कैंसर कोशिकाओं से लड़ने की नई रणनीति

शोधकर्ता कैंसर कोशिकाओं की निशानदेही करने के तरीके ईजाद करने में लगे हैं। कैंसर के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय या शुरू करने वाली दवाइयां इसमें काफी प्रभावी हो सकती हैं, लेकिन वे उन ट्यूमर पर सबसे अच्छा काम करती हैं जिनमें सबसे अधिक उत्परिवर्तन होते हैं। इसी तथ्य के आधार पर कैंसर उपचार का एक विवादास्पद समाधान सामने आया है: कीमोथेरेपी की मदद से जानबूझकर ट्यूमर में और उत्परिवर्तन कराए जाएं और इस तरह ट्यूमर को प्रतिरक्षा प्रणाली के हमले के प्रति अधिक संवेदी बनाया जाए।

पूर्व में प्रयोगशाला अध्ययनों और छोटे स्तर पर किए गए क्लीनिकल परीक्षणों में देखा गया है कि यह रणनीति मददगार हो सकती है। लेकिन कुछ कैंसर शोधकर्ता ऐसे सोद्देश्य उत्परिवर्तन करवाने को लेकर आशंकित हैं। उनका कहना है कि जानवरों पर हुए कई अध्ययनों से पता चलता है कि ऐसा करने से फायदे के बजाय नुकसान हो सकता है।

देखा गया है कि कुछ दवाइयां (चेकपॉइंट अवरोधक) उस आणविक अवरोधक को हटा देती हैं जो टी कोशिका (एक किस्म की प्रतिरक्षा कोशिका) को ट्यूमर पर हमला करने से रोकते हैं। ये दवाइयां धूम्रपान की वजह से हुए फेफड़ों के कैंसर और मेलेनोमा (एक तरह का त्वचा कैंसर) जैसे कैंसर पर सबसे अच्छी तरह काम करती हैं। ये कैंसर पराबैंगनी  प्रकाश के प्रभाव से पैदा होने वाले उत्परिवर्तनों को संचित करते रहते हैं। इनमें से कई जेनेटिक परिवर्तन कोशिकाओं को नव-एंटीजन बनाने को उकसाते हैं (नव-एंटीजन ट्यूमर कोशिकाओं पर नए प्रोटीन चिन्ह होते हैं) जो टी कोशिकाओं को ट्यूमर कोशिका को पहचानने में मदद करते हैं।

कैंसर कोशिकाओं को अधिक नव-एंटीजन बनाने को मजबूर करने से इम्यूनोथेरेपी में मदद मिल सकती है, इस विचार की जड़ें ऐसे ट्यूमर के अध्ययन में है जिनमें डीएनए की मरम्मत करने वाले तंत्रों में गड़बड़ी होती है। देखा गया कि ये कैंसर कोशिकाएं कई उत्परिवर्तन जमा करती जाती हैं। वर्ष 2015 में जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय (अब मेमोरियल स्लोअन केटरिंग कैंसर सेंटर में हैं) के लुइस डियाज़ ने बताया था कि चेकपॉइंट औषधियां ऐसे कई ट्यूमर्स पर काफी कारगर हैं जिनमें ‘बेमेल’ डीएनए मरम्मत तंत्र में गड़बड़ी होती है।

ट्यूरिनो विश्वविद्यालय के कैंसर आनुवंशिकीविद अल्बर्टो बार्डेली और साथियों ने ट्यूमर-ग्रस्त चूहों में मरम्मत करने वाले जीन को निष्क्रिय करके देखा। नेचर (2017) में उन्होंने बताया था कि इस जीन को निष्क्रिय करने से कैंसर कोशिकाओं के डीएनए में ज़्यादा त्रुटियां होने लगीं और चेकपॉइंट अवरोधकों की प्रभाविता में वृद्धि हुई।

उसके बाद मनुष्यों पर हुए दो और परीक्षणों में इसी तरह के प्रभाव देखे गए। एक अध्ययन में आंत के कैंसर पर काम किया गया। इसमें बहुत कम उत्परिवर्तन होते हैं, और इसलिए यह चेकपॉइंट अवरोधक दवाओं के प्रति संवेदी नहीं होता। इस तरह के कैंसर से पीड़ित 33 लोगों को कीमोथेरेपी की मानक औषधि टेमोज़ोलोमाइड दी गई। यह दवा विकृत या परिवर्तित जीन की मरम्मत नहीं होने देती। पाया गया कि सिर्फ कीमोथेरेपी करने से आठ लोगों का ट्यूमर कम हो गया था, लेकिन कीमोथेरेपी के बाद अन्य सात लोगों का ट्यूमर चेकपॉइंट अवरोधक दिए जाने के बाद कम हुआ। शोधकर्ताओं ने जर्नल ऑफ क्लीनिकल ओन्कोलॉजी में बताया था कि सभी लोगों में ट्यूमर की वृद्धि औसतन 7 महीने तक रुकी रही।

एक अन्य अध्ययन में देखा गया कि 16 में से 14 रोगियों और चार अन्य रोगियों, जिनके ट्यूमर की बायोप्सी का विश्लेषण किया गया था, में टेमोज़ोलोमाइड ने उत्परिवर्तन को प्रेरित किया था।

डियाज़ की दिलचस्पी यह जानने में थी कि क्या ट्यूमर में कोई खास उत्परिवर्तन करवाने से और भी बेहतर असर होता है। खास तौर से उनकी टीम की दिलचस्पी ऐसे उत्परिवर्तन में थी जो किसी कोशिका प्रोटीन निर्माण मशीनरी द्वारा मैसेंजर आरएनए (mRNA) के पढ़ने/समझने में बदलाव कर दे। इस तरह का उत्परिवर्तन सम्बंधित प्रोटीन के कई अमीनो एसिड्स को बदल सकता है, जो उसे प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए और अधिक पराया बना देता है।

डियाज़ और उनके साथियों ने कैंसर कोशिकाओं पर टेमोज़ोलोमाइड के साथ एक अन्य कीमोथेरेपी दवा सिसप्लैटिन का परीक्षण किया और पाया कि दोनों में से एक ही दवा देने की तुलना में इन दोनों दवाओं के मिले-जुले उपयोग ने हज़ार गुना अधिक उत्परिवर्तन किए। जब इन दोनों दवाओं के संयोजन से उपचारित कैंसर कोशिकाओं को चूहों में प्रविष्ट कराया गया तो चेकपाइंट दवा देने के बाद परिणामी ट्यूमर गायब हो गया।

शोधकर्ता अब आंत के मेटास्टेटिक ट्यूमर से पीड़ित लोगों को चेकपॉइंट दवा देने के पहले टेमोज़ोलोमाइड और सिसप्लैटिन का मिश्रण दे रहे हैं। पहले 10 रोगियों में से दो रोगियों के रक्त में ट्यूमर कोशिका द्वारा स्रावित डीएनए में अपेक्षाकृत अधिक उत्पर्वतन दिखे और ट्यूमर बढ़ना बंद हो गया। नतीजे शुरुआती हैं लेकिन परिणाम आशाजनक लगते हैं।

फिर भी, जोखिम तो हो ही सकता है: कीमोथेरेपी दवाएं रोगी की स्वस्थ कोशिकाओं में भी उत्परिवर्तन पैदा कर सकती हैं। वैसे शोधकर्ताओं का कहना है कि इस दवा से उपचारित करने के बाद चूहों में ऐसा नहीं हुआ।

कुछ शोधकर्ताओं को चिंता है कि यह तरीका उल्टा भी पड़ सकता है। उनका कहना है कि विविध कोशिकाओं से बने ट्यूमर की तुलना में एकदम एक-समान या चंद हू-ब-हू कोशिकाओं (क्लोन) से बने ट्यूमर चेकपॉइंट अवरोधक दवाओं के प्रति बेहतर प्रतिक्रिया देते हैं। डर है कि अधिक उत्परिवर्तन ट्यूमर में नए क्लोन बनाएंगे और टी कोशिकाओं के प्रभाव को कम कर देंगे। 2019 में हुए एक अध्ययन में देखा गया था कि चूहों के मेलेनोमा ट्यूमर में अल्ट्रावॉयलेट प्रकाश की मदद से उत्परिवर्तन करने पर कैंसर कोशिकाओं की विविधता में वृद्धि ने चेकपॉइंट अवरोधकों की प्रतिक्रिया में बाधा उत्पन्न की थी।

इस पर बार्डली का कहना है कि अल्ट्रावॉयलेट प्रकाश से हुए उत्परिवर्तन टेमोज़ोलोमाइड से हुए उत्परिवर्तन की तुलना में प्रतिरक्षा तंत्र को कम उकसाते हैं। और शोधकर्ताओं का तर्क है कि दो औषधियों का मिश्रण देने से नव-एंटीजन की संख्या काफी अधिक होगी जो ट्यूमर की आनुवंशिक विविधता के असर को कम कर देगी।

बहरहाल, बार्डली और डियाज़ की तैयारी कैंसर औषधि निर्माण की है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आनुवंशिक रूप से परिवर्तित मच्छरों का परीक्षण

हाल ही जिनेटिक रूप से परिवर्तित (जिरूप) मच्छरों को खुले में छोड़ने के परिणाम प्रकाशित हुए हैं। उद्देश्य इन मच्छरों की मदद से वायरस-वाहक जंगली मच्छरों की आबादी को कम करना है। प्रारंभिक परिणाम तो सकारात्मक हैं लेकिन व्यापक अध्ययन की आवश्यकता है।

प्रयोग फ्लोरिडा के दक्षिणी हिस्से के उष्णकटिबंधीय द्वीपों पर किया गया। इन मच्छरों को तैयार करने वाली कंपनी ऑक्सीटेक द्वारा सात महीनों के दौरान लगभग 50 लाख जिरूप एडीज़ एजिप्टी मच्छर इन स्थलों पर छोड़े गए और लगातार निगरानी की गई। ऑक्सीटेक ने 6 अप्रैल को आयोजित एक वेबिनार में ये परिणाम साझा किए हैं लेकिन अभी तक कोई डैटा प्रकाशित नहीं किया है।             

गौरतलब है कि जंगली एडीज़ एजिप्टी मच्छर चिकनगुनिया, डेंगू, ज़ीका और पीतज्वर जैसे वायरसों का वाहक है। इसलिए वैज्ञानिक उनकी आबादी को कम करने के तरीकों की तलाश में हैं। ऑक्सीटेक द्वारा तैयार किए गए नर मच्छरों में एक ऐसा जीन डाला गया है जो उनकी मादा संतानों के लिए घातक होता है। इन्हें खुले में छोड़ने पर ये आम मादा मच्छरों के साथ संभोग करेंगे और नतीजे में पैदा होने वाली मादा संतानें प्रजनन करने से पहले ही मर जाएंगी। नर संतानों में यह जीन रहेगा और वे आने वाली लगभग आधी पीढ़ी में इसे पहुंचा देंगे। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह जीन मादा मच्छरों की जान लेता रहेगा। यह तो हुई सिद्धांत की बात।

इस सैद्धांतिक योजना की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने जिरूप मच्छरों के अंडों को कुछ बक्सों में रखा और उनके आसपास कुछ ट्रैप्स तैयार किए जो 400 मीटर से अधिक दायरे को कवर करते थे। कुछ ट्रैप्स मुख्य रूप से अंडे देने की जगह के रूप में काम करते थे और अन्य वयस्क मच्छरों को पकड़ने में मदद करते थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि बक्सों में पैदा होकर निकलने वाले नर मच्छर, जो काटते नहीं हैं, चारों ओर एक हैक्टर के क्षेत्र में फैल गए जो जंगली एडीज़ एजिप्टी की सामान्य सीमा है।

इसके बाद इन नर मच्छरों ने उस क्षेत्र की जंगली आबादी के साथ संभोग किया और मादा मच्छरों ने इन ट्रैप्स के अलावा गमलों, कूड़ेदानों और सॉफ्ट-ड्रिंक के कैन में भी अंडे दिए।         

शोधकर्ताओं द्वारा इन ट्रैप्स से 22,000 से अधिक अंडे एकत्रित किए गए और उनसे निकलने वाली संतानों का अध्ययन किया गया। वे सभी मादा मच्छर वयस्क होने से पहले ही मर गई जिनमें घातक जीन था। इसके अलावा, यह घातक जीन जंगली आबादी में दो से तीन महीने यानी मच्छरों की लगभग तीन पीढ़ियों तक बने रहने के बाद स्वत: गायब हो गया। टीम ने यह भी पाया कि मच्छरों को छोड़ने के स्थान से 400 मीटर से अधिक दूर घातक जीन युक्त कोई मच्छर नहीं मिला।

फिलहाल ऑक्सीटेक कंपनी इस अध्ययन को और अधिक विस्तृत करने की योजना बना रही है। इसके लिए राज्य नियामकों से अनुमोदन की आवश्यकता होगी। कैलिफोर्निया के विसालिया क्षेत्र में भी इस तरह का अध्ययन करने की योजना बनाई जा रही है।    

ये अध्ययन इस बात का आकलन नहीं कर पाएंगे कि यह विधि एडीज़ एजिप्टी द्वारा संचारित वायरस को किस हद तक कम करती है। जन स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों का भी आकलन नहीं हो सकेगा क्योंकि जिस क्षेत्र में अध्ययन किया गया है वहां एडीज़-संचारित वायरल संक्रमण काफी कम है। इसके लिए कंपनी को किसी दूसरे क्षेत्र में नियंत्रित परीक्षण करना होगा। वैसे ज़रूरी नहीं कि एडीज़ एजिप्टी की आबादी को कम करके बीमारी के प्रकोप को रोका जा सकेगा। फ्लोरिडा के इस क्षेत्र में एडीज़ एजिप्टी की आबादी मच्छरों की आबादी का मात्र 4 प्रतिशत है जबकि 80 प्रतिशत ऐसी प्रजातियां हैं जो रोग वाहक तो नहीं हैं लेकिन अधिक परेशान करती हैं।

गौरतलब है कि 2017 में भी एडीज़ एजिप्टी मच्छरों की आबादी को कम करने के लिए नर मच्छरों को एक बैक्टीरिया से संक्रमित किया गया था। प्रयोगशाला में तैयार किए गए इन नर मच्छरों से संभोग करने पर मादा मच्छरों के अंडों से लार्वा नहीं निकलते। ऑक्सीटेक ने इसी काम के लिए जिनेटिक परिवर्तन का सहारा लिया है। प्रयोग के वास्तविक असर तो काफी अध्ययनों के बाद ही स्पष्ट होंगे। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कबूतर 4 साल तक रास्ता नहीं भूलते

ह बात आम तौर मानी जाती है कि हरकारे कबूतर (होमिंग पिजन) एक बार जिस रास्ते को अपनाते हैं, उसे याद रखते हैं। अब एक अध्ययन ने दर्शाया है कि ये कबूतर अपना रास्ता 4 साल बाद भी नहीं भूलते।

देखा जाए तो मनुष्यों से इतर जंतुओं में याददाश्त का परीक्षण करना टेढ़ी खीर है। और यह पता करना तो और भी मुश्किल है कि कोई जंतु किसी जानकारी को याददाश्त में दर्ज करने के कितने समय बाद उसका उपयोग कर सकता है। प्रोसीडिंग्स ऑफ रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित शोध पत्र में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की प्राणि विज्ञानी डोरा बायरो और उनके साथियों ने घरेलू होमिंग पिजन्स के इस तरह के अध्ययन की जानकारी देते हुए बताया है कि याददाश्त दर्ज करने और पुन:उपयोग करने के बीच 4 साल तक अंतराल हो सकता है।

बायरो और उनके साथियों ने इसके लिए 2016 में किए गए एक प्रयोग के आंकड़ों की मदद ली। 2016 के प्रयोग में इन कबूतरों को रास्ते सिखाए गए थे। इन कबूतरों ने ये रास्ते या तो अकेले उड़ते हुए सीखे थे या साथियों के साथ। कभी-कभी साथी ऐसे होते थे जिन्हें रास्ता पता होता था या कभी-कभी साथी भी अनभिज्ञ होते थे। तो इन कबूतरों ने अपनी अटारी से लेकर करीब 6.8 किलोमीटर दूर स्थित एक खेत तक का अपना रास्ता 2016 में स्थापित किया था।

2019 और 2020 में बायरो की टीम ने इन कबूतरों का अध्ययन किया। इनकी पीठ पर जीपीएस उपकरण लगा दिए गए और इन्हें उसी खेत से छोड़ दिया गया। कुछ कबूतर अपने कुछ लैंडमार्क्स को चूके ज़रूर लेकिन अधिकांश ने इस यात्रा में लगभग ठीक वही रास्ता पकड़ा, जो उन्होंने 2016 में इस्तेमाल किया था। और तो और, 3-4 साल के इस अंतराल में ये कबूतर उस स्थल पर दोबारा गए भी नहीं थे।

शोधकर्ताओं को यह भी पता चला कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कबूतर ने 2016 में वह रास्ता अकेले उड़कर तय किया था या झुंड में। लेकिन 2016 के प्रयोग में शामिल कबूतरों का प्रदर्शन अन्य ऐसे कबूतरों से बेहतर रहा जो 2016 की उड़ान में शरीक नहीं थे।

कई शोधकर्ताओं का मानना है कि यह अध्ययन संज्ञान के मामले में मानव-केंद्रित नज़रिए को थोड़ा शिथिल करने में मददगार होगा। (स्रोत फीचर्स)

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चिंता का सबब बना अंतरिक्ष में फैला कचरा – प्रदीप

बीते दिनों गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कई इलाकों में आसमान से आग के गोले गिरते दिखाई दिए थे। कई जगह पर ठोस रूप में इन्हें धरती पर गिरते हुए भी देखा गया। इस तरह की आसमानी घटनाओं के संदर्भ में वैज्ञानिकों का कहना है कि यह अंतरिक्ष का कचरा या मलबा हो सकता है। अगर यह मलबा ज़्यादा बड़े आकार का होता और किसी आवासीय क्षेत्र में गिरता तो जानमाल को भी भारी नुकसान पहुंचा सकता था।

दरअसल अंतरिक्ष में एकत्रित हो रहा मलबा भविष्य में धरती पर रह रहे लोगों के साथ-साथ यहां सक्रिय तमाम उपग्रहों, अंतरिक्ष यात्रियों और अंतरिक्ष स्टेशनों के लिए भी बेहद घातक साबित हो सकता है। इतना ही नहीं, इससे हमारी संचार व्यवस्था के भी प्रभावित होने की आशंका पैदा हो सकती है। ऐसे में जिस तरह से आज आधुनिक तकनीक आधारित तमाम गैजेट्स हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन गए हैं, उससे अलग तरह के नुकसान की आशंका भी हो सकती है।

यदि हम अंतरिक्ष में मौजूद तमाम मानव जनित पदार्थों की बात करें तो एक अनुमान के मुताबिक छोटे-बड़े मिलाकर लगभग 17 करोड़ पुराने रॉकेट और बेकार हो चुके उपग्रहों के टुकड़े आठ किलोमीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगा रहे हैं। आपस में टक्कर होने से ये और भी छोटे टुकड़ों में बंट रहे हैं जिससे इनकी संख्या में दिनों-दिन बढ़ोतरी हो रही है।

ब्रिटिश खगोल विज्ञानी रिचर्ड क्राउटडर के अनुसार इस सम्बंध में सबसे बड़ी समस्या यह है कि पृथ्वी से लगभग 36 हज़ार किलोमीटर ऊपर की भू-स्थैतिक कक्षा में अंतरिक्ष कचरे के जमघट और आपसी टक्कर के परिणामस्वरूप दुनिया की संचार व्यवस्था भी चौपट हो सकती है। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अंतरिक्ष में आठ किलोमीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से चक्कर काट रहे सिक्के के आकार की किसी वस्तु से किसी दूसरे सिक्के के आकार वाली वस्तु की टकराहट होती है तो उससे वैसा ही प्रभाव होगा जैसा धरती पर लगभग सौ किलोमीटर की रफ्तार से चल रही दो बसों की टक्कर से होता है। अंतरिक्ष में तैरते कचरे से टकराने पर अंतरिक्ष यान और सक्रिय उपग्रह नष्ट हो सकते हैं। इसके साथ ही, धरती पर इंटरनेट, जीपीएस, टेलीविज़न प्रसारण जैसी अनेक आवश्यक सेवाएं भी बाधित हो सकती हैं।

अंतरिक्ष में मानवीय दखल का इतिहास कोई बहुत पुराना नहीं है। महज छह दशक पहले ही पहली बार इंसान ने अंतरिक्ष में अपनी उपस्थिति दर्ज थी। उल्लेखनीय है कि अक्टूबर 1957 में तत्कालीन सोवियत संघ द्वारा अंतरिक्ष में भेजे गए पहले मानव निर्मित सेटेलाइट स्पुतनिक-1 के बाद से हज़ारों रॉकेट, सेटेलाइट, स्पेस प्रोब और टेलीस्कोप अंतरिक्ष में भेजे गए हैं। लिहाज़ा समय के साथ अंतरिक्ष में कचरा बढने की रफ्तार भी बढ़ती गई। यह कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसे पृथ्वी के कई पहाड़ों पर अत्यधिक पर्वतारोहण की वजह से तरह-तरह के कूड़े-करकट के अंबार लगे हैं। अंतरिक्ष में पृथ्वी की कक्षा में कबाड़ की एक चादर फैल गई है। एक अनुमान के अनुसार पिछले 25 वर्षों में अंतरिक्ष में कचरे की मात्रा दुगनी से भी ज़्यादा हो गई है।

अंतरिक्ष का कचरा मानव जाति और इस पृथ्वी के समस्त जीव जगत के लिए घातक है। अगर ये अनियंत्रित लाखों डिग्री सेल्सियस ताप पर दहकते टुकड़े घनी बस्तियों पर गिरते हैं तो जानमाल की बड़ी हानि हो सकती है। वर्ष 2001 में कोलंबिया स्पेस शटल की दुर्घटना में भारतीय मूल की कल्पना चावला समेत सात अन्य अंतरिक्ष यात्रियों की जानें चली गई थीं। इस दुर्घटना के अलग-अलग कारण बताए जाते हैं, लेकिन कुछ रिपोर्टों में यह आशंका जताई गई थी कि अंतरिक्ष में भटकते एक टुकड़े से टकराने की वजह से यह भीषण त्रासदी हुई थी।

जिस तरह से सभी देश अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों को अंजाम दे रहे हैं, उसके चलते तो अंतरिक्ष में भीड़ और भी बढ़ेगी और इससे दुर्घटनाओं की आशंका भी बढ़ेगी। तो फिर इस समस्या का समाधान क्या है? इसके जवाब में वैज्ञानिक कहते हैं कि अंतरिक्ष से कचरे को एकत्रित करके वापस धरती पर लाना ही इस समस्या का एकमात्र समाधान है। दूसरे शब्दों में, अंतरिक्ष में भी धरती की ही तरह स्वच्छता अभियान चलाने की आवश्यकता है। परंतु यह काम इतना आसान भी नहीं है। ऐसे में सभी देश यदि चाहें तो कम से कम इतना तो अवश्य किया जा सकता है कि जो भी देश अंतरिक्ष में जितना कचरा पैदा कर रहा है, वह उसे वापस लाने का खर्च वहन करे। इससे अंतरिक्ष में पैदा होने वाले कचरे पर लगाम लगाई जा सकती है हालांकि इस काम की तकनीकी समस्याएं फिर भी रहेंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या लाल रंग की बोतल कुत्तों को भगाती है? – श्रुति कालूराम शर्मा

क दिन एक परिचित से मिलने जाना हुआ। मैंने देखा कि उनके गेट के पास लाल रंग के तरल से भरी एक बोतल रखी हुई है। नज़र थोड़ा बाईं ओर गई तो देखा कि हर घर के बाहर लाल पानी की बोतल रखी है। मैंने उत्सुकतावश पूछा कि बोतल में क्या है और क्यों रखी है? उन्होंने आत्मविश्वास के साथ बताया कि ये बोतल कुत्तों को भगाने का एक चमत्कारी उपाय है। उनका और उनकी तरह कई अन्य का मानना है कि इस बोतल को देखकर कुत्ते डर जाते हैं और इस वजह से घरों के बाहर गंदा (मल त्याग) नहीं करते।

अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग रंगों से भरी बोतलें घरों के बाहर देखी जा सकती हैं। कहीं जामुनी, कहीं नीली, तो कहीं लाल बोतलें घरों और दुकानों के बाहर देखी जा सकती हैं। इन बोतलों को देखकर मन में सवाल उठता है कि इन बोतलों में आखिर भरा क्या जाता है? इस चलन के शुरुआती दौर में जब लोगों से पूछा गया कि इसमें क्या भरा है तो उनका कहना था कि एक केमिकल बाज़ार में आया है। कुछेक लोगों ने लाल रंग के लिए घर पर ही महावर या आल्ता पानी में घोलकर पारदर्शी बोतल में भरकर रख दिया था।

आखिर लोग इतने यकीन से कैसे कह रहे हैं कि कुत्ते लाल रंग की बोतल देखकर उस जगह को गंदा नहीं करते। इसलिए मैंने इस मसले को समझने के लिए कई तरह से जांच-पड़ताल की और प्रयोग किए।

प्रयोग – 1

जिन लोगों के घरों के बाहर ये बोतल रखी थी, उनसे पूछने पर पता चला कि कॉलोनी की किराना दुकान में एक टेबलेट मिलती है। टेबलेट दिखने में तो हरे रंग की होती है, लेकिन जब इसको पानी में डालते हैं तो ये धीरे-धीरे पानी को लाल कर देती है। कुछ लोगों का कहना है की ये टेबलेट महावर, या जिसे आल्ता कहते हैं उसकी है। मेरी टोली के बच्चों ने इस टेबलेट को देखा और कहा दीदी ये आल्ते की टेबलेट तो बिलकुल नहीं हो सकती, ये टेबलेट होली के पक्के रंग की लगती है!

पहला काम किया कि बोतल में लाल रंग बनाकर अपने घर के बाहर रख ही दिया।

प्रयोग – 2

हमने अपने और अपने घर के आसपास के घरों के बाहर कुछ अलग-अलग रंगों – लाल, हरे, बैंगनी, नीले और पीले – के वाटर कलर से पोती गई एक-एक बोतल रख दी। अलग-अलग रंगों से प्रयोग करने का मकसद सिर्फ यह जानना था कि कुत्ते इन अलग-अलग रंगों के प्रति कैसी प्रतिक्रिया देते हैं।

प्रयोग 1 और 2 के दौरान हमने जो अवलोकन किए उसमें देखा गया कि कुत्ते इन रंगों वाली बोतलों के पास आकर बैठ रहे थे। उन्हें रंग भरी या रंगों से पोती गई बोतलों से कोई फर्क नहीं पड़ा था।

दूसरा, कुछ लोगों के घर के सामने एक नहीं बल्कि कई सारी बोतलें रखी थीं, जिन्हें देखकर लगा कि कुत्ते यहां इसलिए भी नहीं फटकते होंगे क्योंकि उनकी जगह तो ढेरों बोतलों ने घेर रखी थी। और घर मालिकों को लग रहा था कि कुत्ते रंगों भरी इन चमत्कारी बोतलों से डरकर भाग रहे हैं।

प्रयोग – 3

अलग-अलग रंगों के प्रति कुत्तों की प्रतिक्रिया देखने के लिए सिर्फ बोतल से काम नहीं चलने वाला था। तो मैंने और बच्चों की टोली ने विचार किया कि हमें कुत्तों के खाने की चीज़ों को रंग करके देखना होगा।

हम पालतू जानवरों की दुकान (पेट शॉप) में गए और कुत्ते के लिए कैल्शियम से बनी हड्डियां लेकर आए। सफेद वाली हड्डियों को अलग-अलग खाद्य रंगों से रंग दिया। एक हड्डी को सफेद ही रहने दिया। इन हड्डियों को एक-एक करके हमारी गली के कुत्तों को खाने को दिया।

पहले सफेद हड्डी खिलाई जिसको कुत्ता एक पल में चट कर गया। थोड़ी-थोड़ी देर बाद लाल, हरी, नीली और फिर पीली हड्डियां खिलाई। हमने देखा किसी भी रंगीन हड्डी को कुत्ते वैसे ही खा रहे थे जैसे बिना रंग की हुई हड्डी को खाया था। फर्क सिर्फ इतना था कि रंगीन हड्डियों को खाने में उन्हें थोड़ा समय लगा।

एक वजह जो हमने सोची वह यह थी कि शायद जिन हड्डियों को रंगा गया था उनकी गंध की वजह से कुत्ते इन हड्डियों को खाने में थोड़ा ज़्यादा समय ले रहे हैं। कई कुत्तों के अवलोकनों में यही देखने को मिला।

यहां यह देखना लाज़मी होगा कि कुत्ते दुनिया को किन रंगों में देखते हैं।

आंख के पिछले हिस्से में रेटिना नामक पर्दे में दो प्रकार की संवेदी कोशिकाएं होती हैं, जो प्रकाश और रंग को भांपने का काम करती हैं। ये संवेदी कोशिकाएं दो प्रकार की होती हैं – छड़ और शंकु (रॉड्स और कोन्स)। इन संवेदी कोशिकाओं की संख्या लाखों में होती है। विभिन्न प्रजातियों में विभिन्न प्रकार की प्रकाश संवेदी कोशिकाएं होती हैं। प्रकाश को भांपने वाली संवेदी कोशिकाओं को छड़ (रॉड) कहा जाता है। रंग को पहचानने वाली संवेदी कोशिकाओं को शंकु (कोन) कहा जाता है। दरअसल, जैसा इनका आकार है वैसा ही इनका नाम है। शंकु संवेदियों की दो विशेषताएं होती हैं: रंग और बारीक विवरण को भांपना। जब प्रकाश छड़़ या शंकु कोशिकाओं से टकराता है, तो वे सक्रिय हो जाती हैं और मस्तिष्क को संकेत भेजती हैं।

सामान्यतः मनुष्य त्रिवर्णी (ट्राइक्रोमेटिक) होते हैं। अर्थात मनुष्य में तीन प्रकार के शंकु होते हैं। दूसरी ओर कुत्तों की दृष्टि द्विवर्णी (डाइक्रोमेटिक) होती है – उनकी आंख में दो प्रकार के शंकु होते हैं। इसका मतलब है कि मनुष्य में हरे, नीले व लाल और इनके मिश्रण से बने अनेक रंगों को देखने की क्षमता होती है, जबकि कुत्तों में दो (पीले और नीले) रंगों की पहचान करने की क्षमता होती है।

कुत्ते की नज़र से दुनिया

पशु चिकित्सकों का मानना था कि कुत्ते केवल काले और सफेद रंग को ही देख सकते हैं। यह भी कहा जाता है कि कुत्ते वर्णांध होते हैं। लेकिन असल बात यह है कि कुत्तों के पास वास्तव में कुछ रंग की दृष्टि तो है। लेकिन उन्हें हरे, लाल और कभी-कभी नीले रंग में भी अंतर समझ में नहीं आता है।

अक्सर कलर ब्लाइंडनेस (वर्णांधता)  के बारे में माना जाता है कि वह व्यक्ति सिर्फ काला और सफेद ही देख पाता है। असल में वर्णांधता का मतलब है कि आंखें सामान्य रूप में रंगों को नहीं देख पातीं। इसे कलर डेफिशिएंसी भी कहा जाता है। वर्णांधता का मुख्य कारण आम तौर पर आंखों के भीतर शंकु के उत्पादन में दोष होता है। मनुष्यों में कलर ब्लाइंडनेस का कारण तीन रंग संवेदी कोशिकाओं (शंकु) में से एक का सही ढंग से काम न करना है। इस प्रकार की वर्णांधता को द्विवर्णिता (डाइक्रोमेसी) के नाम से जानते हैं।

कुत्तों की दृष्टि द्विवर्णी होती है। अगर हम सरल तरीके से यह समझना चाहते हैं कि कुत्ते दुनिया को कैसे देखते होंगे तो हम एक वर्णांध मनुष्य की दृष्टि की तुलना एक सामान्य कुत्ते की दृष्टि से कर सकते हैं। वर्णांध मनुष्य और एक सामान्य कुत्ते दोनों की ही आंखों में दो प्रकार के शंकु पाए जाते हैं। इस आधार पर हम कुत्तों को कलरब्लाइंड कहते हैं – यह कोई विकार नहीं है बल्कि कुत्तों की आंख सामान्य रूप से ऐसी ही होती है।

चूंकि कुत्ते की आंखों में नीले और पीले रंग के शंकु ही होते हैं, इसलिए वे रंगों के लगभग 10,000 विभिन्न संयोजन देख सकते हैं। दूसरी ओर मनुष्य के लाल, हरे और नीले शंकु मिलकर रंगों की एक करोड़ छटाएं देख सकते हैं।

खास बात यह है कि कुत्ते लाल व हरे रंगों को नहीं देख पाते। लाल और हरे रंग शायद कुत्ते को भूरे की अलग-अलग छटा जैसे दिखते हैं। वे गुलाबी, बैंगनी और नारंगी जैसे रंगों को भी नहीं देख सकते हैं।

यदि आप देखना चाहें कि आपकी कोई तस्वीर कुत्ते की आंखों से कैसी दिखती होगी तो निम्नलिखित वेबसाइट्स पर जाएं:

https://www.livescience.com/34029-dog-color-vision.html

https://www.sciencealert.com/how-dogs-see-the-world-compared-to-humans

https://play.google.com/store/apps/details?id=fr.nghs.android.cbs.dogvision&hl=en_US&gl=US

आंखों में रंग संवेदी शंकु प्रकाश की तरंग लंबाई को तंत्रिका संकेतों में बदल देते हैं। ये संकेत दिमाग में पंहुचते हैं जहां उस वस्तु व उसके रंग की सही मायनों में तस्वीर बनती है। ज़ाहिर है कि जिन जंतुओं में शंकु कोशिकाएं नहीं होती उन्हें रंग नहीं दिखाई देते। कुत्तों के पास केवल 20 प्रतिशत प्रकाश-संवेदी शंकु कोशिकाएं होती हैं।

युनिवर्सिटी ऑफ बारी के मार्सले सिंसिंशी ने कुत्तों के प्रशिक्षकों को सलाह दी है कि कुत्तों को घास में प्रशिक्षण देते समय लाल कपड़े पहनने से बचें। इससे उन्हें घास व प्रशिक्षक में अंतर करने में परेशानी होती है। वहीं, शोधकर्ताओं ने मालिकों को सलाह दी है कि यदि कुत्ते को घास के मैदान में फ्रिस्बी या बॉल खेलाने ले जा रहे हैं तो कोशिश करें कि खिलौने नीले रंग के हों न कि लाल रंग के।

अब इससे यह तो तय बात है कि रंगीन बोतलों से कुत्तों के डरने या भागने का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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केले के छिलके से ऊर्जा – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

केले के सूखे छिलकों में 5 प्रतिशत हाइड्रोजन होती है। हाइड्रोजन से बिजली बनाकर इसका उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने में किया जा सकता है…       

साल 1985 की एक विज्ञान फंतासी फिल्म बैक टू दी फ्यूचर में, एक अतिउत्साही आविष्कारक अपनी कार को प्लूटोनियम से चलने वाली टाइम मशीन में बदल लेता है, और अतीत और भविष्य की यात्रा करता है। अपनी इस कार में बैठकर वह वर्ष 2015 में पहुंचता है और अपनी गाड़ी के इंजन को इस तरह अपडेट कर लेता है कि किसी भी तरह का पदार्थ भरने पर वह ऊर्जा पैदा कर सके – यहां तक कि ‘टैंक’ में एक-दो गाजर ठूंसने पर भी।

खैर, 2015 बीत गया है और इस तरह की किसी भी ईंधन से चलने वाली (फ्यूज़न) गाड़ियों की संभावना अभी भी साकार होती नज़र नहीं आ रही है। अलबत्ता, हमने नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों (जैसे गाजर या संभवत: केले के छिलकों) से स्वच्छ ऊर्जा पैदा करने के नए और बेहतर तरीकों की उम्मीद नहीं छोड़ी है।

वास्तव में केमिकल साइंस में इस वर्ष प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार लॉज़ेन स्थित स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के एक शोध दल ने केले से ऊर्जा प्राप्त करने में सफलता हासिल कर ली है।

उन्होंने केले के छिलके, संतरे के छिलके, नारियल की नट्टी जैसे जैव-पदार्थों के विघटन के लिए ज़ीनॉन लैंप के प्रकाश का उपयोग किया है।

लेकिन इस नवाचारी तरीके पर बात करने से पहले थोड़ी बात इस पर कर लेते हैं कि ऊर्जा स्रोत के रूप में हाइड्रोजन इतनी आकर्षक क्यों है। अत्यधिक ऊर्जा को बहुत कम जगह में भंडारित करके रखना एक मुख्य आवश्यकता है, और हाइड्रोजन की ऊर्जा भंडारण क्षमता बहुत अच्छी है। ईंधन को उनके ऊर्जा मूल्य (जिसे ताप मूल्य भी कहा जाता है) के हिसाब से श्रेणीबद्ध करने में निर्णायक तत्व कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन होते हैं। हाइड्रोजन का ऊर्जा मूल्य कार्बन से सात गुना अधिक है।

लकड़ी को जलाने पर, ऊष्मा उत्पन्न करने वाली अभिक्रिया में, कार्बन और हाइड्रोजन ऑक्सीकृत हो जाते हैं, और अंतिम उत्पाद कार्बन डाईऑक्साइड और पानी होते हैं। कार्बन डाईऑक्साइड एक ग्रीनहाउस गैस है, जो ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देती है।

हाइड्रोजन जलाने पर हमें केवल पानी और ऊष्मा मिलती है। हाइड्रोजन से ऊर्जा प्राप्त करने का एक बेहतर तरीका होगा इससे बिजली बनाना। इसके लिए एक प्रोटॉन एक्सचेंज मेम्ब्रेन ईंधन सेल का उपयोग किया जाता है। इस सेल में किसी धातु उत्प्रेरक की उपस्थिति में हाइड्रोजन के अणुओं को प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉन में तोड़ा जाता है, और इलेक्ट्रॉन विद्युत धारा उत्पन्न करते हैं।

वाहनों में

कुछ जगहों पर अब इस तरह के ईंधन सेल कुछ छोटे यात्री वाहनों को चलाने के लिए उपयोग किए जा रहे हैं। इलेक्ट्रिक कारों के विपरीत, हाइड्रोजन चालित कारों में ईंधन भरने में महज पांच मिनट लगते हैं। व्यावसायिक रूप से उपलब्ध हाइड्रोजन चालित कारों के ईंधन टैंक में 5-6 किलोग्राम संपीड़ित हाइड्रोजन भरी जा सकती है। और प्रत्येक किलोग्राम हाइड्रोजन से गाड़ी लगभग 100 किलोमीटर चलती है (और नौ लीटर पानी उत्सर्जित होता है, ज़्यादातर भाप के रूप में)।

ईंधन के रूप में हाइड्रोजन की सीमित लोकप्रियता उसके उत्पादन और वितरण सम्बंधी अड़चनों के कारण है। वैसे, रसोई गैस की तुलना में हाइड्रोजन का प्रबंधन अधिक सुरक्षित है।

औद्योगिक पैमाने पर हाइड्रोजन का उपयोग उर्वरक उत्पादन हेतु अमोनिया बनाने में किया जाता है। विश्व की 90 प्रतिशत से अधिक हाइड्रोजन का उत्पादन तो जीवाश्म ईंधन से होता है। इसी कारण ऊर्जा के ऐसे वैकल्पिक स्रोतों की तलाश जारी है जो पर्यावरण को क्षति न पहुंचाते हों। जैव-पदार्थ (बायोमास) में वनस्पति और पशु अपशिष्ट शामिल हैं। जैव-पदार्थ हाइड्रोजन और कार्बन दोनों का एक समृद्ध स्रोत है – केले के सूखे छिलके में 5 प्रतिशत हाइड्रोजन होती है, और 33 प्रतिशत कार्बन होता है। जलवायु परिवर्तन रोकथाम सम्बंधी सारे प्रोटोकॉल्स का एक प्रमुख लक्ष्य है कि जितना संभव हो सके उतना कार्बन भंडारित कर लिया जाए – इसे गैस न बनने दिया जाए।

स्विस शोध दल ने जैव-पदार्थ (केले) से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए ताप-अपघटन (पायरोलिसिस) का उपयोग किया; इसमें निष्क्रिय (ऑक्सीजन-रहित) परिस्थिति में थोड़े-थोड़े समय के लिए तीव्र ताप देकर कार्बनिक पदार्थ का विघटन किया जाता है।

ज़ीनॉन लैंप के विकिरण से अत्यधिक ऊष्मा पैदा होती है – सिर्फ 15 मिलीसेकंड के लिए दिया गया विकिरण पदार्थ को 600 डिग्री सेल्सियस तक गर्म करने के लिए पर्याप्त होता है। इतनी ऊष्मा एक किलोग्राम केले के छिलके के पाउडर को विघटित कर सकती है – और इससे 100 लीटर हाइड्रोजन गैस मुक्त होती है।

इतने कम समय के लिए मुक्त प्रकाश-ऊष्मा ऊर्जा से 330 ग्राम बायोचार (बायो चारकोल) भी पैदा होता है। यह एक ठोस अपशिष्ट है जिसमें कार्बन होता है।

दूसरी ओर यदि जैव-पदार्थ को जलाया जाए तो कार्बन ऑक्सीकृत होकर कार्बन मोनोऑक्साइड और कार्बन डाईऑक्साइड के रूप पर्यावरण में चला जाता है। पायरोलिसिस यह सुनिश्चित करता है कि कार्बन ठोस रूप में बचा रहे।

बायोचार के लाभ

कार्बन को ठोस रूप में सुरक्षित रखने के अलावा बायोचार के कृषि में कई उपयोग हैं। चावल की भूसी जैसे कृषि अपशिष्ट जैव-पदार्थ का एक प्रमुख स्रोत हैं। और इनसे बनने वाले बायोचार में काफी खनिज तत्व होते हैं। इसे मिट्टी में डालने से पौधों को पोषक तत्व मिलते हैं।

2019 में एनल्स ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेस में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार बायोचार की छिद्रमय प्रकृति के चलते यह प्रदूषित मिट्टी के विषाक्त पदार्थों को सोखकर विषाक्तता कम करता है।

जैव-पदार्थ, चाहे वह केले के छिलके का हो, पेड़ की छाल का हो या पोल्ट्री खाद का हो, के इस तरह के उपयोग से वायु की गुणवत्ता में सुधार होता है और कृषि उत्पाद बेहतर होते हैं – और वाहनों में इसका उपयोग उन्हें उत्सर्जन मुक्त बनाता है। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या मौत की चेतावनी से दुर्घटनाएं टलती हैं?

पिछले कुछ सालों में अमेरिका ने हाइवे के किनारे लगे इलेक्ट्रॉनिक बोर्ड पर उस सड़क पर हुई सड़क दुर्घटनाओं में मौतों की संख्या दर्शाना शुरू किया था ताकि लोग इन आकड़ों से सबक लेकर सुरक्षित तरीके से गाड़ी चलाएं और सड़क हादसे कम हों। लेकिन एक नया विश्लेषण बताता है कि हाइवे पर ऐसे संकेतों से दुर्घटनाएं कम होने की बजाय बढ़ सकती हैं।

इसके पीछे सोच यह थी कि वाहन चालकों का ध्यान इन दुर्घटनाओं की तरफ आकर्षित होगा जो उन्हें जोखिम भरी ड्राइविंग न करने के लिए प्रेरित करेगा। टेक्सास प्रांत में 2012 से लगातार वर्ष भर में सड़क हादसों में हुई मौतों को दर्शाया जा रहा है। लेकिन इसके असर का कभी बारीकी से अध्ययन नहीं किया गया था।

इन चेतावनियों का असर जानने के लिए मिनेसोटा युनिवर्सिटी के बिहेवियरल इकॉनॉमिस्ट जोशुआ मैडसन और युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के परिवहन अर्थशास्त्री जोनाथन हॉल ने मिलकर अध्ययन किया।

हाइवे पर सड़क दुर्घटना में हुई मृत्यु के आंकड़े दर्शाने की प्रत्येक राज्य की नीति अलग है। कई राज्य दिन के केवल सुरक्षित समय ही ये आंकड़े दिखाते हैं, भीड़-भाड़ के समय नहीं जब अन्य ट्रैफिक संदेश दिखाए जाते हैं।

शोधकर्ताओं ने अपना अध्ययन टेक्सास पर केंद्रित किया, जहां राजमार्गों पर लगे 880 साइन बोर्ड्स पर हर महीने लगातार एक सप्ताह के लिए ये आंकड़ें प्रदर्शित किए जाते हैं। शोधकर्ताओं ने 2010 से 2017 के बीच प्रभावित सड़कों पर हुई सभी सड़क दुर्घटनाओं का डैटा इकट्ठा किया। उन्होंने बोर्ड पर मृत्यु के आंकड़े दर्शाए जाने वाले हफ्ते में हुई दुर्घटनाओं की तुलना बाकी महीने में हुई दुर्घटनाओं की संख्या से की। तुलना करते समय उन्होंने ध्यान रखा हफ्ते के समान दिन (जैसे मंगलवार) और समान घंटे में होने वाली दुर्घटनाओं के बीच तुलना की जाए। उन्होंने तुलना में मौसम और छुट्टियों जैसे कारकों को भी नियंत्रित किया, जो अपने आप में दुर्घटनाओं की संख्या को प्रभावित कर सकते हैं।

साइंस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में 8,44,939 दुर्घटनाओं का विश्लेषण करने पर पता चला है कि जिस दौरान सड़क मौतों की संख्या प्रदर्शित की गई उस दौरान साइन बोर्ड से 10 किलोमीटर आगे तक के मार्ग पर होने वाली दुर्घटनाओं में 1.35 प्रतिशत की वृद्धि हुई। शोधकर्ताओं का मत है कि वाहन चलाते समय मौत के आंकड़े दिखने पर वाहन चालक का ध्यान बहुत अधिक विचलित होता है, नतीजतन दुर्घटना होती है।

अन्य शोधकर्ताओं को लगता है कि अधिक मृत्यु संख्या के प्रदर्शन के समय अधिक हादसों की बात ठीक नहीं लगती, क्योंकि वाहन चालक वास्तव में मौतों की संख्या के आधार पर अलग-अलग तरह से सोचते नहीं होंगे। सड़क हादसों में वृद्धि के कारण जानने के लिए और शोध की ज़रूरत है। बहरहाल, यह अध्ययन इतना तो बताता ही है कि चेतावनी संदेश सड़क हादसों में कमी लाने में कारगर नहीं हैं। यह पता लगाने की ज़रूरत है कि किस तरह के संदेश सुरक्षित ड्राइविंग को प्रेरित करेंगे, ताकि दुर्घटनाओं को रोका जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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