़े और छिपकली सरीखे सरीसृप जीव कैप्टोराइनस एगुटी का है, जो करीब 30 करोड़ वर्ष पुराना है। वैसे तो इन गुफाओं से सी. एगुटी के कई जीवाश्म मिले हैं, किंतु इनमें से अधिकतर जीवाश्म कंकाल रूप में ही हैं। लेकिन एक जीवाश्म में सी. एगुटी की थोड़ी सी बाह्यत्वचा (एपिडर्मिस) भी सलामत रह गई थी। त्वचा के सलामत बचने का कारण महीन अवसादी चट्टान और वहां का कम ऑक्सीजन वाला वातावरण था। यही कारण है कि रिचर्ड्स स्पर की इन गुफाओं में पैलियोज़ोइक युग के तरह-तरह के और अच्छी तरह से संरक्षित जीवाश्म मिलते हैं।

जब युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के एथान मूनी इन जीवाश्मों का अध्ययन कर रहे थे तो उन्हें एक जीवाश्म पर नाखून से भी छोटी और बाल से भी पतली, नाज़ुक सी बहुत सारी कण जैसी संरचनाएं दिखीं। पहले तो लगा कि ये हड्डी के ही हिस्से हैं। लेकिन सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन करने पर पता चला कि वास्तव में यह जीवाश्म तो किसी जीव की त्वचा का है, जिसमें बाह्यत्वचा और उसके नीचे वाली परत सुरक्षित है। त्वचा की बनावट कुछ-कुछ बबल वाली पॉलीथीन की तरह थी – त्वचा दूर-दूर स्थित मुड़े हुए शल्कों जैसी संरचना से बनी थी जिनके बीच में लचीले कब्जे थे, जो वृद्धि और हिलना-डुलना-मुड़ना संभव बनाते हैं।

शोध पत्रिका करंट बायोलॉजी में प्रकाशित त्वचा की संरचना वगैरह के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह त्वचा सी. एगुटी सरीसृप की है। हालांकि अभी वे इस बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं क्योंकि यह त्वचा कंकाल से चिपकी नहीं थी। लेकिन इसकी झुर्रीदार, बबल-पॉलीथीननुमा संरचना को देखकर इतना तो तय है कि यह त्वचा किसी सरीसृप की है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्राचीन जीवों की त्वचा के रंग की पहचान

ह तो हम जानते हैं कि हर जीव की त्वचा का खास रंग होता है जो उसे कई तरह से मदद करता है। जैसे छिपने, शरीर का तापमान नियंत्रित रखने वगैरह में। वर्तमान जीवों की तरह प्राचीन काल के जीव-जंतु भी तरह-तरह के रंगों के हुआ करते थे – इंद्रधनुषी पंखों वाले डायनासौर से लेकर भक्क काले रंग के स्किवड तक। लेकिन प्रचीन समय के जीवों की त्वचा का रंग भांपना एक बड़ी चुनौती है क्योंकि जीवों की त्वचा, फर और पंखों को रंगने वाले रंजक वगैरह अश्मीभूत होने के दौरान अक्सर नष्ट हो जाते हैं। विशेषज्ञों ने काले और भूरे जैसे गहरे रंगों की बनावट और रंजकों का पता लगाने के तरीके तो ढूंढ लिए हैं लेकिन पीले, लाल, नारंगी जैसे हल्के रंगों को पहचान पाना अब भी एक चुनौती है। ये रंग फिओमेलेनिन के कारण दिखते हैं, जो कि आसानी से पकड़ न आने वाला रंजक है।

हाल ही में नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने एक ऐसे तरीके का वर्णन किया है जो जीवाश्मों की त्वचा में फिओमेलेनिन से बनने वाले अदरक के रंग सरीखे इन रंगों को पहचानने में मदद कर सकता है।

देखा जाए तो इन रंगों को पहचानने का यह पहला प्रयास नहीं है। पूर्व में हुए अध्ययनों ने भी जीवाश्मों में फिओमेलेनिन से बनने वाले रंग पहचानने की कोशिश की थी लेकिन उनके परिणाम काफी हद तक अनिर्णायक ही रहे थे। उदाहरण के लिए, वैज्ञानिकों ने बोरीलोपेल्टा डायनासौर के जीवाश्म में लाल रंग की पहचान की थी। लेकिन वे यह भेद नहीं कर पाए थे कि यह जो फिओमेलेनिन उन्हें मिला है वह त्वचा के मूल रंजक का है या डायनासौर की मृत्यु के बाद हुए संदूषण का है।

इस फर्क को पहचानने के लिए युनिवर्सिटी कॉलेज कॉर्क की जीवाश्म विज्ञानी टिफैनी स्लेटर और साथियों ने एक परीक्षण तैयार किया, जो त्वचा, पंखों वगैरह के अदरक सदृश रंगों के मूल रंजक से छूटी छाप और संदूषण के कारण मिले रंजक से छूटी छाप में फर्क कर पाया। उन्होंने जीवों के अश्मीभूत होने के दौरान जैविक यौगिकों के टूटने की प्रक्रिया की नकल करने के लिए विभिन्न आधुनिक पक्षियों के पंखों को ओवन में तपाया। फिर तपाए हुए पंखों का सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन किया और विभिन्न प्रकार के मेलेनिन की पहचान के लिए रासायनिक परीक्षण किए। उन्होंने पाया कि जैविक रंजक जीवाश्मों में एक विशिष्ट एवं पहचानने योग्य छाप छोड़ते हैं। इसके बाद शोधकर्ताओं ने विभिन्न जीवाश्मों पर रंजकों की रासायनिक छाप पहचानने का प्रयास किया, और उन्हें करीब 1 करोड़ वर्ष पुराने एक मेंढक, कन्फ्यूशियसॉर्निस नामक पक्षी और सायनोर्निथोसॉरस डायनासौर में ये रंजक मिले।

उम्मीद है कि अब जीवाश्म की त्वचा के रंगों का अधिक सटीक निर्धारण किया जा सकेगा। मसलन, देखा जा सकेगा कि उड़ने वाले टेरोसौर में कौन से चटख रंग होते थे। आगे के अध्ययन शायद यह भी बता सकेंगे कि फिओमेलेनिन सबसे पहले कैसे और क्यों विकसित हुआ? क्योंकि फिओमेलेनिन के कारण कैंसर होने की संभावना हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन से कुछ जीव निशाचर बन रहे हैं

लवायु परिवर्तन के कारण कुछ जीवों के व्यवहार में परिवर्तन हो रहा है। निरंतर बढ़ते तापमान की स्थिति में जीवित रहने के लिए वे निशाचर बन रहे हैं। हाल ही में ब्राज़ील के पेंटानल वेटलैंड्स में पाए जाने वाले सफेद होंठ वाले पेकेरी (Tayassu pecari) पर अध्ययन ने यह चौंकाने वाला खुलासा किया है। शोधकर्ताओं के अनुसार आम तौर पर दिन के समय सक्रिय रहने वाला यह जीव अत्यधिक गर्मी के दौरान रात के समय अधिक गतिविधि करता पाया गया है।

बायोट्रॉपिका में प्रकाशित अध्ययन की सहलेखक मिशेला पीटरसन ने जलवायु परिवर्तन से जूझ रही प्रजातियों के लिए अनुकूलन विधि के रूप में इस प्रकार के व्यवहारिक लचीलेपन पर प्रकाश डाला है। अध्ययन से पता चलता है कि लगभग 27 डिग्री सेल्सियस से कम तापमान में पेकेरी दोपहर के समय सबसे अधिक सक्रिय थे। लेकिन जैसे-जैसे तापमान बढ़ा, उनकी गतिविधि सुबह के समय होने लगी, और दिन का तापमान 34 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने पर, उनकी चरम सक्रियता सूर्यास्त के बाद देखी गई।

शोधकर्ताओं ने विशाल एंट-ईटर और चीतों जैसी अन्य प्रजातियों के व्यवहार में भी इसी तरह के बदलाव देखे हैं, जो जीवों के व्यवहार में व्यापक परिवर्तन का संकेत देते हैं। दूसरी ओर, लीडेन विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकी विज्ञानी माइकल वेल्डुई के अनुसार इन परिवर्तनों के दीर्घकालिक प्रभाव पर अभी भी अनिश्चितता है तथा और अधिक शोध की आवश्यकता बनी हुई है।

गौरतलब है कि जीवों का निशाचर व्यवहार दिन की गर्मी से राहत देता है लेकिन यह प्यूमा जैसे निशाचर शिकारियों का शिकार बनने का जोखिम भी पैदा करता है। इसके अतिरिक्त, रात की गतिविधि में परिवर्तन इन जीवों को भोजन स्रोतों का पता लगाने में भी मुश्किल पैदा कर सकता है। हालांकि, शोधकर्ता अभी भी इस व्यवहारिक समायोजन को एक स्थायी बदलाव के रूप में नहीं देख रहे हैं। उनका मानना है कि संभवत: ये जीव अभी भी दिन की गतिविधि को प्राथमिकता दे रहे हों और केवल अत्यधिक गर्मी के दौरान रात में भोजन की तलाश का विकल्प अपना रहे हों।

कुछ विशेषज्ञों का सुझाव है कि दिन के उजाले के आदी जीव संभव होने पर रात की गतिविधि से परहेज़ कर सकते हैं। पेकेरी की सुबह की गतिविधि में प्रारंभिक बदलाव इस ओर संकेत देता है कि वे रात की स्थितियों की तुलना में अधिक उपलब्ध रोशनी के साथ ठंडे तापमान को प्राथमिकता देते हैं।

इस दिशा में चल रहे अध्ययन जलवायु परिवर्तन की स्थिति में जीवों के अनुकूलन की जटिलता पर ज़ोर देते हैं। यह वन्यजीवों के बदलते आवासों में बढ़ते तापमान से निपटने के लिए लचीलापन और संभावित चुनौतियों का भी संकेत देते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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सर्दियों में गर्म रखती नाक की हड्डियां

र्दियों का मौसम चल रहा है। ठंड से राहत के लिए हम तरह-तरह की व्यवस्थाएं करते हैं, जैसे चाय-कॉफी, गर्म कपड़े, अलाव वगैरह। लेकिन ठंडे क्षेत्रों में रहने वाले जीवों के लिए तो इस तरह के उपाय अपनाना संभव नहीं है। लेकिन बायोफिज़िकल जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन आर्कटिक में रहने वाली सील की ठंड से राहत पाने की एक नायाब व्यवस्था का उल्लेख करता है – सील की नाक की अनोखी हड्डियां तुलनात्मक रूप से उनके शरीर में अधिक गर्मी संरक्षित रखती हैं।

जब आर्कटिक की सील तेज़-तेज़ सांस खींचती-छोड़ती हैं तो फेफड़ों में पहुंचने के पहले बर्फीली नम हवा नासिका से घुसकर उनकी नाक की हड्डियों (मैक्सिलोटर्बिनेट्स) से गुज़रती है। इन सर्पिलाकार छिद्रमय हड्डियों पर श्लेष्मा ऊतकों का अस्तर होता है, जो सील के सांस लेने पर गर्मी को कैद कर लेता है और हवा से नमी सोख लेता है।

सील की नाक की इस क्षमता को परखने के लिए शोधकर्ताओं ने आर्कटिक क्षेत्र की रहवासी दाढ़ीधारी सील (Erignathus barbatus) और उपोष्णकटिबंधीय भूमध्यसागरीय क्षेत्रों की रहवासी बैरागी सील (Monachus monachus) की नाकों का सीटी स्कैन किया और उनके मैक्सिलोटर्बिनेट का त्रिआयामी मॉडल बनाया। फिर इसे उन्होंने भीषण ठंड (शून्य से 30 डिग्री सेल्सियस नीचे) और हल्की ठंड (10 डिग्री सेल्सियस) की स्थितियों में परखा। पता चला कि आर्कटिक सील की नाक दोनों परिस्थितियों में अधिक गर्मी और नमी को संरक्षित रखती है।

दाढ़ीवाली सील की नाक का सीटी स्कैन

उपोष्णकटिबंधीय सील की तुलना में आर्कटिक सील हर सांस पर 23 प्रतिशत कम ऊर्जा खर्चती है, जिससे वे शरीर में अधिक गर्मी बरकरार रख पाती हैं। और वे सांस के साथ खींची गई नमी का 94 प्रतिशत हिस्सा भी शरीर में रोक लेती हैं। कई अन्य समुद्री स्तनधारियों की तरह सील भी अधिकांश पानी भोजन से हासिल करती हैं। शरीर की नमी का संरक्षण करके वे बेहतर हाइड्रेटेड रहती हैं।

शोधकर्ताओं के अनुसार आर्कटिक सील में यह नैसर्गिक नमीकरण व्यवस्था नाक की हड्डियों की दांतेदार बनावट के चलते बढ़ी हुई सतह के कारण है। जब भी सील सांस छोड़ती हैं तो उनकी वक्राकार हड्डियां अपनी ऊबड़-खाबड़ संरचना में अधिकाधिक नमी कैद कर लेती हैं और उसे सोख लेती हैं। नतीजतन सील ठंड में चैन से सांस ले पाती है। (स्रोत फीचर्स)

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बिल्लियों के चेहरे पर लगभग 300 भाव होते हैं

सा माना जाता है कि बिल्लियां सामाजिक जंतु नहीं हैं। लेकिन हाल ही में हुए अध्ययन में बिल्लियों में दोस्ती से लेकर गुस्से तक के 276 चेहरे के भाव देखे गए हैं। बिहेवियरल प्रोसेसेस में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार बिल्लियों में इन भावों के विकसित होने में 10,000 सालों से मनुष्य की संगत का हाथ है।

हो सकता है कि बिल्लियां एकान्तप्रिय और एकाकी प्राणि हों, लेकिन वे अक्सर घरों में या सड़क पर अन्य बिल्लियों के साथ खेलते भी देखी जाती हैं। कुछ जंगली बिल्लियां तो बड़ी-बड़ी कॉलोनियों में रहती हैं जिनकी आबादी हज़ारों में होती है।

बिल्लियों पर हुए अधिकतर अध्ययन उनके बीच के झगड़ों पर केंद्रित रहे हैं, लेकिन बिल्ली प्रेमी लॉरेन स्कॉट का ऐसा विचार था कि बिल्लियों में आक्रामकता के अलावा प्रेम और कूटनीति जैसे और भी भाव होंगे। वे जानना चाहती थीं कि बिल्लियां आपस में संवाद कैसे करती हैं।

तो, स्कॉट ने एक कैटकैफे का रुख किया। उन्होंने कैफे बंद होने के बाद बिल्लियों के चेहरे के भावों को वीडियो रिकॉर्ड किया; खास कर जब बिल्लियां अन्य बिल्लियों से किसी रूप में जुड़ रही होती थीं। फिर उन्होंने वैकासिक मनोवैज्ञानिक ब्रिटनी फ्लोर्कीविक्ज़ के साथ मिलकर बिल्लियों के चेहरे की मांसपेशियों की सभी हरकतों को कोड किया। कोडिंग में उन्होंने सांस लेने, चबाने, जम्हाई और ऐसी ही अन्य हरकतों को छोड़ दिया।

इस तरह उन्होंने बिल्लियों द्वारा प्रस्तुत चेहरे के कुल 276 अलग-अलग भावों को पहचाना। अब तक चेहरे के सर्वाधिक भाव (357) चिम्पैंज़ी में देखे गए हैं। देखा गया कि बिल्लियों का प्रत्येक भाव उनके चेहरे पर देखी गई 26 अद्वितीय हरकतों में से चार हरकतों का संयोजन था, ये हरकतें हैं – खुले होंठ, चौड़े या फैले जबड़े, फैली या संकुचित पुतलियां, पूरी या आधी झुकी पलकें, होंठों के कोने चढ़े (मंद मुस्कान जैसे), नाक चाटना, तनी हुईं या पीछे की ओर मुड़ी हुई मूंछें, और/या कानों की विभिन्न स्थितियां। तुलना के लिए देखें तो मनुष्यों के चेहरे की ऐसी 44 अद्वितीय हरकतें होती हैं, और कुत्तों के चेहरे की 27। वैसे ये अध्ययन जारी हैं कि हम भाव प्रदर्शन में कितनी अलग-अलग हरकतों का एक साथ इस्तेमाल करते हैं।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया है कि बिल्लियों की अधिकांश अभिव्यक्तियां स्पष्टत: या तो मैत्रीपूर्ण (45 प्रतिशत) थीं या आक्रामक (37 प्रतिशत)। शेष 18 प्रतिशत इतनी अस्पष्ट थीं कि वे दोनों श्रेणियों में आ सकती थीं।

यह अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि इन भंगिमाओं के ज़रिए बिल्लियां वास्तव में एक-दूसरे से क्या ‘कह’ रही थीं। इतना ज़रूर समझ आया कि दोस्ताना संवाद के दौरान बिल्लियां अपने कान और मूंछें दूसरी बिल्ली की ओर ले जाती हैं, और अमैत्रीपूर्ण संवाद के दौरान उन्हें उनसे दूर ले जाती हैं। सिकुड़ी हुई पुतलियां और होठों को चाटना भी मुकाबले  का संकेत है।

दिलचस्प बात यह है कि बिल्लियों की कुछ मित्रतापूर्ण भंगिमाएं मनुष्यों, कुत्तों, बंदरों और अन्य जानवरों की तरह होती हैं। यह इस बात का संकेत है कि शायद ये प्रजातियां ‘एक उभयनिष्ठ भावयुक्त चेहरा’ साझा कर रही हों।

बहरहाल शोधकर्ता जंगली बिल्ली कुल के अन्य सदस्यों के साथ अपने परिणामों की तुलना नहीं कर पाए हैं लेकिन वे जानते हैं कि घरेलू बिल्ली के सभी करीबी रिश्तेदार आक्रामक एकाकी जानवर हैं। इसलिए अनुमान तो यही है कि घरेलू बिल्लियों ने इस आक्रामक व्यवहार में से कुछ तो बरकरार रखा है, लेकिन मनुष्यों के बचे-खुचे खाने के इंतज़ार में मित्रवत अभिव्यक्ति शुरू की है। (स्रोत फीचर्स)

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गार्टर सांप दोस्तियां करते हैं

सांपों के बारे में प्राय: माना जाता है कि वे समूह में नहीं रहते वरन अकेले यहां-वहां सरसराते रहते हैं। लेकिन हाल ही में बिहेवियोरल इकॉलॉजी में प्रकाशित अध्ययन इस मान्यता का खण्डन करता है और बताता है कि गार्टर सांप (Thamnophis butleri) समूह बनाते हैं। इस समूह में वे ‘लोग’ शामिल होते हैं जिनके साथ उनकी मित्रता होती है या जिनका साहचर्य वे पसंद करते हैं। समूह की मुखिया कोई बुज़ुर्ग मादा होती है जो उस समूह के युवा सांपों का मार्गदर्शन करती है।

आम लोगों के अलावा पारिस्थितिकी विज्ञानियों को भी काफी समय तक यही लगता था कि सांप असामाजिक और एकाकी जंतु होते हैं और केवल संभोग और शीतनिद्रा के समय ही साथ आते हैं। इसका एक कारण यह हो सकता है कि उन पर अध्ययन ही बहुत कम हुए हैं क्योंकि वे बिलों में या छिपे हुए रहते हैं और उन्हें ढूंढना मुश्किल होता है। लेकिन वर्ष 2020 में, विल्फ्रिड लॉरियर विश्वविद्यालय के व्यवहार पारिस्थितिकीविद मॉर्गन स्किनर और उनके दल ने प्रयोगशाला अध्ययनों में देखा कि कृत्रिम आवासों में रखे गए गार्टर सांप ‘मित्र’ बनाते हैं – उनके ऐसे साथी होते हैं जिनका साहचर्य वे अन्य की तुलना में अधिक पसंद करते हैं।

इसके पहले 2009 में, कनाडा के ओंटारियो परिवहन मंत्रालय ने गार्टर सांपों की सुरक्षा के लिए एक अध्ययन करवाया था। इसमें वैज्ञानिकों ने उनके बिलों पर नज़र रखी और उन्हें सड़क निर्माण से सुरक्षित रखने के लिए अन्यत्र स्थानांतरित किया। उन्होंने 250 हैक्टर में फैले अध्ययन क्षेत्र में सांपों को पकड़ा, उन पर पहचान चिह्न लगाए और 3000 से अधिक सांपों पर 12 साल तक नज़र रखी। सांप की पूरी उम्र लगभग इतनी ही होती है। लेकिन निगरानी का मुख्य फोकस यह सुनिश्चित करना था कि स्थानांतरण के बाद गार्टर सांप ठीक से फल-फूल रहे हैं या नहीं।

हालिया अध्ययन में स्किनर इन वैज्ञानिकों के साथ जुड़े और 12 वर्षों में उनके द्वारा जुटाए गए डैटा से सांपों की सामाजिक संरचना या जुड़ाव समझने की कोशिश की। सामाजिक जुड़ाव उन्होंने मनुष्यों की नज़र से ही देखा। उन्होंने प्रत्येक सांप को एक बिन्दु या नोड कहा। और जब दो सांपों को एक ही दिन, एक ही स्थान पर देखा गया तो उन्होंने उन दो बिंदुओं को एक रेखा से जोड़ दिया। डैटा का निष्कर्ष है कि सांप स्वतंत्र रूप से और बेतरतीब ढंग से यहां-वहां भटकने की बजाय ‘समूह’ बनाते हैं। इस समूह में वे सदस्य होते हैं जिनका साथ वे पसंद करते हैं और इस तरह के एक समूह में औसतन तीन से चार सांप होते हैं। लेकिन कुछ मामलों में सदस्यों की संख्या 46 तक भी हो सकती है।

यह भी देखा गया कि मादा सांप नर की तुलना में अधिक मिलनसार होती हैं, और सबसे अधिक बुज़ुर्ग मादा सांप दोस्तों के साथ दिखती हैं। इसके अलावा वे ही समूह की मुखिया भी होती हैं, और समूह के युवा सदस्य उनका अनुसरण करते हैं। यह भी देखा गया कि उम्र बढ़ने के साथ नर सांप अधिक असामाजिक होते जाते हैं।

यह भी पता चला है कि सांप समान लिंग और हम-उम्र सांपों के साथ भी मेल-जोल रखते हैं। यानी यह मेलजोल सिर्फ संभोग के उद्देश्य से नहीं होता। इसके अलावा, नर और मादा दोनों में ही यह देखा गया है कि जो भी सांप अधिक सामाजिक था वह अधिक स्वस्थ था; लगता है कि दोस्तियां करने से उन्हें फायदा होता है।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि समूह में होने से शिकारियों से बचा जा सकता है, या भोजन और शीतनिद्रा के लिए अच्छे स्थान ढूंढने में मदद मिल सकती है। या यह भी हो सकता है कि दोस्तों के करीब घूमने से उन्हें गर्माहट मिलती हो।

अब तक सांप-समाजों में मादाओं का महत्व उपेक्षित था। माना जाता है कि नर संभोग के लिए मादाओं की तलाश में रहते हैं, लेकिन मादाएं बच्चे पैदा करने के अलावा कुछ नहीं करतीं। अध्ययन इसे स्पष्ट रूप से गलत सिद्ध करता है, और बच्चों और युवा सांपों के मार्गदर्शन और सुरक्षा में मादाओं की भूमिका उजागर करता है।

यह अध्ययन यह समझने कि दिशा में एक महत्वपूर्ण पहला कदम है कि प्राकृतिक परिस्थितियों में सांपों का समूह कैसे बनता है। स्किनर का मत है कि यदि पारिस्थितिकीविद अपने पूर्व फील्ड नोट्स या अध्ययनों पर दोबारा गौर करेंगे तो सांपों पर ऐसे और भी अध्ययन संभव हो सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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गर्माती धरती पर पक्षियों के पैर लंबे होने की संभावना

क्षियों के रोएंदार पंख उनके शरीर की ऊष्मा बिखरने नहीं देते और उन्हें गर्म बनाए रखते हैं। दूसरी ओर, चोंच उन्हें ठंडा रखती है, जब शरीर बहुत अधिक गर्म हो जाता है तो चोंच से ही ऊष्मा बाहर निकालती है। लेकिन जब ज़्यादा संवेदी ताप नियंत्रक (thermostat) की ज़रूरत होती है, तो वे अपनी टांगों से काम लेते हैं।

ऑस्ट्रेलिया में चौदह पक्षी प्रजातियों पर किए गए अध्ययन में पता चला है कि पक्षी अपने पैरों में रक्त प्रवाह को कम-ज़्यादा करके शरीर की गर्मी को कम-ज़्यादा बिखेर सकते हैं।

पक्षियों के शीतलक यानी उनकी चोंच और पैर में बेशुमार रक्तवाहिकाएं होती हैं और ये कुचालक पंखों से ढंकी नहीं होती हैं। इससे उन्हें गर्मी बढ़ने पर शरीर का तापमान कम करने में मदद मिलती है। इसलिए तोतों और उष्णकटिबंधीय जलवायु में रहने वाले अन्य पक्षियों की चोंच बड़ी और टांगें लंबी होती हैं।

लेकिन पक्षियों में ताप नियंत्रण से जुड़ी अधिकतर जानकारी प्रयोगशाला अध्ययनों पर आधारित थीं। सवाल था कि क्या प्राकृतिक परिस्थिति में यही बात लागू होती है? इसे जानने के लिए डीकिन विश्वविद्यालय की वैकासिक पारिस्थितिकीविद एलेक्ज़ेंड्रा मैकक्वीन ने प्राकृतिक आवासों में पक्षियों की ऊष्मीय तस्वीरें लीं।

ऊष्मा (अवरक्त) कैमरे की मदद से उन्होंने ऑस्ट्रेलियाई वुड डक (Chenonetta jubata), बनफ्शी कीचमुर्गी (Porphyrio porphyrio), और बेमिसाल परी-पिद्दी (Malurus cyaneus) सहित कई पक्षी प्रजातियों की तस्वीरें लीं। तुलना के लिए उन्होंने हवा की गति, तापमान, आर्द्रता और सौर विकिरण भी मापा ताकि पक्षियों के शरीर की बाहरी सतह के तापमान की गणना कर सकें।

गर्मियों में, जब बाहर का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक होता है तो पक्षी शरीर की अतिरिक्त गर्मी को निकालने के लिए अपनी चोंच और टांगों दोनों का उपयोग करते हैं। सर्दियों में, जब बाहर का तापमान कम होता है, कभी-कभी 2.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, तो पक्षियों की चोंच तो गर्मी छोड़ती रहती है लेकिन उनकी टांगें ऊष्मा बिखेरना बंद कर देती हैं – उनके पैर ठंडे थे यानी उन्होंने पैरों में रक्त प्रवाह रोक (या बहुत कम कर) दिया था ताकि ऊष्मा का ह्रास कम रहे।

बायोलॉजी लैटर्स में प्रकाशित ये निष्कर्ष ठीक ही लगते हैं, क्योंकि पक्षियों का अपनी चोंच की रक्त वाहिकाओं पर नियंत्रण कम होता है क्योंकि चोंच उनके मस्तिष्क के करीब होती है जहां निरंतर रक्त प्रवाह ज़रूरी है।

बहरहाल इस अध्ययन से यह समझने में मदद मिलती है कि ठंडी जलवायु में रहने वाले पक्षियों की चोंच छोटी क्यों होती है। साथ ही अनुमान है कि जैसे-जैसे वैश्विक तापमान बढ़ता जाएगा और पृथ्वी गर्म होती जाएगी तो संभव है कि वर्ष में बहुत अलग-अलग तापमान झेल रही पक्षी प्रजातियों की टांगें लंबी होती जाएंगी, जिनके रक्त प्रवाह और ऊष्मा के संतुलन पर पक्षी का अधिक नियंत्रण होता है।

फिलहाल उम्मीद है कि इस तरह के और भी अध्ययनों से यह बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी कि दुनिया भर के पक्षी जलवायु परिवर्तन से कैसे निपटेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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निशाचर प्रवृत्ति ने मछलियों को विलुप्ति से बचाया

गभग 14.5 करोड़ साल पहले पूरी पृथ्वी पर ज्वालामुखी विस्फोट हुए थे जिससे आसमान में छाए धुएं के बादलों ने पृथ्वी पर अंधकार कर दिया था। इसके चलते हज़ारों प्रजातियां खत्म हो गई थीं। लेकिन एसिपेंसरिफॉर्मेस जैसी कुछ मछलियां इस विपदा को झेलकर जीवित बची रहीं। आगे चलकर इन्हीं से आजकल की स्टर्जन्स विकसित हुईं।

वैकासिक जीवविज्ञानी इस बात पर बहस करते रहे हैं कि क्यों कुछ प्रजातियां जीवित बचीं जबकि कई अन्य प्रजातियां विलुप्त हो गईं। हाल ही में एक अध्ययन ने एक नया विचार प्रस्तुत किया है – संभवत: ये प्रजातियां अपनी निशाचर प्रवृति के कारण जीवित बच पाईं।

कुछ पूर्व अध्ययनों से यह तो मालूम था कि करीब 6.6 करोड़ साल पहले किसी बाहरी पिंड के पृथ्वी से टकराने के कारण डायनासौर समेत कई जीव विलुप्त हो गए थे, लेकिन इसमें कई निशाचर स्तनधारी विलुप्ति से बच गए थे।

तो क्या अन्य आपदाओं के मामले में भी जीवों की निशाचर प्रवृत्ति ने उन्हें बचने में मदद की होगी? जानने के लिए टोरंटो विश्वविद्यालय के वैकासिक जीवविज्ञानी मैक्सवेल शेफर और उनके साथियों ने वर्तमान मछलियों पर ध्यान दिया। वर्तमान मछलियों पर ध्यान केंद्रित करने का एक और कारण यह था कि सिर्फ जीवाश्म देखकर यह पता करना मुश्किल होता है कि वह जीव निशाचर था या दिनचर।

अध्ययन में उन्होंने लगभग 4000 हड्डीवाली मछली प्रजातियों और शार्क जैसी 135 उपास्थिवाली प्रजातियों के दिन-रात के व्यवहार का अध्ययन किया और एक वंशवृक्ष पर इन व्यवहारों को चित्रित किया। फिर उन्होंने सिमुलेशन (अनुकृति) की मदद से आधुनिक मछलियों के पूर्वजों के दिन-रात के संभावित व्यवहार के पैटर्न बनाए। इसमेंं से उन्होंने उस पैटर्न को चुना जो वर्तमान प्रजातियों के दिन-रात की गतिविधि की सबसे अच्छी व्याख्या कर सकता था।

स्टर्जन जैसी कुछ मछलियां तो हमेशा से निशाचर रही हैं। बायोआर्काइव में प्रकाशित नतीजों के अनुसार सभी मछलियों के पूर्वज भी रात्रिचर थे, और विलुप्ति से बची कई मछली प्रजातियां भी निशाचर थी। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि अन्य कशेरुकियों की तुलना में ज़्यादा मछलियां कई बार निशाचर से दिनचर और दिनचर से निशाचर में तब्दील होती रही हैं। और तो और, 14.5 करोड़ साल और 6.6 करोड़ साल पहले के संक्रमण काल में ये तब्दीलियां सबसे अधिक थीं।

उक्त दोनों ही घटनाओं के दौरान तापमान में अचानक बहुत अधिक वृद्धि हुई थी। संभव है कि रात में सक्रिय रहने के कारण निशाचर जीव दिन के चरम तापमान से बच गए। और जब पर्यावरणीय उथल-पुथल शांत हुई तो निशाचर प्रजातियां दिनचर में परिवर्तित हो गई और पारिस्थितिकी में रिक्त स्थानों को भर दिया। और अंतत: इस तब्दीली ने मछलियों में निशाचर और दिनचर प्रजातियों के बीच संतुलन बहाल कर दिया।

जैसा कि हमें पूर्व अध्ययन से ज्ञात है कि शुरुआती स्तनधारी डायनासौर से बचने के लिए निशाचर थे, डायनासौर के विलुप्त होने के बाद वे दिन में सक्रिय होने लगे। उभयचर और अन्य थलीय कशेरुकी भी अपने अधिकांश विकास के दौरान निशाचर रहे, लेकिन बाद में उनमें से अधिकांश दिनचर हो गए। इस आधार पर शोधदल का कहना है कि निशाचर होना आपदाओं से बच निकलने की एक रणनीति है।

अन्य विशेषज्ञ थोड़ी सतर्कता बरतने को कहते हैं। जैसे अध्ययन का यह मुख्य निष्कर्ष तो सही लगता है कि निशाचर होने से वैकासिक लाभ हुआ लेकिन ऐसा कई कारणों से हो सकता है। जैसे जब 6.6 करोड़ वर्ष पहले पृथ्वी पर अंधेरा छा गया था तो संभव है दिनचर जीव अपने शिकार या भोजन को देख न पाते हों जबकि निशाचरों के लिए अंधेरे में भोजन तलाशना कोई बाधा ही नहीं थी। या हो सकता है वनस्पतियां मर गईं हो और साथ ही उन पर निर्भर शाकाहारी जीव भी। कई निशाचर जीव अपशिष्ट भोजन पर निर्भर होते हैं, जो इतनी जल्दी खत्म नहीं होता। तो संभव है कि जीवित रहने का लाभ भोजन पारिस्थितिकी से मिला हो, न कि मात्र निशाचर होने से।

इन अध्ययनों में व्यापक विलुप्ति की उन आपदाओं को ही देखा गया है जिनमें पृथ्वी पर गर्मी बढ़ी थी और अंधकार छाया था। कई वैज्ञानिकों का मत है कि अन्य तरह की आपदाओं को शामिल करके देखना मददगार होगा। बहरहाल, यह निष्कर्ष एक संभावना तो जताता है कि तेज़ी से बदलती जलवायु में संभवत: निशाचर जीवों के बचने की संभावना अन्य से अधिक होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कीट है या फूल है?

र्किड मेंटिस (Hymenopus coronatus) नामक कीट अपने फूल सरीखे दिखने वाले शरीर के कारण तो विशिष्ट है ही। लेकिन अब शोधकर्ताओं को इसकी एक और विशिष्टता पता चली है – और वह है इसकी उड़ान। ऑर्किड मेंटिस कीट की टांगें फूलों की पंखुड़ियों जैसी होती हैं। इनकी मदद से यह अन्य अकशेरुकी जंतुओं की तुलना में 50 प्रतिशत से 200 प्रतिशत अधिक दूर तक ग्लाइड कर पाता है।

ऑर्किड मेंटिस का रंग-रूप हू-ब-हू मॉथ ऑर्किड के खिले हुए फूल की तरह है – रंग सफेद-गुलाबी सा और शरीर का आकार एकदम फूल और उसकी पंखुड़ियों जैसा। यही नहीं, इसके शरीर की हरकत भी एकदम फूल की भांति हैं – हौले-हौले बिलकुल ऐसे हिलता-डुलता है जैसे हवा के झोंकों से फूल या उसकी पंखुड़ियां लहराती हैं। जब कोई कीट मकरंद की तलाश में भिनभिनाता हुआ फूल के पास आ जाता है तो ऑर्किड मेंटिस तेज़ी से उस पर हमला करता है।

ऐसे ही एक हमले में शोधकर्ताओं ने जब ऑर्किड मेंटिस को तेज़ी से उछलते हुए देखा तो उन्हें विचार आया कि हो न हो उसके पंखुड़ीनुमा पैर न केवल छद्मावरण का काम करते हैं बल्कि संभवत: ये उनके लिए पंखों जैसा काम भी करते हैं। अपने अनुमान की पुष्टि के लिए जब अपने अध्ययन में उन्होंने एक दर्ज़न से अधिक मेंटिस को नीचे गिराया तो उन्होंने पाया कि मेंटिस गिरते हुए पलटकर सीधे हो जाते हैं और फिर करीबन 8 मीटर तक हवा के साथ ग्लाइड करते जाते हैं। यह रणनीति युवा मेंटिस के लिए सबसे अधिक उपयोगी साबित होती है – जैसे-जैसे वे वयस्क होते जाते हैं, उनके पंख शक्तिशाली उड़ान के लिए विकसित हो जाते हैं। ये नतीजे करंट बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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आधी से अधिक सर्पदंश मौतें भारत में होती हैं

दुनिया भर में प्रतिवर्ष सर्पदंश से करीब सवा लाख लोगों की मृत्यु होती है। इनमें से करीब 58,000 मौतें भारत में होती हैं। अलबत्ता, भारत में सर्पदंश के कई मामले तो दर्ज ही नहीं हो पाते। कुछ मामले अस्पतालों तक पहुंचते भी नहीं हैं – कुछ लोग झाड़-फूंक करने वालों और नीम-हकीमों के पास चले जाते हैं। नतीजतन, सर्पदंश की समस्या वास्तव में कितनी बड़ी है यह अस्पष्ट ही रह जाता है।

एक बात यह है कि सर्पदंश से हुई मृत्यु भारत में चिकित्सकीय-कानूनी (मेडिको-लीगल) मामला है क्योंकि सर्पदंश से मृत्यु के मामले में, मुआवज़ा प्राप्त करने के लिए मृतक के परिवारजनों को पुलिस से अनापत्ति प्रमाण पत्र और अस्पताल से सत्यापन पत्र लेना पड़ता है।

महज़ दो-चार लाख रुपए के मुआवजे के लिए इतने सारे नियम-कानून व कागज़ी कार्रवाई हेतु दफ्तरों के चक्कर लगाना पड़ते हैं एवं अनावश्यक विलम्ब होता है। यह भी तब जब सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति को इलाज मिल जाए। कुछ डॉक्टर कानूनी कार्रवाई के डर से सर्पदंश के मरीज़ों का इलाज करने से इन्कार भी कर देते हैं।

इस संदर्भ में ह्यूमन सोसायटी इंटरनेशनल के निदेशक सुमंत बिंदुमाधव सर्पदंश को एक अधिसूचित बीमारी घोषित करने की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं और कहते हैं कि अधिकांश नीति निर्माता एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम डैटा (IDSP) या केंद्रीय स्वास्थ्य खुफिया ब्यूरो (CBHI) के डैटा पर काम करते हैं, जो सटीक नहीं हैं। इसके अलावा यदि सर्पदंश से उबर भी जाएं तो उसका ज़हर स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक असर डालता है और परिवारों पर इसका उच्च सामाजिक और आर्थिक असर पड़ता है।

सर्पदंश से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2017 में सर्पदंश को एक उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारी (NTD) घोषित किया है और 2019 में इसने 2030 तक सर्पदंश के वैश्विक बोझ को आधा करने का लक्ष्य तय किया है। महत्वपूर्ण बात है कि इस लक्ष्य को हासिल करना तभी संभव है जब भारत में इस दिशा में पर्याप्त काम हो।

वैसे तो भारत में सर्पदंश की रोकथाम और नियंत्रण के लिए तुरंत ही एक राष्ट्रीय कार्यक्रम भी आ गया था, जिसने भविष्य में सर्पदंश के मामलों को नियंत्रित करने की रणनीतियों और तरीकों की पहचान की है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने 2022 में एक टास्क फोर्स का गठन किया है, जिसने भारत में सर्पदंश की घटनाओं, मृत्यु दर, रुग्णता और सामाजिक आर्थिक बोझ को समझने के लिए एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण शुरू किया है।

सर्वेक्षण में शामिल 14 में से 8 राज्यों में सर्वेक्षण हो गया है शेष राज्यों में अध्ययन जारी है। अब तक हुए अध्ययन में एक बात सामने आई है कि बाज़ार में उपलब्ध भारतीय पॉलीवैलेंट एंटीवेनम सभी जगह पर और हर तरह के ज़हर पर कारगर नहीं होता, इसलिए स्थानानुसार एंटीवेनम मुहैया होना चाहिए।

अध्ययन कई सिफारिशें भी करता है – जैसे मान्यता प्राप्त सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (जैसे आशा) को लोगों में सर्पदंश की प्रभावी रोकथाम और प्रबंधन के संदेश पहुंचाने के लिए प्रशिक्षित करना, क्योंकि सर्पदंश के 70 प्रतिशत से अधिक मामले ग्रामीण इलाकों में होते हैं।

इस वर्ष से सरकार ने सर्पदंश के लिए हर राज्य में नोडल अधिकारी नियुक्त करने का निर्णय भी लिया है। इस कदम से वित्तीय सहायता मिलने की उम्मीद है। राज्यों को कार्ययोजना बनाने के लिए भी कहा गया है। इसके अलावा, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने मानव-वन्यजीव संघर्ष को लेकर 10 प्रजाति विशिष्ट दिशानिर्देश जारी किए हैं, जिनमें सांप भी शामिल है।

विशेषज्ञों ने इन नीतियों में कई कमियां भी पाईं है, जिन पर तत्काल हस्तक्षेप की आवश्यकता है। जैसे देश में एंटीवेनम की गुणवत्ता नियंत्रण की कमी चिंताजनक है। हो सकता है एंटीवेनम की कोई खेप उतनी शक्तिशाली न हो जितना होना चाहिए, क्योंकि केंद्रीय औषधि मानक और नियंत्रण संगठन के पास यह निर्धारित करने के कोई मानक नहीं हैं कि कोई एंटीवेनम कितना शक्तिशाली होना चाहिए।

एक सिफारिश है कि गरीबी रेखा से नीचे के लोगों के लिए प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में सिर्फ वेंटिलटर पर जाने वाले गंभीर मामलों को नहीं बल्कि सर्पदंश के सभी मामलों को शामिल किया जाना चाहिए।

साथ ही, सर्पदंश के मामलों को थामने पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए और काफी वित्त उन लोगों, संस्थानों, संगठनों और गैर-मुनाफा संस्थाओं को जाना चाहिए जो सर्पदंश थामने पर काम कर रहे हैं। कारगर रोकथाम बेहतर एंटीवेनम और पर्याप्त मुआवज़ा के खर्चे बचा सकती है। इसके लिए समुदाय स्तर पर काम करना फायदेमंद होगा, जैसे समुदाय को रोकथाम को लेकर प्रशिक्षित करना और औपचारिक स्वास्थ्य प्रणालियों या चिकित्सा को अपनाने के लिए समुदाय के लोगों को जागरूक बनाना।

इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में सर्पदंश की रोकथाम के लिए ज़रूरतमंदों को जूते, टॉर्च और मच्छरदानी जैसी आवश्यक चीज़ें उपलब्ध कराने की ज़रूरत है। घरों के आसपास थोड़ी तबदीली लाने की ज़रूरत है। जैसे यह सुनिश्चित करना होगा कि घर के पास लकड़ियों का ढेर न हो या भोजन आदि का कचरा न फैला रहे। यह आसान-सा उपाय सर्पदंश को रोकने में काफी मददगार साबित हो सकता है।

अक्सर सर्पदंश प्रबंधन बेहतर एंटीवेनम लाने या जागरूकता पर ही केंद्रित होता है। देखा जाए तो दोनों कदम महत्वपूर्ण हैं लेकिन पर्याप्त स्वास्थ्य तंत्र के अभाव में ये बेकार हैं। यदि हम बहुत प्रभावी एंटीवेनम बना लें और लोगों को जागरूक कर चिकित्सा के लिए जल्दी अस्पताल पहुंचा दें, किंतु इन प्रभावी एंटीवेनम का उपचार देने वाले अच्छे डॉक्टर या नर्स ही न हों या अस्पतालों में बिजली या अन्य सुविधाओं का अभाव हो तो तो ये हस्तक्षेप बेकार ही साबित होंगे।

इसलिए सिफारिश है कि प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं को सर्पदंश सम्बंधी प्राथमिक चिकित्सा किट आसानी से उपलब्ध हो। प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर और आसानी से पहुंच में होंगी तो जागरूकता भी कारगर होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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