शहदखोजी पक्षी स्थानीय लोगों की पुकार पहचानते हैं – अर्पिता व्यास

ब अफ्रीका के उत्तरी मोज़ाम्बिक के नियासा स्पेशल रिज़र्व में रहने वाले लोग मीठा खाने के लिए लालायित होते हैं तो वे स्विगी या ज़ोमाटो को नहीं बल्कि एक को पक्षी बुलाते हैं। ये शहद-मार्गदर्शक पक्षी उन्हें मधुमक्खी के छत्ते तक लेकर जाते हैं जहां से उन्हें शहद मिल जाता है और लगे हाथ पक्षी की भी दावत हो जाती है – स्वादिष्ट मोम और मधुमक्खी की इल्लियों की।

एक नए अध्ययन से पता चला है कि यह साझेदारी वैज्ञानिकों की सोच से कहीं अधिक जटिल है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि स्थानीय लोग इन पक्षियों को बुलाने के लिए अनोखी आवाज़ें निकालते हैं जो हर क्षेत्र में अलग-अलग होती हैं, और पक्षी अपने क्षेत्र की आवाज़ पहचान कर प्रतिक्रिया देते हैं। इस अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं का मत है कि पक्षी और ये जनजातीय लोग एक-दूसरे की सांस्कृतिक परंपराओं को आकार देते हैं।

न्यू जर्सी टेक्नॉलॉजी की इथॉलॉजिस्ट जूलिया हाइलैंड ब्रुनो का कहना है कि यह अध्ययन बहुत सुंदर है, परिणाम स्पष्ट हैं और प्रयोग की डिज़ाइन भी सरल है। ऐसे केवल कुछ ही मामले दर्ज हैं जिनमें मनुष्य जंगली जीवों के साथ सहयोग करते हैं। उदाहरण के लिए भारत, म्यांमार और ब्राज़ील में लोग डॉल्फिन्स के साथ मिलकर मछली पकड़ते हैं। लेकिन अफ्रीका में शहद निकालने वाले लोगों और शहदखोजी पक्षियों के बीच यह रिश्ता उच्च स्तर का लगता है। यह छोटी चिड़िया (Indicator) मधुमक्खी के छत्ते ढूंढने और जगहों को पहचानने में माहिर है। कैंब्रिज विश्वविद्यालय के व्यवहार पारिस्थितिकी वैज्ञानिक क्लाइर स्पॉटिसवुड और उनके सहलेखकों का कहना है कि ये पक्षी छत्तों की जगह पहचानते हैं। मनुष्य पेड़ों के उन हिस्सों को काटकर खोल देते हैं और वहां धुआं कर देते है जिसके परिणामस्वरूप मधुमक्खियां छत्ता छोड़कर भाग जाती हैं। कई बार लोग पक्षियों के साथ छल करते हुए छत्ते के मोम को नष्ट कर देते हैं ताकि पक्षी नया घोंसला ढूंढने निकल पड़ें। ये पक्षी भी कभी-कभी लोगों को छत्ता ढूंढने के लिए उनका पीछा करने का आग्रह करते है और कभी-कभी लोग इन पक्षियों को छत्ता ढूंढने को उकसाते हैं। उदाहरण के लिए नियासा स्पेशल रिज़र्व में रहने वाले याओ लोग एक विशेष आवाज़ निकालते हैं।

इन पक्षियों को बुलाने के लिए जो आवाज़ निकाली जाती है, वह अलग-अलग स्थानों पर अलग होती है। सवाल यह था कि क्या पक्षी ये अंतर पहचान पाते हैं? यह जानने के लिए स्पॉटिसवुड और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के मानवविज्ञानी ब्रायन वुड ने मिलकर प्रयास किया। ब्रायन वुड उत्तरी तंज़ानिया के हदजा समुदाय का 20 सालों से अध्ययन कर रहे हैं। वुड के अनुसार हदजा समुदाय के लोग जटिल प्रकार से सीटियों की आवाज़ निकालते हैं – ऑर्केस्ट्रा की धुन जैसी। इससे वे पक्षियों को यह बताते हैं कि वे शहद ढूंढने के लिए तैयार हैं।

तंज़ानिया और मोज़ाम्बिक की कई जगहों पर शोधकर्ताओं ने हदजा लोगों की सीटियों और याओ लोगों की पुकार की रिकॉर्डिंग्स बजाई, तुलना के तौर पर उन्होंने मनुष्य की चीख-पुकार की रिकॉर्डिग भी बजाई। तंज़ानिया में हदजा सीटियों की अपेक्षा याओ पुकारों पर पक्षी तीन गुना ज़्यादा आए। दूसरी ओर मोज़ाम्बिक में याओ पुकारें दो गुना ज़्यादा प्रभावी थीं। शोधकर्ताओं ने इस बात का ख्याल रखा था कि सभी आवाज़ें बराबर दूरी तक और बराबर समय तक सुनाई दें। यह जानी-मानी बात है कि इतने कम फासले पर रहने वाले पक्षियों के डीएनए अलग-अलग नहीं हो सकते। अर्थात आवाज़ों को लेकर पसंद आनुवंशिक नहीं है। स्पॉटिसवुड के अनुसार एक संभावित व्याख्या यह हो सकती है कि पक्षी अपने स्थानीय मनुष्य सहयोगियों की आवाज़ पर प्रतिक्रिया करना सीखते हैं।

मनुष्यों की तरह ही पक्षियों की भी संस्कृति हो सकती है जो वे पक्षी-गीतों के माध्यम से एक-दूसरे को सौंपते हैं। इससे लगता है कि शहदखोजी पक्षी और मनुष्य एक दूसरे की परम्पराओं को सुदृढ़ करते हैं। याओ और हदजा शहद निकालने वालों ने बताया कि वे पक्षियों को बुलाने के लिए अपने पूर्वजों द्वारा बताई हुई पुकारों का ही इस्तेमाल करते हैं क्योंकि पुकार बदलने से पक्षियों के आने की संभावना कम हो जाती है। पक्षियों को स्पष्ट रूप से पता होता है कि उनके क्षेत्र की पुकार मतलब खाना मिलने की संभावना है और वे इस पुकार से चले आते हैं। हालांकि यह जानना बाकी है कि पक्षी एक-दूसरे से इन पुकारों का अर्थ सीखते हैं या खुद ही निष्कर्ष निकालते हैं।

ओरेगॉन स्टेट विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकीविद मौरिसियो कैन्टर कहते हैं कि शहदखोजी पक्षियों द्वारा सीखने की संभावना नज़र आती है। ड्यूक विश्वविद्यालय के व्यवहार पारिस्थितिक वैज्ञानिक स्टीफन नौविकी कहते हैं कि मनुष्य हमेशा पालतू जानवरों के साथ सहयोग और संवाद करते देखे गए हैं, लेकिन यह अध्ययन जंगली जीवों से सम्बंधित है। (स्रोत फीचर्स) (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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निशाचर प्रवृत्ति ने मछलियों को विलुप्ति से बचाया

गभग 14.5 करोड़ साल पहले पूरी पृथ्वी पर ज्वालामुखी विस्फोट हुए थे जिससे आसमान में छाए धुएं के बादलों ने पृथ्वी पर अंधकार कर दिया था। इसके चलते हज़ारों प्रजातियां खत्म हो गई थीं। लेकिन एसिपेंसरिफॉर्मेस जैसी कुछ मछलियां इस विपदा को झेलकर जीवित बची रहीं। आगे चलकर इन्हीं से आजकल की स्टर्जन्स विकसित हुईं।

वैकासिक जीवविज्ञानी इस बात पर बहस करते रहे हैं कि क्यों कुछ प्रजातियां जीवित बचीं जबकि कई अन्य प्रजातियां विलुप्त हो गईं। हाल ही में एक अध्ययन ने एक नया विचार प्रस्तुत किया है – संभवत: ये प्रजातियां अपनी निशाचर प्रवृति के कारण जीवित बच पाईं।

कुछ पूर्व अध्ययनों से यह तो मालूम था कि करीब 6.6 करोड़ साल पहले किसी बाहरी पिंड के पृथ्वी से टकराने के कारण डायनासौर समेत कई जीव विलुप्त हो गए थे, लेकिन इसमें कई निशाचर स्तनधारी विलुप्ति से बच गए थे।

तो क्या अन्य आपदाओं के मामले में भी जीवों की निशाचर प्रवृत्ति ने उन्हें बचने में मदद की होगी? जानने के लिए टोरंटो विश्वविद्यालय के वैकासिक जीवविज्ञानी मैक्सवेल शेफर और उनके साथियों ने वर्तमान मछलियों पर ध्यान दिया। वर्तमान मछलियों पर ध्यान केंद्रित करने का एक और कारण यह था कि सिर्फ जीवाश्म देखकर यह पता करना मुश्किल होता है कि वह जीव निशाचर था या दिनचर।

अध्ययन में उन्होंने लगभग 4000 हड्डीवाली मछली प्रजातियों और शार्क जैसी 135 उपास्थिवाली प्रजातियों के दिन-रात के व्यवहार का अध्ययन किया और एक वंशवृक्ष पर इन व्यवहारों को चित्रित किया। फिर उन्होंने सिमुलेशन (अनुकृति) की मदद से आधुनिक मछलियों के पूर्वजों के दिन-रात के संभावित व्यवहार के पैटर्न बनाए। इसमेंं से उन्होंने उस पैटर्न को चुना जो वर्तमान प्रजातियों के दिन-रात की गतिविधि की सबसे अच्छी व्याख्या कर सकता था।

स्टर्जन जैसी कुछ मछलियां तो हमेशा से निशाचर रही हैं। बायोआर्काइव में प्रकाशित नतीजों के अनुसार सभी मछलियों के पूर्वज भी रात्रिचर थे, और विलुप्ति से बची कई मछली प्रजातियां भी निशाचर थी। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि अन्य कशेरुकियों की तुलना में ज़्यादा मछलियां कई बार निशाचर से दिनचर और दिनचर से निशाचर में तब्दील होती रही हैं। और तो और, 14.5 करोड़ साल और 6.6 करोड़ साल पहले के संक्रमण काल में ये तब्दीलियां सबसे अधिक थीं।

उक्त दोनों ही घटनाओं के दौरान तापमान में अचानक बहुत अधिक वृद्धि हुई थी। संभव है कि रात में सक्रिय रहने के कारण निशाचर जीव दिन के चरम तापमान से बच गए। और जब पर्यावरणीय उथल-पुथल शांत हुई तो निशाचर प्रजातियां दिनचर में परिवर्तित हो गई और पारिस्थितिकी में रिक्त स्थानों को भर दिया। और अंतत: इस तब्दीली ने मछलियों में निशाचर और दिनचर प्रजातियों के बीच संतुलन बहाल कर दिया।

जैसा कि हमें पूर्व अध्ययन से ज्ञात है कि शुरुआती स्तनधारी डायनासौर से बचने के लिए निशाचर थे, डायनासौर के विलुप्त होने के बाद वे दिन में सक्रिय होने लगे। उभयचर और अन्य थलीय कशेरुकी भी अपने अधिकांश विकास के दौरान निशाचर रहे, लेकिन बाद में उनमें से अधिकांश दिनचर हो गए। इस आधार पर शोधदल का कहना है कि निशाचर होना आपदाओं से बच निकलने की एक रणनीति है।

अन्य विशेषज्ञ थोड़ी सतर्कता बरतने को कहते हैं। जैसे अध्ययन का यह मुख्य निष्कर्ष तो सही लगता है कि निशाचर होने से वैकासिक लाभ हुआ लेकिन ऐसा कई कारणों से हो सकता है। जैसे जब 6.6 करोड़ वर्ष पहले पृथ्वी पर अंधेरा छा गया था तो संभव है दिनचर जीव अपने शिकार या भोजन को देख न पाते हों जबकि निशाचरों के लिए अंधेरे में भोजन तलाशना कोई बाधा ही नहीं थी। या हो सकता है वनस्पतियां मर गईं हो और साथ ही उन पर निर्भर शाकाहारी जीव भी। कई निशाचर जीव अपशिष्ट भोजन पर निर्भर होते हैं, जो इतनी जल्दी खत्म नहीं होता। तो संभव है कि जीवित रहने का लाभ भोजन पारिस्थितिकी से मिला हो, न कि मात्र निशाचर होने से।

इन अध्ययनों में व्यापक विलुप्ति की उन आपदाओं को ही देखा गया है जिनमें पृथ्वी पर गर्मी बढ़ी थी और अंधकार छाया था। कई वैज्ञानिकों का मत है कि अन्य तरह की आपदाओं को शामिल करके देखना मददगार होगा। बहरहाल, यह निष्कर्ष एक संभावना तो जताता है कि तेज़ी से बदलती जलवायु में संभवत: निशाचर जीवों के बचने की संभावना अन्य से अधिक होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कीट है या फूल है?

र्किड मेंटिस (Hymenopus coronatus) नामक कीट अपने फूल सरीखे दिखने वाले शरीर के कारण तो विशिष्ट है ही। लेकिन अब शोधकर्ताओं को इसकी एक और विशिष्टता पता चली है – और वह है इसकी उड़ान। ऑर्किड मेंटिस कीट की टांगें फूलों की पंखुड़ियों जैसी होती हैं। इनकी मदद से यह अन्य अकशेरुकी जंतुओं की तुलना में 50 प्रतिशत से 200 प्रतिशत अधिक दूर तक ग्लाइड कर पाता है।

ऑर्किड मेंटिस का रंग-रूप हू-ब-हू मॉथ ऑर्किड के खिले हुए फूल की तरह है – रंग सफेद-गुलाबी सा और शरीर का आकार एकदम फूल और उसकी पंखुड़ियों जैसा। यही नहीं, इसके शरीर की हरकत भी एकदम फूल की भांति हैं – हौले-हौले बिलकुल ऐसे हिलता-डुलता है जैसे हवा के झोंकों से फूल या उसकी पंखुड़ियां लहराती हैं। जब कोई कीट मकरंद की तलाश में भिनभिनाता हुआ फूल के पास आ जाता है तो ऑर्किड मेंटिस तेज़ी से उस पर हमला करता है।

ऐसे ही एक हमले में शोधकर्ताओं ने जब ऑर्किड मेंटिस को तेज़ी से उछलते हुए देखा तो उन्हें विचार आया कि हो न हो उसके पंखुड़ीनुमा पैर न केवल छद्मावरण का काम करते हैं बल्कि संभवत: ये उनके लिए पंखों जैसा काम भी करते हैं। अपने अनुमान की पुष्टि के लिए जब अपने अध्ययन में उन्होंने एक दर्ज़न से अधिक मेंटिस को नीचे गिराया तो उन्होंने पाया कि मेंटिस गिरते हुए पलटकर सीधे हो जाते हैं और फिर करीबन 8 मीटर तक हवा के साथ ग्लाइड करते जाते हैं। यह रणनीति युवा मेंटिस के लिए सबसे अधिक उपयोगी साबित होती है – जैसे-जैसे वे वयस्क होते जाते हैं, उनके पंख शक्तिशाली उड़ान के लिए विकसित हो जाते हैं। ये नतीजे करंट बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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आधी से अधिक सर्पदंश मौतें भारत में होती हैं

दुनिया भर में प्रतिवर्ष सर्पदंश से करीब सवा लाख लोगों की मृत्यु होती है। इनमें से करीब 58,000 मौतें भारत में होती हैं। अलबत्ता, भारत में सर्पदंश के कई मामले तो दर्ज ही नहीं हो पाते। कुछ मामले अस्पतालों तक पहुंचते भी नहीं हैं – कुछ लोग झाड़-फूंक करने वालों और नीम-हकीमों के पास चले जाते हैं। नतीजतन, सर्पदंश की समस्या वास्तव में कितनी बड़ी है यह अस्पष्ट ही रह जाता है।

एक बात यह है कि सर्पदंश से हुई मृत्यु भारत में चिकित्सकीय-कानूनी (मेडिको-लीगल) मामला है क्योंकि सर्पदंश से मृत्यु के मामले में, मुआवज़ा प्राप्त करने के लिए मृतक के परिवारजनों को पुलिस से अनापत्ति प्रमाण पत्र और अस्पताल से सत्यापन पत्र लेना पड़ता है।

महज़ दो-चार लाख रुपए के मुआवजे के लिए इतने सारे नियम-कानून व कागज़ी कार्रवाई हेतु दफ्तरों के चक्कर लगाना पड़ते हैं एवं अनावश्यक विलम्ब होता है। यह भी तब जब सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति को इलाज मिल जाए। कुछ डॉक्टर कानूनी कार्रवाई के डर से सर्पदंश के मरीज़ों का इलाज करने से इन्कार भी कर देते हैं।

इस संदर्भ में ह्यूमन सोसायटी इंटरनेशनल के निदेशक सुमंत बिंदुमाधव सर्पदंश को एक अधिसूचित बीमारी घोषित करने की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं और कहते हैं कि अधिकांश नीति निर्माता एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम डैटा (IDSP) या केंद्रीय स्वास्थ्य खुफिया ब्यूरो (CBHI) के डैटा पर काम करते हैं, जो सटीक नहीं हैं। इसके अलावा यदि सर्पदंश से उबर भी जाएं तो उसका ज़हर स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक असर डालता है और परिवारों पर इसका उच्च सामाजिक और आर्थिक असर पड़ता है।

सर्पदंश से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2017 में सर्पदंश को एक उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारी (NTD) घोषित किया है और 2019 में इसने 2030 तक सर्पदंश के वैश्विक बोझ को आधा करने का लक्ष्य तय किया है। महत्वपूर्ण बात है कि इस लक्ष्य को हासिल करना तभी संभव है जब भारत में इस दिशा में पर्याप्त काम हो।

वैसे तो भारत में सर्पदंश की रोकथाम और नियंत्रण के लिए तुरंत ही एक राष्ट्रीय कार्यक्रम भी आ गया था, जिसने भविष्य में सर्पदंश के मामलों को नियंत्रित करने की रणनीतियों और तरीकों की पहचान की है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने 2022 में एक टास्क फोर्स का गठन किया है, जिसने भारत में सर्पदंश की घटनाओं, मृत्यु दर, रुग्णता और सामाजिक आर्थिक बोझ को समझने के लिए एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण शुरू किया है।

सर्वेक्षण में शामिल 14 में से 8 राज्यों में सर्वेक्षण हो गया है शेष राज्यों में अध्ययन जारी है। अब तक हुए अध्ययन में एक बात सामने आई है कि बाज़ार में उपलब्ध भारतीय पॉलीवैलेंट एंटीवेनम सभी जगह पर और हर तरह के ज़हर पर कारगर नहीं होता, इसलिए स्थानानुसार एंटीवेनम मुहैया होना चाहिए।

अध्ययन कई सिफारिशें भी करता है – जैसे मान्यता प्राप्त सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (जैसे आशा) को लोगों में सर्पदंश की प्रभावी रोकथाम और प्रबंधन के संदेश पहुंचाने के लिए प्रशिक्षित करना, क्योंकि सर्पदंश के 70 प्रतिशत से अधिक मामले ग्रामीण इलाकों में होते हैं।

इस वर्ष से सरकार ने सर्पदंश के लिए हर राज्य में नोडल अधिकारी नियुक्त करने का निर्णय भी लिया है। इस कदम से वित्तीय सहायता मिलने की उम्मीद है। राज्यों को कार्ययोजना बनाने के लिए भी कहा गया है। इसके अलावा, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने मानव-वन्यजीव संघर्ष को लेकर 10 प्रजाति विशिष्ट दिशानिर्देश जारी किए हैं, जिनमें सांप भी शामिल है।

विशेषज्ञों ने इन नीतियों में कई कमियां भी पाईं है, जिन पर तत्काल हस्तक्षेप की आवश्यकता है। जैसे देश में एंटीवेनम की गुणवत्ता नियंत्रण की कमी चिंताजनक है। हो सकता है एंटीवेनम की कोई खेप उतनी शक्तिशाली न हो जितना होना चाहिए, क्योंकि केंद्रीय औषधि मानक और नियंत्रण संगठन के पास यह निर्धारित करने के कोई मानक नहीं हैं कि कोई एंटीवेनम कितना शक्तिशाली होना चाहिए।

एक सिफारिश है कि गरीबी रेखा से नीचे के लोगों के लिए प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में सिर्फ वेंटिलटर पर जाने वाले गंभीर मामलों को नहीं बल्कि सर्पदंश के सभी मामलों को शामिल किया जाना चाहिए।

साथ ही, सर्पदंश के मामलों को थामने पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए और काफी वित्त उन लोगों, संस्थानों, संगठनों और गैर-मुनाफा संस्थाओं को जाना चाहिए जो सर्पदंश थामने पर काम कर रहे हैं। कारगर रोकथाम बेहतर एंटीवेनम और पर्याप्त मुआवज़ा के खर्चे बचा सकती है। इसके लिए समुदाय स्तर पर काम करना फायदेमंद होगा, जैसे समुदाय को रोकथाम को लेकर प्रशिक्षित करना और औपचारिक स्वास्थ्य प्रणालियों या चिकित्सा को अपनाने के लिए समुदाय के लोगों को जागरूक बनाना।

इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में सर्पदंश की रोकथाम के लिए ज़रूरतमंदों को जूते, टॉर्च और मच्छरदानी जैसी आवश्यक चीज़ें उपलब्ध कराने की ज़रूरत है। घरों के आसपास थोड़ी तबदीली लाने की ज़रूरत है। जैसे यह सुनिश्चित करना होगा कि घर के पास लकड़ियों का ढेर न हो या भोजन आदि का कचरा न फैला रहे। यह आसान-सा उपाय सर्पदंश को रोकने में काफी मददगार साबित हो सकता है।

अक्सर सर्पदंश प्रबंधन बेहतर एंटीवेनम लाने या जागरूकता पर ही केंद्रित होता है। देखा जाए तो दोनों कदम महत्वपूर्ण हैं लेकिन पर्याप्त स्वास्थ्य तंत्र के अभाव में ये बेकार हैं। यदि हम बहुत प्रभावी एंटीवेनम बना लें और लोगों को जागरूक कर चिकित्सा के लिए जल्दी अस्पताल पहुंचा दें, किंतु इन प्रभावी एंटीवेनम का उपचार देने वाले अच्छे डॉक्टर या नर्स ही न हों या अस्पतालों में बिजली या अन्य सुविधाओं का अभाव हो तो तो ये हस्तक्षेप बेकार ही साबित होंगे।

इसलिए सिफारिश है कि प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं को सर्पदंश सम्बंधी प्राथमिक चिकित्सा किट आसानी से उपलब्ध हो। प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर और आसानी से पहुंच में होंगी तो जागरूकता भी कारगर होगी। (स्रोत फीचर्स)

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रोशनी पक्षियों के जीवन में अंधकार लाती है – एस. अनंतनारायणन

स बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि भारत और दुनिया भर में पक्षियों की प्रजातियां और पक्षियों की संख्या तेज़ी से कम हो रही है। मानव गतिविधि जनित जलवायु परिवर्तन के अलावा, प्रदूषण, कीटनाशकों का उपयोग, सिमटते प्राकृतवास और शिकार इनकी विलुप्ति का कारण है। और अब इस बारे में भी जागरूकता काफी बढ़ रही है कि रात के समय किया जाने वाला कृत्रिम उजाला पक्षियों की कई प्रजातियों का बड़ा हत्यारा है।

साइंटिफिक अमेरिकन में प्रकाशित अपने एक लेख में नॉर्थ कैरोलिना के जोशुआ सोकोल ने इस नाटकीय प्रभाव का वर्णन किया है। 2001 में हुए 9/11 हमले की याद में न्यूयॉर्क शहर में दो गगनचुंबी प्रकाश स्तम्भ, ट्रायब्यूट इन लाइट, स्थापित किए गए हैं और पक्षियों की आबादी पर इनका प्रभाव पड़ रहा है। 11 सितंबर की रात में जब ये दो प्रकाश स्तम्भ ऊपर आकाश तक जगमगाते हैं तो ये फुदकी (warbler), समुद्री पक्षी (seabird), कस्तूर (thrush) जैसे हज़ारों प्रवासी पक्षियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इसके साथ ही शाहीन बाज़ (peregrine falcons) जैसे शिकारी पक्षी प्रवासी पक्षियों के इस भ्रम का फायदा उठाने और उन्हें चट करने को तत्पर होते हैं।

लेख के अनुसार, 20 मिनट के भीतर ट्रायब्यूट इन लाइट प्रकाश स्तम्भ के आधे किलोमीटर के दायरे में करीब 16,000 पक्षी इकट्ठे हो जाते हैं; साल में एक बार होने वाला यह आयोजन दस लाख से अधिक पक्षियों को एक जगह इकट्ठा कर देता है।

और जब चिंतित पर्यवेक्षक देखते हैं कि इसके चलते वहां बहुत सारे पक्षी जमा हो रहे हैं, तो आयोजक रोशनी कम कर देते हैं। और अब, यहां मौसम विज्ञानियों द्वारा कुल वर्षा का अनुमान लगाने के लिए उपयोग की जाने वाली एक रडार-आधारित प्रणाली स्थापित है जिसका उपयोग 11 सितंबर को पक्षियों की गिनती करने के लिए भी किया जाता है। साथ ही, पूरे साल के दौरान पूरे महाद्वीप में प्रवासी पक्षियों की आवाजाही का अनुमान लगाने के लिए भी। लेख के अनुसार, 11 सितंबर का अध्ययन बताता है कि रात में शहरों की जगमगाती रोशनी का प्रवासी पक्षियों के उड़ान पथ पर क्या प्रभाव हो सकता है। “समय के साथ ट्रायब्यूट इन लाइट की रोशनी से भटककर मंडराते हुए पक्षियों की ऊर्जा (शरीर की चर्बी) चुक जाती है, जिस कारण वे शिकारियों के आसान लक्ष्य बन जाते हैं। और सबसे बुरी बात यह है कि वे पास की इमारतों की खिड़कियों से टकराकर गंभीर रूप से घायल हो सकते हैं या मर सकते हैं।”

लेख कहता है कि यह अच्छी बात है कि ये अध्ययन जारी हैं, क्योंकि पक्षियों की घटती संख्या चिंताजनक है। अकेले उत्तरी अमेरिका में, 1970 के बाद से 2019 तक पक्षियों की संख्या में 3 अरब से अधिक की कमी आई है।

भारत की बात करें तो वेदर चैनल (Weather Channel) नामक एक पोर्टल की रिपोर्ट है कि भारत की 867 पक्षी प्रजातियों में से 80 प्रतिशत प्रजातियों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आई है, और इनमें से 101 प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। ये नतीजे देश भर के 15,500 पक्षी निरीक्षकों द्वारा किए गए एक करोड़ से अधिक अवलोकनों के आधार पर दिए गए हैं।

दुनिया भर में पक्षियों की कम होती संख्या और विविधता का गंभीर प्रभाव खाद्य सुरक्षा पर पड़ रहा है। पक्षियों से हमें मिलने वाला पहला लाभ (या यू कहें कि सेवा) है कीट नियंत्रण। अनुमान है कि पक्षीगण एक साल में तकरीबन 40-50 करोड़ टन कीट खा जाते हैं। शिकारियों के कुनबे में भी पक्षी महत्वपूर्ण हैं; वे शिकार कर चूहों जैसे कुतरने वाले जीवों की आबादी को नियंत्रित रखते हैं। लेकिन पक्षियों के लिए खेती में उपयोग किए जाने वाले कीटनाशकों का असर बाकी किसी भी कारक से अधिक नुकसानदायक होगा।

कृषि के इतर भी पक्षी पौधों और शाकाहारियों, शिकार और शिकारियों का संतुलन बनाए रखते हैं, जिससे दलदल और घास के मैदान पनपते हैं। और ये दलदल और घास के मैदान वे प्राकृतिक एजेंट हैं जो कार्बन भंडारण करते हैं, जलवायु को स्थिर रखते हैं, ऑक्सीजन देते हैं और प्रदूषकों को पोषक तत्वों में बदलते हैं। यदि पक्षी न होते तो इनमें से कई पारिस्थितिक तंत्र अस्तित्व में ही नहीं होते।

और हालांकि हम तितलियों और मधुमक्खियों को सबसे महत्वपूर्ण परागणकर्ता मानते हैं, लेकिन कई ऐसे पौधे हैं जिनका परागण पक्षियों द्वारा होता है। जिन फूलों में गंध नहीं होती, और हमारे द्वारा भोजन या औषधि के रूप में उपयोग किए जाने वाले 5 प्रतिशत पौधों का परागण पक्षियों द्वारा होता है। इसके अलावा पक्षियों की बीज फैलाने में भी भूमिका होती है। जब पक्षी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं, तो उनके द्वारा खाए गए बीज भी उनके साथ वहां पहुंच जाते हैं, जो मल त्याग से बाहर निकल वहां फैल जाते हैं। पक्षी नष्ट हो चुके पारिस्थितिकी तंत्र को फिर से जिलाते हैं (बीजों के माध्यम से), पौधों को समुद्र के पार भी ले जाते हैं और वहां के भूदृश्य को बदल सकते हैं। न्यूज़ीलैंड के एक करोड़ हैक्टर में फैले जंगल में से 70 प्रतिशत जंगल पक्षियों द्वारा फैलाए गए बीजों से उगा है।

दुनिया भर में संरक्षण के लिए काम करने वाली संस्था एनडेन्जर्ड स्पीशीज़ इंटरनेशनल का कहना है कि “कुछ पक्षियों को मुख्य (कीस्टोन) प्रजाति माना जाता है क्योंकि पारिस्थितिकी तंत्र में उनकी उपस्थिति (या अनुपस्थिति) अन्य प्रजातियों को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है।” उदाहरण के लिए, कठफोड़वा पेड़ों में कोटर बनाते हैं जिनका उपयोग बाद में कई अन्य प्रजातियों द्वारा किया जाता है। डोडो के विलुप्त होने के बाद यह पता चला कि एक पेड़, जिसके फल डोडो का प्रमुख भोजन थे, के बीज डोडो के पाचन तंत्र से गुज़रे बिना अंकुरित होने में असमर्थ थे – डोडो का पाचन तंत्र बीज के आवरण को गला देता था और अंकुरण को संभव बनाता था।

पक्षी जो दूसरी भूमिका निभाते हैं वह है सफाई का काम। यह तो हम जानते हैं कि गिद्ध एक घंटे के भीतर मृत जानवर तक पहुंच जाते हैं, और फिर उसके पूरे शरीर और सभी अवशेषों का निपटान कर देते हैं। यही कार्य यदि जंगली कुत्तों या चूहों पर छोड़ दिया जाए तो शव (या अवशेष) के निपटान में कई दिन लग सकते हैं, जिससे सड़न और बीमारी फैल सकती है। बर्डलाइफ इंटरनेशनल पोर्टल का अनुमान है कि भारत में गिद्धों की संख्या में गिरावट के कारण जंगली कुत्तों की आबादी 55 लाख तक बढ़ गई है, जिसके कारण रेबीज़ के मामले बढ़ गए हैं, और 47,300 लोगों की मौत हो गई है।

पारिस्थितिकी को बनाए रखने में इतनी सारी भूमिकाएं होने के साथ ही पक्षी इस तरह अनुकूलित हैं कि वे लंबा प्रवास कर अपने माकूल स्थानों पर जाते हैं। इस तरह, ठंडे उत्तरी ध्रुव के अरबों पक्षी सर्दियों के लिए दक्षिण की ओर प्रवास करते हैं, और फिर मौसम बदलने पर वापस घर की ओर उड़ जाते हैं। और हालांकि इस प्रवासन की अपनी कीमत (जोखिम) और मृत्यु की आशंका होती है, लेकिन ये पैटर्न प्रजनन मौसम में फिट बैठता है और संख्या बरकरार रहती है।

लेकिन रात के समय पक्षियों के उड़ान पथ पर चमकीली रोशनियां और जगमगाते शहर पक्षियों के दिशाज्ञान को प्रभावित करते हैं और भ्रम पैदा करते हैं। इसके चलते ऊर्जा की बर्बादी होती है, भिड़ंत होती है और समूह टूटता है – और शिकारियों के मज़े होते हैं। रात के समय दूर के शहर से आने वाली रोशनी भी आकाशगंगा की रोशनी का भ्रम दे सकती है और पक्षियों के दिशा बोध को बिगाड़ सकती है। पक्षियों में चमकदार रोशनी के प्रति जो रहस्यमयी आकर्षण होता है, वह पक्षियों को तेज़ रोशनी वाली खिड़की के शीशों की ओर जाने को उकसाता है!

यह कोई हालिया घटना नहीं है। वर्ष 1880 में, साइंटफिक अमेरिकन ने अपने एक लेख में बताया था कि रात की रोशनी में पक्षी उलझ जाते थे। लाइटहाउस के प्रकाश का पक्षियों पर प्रभाव जानने के उद्देश्य से हुए एक अध्ययन में सामने आया था कि इससे दस लाख से अधिक पक्षी प्रभावित हुए और इसके चलते ढेरों पक्षी मारे गए।

न्यूयॉर्क में ट्रायब्यूट इन लाइट का अनुभव नाटकीय रूप से उस क्षति की विकरालता को सामने लाता है जो रात की प्रकाश व्यवस्था से पक्षियों की आबादी को होती है। साइंटिफिक अमेरिकन का एक लेख बताता है कि अब रात के समय अत्यधिक तीव्र प्रकाश वाले क्षेत्रों के मानचित्र बनाने के लिए उपग्रह इमेजिंग का, और पक्षियों व उनकी संख्या को ट्रैक करने के लिए रडार का उपयोग नियमित रूप से किया जाता है। इस तरह, अमेरिका में उन शहरों की पहचान की जा रही है जिनकी रोशनी का स्तर प्रवासी पक्षियों को प्रभावित करने की सबसे अधिक संभावना रखता है। इसके अलावा बर्डकास्ट नामक एक कार्यक्रम महाद्वीप-स्तर पर मौसम और रडार डैटा को एक साथ रखता है और मशीन लर्निंग का उपयोग करके ठीक उन रातों का पूर्वानुमान लगाता है जब लाखों प्रवासी पक्षी अमेरिकी शहरों के ऊपर से उड़ेंगे।

यह जानकारी पक्षियों के संरक्षण के प्रति जागरूक समूहों को उनके उड़ान पथ में पड़ने वाले शहरों से प्रकाश तीव्रता नियंत्रित करने वगैरह की पैरवी करने में सक्षम बनाती है। उनके ये प्रयास प्रभावी भी रहे हैं – न्यूयॉर्क शहर ने एक अध्यादेश पारित किया है जिसके तहत प्रवासन के मौसम में इमारतों को रोशनी बंद करनी होती है। इस जागरूकता का प्रचार दर्जनों अन्य शहरों में भी जारी है।

यह एक ऐसा आंदोलन है जिसे दुनिया भर में जड़ें फैलाने की ज़रूरत है, ताकि एक ऐसे महत्वपूर्ण अभिकर्ता को संरक्षित किया जा सके जो पारिस्थितिकी को व्यवस्थित रखता है और एक ऐसी त्रासदी से बचा जा सके जो पृथ्वी को टिकाऊ बनाए रखने के अन्य प्रयासों पर पानी फेर सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कुछ पेंगुइन दिन में 11 घंटे सोते हैं लेकिन…

किसी उबाऊ व्याख्यान या मीटिंग में बैठे-बैठे झपकी लग जाना कोई असामान्य बात नहीं है। अलबत्ता, वाहन चलाते वक्त झपकी लगना हमारी जान के लिए खतरा साबित हो सकता है।

लेकिन साइंस पत्रिका में प्रकाशित हालिया अध्ययन बताता है कि अंटार्कटिका की चिनस्ट्रैप पेंगुइन (Pygoscelis antarcticus) को महज 4-4 सेकंड की झपकियों वाली नींद जीवित रहने में मदद करती है। सोचें तो लगता है कि इतनी छोटी झपकियों से वे कितना ही सो पाते होंगे? लेकिन इन छोटी-छोटी झपकियों से वे दिन भर में पूरे 11 घंटे सो लेते हैं। इस तरह थोड़ा सोना, थोड़ा जागना उन्हें अपने अंडों और चूज़ों की पहरेदारी करने और आराम करने दोनों में मदद करता है।

दरअसल कोरिया पोलर रिसर्च इंस्टीट्यूट के व्यवहार पारिस्थितिकी विज्ञानी वोन यंग ली ने 2014 में पहली बार पेंगुइन को इस तरह झपकियां लेते हुए देखा था – बस सोए और जाग गए, फिर सोए और जाग गए, फिर सोए… ऐसा ही चल रहा था। उन्हें यह तो मालूम था कि कृत्रिम आवासों में पेंगुइन की कई प्रजातियां अक्सर लंबी नींद की बजाय छोटी-छोटी नींद लेती हैं। लेकिन प्रकृति में वे कैसा व्यवहार करते हैं। लंबी नींद की अपेक्षा क्षणिक झपकियां उन्हें क्या फायदा पहुंचाती हैं।

इसे समझने के लिए ली और उनके साथियों ने अंटार्कटिका के किंग जॉर्ज द्वीप की चिनस्ट्रैप पेंगुइन की एक कॉलोनी का अध्ययन किया। उस समय यह इलाका शोरगुल वाला, बदबूदार और भीड़भाड़ वाला था, और पेंगुइन अभिभावक लगातार शिकारी समुद्री पक्षियों और अन्य पेंगुइनों से अपने अंडों और चूज़ों की रक्षा में व्यस्त थे।

शोधकर्ताओं ने पेंगुइन की मस्तिष्क और मांसपेशियों की गतिविधि एवं शरीर की स्थिति देखने के लिए 14 पेंगुइन पर डैटा लॉगर और एक्सेलेरोमीटर लगाए। नींद सम्बंधी व्यवहार, जैसे आंखें बंद करना और सिर ढलक जाना भी रिकॉर्ड किया गया।

डैटा लॉगर्स का विश्लेषण करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि पेंगुइन दिन भर में औसतन 4-4 सेकंड की करीब 10,000 झपकियां लेते हैं; इस तरह कुल मिलाकर वे करीब आधा दिन सोते हैं। यहां तक कि समुद्र में भोजन तलाश के दौरान भी वे कभी-कभी इसी तरह झपकियां ले लेते हैं। ऐसी विलक्षण क्षमता किसी भी अन्य प्रजाति में नहीं देखी गई है।

इसके अलावा उनकी मस्तिष्क तरंग रिकॉर्डिंग से पता चला है कि लघु नींद लेते हुए भी पेंगुइन तथाकथित स्लो वेव निद्रा में चले जाते है। स्लो वेव निद्रा मनुष्य के लिए आराम, और मरम्मत व बहाली जैसे कामों के लिए महत्वपूर्ण है। यही नींद हमें सबसे अधिक लाभ देती है। गौरतलब है कि झपकियां लेते हुए हम मनुष्य कभी तृतीय चरण की निद्रा में प्रवेश नहीं कर पाते। शोधकर्ताओं का कहना है कि ये संक्षिप्त नींद चिनस्ट्रैप्स पिंगुइन को लंबी नींद के कुछ फायदे देती होंगी – जैसे सायनेप्स (तंत्रिका के जुड़ाव) का पुनर्गठन करना और मस्तिष्क में विषाक्त अपशिष्ट पदार्थों की सफाई करना।

हालांकि, अन्य शोधकर्ता यह संभावना भी जताते हैं कि ये संक्षिप्त झपकियां शायद शोर-शराबे वाले, तनावपूर्ण माहौल में गहरी और लंबी नींद की असफलता का परिणाम हों। इसे पुख्ता तौर पर समझने के लिए चिनस्ट्रैप पेंगुइन की नींद पर उनके प्रजनन काल के इतर और तुलनात्मक रूप से अधिक शांत माहौल में अध्ययन करके देखना ज़रूरी होगा।

शोधकर्ताओं की योजना भी विभिन्न जीवों की नींद पर आगे अध्ययन जारी रखने की है। वे ध्रुवों (जहां गर्मियों में 24 घंटे सूर्य की रोशनी होती है) पर रहने वाले वेडेल सील्स जैसे अन्य ध्रुवीय जंतुओं की नींद पर उनके प्राकृतवास में ही अध्ययन करना चाहते हैं। यह तो ज़ाहिर है कि सभी जानवर इंसानों की तरह नहीं सोते हैं। विभिन्न जानवर कैसे सोते हैं, इस बारे में अधिक से अधिक जानकारी मिलने पर यह समझने में मदद मिलेगी कि नींद को किस तरह परिभाषित किया जाए और यह किस मकसद की पूर्ति करती है। (स्रोत फीचर्स)

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आक्रामक नर से बचाव

प्रजनन के लिए मेंढक प्रजातियों में नर दो में से किसी एक रणनीति उपयोग करते हैं – या तो वे किसी जगह बैठकर मादा को पुकारते हैं और उनके आने का इंतज़ार करते हैं, या वे लगातार मादा की तलाश करते हैं और कम समय में अधिक से अधिक मादाओं के साथ संभोग करने की कोशिश करते हैं। अधिक से अधिक मैथुन करने के प्रयास में अक्सर, एक ही मादा पर कई नर चढ़ जाते हैं जिससे मेंढकों का गुत्थमगुत्था सा ढेर बन जाता है, जो मादा को गंभीर रूप से घायल कर सकता है और उसकी जान तक जा सकती है।

युरोपीय मेंढक (Rana temporaria) संभोग के लिए यही दूसरी रणनीति अपनाते हैं। सर्दियों की लंबी शीतनिद्रा से जागने के बाद युरोपीय नर मेंढक संभोग के लिए मादाओं के पीछे भागते हैं, उन्हें डराते हैं और उन्हें संभोग के लिए मजबूर करते हैं। चूंकि नर मेंढकों की संख्या मादाओं से काफी अधिक होती है इसलिए हालात मादाओं के लिए और भी बुरे हो जाते हैं।

वैज्ञानिकों को अब तक लगता था कि नर के इस संभोग हमले से बचने में मादा असहाय होती है। लेकिन रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित नतीजों से पता चलता है कि ये मादाएं इतनी भी असहाय नहीं होती और अवांछित संभोग से बचने के लिए वे कई युक्तियां अपनाती हैं – जैसे वे शरीर को घुमाकर नर के चंगुल से निकल भागती हैं, नर होने का स्वांग रचती हैं, यहां तक कि मरने का नाटक भी करती हैं।

इस बात का पता वैकासिक और व्यवहार जीवविज्ञानी कैरोलिन डीट्रिच को तब लगा जब वे युरोपीय मेंढकों में एक अन्य बात की जांच कर रही थी – चूंकि बड़ी साइज़ की मादाएं अधिक अंडे दे सकती हैं तो क्या नर मेंढक संभोग के लिए शरीर की साइज़ के आधार पर मादा साथी चुनते हैं?

शोधकर्ताओं को नर का किसी विशिष्ट डील-डौल वाली मादा के प्रति झुकाव तो नहीं दिखा लेकिन उन्होंने पाया कि मादाएं अवांछित नर से बचने के लिए मुख्यत: तीन रणनीति अपना रही थीं। अधिकतर मामलों में वे पानी में नर के नीचे अपने शरीर को घुमाकर उसकी बाहों से निकलने का प्रयास कर रही थीं।

मादाएं नर को मूर्ख भी बना रही थीं। वे इस बात का भी फायदा उठाती हैं कि नर संभोग-साथी के मामले में ज़्यादा नखरैल नहीं होते। अधिक से अधिक संभोग के चक्कर में युरोपीय नर मेंढकों का जिससे भी सामना होता है वे उसके साथ संभोग कर लेते हैं। यहां तक कि वे अन्य नरों के साथ, युरोपीय मादा मेंढक की तरह दिखने वाले युरोपीय भेक यानी टोड (Bufo bufo) के साथ, और यहां तक कि सर्वथा अलग प्रकार के उभयचरों के साथ भी संभोग कर लेते हैं।

जब कोई नर मेंढक दूसरे नर पर चढ़ने की कोशिश करता है तो दूसरा मेंढक घुरघुराने की आवाज़ निकाल कर गलती का एहसास कराता है। अवांछित नर को बेवकूफ बनाने के लिए मादाएं भी ऐसी आवाज़ निकालते हुए नज़र आईं।

कुछ मामलों में तो मादाएं मृत होने का अभिनय करते देखी गईं। एक घटना में पानी के अंदर एक मादा मेंढक अपने हाथ-पैर फैलाकर लेटी हुई थी और एक नर मेंढक उसके साथ संभोग करने का प्रयास कर रहा था। उस दौरान वह एकदम मृत शरीर की तरह स्थिर और सख्त रही। अंतत: जब नर की दिलचस्पी खत्म हो गई, तो वह उठी और तैर कर दूर चली गई।

आम तौर पर जीवों में मरने के स्वांग का यह व्यवहार शिकारी से बचाव की रणनीति के तौर पर देखा जाता है, जिसे ‘टोनिक अचलता’ (स्पर्श निश्चलता) कहा जाता है। लेकिन संभोग से बचने के लिए ऐसा व्यवहार अचरज की बात है। वैसे जबरन संभोग से बचने के लिए अन्य प्रजातियों में भी कुछ इसी तरह की युक्तियां दिखती हैं। जैसे, मादा बत्तखों में जबरन संभोग के प्रयासों को विफल करने के लिए जटिल जननांग विकसित हुए हैं, और इसके जवाब में नर जननांग विकसित हुए हैं।

शोधकर्ता मादा मेंढकों की इस बचाव रणनीति के बारे में कोई ठोस निष्कर्ष देने से कतरा रहे हैं क्योंकि यह अध्ययन प्रयोगशाला की कृत्रिम स्थितियों में हुआ था, जो जानवरों के व्यवहार को प्रभावित कर सकता है। बहरहाल, इस अवलोकन ने कई सवाल छोड़े हैं, जिन पर काम करने की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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कैसे पनपा समलैंगिक व्यवहार

झींगुर से लेकर समुद्री अर्चिन तक और बॉटलनोज़ डॉल्फिन से लेकर बोनोबोस तक 1500 से अधिक प्रजातियों में समलैंगिक व्यवहार देखने को मिलता है।

एक मत है कि जंतुओं में यह व्यवहार उद्विकास की शुरुआत से ही दिखाई पड़ता है। लेकिन स्तनधारियों पर किए गए हालिया अध्ययन का निष्कर्ष इससे अलग है। इसके अनुसार स्तनघारी जंतुओं में समलैंगिक व्यवहार तब विकसित हुआ जब उन्होंने समूहों में रहना शुरू किया। अध्ययन के मुताबिक हालांकि इस तरह के व्यवहार से किसी जंतु के जीन्स संतानों में नहीं पहुंचते लेकिन संभवत: यह अन्य वैकासिक लाभ प्रदान करता है। जैसे समूह में संघर्षों को सुलझाने और सदस्यों के बीच सकारात्मक सम्बंध बनाने में मदद करता है।

अलबत्ता, शोधकर्ता आगाह करते हैं कि इन नतीजों को मनुष्यों में दिखने वाली लिंग पहचान की समस्या या समलैंगिक व्यवहार से जोड़कर न देखा जाए। अन्य जीवों में समलैंगिक व्यवहार मनुष्यों में दिखने वाले व्यवहार से काफी भिन्न है और इसलिए यह अध्ययन मनुष्यों के संदर्भ में कोई व्याख्या नहीं देता है।

देखा जाए तो समलैंगिक व्यवहार को समझने का यह पहला अध्ययन नहीं है। पूर्व में भी इस पर अध्ययन हुए हैं लेकिन वे सारे अध्ययन एक ही प्रजाति या जीवों के एक छोटे समूह के अवलोकन पर आधारित थे।

स्पेन के वैकासिक जीवविज्ञानी जोस गोमेज़ का यह अध्ययन इस दृष्टि से व्यापक है कि उन्होंने स्तनधारियों की 6649 प्रजातियों में इस व्यवहार की तलाश की। इसके लिए उन्होंने वैज्ञानिक साहित्य खंगाला और देखा कि इनमें से कौन-सी और कितनी प्रजातियां समलैंगिक व्यवहार – रिझाना, मिलना-जुलना, प्रेमालाप करना, संभोग और दृढ़ रिश्ते बनाना  – दर्शाती देखी गई हैं। उन्हें 261 प्रजातियों में समलैंगिक व्यवहार के प्रमाण मिले।

उन्हें यह भी दिखा कि नर और मादा दोनों ही बराबर समलैंगिक व्यवहार करते हैं। कुछ प्रजातियों में, या तो सिर्फ नर या तो सिर्फ मादा में समलैंगिक व्यवहार दिखा।

तो इन जंतुओं में समलैंगिक व्यवहार उपजा कैसे? इसके जवाब की तलाश के लिए शोधकर्ताओं ने इन प्रजातियों का वंशवृक्ष बनाया। इसमें उन्होंने पाया कि प्रत्येक प्रजाति में यह व्यवहार स्वतंत्र रूप से उपजा है, और अलग-अलग समय पर कई-कई बार उपजा है।

नेचर कम्युनिकेशंस में शोधकर्ता बताते हैं कि जीवित स्तनधारियों के शुरुआती पूर्वजों, जैसे प्राइमेट या बिल्लियों, में समलैंगिक व्यवहार नहीं दिखता है। लेकिन जैसे-जैसे नए वंशज विकसित हुए, उनमें से कुछ में यह व्यवहार दिखने लगा। जैसे, वानर में लीमर्स की तुलना में समलैंगिक व्यवहार अधिक तेज़ी से विकसित हुआ। वानर लगभग 2.5 करोड़ वर्ष पहले अन्य प्राइमेट्स से अलग हो गए थे।

इसके बाद उन्होंने समलैंगिक व्यवहार दर्शाने वाली प्रजातियों में समानताओं पर ध्यान दिया – पाया गया कि ये सभी प्रजातियां समूह में रहती हैं। अत: ये नतीजे इस परिकल्पना का समर्थन करते हैं कि समलैंगिक व्यवहार का मूल समूह में रहना है, जैसा कि अन्य अध्ययनों का भी निष्कर्ष था।

समूह में रहने पर सदस्यों के बीच हिंसा या संघर्ष हो सकता है, जिसके चलते समूह टूट सकता है। ऐसा होने पर समूह में रहने से मिलने वाले फायदे मिलना बंद हो जाएंगे। समलैंगिक व्यवहार एक तरीका हो सकता है जिससे सदस्यों के बीच पनपे इस संघर्ष को दूर किया जा सकता है, और समूह को जोड़े रखा जा सकता है। यह कुछ-कुछ रूठने-मनाने जैसा लगता है।

लेकिन मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर इवोल्यूशनरी एंथ्रोपोलॉजी के वैकासिक जीवविज्ञानी डाइटर लुकास को इस निष्कर्ष पर संदेह है। वे कहते हैं कि समलैंगिक व्यवहार की यही एकमात्र व्याख्या नहीं हो सकती। उनको लगता है कि प्राकृतिक परिस्थितियों में इस व्यवहार के अवलोकन में शायद कुछ प्रजातियों का व्यवहार नज़रअंदाज़ हुआ हो। जैसे, हो सकता है कि कुछ निशाचर जंतु उपेक्षित रह गए हों।

दिलचस्प बात है कि एक अन्य अध्ययन में झींगुर में भी समलैंगिक व्यवहार दिखा है। नर झींगुर कभी-कभी प्रेम-गीत गाते हैं जिससे वे अन्य नर और किशोरों के साथ सम्बंध बनाने की कोशिश करते दिखे हैं। लेकिन झींगुर तो समूहों में नहीं रहते। इसलिए यदि समूह में रहना समलैंगिक व्यवहार की एकमात्र व्याख्या दी जाए, तो फिर झींगुर के व्यवहार को कैसे समझेंगे? संभव है कि झींगुर समेत कुछ अन्य प्रजातियां संभोग के अधिक से अधिक अवसरों का लाभ उठाने की रणनीति के हिस्से के रूप में समलैंगिक व्यवहार करती हों। (स्रोत फीचर्स)

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यह कीट खानपान में नखरे नहीं करता

क्षिणी इटली में जैतून के लहलहाते पेड़ों के लिए मिडो स्पिटलबग (Philaenus spumarius) एक बड़ी मुसीबत है। यह साधारण-सा कीट ज़ायलेला फास्टिडिओसा बैक्टीरिया का वाहक है जो धीरे-धीरे फसलों को नष्ट कर देता है। हाल ही में प्लॉस वन में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार पौधों के मामले में मिडो स्पिटलबग, कीट जगत में सबसे कम चुनावपसंद कीट है जो 1300 से अधिक पादप प्रजातियों का रस चूसता है।

यह अध्ययन उन किसानों के लिए काफी महत्वपूर्ण है जो अपनी आजीविका के लिए विभिन्न पादप प्रजातियों पर निर्भर हैं। यह सही है कि मीडो स्पिटलबग द्वारा खाए गए सभी पौधे ज़ायलेला के प्रति संवेदनशील नहीं हैं लेकिन ये ‘सुरक्षित’ प्रजातियां ज़ायलेला के भंडार के रूप में कार्य कर सकती हैं। इस स्थिति में जैतून और ज़ायलेला के प्रति कमज़ोर अन्य प्रजातियों की रक्षा करना मुश्किल हो जाता है।

दरअसल, मिडो स्पिटलबग फ्रॉगहॉपर नामक कीट की अपरिपक्व अवस्था है। इन्हें यह नाम पौधों के तनों पर दिखाई देने वाली थूक जैसी छोटी-छोटी बुलबुलेनुमा संरचना पर पड़ा है। यह पदार्थ स्पिटलबग मूत्र के साथ उत्सर्जित करते हैं।

आम तौर पर रस चूसने वाले कीट पौधों के फ्लोएम नामक ऊतक में छेद करते हैं, जो पोषण से सराबोर होता है। लेकिन स्पिटलबग ज़ाइलम में उपस्थित अधिक पतला रस निकालने में माहिर होते हैं। विभिन्न प्रजातियों के बीच इस रस में ज़्यादा अंतर नहीं होता, इसलिए शोधकर्ताओं को लगता था कि मिडो स्पिटलबग और उसके जैसे कीट पौधों के बीच कोई भेद नहीं करते होंगे।

मिडो स्पिटलबग की आहार सम्बंधी आदतों की व्यापक जांच लगभग एक दशक पहले की गई थी जब इसकी पहचान जैतून के पेड़ों में ज़ायलेला जीवाणु के वाहक के रूप में हुई। इस कीट की आहार सम्बंधी बहुमुखी प्रतिभा का खुलासा तब हुआ जब आम लोगों के सहयोग से इसे 1311 पादप प्रजातियों पर पनपता हुआ देखा गया। ये प्रजातियां 631 वंशों (जीनस) और 117 कुलों में बिखरी हैं। इस सूची में न केवल डेज़ी और गुलाब जैसी परिचित वनस्पतियां, बल्कि फर्न, घास, झाड़ियां और यहां तक कि कई पेड़ भी शामिल हैं। और तो और, हाल ही में इसे स्पेनिश बादाम के पेड़ों को प्रभावित करने वाले एक नए ज़ायलेला प्रकोप के लिए ज़िम्मेदार पाया गया है।

स्पष्ट है कि यह कीट कृषि और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र दोनों के लिए एक महत्वपूर्ण और तेज़ी से बढ़ता हुआ खतरा बन गया है। यह शोध मिडो स्पिटलबग और उसमें पाए जाने वाले जीवाणु द्वारा उत्पन्न जोखिमों की व्यापक समझ और सक्रिय उपायों की तत्काल आवश्यकता का संकेत देता है। (स्रोत फीचर्स)

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एक विचित्र समुद्री जीव

र्ष 2018 में एक पेशेवर फोटोग्राफर ने एक विचित्र से दिखने वाले तैरते समुद्री जीव की तस्वीर सोशल मीडिया पर डाली थी – यह भूरी-नारंगी गोल गेंदनुमा जीव दिख रहा था जिसके चपटे वाले गोलार्ध पर बालों या जटाओं की तरह संरचनाएं निकली हुई दिख रही थीं। यह कोई कीट, मोलस्क या क्रस्टेशियन नहीं था, लेकिन किसी को मालूम नहीं था कि यह है कौन-सा जीव।

अब, केरोलिंस्का इंस्टीट्यूट के वैकासिक तंत्रिका वैज्ञानिक इगोर एडेमेयको ने करंट बायोलॉजी में बताया है कि उन्होंने इसके कुल की पहचान कर ली है, और यह चपटे कृमियों के एक समूह डाइजेनियन फ्लूक का एक परजीवी सदस्य है।

एडेमेयको जब मटर के दाने जितने बड़े इस जीव का ध्यानपूर्वक विच्छेदन कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि इस जीव को (तैरकर) आगे बढ़ने में मदद करने वाले जटानुमा उपांग गेंदनुमा संरचना के जिस ऊपरी हिस्से से जुड़े थे वो चपटा था। बारीकी से अवलोकन करने पर उन्होंने पाया कि यह कोई एक प्राणी नहीं है, बल्कि आपस में गुत्थमगुत्था बहुत सारे जीव हैं, और मुख्यत: दो तरह के जीव हैं।

एक तरह के जीव गोल संरचना के ऊपरी ओर बाहर लहराते हुए दिख रहे थे जिनकी कुल संख्या करीब 20 थी, ये गोले को तैरने या आगे बढ़ने में मदद कर रहे थे – इन्हें एडमेयको ने ‘नाविक’ की संज्ञा दी है। इनके सिर पर दो बिंदुनुमा आंखें थी, जिससे इनके सिर सांप के फन की तरह दिखाई दे रहे थे।

दूसरी तरह के जीव, गोले के दूसरे (या निचले) भाग के चारों ओर हज़ारों की तादाद में मौजूद थे। ये दिखने में शुक्राणु जैसे दिख रहे थे, जिनके सिर पेंसिल की तरह नुकीले थे और पूंछ बाल से भी पतली थीं। ये सभी जीव गोले के बीच में पूंछ की ओर से एक-दूसरे के साथ गुत्थमगुत्था थे और सभी के सिर गोले के बाहर की ओर निकले हुए थे। इन जीवों को शोधकर्ताओं ने ‘यात्रियों’ की संज्ञा दी है।

विच्छेदन से जीव की बनावट तो समझ आ गई थी लेकिन इसकी पहचान नहीं हो पाई। इसे पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने एंटीबॉडी की मदद से कोशिकाओं के पैटर्न देखे। इसके आधार पर लगा कि ये जीव लोफोट्रोकोज़ोअन नामक एक समूह से सम्बंधित होंगे, जिसमें मोलस्क, ब्रायोज़ोआन, ब्रेकिओपोड और चपटा कृमि जैसे जीव आते हैं। उन्हें यह भी संदेह था कि जीवों का यह झुंड कोई परजीवी होगा।

इसके बाद, शोधकर्ताओं ने इसका डीएनए विश्लेषण किया। अंतत: वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह परजीवी चपटा कृमि कुल डायजेनियन फ्लूक का सदस्य है। और यह इसका लार्वा रूप है।

इस नए डायजेनियन परजीवी की दिलचस्प बात यह है कि इसमें दो तरह के लार्वा होते हैं जो आपस में सहयोग करते हैं। ‘यात्री’ लार्वा मछली वगैरह जैसे मेज़बानों की आंत में संक्रमण फैलाते हैं, और खुले वातावरण में वे सिर्फ अपने मेज़बान में प्रवेश करने के इंतज़ार में रहते हैं। वहीं, ‘नाविक’ लार्वा तैरकर लार्वाओं के इस पूरे गोले को यहां-वहां पहुंचाते हैं ताकि नए मेज़बान तक पहुंच सकें – लेकिन ऐसा करने के लिए वे अपना प्रजनन अवसर त्याग देते हैं ताकि अन्य को प्रजनन अवसर सुलभ हो सके। यानी ये लार्वा सहोदर चयन की एक और मिसाल हैं।

शरीर के बाहर मुक्त वातावरण में किसी परजीवी लार्वा का अध्ययन नई बात है। इस अध्ययन से पता चलता है कि मुक्त लार्वा के स्तर पर भी इस तरह का श्रम विभाजन होता है।

शोधकर्ता ऐसे और लार्वा की तलाश में हैं ताकि जान सकें कि झुंड में यह निर्णय कैसे होता है कि कौन ‘नाविक’ बनेगा और कौन ‘यात्री’? और इस गोले की गति का नियंत्रण कैसे होता है? शायद नाविकों के सिर पर मौजूद दो बिंदुनुमा आंखों की इसमें कुछ भूमिका हो। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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