क्या विज्ञान के अध्याय सोच-समझकर हटाए गए? – संजय कुमार

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा दसवीं की विज्ञान पाठ्यपुस्तक से जैव विकास के सिद्धांत और आवर्त सारणी को हटाने के निर्णय से एक बड़ी बहस छिड़ गई है। यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर की जानी-मानी और सबसे पुरानी विज्ञान पत्रिकाओं में से एक नेचर ने भी इस मुद्दे को अहम मानते हुए इस पर संपादकीय लिखा है।

एनसीईआरटी ने इन अध्यायों के विलोपन को यह कहकर उचित ठहराया है कि पाठ्यक्रम के ‘युक्तियुक्तकरण’ के लिए इन अध्यायों को हटाया गया है ताकि विद्यार्थियों पर बोझ कम हो जाए। लेकिन नए संस्करण और पिछले संस्करण की पाठ्यपुस्तकों को देखने के बाद ऐसा लगता है कि वास्तविक कारण बहुत अलग होंगे। इन अध्यायों का विलोपन स्कूलों में विज्ञान की शिक्षण पद्धति पर सवाल उठाता है। जिस तरीके से और जो अध्याय (या विषय) हटाए गए हैं उससे लगता है कि अध्यायों को सुविचारित तरीके से नहीं हटाया गया है बल्कि मात्र कैंची चलाई गई है।

ऐसा करने का संभावित कारण वर्तमान शासन की विज्ञान विरोधी विचारधारा को बताया जा रहा है। लेकिन, इस कतर-ब्योंत में अभिजात्य पूर्वाग्रह वाली एक टेक्नोक्रेटिक मानसिकता अधिक प्रभावी प्रतीत होती है। यह मानसिकता नई शिक्षा नीति की पहचान बनती जा रही है।

विलोपन के कारण

विलोपन के पहले यह पाठ्यपुस्तक पहली बार 2006 में प्रकाशित हुई थी जो राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा (NCF, 2005) के अनुरूप थी। प्रसिद्ध ब्रह्मांडविद और विज्ञान प्रचारक प्रोफेसर जयंत वी. नार्लीकर इसकी सलाहकार समिति के प्रमुख थे और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भौतिकी की प्रोफेसर रूपमंजरी घोष पाठ्यपुस्तक समिति की प्रमुख थीं। उस समय पाठ्यपुस्तक को किशोर विद्यार्थियों को बांधने वाली बनाने के संजीदा प्रयास किए गए थे। उस पाठ्यपुस्तक के अध्यायों में जगह-जगह पर पूर्व अध्यायों और खंडो में चर्चित सामग्री का ज़िक्र किया जाता था। यह एक ऐसा तरीका है जो न सिर्फ विद्यार्थियों को सीखी जा चुकी अवधारणाएं/विषय भलीभांति याद दिलाने में मदद करता है बल्कि विभिन्न टॉपिक/विषयों के बीच जुड़ाव बनाता है और पूरी पाठ्यपुस्तक में तारतम्य बनता है।

2023-24 के शैक्षणिक सत्र की तेरह अध्यायों वाली ‘युक्ति-युक्त’ पाठ्यपुस्तक में अपवर्तन और परावर्तन पर एक नए अध्याय को छोड़कर बाकी सामग्री लगभग वैसी ही है। पाठ्यपुस्तक से आवर्त सारणी का पूरा अध्याय, जैव विकास का आधा अध्याय, विद्युत मोटर और विद्युत चुम्बकीय प्रेरण वाले अध्याय के कुछ हिस्से, और ऊर्जा के स्रोत और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के अध्याय हटा दिए गए हैं।

पाठ्यपुस्तक की संरचना और हटाए गए अध्यायों का सम्बंध चौंकानेवाला है। आवर्त सारणी का विलोपित अध्याय विलोपन-पूर्व वाली पाठ्यपुस्तक के रसायन विज्ञान वाले खंड का अंतिम अध्याय था। जैव विकास का हटाया गया अध्याय जीव विज्ञान वाले खंड का अंतिम हिस्सा था। विद्युत चुम्बकीय प्रेरण वाला खंड भौतिकी का अंतिम से ठीक पहले वाला खंड था। यह जानते हुए कि पहले वाले खंडों और अध्यायों की सामग्री का ज़िक्र अक्सर बाद वाले अध्यायों में किया जाता है, यदि जल्दबाज़ी में पाठ्यपुस्तक के ‘युक्ति-युक्तकरण’ का काम किया जाएगा, तो अंतिम अध्यायों और खंडों को हटाना ठीक ही लगेगा। दूसरी ओर, बीच के खंडों या अध्यायों को हटाया जाता तो अन्य जगहों पर उनके ज़िक्र (या जुड़ाव) को ‘युक्ति-युक्त’ बनाने के लिए उन अध्यायों को दोबारा लिखना ज़रूरी हो जाता।

बहिष्कारी शिक्षण शास्त्र

हो सकता है कि अध्यायों या खंडों को हटा देने का यह पैटर्न सबसे आसान रहा हो, लेकिन इसने पाठ्यपुस्तक की शैक्षणिक दिशा को तोड़-मरोड़ दिया है। दसवीं कक्षा में विज्ञान अनिवार्य विषय है। इसलिए इसके पाठ्यक्रम में यह झलकना चाहिए कि दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले किसी भी भारतीय (विद्यार्थी) से क्या अपेक्षित है, भले ही वह आगे चलकर विज्ञान विषय न पढ़े या औपचारिक शिक्षा छोड़ दे।

कक्षा दसवीं की विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों को पढ़ने वाले विद्यार्थी समूह सर्वग्राही हैं। एक महत्वपूर्ण पैरामीटर उन विद्यार्थियों की संख्या है जो दसवीं के आगे विज्ञान की पढ़ाई नहीं करते, और जिनके लिए यह पाठ्यक्रम विज्ञान की अंतिम औपचारिक शिक्षा होगी।

भारत में औपचारिक शिक्षा में दाखिले का ढांचा पिरामिडनुमा है। 2018 के आंकड़ों के अनुसार, दसवीं कक्षा की परीक्षा देने वाले लगभग 20 प्रतिशत विद्यार्थियों ने अगले पड़ाव से पहले ही पढ़ाई छोड़ दी थी। उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं (ग्यारहवीं और बारहवीं) से उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज और विश्वविद्यालय की ड्रॉपआउट दर और भी अधिक है। सकल दाखिला अनुपात आंकड़ों के अनुसार, उच्चतर माध्यमिक स्तर पर उत्तीर्ण लगभग आधे विद्यार्थी आगे जाकर कॉलेज (स्नातक) में प्रवेश नहीं लेते हैं। दसवीं कक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक की कुल ड्रॉपआउट दर 60 प्रतिशत है।

विज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थियों का पिरामिडनुमा ढांचा और भी कठिन है। दसवीं पढ़ने वाले सभी विद्यार्थी विज्ञान पढ़ते हैं। इसके बाद मात्र लगभग 42 प्रतिशत विद्यार्थी ग्यारहवीं-बारहवीं कक्षा में विज्ञान विषय लेते हैं। लेकिन 26 प्रतिशत विद्यार्थी ही स्नातक स्तर पर, यानी बी.एससी, बी.टेक, बीसीए, बी.फार्मा, एमबीबीएस और बी.एससी. (नर्सिंग) में, विज्ञान पढ़ते हैं। शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर दर्ज विद्यार्थियों की संख्या और विज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या के डैटा को साथ देखने से पता चलता है कि दसवीं में पढ़ने वाले हर 10 में से सात विद्यार्थी अगली कक्षाओं में विज्ञान विषय नहीं लेते हैं, और इन्हीं दस में सिर्फ एक विद्यार्थी कॉलेज/युनिवर्सिटी स्तर पर विज्ञान की किसी शाखा में पढ़ाई जारी रखता है।

उपरोक्त अनुपात माध्यमिक कक्षाओं में विज्ञान शिक्षण की चुनौती को दर्शाता है। विज्ञान ज्ञान का एक संचयी निकाय है, और इसकी पढ़ाई बहुत ही क्रमबद्ध होती है। एक स्तर पर सरल अवधारणाओं को सीखे बगैर अगले स्तर की जटिल अवधारणाओं को नहीं समझा जा सकता है। इसलिए विज्ञान शिक्षण का कम से कम एक उद्देश्य विद्यार्थियों को अगले स्तर के अध्ययन के लिए तैयार करना है। वैसे यह उद्देश्य केवल दसवीं कक्षा के क्रमश: उन एक-तिहाई और दस प्रतिशत विद्यार्थियों के लिए है जो उच्चतर माध्यमिक या उच्च शिक्षा में विज्ञान की पढ़ाई जारी रखते हैं। बाकी बचे अधिकांश विद्यार्थियों, जिनके लिए दसवीं कक्षा तक की विज्ञान शिक्षा आखिरी औपचारिक विज्ञान शिक्षा है, के लिए विज्ञान शिक्षण का उद्देश्य यह नहीं हो सकता।

पहले समूह के (विज्ञान की पढ़ाई जारी रखने वाले) विद्यार्थियों को विज्ञान की अमूर्त अवधारणाओं और सिद्धांतों को समझने और वैज्ञानिक तकनीकों, यानी समस्या-समाधान और प्रयोगशाला विधियों, में महारत हासिल करने की आवश्यकता होती है। दूसरे समूह के (विज्ञान की पढ़ाई या पढ़ाई ही छोड़ देने वाले) विद्यार्थियों को व्यक्तिगत विकास और सामाजिक जीवन में विज्ञान के महत्व को आत्मसात करने की आवश्यकता है। उन्हें दुनिया के बारे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आम ज़िंदगी से विज्ञान के सम्बंध के बारे में जागरूक होने की आवश्यकता है।

ये दोनों उद्देश्य एक-दूसरे से पृथक नहीं हैं। दरअसल, बहुसंख्य विद्यार्थियों को भी प्रयोगशाला के तरीकों और समस्या-समाधान के कुछ अनुभव मिलने चाहिए। ये दोनों शैक्षणिक उद्देश्य और उन्हें हासिल करने के तरीके अलग-अलग हैं और हमेशा तना-तनी में रहते हैं। इनके बीच संतुलन बनाने की कोशिश को विद्यार्थियों के उपरोक्त दोनों समूहों की आवश्यकताओं को पूरा करने की दिशा में होना चाहिए।

पाठ्यचर्या बनाने वालों, पाठ्यपुस्तक लेखकों, शिक्षकों और प्रश्नपत्र तैयार करने वालों के लिए बहुत ही विविध आवश्यकताओं और प्रेरणाओं वाले विद्यार्थियों के लिए एकल पाठ्यक्रम और मूल्यांकन प्रणाली बनाना आसान काम नहीं है। सामान्य प्रवृत्ति होती है कि सरल से जटिलता की ओर बढ़ते हुए विभिन्न विषयों, अवधारणाओं, समस्याओं और प्रश्नों से लदी एक पाठ्यपुस्तक बना दें और उम्मीद करें कि जो विद्यार्थी विज्ञान की पढ़ाई जारी रखेंगे वे कठिन और सरल दोनों हिस्सों तक पहुंच बना लेंगे; जबकि अन्य विद्यार्थी जो आगे की कक्षाओं में विज्ञान नहीं पढ़ना चाहते हैं वे कठिन हिस्सों को सीखे बिना किसी तरह काम चला लेंगे।

शिक्षण शास्त्र की दृष्टि से यह तरीका गलत है। यह पहले समूह के विद्यार्थियों के उद्देश्य को तो पूरा कर सकता है लेकिन दूसरे समूह की आवश्यकताओं का अवमूल्यन करता है और उन्हें पिछड़े और असफल लोगों की श्रेणी में धकेल देता है।

उपरोक्त विचारों के प्रकाश में यह स्पष्ट होता है कि दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों के आनन-फानन किए गए ‘युक्तियुक्तकरण’ ने उन विद्यार्थियों के बड़े समूह की शैक्षणिक आवश्यकताओं को पूरा करना अधिक मुश्किल बना दिया है जो आगे विज्ञान की पढ़ाई जारी नहीं रखने वाले हैं। जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा संकट और प्रदूषण ने पर्यावरण विज्ञान के कुछ हिस्सों को आम चर्चा का अभिन्न अंग बना दिया है। सभी विद्यार्थी परिष्कृत सिद्धांतों और अवधारणाओं में महारत हासिल किए बिना जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार कारणों को खोजने और हरित ऊर्जा स्रोतों की ज़रूरत को समझने में विज्ञान की भूमिका समझ सकते हैं। दसवीं कक्षा की विज्ञान की पाठ्यपुस्तक से पर्यावरण विज्ञान के तीन में से दो अध्यायों के विलोपन ने आम विद्यार्थियों को वृहत सार्वजनिक सरोकार के लिए विज्ञान के महत्व को समझने के एक बहुत ही उपयोगी अवसर से वंचित कर दिया है।

जैव विकास का सिद्धांत और आवर्त सारणी विशिष्ट अवधारणाओं और अवलोकन पर आधारित हैं। अलबत्ता, जीव विज्ञान और रसायन विज्ञान के अन्य विषयों की तुलना में, इन विषयों में सामान्य विचार भी शामिल हैं जिन्हें आसानी से ग्रहण किया और समझा जा सकता है। तथ्य यह है कि ये दोनों विषय/अवधारणाएं पृथ्वी पर जीवन के इतिहास और रासायनिक गुणों के वितरण की एकीकृत छवि बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दरअसल, इनकी बारीकियों को समझे बिना भी दुनिया की वैज्ञानिक तस्वीर बनाने में इनकी भूमिका को आसानी से समझा जा सकता है।

विद्यार्थियों के सिर से बोझ कम करने के लिए ‘युक्तिसंगत’ बनाई गई वर्तमान पाठ्यपुस्तक की खासियतें विचित्र हैं। इसमें जीन हस्तांतरण के मेंडल के नियमों को तो यथावत रखा गया है, जो कि बहुत विशिष्ट और अमूर्त हैं और जिन्हें अधिकांश विद्यार्थी याद भर कर लेते हैं, लेकिन इसमें जैव विकास के लिए कोई जगह नहीं है जबकि इसकी मुख्य विचारों/बातों को सरल तरीके से बताया जा सकता है।

पर्यावरण विज्ञान, आवर्त सारणी और जैव विकास के अध्यायों को हटाने, और अपवर्तन एवं परावर्तन पर एक अध्याय, जिसमें लेंस और गोलीय दर्पणों के लिए प्रकाश किरण सम्बंधी नियम और सूत्र हैं, जोड़ने के साथ नई ‘युक्तिसंगत’ पाठ्यपुस्तक का संतुलन ज़ाहिर तौर पर अमूर्त और विशिष्ट विषयों की तरफ झुक गया है। इन विषयों में महारत हासिल करने के लिए बार-बार अनुभव और अभ्यास की आवश्यकता होती है, जो भारत में बड़े पैमाने पर स्कूल के बाहर कोचिंग में मिलता है। नई पाठ्यपुस्तक में क्षति उन सामान्य विषयों की हुई है जिन्हें सभी विद्यार्थी पढ़कर और चर्चा करके समझ सकते हैं।

जैसी कि ऊपर चर्चा की गई है, पारंपरिक सोच के अनुसार अपवर्तन और परावर्तन जैसे विषयों को ‘आसान’ माना जाता है। पर्यावरण विज्ञान, आवर्त सारणी और जैव विकास के अध्यायों का विलोपन उन अधिकांश विद्यार्थियों को शिक्षा से बहिष्कृत करने जैसा है जिनके आगे जाकर विज्ञान विषय पढ़ने की संभावना नहीं है।

चुनिंदा विषयों को हटाना निर्धारित वैचारिक प्रतिबद्धताओं का परिणाम नहीं बल्कि एक आसान समाधान लगता है। अलबत्ता, इसके शैक्षणिक निहितार्थ भारतीय शिक्षा प्रणाली में किए जा रहे परिवर्तनों के साथ फिट बैठते हैं। नई शिक्षा नीति को अपनाने के साथ ही भारतीय शिक्षा खुलकर तकनीकी दृष्टिकोण के अधीन आ गई है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य तकनीकी कर्मचारी तैयार करना है जिनकी क्षमताओं को आसानी से मात्रात्मक पैमाने पर नापा जा सके। देश भर में एक समान पाठ्यक्रम लागू करने की कोशिशें, बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक कौशल से लेकर विश्वविद्यालय में प्रवेश तक राष्ट्रव्यापी एकल परीक्षाओं को जबरन लागू करना, शैक्षणिक संस्थानों की रैंकिंग पर ज़ोर देना आदि सभी उस योजना का हिस्सा हैं जिसका प्राथमिक उद्देश्य बाज़ार के लिए कुशल और अकुशल कर्मचारियों की फौज बनाना है। पिरामिडनुमा परिणाम इस व्यवस्था के ढांचे में ही निहित हैं। इस व्यवस्था में विज्ञान शिक्षा एक आवश्यक कौशल आधार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस ढांचे का कोई अन्य उद्देश्य, जैसे कि विद्यार्थियों में दुनिया को देखने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक स्वभाव विकसित करने में मदद करना, प्राथमिकता नहीं है। इस ढांचे में उन विद्यार्थियों की शैक्षणिक आवश्यकताओं के लिए कोई जगह नहीं है जिनकी विज्ञान की पढ़ाई आगे जारी रहने की संभावना नहीं है। वैसे भी उन विद्यार्थियों पर विफल होने का ठप्पा लगा ही दिया गया है! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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