शहदखोजी पक्षी स्थानीय लोगों की पुकार पहचानते हैं – अर्पिता व्यास

ब अफ्रीका के उत्तरी मोज़ाम्बिक के नियासा स्पेशल रिज़र्व में रहने वाले लोग मीठा खाने के लिए लालायित होते हैं तो वे स्विगी या ज़ोमाटो को नहीं बल्कि एक को पक्षी बुलाते हैं। ये शहद-मार्गदर्शक पक्षी उन्हें मधुमक्खी के छत्ते तक लेकर जाते हैं जहां से उन्हें शहद मिल जाता है और लगे हाथ पक्षी की भी दावत हो जाती है – स्वादिष्ट मोम और मधुमक्खी की इल्लियों की।

एक नए अध्ययन से पता चला है कि यह साझेदारी वैज्ञानिकों की सोच से कहीं अधिक जटिल है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि स्थानीय लोग इन पक्षियों को बुलाने के लिए अनोखी आवाज़ें निकालते हैं जो हर क्षेत्र में अलग-अलग होती हैं, और पक्षी अपने क्षेत्र की आवाज़ पहचान कर प्रतिक्रिया देते हैं। इस अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं का मत है कि पक्षी और ये जनजातीय लोग एक-दूसरे की सांस्कृतिक परंपराओं को आकार देते हैं।

न्यू जर्सी टेक्नॉलॉजी की इथॉलॉजिस्ट जूलिया हाइलैंड ब्रुनो का कहना है कि यह अध्ययन बहुत सुंदर है, परिणाम स्पष्ट हैं और प्रयोग की डिज़ाइन भी सरल है। ऐसे केवल कुछ ही मामले दर्ज हैं जिनमें मनुष्य जंगली जीवों के साथ सहयोग करते हैं। उदाहरण के लिए भारत, म्यांमार और ब्राज़ील में लोग डॉल्फिन्स के साथ मिलकर मछली पकड़ते हैं। लेकिन अफ्रीका में शहद निकालने वाले लोगों और शहदखोजी पक्षियों के बीच यह रिश्ता उच्च स्तर का लगता है। यह छोटी चिड़िया (Indicator) मधुमक्खी के छत्ते ढूंढने और जगहों को पहचानने में माहिर है। कैंब्रिज विश्वविद्यालय के व्यवहार पारिस्थितिकी वैज्ञानिक क्लाइर स्पॉटिसवुड और उनके सहलेखकों का कहना है कि ये पक्षी छत्तों की जगह पहचानते हैं। मनुष्य पेड़ों के उन हिस्सों को काटकर खोल देते हैं और वहां धुआं कर देते है जिसके परिणामस्वरूप मधुमक्खियां छत्ता छोड़कर भाग जाती हैं। कई बार लोग पक्षियों के साथ छल करते हुए छत्ते के मोम को नष्ट कर देते हैं ताकि पक्षी नया घोंसला ढूंढने निकल पड़ें। ये पक्षी भी कभी-कभी लोगों को छत्ता ढूंढने के लिए उनका पीछा करने का आग्रह करते है और कभी-कभी लोग इन पक्षियों को छत्ता ढूंढने को उकसाते हैं। उदाहरण के लिए नियासा स्पेशल रिज़र्व में रहने वाले याओ लोग एक विशेष आवाज़ निकालते हैं।

इन पक्षियों को बुलाने के लिए जो आवाज़ निकाली जाती है, वह अलग-अलग स्थानों पर अलग होती है। सवाल यह था कि क्या पक्षी ये अंतर पहचान पाते हैं? यह जानने के लिए स्पॉटिसवुड और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के मानवविज्ञानी ब्रायन वुड ने मिलकर प्रयास किया। ब्रायन वुड उत्तरी तंज़ानिया के हदजा समुदाय का 20 सालों से अध्ययन कर रहे हैं। वुड के अनुसार हदजा समुदाय के लोग जटिल प्रकार से सीटियों की आवाज़ निकालते हैं – ऑर्केस्ट्रा की धुन जैसी। इससे वे पक्षियों को यह बताते हैं कि वे शहद ढूंढने के लिए तैयार हैं।

तंज़ानिया और मोज़ाम्बिक की कई जगहों पर शोधकर्ताओं ने हदजा लोगों की सीटियों और याओ लोगों की पुकार की रिकॉर्डिंग्स बजाई, तुलना के तौर पर उन्होंने मनुष्य की चीख-पुकार की रिकॉर्डिग भी बजाई। तंज़ानिया में हदजा सीटियों की अपेक्षा याओ पुकारों पर पक्षी तीन गुना ज़्यादा आए। दूसरी ओर मोज़ाम्बिक में याओ पुकारें दो गुना ज़्यादा प्रभावी थीं। शोधकर्ताओं ने इस बात का ख्याल रखा था कि सभी आवाज़ें बराबर दूरी तक और बराबर समय तक सुनाई दें। यह जानी-मानी बात है कि इतने कम फासले पर रहने वाले पक्षियों के डीएनए अलग-अलग नहीं हो सकते। अर्थात आवाज़ों को लेकर पसंद आनुवंशिक नहीं है। स्पॉटिसवुड के अनुसार एक संभावित व्याख्या यह हो सकती है कि पक्षी अपने स्थानीय मनुष्य सहयोगियों की आवाज़ पर प्रतिक्रिया करना सीखते हैं।

मनुष्यों की तरह ही पक्षियों की भी संस्कृति हो सकती है जो वे पक्षी-गीतों के माध्यम से एक-दूसरे को सौंपते हैं। इससे लगता है कि शहदखोजी पक्षी और मनुष्य एक दूसरे की परम्पराओं को सुदृढ़ करते हैं। याओ और हदजा शहद निकालने वालों ने बताया कि वे पक्षियों को बुलाने के लिए अपने पूर्वजों द्वारा बताई हुई पुकारों का ही इस्तेमाल करते हैं क्योंकि पुकार बदलने से पक्षियों के आने की संभावना कम हो जाती है। पक्षियों को स्पष्ट रूप से पता होता है कि उनके क्षेत्र की पुकार मतलब खाना मिलने की संभावना है और वे इस पुकार से चले आते हैं। हालांकि यह जानना बाकी है कि पक्षी एक-दूसरे से इन पुकारों का अर्थ सीखते हैं या खुद ही निष्कर्ष निकालते हैं।

ओरेगॉन स्टेट विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकीविद मौरिसियो कैन्टर कहते हैं कि शहदखोजी पक्षियों द्वारा सीखने की संभावना नज़र आती है। ड्यूक विश्वविद्यालय के व्यवहार पारिस्थितिक वैज्ञानिक स्टीफन नौविकी कहते हैं कि मनुष्य हमेशा पालतू जानवरों के साथ सहयोग और संवाद करते देखे गए हैं, लेकिन यह अध्ययन जंगली जीवों से सम्बंधित है। (स्रोत फीचर्स) (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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