दूध पचाने की क्षमता से पहले दूध का सेवन

नुष्यों द्वारा दूध के सेवन का इतिहास मुर्गी और अंडा की पहेली जैसा है। मनुष्य दूध का सेवन तब से करते आ रहे हैं जब उनमें इसे पचाने की व्यवस्था भी नहीं थी। लेकिन डीएनए में उपयुक्त परिवर्तन के लिए ज़रूरी था कि वे दूध का सेवन करें। तो सवाल है कि क्या दूध पीने की शुरुआत पहले हुई या दूध पचाने के लिए ज़रूरी उत्परिवर्तन?    

ताज़ा अध्ययनों के अनुसार आधुनिक केन्या और सूडान के लोग कम से कम 6000 वर्षों से दुग्ध उत्पादों का सेवन कर रहे हैं। यानी वे दूध को पचाने वाले जीन के अस्तित्व में आने से भी पहले से दूध का सेवन करते आ रहे हैं। गौरतलब है कि सभी मनुष्य बचपन में दूध पचाने की क्षमता रखते हैं। लेकिन लगता है कि व्यस्कों में यह क्षमता पिछले 6000 वर्षों में ही विकसित हुई है। कुछ उत्परिवर्तनों से वयस्कों में भी लैक्टेस एंज़ाइम का उत्पादन होने लगा जो दूध में उपस्थित लैक्टोस शर्करा को पचाने में मदद करता है। वयस्क अवस्था में भी इस एंज़ाइम के बने रहने को लैक्टेस निरंतरता कहते हैं।

आधुनिक अफ्रीका की बड़ी जनसंख्या में लैक्टेस निरंतरता के लिए चार उत्परिवर्तन हुए हैं जबकि युरोपीय लोग सिर्फ एक ऐसे उत्परिवर्तन पर निर्भर है। फिर भी यह उत्परिवर्तन काफी तेज़ी से फैल गए जिससे लगता है कि ये काफी फायदेमंद रहे होंगे।

दूध सेवन के इतिहास को और गहराई से समझने के लिए शोधकर्ताओं ने अफ्रीका का अध्ययन किया, जहां का समाज पिछले 8000 वर्षों से गाय, भेड़ और बकरी पालन करता आ रहा है। वैज्ञानिकों ने खुदाई में मिले सूडान और केन्या के 2000 से 6000 वर्ष पुराने 8 कंकालों के दांतों की कठोर परतों में दुग्ध-सम्बंधी प्रोटीन की उपस्थिति देखी, जिससे लगता है कि ये लोग लगभग 6000 वर्ष पहले से डेयरी उत्पादों का सेवन कर रहे थे। नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित यह अध्ययन अफ्रीका और विशेष रूप से विश्व की डेयरी खपत का प्राचीनतम प्रमाण है। अध्ययन से यह भी पता चला है कि अफ्रीका में डेयरी उद्योग युरोप के डेयरी उद्योग जितना या उससे भी अधिक पुराना है।          

और तो और, 2020 में कुछ अफ्रीकी कंकालों के डीएनए के अध्ययन के अनुसार प्राचीन अफ्रीकी लोगों में उस समय दूध को पचाने वाले किसी जीन का विकास भी नहीं हुआ था। वे लोग लैक्टेस निरंतरता से पहले से ही दूध का सेवन करते आ रहे थे। कंकालों में मिला प्रोटीन दूध, पनीर या दही जैसे किण्वित उत्पादों से आया होगा। कई संस्कृतियों में किण्वन का उपयोग दूध का सेवन करने से पहले उसकी शर्करा को तोड़ने के लिए किया जाता रहा है ताकि लैक्टेस की अनुपस्थिति में भी दूध उत्पादों का सेवन कर सकें। अंतत: वह उत्परिवर्तन हुआ होगा जिसने लोगों को दूध से अधिक से अधिक पोषण प्राप्त करने में मदद की। वाशिंगटन युनिवर्सिटी की पुरातत्वविद फियोना मार्शल के अनुसार, जिन अफ्रीकी लोगों में लैक्टेस निरंतरता अधिक थी वे लोग अधिक समय तक जीवित रहते थे और उनके बच्चे भी ज़्यादा होते थे।

वैज्ञानिकों का मानना है कि लैक्टेस निरंतरता के चयन का कारण पर्यावरणीय भी हो सकता है। गौरतलब है कि दूध मुश्किल परिस्थितियों में आबादी का प्रबंधन करने का एक बढ़िया तरीका है जिसमें चरवाहे जानवरों की हत्या किए बिना ही उनसे पोषण प्राप्त कर सकते थे। सूखे के समय में भी ये चौपाए उनके लिए पानी के फिल्टर और भंडारण का काम किया करते थे। जब तक ये जीव ज़िंदा रहते थे, तरल, प्रोटीन और पोषण का स्रोत हुआ करते थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/cattle_main_1280p.jpg?itok=gbkNDR5S

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