मौसम पूर्वानुमान की समस्याएं – नरेंद्र देवांगन

साल 2002 में औसत बारिश में कमी या सूखे का पूर्वानुमान भारत या विदेश का कोई भी संस्थान नहीं लगा पाया था। इसे मौजूदा मॉडल में पूरे विश्व में चुनौती माना गया। सवाल यह है कि गर्मी की शुरुआत में आज से 35-40 साल पहले भी आंधी-तूफान आते रहे हैं, जिसे पूर्वी भारत में काल बैसाखी कहते हैं। लेकिन पहले तूफान से तबाही नहीं मचती थी। फिर अब ऐसा क्या होता है कि एक दिन के तूफान से ही तबाही मच जाती है? इसे ठीक से समझने के लिए तीन बातों पर गौर करना होगा।

कोई भी आंधी-तूफान दो चीज़ों से ऊर्जा लेती हैं – गर्मी व हवा की नमी की मात्रा। ये दोनों चीजें जितनी ज़्यादा होंगी, तूफान की मारक क्षमता उतनी ही बढ़ेगी। पहले मई माह के बाद ही तेज़ गर्मी पड़ती थी। पर अब मार्च-अप्रैल महीने में ही उत्तर, पश्चिम और दक्षिण भारत के काफी बड़े हिस्से में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस या इससे ऊपर पहुंच जाता है। इससे हवा की गति बढ़ जाती है। साथ ही पश्चिमी विक्षोभ भी मौजूद रहता है और बंगाल की खाड़ी से नमी लेकर हवा भी आ पहुंचती है। इन सबकी वजह से तूफान आने की स्थिति बनती है।

पिछले तीन-चार दशक से तापमान लगातार बढ़ रहा है। यह हवा की गति को भी बढ़ा रहा है। 1979-2013 की अवधि में मौसम उपग्रह के रिकार्ड से पता चला कि धरती का ऊष्मा इंजन अब पहले से ज़्यादा सक्रिय हो चुका है। परिणामस्वरूप तूफान-बवंडर ज़्यादा शक्तिशाली बन रहे हैं। आज ज़रूरत है इनको समय से पूर्व जानकर देश की जनता और शासन-प्रशासन को सावधान करने की। 

मौसम का पूर्वानुमान तभी सफल हो पाता है जब उसे स्थान और काल की बारीकी से बताया जा सके। भारतीय मौसम विभाग अभी इस काम को करने में पूरी तरह से परिपक्व नहीं हो सका है। मानसून के बारे में मौसम विभाग का अनुमान हमारे किसी काम का नहीं होता क्योंकि वह सिर्फ औसत बताता है। औसत तो तब भी बरकरार रहेगा जब किसी इलाके में सूखा पड़े और किसी में अतिवृष्टि हो जाए। लेकिन दोनों स्थितियों में नुकसान तो हो ही जाएगा। उन्हें स्थानीय स्तर पर जल्दी-जल्दी पूर्वानुमान बताना चाहिए ताकि तैयारी करने का समय मिल सके।

मौसम के पूर्वानुमान के लिए अलग-अलग मॉडल पर आधारित 5 तरह के पूर्वानुमान का इस्तेमाल कृषि, यातायात, जल प्रबंधन आदि के लिए किया जाता है। सही मायने में 5 दिन का पूर्वानुमान 60 फीसदी तक सही हो पाता है। ये पांच तरह के हैं –

1. तात्कालिक (नाउकास्ट ) – अगले 24 घंटे का आकलन

2. लघु अवधि – 3 दिनों का पूर्वानुमान

3. मध्यम अवधि – 3-10 दिनों का पूर्वानुमान

4. विस्तारित अवधि – 10-30 दिनों का पूर्वानुमान

5. दीर्घ अवधि – मानसून का पूर्वानुमान

इस संदर्भ में मराठवाड़ा में कुछ किसानों ने पुलिस केस दर्ज कराया है। उनका कहना है कि मौसम विभाग द्वारा महाराष्ट्र या मराठवाड़ा (8 ज़िला क्षेत्र) के अनुमान से भी उन्हें लाभ नहीं होता, क्योंकि एक ज़िले में भी बारिश कभी एक समान नहीं होती। इसलिए कृषि के लिए ब्लॉक आधारित सूचना की ज़रूरत है। विशेषज्ञों के अनुसार मौसम विभाग को पूरे देश को छोटे-छोटे ज़ोन में बांटना चाहिए और हर ज़ोन के लिए दीर्घावधि पूर्वानुमान जारी करने चाहिए।

मौसम विभाग ज़िला आधारित पूर्वानुमान जारी करता है। हालांकि इनमें भी सफलता दर कम है। अगर मौसम विभाग पूर्वानुमान जारी करते हुए बताता है कि किसी ज़िले में अलग-अलग क्षेत्रों में बारिश होगी तो इसका अर्थ होता है कि उस जिले के 26-50 फीसदी हिस्से में बारिश होगी। इसमें भी उन क्षेत्रों की पहचान नहीं की जाती। मौसम विभाग तापमान, आद्र्रता, हवा की गति और वर्षण आदि के आंकड़े इकट्ठे करता है। देश में 679 स्वचालित मौसम केंद्र, 550 भू वेधशालाएं, 43 रेडियोसोंड (मौसमी गुब्बारे), 24 राडार और 3 सेटेलाइट हैं, जो दूसरे देश के सेटेलाइट आंकड़े भी जुटाते रहते हैं।

अति आधुनिक गतिशील मॉडल (डायनैमिक मॉडल) पर आधारित पूर्वानुमान भी भारत में गलत हो जाते हैं। ब्लॉक स्तर तक के मौसम पूर्वानुमान के लिए ज़रूरी है कि ब्लॉक स्तर तक के आंकड़े जुटाए जाएं। संसाधन काफी कम हैं। धूल, एरोसॉल, मिट्टी की आर्द्रता और समुद्र से जुड़े डैटा में भारी अंतर हैं। वर्षापात के आंकड़े जुटाने के लिए देश में कम से कम 20 और राडार चाहिए ताकि व्यापक आंकड़े जुटाए जा सकें।

मौसम पूर्वानुमान के मॉडल की विफलता के बड़े कारण घटिया यंत्र भी हैं। एक मौसम विज्ञानी के अनुसार पैसे बचाने के लिए कई स्वचालित मौसम केंद्र घटिया स्तर के खरीदे गए थे। दूसरा मौजूदा मॉडल के उचित रखरखाव में कमी भी बड़ी समस्या है। इन्हें थोड़े-थोड़े अंतराल पर साफ करके स्केल से मिलाना होता है। पर वास्तव में ऐसा हो नहीं पाता। इससे कई डैटा गलत आते हैं। पूर्वानुमान के लिए इस्तेमाल किए जा रहे अधिकतर मॉडल विदेशों में विकसित किए गए हैं जिनमें स्थानीय ज़रूरत के अनुसार बदलाव करके उपयोग किया जा रहा है।

ऊष्ण कटिबंधीय वातावरण बहुत तेज़ी से बदलता रहता है। यह कभी स्थिर नहीं रहता। दरअसल ऊष्ण कटिबंधीय मौसम के व्यवहार का अभी उचित अध्ययन हो ही नहीं सका है।

पर्याप्त संख्या में मौसम विज्ञानी नहीं हैं। एकमात्र आईआईएससी के स्नातक ही मौसम केंद्र से जुड़ते हैं। मौजूदा मॉडल और मौसम विज्ञानियों की उपलब्धता के आधार पर देखें तो एक दिन के पूर्वानुमान की गणना करने में 10 वर्षों का समय लग सकता है।

आमतौर पर माना जाता है कि मानसून के अप्रत्याशित व्यवहार के पीछे बढ़ता वैश्विक तापमान है। लेकिन इसके वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं मिले हैं।

तमाम आलोचनाओं के बीच मौसम विभाग द्वारा जारी आंकड़ों में सुधार आए हैं। पहले की तुलना में बेहतर तकनीक और नए मॉडलों का प्रभाव, धीरे-धीरे ही सही, दिखने लगा है। दीर्घावधि औसत में 2003-15 के दौरान मौसम के पूर्वानुमान में 5.92 प्रतिशत की अशुद्धता दर्ज की गई थी, जो 1990-2012 के बीच 7.94 प्रतिशत थी। 1988-2008 के बीच पूर्वानुमान 90 प्रतिशत सही रहा। यानी 20 में से 19 वर्षों में।

बढ़ते मौसमी खतरे को देखते हुए हमें अपने पूर्वानुमान की सूक्ष्मता को बढ़ाना होगा। तूफान और बवंडर के लिए डॉप्लर राडार ज़्यादा उपयोगी है। अफसोस इस बात का है कि इनकी देश में कमी है। 2013 की उत्तराखंड आपदा में भी इनकी कमी सामने आई। यदि डॉप्लर राडार होता तो ज़्यादा बारीकी से तूफान का पता लगाकर चेतावनी दी जा सकती थी। अगर आने वाले खतरे को नजरअंदाज करते रहेंगे तो भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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