साढ़े पांच हज़ार वर्ष पुरानी चुर्इंगम – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

चुर्इंगम को चबाते हुए हमने कई अठखेलियां की हैं। हाल ही में दक्षिणी डेनमार्क से 5700 वर्ष पूर्व इंसानों द्वारा चबाए गए टार के टुकड़े प्राप्त हुए हैं। बर्च नामक पेड़ की छाल को चबाने से बनी चिपचिपी एवं काली टार की इस चुर्इंगम को चबाते-चबाते उन लोगों ने अपने कई रहस्य उसमें कैद कर दिए। इनकी मदद से आज के वैज्ञानिक उनके रहन-सहन और खान-पान की आदतों का पता लगा सकते हैं।

5700 वर्ष पूर्व के प्राचीन डेनमार्क निवासी शिकार करके अपना जीवन यापन करते थे। वे तीर के सिरे पर नुकीले पत्थर चिपकाने के लिए या पत्थरों के सूक्ष्म औजारों को लकड़ी पर चिपकाने के लिए चिपचिपे टार का उपयोग करते थे। टार प्राप्त होता था बर्च नामक पेड़ की छाल को चबाने से। लगातार चबाने से टार चुर्इंगम के समान नरम हो जाता था और औज़ारों को चिपकाने-सुधारने के काम आता था। शायद, टार में पाए जाने वाले एन्टिसेप्टिक तेल और रसायन का उपयोग दांत दर्द से राहत पहुंचाने के लिए भी किया जाता हो। यह भी हो सकता है कि आज के बच्चों के समान उस समय के बच्चे भी टार की चुर्इंगम से खिलवाड़ करते रहे हों। टार की चुर्इंगम को चबाते-चबाते मुंह के अंदर की टूटी कोशिकाएं, भोजन के कण एवं सूक्ष्मजीव भी उसमें संरक्षित हो गए थे। यह प्राचीन चुर्इंगम वैज्ञानिकों को प्राचीन मानव के डीएनए का अध्ययन करने का बेहतरीन अवसर दे रही है।

नेचर कम्यूनिकेशन में दी एनशियंट डीएनए (प्राचीन डीएनए) नामक शोध पत्र में बताया गया है कि प्राचीन चुर्इंगम से प्राप्त डीएनए उस क्षेत्र में बसे लोगों की शारीरिक रचना तथा उनके भोजन और दांतों पर पाए जाने वाले जीवाणु के सुराग देता है।

कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के पुरातत्ववेत्ता हेंस श्रोडर ने बताया है कि अक्सर वैज्ञानिक डीएनए अध्ययन के लिए हड्डियों का उपयोग करते हैं क्योंकि उनका कठोर आवरण अंदर नाज़ुक कोशिकाओं और डीएनए को संरक्षित कर लेता है। परंतु, इस शोध में वैज्ञानिकों ने हड्डियों के बजाय प्राचीन टार की चुर्इंगम का उपयोग किया। उन्होंने यह भी बताया कि टार की चुर्इंगम से बहुत से जीवाणुओं के संरक्षित डीएनए भी प्राप्त हुए हैं।

शोधकर्ताओं को टार की चुर्इंगम पिछले साल खोजबीन के दौरान एक सुरंग से प्राप्त हुई थी। डॉ. श्रोडर ने कहा कि इस स्थान से प्राप्त जीवाश्म के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इस इलाके के रहने वाले लोग मुख्य रूप से मछली पकड़ने, शिकार करने और जंगली बेर और फल खाकर अपना जीवन यापन करते थे। यद्यपि, आसपास के इलाकों में लोगों ने खेती और पशुपालन भी प्रारंभ कर दिया था।

जब शोधकर्ताओं ने 5700 साल पुरानी टार की चुर्इंगम में संरक्षित मानव डीएनए का विश्लेषण किया तो पाया कि जिसने उसे चबाया था वह एक महिला थी जो शिकारी समुदाय से अधिक निकटता रखती थी। वैज्ञानिकों ने उस महिला का नाम लोला रखा। लोला के डीएनए को पूरा पढ़ने के बाद उसी क्षेत्र की वर्तमान आबादी के डीएनए आंकड़ों का तुलनात्मक विश्लेषण करके वैज्ञानिकों का अनुमान है कि लोला की त्वचा का रंग गहरा था, बाल भी गहरे रंग के थे तथा आंखों का रंग नीला था। वह लेक्टोस असहिष्णुता से ग्रसित थी जिसके कारण वह दूध की शर्करा का पाचन नहीं कर सकती थी।

डीएनए में क्षारों के अनुक्रम को पढ़कर व्यक्ति के रंग-रूप, कद-काठी एवं अन्य लक्षणों से चेहरे और शरीर का पुनर्निर्माण करना अब कोई आश्यर्चजनक कार्य नहीं रह गया है। वैज्ञानिकों ने कुछ ही समय पहले दस हज़ार वर्ष पुराने ब्रिटिश व्यक्ति (चेडर मेन) के कंकाल को देखकर और डीएनए को पढ़कर शारीरिक लक्षणों का अंदाज़ लगाया था।

टार की चुर्इंगम से प्राप्त कुछ अन्य डीएनए नमूनों से यह भी ज्ञात हुआ है कि लोला ने टार की चुर्इंगम को चबाने से पहले हेसलनट तथा बतख खाई थी। बर्च टार से बैक्टीरिया एवं वायरस का डीएनए भी प्राप्त हुआ है। हम सभी के मुंह और आंत में बैक्टीरिया, वायरस और फफूंद होती हैं। अत: प्राप्त सबूतों से लोला के मुंह में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव संसार (माइक्रोबायोम) का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

लोला की चुर्इंगम से कई बैक्टीरिया भी प्राप्त हुए हैं जो दांतों में प्लाक और जीभ पर भी पाए जाते हैं। चुर्इंगम से प्राप्त एक बैक्टीरिया पोकायरोमोनास जिंजिवेलिस मसूड़ों की बीमारी का द्योतक है। चुर्इंगम में स्ट्रेप्टोकोकस न्यूमोनिया जैसे अन्य प्रकार के बैक्टीरिया एवं वायरस भी प्राप्त हुए हैं जो लोला के स्वास्थ्य का सुराग देते हैं।

छोटे से गम के टुकड़े से जानकारी का खजाना प्राप्त करना उत्कृष्ट शोध का नमूना है। अलबत्ता, वैज्ञानिक लोला की उम्र ज्ञात नहीं कर पाए हैं। और निश्चित तौर पर यह भी कहा नहीं जा सकता कि लोला ने चुर्इंगम को क्यों चबाया (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नई सफलताओं की ओर बढ़ा भारतीय विज्ञान – चक्रेश जैन

विदा हो चुके वर्ष 2019 में भारतीय विज्ञान लगातार आगे बढ़ता रहा। हमारे देश के वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर जीनोम अनुक्रम के अनुसंधान में बड़ी सफलताएं हासिल कीं। गुज़रे साल में भारत की अंतरिक्ष विज्ञान की उपलब्धियों में नए और ऐतिहासिक अध्याय जुड़ते रहे। वर्ष के उत्तरार्ध में 22 जुलाई को चंद्रयान-2 का सफल प्रक्षेपण किया गया। आखरी क्षणों की छोटी-सी विफलता को छोड़ दें तो भारत ने यह साबित कर दिया कि वह चंद्रमा के उस हिस्से पर अपना यान पहुंचा सकता है, जिसे दक्षिणी ध्रुव कहा जाता है।

चंद्रयान-2 मिशन में आठ महिला वैज्ञानिकों ने सहभागिता की। वनिता मुथैया मिशन की प्रोजेक्ट डायरेक्टर थीं, जो काफी समय से उपग्रहों पर शोध करती रही हैं। मुथैया चंद्रयान-1 मिशन में भी योगदान कर चुकी हैं। रितु करिधान मिशन डायरेक्टर थीं, जिन्हें ‘रॉकेट वुमन ऑफ इंडिया’ कहा जाता है।

दरअसल, चंद्रयान-2 एक विशेष उपग्रह था, जिसे जीएसएलवी मार्क-3 प्रक्षेपण यान के ज़रिए अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक भेजा गया था। चंद्रयान-2 के तीन महत्वपूर्ण घटक हैं – ऑर्बाइटर, विक्रम लैंडर और प्रज्ञान रोवर। लैंडर का नामकरण भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के संस्थापक विक्रम साराभाई के नाम पर किया गया है। चंद्रयान-2 का वज़न लगभग चार हज़ार किलोग्राम था। इसरो के अनुसार चंद्रयान-2 मिशन पर 978 करोड़ रुपए खर्च हुए। इससे पहले अक्टूबर 2008 में चंद्रयान-1 भेजा गया था। चंद्रयान-1 की सबसे बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि चंद्रमा पर पानी की खोज थी। यह भारत का पहला इंटरप्लेनेटरी मिशन था, जिसने मंगल और चंद्रयान-2 का मार्ग प्रशस्त किया।

इस वर्ष 25 जनवरी को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने पीएसएलवीसी-44 के ज़रिए इमेजिंग उपग्रह माइक्रोसैट-आर और कलामसैट को पृथ्वी की कक्षा में सफलतापूर्वक विदा किया। कलामसैट उपग्रह का निर्माण विद्यार्थियों ने किया था। यह विश्व का सबसे कम वज़न का और सबसे छोटा उपग्रह था। कलामसैट का जीवन काल भी बहुत छोटा था। कलामसैट अपने साथ दो बॉयोलाजिकल पेलोड ले गया, जिसमें तुलसी और सूरजमुखी के बीज थे। 1 फरवरी को पीएसएलवी-सी-45 द्वारा एमीसैट और अन्य 28 उपग्रहों का प्रक्षेपण किया गया। 6 फरवरी को संचार उपग्रह जीसैट-31 को फ्रेंच गुयाना से सफलतापूर्वक विदा किया गया। यह भारत का 40वां संचार उपग्रह है। जीसैट-31 का वजन 40 किलोग्राम है। यह 15 वर्षों तक अंतरिक्ष में रहेगा। इस उपग्रह से शेेयर बाजार, ई-प्रशासन और दूर संचार से जुड़ी अन्य सेवाओं के विस्तार में मदद मिल रही है।

27 मार्च को भारत ने उपग्रहरोधी मिसाइल क्षमता का सफलतापूर्वक परीक्षण किया। इसके साथ ही हमारा देश अमेरिका, रूस और चीन की विशिष्ट बिरादरी में सम्मिलित हो गया। एक अप्रैल को पीएसएलवी-सी-45 प्रक्षेपण यान से एमिसैट सहित 29 उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करके नया इतिहास रचा गया। एमिसैट का निर्माण इसरो और भारतीय प्रतिरक्षा अनुसंधान संगठन (डीआरडीओ) ने किया है। एमिसैट सीमा पर नज़र रखने में मददगार होगा। मई में इसरो ने पृथ्वी पर्यवेक्षण उपग्रह रीसैट-2 बी का प्रक्षेपण किया। रीसैट-2 बी वास्तव में राडार इमेजिंग उपग्रह है। इससे प्राप्त आंकड़ों का उपयोग कृषि, वानिकी, आपदा प्रबंधन और मौसम की नवीनतम जानकारियां प्राप्त करने में हो रहा है।

गुज़रे साल इसरो ने अंतरिक्ष में उपग्रहों को भेजने का सिलसिला जारी रखते हुए 27 नवम्बर को कार्टोसैट-3 और अमेरिका के 13 नैनौ उपग्रहों का प्रक्षेपण किया। कार्टोसैट-3 उन्नत और भू-अवलोकन उपग्रह है, जो अंतरिक्ष से पृथ्वी पर पैनी निगाह रख रहा है। 11 दिसंबर को पीएसएलवी-सी-48 की पीठ पर सवार होकर रीसैट-2बी-1अंतरिक्ष में पहुंचा। यह पीएसएलवी का 50वां सफल प्रक्षेपण था। रीसैट-2बी-1का जीवनकाल पांच वर्ष है। यह उपग्रह निगरानी की भूमिका निभाएगा। इसरो ने शोध और विकास के लिए बजट में न्यू इंडिया स्पेस लिमिटेड बनाने का प्रस्ताव भी रखा। नेशनल रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना का प्रस्ताव भी रखा गया।

यह वही वर्ष है, जब नई दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी के वैज्ञानिकों ने जीन सम्पादन की तकनीक क्रिस्पर कॉस-9 का एक नया स्वरूप विकसित किया। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार अब जीन सम्पादन अत्यधिक सटीक तरीके से किया जा सकेगा। इस सफलता से भविष्य में सिकल सेल विकार का प्रभावी तरीके से इलाज किया जा सकेगा।

इसी साल वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की आठ प्रयोगशालाओं के संघ ने दीपावली पर आतिशबाज़ी से होने वाले वायु प्रदूषण को घटाने के लिए इको फ्रेंडली पटाखों – ग्रीन क्रैकर्स – का निर्माण किया। अनुमान है कि इको फ्रेंडली पटाखों से तीस प्रतिशत तक पार्टिक्युलेट उत्सर्जन कम करने में मदद मिली।

वर्ष 2019 में अक्टूबर में आरंभ की गई एक नई और महत्वाकांक्षी परियोजना इंडिजेन के अंतर्गत हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी और दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी के वैज्ञानिकों ने देश के विभिन्न समुदायों के लोगों का सम्पूर्ण जीनोम अनुक्रम तैयार किया। इस परियोजना से प्राप्त आंकड़ों का उपयोग आनुवंशिक बीमारियों के इलाज, नई औषधियों के विकास और विवाह के पहले आनुवंशिकी परीक्षणों में किया जा सकेगा।

इसी वर्ष कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान संस्थान (सीसीएमबी), हैदराबाद के वैज्ञानिकों ने भारतीय पुरुषों में बांझपन के आनुवंशिक कारणों का पता लगाया। यह शोध भारतीय पुरुषों में बांझपन की चिकित्सा में सहायक हो सकता है।

वर्ष 2019 में एक भारतीय इंजीनियर ने थर्टी मीटर टेलीस्कोप (टीएमटी) के लिए सॉफ्टवेयर विकसित किया। यह वि·ा का सबसे बड़ा भू-आधारित टेलीस्कोप है। बीते साल में टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान, मुम्बई के डॉ.सुनील गुप्ता और उनकी शोध टीम ने गर्जन मेघों के मापन के लिए म्यूऑनों के उपयोग की विधि का आविष्कार किया।

विदा हो चुके वर्ष में भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) की तर्ज पर साइंटिफिक सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (एसएसआर) का ड्रॉफ्ट जारी किया। इसका उद्देश्य वैज्ञानिकों को सामाजिक ज़िम्मेदाारी में सहभागी बनाना है। बीते साल में संसद द्वारा डीएनए प्रौद्योगिकी नियमन विधेयक को मंज़ूरी दी गई। इस विधेयक का उद्देश्य लापता लोगों, अपराधियों और अज्ञात मृतकों के लिए डीएनए प्रौद्योगिकी का उपयोग करना है।

नवम्बर में कोलकाता में पांचवां भारतीय अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव आयोजित किया गया। चार दिनों तक चले महोत्सव में वैज्ञानिकों, अनुसंधानकर्ताओं, विज्ञान संचारकों और स्कूली बच्चों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया। महोत्सव में समाज के हर व्यक्ति के लिए कुछ-न-कुछ था। महोत्सव में विज्ञान साहित्य समारोह और विज्ञान फिल्में सम्मिलित थे। स्कूली बच्चों के लिए ‘छात्र विज्ञान ग्राम’ बनाया गया था।

इसी वर्ष 8 मई को मुम्बई स्थित नेहरू साइंस सेंटर में ‘विज्ञान समागम’ प्रदर्शनी का शुभारंभ हुआ। देश में ऐसा पहली बार हुआ है, जब विश्व की वृहत विज्ञान परियोजनाओं को विज्ञान समागम में एक साथ प्रदर्शित किया गया है। विज्ञान समागम प्रदर्शनी वैश्विक परियोजनाओं की वैज्ञानिक जानकारी आम लोगों तक पहुंचाने के लिए विज्ञान संचार के एक सशक्त मंच के रूप में सामने आई है। प्रदर्शनी में विश्व स्तर की विज्ञान परियोजनाओं में भारत के योगदान को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है। वृहत विज्ञान प्रदर्शनी ग्यारह महीने की यात्रा में मुंबई, बैंगलुरु और कोलकाता होते हुए दिल्ली में समाप्त होगी।

वर्ष 2019 में विद्यार्थियों की प्रतिभा को तराशने के लिए प्रधानमंत्री नवाचारी शिक्षण कार्यक्रम ‘ध्रुव’ शुरू किया गया। इसरो ने विद्यार्थियों की अंतरिक्ष अनुसंधान में दिलचस्पी बढ़ाने के लिए ‘संवाद’ कार्यक्रम आरंभ किया।

इसी वर्ष भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के संस्थापक विक्रम साराभाई का जन्म शताब्दी वर्ष मनाया गया। अंतर्राष्ट्रीय एस्ट्रोनॉमिकल यूनियन ने चंद्रमा के एक क्रेटर का नाम उनकी स्मृति में रखकर उन्हें सम्मानित किया था। इसी साल विख्यात प्रकृतिविद् और बांग्ला भाषा में लोकप्रिय विज्ञान लेखन से जुड़े रहे गोपालचंद्र भट्टाचार्य की 125 वीं जयंती विचार गोष्ठी और व्याख्यान आयोजनों के साथ मनाई गई।

प्रोफेसर गगन दीप कांग पहली भारतीय महिला वैज्ञानिक हैं, जिन्हें इस वर्ष फेलो ऑफ रॉयल सोसायटी चुना गया है। 360 वर्षों बाद पहली महिला वैज्ञानिक को यह सम्मान मिला है। उन्होंने रोटा वायरस पर विशेष अनुसंधान किया है। भारत में जन स्वास्थ्य अनुसंधान में उनका विशेष योगदान है। प्रोफेसर कांग वर्तमान में फरीदाबाद स्थित ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी इंस्टीट्यूट में कार्यकारी निदेशक हैं।

वर्ष 2019 के शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार के लिए विभिन्न विषयों से जुड़े  12 वैज्ञानिकों का चयन किया गया। इसके अलावा, इसी वर्ष इसरो के वैज्ञानिक नांबी नारायण को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।

वर्ष 2019 में शोध अभिव्यक्ति हेतु लेखन कौशल सुदृढ़ीकरण (Augmenting Writing Skills for Articulating Research – अवसर) पुरस्कार से चार युवा वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया गया। पीएच. डी. वर्ग में सर्वश्रेष्ठ शोधपत्र के लिए आशीष श्रीवास्तव को प्रथम पुरस्कार दिया गया। पोस्ट डॉक्टरेट वर्ग में डॉ. पालोमी संघवी को प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया। इस पुरस्कार की शुरुआत 2018 में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने की थी, जिसका उद्देश्य विज्ञान को आम लोगों के बीच लोकप्रिय बनाना है।

17 दिसंबर को इंटरनेशनल एस्ट्रोनॉमिकल यूनियन ने सेक्सटेंस नक्षत्र के एक तारे को भारतीय महिला वैज्ञानिक बिभा चौधरी के नाम पर ‘बिभा’ और उसके एक ग्रह को ‘संतमस’ नाम दिया। संतमस संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है बादली। पहले इस तारे का नाम एचडी 86081 और ग्रह का नाम 86081-बी रखा गया था।

इस वर्ष 3 दिसंबर को भारत में पोषण अनुसंधान के जनक डॉ. सी.गोपालन का निधन हो गया। इसी साल 14 नवंबर को भारतीय गणितज्ञ डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह नहीं रहे। उन्होंने आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत को चुनौती दी थी। (स्रोत फीचर्स)

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प्रागैतिहासिक युग के बच्चे और हथियारों का उपयोग

प्रागैतिहासिक युग का अध्ययन करते समय पुरातत्वविद अक्सर बच्चों को अनदेखा कर देते हैं। उनका ऐसा मानना है कि उनका बचपन केवल माता-पिता के लालन-पालन तथा खेल और खिलौनों के बीच ही गुज़रता होगा। लेकिन एक नए अध्ययन से पता चला है कि प्रागैतिहासिक युग के बच्चे भी कठोर कार्य करते थे। वे कम आयु में ही उपकरणों और हथियारों का उपयोग करना सीख लेते थे जिससे बड़े होकर उनको मदद मिलती थी।     

कनाडा स्थित अल्बर्टा विश्वविद्यालय के पुरातत्वविद रॉबर्ट लोसी और एमिली हल को ओरेगन के तट पर 1700 वर्ष पुरानी वस्तुओं का अध्ययन करते हुए कुछ टूटे हुए तीर और भाले मिले। गौरतलब है कि यह क्षेत्र अतीत में चिनूकन और सलीश भाषी लोगों का घर रहा है। इस अध्ययन के दौरान उन्हें टूटे ऐटलेटल (भालों को फेंकने के हथियार) भी मिले। 

लोसी बताती हैं कि उनको इन हथियारों के केवल बड़े नहीं बल्कि छोटे संस्करण भी दिखाई दिए। एंटिक्विटी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं का अनुमान है कि वयस्कों ने हथियारों के लघु संस्करण भी तैयार किए होंगे ताकि उनकी युवा पीढ़ी शिकार करने के कौशल सीख सके जिसकी उन्हें बाद में आवश्यकता होगी। वास्तव में एक सफल शिकारी बनने के लिए ऐटलेटल में महारत हासिल करना आवश्यक था। हालांकि यह हथियार आज शिकारियों के शस्त्रागार से लगभग गायब हो चुका है लेकिन इसमें पूर्ण महारत हासिल करने में कई साल लग जाते थे। 

देखा जाए तो आज भी कई समाजों में काफी कम उम्र से ही बच्चों को ऐसे उपकरणों और साधनों का उपयोग सिखाया जाता है। कई अध्ययनों से पता चला है कि जो बच्चे औज़ारों से खेलते हैं वे जल्द उनका उपयोग करना भी सीख जाते हैं। उदाहरण के तौर पर थाईलैंड के मानिक समाज के 4 वर्षीय बच्चे बड़ी सफाई से खाल उतारने और आंत को अलग करने का काम कर लेते हैं। एक अध्ययन से पता चला है कि तंज़ानिया के हाज़दा समाज के 5 वर्षीय बच्चे उम्दा संग्रहकर्ता होते हैं और अपनी दैनिक कैलोरी खपत का आधा हिस्सा खुद इकट्ठा कर सकते हैं। इस प्रकार के कई अन्य अध्ययन दर्शाते हैं कि प्रागैतिहासिक युग के बच्चे लघु-प्रसंस्करण के औज़ारों और खाद्य प्रसंस्करण के औज़ारों का उपयोग किया करते थे। कई अध्ययन के अनुसार कंकाल के प्रमाणों से पता चला है कि वाइकिंग किशोर भी सेना में शामिल थे।  लोगान स्थित ऊटा स्टेट युनिवर्सिटी की मानव विज्ञानी लैंसी के अनुसार इन अध्ययनों के बाद औद्योगिक समाज के माता-पिता को सीख लेनी चाहिए। आजकल एक कामकाजी बच्चे के विचार को एक प्रकार के शोषण के रूप में देखा जाता है, अधिकतर माता-पिता इसे गलत मानते हैं। लेकिन लैंसी का ऐसा मानना है कि बाल-श्रम और बच्चों के काम में काफी फर्क है। काम करते हुए बच्चे उपयोगी कौशल सीखते हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि बच्चों का काम करना आज भी कई समाजों में एक सामान्य बात है और लगता है कि ऐसा सहरुााब्दियों से रहा है। (स्रोत फीचर्स)

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प्रतिरोधी रोगों से लड़ाई का नेतृत्व करे भारत – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

न्यूयॉर्क टाइम्स के 28 दिसंबर के अंक में एक आलेख के शीर्षक का भावार्थ कुछ ऐसा था: दीवालियापन के शिकार एंटीबायोटिक्स – स्वास्थ्य का संकट मंडरा रहा है क्योंकि दवा-प्रतिरोधी कीटाणुओं के खिलाफ लड़ाई में मुनाफा कम होने की वजह से निवेशक कतरा रहे हैं (Lifelines at risk as bankruptcies stall antibiotics – a health crisis looms: scant profits in fighting drug-resistant bugs sours investors)। इसका सम्बंध ऐसे रोगजनक बैक्टीरिया और फफूंद से है जो अब पारंपरिक एंटीबायोटिक के प्रतिरोधी हो चले हैं। इनमें स्यूडोमोनास, ई. कोली, क्लेबसिएला, साल्मोनेला और तपेदिक का बैक्टीरिया शामिल हैं। ऐसे बहु-औषधि प्रतिरोधी (MDR) रोगाणु उभर रहे हैं। ये प्रति वर्ष दुनिया भर में लगभग 30 लाख लोगों को बीमार करते हैं और राष्ट्र संघ का कहना है कि यदि हमने जल्दी ही ऐसे रोगाणुओं से लड़ने के लिए दवाइयां विकसित न कीं तो 2050 तक इनकी वजह से सालाना 1 करोड़ लोग मौत के शिकार होंगे।

सवाल है कि ये बहु-औषधि प्रतिरोधी रोगाणु आए कहां से? पेनिसिलीन और उसी जैसे एंटीबायोटिक्स (एरिथ्रोमायमीन, फ्लॉक्सिन) वगैरह का इस्तेमाल 60-70 साल पहले शुरू हुआ था। तब से हम इनका उपयोग सफलतापूर्वक करते रहे हैं क्योंकि ऐसी कोई भी परंपरागत दवा करोड़ों रोगाणुओं को मार डालती है। लेकिन फिर भी ऐसे रोगाणुओं की एक छोटी-सी संख्या बच निकली। उनके जीन्स में कतिपय छोटे-मोटे अंतरों की वजह से उनमें बचाव के कुछ रास्ते रहे होंगे जिसकी बदौलत उनमें ऐसी क्षमता होती है कि वे दवा को अपनी कोशिकाओं में प्रवेश ही नहीं करने देते या प्रवेश करने के बाद उसे निकाल बाहर करते हैं। ऐसे बचे हुए रोगाणु लगातार संख्यावृद्धि करते हैं और महीनों-वर्षों में करोड़ों की तादाद में इकट्ठे हो जाते हैं। इनमें से कुछ एकाधिक दवाइयों से बचने का जुगाड़ कर लेते हैं। सारे प्रचलित एंटीबायोटिक्स के खिलाफ प्रतिरोधी ऐसे रोगाणुओं को ही MDR कहते हैं।

ऐसी स्थिति में ज़रूरत इस बात की है कि वैज्ञानिक और दवा कंपनियां MDR रोगाणुओं के जीव विज्ञान को लेकर बुनियादी अनुसंधान करें और उनके खिलाफ लड़कर फतह हासिल करने के लिए कारगर दवाइयां विकसित करें।

किसी नई दवा की खोज/आविष्कार करके उसे बाज़ार में उपलब्ध कराने में प्राय: दस वर्ष तक का समय लग जाता है। दरअसल, इसी तरह के अनुसंधान व विकास के प्रयासों के दम पर ही मधुमेह, गठिया, रक्त विकार और कैंसर जैसी जीर्ण बीमारियों के खिलाफ दवाइयां विकसित हुई हैं। और इनमें से हरेक से सम्बंधित अनुसंधान व विकास के काम पर अरबों डॉलर का निवेश लगता है और कंपनी की अपेक्षा होती है कि उसे हर साल अरबों डॉलर का मुनाफा मिले। न्यूयॉर्क टाइम्स के उपरोक्त लेख में एंड्रू जैकब कहते हैं कि प्रमुख दवा कंपनियां MDR रोगाणु सम्बंधी शोध से कतराती रही हैं क्योंकि जीर्ण रोगों के विपरीत एंटीबायोटिक दवाइयों में अच्छा मुनाफा नहीं है। कारण यह है कि जहां जीर्ण रोगों की दवाइयां लंबे समय तक लेनी होती हैं, वहीं एंटीबायोटिक तो कुछ दिनों या, बहुत हुआ तो, हफ्तों के लिए दी जाती हैं।

यही स्थिति MDR रोगाणुओं के संदर्भ में अनुसंधान और विकास कार्य करके उनके खिलाफ दवा विकसित करने के मामले में भी है। इसके लिए भी लंबी अवधि के प्रयासों और अरबों डॉलर के निवेश की ज़रूरत है। इसी मामले में कुछ निजी कंपनियों ने योगदान दिया है। खुशी की बात है कि इन्हें अनुसंधान व विकास कार्य के लिए वित्तपोषण कुछ निजी प्रतिष्ठानों और सरकारी रुाोतों से प्राप्त हो रहा है। उक्त लेख में बताया गया है कि कैसे एकाओजेन नामक जैव-टेक्नॉलॉजी कंपनी यूएस सरकार के बायोमेडिकल रिसर्च एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी से एक अरब डॉलर का अनुदान पाने में सफल रही है और उसने 15 साल के अनुसंधान व विकास कार्य के फलस्वरूप ज़ेमड्री नामक दवा तैयार की है। ज़ेमड्री दरअसल प्लेज़ोमायसिन का ब्राांड नाम है और यह मूत्र मार्ग के दुष्कर संक्रमण के उपचार में कारगर पाई गई है। ज़ेमड्री को यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन की मंज़ूरी मिल चुकी है। बदकिस्मती से, एकाओजेन इस औषधि से ज़्यादा मुनाफा नहीं कमा सकी, जिसके चलते उसके निवेशक खफा हो गए और कंपनी दिवालिया हो गई।

इसी प्रकार से टेट्राफेज़ नामक कंपनी को एक गैर-मुनाफा संस्था से बड़ा अनुदान मिला था और उसने ज़ेरावा नामक दवा का विकास किया जो कुछ MDR रोगाणुओं के खिलाफ कारगर है। लेकिन कंपनी को गिरते स्टॉक मूल्य के चलते स्टाफ की छंटनी करनी पड़ी और आगे अनुसंधान व विकास कार्य में भी कटौती करनी पड़ी।

यही हालत एक तीसरी कंपनी मेंलिंटा थेराप्यूटिक्स की भी हुई। इस कंपनी ने बैक्सडेला नामक औषधि विकसित की थी जिसे खाद्य व औषधि प्रशासन ने दवा-प्रतिरोधी निमोनिया के लिए मंज़ूरी दे दी थी।

यह बात गौरतलब है कि एकाओजेन कंपनी को सिप्ला-यूएस ने खरीद लिया था। सिप्ला-यूएस भारतीय लोकहितैषी दवा कंपनी सिप्ला की यूएस शाखा है। इसके अंतर्गत सारे उपकरण भी खरीदे गए और ज़ेमड्री को बनाने की टेक्नॉलॉजी तथा उसे बनाने व दुनिया भर में बेचने के अधिकार भी शामिल थे।   

सिप्ला का यह कदम अन्य भारतीय कंपनियों के लिए मिसाल है कि उन्हें भी इस क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिए। वे अपने तर्इं यूएस की अन्य कंपनियों से बातचीत करके उन्हें खरीद सकती हैं या पार्टनर अथवा मालिक के रूप में रोगाणुओं के खिलाफ दवाइयां बनाने की वह टेक्नॉलॉजी अर्जित कर सकती हैं जो इन कंपनियों ने कड़ी मेहनत करके विकसित की है। इसके बाद ये भारतीय कंपनियां ये दवाइयां न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर के ज़रूरतमंद मरीज़ों को मुहैया करा सकती है।

हाल ही में भारत में MDR रोगाणुओं की वजह से होने वाली मौतों को लेकर सोमनाथ गंद्रा व साथियों ने देश के 10 अस्पतालों में अध्ययन किया था। क्लीनिकल इंफेक्शियस डिसीज़ेस में प्रकाशित उनके शोध पत्र में बताया गया है कि MDR रोगाणुओं की वजह से मृत्यु दर 13 प्रतिशत है। यदि यह अस्पताल में पहुंचने वाले मरीज़ों की स्थिति है, तो कल्पना कर सकते हैं कि देश के गांवों-कस्बों में लाखों लोग ऐसी बीमारियों की वजह से दम तोड़ रहे होंगे। और इसमें कोई संदेह नहीं कि अफ्रीका, दक्षिण-पूर्वी एशिया और अन्य कम आमदनी वाले देशों में भी स्थिति बहुत अलग नहीं होगी। लिहाज़ा, भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा किया गया अनुसंधान व विकास कार्य जन स्वास्थ्य और आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होगा। 

अच्छी बात यह है कि भारत सरकार और उसकी वित्तपोषक संस्थाएं सरकारी शोध व विकास संस्थानों और वि·ाविद्यालयों में इस फोकल थीम के क्षेत्र में शोधकर्ताओं को अनुदान देने को तत्पर हैं। इसके अलावा, गैर-सरकारी संस्थाओं और दवा कंपनियों को भी यह अनुदान मिल सकता है। भारत में निजी गैर-मुनाफा प्रतिष्ठानों को भी अपने बटुए खोलने चाहिए।

हममें से कई यह बात शायद नहीं जानते कि हमारा देश दुनिया भर में बचपन के टीकों का एक प्रमुख सप्लायर बन चुका है। भारत के मुट्ठी भर टीका-उत्पादक आज अपने अनुसंधान व विकास कार्य के दम पर दुनिया भर में 35 प्रतिशत बचपन के टीके सप्लाय करते हैं। ऐसे में कोई कारण नहीं कि क्यों भारत MDR किस्म के रोगों और अन्य संक्रमणों के खिलाफ अपने अनुसंधान के दम पर दुनिया के 7 अरब लोगों को अच्छा स्वास्थ्य देने के मामले में अग्रणि नहीं हो सकता। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बढ़ते समुद्र से बचाव के लिए एक प्राचीन दीवार

आज से लगभग 7000 वर्ष पूर्व विश्व भर के महासागरों के जलस्तर में वृद्धि होने लगी थी। हिमयुग के बाद हिमनदों के पिघलने से भूमध्य सागर के तट पर बसे लोगों को इस बढ़ते जलस्तर से काफी परेशानी का सामना करना पड़ा। लेकिन इस परेशानी से निपटने के लिए उन्होंने एक दीवार का निर्माण किया जिससे वे अपनी फसलों और गांव को तूफानी लहरों और नमकीन पानी की घुसपैठ से बचा सकें। हाल ही में पुरातत्वविदों ने इरुााइल के तट पर उस डूबी हुई दीवार को खोज निकाला है जो एक समय में एक गांव की रक्षा के लिए तैयार की गई थी।    

इस्राइल स्थित युनिवर्सिटी ऑफ हायफा के पुरातत्वविद एहुद गैलिली के अनुसार इरुााइल की अधिकतर खेतिहर बस्तियां, जो अब जलमग्न हैं, उत्तरी तट पर मिली हैं। ये बस्तियां रेत की एक मीटर मोटी परत के नीचे संरक्षित हैं। कभी-कभी रेत बहने पर ये बस्तियां सतह पर उभर आती हैं।   

गैलिली और उनकी टीम ने इस दीवार को 2012 में खोज निकाला था। यह दीवार तेल हराइज़ नामक डूबी हुई बस्ती के निकट मिली है। बस्ती समुद्र तट से 90 मीटर दूर तक फैली हुई थी और 4 मीटर पानी में डूबी हुई थी। टीम ने स्कूबा गियर की मदद से अधिक से अधिक जानकारी खोजने की कोशिश की। इसके बाद वर्ष 2015 के एक तूफान ने उन्हें एक मौका और दिया। उन्हें पत्थर और लकड़ी से बने घरों के खंडहर, मवेशियों की हड्डियां, जैतून के तेल उत्पादन के लिए किए गए सैकड़ों गड्ढे, कुछ उपकरण, एक चूल्हा और दो कब्रों भी मिलीं। लकड़ी और हड्डियों के रेडियोकार्बन डेटिंग के आधार पर बस्ती 7000 वर्ष पुरानी है।        

प्लॉस वन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह दीवार 100 मीटर लंबी थी और बड़े-बड़े पत्थरों से बनाई गई थी जिनका वज़न लगभग 1000 किलोग्राम तक था। गैलिली का अनुमान है कि यह गांव 200-300 वर्ष तक अस्तित्व में रहा होगा और लोगों ने सर्दियों के भयावाह तूफान कई बार देखे होंगे। आधुनिक समुद्र की दीवारों की तरह इसने भी ऐसे तूफानों से निपटने में मदद की होगी। गैलिली के अनुसार मानवों द्वारा समुद्र पानी से खुद को बचाने का यह पहला प्रमाण है।

गैलिली का ऐसा मानना है कि तेल हराइज़ पर समुद्र का जल स्तर प्रति वर्ष 4-5 मिलीमीटर बढ़ रहा है। यह प्रक्रिया सदियों से चली आ रही है। कुछ समय बाद उस क्षेत्र में रहने वाले लोग समझ गए होंगे कि अब वहां से निकल जाना ही बेहतर है। समुद्र का स्तर बढ़ता रहा होगा और पानी दीवारनुमा रुकावट को पार करके रिहाइशी इलाकों में भर गया होगा। लोगों ने बचाव के प्रयास तो किए होंगे लेकिन अंतत: समुद्र को रोक नहीं पाए होंगे और अन्यत्र चले गए होंगे। (स्रोत फीचर्स)  

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कुत्ते संख्या समझते हैं

हो सकता है कि कुत्ते 10 तक गिनती ना कर पाएं लेकिन बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक कुत्तों को इसका अंदाज़ा होता है कि उनकी प्लेट में कितनी हड्डियां हैं। इस अध्ययन के मुताबिक हम मनुष्यों की तरह कुत्तों में भी मात्रा (या संख्या) की समझ जन्मजात होती है।

किसी समूह में वस्तुओं की संख्या का मोटा-मोटा अनुमान एक नज़र में लगाने की क्षमता मनुष्यों में होती है। पहले हुए कई अध्ययन यह दर्शा चुके थे कि बंदरों, मछलियों, मधुमक्खियों और कुत्तों में भी ‘लगभग संख्या’ का अनुमान लगाने की क्षमता होती है। लेकिन इनमें से कई अध्ययन प्रशिक्षित जानवरों के साथ किए गए थे जिनका इसी दक्षता के लिए बार-बार परीक्षण हुआ था और परीक्षण के दौरान पारितोषिक मिल चुके थे। तो सवाल यह उठा कि क्या मनुष्यों की तरह कुत्तों में भी यह क्षमता जन्मजात होती है?

इसी सवाल का जवाब खोजने के लिए एमरी युनिवर्सिटी के तंत्रिका विज्ञानी ग्रेगरी बन्र्स और उनके साथियों ने अलग-अलग नस्ल के 11 अप्रशिक्षित कुत्तों के साथ यह अध्ययन किया, जैसे बॉर्डर कॉलीस, पिटबुल और लेब्रोडॉर गोल्डन रिट्रीवर। अपने अध्ययन में वे देखना चाहते थे कि क्या मस्तिष्क में संख्या के एहसास से जुड़ी कोई सक्रियता नज़र आती है।

यह जांचने के लिए उन्होंने फंक्शनल मैग्नेटिक रेसोनेंस इमेजिंग (ढग्ङक्ष्) की मदद से कुत्तों के मस्तिष्क को स्कैन किया। उन्होंने कुत्तों को ढग्ङक्ष् स्कैनर में उनकी मर्जी से प्रवेश कराया और उनका सिर एक ब्लॉक पर स्थिर किया। फिर कुत्तों को एक काले पर्दे पर हल्के भूरे रंग के छोटे और बड़े बिंदुओं के कुछ समूह दिखाए। तस्वीरें 300 मिलीसेंकड प्रति तस्वीर की रफ्तार से बदल रही थी। शोधकर्ताओं का अनुमान था कि मनुष्य या अन्य प्राइमेट की तरह यदि कुत्तों के मस्तिष्क में भी संख्याओं के लिए एक निश्चित हिस्सा है तो समान संख्या में बिंदु (4 छोटे बिंदु के बाद 4 बड़े बिंदु) की तुलना में असमान संख्या (जैसे 3 छोटे बिंदु के बाद 10 बड़े बिंदु) आने पर मस्तिष्क के इस हिस्से में कुछ गतिविधि दिखनी चाहिए। 

अध्ययन में 11 में से 8 कुत्तों के मस्तिष्क में अपेक्षित गतिविधि दिखी। आश्चर्य की बात यह रही कि हर कुत्ते के मस्तिष्क के थोड़े अलग हिस्से में गतिविधि दिखी। यह शायद अलग-अलग नस्ल के कुत्तों के बीच का फर्क हो।

वेस्टर्न युनिवर्सिटी की क्रिस्टा मेकफर्सन का कहना है कि ये नतीजे ‘लगभग संख्या प्रणाली’ की हमारी समझ का समर्थन करते हैं। पूर्व में हुए अध्ययन में इन बातों को कुत्तों के व्यवहार के आधार पर दर्शाया गया था। इसलिए यह अध्ययन कुत्तों में संज्ञान को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। वे आगे कहती हैं, चूंकि अध्ययन दर्शाता है कि कुत्ते वस्तु की संख्याओं की ओर अधिक ध्यान देते हैं इसलिए यह कुत्तों का प्रशिक्षण करने वालों के लिए दिलचस्प साबित हो सकता है। वे कुत्तों को पुरस्कार स्वरूप एक बड़ी चीज़ देने की बजाय अधिक संख्या में चीज़ें दे सकते हैं।

बन्र्स का कहना है कि कुत्तों और मनुष्यों के बीच जैव विकास के विशाल अंतर को देखते हुए ये नतीजे इस बात का पुख्ता साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि अधिकतर स्तनधारियों में गिनने की क्षमता जन्मजात होती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ब्लैक होल की पहली तस्वीर और कार्बन कुनबे का विस्तार – चक्रेश जैन

र्ष 2019 विज्ञान जगत के इतिहास में एक ऐसे वर्ष के रूप में याद किया जाएगा, जब वैज्ञानिकों ने पहली बार ब्लैक होल की तस्वीर जारी की। यह वही वर्ष था, जब वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में कार्बन के एक और नए रूप का निर्माण कर लिया। विदा हुए साल में गूगल ने क्वांटम प्रोसेसर में श्रेष्ठता हासिल की। अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में आठ रासायनिक अक्षरों वाले डीएनए अणु बनाने की घोषणा की।

इस वर्ष 10 अप्रैल को खगोल वैज्ञानिकों ने ब्लैक होल की पहली तस्वीर जारी की। यह तस्वीर विज्ञान की परिभाषाओं में की गई कल्पना से पूरी तरह मेल खाती है। भौतिकीविद अल्बर्ट आइंस्टीन ने पहली बार 1916 में सापेक्षता के सिद्धांत के साथ ब्लैक होल की भविष्यवाणी की थी। ब्लैक होल शब्द 1967 में अमेरिकी खगोलविद जॉन व्हीलर ने गढ़ा था। 1971 में पहली बार एक ब्लैक होल खोजा गया था।

इस घटना को विज्ञान जगत की बहुत बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। ब्लैक होल का चित्र इवेंट होराइज़न दूरबीन से लिया गया, जो हवाई, एरिज़ोना, स्पेन, मेक्सिको, चिली और दक्षिण ध्रुव में लगी है। वस्तुत: इवेंट होराइज़न दूरबीन एक संघ है। इस परियोजना के साथ दो दशकों से लगभग 200 वैज्ञानिक जुड़े हुए हैं। इसी टीम की सदस्य मैसाचूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की 29 वर्षीय कैरी बोमेन ने एक कम्प्यूटर एल्गोरिदम से ब्लैक होल की पहली तस्वीर बनाने में सहायता की। विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साइंस ने वर्ष 2019 की दस प्रमुख खोजों में ब्लैक होल सम्बंधी अनुसंधान को प्रथम स्थान पर रखा है।

उक्त ब्लैक होल हमसे पांच करोड़ वर्ष दूर एम-87 नामक निहारिका में स्थित है। ब्लैक होल हमेशा ही भौतिक वैज्ञानिकों के लिए उत्सुकता के विषय रहे हैं। ब्लैक होल का गुरूत्वाकर्षण अत्यधिक शक्तिशाली होता है जिसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता; प्रकाश भी यहां प्रवेश करने के बाद बाहर नहीं निकल पाता है। ब्लैक होल में वस्तुएं गिर सकती हैं, लेकिन वापस नहीं लौट सकतीं।

इसी वर्ष 21 फरवरी को अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में बनाए गए नए डीएनए अणु की घोषणा की। डीएनए का पूरा नाम डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड है। नए संश्लेषित डीएनए में आठ अक्षर हैं, जबकि प्रकृति में विद्यमान डीएनए अणु में चार अक्षर ही होते हैं। यहां अक्षर से तात्पर्य क्षारों से है। संश्लेषित डीएनए को ‘हैचीमोजी’ नाम दिया गया है। ‘हैचीमोजी’ जापानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है आठ अक्षर। एक-कोशिकीय अमीबा से लेकर बहुकोशिकीय मनुष्य तक में डीएनए होता है। डीएनए की दोहरी कुंडलीनुमा संरचना का खुलासा 1953 में जेम्स वाट्सन और फ्रांसिक क्रिक ने किया था। यह वही डीएनए अणु है, जिसने जीवन के रहस्यों को सुलझाने और आनुवंशिक बीमारियों पर विजय पाने में अहम योगदान दिया है। मातृत्व-पितृत्व का विवाद हो या अपराधों की जांच, डीएनए की अहम भूमिका रही है।

सुपरकम्प्यूटिंग के क्षेत्र में वर्ष 2019 यादगार रहेगा। इसी वर्ष गूगल ने 54 क्यूबिट साइकैमोर प्रोसेसर की घोषणा की जो एक क्वांटम प्रोसेसर है। गूगल ने दावा किया है कि साइकैमोर वह कार्य 200 सेकंड में कर देता है, जिसे पूरा करने में सुपर कम्प्यूटर दस हज़ार वर्ष लेगा। इस उपलब्धि के आधार पर कहा जा सकता है कि भविष्य क्वांटम कम्यूटरों का होगा।

वर्ष 2019 में रासायनिक तत्वों की प्रथम आवर्त सारणी के प्रकाशन की 150वीं वर्षगांठ मनाई गई। युनेस्को ने 2019 को अंतर्राष्ट्रीय आवर्त सारणी वर्ष मनाने की घोषणा की थी, जिसका उद्देश्य आवर्त सारणी के बारे में जागरूकता का विस्तार करना था। विख्यात रूसी रसायनविद दिमित्री मेंडेलीव ने सन 1869 में प्रथम आवर्त सारणी प्रकाशित की थी। आवर्त सारणी की रचना में विशेष योगदान के लिए मेंडेलीव को अनेक सम्मान मिले थे। सारणी के 101वें तत्व का नाम मेंडेलेवियम रखा गया। इस तत्व की खोज 1955 में हुई थी। इसी वर्ष जुलाई में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एंड एप्लाइड केमिस्ट्री (IUPAC) का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इस संस्था की स्थापना 28 जुलाई 1919 में उद्योग जगत के प्रतिनिधियों और रसायन विज्ञानियों ने मिलकर की थी। तत्वों के नामकरण में युनियन का अहम योगदान रहा है।

विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के अनुसार गुज़िश्ता साल रसायन वैज्ञानिकों ने कार्बन के एक और नए रूप सी-18 सायक्लोकार्बन का सृजन किया। इसके साथ ही कार्बन कुनबे में एक और नया सदस्य शामिल हो गया। इस अणु में 18 कार्बन परमाणु हैं, जो आपस में जुड़कर अंगूठी जैसी आकृति बनाते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार इसकी संरचना से संकेत मिलता है कि यह एक अर्धचालक की तरह व्यवहार करेगा। लिहाज़ा, कहा जा सकता है कि आगे चलकर इलेक्ट्रॉनिकी में इसके उपयोग की संभावनाएं हैं।

गुज़रे साल भी ब्रह्मांड के नए-नए रहस्यों के उद्घाटन का सिलसिला जारी रहा। इस वर्ष शनि बृहस्पति को पीछे छोड़कर सबसे अधिक चंद्रमा वाला ग्रह बन गया। 20 नए चंद्रमाओं की खोज के बाद शनि के चंद्रमाओं की संख्या 82 हो गई। जबकि बृहस्पति के 79 चंद्रमा हैं।

गत वर्ष बृहस्पति के चंद्रमा यूरोपा पर जल वाष्प होने के प्रमाण मिले। विज्ञान पत्रिका नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि यूरोपा की मोटी बर्फ की चादर के नीचे तरल पानी का सागर लहरा रहा है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार इससे यह संकेत मिलता है कि यहां पर जीवन के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान हैं।

कनाडा स्थित मांट्रियल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बियर्न बेनेक के नेतृत्व में वैज्ञानिकों ने हबल दूरबीन से हमारे सौर मंडल के बाहर एक ऐसे ग्रह (के-टू-18 बी) का पता लगाया है, जहां पर जीवन की प्रबल संभावनाएं हैं। यह पृथ्वी से दो गुना बड़ा है। यहां न केवल पानी है, बल्कि तापमान भी अनुकूल है।

साल की शुरुआत में चीन ने रोबोट अंतरिक्ष यान चांग-4 को चंद्रमा के अनदेखे हिस्से पर सफलतापूर्वक उतारा और ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश बन गया। चांग-4 जीवन सम्बंधी महत्वपूर्ण प्रयोगों के लिए अपने साथ रेशम के कीड़े और कपास के बीज भी ले गया था।

अप्रैल में पहली बार नेपाल का अपना उपग्रह नेपालीसैट-1 सफलतापूर्वक लांच किया गया। दो करोड़ रुपए की लागत से बने उपग्रह का वज़न 1.3 किलोग्राम है। इस उपग्रह की मदद से नेपाल की भौगोलिक तस्वीरें जुटाई जा रही हैं। दिसंबर के उत्तरार्ध में युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने बाह्य ग्रह खोजी उपग्रह केऑप्स सफलतापूर्वक भेजा। इसी साल अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा भेजा गया अपार्च्युनिटी रोवर पूरी तरह निष्क्रिय हो गया। अपाच्र्युनिटी ने 14 वर्षों के दौरान लाखों चित्र भेजे। इन चित्रों ने मंगल ग्रह के बारे में हमारी सीमित जानकारी का विस्तार किया।

बीते वर्ष में जीन सम्पादन तकनीक का विस्तार हुआ। आलोचना और विवादों के बावजूद अनुसंधानकर्ता नए-नए प्रयोगों की ओर अग्रसर होते रहे। वैज्ञानिकों ने जीन सम्पादन तकनीक क्रिसपर कॉस-9 तकनीक की मदद से डिज़ाइनर बच्चे पैदा करने के प्रयास जारी रखे। जीन सम्पादन तकनीक से बेहतर चिकित्सा और नई औषधियां बनाने का मार्ग पहले ही प्रशस्त हो चुका है। चीन ने जीन एडिटिंग तकनीक से चूहों और बंदरों के निर्माण का दावा किया है। साल के उत्तरार्ध में ड्यूक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने शरीर की नरम हड्डी अर्थात उपास्थि की मरम्मत के लिए एक तकनीक खोजी, जिससे जोड़ों को पुनर्जीवित किया जा सकता है।

बीते साल भी जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता की लकीर लंबी होती गई। बायोसाइंस जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार पहली बार विश्व के 153 देशों के 11,258 वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन पर एक स्वर में चिंता जताई। वैज्ञानिकों ने ‘क्लाइमेट इमरजेंसी’ की चेतावनी देते हुए जलवायु परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण कार्बन उत्सर्जन को बताया। दिसंबर में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में विचार मंथन का मुख्य मुद्दा पृथ्वी का तापमान दो डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा बढ़ने से रोकना था।

इसी साल हीलियम की खोज के 150 वर्ष पूरे हुए। इस तत्व की खोज 1869 में हुई थी। हीलियम का उपयोग गुब्बारों, मौसम विज्ञान सम्बंधी उपकरणों में हो रहा है। इसी वर्ष विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के प्रकाशन के 150 वर्ष पूरे हुए। नेचर को विज्ञान की अति प्रतिष्ठित और प्रामाणिक पत्रिकाओं में गिना जाता है। इस वर्ष भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन द्वारा पदार्थ में शोध के पूर्व अनुमानों को लेकर दिसंबर 1959 में दिए गए ऐतिहासिक व्याख्यान की हीरक जयंती मनाई गई।

विदा हो चुके वर्ष में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ (IAU) की स्थापना का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इसकी स्थापना 28 जुलाई 1919 को ब्रुसेल्स में की गई थी। वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ के 13,701 सदस्य हैं। इसी साल मानव के चंद्रमा पर पहुंचने की 50वीं वर्षगांठ मनाई गई। 21 जुलाई 1969 को अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने चांद की सतह पर कदम रखा था।

इसी वर्ष विश्व मापन दिवस 20 मई के दिन 101 देशों ने किलोग्राम की नई परिभाषा को अपना लिया। हालांकि रोज़मर्रा के जीवन में इससे कोई अंतर नहीं आएगा, लेकिन अब पाठ्य पुस्तकों में किलोग्राम की परिभाषा बदल जाएगी। किलोग्राम की नई परिभाषा प्लैंक स्थिरांक की मूलभूत इकाई पर आधारित है।

गत वर्ष अक्टूबर में साहित्य, शांति, अर्थशास्त्र और विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की गई। विज्ञान के नोबेल पुरस्कार विजेताओं में अमेरिका का वर्चस्व दिखाई दिया। रसायन शास्त्र में लीथियम आयन बैटरी के विकास के लिए तीन वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया गया – जॉन गुडइनफ, एम. विटिंगहैम और अकीरा योशिनो। लीथियम बैटरी का उपयोग मोबाइल फोन, इलेक्ट्रिक कार, लैपटॉप आदि में होता है। 97 वर्षीय गुडइनफ नोबेल सम्मान प्राप्त करने वाले सबसे उम्रदराज व्यक्ति हो गए हैं। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को प्रदान किया गया – विलियम केलिन जूनियर, ग्रेग एल. सेमेंज़ा और पीटर रैटक्लिफ। इन्होंने कोशिका द्वारा ऑक्सीजन के उपयोग पर शोध करके कैंसर और एनीमिया जैसे रोगों की चिकित्सा के लिए नई राह दिखाई है। इस वर्ष का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जेम्स पीबल्स, मिशेल मेयर और डिडिएर क्वेलोज़ को दिया गया। तीनों अनुसंधानकर्ताओं ने बाह्य ग्रहों खोज की और ब्रह्मांड के रहस्यों से पर्दा हटाया।

ऑस्ट्रेलिया के कार्ल क्रूसलेंकी को वर्ष 2019 का विज्ञान संचार का अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार प्रदान किया गया। यह प्रतिष्ठित सम्मान पाने वाले वे पहले ऑस्ट्रेलियाई हैं।

वर्ष 2019 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार अमेरिका की प्रोफेसर केरन उहलेनबेक को दिया गया है। इसे गणित का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है। इसकी स्थापना 2002 में की गई थी। पुरस्कार की स्थापना के बाद यह सम्मान ग्रहण करने वाली केरन उहलेनबेक पहली महिला हैं।

अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका नेचर ने वर्ष 2019 के दस प्रमुख वैज्ञानिकों की सूची में स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को शामिल किया है। टाइम पत्रिका ने भी ग्रेटा थनबर्ग को वर्ष 2019 का ‘टाइम पर्सन ऑफ दी ईयर’ चुना है। उन्होंने विद्यार्थी जीवन से ही पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में पहचान बनाई और जलवायु परिवर्तन रोकने के प्रयासों का ज़ोरदार अभियान चलाया।

5 अप्रैल को नोबेल सम्मानित सिडनी ब्रेनर का 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें 2002 में मेडिसिन का नोबेल सम्मान दिया गया था। उन्होंने सिनोरेब्डाइटिस एलेगेंस नामक एक कृमि को रिसर्च का प्रमुख मॉडल बनाया था। 11 अक्टूबर को सोवियत अंतरिक्ष यात्री अलेक्सी लीनोव का 85 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। लीनोव पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अंतरिक्ष में चहलकदमी करके इतिहास रचा था। (स्रोत फीचर्स)

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व्यायाम करने की इच्छा बचपन में तय हो जाती है

व्यायाम करने के मामले में हर व्यक्ति अनूठा होता है। कुछ होंगे जो खुशी से रोज़ाना कई किलोमीटर दौड़ेंगे जबकि अन्य को यह बिलकुल पसंद नहीं आएगा कि बगैर किसी गंतव्य के दौड़ लगाएं। नेचर कम्यूनिकेशन्स में प्रकाशित एक ताज़ा अध्ययन के अनुसार व्यायाम करने की ललक पर शुरुआत विकास के दौरान हुए एपिजेनेटिक परिवर्तनों का असर पड़ता है। गौरतलब है कि यह अध्ययन चूहों पर किया गया है।

पहला सवाल तो यही उठता है कि एपिजेनेटिक परिवर्तन क्या होते हैं। हमारे शरीर की विभिन्न क्रियाओं का संचालन कोशिकाओं में उपस्थित डीएनए नामक अणु के द्वारा किया जाता है। डीएनए तो हमें माता-पिता से विरासत में मिलता है लेकिन समय के साथ इस पर कुछ अन्य अणु जुड़ जाते हैं जो इसके कामकाज पर असर डालते हैं। डीएनए पर ऐसे अणुओं के जुड़ने को एपिजेनेटिक परिवर्तन कहते हैं। ऐसा एक एपिजेनेटिक परिवर्तन होता है डीएनए पर मिथाइल समूहों का जुड़ना जिसे वैज्ञानिक लोग मिथायलेशन कहते हैं।

बेलर कॉलेज ऑफ मेडिसिन के रॉबर्ट वॉटरलैंड एपिजेनेटिक्स का अध्ययन करते हैं। उनकी टीम शुरुआती विकास के दौरान ऊर्जा संतुलन का अध्ययन करती है। ऊर्जा संतुलन का मतलब होता है कि कोई जंतु कितनी कैलोरी का उपभोग करता है और कितनी कैलोरी खर्च करता है। वे जानना चाहते थे कि ऊर्जा संतुलन पर एपिजेनेटिक परिवर्तनों का क्या असर होता है।

उन्होंने हायपोथेलेमस नामक अंग में एक विशेष किस्म की तंत्रिकाओं पर ध्यान केंद्रित किया जिनके बारे में माना जाता है कि वे इस बात का नियंत्रण करती हैं कि कोई जंतु कितना खाएगा। इन्हें AgRP तंत्रिका कहते हैं। इसी से यह भी तय होता है कि वह जंतु मोटापे का शिकार होगा या नहीं। तो वॉटरलैंड की टीम ने दूध पीते चूहों में AgRP तंत्रिकाओं में मिथायलेशन का अध्ययन किया। शोधकर्ताओं की परिकल्पना थी कि यदि इन तंत्रिकाओं में मिथायलेशन को तहस-नहस कर दिया जाए तो ऐसे चूहे सामान्य चूहों के मुकाबले अधिक खाएंगे और मोटे हो जाएगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

तो टीम ने एक बार फिर कोशिश की। इस बार उन्होंने विकास की एक ही अवस्था में एक जीन को एक ही स्थान पर ठप किया। सारे चूहों को एक ही खुराक दी गई। लेकिन इस बार अंतर यह था कि उन्हें आठ हफ्तों तक दौड़ने के लिए एक ट्रेडमिल उपलब्ध कराई गई थी। और दो तरह के चूहों में सबसे अधिक फर्क ट्रेडमिल के इस्तेमाल में देखा गया। सामान्य चूहे जहां प्रतिदिन करीब छ: कि.मी. दौड़ते हैं, वहीं परिवर्तनशुदा चूहे उससे मात्र आधा दौड़े। ज़ाहिर है, ज़्यादा दौड़ने वाले चूहों ने ज़्यादा कैलोरी खर्च की, जबकि दोनों के खाने की मात्रा में ज़्यादा फर्क नहीं था। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह रहा कि शुरुआती विकास के दौरान होने वाले एपिजेनेटिक परिवर्तन इस बात पर असर डालते हैं कि कोई चूहा कितना व्यायाम करेगा। अब मनुष्यों में इस बात की जांच करने की तमन्ना है। (स्रोत फीचर्स)

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क्यों गायब हुए मनुष्य के शरीर के बाल? -डॉ. अरविंद गुप्ते

ब डार्विन ने जैव विकास का सिद्धांत प्रकाशित किया था, तब दुनिया में तहलका मच गया था। सिद्धांत का आशय यह था कि जैव विकास ऐसी प्रक्रिया है जिसमें नई प्रजातियां बनती रहती हैं और पुरानी प्रजातियां नष्ट होती जाती हैं। इस सिद्धांत का एक निष्कर्ष यह भी था कि मनुष्य का विकास बंदरों के समान जंतुओं से हुआ है। विज्ञान ने इस सिद्धांत की पुष्टि निर्विवाद रूप से कर दी है।

यह बात आज भी कई लोगों के गले नहीं उतरती। वे सोचते हैं कि हमारे आसपास पाया जाने वाला कोई बंदर मनुष्य कैसे बन सकता है। किंतु ऐसा नहीं होता, आज का कोई बंदर मनुष्य नहीं बन सकता। इस प्रक्रिया में लाखों-करोड़ों वर्ष लग जाते हैं। सबसे सटीक उदाहरण डायनासौर का है जो मगरमच्छों और छिपकलियों के सम्बंधी थे और 25 करोड़ से लेकर 6 करोड़ वर्ष पूर्व तक पृथ्वी पर उनकी बादशाहत थी। कुछ मांसाहारी डायनासौर बहुत खूंखार और विशालकाय थे। किंतु कालांतर में सभी डायनासौर नष्ट हो गए और जैव विकास की प्रक्रिया में कुछ डायनासौर से पक्षी विकसित हो गए। बंदर से मनुष्य बनना कुछ ऐसा ही है जैसा डायनासौर से पक्षियों का बनना।

आज से 70 लाख वर्ष पहले अफ्रीका में रहने वाले कपि सहेलोन्थ्रोपस से दो अलग-अलग जंतुओं, चिम्पैंज़ी और आदिम मानव, का विकास हुआ (चिम्पैंज़ी, गोरिल्ला, ओरांगउटान जैसे पूंछ-रहित बड़े बंदरों को कपि और अंग्रेजी में ऐप कहते हैं)। पेड़ों पर रहने वाला यह आदिम मानव आज के मनुष्य से इतना अलग था कि उसे ऑस्ट्रेलोपिथेकस नाम दिया गया है।

अन्य कपियों के समान ही आदिम मानव के शरीर पर भी घने बालों का आवरण था। जैव विकास के दौरान मनुष्य के शरीर के बाल गायब हो गए। लेकिन ऐसा क्यों हुआ? मानव की हड्डियों के जीवाश्मों का अध्ययन करके वैज्ञानिक यह तो पता लगा सकते हैं कि मनुष्य की शरीर रचना में कब-कब और कैसे-कैसे परिवर्तन हुए। किंतु चूंकि मृत्यु के कुछ समय बाद त्चचा नष्ट हो जाती है, उससे सम्बंधित कोई भी अध्ययन लगभग असंभव होता है। फिर भी, जंतुओं और वनस्पतियों के जीवाश्मों का अध्ययन करके वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मनुष्य के शरीर से बालों के गायब होने का प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन है।

यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि जीवधारियों में जो भी परिवर्तन होते हैं वे लाखों वर्षों की अवधि में होते हैं। इस प्रक्रिया में कई नमूने बनते हैं किंतु जीवित रहने योग्य नहीं पाए जाने पर वे नष्ट हो जाते हैं। जो नमूने सफल होते हैं वे बच जाते हैं और उनमें और अधिक परिवर्तन होते जाते हैं। इस प्रकार नई-नई प्रजातियां बनती रहती हैं।

मनुष्य का उद्भव तथा प्रारंभिक जैव विकास अफ्रीका में हुआ और उसके अधिकांश शारीरिक परिवर्तन उस महाद्वीप की परिस्थितियों से जुड़े हैं। आज से लगभग 30 लाख वर्ष पहले पूरे विश्व में एक ज़बरदस्त शीत लहर आई थी जिससे संसार के सारे जीवधारी प्रभावित हुए थे। आदिमानव के निवास स्थान – मध्य और पूर्वी अफ्रीका – में वर्षा में कमी के कारण जंगल नष्ट हो गए और उनका स्थान घास के खुले मैदानों ने ले लिया। इन जंगलों में रहने वाले ऑस्ट्रेलोपिथेकस नामक आदिमानव के प्रमुख आहार फल, पत्तियों, जड़ों और बीजों की उपलब्धता कम हो गई। इसी प्रकार, जल के स्थायी स्रोत सूख जाने के कारण पीने के पानी की भी कमी हो गई। परिणामस्वरूप, मनुष्य को भोजन और पानी की खोज में अधिक दूर तक जाना पड़ता था। भोजन के वनस्पति स्रोतों की कमी के चलते मनुष्य ने लगभग 26 लाख वर्ष पहले अन्य जंतुओं का शिकार कर उन्हें खाना शुरू कर दिया। शिकार की खोज में अधिक लंबी दूरियां तय करने और उनका पीछा करने के लिए अधिक तेज़ भागने के लिए अधिक ऊर्जा खर्च करना ज़रूरी हो गया। प्राकृतिक वरण के फलस्वरूप पेड़ों पर रहने वाले मानव की तुलना में ज़मीन पर रहने वाले मानव के हाथों और टांगों की लंबाई बढ़ गई।

अधिक तेज़ गतिविधि करने के कारण शरीर के तापमान के बढ़ने का खतरा पैदा हो गया। शरीर के बढ़े हुए तापमान को कम करने में दो बातों से फायदा मिला – शरीर से बालों का आवरण कम होना और त्वचा में स्थित पसीने का निर्माण करने वाली स्वेद ग्रंथियों की संख्या में वृद्धि।

त्वचा से बालों का आवरण हट जाने के कारण शुरूआती दौर में मनुष्य की त्वचा अन्य कपियों की त्वचा के समान हल्के गुलाबी रंग की थी। किंतु सूर्य के प्रकाश में मौजूद पराबैंगनी किरणें इस अनावृत त्वचा के लिए घातक सिद्ध होने लगीं। शरीर के लिए अत्यावश्यक विटामिन फोलेट पराबैंगनी किरणों से नष्ट हो जाता है, इसके अलावा त्वचा के कैंसर का भारी खतरा होता है। एक बार फिर प्रकृति ने अपना चमत्कार दिखाया और लगभग 12 लाख वर्ष पहले मनुष्य में एक ऐसे जीन MC1R का उद्भव हुआ जो त्वचा में मेलानिन नामक काले रंग के पदार्थ के बनने के लिए उत्तरदायी होता है। पराबैंगनी किरणों से बचने के लिए मेलानिन एक प्रभावशाली साधन है। यही कारण है कि उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों और तेज़ धूप वाले समशीतोष्ण क्षेत्रों में मनुष्य की त्वचा में मेलानिन अधिक मात्रा में पाया जाता है।

जब मनुष्य ने अफ्रीका से निकल कर युरोप जैसे ठंडे प्रदेशों में रहना शुरू किया तब वहां धूप की तीव्रता कम होने के कारण पराबैंगनी किरणों का खतरा तो कम हो गया किंतु एक नया खतरा सामने आया। वह खतरा यह था कि धूप तेज़ न होने के कारण शरीर में विटामिन-डी बनना बंद हो गया। विटामिन-डी हड्डियों की मजबूती के लिए आवश्यक होता है। अत: इन क्षेत्रों में रहने वाले मनुष्य की त्वचा में मेलानिन की मात्रा कम हो गई और उनकी त्वचा श्वेत होती गई।

शरीर का तापक्रम कम करने का अन्य प्रभावशाली उपाय पसीना बहाना है। कपि समूह में (जिसका सदस्य मनुष्य भी है) स्वेद ग्रंथियां पाई जाती हैं। किंतु मनुष्य में इनकी संख्या बहुत अधिक बढ़ गई है और वे त्वचा के ठीक नीचे स्थित हो गई हैं। किसी बहुत गरम दिन पर तेज़ गतिविधि करने पर एक मनुष्य के शरीर से 12 लीटर तक पसीना निकल सकता है। पसीने और बाल-रहित त्वचा का यह गठजोड़ शरीर को ठंडा करने के लिए इतना प्रभावशाली होता है कि वैज्ञानिकों के एक अनुमान के अनुसार किसी बहुत गरम दिन पर लंबी दौड़ में एक स्वस्थ मनुष्य घोड़े को भी पीछे छोड़ सकता है।

मनुष्य और चिम्पैंज़ी के डीएनए में 99 प्रतिशत समानता होती है किंतु उनमें एक महत्वपूर्ण अंतर यह होता है कि मनुष्य में ऐसे जीन पाए जाते हैं जो उसकी त्वचा को जल और खरोचों के प्रति रोधक बनाते हैं। बालरहित त्वचा के लिए यह गुणधर्म ज़रूरी है। ये जीन चिम्पैंज़ी में नहीं पाए जाते।

इस सबके बावजूद यह सवाल रह जाता है कि मनुष्य के सिर और बगलों तथा जांघों के जोड़ों पर बाल क्यों रह गए। सिर के बालों के कार्य के बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि अफ्रीका में रहने वाले पूर्वज मनुष्य के बाल घने और घुंघराले थे (जैसे आज भी अफ्रीकी मूल के लोगों के होते हैं)। ऐसे बालों के कारण सिर की त्वचा और बालों के बीच एक रिक्त स्थान बन जाता है जिसमें हवा की एक परत होती है। तेज़ धूप में बाल ऊष्मा को सोख लेते हैं और सिर की त्वचा से निकलने वाले पसीने की भाप हवा की परत में चली जाती है और सिर का तापक्रम कम हो जाता है। बगलों तथा जांघों के जोड़ों पर स्थित बालों के बारे में वैज्ञानिकों की राय है कि वे चलने या दौड़ने के दौरान इन जोड़ों में घर्षण को कम रखते हैं।

बालों का एक उपयोग स्तनधारी आक्रामकता को प्रदर्शित करने के लिए भी करते हैं। सबसे परिचित उदाहरण कुत्तों और बिल्लियों में देखा जाता है जो खतरे से सामना होने पर अपने बालों को खड़ा कर लेते हैं। मनुष्य के पास अब यह सुविधा नहीं है, किंतु उसने कई अन्य तरीकों से अपनी भावनाओं को व्यक्त करना सीख लिया है, जैसे चेहरे तथा शरीर के हावभावों से या बोल कर या लिख कर। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अंग प्रत्यारोपण के साथ डीएनए भी बदल गया

हाल ही में अंग प्रत्यारोपण का एक विचित्र मामला सामने आया है। एक व्यक्ति क्रिस लॉन्ग को किसी अन्य व्यक्ति की अस्थि मज्जा का प्रत्यारोपण किया गया था। इस प्रक्रिया में यह तो अपेक्षित है कि लॉन्ग के खून में दानदाता का डीएनए मिलेगा। लेकिन प्रक्रिया के चार वर्ष बाद की गई जांच में पता चला कि उसके होठों और गाल से रूई के फोहे की मदद से लिए गए नमूनों में दानदाता का डीएनए पाया गया। और तो और, लॉन्ग के वीर्य में भी दानदाता का ही डीएनए था।

गौरतलब है कि डीएनए वह पदार्थ है जो हर कोशिका में पाया जाता है और यह वंशानुगत गुणधर्मों का वाहक है। प्रत्येक व्यक्ति का डीएनए अनूठा होता है। एक ही व्यक्ति में दो व्यक्तियों के डीएनए होने का मतलब है कि वह व्यक्ति एक से अधिक जीवों का मिश्रित जीव है। ऐसे जीव को जीव वैज्ञानिक शिमेरा कहते हैं। अपराध वैज्ञानिक मामले की जांच में लगे हैं। वैसे तो वैज्ञानिकों को बरसों से पता है कि कतिपय चिकित्सकीय प्रक्रियाएं व्यक्ति को शिमेरा में तबदील कर सकती हैं लेकिन यह पहला मामला है जहां खून के अलावा विभिन्न अंगों में भी दानदाता का डीएनए प्रकट हो रहा है।

हर वर्ष रक्त कैंसर, ल्यूकेमिया, लिम्फोमा और सिकल सेल एनीमिया से पीड़ित हज़ारों लोग अस्थि मज्जा का प्रत्यारोपण करवाते हैं। प्रत्यारोपण के बाद उनका डीएनए संघटन बदल जाता है। ज़रूरी नहीं कि ऐसे सब लोग जाकर कोई अपराध करेंगे या हादसों के शिकार होंगे मगर खुदा न ख्वास्ता ऐसा हो गया तो डीएनए की मदद से उनकी पहचान मुश्किल हो जाएगी। लॉन्ग का प्रकरण जब अंतर्राष्ट्रीय अपराध विज्ञान सम्मेलन में प्रस्तुत हुआ तो सबके कान खड़े हो गए और अब यह डीएनए विश्लेषकों के लिए एक मिसाल बन गया है।

वैसे प्रत्यारोपण करने वाले डॉक्टरों को इस बात की ज़्यादा परवाह नहीं होती कि दानदाता का डीएनए मरीज़ के शरीर में कहां-कहां प्रकट हो जाएगा क्योंकि इस किस्म का शिमेरिज़्म हानिकारक नहीं होता और न ही यह उस व्यक्ति की शख्सियत को बदलता है। कई बार मरीज़ों को चिंता होती है कि पुरुष के शरीर में महिला या महिला के शरीर में पुरुष डीएनए आने पर समस्या होगी लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

लेकिन अपराध वैज्ञानिकों के लिए इसके मायने एकदम अलग हैं। जब लॉन्ग की जांच की गई तो पता चला था कि उसके शरीर के अलग-अलग अंगों में दानदाता का डीएनए नज़र आ रहा है और अलग-अलग समय पर इसका प्रतिशत भी बदलता रहता है। और जब लॉन्ग का समूचा वीर्य दानदाता का हो गया तो अपराध वैज्ञानिकों का चौंकना स्वाभाविक था। ऐसे कुछ मामले अतीत में सामने आ चुके हैं और अपराध वैज्ञानिक जानना चाहते हैं कि डीएनए आधारित पहचान की प्रामाणिकता पर इसका क्या असर होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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