कोविड-19 पर भारत के मुगालते की आलोचना

भारत कोविड-19 की दूसरी लहर से जूझ रहा है। वर्ष 2020 की पहली लहर की तुलना में इस बार रोज़ नए मामलों और मरने वालों की संख्या भी काफी तेज़ी से बढ़ रही है। इस दौरान अस्पताल, ऑक्सीजन, वेंटीलेटर और दवाइयों के लिए काफी संघर्ष करना पड़ रहा है।

भारत में कोविड-19 के मामले मई में 4 लाख प्रतिदिन से अधिक हो चुके थे। कई शहरों में स्वास्थ्य सेवा का बुनियादी ढांचा चरमरा गया। महाराष्ट्र व दिल्ली जैसे कुछ राज्यों में सरकार को कर्फ्यू और लॉकडाउन का सहारा लेना पड़ा। राज्य सरकारें स्वास्थ्य सुविधाओं और ऑक्सीजन संयंत्रों के निर्माण के प्रयास कर रही हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि यह तैयारी काफी पहले ही कर लेना चाहिए थी।

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के प्रमुख श्रीनाथ रेड्डी के अनुसार वर्ष 2021 की शुरुआत में ही नीति निर्माता, मीडिया और जनता में यह मान्यता बनने लगी थी कि भारत में महामारी खत्म हो गई है, और हमने झुंड प्रतिरक्षा प्राप्त कर ली है। कुछ वैज्ञानिकों ने भी इस मत को हवा दी। दूसरी लहर न आने के विश्वास के चलते अर्थ व्यवस्था को मज़बूत करने के उद्देश्य से सभी गतिविधियां फिर से पहले की तरह शुरू कर दी गर्इं। भारत में इस वर्ष जनवरी और फरवरी में मामलों में कमी देखी गई थी, और मार्च में बड़े-बड़े सार्वजनिक समारोह आयोजित हुए और किसी प्रोटोकॉल का पालन नहीं हुआ। इसी माह पांच राज्यों में मतदान भी हुए जिसमें प्रधानमंत्री सहित कई राजनेताओं ने सैकड़ों बड़ी रैलियां कीं। हालांकि चुनाव आयोग ने बड़ी रैलियां और रोड-शो आयोजन के खिलाफ कार्रवाई की चेतावनी भी दी, लेकिन न किसी ने इस पर कोई ध्यान दिया और न ही आयोग ने किसी पर कोई कार्रवाई की।

कोविड मामलों में निरंतर वृद्धि के बाद भी कुंभ मेला आयोजित करने की अनुमति दी गई। इस दौरान लाखों लोगों ने गंगा नदी में डुबकी लगाई। यह त्योहार 1 अप्रैल को शुरू हुआ और 17 दिन बाद स्थानीय अधिकारियों द्वारा इस पर रोक लगाई गई। स्थानीय अधिकारियों ने इस त्योहार में भाग लेने आए लोगों में कोविड-19 के 2000 मामलों की सूचना दी। विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसी गंभीर परिस्थितियों में बड़े सामूहिक समारोहों, यात्राओं और भीड़-भाड़ जुटाने से बचना चाहिए था। इसके साथ ही मास्क जैसे सुरक्षा उपायों को अपनाना भी आवश्यक था। इन सावधानियों से सामूहिक समारोहों में न केवल लोग सुरक्षित रहते बल्कि उनको महामारी के खत्म होने के गलत संकेत भी नहीं मिलते।

वर्तमान में अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से देशभर में संकट की स्थिति बन गई है। कई गैर-सरकारी संगठन और वालंटियर्स ऑक्सीजन प्रदान करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर प्रतिदिन हज़ारों लोग ऑक्सीजन सिलिंडर या अस्पताल में ऑक्सीजन युक्त बिस्तर या वेंटीलेटर के लिए गुहार लगा रहे हैं।

भारत सरकार द्वारा अप्रैल की शुरुआत में जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार भारत में ऑक्सीजन का दैनिक उत्पादन 7127 मीट्रिक टन और खपत 3842 मीट्रिक टन थी। इसके कुछ ही दिनों के बाद जब कुछ अस्पतालों ने ऑक्सीजन की कमी की जानकारी उच्च न्यायलय को दी तो पता चला कि ऑक्सीजन की प्रतिदिन खपत 8000 मीट्रिक टन से भी अधिक हो चुकी है।

केंद्र और राज्य सरकारों ने पहली लहर के थमने के बाद अस्पतालों में की गई ऑक्सीजन व्यवस्था को वापस ले लिया था। हालांकि, उस समय की स्थिति को देखते हुए शायद यह एक ठीक निर्णय था लेकिन सरकारी प्रणाली में इतना लचीलापन नहीं था कि कोविड मामले बढ़ने पर एक बार फिर ऑक्सीजन की आपूर्ति की जा सके।

ऑक्सीजन की आपूर्ति और दवाओं के लिए युरोपीय संघ तथा जर्मनी ने हर संभव मदद का वादा किया है। इसके अलावा भारत सरकार ने तरल ऑक्सीजन कंटेनरों को एयरलिफ्ट करने के लिए हवाई जहाज़ भी भेजे हैं। अमेरिका ने भी कहा है कि वह कोविड-19 टीका तैयार करने के लिए आवश्यक कच्चा माल भेज रहा है और ऑक्सीजन का उत्पादन करने वाले उपकरण भेजने का भी प्रयास कर रहा है।

भारत में बढ़ते हुए कोविड-19 मामलों ने विदेशी सरकारों को अधिक सतर्क कर दिया है। कई देशों ने भारत से आने वाले लोगों पर रोक लगा दी है।

टीकाकरण के मामले में निर्यात के चलते भारत स्वयं के लिए टीकों की कमी का सामना कर रहा है। जिन लोगों को टीके की पहली खुराक मिल चुकी है उनको दूसरी खुराक नहीं मिल पा रही है। देश भर के टीकाकरण केंद्रों से टीकों की कमी की शिकायतें आ रही हैं। अशोका युनिवर्सिटी के वायरोलॉजिस्ट शाहिद जमील इसके पीछे खराब नियोजन को कारण बताते हैं। भारत ने टीका निर्माताओं को उपयुक्त आदेश ही नहीं दिए ताकि वे पर्याप्त मात्रा में खुराक तैयार करके रख सकें। 

स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर भारत सरकार ने पिछली बार 8 अप्रैल को सूचित किया कि उसके पास 2.4 करोड़ टीकों का स्टॉक है। 26 अप्रैल तक भारत में 14.5 करोड़ खुराकें दी जा चुकी थीं और जुलाई तक 50 करोड़ टीके लगाने का आश्वासन दिया गया है। इस बीच 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के टीकाकरण की घोषणा भी कर दी गई है। हैरानी की बात है कि टीकों की कमी के बाद भी भारत डबल्यूएचओ और कोवैक्स सुविधा में व्यावसायिक रूप से टीकों का निर्यात जारी रखे है। वैसे तो टीका कूटनीति और निर्यात की नीति में कोई समस्या नहीं है लेकिन भारत ने अपनी मांग का कम आकलन किया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रतिरक्षा व्यवस्था और शरीर की हिफाज़त – 3 – विनीता बाल, सत्यजीत रथ

प्रतिरक्षा तंत्र लक्ष्य की पहचान कैसे करता है?

प्रतिरक्षा तंत्र की ऐसी डिज़ाइन कैसे बनी है कि वह अलग-अलग लक्ष्यों के साथ अलग-अलग व्यवहार करता है? कुछ के खिलाफ एंटीबॉडी बनाई जाती हैं, वायरस संक्रमण के खिलाफ मारक कोशिकाएं बनाई जाती हैं और संक्रमित मैक्रोफेज के लिए हेल्पर कोशिकाएं।

प्रतिरक्षा तंत्र का संगठन

हमने पहले यह चर्चा की थी कि परजीवी शरीर में घुसने के लिए कई प्रवेश बिंदुओं का इस्तेमाल करते हैं। वे सांस के साथ घुस सकते हैं (जैसे टीबी के बैक्टीरिया), आंतों की दीवार के ज़रिए घुस सकते हैं (जैसे टायफॉइड बैक्टीरिया) या त्वचा से प्रवेश कर सकते हैं (जैसे मलेरिया परजीवी जो मच्छर के दंश के साथ घुसता है)। प्रतिरक्षा तंत्र पूरे शरीर में फैला होता है और उसकी कोशिकाएं लगभग समूचे कोशिका-बाह्य स्थानों की गश्त करती रहती हैं। दरअसल, वे रक्त में विचरण करती हैं, छोटी-से-छोटी केशिकाओं तक पहुंचती हैं और वहां से रक्त वाहिनियों से बाहर निकलकर ऊतकों में पहुंच जाती हैं।

संभाविता के आधार पर देखा जाए तो ऊतकों में ही वह स्थान है जहां अधिकांश घुसपैठिए सबसे पहले पहुंचेंगे, चाहे कहीं से भी घुसे हों। इस स्थान का पदार्थ तथाकथित लसिका वाहिनियों में पहुंचता है और वहां से यह ऐसे अंगों तक पहुंचता है जहां आने वाले पदार्थ की जांच करके घुसपैठियों का पता लगाया जाता है। इन अंगों को लसिका ग्रंथियां कहते हैं (कई बार पैरों में संक्रमित घाव हो, तो जांघ के ऊपरी हिस्से में गठान-सी बनती है या टॉन्सिल होने पर गले में गठान महसूस होती है। ये लसिका ग्रंथियां हैं।) यहीं पर प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं का जमावड़ा होता है। यानी अस्थि मज्जा में उत्पन्न होने और थायमस ग्रंथि में परिपक्व होने (टी-कोशिकाओं के मामले में) के बाद प्रतिरक्षा कोशिकाएं अपना अधिकांश समय या तो इन लसिका ग्रंथियों में बिताती हैं, अथवा खून में गश्त करती रहती हैं।

कुल मिलाकर उनका रास्ता होता है – रक्त वाहिनियों से ऊतकों में कोशिका बाह्य स्थान, वहां से लसिका तंत्र से होते हुए वापिस रक्त वाहिनियों में। लिहाज़ा, घुसपैठियों के खिलाफ प्रतिक्रिया काफी त्वरित हो सकती है और पूरे मामले को स्थानीय लसिका ग्रंथियों के स्तर पर ही निपटाया जा सकता है।

प्रतिरक्षा तंत्र के किरदार

अब तक हमने सामान्य रूप से प्रतिरक्षा कोशिकाओं की बात की है। इससे लग सकता है कि ये सारी कोशिकाएं एक जैसी होती हैं। लेकिन ज़ाहिर है कि इनसे विभिन्न कार्य करने की उम्मीद की जाती है और इसलिए विशिष्टीकरण ज़रूरी है। उदाहरण के लिए, कुछ कोशिकाएं एंटीबॉडी बनाएंगी जबकि हो सकता है कि कुछ अन्य कोशिकाएं मैक्रोफेज को सक्रिय करें। तो सवाल यह है कि कौन क्या करता है। इसे समझने के लिए आक्रमण और बचाव की उन रणनीतियों पर गौर करते हैं जिनकी चर्चा हम कर चुके हैं। हर मामले में हम यह देखेंगे कि जन्मजात प्रतिरक्षा के क्लोनल एकरूपी और अनुकूली प्रतिरक्षा के क्लोनल विविधरूपी घटक क्या योगदान देते हैं।

कोशिका-बाह्य घुसपैठिए

घुसपैठियों का सबसे पहला निशे (अड्डा) कोशिकाओं के बाहर की जगह है। इनके लिए ऐसी भक्षी (फैगोसायटिक) कोशिकाओं की ज़रूरत होती है जो घुसपैठियों को निगलकर मार सकें। यह काम करने वाली क्लोनल एकरूपी कोशिकाएं ग्रेनुलोसायटिक कोशिकाएं होती हैं – खास तौर से न्यूट्रोफिल ग्रेनुलोसाइट और मैक्रोफेज।

क्लोनल एकरूपी श्रेणी में कुछ आणविक किरदार भी होते हैं। चूंकि कीटाणु इन कोशिकाओं की पकड़ से बच निकलने की कई रणनीतियां अपनाते हैं (या तो उनकी पहचान में नहीं आते या पकड़े नहीं जाते), इसलिए प्रतिरक्षा तंत्र कीटाणुओं की सतह को चिंहित करने के कई तरीके अपनाता है ताकि भक्षी कोशिकाएं उन्हें पहचान सकें और उन पर उपस्थित इन चिंहों का उपयोग उन्हें पकड़कर खाने के लिए कर सकें।

कॉम्प्लीमेंट ऐसा ही एक किरदार है यह एंज़ाइमी क्रियाओं की एक शृंखला होती है जिसके माध्यम से कीटाणु पर ऐसे चिंह चस्पा किए जाते हैं। सी-रिएक्टिव प्रोटीन भी ऐसी ही व्यवस्था है। ये दोनों ही बैक्टीरिया की सतह पर मौजूद कुछ आम आणविक आकारों को पहचानते हैं (जो स्तनधारी कोशिकाओं पर नहीं पाए जाते) और इनसे चिपक जाते हैं। कभी-कभी इस प्रक्रिया का परिणाम यह भी होता है कि बैक्टीरिया की सतह पर छिद्र हो जाते हैं और उसका विघटन शुरू हो जाता है। साथ ही फैगोसाइट इन्हें पहचानकर निगलना भी शुरू कर देते हैं।

यह देखा गया है कि कीटाणु कॉम्प्लीमेंट अथवा ऐसी ही अन्य तरकीबों से चिंहित होने से बच निकलते हैं क्योंकि वे उन रचनाओं को ही बदल डालते हैं जिनका उपयोग क्लोनल एकरूपी कोशिकाएं उन्हें पहचानने के लिए करती हैं। लिहाज़ा क्लोनल विविधरूपी प्रतिरक्षा ऐसे अनोखे प्रोटीन (एंटीबॉडी) बनाती है जो बैक्टीरिया वगैरह की सतह पर उपस्थित विविध रचनाओं को पहचानते हैं। ये एंटीबॉडी सामान्यत: खामोशी से विचरती रहती हैं, जब तक कि इनका सामना उस लक्ष्य से न हो जिसे पहचानने के लिए इन्हें डिज़ाइन किया गया है। जब सामना होता है तो वे लक्ष्य को दबोच लेती हैं (कभी-कभी अपनी दोनों भुजाओं से) और इस जुड़ाव का परिणाम यह होता है कि उन एंटीबॉडी की पूंछ की आकृति बदल जाती है जो कीटाणु को चिंहित कर देती है कि फैगोसाइट उसे निगलकर नष्ट कर दे।

दरअसल, जन्मजात व अनुकूली प्रतिरक्षा क्रियाविधियां आपस में अंतर्क्रिया के लिए एंटीबॉडी पर उपस्थित पूंछ की आकृति में इस परिवर्तन का उपयोग करती हैं। यह बदली हुई पूंछ गुंजाइश बनाती हैं कि कॉम्प्लीमेंट आकर उससे जुड़ जाएं ताकि फैगोसाइट्स को एक से अधिक संकेत मिलें।

एंटीबॉडी प्लाज़्मा की कोशिकाओं द्वारा निर्मित व स्रावित इम्यूनोग्लोब्यूलिन होते हैं। ये प्लाज़्मा कोशिकाएं बी-कोशिकाओं की परिपक्वता का आखिरी मुकाम होती हैं और उपयुक्त लक्ष्य से जुड़ती हैं। वास्तव में बी-कोशिकाएं इम्यूनोग्लोब्यूलिन को मुक्त करने की बजाय उनका उपयोग अपनी सतह के एक अणु के रूप में करती हैं। परिणाम यह होता है कि कोई लक्ष्य इस पर जुड़े तो बी-कोशिकाओं में कई तरह के परिवर्तन होने लगते हैं। इन परिवर्तनों की बदौलत वे ऐसी प्लाज़्मा कोशिकाओं में परिवर्तित हो जाती हैं जो उस इम्यूनोग्लोब्यूलिन को खून में छोड़ने लगती हैं।

कोशिका के अंदर बैठे घुसपैठिए

जो परजीवी आनन-फानन मेज़बान की कोशिकाओं के अंदर चले जाते हैं, वे एंटीबॉडी या कॉम्प्लीमेंट द्वारा चिंहित होने से बच जाते हैं और फैगोसाइट स्वयं तो उन्हें खाकर ठिकाने नहीं लगा सकते। तो प्रतिरक्षा तंत्र का दूसरा प्रमुख काम है कि अपनी ही उन कोशिकाओं को पहचाने जिनके अंदर परजीवी छिपे बैठे हैं। ऐसे संक्रमण से निपटने वाली प्रतिरक्षा कोशिकाएं (टी-कोशिकाएं) सिर्फ इतना नहीं कर सकतीं कि वे एंटीबॉडी बना दें क्योंकि ऐसे इम्यूनोब्लोब्यूलिन अणु संक्रमित कोशिकाओं के अंदर तो पहुंच नहीं पाएंगे। इसलिए इन टी-कोशिकाओं को संक्रमित कोशिकाओं को संकेत देना होते हैं। इसका मतलब है कि ये टी-कोशिकाएं मात्र संक्रमित कोशिकाओं को अपने लक्ष्य के रूप में पहचानें, न कि खून में बहते स्वतंत्र अणुओं को और अपने उत्पादों को किसी ऐसे स्थान पर न छोड़े जहां कोई संक्रमित कोशिका न हो।

यानी उन्हें एक साथ दो बातों की पहचान करनी होगी – परजीवी का पहचान चिंह और यह कि वह परजीवी-चिंह किसी कोशिका से जुड़ा है। यदि इन दो चीज़ों – यानी परजीवी अणु की पहचान और यह पहचान कि यह अणु किसी कोशिका से सम्बद्ध है – को एक-दूसरे से स्वतंत्र छोड़ दिया जाए तो होगा यह कि टी-कोशिकाएं किसी परजीवी-सम्बद्ध अणु को पहचान लेंगी जबकि वे किसी स्वस्थ कोशिका के संपर्क में हों। ऐसा होने पर वे शायद इस स्वस्थ कोशिका को मार डालेंगी।

इसलिए कोई ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि टी-कोशिकाएं किसी परजीवी अणु को तभी पहचानें जब उसे किसी संक्रमित कोशिका ने तोड़-मरोड़ दिया हो और उसके अवशेष कोशिका सतह के किसी सामान्य अणु के साथ जोड़ दिए गए हों। इन वाहक अणुओं को मेजर हिस्टोकॉम्पेटेबिलिटी कॉम्प्लेक्स (एमएचसी) जीन द्वारा कोड किया जाता है और इसलिए इन्हें एमएचसी प्रोटीन कहते हैं। तो, कोशिका की सतह के एमएचसी प्रोटीन्स पर खुद मेज़बान के पेप्टाइडस भी होंगे और परजीवी के अवशिष्ट पेप्टाइड्स भी। इस प्रकार से कोई संक्रमित कोशिका इस बात का संकेत टी-कोशिकाओं को दे सकती है कि उसके अंदर कोई परजीवी है।

हालांकि ये पेप्टाइड्स परजीवी के प्रोटीन के विघटन से बनते हैं लेकिन इनकी आकृति मूल अणु से कदापि मेल नहीं खाती। इनको पहचानने के साथ-साथ ही एमएचसी प्रोटीन भी पहचाना जाना चहिए। इसलिए ऐसे ग्राहियों की आवश्यकता होती है जो एमएचसी और परजीवी से उत्पन्न पेप्टाइड्स दोनों को एक साथ पहचान सकें। और इन ग्राहियों से लैस टी-कोशिकाओं में यह क्षमता होनी चाहिए कि वे या तो संक्रमित कोशिका को मार सकें या उसकी मदद कर सकें कि वह अपने अंदर बैठे परजीवी को मार डाले।

टी-कोशिका थायमस नामक ग्रंथि में परिपक्व होती हैं। टी-कोशिकाएं मात्र सतह का मुआयना करके सामान्य कोशिका और संक्रमित कोशिका के बीच भेद कर सकती हैं। उन्हें कोशिका के अंदर झांकने की ज़रूरत नहीं होती। इसके बाद टी-कोशिकाएं जैविक रूप से सक्रिय विविध अणु बनाती हैं, जिन्हें सायटोकाइन्स कहते हैं। ये सायटोकाइन्स संक्रमित कोशिकाओं को उपयुक्त संकेत प्रेषित कर सकते हैं।

कोशिका के अंदर विभिन्न किस्म के संक्रमण

हम यह बात कर ही चुके हैं कि संक्रमित कोशिका के अंदर कुछ परजीवी बुलबुला अंगकों या एंडोसोम्स के अंदर विराजमान होते हैं। ऐसी कोशिकाओं को निर्देश दिया जा सकता है कि वे परजीवी को मारने के लिए कुछ कदम उठाएं – जैसे कुछ एंज़ाइम्स को सक्रिय कर दें या मुक्त मूलकों को तैनात कर दें। यह कदम उठाना इसलिए संभव हो सकता है क्योंकि परजीवी आम तौर पर भक्षी कोशिकाओं (जैसे मैक्रोफेज) में पहुंचते हैं और कोशिश करते हैं कि उनके एंडोसोम में सुरक्षित बैठे रहें।

दूसरी ओर वायरस जैसे परजीवी कोशिका द्रव्य पर कब्ज़ा करते हैं और इस मामले में एक ही रास्ता बचता है कि संक्रमित कोशिका को ही मार दिया जाए ताकि संक्रमण आगे न फैले।

तो यदि कोई टी-कोशिका किसी कोशिका की सतह पर ऐसा एमएचसी-सम्बद्ध परजीवी पेप्टाइड देखे जो एंडोसोम में से आया हो तो वह कोशिका को यह संदेश दे कि कीटाणु को मारो।

दूसरी ओर यदि उसे कोई एमएचसी सम्बद्ध परजीवी पेप्टाइड दिखे जिसकी उत्पत्ति कोशिका द्रव्य में हुई है तो उस कोशिका को संदेश दिया जाए कि वह मर जाए।

चूंकि ये दो सर्वथा अलग-अलग कार्य हैं, इसलिए ज़रूरी है कि इन्हें टी-कोशिकाओं की अलग-अलग किस्मों द्वारा संपादित किया जाए – पहले मामले में यह काम हेल्पर टी-कोशिकाएं करती हैं जबकि दूसरे मामले में किलर टी-कोशिकाएं। लेकिन कोशिका के बाहर से तो टी-कोशिकाएं सिर्फ एमएचसी-पेप्टाइड संकुल देखती हैं। तो उन्हें कैसे पता चलता है कि उस पेप्टाइड की उत्पत्ति कहां हुई थी।

इसका सबसे आसान तरीका यह होगा कि दो किस्म के एमएचसी अणु हों। एक अणु ऐसा हो जो कोशिका द्रव्य से पेप्टाइड उठाता हो और दूसरा जो एंडोसोम से। प्रतिरक्षा तंत्र ठीक यही करता है। पहले प्रकार को एमएचसी वर्ग I कहते हैं और दूसरे प्रकार को एमएचसी वर्ग II कहते हैं।

एमएचसी वर्ग I

सारे कोशिका प्रोटीन के समान एमएचसी वर्ग I के जिन प्रोटीन्स को कोशिका की सतह पर आना होता है, वे कोशिका की ट्यूबुलर प्रोटीन संश्लेषण मशीनरी – खुरदरा एंडोप्लाज़्मिक रेटिकुलम (RER) – में बनते हैं। निर्माण होते ही ये ङकङ की नलिका की सतह से चिपक जाते हैं। यहां पेप्टाइड-एमएचसी संकुल बनते हैं। इसके लिए आसपास पड़े उन पेप्टाइड्स का उपयोग किया जाता है जो ठीक से फिट हो जाएं। तो ये आसपास पड़े प्रोटीन आते कहां से हैं? जब किसी प्रोटीन का संश्लेषण हो और वह ठीक तरह से तह न बना पाए तो आम तौर पर उसे कोशिका द्रव्य में प्रोटिएसोम नामक मशीनरी द्वारा तोड़ दिया जाता है। इस प्रक्रिया में बने पेप्टाइड्स को एक विशेष प्रोटीन पंप द्वारा RER में धकेल दिया जाता है। इस प्रकार से प्रत्येक एमएचसी वर्ग I का अणु उस पेप्टाइड को लेकर सतह पर आ जाता है जिसके साथ वह पैदा हुआ था। चूंकि ये पेप्टाइड प्रोटिएसोम से आते हैं, इसलिए संभावना यही है कि इनमें से अधिकांश पेप्टाइड्स कोशिका द्रव्य से आए होंगे।

एमएचसी वर्ग II

एमएचसी वर्ग II के अणु भी इसी तरह बनते हैं लेकिन वे ङकङ में एक तीसरे प्रोटीन के साथ संयोजित होते हैं जिसे इनवेरिएन्ट चेन कहते हैं। यह प्रोटीन आसपास उपस्थित पेप्टाइड्स को नवनिर्मित एमएचसी वर्ग II अणुओं से जुड़ने नहीं देता। अब इनवेरिएन्ट चेन द्वारा इन अणुओं को एंडोसोम में ले जाया जाता है। एंडोसोम झिल्ली से घिरी कोशिका का एक अजीब विरोधाभास है। इस झिल्ली के घटक टूट-फूट के कारण क्षतिग्रस्त होते रहते हैं और इनकी जगह नए घटक बनाना पड़ते हैं। समस्या यह है कि कोशिका इन टुकड़ों को कैसे अंदर खींचकर उनका विघटन करे और उनकी जगह नए हिस्से चिपकाए। और इस प्रक्रिया में कोशिका की झिल्ली में कहीं दरार नहीं पड़नी चाहिए।

इसका समाधान काफी चतुराई भरा है। समाधान परिवहन बुलबुलों के रूप में किया गया है। कोशिका नई सतह को अपने अंदर बुलबुलों के रूप में बनाती है और उन्हें सतह तक ले जाकर पुरानी झिल्ली पर चिपका देती है। इस प्रक्रिया में बुलबुले के अंदर का पदार्थ कोशिका के बाहर फेंक दिया जाता है। कोशिका इस मार्ग (एक्सोसायटोसिस) का उपयोग तमाम किस्म के पदार्थों को बाहर फेंकने के लिए भी करती है। इसका उलट मार्ग भी होता है जिसे एंडोसायटोसिस कहते हैं जिसमें कोशिका झिल्ली के एक टुकड़े को एक बुलबुले के रूप में चिमटी की तरह अंदर खींचा जाता है और फिर उसे कचरा निपटान केंद्रों (लायसोसोम) में पहुंचा दिया जाता है जहां इसे रीसायकल किया जाता है। ऐसे एंडोसायटिक बुलबुलों के साथ थोड़ा बाहरी पदार्थ भी कोशिका के अंदर आ जाते हैं। इस प्रक्रिया को पिनोसायटोसिस या फैगोसायटोसिस कहते हैं। इस बुलबुले की झिल्ली और इसमें भरे बाहरी पदार्थों का विघटन एंडोसोम का अत्यंत अम्लीय और एंज़ाइम युक्त पर्यावरण करता है।

जब इनवेरिएन्ट चेन से जुड़ा एमएचसी वर्ग II अणु एंडोसोम में पहुंचता है तो इनवेरिएन्ट चेन को पचा लिया जाता है लेकिन स्वयं एमएचसी वर्ग II के अणु आसानी से पचाए नहीं जा सकते। अब इनवेरिएन्ट चेन से मुक्त एमएचसी वर्ग II के अणु पेप्टाइड से जुड़ सकते हैं। ज़ाहिर है इन पेप्टाइड्स की उत्पत्ति एंडोसोम में हुई होगी।

तो एमएचसी वर्ग I और II अपने साथ सतह पर अलग-अलग स्रोतों से उत्पन्न पेप्टाइड लेकर पहुंचते हैं।

परजीवी पेप्टाइड्स

यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि प्रोटीन विघटन की मशीनरी परजीवी और कोशिकीय प्रोटीन के बीच कोई भेद नहीं करती। एमएचसी अणु भी इन दो तरह के पेप्टाइड्स में कोई भेद नहीं करते। दोनों किस्म के एमएचसी अणुओं की आकृति तब तक स्थिरता प्राप्त नहीं करती जब तक कि वे पेप्टाइड से न जुड़ जाएं। और असंक्रमित कोशिकाएं भी भरपूर मात्रा में एमएचसी अणु अपनी सतह पर प्रदर्शित करती हैं। इसलिए कोशिका की सतह पर प्रदर्शित अधिकांश एमएचसी अणु से जुड़े पेप्टाइड्स परजीवी नहीं बल्कि कोशिकीय उत्पत्ति के ही होते हैं।

परजीवी पहचान प्रणाली को पहले से उपस्थित कोशिकीय मरम्मत तंत्र (जो कोशिका में प्रोटीन के बनने-बिगड़ने से निपटने के लिए बना है) से जोड़ने का यही परिणाम है। लिहाज़ा संक्रमित कोशिका में भी अधिकांश एमएचसी अणु के साथ परजीवी से उत्पन्न नहीं बल्कि कोशिकीय उत्पत्ति के पेप्टाइड्स होने की ही संभावना है। अर्थात टी-कोशिकाओं की पहचान-क्रियाविधि इतनी संवेदनशील होनी चाहिए कि वह थोड़े से परजीवी-उत्पन्न पेप्टाइड से युक्त एमएचसी को भांप सके और साथ ही उसमें यह क्षमता भी बनी रहे कि वह विभिन्न पेप्टाइड्स के बीच भेद भी कर पाए। टी-कोशिकाएं अपनी संवेदनशीलता को बढ़ाने के लिए कई तरकीबों का उपयोग करती हैं।

लेकिन यदि टी-कोशिकाएं अपने प्रत्युत्तर में इतनी संवेदनशील हैं, तो वे टी-कोशिकाओं क्या करेंगी जो कोशिकीय पेप्टाइड-एमएचसी संकुल को पहचानती हैं? टी-कोशिकाओं का पहचान का खजाना काफी बेतरतीबी से निर्मित होता है और इसलिए ऐसी टी-कोशिकाओं को बनने से रोकना असंभव है जो कोशिकीय पेप्टाइड वाले एमएचसी अणुओं को लक्ष्य के रूप में पहचानें।

कोशिकाओं की सतह पर कोशिकीय उत्पत्ति के पेप्टाइड और एमएचसी अणुओं के संकुलों की भारी संख्या में मौजूदगी टी-कोशिकाओं की ‘स्व-प्रतिक्रिया’ (ऑटो-इम्यूनिटी) के ऐसे हादसों को एक वास्तविक खतरा बना देती है। यह अपने आप में चर्चा का विषय हो सकता है कि ऐसी ‘स्व-प्रतिक्रियाशील’ टी-कोशिकाओं का सफाया कैसे किया जाता है।

पूरा परिदृश्य और भी पेचीदा हो जाता है क्योंकि एमएचसी में बहुत विविधता अनिवार्य है। यदि कोई एमएचसी अणु किसी एक पेप्टाइड से अच्छी तरह जुड़ता है, तो वह अन्य पेप्टाइड्स से जुड़ने में नाकाम रहेगा। अर्थात एक एमएचसी अणु सारे संभव पेप्टाइड्स से नहीं जुड़ पाएगा। इसलिए एमएचसी अणुओं में खूब विविधता होनी चाहिए ताकि प्रतिरक्षा तंत्र के लिए अधिक से अधिक पेप्टाइड्स की पहचान करना संभव हो सके। अर्थात एमएचसी अणुओं के दोनों वर्गों में कई तरह के अणु होने चाहिए और ये सब एक साथ कोशिका की सतह पर प्रदर्शित होने चाहिए। लेकिन टी-कोशिका तो अपने क्लोनल विविधरूपी टी-कोशिका ग्राहियों (TCR) की मदद से मात्र एमएचसी अणु और उससे जुड़े पेप्टाइड को पहचानती है। तो क्या किसी टी-कोशिका को पता चल जाएगा कि वह जो एमएचसी अणु देख रही है वह वर्ग I का है या वर्ग II का।

उपयोगी टी-कोशिकाओं का चयन

इस वर्ग भेद को एक अलग दृष्टिकोण से देखते हैं। टी-कोशिकाओं द्वारा एमएचसी-पेप्टाइड संकुल को पहचानने का सिद्धांत और साथ में एमएचसी अणुओं में विविधता मिलकर प्रतिरक्षा तंत्र के खजाने के विकास के लिए एक बड़ी समस्या पेश करता है। जैसा कि हमने कहा था, इस खजाने का निर्माण बेतरतीब ढंग से होता है और परिणाम यह होता है कि तमाम किस्म की ‘आकृतियां’ बनकर तैयार हो जाती हैं। यह चीज़ बी-कोशिकाओं के संदर्भ में तो ठीक है क्योंकि उन्हें तो मात्र परजीवी लक्ष्यों की पहचान करनी है। लेकिन टी-कोशिकाओं के संदर्भ में घुसपैठी से प्राप्त पेप्टाइड की चाहे जितनी पहचान कर ली जाए लेकिन वह तब तक उपयोगी नहीं होगी जब तक कि यह पेप्टाइड किसी ऐसे एमएचसी अणु से जुड़ा न हो जो उस व्यक्ति में उपलब्ध हो। एक बेतरतीब ढंग से संख्या वृद्धि करती किसी भी आबादी में दोनों वर्गों के एमएचसी अणुओं के अनगिनत विविध सम्मिश्रण बन जाएंगे। और यह विविधता बढ़ती ही जाएगी। लेकिन बेतरतीब ढंग से बढ़ते टी-कोशिका भंडार में ऐसे कई ग्राही बनेंगे जिन्हें अपना लक्ष्य कभी देखने को नहीं मिलेगा। यानी ये कोशिकाएं उस व्यक्ति के लिए कभी उपयोगी नहीं होंगी। इसलिए टी-कोशिका खजाने में से ऐसी कोशिकाओं की छंटाई करनी पड़ेगी जो अपने लक्ष्य पेप्टाइड अणुओं की पहचान किसी ऐसे एमएचसी अणु पर करें जो शरीर में उपस्थित न हो। इसका मतलब है कि सिर्फ उन कोशिकाओं को रखा जाए जो संभवत: शरीर के लिए उपयोगी होंगी (हालांकि यह पक्का तय कर पाना मुश्किल है) और उन कोशिकाओं से छुटकारा पा लिया जाए जो निश्चित रूप से अनुपयोगी होंगी। इस प्रक्रिया को ‘सकारात्मक चयन’ कहा जाता है। विकास सम्बंधी निर्णय के इस पड़ाव पर टी-कोशिकाओं को यह निर्देश भी देना होता है कि उसका ग्राही किस वर्ग के एमएचसी अणु की पहचान कर रहा है ताकि वह या तो तो हेल्पर टी-कोशिका बन जाए अथवा किलर टी-कोशिका बने। तो प्रतिरक्षा तंत्र यह काम कैसे करता है?

टी-कोशिकाओं का सकारात्मक चयन

इस प्रक्रिया के घटकों को कैसे नियंत्रण में रखा जाए? कल्पना कीजिए कि कोई टी-कोशिका है जो (मान लीजिए) एमएचसी A से जुड़े पेप्टाइड X की पहचान करने वाली है। ऐसी स्थिति में वह एमएचसी A से तब भी जुड़ जाएगी (थोड़े दुर्बल ढंग से ही सही) जिस पर पेप्टाइड ज्ञ् हो। अत: विकासशील टी कोशिका को उस स्थिति में जीवित रहना चाहिए जब उसके ग्राही और उसके सूक्ष्म पर्यावरण में उपस्थित किसी एमएचसी अणु के बीच कुछ दुर्बल अंतर्क्रिया हो। यानी यदि सही एमएचसी अणु उपस्थित है, तो सही पेप्टाइड न होने पर भी, वह टी-कोशिका शायद उपयोगी साबित हो। उसे जीवित रहने का संदेश मिलेगा। अन्यथा सारी टी-कोशिकाओं में जन्मजात एक खुदकुशी का स्विच होता है।

अगली समस्या – यह सही है कि एमएचसी के दो वर्गों के अणु कोशिका द्रव्य और एंडोसोम से मिलने वाले पेप्टाइड के बीच भेद कर सकते हैं लेकिन टी-कोशिका के ग्राही को कैसे पता चलेगा कि वह किस वर्ग का एमएचसी अणु देख रहा है क्योंकि वह तो इन अणुओं की सिर्फ परिवर्ती शृंखला को देखता है? इसका सबसे सहज समाधान है कि इस ग्राही में एक वर्ग पहचान का तत्व जुड़ा हो। तो नवजात टी-कोशिकाएं बेतरतीबी से दो में से एक एमएचसी पहचान तत्व प्रदर्शित करती है – एक एमएचसी वर्ग I के लिए होता है (CD8) और दूसरा एमएचसी वर्ग II के लिए होता है (CD4)। CD8 प्रदर्शित करने वाली टी-कोशिकाएं (CD8 टी-कोशिकाएं) परिपक्व होकर किलर कोशिका बनेंगी जबकि CD4 वाली कोशिकाएं (CD4 टी-कोशिकाएं) हेल्पर बनेंगी।

अब यदि कोई विकसित होती टी-कोशिका जिसका ग्राही एमएचसी वर्ग I के अणु से दुर्बल ढंग से जुड़ता है और अपनी सतह पर CD8 प्रदर्शित करती है, तो CD8 और ग्राही साथ-साथ एमएचसी अणु से जुड़ जाएंगे और मिलकर उस कोशिका को पूर्ण जीवित रहने का संदेश देंगे जिसके दम पर वह कोशिका परिपक्व होकर किलर कोशिका में तबदील हो जाएगी। अलबत्ता, यदि इस विकसित होती टी-कोशिका पर एमएचसी वर्ग I का ग्राही है लेकिन वह CD4 प्रदर्शित करती है तो उसका ग्राही उसी एमएचसी अणु से नहीं जुड़ पाएगा जिसे CD4 पहचानता है। दूसरे शब्दों में, इस टी-कोशिका के संदर्भ में वर्ग-विशिष्ट सह-बंधन नहीं बन पाएगा। यह एक अपर्याप्त संदेश होगा और उस टी-कोशिका को मरना पड़ेगा। अर्थात CD4 और CD8 सह-ग्राही हैं जो एमएचसी वर्ग पहचान के लिए ज़रूरी हैं – सिर्फ वही कोशिकाएं जीवित रहेंगी जिनके ग्राही की एमएचसी वर्ग पहचान सह-ग्राही के साथ मेल खाती हो।

कोशिका में विराजमान परजीवी के विरुद्ध जन्मजात प्रतिरक्षा के तत्व

कोशिका के अंदर छिपकर बैठे परजीवियों की पहचान की उपरोक्त सारी पेचीदा रणनीतियों का सम्बंध अनुकूली प्रतिरक्षा के क्लोनल विविधतारूपी घटक से है। तो क्या ऐसी क्लोनल एकरूप कोशिकाएं होती ही नहीं हैं जो कोशिका में प्रवेश कर चुके परजीवियों को पहचान सके? ज़रूर हैं, और सबसे पहला नाम मैक्रोफेज का उभरता है। यह सही है कि विकल्पी अंतरा-कोशिका परजीवी मैक्रोफेज के अंदर भी जीवित रह सकते हैं लेकिन वैकासिक दबाव कुछ इस तरह काम करेगा कि ये मैक्रोफेज अपने अंदर घुसकर बैठे कुछ परजीवियों को CD4 किलर कोशिकाओं की मदद के बगैर भी मार डालेंगी।

अलबत्ता, इस संदर्भ में वास्तविक किरदार तो तथाकथित प्राकृतिक किलर (NK) कोशिकाएं हैं। पहले NK कोशिकाओं के बारे में माना गया था कि ये ट्यूमर कोशिकाओं को मारती हैं, चाहे उनसे इनका संपर्क पहले कभी न हुआ हो। लेकिन हमने कहा था कि कैंसर से सुरक्षा संभवत: प्रतिरक्षा रक्षा तंत्र के विकास की प्रमुख चालक शक्ति नहीं रही है। तो सवाल है कि क्या NK कोशिकाएं संक्रमण के संदर्भ में कोई भूमिका निभाती हैं? जवाब है कि कम से कम कुछ वायरस संक्रमणों के मामले में इन कोशिकाओं की अनुपस्थिति का परिणाम ज़्यादा गंभीर व लंबे संक्रमण के रूप में सामने आता है। और NK कोशिकाएं वायरस-संक्रमित कोशिकाओं को उसी तरह से मारती हैं जैसे किलर CD8 टी-कोशिकाएं मारती हैं।

लेकिन हम कहते आए हैं कि किलर टी-कोशिकाओं को संक्रमित कोशिका की सतह पर पेप्टाइड्स से जुड़े एमएचसी वर्ग I के अणु को लक्ष्य के रूप में पहचानना होता है और यह इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि किलर टी-कोशिकाएं क्लोनल विविधता से बनती हैं। अब यदि NK कोशिकाएं क्लोनल एकरूप हैं तो वे किस तरह के आणविक लक्ष्य को पहचानती हैं?

यहां रणनीति यह होती है कि कोशिका की सतह पर कुछ ऐसे परिवर्तनों को भांपा जाए जो अधिकांश वायरस संक्रमणों में एक जैसे होते हैं। एक तरीका यह है कि जिन कोशिकाओं की प्रोटीन निर्माण मशीनरी का अपहरण हो गया है, उनके बारे में माना जाए कि वे संक्रमित हैं और उन्हें मरना चाहिए। सतह को देखकर कैसे पता चले कि किसी कोशिका की प्रोटीन मशीनरी खुद के प्रोटीन नहीं बना रही है?

एक तरीका है कुछ मार्कर प्रोटीन्स के स्तर का आकलन करना। ऐसा प्रतीत होता है कि NK कोशिकाएं सतह पर एमएचसी वर्ग I के अणुओं का स्तर देखती हैं। यदि स्तर ऊंचा है तो NK कोशिका उस कोशिका को ‘असामान्य’ चिंहित करके मार डालेंगी। इसका मतलब है कि NK कोशिकाओं को भी प्रशिक्षित करना होगा कि एमएचसी वर्ग I के अणुओं के किस स्तर को स्वीकार्य मानें। अर्थात चयन की प्रक्रिया क्लोनल एकरूप कोशिकाओं के संदर्भ में भी चलती है। दरअसल, इस बात के संकेत मिले हैं कि NK कोशिकाएं शायद पूरी तरह एकरूप नहीं होतीं बल्कि उनमें कुछ विविधता होती है। अलबत्ता यह विविधता शायद उस स्तर की नहीं है जैसी अनुकूली प्रतिरक्षा में पाई जाती है। अनुकूली प्रतिरक्षा में तो ऐसे कृत्रिम अणुओं को पहचानने की क्षमता भी होती है जो पहले कभी अस्तित्व में भी न रहे हों।

अगला सवाल यह है कि टी-कोशिकाओं का ऐसा अनंत खजाना कैसे बनाया जाता है।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 के दौरान फ्लू गायब हो गया

दुनिया भर में सार्स-कोव-2 वायरस के फैलने के बाद से इन्फ्लूएंज़ा के मामलों में अत्यधिक कमी देखी गई है। महामारी विज्ञानी बताते हैं कि कोरोनोवायरस के फैलाव को रोकने के लिए अपनाए गए सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों ने संभवत: फ्लू के फैलाव को थामने में भी मदद की है। इन्फ्लुएंज़ा का संक्रमण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में उसी तरह पहुंचता है जिस तरह कोविड-19 संक्रमण फैलता है, लेकिन सार्स-कोव-2 की तुलना में इन्फ्लूएंज़ा की प्रसार दर कम है।

पिछले साल इन्फ्लूएंज़ा के मामलों में विश्व भर में काफी कमी देखी गई थी और इस साल भी फ्लू के मामलों में यह कमी बरकरार है। मेयो क्लिनिक के ग्रेग पोलैंड बताते हैं कि वर्तमान में ना के बराबर फ्लू के मामले दर्ज हुए हैं। वर्ष 2020-21 में फ्लू के मौसम में अमेरिका में इन्फ्लूएंज़ा से लगभग 600 मौतें हुर्इं। जबकि सेंटर फॉर डीसीज़ कंट्रोल एंड प्रीवेंशन (सीडीसी) के अनुसार वर्ष 2019-20 में 22,000 मौतें और वर्ष 2018-19 में 34,000 मौतें फ्लू के कारण हुई थीं।

फ्लू से बचाव का टीका हर साल फ्लू वायरस के पिछले वर्ष के संस्करणों के आधार पर तैयार किया जाता है। इसलिए हमेशा यह संदेह बना रहता है कि नया टीका कितना कारगर होगा, फ्लू किस तरह फैलेगा। हमेशा की तरह इस बार भी डब्ल्यूएचओ ने फरवरी के अंत में फ्लू का टीका तैयार करने के लिए फ्लू वायरस के संस्करणों की सिफारिशें कर दी है। हालांकि, इन संस्करणों का चुनाव बहुत कम मामलों के आधार पर किया गया क्योंकि सामान्य वर्ष की तुलना में पिछले वर्ष फ्लू के मामले ही बहुत कम दर्ज हुए थे। वायरस का प्रसार जितना कम होता है, उत्परिवर्तित वायरस विकसित होने की संभावना भी उतनी कम होती है। इसलिए संभव है कि वर्ष 2021-22 में ये टीके अतिरिक्त प्रभावी साबित हों।

सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ फ्लू के प्रकोप में इस कमी से खुश हैं। लेकिन कुछ चिकित्सा अधिकारी इसकी प्रतिरक्षा सम्बंधी चिंता जताते हैं। यदि आने वाले कुछ वर्षों तक इन्फ्लूएंज़ा के मामलों में कमी बनी रहती है तो वर्तमान शिशुओं को इससे संक्रमित होकर कम उम्र में ही इसके खिलाफ प्रतिरक्षा विकसित करने का मौका नहीं मिलेगा। यह उनके लिए अच्छा या बुरा दोनों हो सकता है, और यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनके जीवनकाल में फ्लू वायरस के कौन से संस्करण घूम रहे हैं। बहरहाल, भविष्य में इन्फ्लुएंज़ा दुनिया को किस तरह प्रभावित करेगा यह तो वक्त ही बताएगा। (स्रोत फीचर्स)

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जानलेवा बीमारियों के विरुद्ध जंग में रुकावट बना कोविड

मार्च 2020 में भारत में तालाबंदी के बाद से टीबी जैसी जानलेवा बीमारी में प्रतिदिन रिपोर्टेड मामलों में 70 प्रतिशत की कमी देखी गई। एक ऐसी बीमारी जिससे प्रति वर्ष 14 लाख लोगों की मृत्यु होती है उसमें अचानक इतनी गिरावट आना हैरत की बात है। लेकिन वर्तमान में कोविड-19 के चलते चिकित्सा संसाधनों का फोकस टीबी के निदान तथा उपचार से हट गया है। ऐसे में टीबी के संचरण में वृद्धि होने की आशंका है क्योंकि टीबी निकट संपर्क से फैलता है और लोग घरों में बंद हैं।

इस वर्ष मार्च में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बयान जारी किया है कि वैश्विक स्तर पर टीबी का इलाज प्राप्त करने वालों की संख्या में 10 लाख से अधिक की गिरावट आई है। संगठन का अनुमान है कि पिछले वर्ष सामान्य से पांच लाख अधिक लोगों की टीबी से मौत हुई है।

कोविड-19 के कारण तालाबंदी से खसरा, पोलियो, मेनिन्जाइटिस और कई टीकाकरण अभियान भी रोक दिए गए। इस तरह से लाखों बच्चों पर जानलेवा रोगों का खतरा बढ़ गया है जिनको टीकाकरण से रोका जा सकता था। इस दौरान कई स्वास्थ्य सुविधाओं और स्वास्थ्य कर्मचारियों को महामारी से लड़ने के काम में लगाया गया। इसके साथ ही आवश्यक दवाओं और उपकरणों के आयात-निर्यात में भी विलंब हुआ और कोविड-19 के डर से सामान्य से कम लोग क्लीनिकों पर इलाज के लिए गए।    

वर्तमान में विश्लेषक ऐसी बीमारियों के प्रभाव का अनुमान लगा रहे हैं जिन्हें महामारी के दौरान अनदेखा किया गया है। इसके लिए शोधकर्ता कुछ अप्रत्यक्ष उपाय अपना रहे हैं। इनमें विशेष रूप से उन बच्चों की गणना की जा रही है जिनका टीकाकरण नहीं हुआ है या फिर निदान नहीं हो सका है या फिर कुछ मॉडलों का सहारा लिया जा रहा है। अनुमान है कि कोविड-19 के प्रत्यक्ष प्रभाव की तुलना में अधिक हानि इन बीमारियों की अनदेखी से होगी जो लंबे समय तक बनी रहेगी। सबसे अधिक प्रभावित गरीब देश होंगे जिनके स्वास्थ्य तंत्र पहले से ही नाज़ुक स्थिति में हैं।

टीबी की विस्फोटक स्थिति

पिछले वर्ष, वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक मौतों के लिहाज़ से कोविड-19 टीबी से आगे निकल गया। लेकिन कम और मध्यम आय वाले देशों में टीबी अभी भी सबसे आगे है। टीबी एक बैक्टीरिया से फैलता है जो फेफड़ों को संक्रमित करते हुए धीरे-धीरे पीड़ित की जान ले लेता है। देखा जाए तो विश्व भर में दो अरब लोगों में छिपा हुआ टीबी बैक्टीरिया उपस्थित है जिसे उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली नियंत्रित कर रही है। इनमें से 5-10 प्रतिशत व्यक्तियों में उनके जीवनकाल में टीबी के सक्रिय होने की संभावना है। हालांकि, 100 वर्ष पुराना बीसीजी टीका बच्चों में टीबी के गंभीर रूपों को विकसित होने से तो रोक सकता है लेकिन यह संक्रमण को रोकने में सक्षम नहीं है।          

टीबी से निपटने के लिए छह माह तक इलाज की आवश्यकता होती है। दवा-प्रतिरोधी किस्मों के मामलों में यह अवधि दो वर्ष तक हो सकती है। ऐसे में चिकित्सकों का ध्यान टीबी से हटकर कोविड-19 की ओर जाना काफी चिंताजनक है। वर्तमान महामारी के दौरान विश्व भर में संक्रामक श्वसन रोग से निपटने में सक्षम कुछ टीबी अस्पतालों को भी परिवर्तित कर दिया गया। क्लीनिक पहुंचने और दवाइयां खरीदने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। स्टॉप टीबी पार्टनरशिप और अन्य द्वारा विकसित मॉडल के अनुसार तीन माह की तालाबंदी के बाद यदि टीबी सेवाओं को सामान्य होने में 10 माह लगते हैं तो विश्व भर में 2020 से 2025 के दौरान टीबी के 63 लाख अतिरिक्त मामले हो सकते हैं और लगभग 14 लाख अतिरिक्त लोगों की मृत्यु हो सकती है।    

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वर्ष 2019 की तुलना में वर्ष 2020 में टीबी के 21 प्रतिशत (14 लाख) कम लोगों को स्वास्थ्य सेवा मिल पाई। इस आधार पर पांच लाख से अधिक लोगों की मृत्यु की आशंका है। हालांकि, भारत ने टीबी कार्यक्रमों को पुन:स्थापित करने का प्रयास किया है लेकिन पूर्व-कोविड समय की तुलना में 12 प्रतिशत कम मामलों का निदान कर पाया है।  

स्टॉप टीबी पार्टनरशिप के डिप्टी कार्यकारी निदेशक सुवानंद साहू के अनुसार ठोस प्रयासों और वित्तीय सहायता से टीबी सेवाओं पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों को कम किया जा सकता है। भारत में फिलहाल टीबी रोगियों को एक बार में एक माह की दवाइयां दी जा रही हैं ताकि उन्हें बार-बार क्लीनिक न जाना पड़े। पूर्व में स्वास्थ्य कार्यकर्ता रोगियों को प्रत्येक खुराक अपने सामने देते थे, यह काम अब वीडियो के माध्यम से किया जा रहा है। कुछ टीबी केंद्रों में कोविड-19 और टीबी दोनों के लिए ही परीक्षण किए जा रहे हैं। इसके अलावा सक्रिय मामलों को खोजने के लिए अस्पतालों में बैठकर प्रतीक्षा करने की बजाय समुदाय के बीच जाकर रोगियों की पहचान के प्रयास किए जा रहे हैं।

खसरा का खतरा

महामारी से पहले 2019 में वैश्विक स्तर पर खसरा के लगभग 8.7 लाख मामले थे। इसमें 2.1 लाख लोगों की मृत्यु भी हुई जिनमें अधिकांश बच्चे थे। यह कई दशकों का सर्वोच्च स्तर रहा। इसका कारण पैसे की कमी से जूझ रही स्वास्थ्य प्रणाली है जो सामान्य टीकाकरण और टीकाकरण अभियान को चलाने के लिए जूझती रही है। वास्तव में खसरा अत्यंत संक्रामक वायरस से फैलता है जिससे अतिसार, देखने या सुनने की क्षति, निमोनिया और मस्तिष्क ज्वर जैसी समस्याएं हो सकती हैं। कुपोषण के साथ मिलकर यह गरीब देशों के अनुमानित 3-6 प्रतिशत संक्रमित लोगों की जान ले लेता है। 

मार्च 2020 में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सभी सामूहिक टीकाकरण अभियानों पर रोक लगाने को कहना एक झटका था। अप्रैल तक कई देशों ने इन अभियानों को अचानक से रद्द या स्थगित कर दिया। हालांकि, संगठन ने कुछ सुरक्षात्मक नियमों के साथ इन्हें दोबारा शुरू करने का निर्देश दिया लेकिन 24 देशों में यह काम शुरू नहीं हो पाया है। वैज्ञानिकों को लगता है कि 2021 में यही स्थिति बनी रहेगी। 

देखा जाए तो अभी वैश्विक खसरा के मामले काफी कम हैं। 2020 में लगभग 89,000 मामले कम पाए गए। कुछ हद तक इसका कारण खसरा की निगरानी में कमी हो सकता है और यह भी हो सकता है कि 2019 में खसरा के बहुत अधिक मामलों के कारण प्राकृतिक प्रतिरक्षा निर्मित हो गई हो। लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार तालाबंदी के कारण यात्राओं पर प्रतिबंध और शारीरिक दूरी से खसरा वायरस के प्रसार में कमी आने की भी संभावना है।

फिर भी खसरा विशेषज्ञ इसे तूफान के पहले की शांति के रूप में देखते हैं। अभियानों में विलंब से खसरा का खतरा बढ़ता रहेगा। जिस प्रकार कोविड-19 प्रतिबंधों में ढील देने से वायरस पुन: फैल गया है उसी तरह से खसरा का वायरस भी असुरक्षित आबादी पर ज़ोरदार हमला कर सकता है। यदि देशों ने सावधानी नहीं बरती तो जल्दी ही एक बड़ा प्रकोप आ सकता है।   

इसका एक उदाहरण 2014-15 का इबोला प्रकोप है जिसके दौरान खसरा टीकाकरण को अनदेखा कर दिया गया था। सबसे अधिक प्रभावित देशों में से लाइबेरिया और गिनी में 2014 और 2015 में खसरा टीकाकरण में मासिक 25 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी। हालांकि टीकाकरण अभियान 2015 में फिर से शुरू कर दिए गए लेकिन फिर भी इन दो देशों में खसरा के हज़ारों मामले उभरे जो इबोला महामारी के खत्म होने के दो या तीन साल बाद तक जारी रहे।        

वर्तमान महामारी में इथियोपिया पहला ऐसा बड़ा देश है जिसने खसरा टीकाकरण के अभियान को जारी रखा है। कई अंतर्राष्ट्रीय संगठन इसे विश्व के अन्य देशों के लिए मॉडल के रूप में देखते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन को चाड में एक बड़े प्रकोप की आशंका है जबकि यहां जनवरी में टीकाकरण अभियान पुन: शुरू हो चुका है। अभी भी गिनी, गैबन, अंगोला और केन्या जैसे देश यदि इस वर्ष के मध्य तक टीकाकरण अभियान शुरू नहीं करते हैं तो इन्हें बड़ी महामारी झेलनी पड़ सकती है।   

पोलियो का झटका

तीन दशकों से चला आ रहा पोलियो उन्मूलन अभियान कोविड-19 महामारी से पहले ही पिछड़ रहा था और महामारी ने स्थिति को और बदतर बना दिया है। 2019 और 2020 में पाकिस्तान और अफगानिस्तान में प्राकृतिक पोलियोवायरस के स्थानीय मामलों में वृद्धि हुई। हालांकि, अफ्रीका प्राकृतिक पोलियोवायरस से तो मुक्त हो चुका है लेकिन टीका-जनित पोलियो के स्ट्रेन अभी भी वहां व्याप्त हैं। ऐसी दुर्लभ परिस्थिति तब बनी जब ओरल टीके में प्रयुक्त जीवित परंतु कमज़ोर वायरस उत्परिवर्तित होकर ऐसे स्ट्रेन में परिवर्तित हुआ जो बिना टीकाकृत समुदायों में फैल सकता है और लकवा से पीड़ित करने की क्षमता पा सकता है। पिछले वर्षों की तुलना में प्राकृतिक और टीका-जनित स्ट्रेन से लकवा के मामले काफी अधिक पाए गए हैं। 2019 में कुल 554 मामलों की तुलना में 2020 में 1216 मामले पाए गए। जो 2018 की तुलना में काफी अधिक थे।      

गौरतलब है कि पिछले वर्ष मार्च में जिनेवा स्थित ग्लोबल पोलियो इरेडिकेशन इनिशियेटिव (जीपीईआई) ने व्यापक टीकाकरण अभियानों को विराम देते हुए अपने निगरानी कार्यक्रमों और प्रयोगशालाओं को कोविड-19 के विरुद्ध लड़ाई में लगा दिया था। इस दौरान 28 देशों में 60 से अधिक अभियान स्थगित किए गए। इम्पीरियल कॉलेज लंदन के अध्ययन के अनुसार यदि इन अभियानों को पुन: शुरू नहीं किया जाता है तो पोलियो के मामलों में काफी तेज़ी से वृद्धि होगी। इस दौरान पाकिस्तान और अफगानिस्तान में प्राकृतिक पोलियोवायरस उन क्षेत्रों में भी फैल गया जो पूर्व में पोलियो मुक्त थे। फिर भी इन दोनों देशों में लकवे के कुल मामले 2019 में 176 से घटकर 2020 में 140 हो गए। लेकिन इस अंतराल में, पाकिस्तान में टीका-जनित पोलियोवायरस के कारण लकवे के मामले 2019 में 22 से बढ़कर 2020 में 135 हो गए। इस स्ट्रेन ने अफगानिस्तान में प्रवेश करते हुए लगभग 308 बच्चों को लकवे से ग्रसित कर दिया। यही स्ट्रेन अब ताज़िकिस्तान में देखा जा रहा है।  

अफ्रीका में विश्व स्वास्थ्य संगठन पोलियो उन्मूलन के समन्वयक पास्कल मकंदा के अनुसार टीका-जनित स्ट्रेन अफ्रीका में आसानी से फैल जाता है। वर्ष 2019 में कुल मामले 328 से बढ़कर 2020 में 500 से अधिक हो गए। इसके अलावा यह वायरस अफ़्रीकी महाद्वीप से कूदकर छह अन्य देशों में फैल गया जिससे प्रभावित देशों की कुल संख्या 18 हो गई। वैसे, एक नए टीके को पिछले वर्ष नवंबर में मंज़ूरी दी गई है जिसके परिणामों की प्रतीक्षा है।

वर्तमान में विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्राथमिकता पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तेज़ी से फैल रहे टीका-जनित पोलियोवायरस को रोकने के साथ-साथ प्राकृतिक पोलियोवायरस को भी खत्म करना है। फिलहाल सभी देशों में पोलियो टीकाकरण अभियानों को तेज़ करने के प्रयास चल रहे हैं। इसके अलावा जीपीईआई को उन्मूलन के प्रयासों से जुड़ी समस्याओं से भी निपटना होगा। पाकिस्तान में टीके की सुरक्षा से जुड़ी अफवाहों के कारण पोलियो कार्यकर्ताओं की हत्या तक कर दी गई जबकि अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा पोलियो टीकाकरण पर प्रतिबंध लगाने से लगभग 33 लाख बच्चों को टीका नहीं लग पाया। इन दिनों अफ्रीका में अफवाह आम है कि पोलियो टीकाकरण अभियान का उपयोग करते हुए अफ्रीकी बच्चों पर गिनी पिग के रूप में कोविड-19 टीकों का परीक्षण किया जा रहा है। 

फिर भी वैज्ञानिकों का मानना है कि टीकाकरण अभियानों को पुन: शुरू करने से पिछले कुछ महीनों में काफी गिरावट आई है। अभी के लिए, कई देशों का ध्यान पूर्ण रूप से कोविड-19 की ओर है जबकि खसरा, पोलियो और टीबी को ठंडे बस्ते में डाला हुआ है। इथियोपिया और भारत जैसे देश पहले से ही इन समस्याओं पर कार्य कर रहे हैं। वैज्ञानिक भी इन समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करने की उम्मीद रखते हैं क्योंकि इन बीमारियों से सम्बंधित मामले और मौतें कोविड-19 से भी अधिक हैं। बहरहाल जब महामारी को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है और कोविड-19 टीके अभी जारी ही हुए हैं, इन बीमारियों को बड़े स्तर पर अनदेखा किया जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रतिरक्षा व्यवस्था और शरीर की हिफाज़त – 2 – विनीता बाल और सत्यजीत रथ

परजीवी और प्रतिरक्षा तंत्र की जुगलबंदी

फल घुसपैठ के लिए परजीवी अलग-अलग रणनीतियों का इस्तेमाल करते हैं। तो इन रणनीतियों का जवाब देने के लिए प्रतिरक्षा तंत्र को किस तरह से काम करना पड़ता है?

क्या शरीर में परजीवियों के अलग-अलग अड्डे हैं?

पिछले लेख में हमने कहा था कि लक्ष्य को पहचान लेने के बाद प्रतिरक्षा तंत्र को परजीवियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली विविध रणनीतियों के जवाब में अपनी रणनीतियों को भी निर्धारित करना होता है। तो सवाल यह उठता है कि क्या परजीवियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली रणनीतियों को कुछ प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है? उसी से यह तय होगा कि प्रत्युत्तर के उपलब्ध प्रकार क्या होंगे। और इस सवाल का जवाब है – हां, मोटे तौर पर रणनीतियों के प्रकार पहचाने जा सकते हैं।

आवास-भोजन के अड्डे

याद कीजिए कि हमने पिछले हिस्से में यह बात की थी कि बहुकोशिकीय जीवों में श्रम विभाजन के चलते पौष्टिक पर्यावरण मौजूद होता है। ऐसे परिवेश में मुफ्तखोरों के लिए कितने संभव अड्डे (पारिस्थितिक निशे) पहचाने जा सकते हैं? ज़ाहिर है, पहला तो पोषण का वह समंदर स्वयं है जो सारी कोशिकाओं के आसपास भरा होता है। कोई परजीवी मज़े से इस तालाब में पड़ा रह सकता है और निशुल्क भोजन प्राप्त करके जीवनयापन कर सकता है। कई बैक्टीरिया संक्रमण (जैसे निमोनिया पैदा करने वाला न्यूमोकॉकस या मुहांसे पैदा करने वाला स्टेफिलोकॉकस) इसी कोशिका-बाह्य रणनीति का इस्तेमाल करते हैं। ये कोशिकाओं को भूखा मार देते हैं और ऐसा कचरा उत्पन्न करते हैं जो कोशिकाओं के ‘वातावरण’ को विषैला कर देता है।

कोशिका के अंदर के अड्डे

कशेरुकी जंतुओं के शरीर में लुटेरों के लिए दूसरा पारिस्थितिक निशे कोशिकाओं के बीच की जगह में नहीं बल्कि उनके अंदर होता है। बहु-कोशिकीय जीवों की कोशिका रचना के मद्देनज़र इस रणनीति में दो मुख्य प्रकार संभव हैं।

कोशिका के अंदर जाकर परजीवी उसके अलग-अलग अंगकों में बस सकता है। ये अंगक शेष कोशिका से झिल्ली के द्वारा पृथक रहते हैं। या फिर वे इन झिल्लियों की बाधा को पार करके सीधे कोशिका द्रव्य में अड्डा जमा सकते हैं।

अंगकों में अड्डा

परजीवियों के लिए कोशिकीय अंगकों में प्रवेश पाना आसान है – कोशिकाएं अपने नियमित रख-रखाव की प्रक्रिया के दौरान अपनी कोशिका झिल्ली को बदलती रहती हैं। इस प्रक्रिया में पुरानी झिल्ली का टुकड़ा एक बुलबुले के रूप में कोशिका के अंदर ले लिया जाता है। उस स्थान पर नई झिल्ली बन जाती है और पुरानी झिल्ली को ठिकाने लगाने के लिए भेज दिया जाता है। इस प्रकिया में उस बुलबुले के साथ थोड़ा बाहरी तरल पदार्थ कोशिका के अंदर पहुंच जाता है। इस प्रक्रिया को पिनोसायटोसिस (कोशिका-पायन) कहते हैं। परजीवी को बस इतना करना है कि जब यह बुलबुला बने तब झिल्ली पर उसी जगह पर बैठा रहे और बुलबुले (पिनोसोम) में प्रवेश कर जाए। बाकी काम कोशिका कर ही देगी यानी वह बुलबुला कोशिका के कचरा निपटान अंगक में पहुंचा दिया जाएगा। इस प्रक्रिया में वे अंगक सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं जिनके ज़रिए पिनोसोम का परिवहन किया जाता है। वैसे कोई कण (जैसे बैक्टीरिया) इस बुलबुले में हो तो यह बुलबुला काफी बड़ा हो जाता है और इसे पिनोसोम की बजाय फैगोसोम कहते हैं। इन दोनों का एक नाम एंडोसोम भी है। तो बैक्टीरिया वगैरह एंडोसोम में सवारी करके कोशिका के अंगक में पहुंच जाते हैं।

ऐसे कीटाणु कभी-कभी कोशिका की झिल्ली पर आणविक खरोंच मारकर ऐसे एंडोसोम का बनना प्रेरित भी कर सकते हैं। यानी कोशिका के एंडोसोम में दाखिल होना कीटाणुओं के लिए खेल जैसा ही है।

लेकिन जैसा कि ऊपर कहा गया एंडोसोम की अंतिम मंज़िल तो कचरा निपटान व्यवस्था है – अर्थात ये एंडोसोम जाकर एक अंगक लायसोसोम से जुड़ जाते हैं जिसमें खूब सारे एंज़ाइम भरे होते हैं। यह कोशिका के अंदर ठिकाना ढूंढने आए किसी भी परजीवी के लिए अच्छी बात नहीं होगी। इसलिए यह रणनीति अपनाने वाले परजीवियों के लिए इस दुखांत से निपटने की रणनीति बनाना ज़रूरी होगा। और यह काम वे कई तरह से करते हैं।

उनमें से कुछ हैं (जैसे टीबी का कीटाणु) जो इतना मोटा और वसीय आवरण ओढ़ लेते हैं कि एंज़ाइम्स उन तक पहुंच ही नहीं पाते और वे मज़े में इस कहावत को चरितार्थ करते हैं – कुत्ते भौंकते रहते हैं हाथी चलता रहता है। टायफॉइड के कीटाणु जैसे कुछ अन्य हैं, जो उस बुलबुले पर कब्ज़ा कर लेते हैं और या तो उसका रास्ता बदल देते हैं अथवा संघटन बदल देते हैं ताकि वह लायसोसोम के साथ जुड़ ही न पाए। इस तरह वे नष्ट होने से बच जाते हैं। एक तीसरा विकल्प भी है जिसे पेचिश के कीटाणु जैसे कीटाणु अपनाते हैं – वे उस बुलबुले में एक छेद करके बाहर निकलकर कोशिका द्रव्य में पहुंच जाते हैं।

ऐसे चतुर घुसपैठियों का सबसे अधिक खतरा किन कोशिकाओं के लिए होता है? ज़ाहिर है, सबसे अधिक खतरा उन कोशिकाओं को होता है जो भक्षण करना पसंद करती हैं, जिन्हें सामान्यत: फैगोसाइट्स कहते हैं। और विडंबना यह है कि इन्हीं फैगोसाइट्स को यह ज़िम्मेदारी सौंपी गई है कि वे घुसपैठियों को तलाश करें और खा जाएं। अधिकांश घुसपैठिए तो आसानी से खाए जाकर पच जाते हैं। लेकिन ऊपर हमने जिन चकमा तरकीबों की बात की, उनके दम पर कुछ परजीवी इन कोशिकाओं को परास्त करके उन्हें ही संक्रमित कर देते हैं। हालांकि फैगोसाइट कोशिकाओं में पोलीमॉर्फोन्यूक्लियर न्यूट्रोफिलिक और इस्नोफिलिक ग्रेनुलोसाइट्स (रक्त में उपस्थित) के नाम भी शामिल हैं लेकिन ये कोशिकाएं अल्पजीवी होती हैं और इन्हें संक्रमित करने से परजीवी को पनाह पाने में कोई खास मदद नहीं मिलती। इस तरह से संक्रमित होने वाली कोशिकाओं में मोनोसाइट-मैक्रोफेज समूह की कोशिकाएं प्रमुख हैं और हम आगे देखेंगे कि मेज़बानों ने ऐसी रणनीतियां विकसित की हैं जो मैक्रोफेज को इन घुसपैठियों से लड़ने में मदद करती हैं।

कोशिका द्रव्य में अड्डे

ऊपर हमने जिन दो अड्डों (कोशिकाओं के बाहर और कोशिका के अंदर) की बात की उनका उपयोग बैक्टीरिया, प्रोटोज़ोआ अथवा फफूंद जैसे स्वतंत्र-जीवी जीव करते हैं। ये जीव किसी कोशिका के अंदर रहते हुए भी सिर्फ पनाह और भोजन की तलाश में होते हैं। अत: ये विकल्पी अंतरा-कोशिका परजीवी हैं – अर्थात इन्हें जीवित रहने के लिए कोशिका के अंदर रहना ज़रूरी नहीं है। उदाहरण के लिए, इन्हें कोशिका से बाहर पोषक माध्यम में पनपाया जा सकता है।

बहरहाल, परजीवियों का एक समूह ऐसा भी है जिसने मुफ्तखोरी की कला को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया है – ये तभी ‘जीवित’ होते हैं जब इन्हें कोई कोशिका मिल जाए। ये वायरस हैं जो अनिवार्य रूप से अंतरा-कोशिकीय परजीवी हैं। ये तब तक लगभग अक्रिय कणों के रूप में पड़े रहते हैं जब तक कि वे किसी कोशिका में न घुस जाएं। लेकिन एक बार कोशिका में घुस जाएं, तो ये मेज़बान कोशिका की जीवन प्रक्रियाओं पर कब्ज़ा कर लेते हैं और उनका उपयोग नए वायरस बनाकर मुक्त करने के लिए करने लगते हैं ताकि वे अन्य कोशिकाओं को संक्रमित कर सकें। इस दौरान वे मेज़बान कोशिका को नुकसान पहुंचाते हैं। लिहाज़ा वे चाहे सीधे कोशिका झिल्ली के ज़रिए प्रवेश करें या फैगोसोम के ज़रिए प्रवेश करें, वायरस झिल्ली में छेद करके कोशिका द्रव्य में पहुंच जाते हैं। कोशिका द्रव्य में पहुंचकर वे मेज़बान कोशिका की प्रोटीन-निर्माण मशीनरी पर नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं। कुछ वायरस ढेर सारे वायरस कण बनाते हैं और कोशिका को फोड़कर उन्हें मुक्त कर देते हैं। अन्य वायरस नए-नए वायरस कण बनाकर उन्हें मेज़बान कोशिका की झिल्ली से मुकुलन के ज़रिए एक-एक करके बाहर भेजते रहते हैं। इस मामले में मेज़बान कोशिका अंदर से तहस-नहस होकर तिल-तिल करके मरती है।

तो इन रणनीतियों से प्रतिरक्षा तंत्र कैसे निपटता है।

कोशिका-बाह्य स्थान की सुरक्षा

चलिए परजीवियों की एक-एक रणनीति पर चर्चा करते हैं। जो कीटाणु कोशिका के बाहर उपस्थित पोषक तालाब में रहते हैं, उनके लिए यह तरीका कारगर रहेगा कि कुछ अणु बनाए जाएं तो रक्त परिसंचरण में तैरते रहें और कीटाणुओं को पहचानकर उन पर जानलेवा हमला कर दें। यह तरीका काफी बढ़िया है और अकशेरुकी जंतुओं में भी काम करता है। स्तनधारियों में ऐसे अणुओं में एक्यूट-फेज़ प्रोटीन्स, कॉम्प्लीमेंट, एंटीबॉडीज़ और कुछ अन्य तत्व शामिल होते हैं। ये सब कीटाणु की सतह पर उपस्थित किसी चीज़ की पहचान करते हैं, उससे जुड़ जाते हैं और या तो स्वयं ही उसे मार डालते हैं अथवा अन्य अणुओं/कोशिकाओं (जैसे फैगोसाइट्स) की मदद लेते हैं ताकि कीटाणु को खत्म किया जा सके।

संक्रमित बुलबुले या कोशिकाएं

दिक्कत यह है कि कोशिका-बाह्य तरल में विचरते उपरोक्त प्रतिरक्षा अणु कोशिकाओं के अंदर नहीं जा सकते क्योंकि कोशिकाओं में बाहर से अंदर और अंदर से बाहर के यातायात को सख्ती से नियंत्रित किया जाता है। लिहाज़ा, कोशिका-अंतर्गत परजीवी अपने सुरक्षित स्वर्ग में बैठकर बाहर विचरते प्रतिरक्षा अणुओं का मुंह चिढ़ाते रहते हैं। इन ओझल खतरों के बारे में शरीर क्या करे?

यदि ये परजीवी मैक्रोफेज के अंदर एंडोसोम में विराजमान हैं, तो शरीर संक्रमित कोशिकाओं पर इनके पदचिंहों की मदद से इन्हें पहचान सकता है और फिर ‘हेल्पर’ कोशिकाएं संक्रमित मैक्रोफेज को निर्देश दे सकती हैं कि वह अपने एंडोसोम का परिवहन तेज़ कर दे और अपने एंज़ाइमी शस्त्रों को इस तरह बढ़ाए कि परजीवी की शामत आ जाए।

लेकिन यह तरीका भी तभी कारगर होगा जब परजीवी अंगक बुलबुले में बैठा हो। मेज़बान कोशिका उस बुलबुले की कुर्बानी दे सकती है और साथ में परजीवी की भी। नए अंगक तो देर सबेर बन ही जाएंगे। लेकिन यदि परजीवी कोशिका द्रव्य में बैठा है, तो कोशिका लाचार हो जाती है – उसे परजीवी के साथ-साथ अपना कोशिका द्रव्य भी नष्ट करना होगा। इसका मतलब तो हाराकिरी होगा। यहां अधिक से अधिक की भलाई का सिद्धांत अपनाया जाता है और पहचानी गई संक्रमित कोशिका को परजीवी को नष्ट करने में मदद की बजाय दोटूक निर्देश दिया जाता है कि वह खुद मर जाए। दरअसल, अधिकांश कोशिकाओं में खुदकुशी का एक जेनेटिक निर्देश पत्र उपस्थित होता है। इसे पूर्व-निर्धारित कोशिका मृत्यु या एपोप्टोसिस कहते हैं।

हालांकि अपनी ही कोशिका को मारना थोड़ा अतिवादी कदम लगता है लेकिन कोशिका द्रव्य के संक्रमण के अंतिम अवशेष खत्म करने के लिए प्राय: इस उपाय को अपनाया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी कोशिका में संख्यावृद्धि करते वायरस कण उस कोशिका को फोड़कर बाहर निकलकर अन्य कोशिकाओं को संक्रमित करने वाले हैं, तो शायद एंटीबॉडी व अन्य अणुओं के लिए यह संभव तो है कि वे इन कणों को कैद करके अन्य कोशिकाओं तक न पहुंचने दे। लेकिन किसी भी संक्रमित कोशिका से बड़ी संख्या में वायरस निकलेंगे और यदि एक भी वायरस प्रतिरक्षा अणुओं से छूट गया तो वह पूरा चक्र फिर से शुरू कर देगा। इसके अलावा, कुछ वायरस संक्रमित कोशिका को नष्ट नहीं करते बल्कि उसकी सतह से एक-एक, दो-दो करके वायरस छोड़ते रहते हैं। इसका मतलब होगा कि बाहर एंटीबॉडी उन्हें खत्म करती जाएंगी और अंदर का भंडार बना रहेगा, धीरे-धीरे वायरस छोड़ता रहेगा। ऐसी स्थिति में एकमात्र कारगर तरीका यह लगता है कि संक्रमित कोशिका को पहचान कर मार दिया जाए, इसके पहले कि नए वायरस कण परिपक्व होकर बाहर निकल पाएं। ऐसे में यदि कोशिका मरती है तो संक्रमण बाहर नहीं आएगा। आगे हम बात करेंगे कि प्रतिरक्षा तंत्र संक्रमित कोशिकाओं को पहचानने के कौन-से तरीके इस्तेमाल करता है।

फिलहाल यही कह सकते हैं कि प्रतिरक्षा तंत्र को मुख्य रूप से यह चिंता करनी है कि तरल पदार्थ में तैरते-विचरते ‘टर्मिनेटर’ अणु कैसे बनाए जाए, संक्रमित मैक्रोफेज को पहचानकर उन्हें सक्रिय करने के लिए हेल्पर कोशिकाएं कैसे बनाए और मारक कोशिकाएं कैसे बनाए जो संक्रमित कोशिकाओं को पहचानकर उन्हें खुदकुशी करने का फरमान सुनाएं। क्लोनल एकरूप और क्लोनल विविधरूपी, दोनों तरह की लक्ष्य-पहचान क्रियाविधियों में इन तीनों के तरीके विकसित हुए हैं हालांकि दोनों की लक्ष्य पहचान की रणनीतियां बहुत अलग-अलग हैं।

अगले अंक में यह चर्चा करेंगे कि आखिर प्रतिरक्षा तंत्र नीली छतरी के नीचे हर चीज़ को कैसे पहचान पाता है। यह फैसला तो और मुश्किल होता है कि इनमें से किस रास्ते को सक्रिय किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी पर कुल कितने टी. रेक्स हुए?

जुरासिक पार्क फिल्म ने टी. रेक्स को घर-घर में पहुंचा दिया लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि कुल मिलाकर कितने टायरेनोसॉरस रेक्स (टी. रेक्स) पृथ्वी पर हुए होंगे? साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि 20 लाख सालों के अस्तित्व के दौरान कुल मिलाकर तकरीबन ढाई अरब टी. रेक्स इस पृथ्वी पर रहे होंगे।

यह तो हम जानते ही हैं कि टी. रेक्स के जीवाश्म दुर्लभ हैं, लेकिन सवाल था कि कितने दुर्लभ? और यह पता लगाने के लिए यह पता होना ज़रूरी है कि वास्तव में पृथ्वी पर कितने टी. रेक्स जीवित रहे थे।

इसलिए कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के जीवाश्म विज्ञानी चार्ल्स मार्शल और उनके साथियों ने पहले क्रेटेशियस काल के दौरान पृथ्वी रहने वाले टी. रेक्स की संख्या पता लगाई। ऐसा उन्होंने आधुनिक जीवों की गणना के लिए इस्तेमाल की जाने वाली विधि की मदद से किया। इसमें किसी जीव के शरीर के द्रव्यमान और जिस भौगोलिक क्षेत्र में वे रहते हैं उसके फैलाव के आधार पर उनके जनसंख्या घनत्व का अनुमान लगाया जाता है। पारिस्थितिकी के डेमथ के नियम के अनुसार किसी जीव के शरीर का द्रव्यमान जितना अधिक होगा, उस प्रजाति का औसत जनसंख्या घनत्व उतना कम होगा। यानी जितना बड़ा जानवर होगा, कुल संख्या उतनी ही कम होगी। जैसे, किसी एक क्षेत्र में चूहों की तुलना में हाथी कम संख्या में होंगे।

शोधकर्ताओं ने पहले तो वर्तमान उत्तरी अमेरिका में टी. रेक्स के कुल फैलाव क्षेत्र का अनुमान लगाया, फिर इन आंकड़ों को टी. रेक्स के शरीर के द्रव्यमान के साथ रखकर गणना की और पाया कि किसी एक कालखंड में लगभग 20,000 टी. रेक्स पृथ्वी पर जीवित रहे होंगे। यानी उस कालखंड में कैलिफोर्निया के बराबर क्षेत्र में लगभग 3800 टी. रेक्स रहे होंगे, या वाशिंगटन डीसी बराबर क्षेत्र में महज़ दो टी. रेक्स विचरण करते होंगे।

गणना कर उन्होंने पाया कि विलुप्त हो चुके टी. रेक्स की लगभग 1,27,000 पीढ़ियां पृथ्वी पर जीवित रही थीं। इस आधार पर उन्होंने अनुमान लगाया कि पूरे अस्तित्व काल के दौरान पृथ्वी पर लगभग ढाई अरब टी. रेक्स थे। और इनमें से केवल 32 वयस्क टी. रेक्स अश्मीभूत अवस्था में मिले हैं; यानी आठ करोड़ टी. रेक्स में से सिर्फ एक टी. रेक्स जीवाश्म मिला है। इससे पता चलता है कि अश्मीभूत होने की संभावना बहुत कम है, यहां तक कि बड़े मांसाहारी जीवों के लिए भी।

आंकड़े के अनुसार जीवाश्म मिलना दुर्लभ है। जब टी. रेक्स जैसे अधिक संख्या में पाए जाने वाले जीवों के जीवाश्म इतनी कम संख्या में हैं तो वे प्रजातियां जो टी. रेक्स की तुलना में बहुत कम संख्या में रही होंगी वे तो शायद ही संरक्षित हो पाई होंगी। और पूर्व में पृथ्वी पर क्या था उसका एकदम सीधा प्रमाण तो जीवाश्म ही देते हैं।

अन्य शोधकर्ताओं का सुझाव है कि जीवित प्रजातियों पर इस तरह की गणना करके देखना चाहिए कि ये अनुमान कितने सटीक हैं। इसके अलावा, मैमथ, निएंडरथल और खूंखार भेड़ियों जैसी विलुप्त प्रजातियों, जिनके जीवाश्म प्रचुरता से उपलब्ध हैं, उनका तुलनात्मक अध्ययन करके पूर्व के पारिस्थितिक तंत्र को भी बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टेरोसौर की गर्दन को स्पोक का सहारा

गभग 10 करोड़ साल पहले आधुनिक समय के मोरक्को में विशालकाय उड़ने वाले सरीसृप, टेरोसौर, रहा करते थे। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि बड़े जबड़े और जिराफ जैसी सुराहीदार गर्दन वाले टेरोसौर का भोजन मछली, छोटे स्तनधारी और शिशु डायनासौर होते थे। लेकिन यह एक पहेली थी कि उनकी गर्दन अपने भारी-भरकम शिकार का वज़न उठाते चटकती क्यों नहीं थी। अब, एक नए अध्ययन में पता चला है कि उनकी हड्डियों के अंदर स्पोकनुमा जटिल संरचना होती थी जो गर्दन को मज़बूती और स्थिरता प्रदान करती थी।

मोरक्को और अल्जीरिया की सीमा के पास जीवाश्मों से समृद्ध स्थल केम केम क्यारियों में लगभग 10 करोड़ वर्ष पुराना टेरोसौर का एक जीवाश्म मिला था, जो काफी अच्छी तरह संरक्षित था। इसे अज़दारचिड टेरोसौर नाम दिया गया। ये टेरोसौर पृथ्वी पर रहे विशालकाय उड़ने वाले जीवों में से थे। इनके पंख 8 मीटर लंबे और गर्दन 1.5 मीटर लंबी थी। वैज्ञानिकों के बीच हमेशा यह सवाल रहा कि इतनी असामान्य शरीरिक रचना के साथ टेरोसौर किस तरह शिकार करते होंगे, चलते और उड़ते होंगे?

युनिवर्सिटी ऑफ पोर्ट्समाउथ के जीवाश्म विज्ञानी निज़ार इब्रााहिम और उनके साथियों ने अज़दारचिड टेरोसौर की रीढ़ की हड्डी की आंतरिक संरचना का अध्ययन किया। एक्स-रे कम्प्यूटेड टोमोग्राफी और 3-डी मॉडलिंग करने पर उन्होंने पाया कि उनकी रीढ़ की हड्डी में दर्जनों एक-एक मिलीमीटर मोटी कीलनुमा रचनाएं (ट्रेबिकुले) थीं। इन कीलों की जमावट एक-दूसरे को क्रॉस करते हुए इस तरह थी जिस तरह साइकिल के पहिए के स्पोक होते हैं। और ये रचनाएं रीढ़ की हड्डी में केंद्रीय नलिका को घेरे हुए थीं।

गणितीय मॉडलिंग कर शोधकर्ताओं ने जांचा कि क्या वास्तव में ये स्पोकनुमा रचनाएं हड्डियों को अतिरिक्त सहारा देती होंगी। iScience पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि कम से कम 50 ट्रेबिकुले रीढ़ की हड्डी की वज़न सहन करने की क्षमता को दुगना कर देते हैं। शोधकर्ता यह भी बताते हैं कि उक्त टेरोसौर की गर्दन 9 से 11 किलोग्राम तक का वज़न उठा सकती थी।

शिकार को पकड़ने और उठाने में सहायता करने के अलावा ये स्पोकनुमा रचनाएं टेरोसौर की गर्दन को उड़ान के दौरान पड़ने वाले तेज़ हवाओं के थपेड़ों का सामना करने और प्रतिद्वंदी नर साथी के प्रहार झेलने में भी मदद करती थीं।

वैज्ञानिकों का यह अनुमान तो था कि अज़दारचिड टेरोसौर बड़े शिकार पकड़ सकते थे लेकिन हड्डी की आंतरिक संरचना की जानकारी का उपयोग कर इस परिकल्पना की पुष्टि पहली बार की गई है। अन्य शोधकर्ताओं का सुझाव है कि अन्य टेरोसौर की गर्दन की हड्डियों का अध्ययन करके इन नतीजों की पुष्टि की जानी चाहिए।

उक्त शोधकर्ता भी यही करना चाहते हैं लेकिन दिक्कत यह है कि टेरोसौर की हड्डियों के भलीभांति सुरक्षित जीवाश्म दुर्लभ हैं। बहरहाल, शोधकर्ताओं का इरादा है कि महामारी खत्म होने के बाद जीवाश्मों से समृद्ध स्थलों पर ऐसे जीवाश्म तलाश करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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सूक्ष्मजीवों की मेहरबानी है चॉकलेटी स्वाद

च्चे ही नहीं हर उम्र के लोग चॉकलेट के शौकीन होते हैं। लेकिन शायद ही इसके शौकीनों को यह मालूम होता है कि चॉकलेट में यह स्वाद किण्वन के कारण आता है, जिसे सूक्ष्मजीव अंजाम देते हैं।

पेरू से लेकर बेल्जियम तक दुनिया भर की तमाम चॉकलेट प्रयोगशालाओं के स्व-घोषित चॉकलेट विज्ञानी यह समझने की कोशिश में हैं कि किण्वन चॉकलेट के स्वाद को कैसे बदलता है। इसके लिए कभी वे प्रयोगशाला में कृत्रिम किण्वन करते हैं, तो कभी प्रकृति में किण्वित ककाओ बीन के नमूनों का अध्ययन करते हैं। और प्रयोगशाला में चॉकलेट के कई नमूने तैयार कर वालंटियर्स से उनका स्वाद पूछते हैं।

इस तरह कई दशकों के अध्ययन के बाद शोधकर्ताओं ने ककाओ के किण्वन के बारे में बारीकी से जानकारी हासिल की है, और इस किण्वन में शामिल और चॉकलेट का स्वाद और गुणवत्ता बढ़ाने वाले सूक्ष्मजीवों के बारे में पता लगाया है।

चॉकलेट जिन बीजों से बनकर तैयार होती है उसके रग्बी फुटबॉल नुमा फल थियोब्राोमा ककाओ (Theobroma cacao) नामक पेड़ के तने पर लगते हैं। पेड़ों से तोड़कर इन चमकीले रंग के फलों को खोलकर अंदर से उनका गूदा और बीज निकाल कर अलग कर लिए जाते हैं। बीजों को बीन्स कहते हैं। इसके बाद उपचार के चरण में बीन्स को तीन से 10 दिन तक किण्वन के लिए छोड़ा जाता है। किण्वन होने के बाद इन्हें धूप में सुखाया जाता है और सूखे हुए बीन्स को भुना जाता है। इन्हें चीनी और कभी-कभी सूखे दूध के साथ इतना महीन होने तक पीसा जाता है कि मुंह में रखने पर दोनों के कण अलग-अलग महसूस न हों। इस रूप में आने के बाद यह मिश्रण चॉकलेट बार, चॉकलेट चिप्स या अन्य किसी भी रूप में चॉकलेट के उत्पाद बनाने के लिए तैयार होता है।

उपचार के चरण में बीन्स में कुदरती रूप से किण्वन होता है। वास्तव में चॉकलेट के स्वाद के लिए सैकड़ों तरह के यौगिक ज़िम्मेदार होते हैं, इनमें से कई यौगिक किण्वन की प्रक्रिया के दौरान ही बनते हैं और बेस्वाद बीन्स को चॉकलेटी स्वाद देते हैं।

ककाओ का किण्वन कई चरणों में होता है। किण्वन के लिए खमीर का उपयोग किया जाता है, इसमें कई बार बीयर और वाइन के किण्वन के लिए उपयोग किए जाने वाले खमीर का भी उपयोग किया जाता है। ककाओ के किण्वन के दौरान खमीर बीन्स से चिपके शर्करा पल्प को पचाकर एल्कोहल का निर्माण करते हैं। नतीजतन स्वाद प्रदान करने वाले एस्टर और फूल की खुशबू वाले एल्कोहल बनते हैं, जो ककाओ बीन्स द्वारा सोख लिए जाते हैं और अंत तक चॉकलेट में मौजूद रहते हैं।

जब बीन्स से चिपका गूदा विघटित होने लगता है तो उसमें ऑक्सीजन प्रवेश करती है। ऑक्सीजन के प्रवेश करने पर वहां ऑक्सीजन-प्रेमी बैक्टीरिया की संख्या बढ़ने लगती है और खमीर की आबादी में कमी आने लगती है। इन ऑक्सीजन-प्रेमी बैक्टीरिया को एसिटिक एसिड बैक्टीरिया के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि ये खमीर द्वारा बनाए गए एल्कोहल को एसिटिक एसिड में परिवर्तित करते हैं।

बैक्टीरिया द्वारा बनाया गया यह एसिड भी बीन्स द्वारा सोख लिया जाता है, जो बीजों में जैव-रासायनिक परिवर्तन लाता है। इसकी वजह से वसा एकत्रित होने लगती है। कुछ एंज़ाइम प्रोटीन को छोटे-छोटे पेप्टाइड्स में तोड़ देते हैं, जो भुनने के दौरान ‘चॉकलेटी’ महक देते हैं। कुछ अन्य एंज़ाइम ऑक्सीकरण-रोधी पोलीफेनॉल, जिसके लिए चॉकलेट प्रसिद्ध है, को तोड़ देते हैं। नतीजतन, इसकी खासियत के विपरीत, अधिकांश चॉकलेट में बहुत कम पोलीफेनॉल्स होते हैं, किसी-किसी चॉकलेट में तो पोलीफेनॉल्स होते ही नहीं।

एसिटिक एसिड बैक्टीरिया द्वारा रोक दी गई प्रक्रियाओं के कारण चॉकलेट के स्वाद पर बड़ा असर पड़ता है। इन एसिड के कारण ही अत्यंत कड़वे, गहरे बैंगनी रंग के पोलीफेनॉल अणु मद्धम स्वाद वाले, भूरे रंग के ओ-क्विनोन रसायन में बदलते हैं। और इसी जगह आकर ककाओ बीन्स कड़वे स्वाद से एक समृद्ध और चॉकलेटी स्वाद में आ जाते हैं। स्वाद के साथ-साथ रंग में भी परिवर्तन आता है और लाल-बैंगनी रंग के बीन्स भूरे रंग के हो जाते हैं, यानी चॉकलेट यहां अपना रंग पाती है। अंत में, एसिड धीरे-धीरे वाष्पित हो जाते हैं और शर्करा उपयोग हो जाती है। फिर अन्य सूक्ष्मजीव जैसे कवक और बेसिलस बैक्टीरिया अपना काम शुरू करते हैं।

चॉकलेट बनने में सूक्ष्मजीव जितने अहम होते हैं, कभी-कभी वे चॉकलेट का उतना ही नाश भी कर डालते हैं। बेसिलस बैक्टीरिया की संख्या में अत्यधिक वृद्धि चॉकलेट को बासा और बेकार स्वाद देती है।

ककाओ के किण्वन के लिए किसान प्राकृतिक सूक्ष्मजीवों पर निर्भर होते हैं ताकि चॉकलेट को अपना अनूठा और स्थानीय स्वाद मिले। इसे ‘टेरोइर’ कहा जाता है: यानी किसी स्थान के कारण आने वाली विशेषता या स्वाद। ठीक अंगूर के किण्वन की तरह, ककाओ के मामले में भी स्थानीय सूक्ष्मजीव किसान के अपने अनूठे तरीके के साथ मिलकर चॉकलेट को स्थानीय विशेषता और भिन्न स्वाद प्रदान करते हैं।

यदि आप चॉकलेट के इतने अलग-अलग स्वादों से महरूम हैं तो कभी इनका भी आंनद लीजिए और सूक्ष्मजीवों की इस मेहनत को भी दाद दीजिए। (स्रोत फीचर्स)

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तितलियां कपास का अतिरिक्त परागण करती हैं

ह तो हम सब जानते हैं कि मधुमक्खियां बहुत ही अच्छी परागणकर्ता होती हैं। बादाम और सेब जैसी फसलों के लिए वे परागणकर्ता के रूप में बहुत महत्वपूर्ण भी हैं। लेकिन जब कपास की फसल की बात आती है तो इसमें तितलियां अप्रत्याशित भूमिका निभाती हैं। हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि मधुमक्खियां कपास के जिन फूलों पर नहीं जातीं, उन फूलों पर अन्य प्रकार के कीट और तितलियों के जाने से अमेरिका के टेक्सास प्रांत में ही प्रति वर्ष कपास की फसल में लगभग 12 करोड़ डॉलर का अतिरिक्त उत्पादन होता है।

तितलियां मधुमक्खियों की तरह अधिक संख्या में नहीं पाई जातीं और न ही वे उनकी तरह पराग इकट्ठा करने का प्रयास करती हैं। मधुमक्खियों का शरीर रोएंदार होता है जिन पर परागकण आसानी से चिपककर एक फूल से दूसरे तक पहुंच जाते हैं। दूसरी ओर, तितलियों के पैर पतले और लंबे होते हैं जो शायद ही कभी फूल के परागकोश से टकराते हैं। इसलिए जब भी परागण की बात आती है तो मकरंद पान करने वाली तितलियों को परागणकर्ता के रूप में नहीं देखा जाता।

युनिवर्सिटी ऑफ वरमॉन्ट की सारा कसर देखना चाहती थीं कि आवास और परागणकर्ता में विविधता किस तरह कृषि में योगदान देती है। उन्होंने नौ हैक्टर के कपास के खेत का तीन साल की अवधि में तीन बार अवलोकन किया और देखा कि कपास के फूलों का परागण करने में कौन-कौन से कीट शामिल हैं। किसी फूल पर किसी भी कीट के बैठते समय उन्होंने उसे नेट की मदद से पकड़ा और एथेनॉल से भरी शीशी में एकत्रित किया। इस तरह उन्होंने कुल 2444 कीट पकड़े और उनका अध्ययन किया। जैसी कि उम्मीद थी इन कीटों में अधिकतर परागणकर्ता तो मधुमक्खियां ही थीं। लेकिन इनके अलावा वहां की एक देशज मक्खी के साथ अन्य तरह की मक्खियां और तितलियां भी परागण करती पाई गर्इं। उन्होंने मधुमक्खियों की 40 प्रजातियां, मक्खियों की 16 प्रजातियां और तितलियों की 18 प्रजातियां परागणकर्ता के रूप में पहचानी।

कसर ने यह भी पाया कि विभिन्न तरह के परागणकर्ता फूलों पर दिन के अलग-अलग समय आते हैं। मक्खियां फूलों पर सबसे पहले और सुबह जल्दी आती हैं, संभवत: इसलिए कि वे खेतों में ही रहती हैं। उसके बाद फूलों पर तितलियां आती हैं। और जब दिन में अधिक गर्मी पड़ने लगती है तब मधुमक्खियां आती हैं। परागणकर्ताओं का फूलों पर आने का समय मायने रखता है क्योंकि कपास का फूल कुछ ही घंटों के लिए परागण योग्य होता है, और सूर्यास्त के साथ ही वह कुम्हला जाता है।

कसर ने यह भी पता लगाया कि विभिन्न परागणकर्ता कपास के पौधे के किन अलग-अलग भागों पर जाते हैं। उन्होंने पाया कि मधुमक्खियां भीतर की ओर (मुख्य तने के पास) खिले फूलों पर जाती हैं जबकि मक्खियां और तितलियां बाहर की ओर खिले फूलों पर जाती हैं। एग्रीकल्चर, इकोसिस्टम एंड एनवायरमेंट पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार मक्खियों और तितलियों की फूलों पर जाने की इस वरीयता और योगदान के कारण लगभग 50 प्रतिशत अधिक फूलों का परागण होता है।

मुख्य परागणकर्ता के अलावा अन्य कीटों द्वारा परागण करना परागण पूरकता कहलाता है। और परागण पूरकता सिर्फ कपास में ही नहीं बल्कि अन्य फसलों में भी पाई जाती है। बादाम के बागानों में जंगली मधुमक्खियां और पालतू मधुमक्खियां दोनों पेड़ के अलग-अलग हिस्से पर जाती हैं।

यह तो सही है कि परागण का अधिकांश काम मधुमक्खियां ही करती हैं लेकिन तितलियों और अन्य परागणकर्ताओं की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। कपास में लगभग 66 प्रतिशत परागण मधुमक्खियों द्वारा होता है लेकिन तितलियां और मक्खियां सिर्फ टेक्सास में कपास की फसल में प्रति वर्ष लगभग 12 करोड़ डॉलर का अतिरिक्त योगदान देती हैं। कसर को उम्मीद है कि ये निष्कर्ष किसानों को उपेक्षित परागणकर्ताओं और उनके आवास को संरक्षित करने के लिए प्रेरित करेंगे।

लोग तितलियों को इसलिए महत्व देते हैं क्योंकि वे सुंदर और आकर्षक लगती हैं, लेकिन कृषि में परागणकर्ता के रूप में भी वे महत्वपूर्ण हो सकती हैं। यदि ऐसे ही परिणाम अन्य फसलों में भी दिखे तो महत्वपूर्ण परागणकर्ताओं की सूची में तितलियां भी शामिल हो जाएंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक महिला की कोशिकाओं पर बरसों से शोध – ऋषि राज राय

जकल ज़्यादातर दवाइयां-टीके बनाने, एचआईवी के परीक्षण, कोशिकाओं में संपन्न क्रियाओं व उनसे जुड़े सिद्धांत एवं कई अन्य बीमारियों को समझने के लिए वैज्ञानिक प्रयोगशाला में मानव कोशिकाओं का संवर्धन करते हैं। वैज्ञानिकों को कैंसर जैसी जटिल बीमारी को समझने तथा शोध करने के लिए ऐसी कोशिकाओं की ज़रूरत पड़ती है, जो लगातार समरूपता के साथ विभाजित होती रहें ताकि कृत्रिम परिस्थिति में उन कोशिकाओं की मदद से बीमारियों की उत्पत्ति, बीमारियों की क्रियाविधि और इलाज के विभिन्न तरीके खोजे जा सकें।

वैज्ञानिकों को समरूपी कोशिकाओं की ज़रूरत इसलिए भी पड़ती है क्योंकि उन्हें एक तरह के प्रयोग बार-बार दोहराने पड़ते हैं और अपने नतीजों की तुलना दूसरे वैज्ञानिकों के अवलोकनों के साथ करनी पड़ती है। परंतु 1951 तक वैज्ञानिकों के पास ऐसा कोई कोशिका-वंश नहीं था जो वर्षों तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक जैसी समरूप कोशिकाओं को जन्म दे सके। जो कोशिका-वंश उपलब्ध भी थे या जिन्हें बनाने की कोशिश की गई थी उनकी कोशिकाएं ज़्यादा से ज़्यादा एक-दो दिन में मर जाती थीं और उनका अध्ययन करना मुश्किल होता था।

हेनरीटा लैक्स

फिर संयुक्त राज्य अमरीका के जॉन हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक जॉर्ज गे की प्रयोगशाला में अजीबो-गरीब दिखने वाले ट्यूमर का एक नमूना आया। यह ट्यूमर कुछ हल्के बैंगनी रंग का, जेली जैसा चमकदार था। यह नमूना इसलिए भी कुछ खास था क्योंकि इसकी कुछ कोशिकाएं लगातार विभाजित होते हुए समरूपी कोशिकाओं को जन्म दे रहीं थीं। उन्होंने देखा कि जब कोई पुरानी कोशिका मरती है तो उसके जैसी ही कोशिका की प्रतियां उसकी जगह ले लेती हैं। इससे हुआ यह कि उसी कोशिका की संतानें आज तक मौजूद हैं और उनकी मदद से कई शोध कार्य भी हो रहे हैं।

डॉ. गे की एक प्रयोगशाला सहायक ने इस अमर कोशिका का नाम ‘हेला’ (HeLa) रखा। हेला नाम हेनरीटा लैक्स नामक कैंसर पीड़ित महिला के नाम पर रखा गया था जिनके ट्यूमर से डॉ. गे ने इस कोशिका-वंश की खोज की थी। हेनरीटा लैक्स का जन्म संयुक्त राज्य के वर्जीनिया में हुआ था और वे तम्बाकू के खेत में काम किया करती थीं। हुआ यह कि लैक्स जिस चिकित्सक के यहां इलाज करवा रही थीं, वे डॉ. गे की प्रयोगशाला के लिए कैंसर के ऊतकों के नमूने इकट्ठा कर रहे थे। बरसों से डॉ. गे और उनकी नर्स पत्नी मार्गरेट मानव कोशिकाओं को कृत्रिम रूप से प्रयोगशाला में पनपाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन बाकी वैज्ञानिकों की तरह इनके द्वारा संवर्धित कोशिकाएं कुछ पीढ़ियों तक विभाजित होने के बाद मर जाती थीं। लैक्स की मौत गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर से हुई थी और उनकी मौत के कुछ ही महीनों बाद डॉ. गे की प्रयोगशाला में उनके शरीर के ट्यूमर कोशिकाओं की मदद से इस अमर कोशिका-वंश को खोजा गया।

अब सवाल यह उठता है कि हेनरीटा लैक्स की ट्यूमर कोशिकाओं में ऐसा क्या खास है जिससे वे मरती नहीं हैं और विभाजित होते हुए लगातार समरूपी कोशिकाओं को जन्म देती रहती हैं? सच कहें तो इसका उत्तर आज भी पूरी तरह पता नहीं है।

होता यह है कि सामान्य कोशिकाएं औसतन पचास बार विभाजन करने के बाद एपोप्टोसिस नामक प्रक्रिया से खुद-ब-खुद खत्म हो जाती हैं। इसी कारण ज़्यादातर कोशिका-वंश भी एक समय के बाद खत्म हो जाते हैं। लेकिन हेला कोशिकाओं के साथ ऐसा नहीं होता, क्योंकि हेला कोशिकाओं में टेलोमरेज़ नामक एंज़ाइम अत्यधिक सक्रिय होता है। इससे कोशिकाएं एपोप्टोसिस की प्रक्रिया से न गुज़रकर लगातार विभाजित होती रहती हैं।

विभाजन से हाल ही में बनी हेला कोशिकाओं का इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से प्राप्त चित्र

डॉ. गे ने अमर कोशिका-वंश ‘हेला’ के कई नमूने दुनिया भर की प्रयोगशालाओं और वैज्ञानिकों के पास भेजे। जल्दी ही दुनिया में असंख्य हेला कोशिकाएं हर हफ्ते बनने और इस्तेमाल होने लगीं।

1950 के दशक में पोलियो की महामारी बुरी तरह फैली हुई थी। जोनास साल्क ने इन्हीं हेला कोशिकाओं का इस्तेमाल कर पोलियो के टीके का परीक्षण किया था। हेला कोशिकाओं को कई तरह की बीमारियों, जैसे चेचक, एचआईवी और इबोला को समझने और उन पर परीक्षण करने के लिए इस्तेमाल में लिया गया है।

ऐसा माना जाता है कि वाल्टर फ्लेमिंग ने 1882 में गुणसूत्रों की खोज की, पर लगभग 70 वर्ष बाद इन्हीं हेला कोशिकाओं की मदद से तीज़ो और लेवान ने उन रासायनिक रंजकों को खोजा जिनसे रंजित होकर गुणसूत्र दिखने लगते हैं और फिर उन्होंने मानव कोशिकाओं में गुणसूत्रों की सही संख्या की गिनती की। हेला कोशिकाएं पहली कोशिकाएं थीं जिन्हें क्लोन किया गया। इन कोशिकाओं को अंतरिक्ष में भी ले जाया गया है। टेलोमरेज़ जैसे एंज़ाइम जिसके कारण कैंसर कोशिकाएं एपोप्टोसिस से बचकर लगातार विभाजित होती रहती हैं, उसकी खोज भी हेला कोशिकाओं की मदद से ही की गई।

एक और गजब की बात है कि जिस गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर से हेनरीटा लैक्स की मौत हुई थी, उसके कारक ह्यूमन पैपिलोमा वायरस का भी पता हेला कोशिकाओं की मदद से चला था और आज तो इस वायरस से बचने के लिए टीका भी उपलब्ध है।

हेला कोशिकाओं के कारण असंख्य नई खोजें हुई हैं। वैज्ञानिकों ने हेनरीटा लैक्स की कोशिकाओं की मदद से कई शोध किए, इलाज ढूंढे, आविष्कार किए। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि इसकी जानकारी उनके परिवार को नहीं थी। दशकों बाद ही उनके परिवार को पता चला कि लैक्स की कोशिकाओं ने मानव इतिहास पर इतना बड़ा असर डाला है। यह उपेक्षा हेला कोशिकाओं के साथ काम करने वाले वैज्ञानिकों के ऊपर नैतिक प्रश्न भी उठाती है।

खैर कुछ भी हो, हेनरीटा लैक्स की कोशिकाओं के कारण करोड़ों लोगों के जीवन पर बड़ा ही सकारात्मक प्रभाव पड़ा, कई जानें बचीं और आगे भी बचती रहेंगी और इसके लिए पूरी मानवता हेनरीटा लैक्स और डॉ. जॉर्ज गे की कृतज्ञ रहेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/en/d/d7/Henrietta_Lacks_%281920-1951%29.jpg
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