मिट्टी में आर्सेनिक विषाक्तता – सरोज कुमार सान्याल

हालांकि भूमिगत जल में व्यापक आर्सेनिक प्रदूषण भारत के पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के बंगाल डेल्टा बेसिन के इलाकों तक सीमित है किंतु भारत के कई हिस्सों और राज्यों के भूमिगत जल में भी आर्सेनिक पाया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानकों के अनुसार पेयजल में आर्सेनिक की सुरक्षित मात्रा 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर है। किंतु वर्तमान में पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, मणिपुर, झारखंड, छत्तीसगढ़, पंजाब, त्रिपुरा और नागालैंड राज्यों के भूमिगत जल में 50 से 3700 माइक्रोग्राम प्रति लीटर तक आर्सेनिक पाया गया है। भूमिगत जल में आर्सेनिक पाए जाने के कुछ भूगर्भीय कारण माने जाते हैं। अब तक आर्सेनिक प्रदूषित इलाकों में सबसे अधिक ध्यान पेयजल पर दिया जा रहा था जबकि इन इलाकों में भूमिगत जल का उपयोग पेयजल से ज़्यादा सिंचार्इं में किया जाता है। आर्सेनिक युक्त भूमिगत जल वाले इलाकों में सिंचाई के कारण मिट्टीपौधेमनुष्य शृंखला पर होने वाले असर पर अध्ययन बहुत कम हुए हैं। वास्तव में बंगाल डेल्टा बेसिन समेत आर्सेनिक प्रभावित अन्य क्षेत्रों में इस तरह के शोध की आवश्यकता है। आर्सेनिक प्रदूषण के मुख्य कारण को पहचानना महत्वपूर्ण है। जहां पेयजल में आर्सेनिक प्रदूषण का स्रोत एक बिंदु पर सिमटा होता है, वहीं खेती में आर्सेनिक प्रदूषित भूजल से सिंचाई के माध्यम से मानवखाद्य  शृंखलामेंफैलताहैऔरखाद्य शृंखलामेंआगेबढ़ते हुए इसकी गंभीरता बढ़ती है। इस लेख में आर्सेनिक प्रदूषण के महत्वपूर्ण और दीर्घकालिक पर्यावरणीय प्रभावों के साथसाथ इसके समाधान की सूची बनाने का प्रयास किया है। इसमें लोगों की भागीदारी अहम होगी। साथ ही उचित नीतियों की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला गया है।

भूमिका

आर्सेनिक फारसी शब्द ज़ार्निक से आया है जो यूनानी में आर्सेनिकॉन हुआ। हिंदी में इसे संखिया कहते हैं। पर्शिया और अन्य जगहों के लोग आर्सेनिक का उपयोग प्राचीन काल से करते रहे हैं। आर्सेनिक शाही ज़हरऔर ज़हर का राजानाम से भी मशहूर है।

कांस्य युग में आर्सेनिक कांसे में अशुद्धि के रूप में मौजूद होता था जिससे धातु कठोर हो जाती थी। माना जाता है कि अल्बर्टस मैग्नस ने 1250 ईस्वीं में इस तत्व को सबसे पहले पृथक किया था। आर्सेनिक का उपयोग कीटनाशक के रूप में भी किया जाता है। कीटनाशकों के छिड़काव से मानव खाद्य और पर्यावरण में आर्सेनिक प्रदूषण हुआ है जिसका लोगों और उनकी अगली पीढ़ी के स्वास्थ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। भूमिगत आर्सेनिक दुनिया की कई जगहों के पेयजल स्रोतों को प्रभावित करता है। लगातार सालों तक प्रदूषित पानी पीने की वजह से लाखों लोगों को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

मिट्टी, पानी, वनस्पति, पशु और मानव में विषैले आर्सेनिक की मौजूदगी पर्यावरणीय चिंता का विषय है। जैवमंडल में इसके अति विषैलेपन और बढ़ी हुई मात्रा ने सार्वजनिक और राजनीतिक चिंता को जन्म दिया है। अर्जेंटाइना, चिली, फिनलैंड, हंगरी, मेक्सिको, नेपाल, ताइवान, बांग्लादेश और भारत समेत दुनिया के 20 देशों में भूमिगत जल में आर्सेनिक प्रदूषण और इसके कारण मानव स्वास्थ सम्बंधी समस्या दर्ज हुई है। सबसे अधिक प्रदूषण और स्वास्थ्य सम्बंधी समस्या बांग्लादेश में है। इसके बाद पश्चिम बंगाल का नंबर आता है। बंगाल डेल्टा बेसिन के लाखों लोग खतरे में हैं। पश्चिम बंगाल में भागीरथी नदी के किनारे बसे 5 ज़िलों और इसकी सीमा से लगे बांग्लादेश के ज़िलों में मुख्य रूप से भूमिगत जल में आर्सेनिक प्रदूषण है। बंगाल डेल्टा बेसिन के अलावा देश के विभिन्न हिस्सों में भूमिगत जल में आर्सेनिक की मात्रा 50 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से भी अधिक निकली है। इसके अलावा चट्टानों, अन्य पदार्थों और पानी के विभिन्न स्रोतों में आर्सेनिक की मात्रा पाई गई है।

अधिकतम की सीमा

डब्ल्यूएचओ ने अस्थायी तौर पर पेयजल में आर्सेनिक की अधिकतम स्वीकार्य सीमा 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर निर्धारित की है क्योंकि इससे कम स्तर के प्रदूषण का मापन बड़े पैमाने पर संभव नहीं है। भारत और बांग्लादेश समेत कई देशों में डब्ल्यूएचओ की इससे पूर्व 1971 में निर्धारित स्वीकार्य सीमा 50 माइक्रोग्राम प्रति लीटर थी। हाल ही में भारत ने भी पेयजल में आर्सेनिक की स्वीकार्य सीमा 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर निर्धारित की है।

मनुष्यों में अकार्बनिक आर्सेनिक यौगिकों के कारण कैंसर होने के पर्याप्त प्रमाण और जानवरों में सीमित प्रमाण मिले हैं। इसी आधार पर अकार्बनिक आर्सेनिक यौगिकों के समूह को कैंसरजनक समूह में रखा गया है। इसलिए पेयजल में आर्सेनिक की उपस्थिति की स्वीकार्य सीमा को घटाकर 5 माइक्रोग्राम प्रति लीटर करना विचाराधीन है। किंतु कार्बनिक आर्सेनिक की कैंसरकारिता के पर्याप्त प्रमाण नहीं है। 1983 में एफएओ/डब्ल्यूएचओ की एक संयुक्त विशेषज्ञ समिति द्वारा मनुष्यों द्वारा अकार्बनिक आर्सेनिक के दैनिक सेवन की अधिकतम सीमा शरीर के प्रति किलोग्राम वज़न पर 2.1 माइक्रोग्राम तय की गई है। इसके बाद 1988 में साप्ताहिक स्वीकार्य सेवन की सीमा शरीर के प्रति किलोग्राम वजन पर 15 माइक्रोग्राम निर्धारित की गई। किंतु इस तरह के मानक मिट्टी, पौधे और पशुओं के लिए निर्धारित नहीं हैं।

पश्चिम बंगाल के प्रभावित क्षेत्रों के भूमिगत जल में आर्सेनिक सांद्रता (50-3700 माइक्रोग्राम प्रति लीटर) भारत और डब्ल्यूएचओ की निर्धारित सीमा से कई गुना अधिक है। इसके अलावा, पंजाब के भूमिगत जल में आर्सेनिक सांद्रता 4 से 688 माइक्रोग्राम प्रति लीटर तक है। 1978 में पहली बार पश्चिम बंगाल में भूजल में आर्सेनिक की निर्धारित सीमा से अधिक उपस्थिति का पता चला था और मनुष्यों में आर्सेनिक के विषैले असर का पहला मामला 1983 में कलकत्ता के स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन में सामने आया था। पेयजल में अकार्बनिक आर्सेनिक और वयस्कों में इसके स्वास्थ्य सम्बंधी प्रभावों को चिकित्सक भलीभांति स्थापित कर चुके हैं।

अब तक भूमिगत जल में आर्सेनिक की उपस्थिति को पेयजल की समस्या के तौर पर ही देखा जा रहा था जबकि पश्चिम बंगाल के इन इलाकों में भूमिगत जल का उपयोग सिंचाई के लिए बड़े पैमाने पर किया जाता है। तो मिट्टी और कृषि उपज में आर्सेनिक अधिक मात्रा में होने की संभावना है। दरअसल आर्सेनिक युक्त मिट्टी में खेती और आर्सेनिक युक्त जल से सिंचाई के कारण कृषि उपज में आर्सेनिक पहुंचने की बात कई शोधकर्ता बता चुके हैं। इस पर तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है। जहां पेयजल में आर्सेनिक की समस्या किसी ट्यूब वेल जैसे स्पष्ट स्रोत से जोड़ी जा सकती है वहीं कृषि उपज में आर्सेनिक की उपस्थिति एक विस्तृत और अनिश्चितसा स्रोत है। इस बात का महत्व तब और भी बढ़ जाता है जब यह देखा जाता है कि ऐसे लोगों के मूत्र के नमूनों में भी उच्च मात्रा में आर्सेनिक निकला है जिन्होंने कभी आर्सेनिक युक्त पानी नहीं पीया। दिलचस्प बात यह है कि आर्सेनिक प्रभावित इलाकों में सतही जल स्रोत आर्सेनिक मुक्त हैं। इससे लगता है कि मिट्टी आर्सेनिक युक्त पानी लेती है और इसे अपने में ही रोक कर रखती है और आस पास के जलस्रोतों में इसे फैलने नहीं देती।

स्वास्थ्य पर प्रभाव

प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में आर्सेनिक विषैला तत्व है। आर्सेनिक ट्राईऑक्साइड की अत्यंत कम मात्रा (0.1 ग्राम) भी इंसानों के लिए जानलेवा साबित हो सकती है। आर्सेनिक विषाक्तता के शुरुआती लक्षण त्वचा सम्बंधी विकार, कमज़ोरी, थकान, एनोरेक्सिया (भूख न लगना), मितली, उल्टी और दस्त या कब्ज़ हैं। जैसेजैसे विषाक्तता बढ़ती है, लक्षण और अधिक विशिष्ट होने लगते हैं, जिनमें गंभीर दस्त, पानीदार सूजन (विशेष रूप से पलकों और एड़ियों पर), त्वचा का रंग बदलना, आर्सेनिकल काला कैंसर और चमड़ी का मोटा व सख्त होना, लीवर बढ़ना, श्वसन रोग और त्वचा कैंसर शामिल हैं। कुछ गंभीर मामलों में पैर में गेंग्रीन और ऊतकों में असामान्य वृद्धि भी देखी गई है। आर्सेनिक विषाक्तता के कारण अर्जेंटाइना में बेल विले रोग’, ताइवान में ब्लैक फुट रोगऔर थाईलैंड में काई डेमरोग व्याप्त हैं। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के प्रभावित इलाकों में रहने वाले लोगों के बाल, नाखून, त्वचा और पेशाब के कई नमूनों में निर्धारित सीमा से अधिक आर्सेनिक था।

मनुष्यों पर प्रभाव

आर्सेनिक के रूप और विषाक्तता

भूमिगत जल और मिट्टी में आर्सेनिक कार्बनिक रूपों के अलावा आर्सेनाइट्स (तीनसंयोजी आर्सेनिक) या आर्सेनेट (पांचसंयोजी आर्सेनिक) के रूप में मौजूद रहता है। मिट्टी और फसल में आर्सेनिक की घुलनशीलता, गतिशीलता, जैव उपलब्धता और विषाक्तता मुख्य रूप से आर्सेनिक की ऑक्सीकरण अवस्था (वैलेंसी) पर निर्भर करती है। साथ ही इस बात पर भी निर्भर करती है कि वह अकार्बनिक रूप में है या कार्बनिक रूप में। भूमिगत जल/मिट्टी में विभिन्न आर्सेनिक यौगिकों के विषैलेपन का क्रम:

आर्सीन > ऑर्गेनोआर्सेनिक यौगिक > आर्सेनाइट्स और ऑक्साइड >  आर्सेनेट्स > एकसंयोजी आर्सेनिक >  मुक्त आर्सेनिक धातु।

जल और मिट्टी में आर्सेनेट की तुलना में आर्सेनाइट अधिक घुलनशील, गतिशील और ज़हरीला होता है। आर्सेनिक के कार्बनिक रूप मुख्य रुप से डाईमिथाइल आर्सेनिक एसिड या केकोडाइलिक एसिड भी मिट्टी में उपस्थित रहते हैं। ये मिट्टी में ऑक्सीजन की कमी जैसी स्थितियों में वाष्पशील डाईमिथाइल आर्सीन और ट्राईमिथाइल आर्सीन बनाते हैं। भूमिगत जल और मिट्टी में मोनो मिथाइल आर्सेनिक एसिड (एमएमए) भी मौजूद रहता है। आर्सेनिक के कार्बनिक रूप या तो ज़हरीले नहीं होते या बहुत कम ज़हरीले होते हैं। जब फसलों को हवादार मिट्टी में उगाया जाता है तो मिट्टी में मुख्य रूप से पांचसंयोजी आर्सेनिक पाया जाता है। यह कम ज़हरीला होता है। जबकि चावल के पानी भरे खेतों में अधिक घुलनशील और ज़हरीले तीनसंयोजी रूप अधिक रहते हैं।

मिट्टीफसल में आर्सेनिक की उपस्थिति और खाद्य शृंखला पर प्रभाव

यह पाया गया कि शरद ऋतु में उगाई जाने वाली धान से प्राप्त चावल में आर्सेनिक के अधिक विषैले तीनसंयोजी रूप पाए जाते हैं। दूसरी ओर, चावल के भूसे में आर्सेनिक के पांचसंयोजी रूप मौजूद होते हैं। इसके अलावा धान की, पारंपरिक और उच्च पैदावार, दोनों ही किस्मों के साथ पारबॉइलिंग और मिलिंग जैसी प्रक्रियाओं में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ती है। जैविक खाद के माध्यम से मृदा संशोधन करने पर आर्सेनिक की मात्रा में कमी आती है। आर्सेनिक प्रदूषित इलाकों में उगाए जाने वाले चावल में आर्सेनिक विषाक्तता और इसके सेवन से सम्बंधित खतरों का अध्ययन किया गया है। ग्रामीण बंगाल में चावल के माध्यम से अकार्बनिक आर्सेनिक का सेवन, दूषित पेयजल की तुलना में मानव स्वास्थ के लिए ज़्यादा बड़े खतरे के रूप में देखा जा रहा है। जैविक संशोधन और संवर्धित फॉस्फेट तथा चुनिंदा सूक्ष्म पोषक तत्वों (जैसे जस्ता, लौह) से उर्वरीकरण चावल में आर्सेनिक को कम करता है। साथ ही इसके सेवन से होने वाला खतरा भी कम होता है।

भूजल दूषित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में पानी और आहार दोनों के माध्यम से आर्सेनिक सेवन और पेशाब में आर्सेनिक के उत्सर्जन को लेकर किए गए कई अध्ययन बताते हैं कि आर्सेनिक प्रदूषित इलाकों में सिर्फ पेयजल में आर्सेनिक की समस्या को दूर करने से आर्सेनिक सम्बंधी खतरे कम नहीं होंगे। चावल का नियमित सेवन शरीर में आर्सेनिक पहुंचने का एक प्रमुख ज़रिया है जिसका समाधान ढूंढने की ज़रूरत है। आर्सेनिक विषाक्तता के उपचार के लिए समग्र व समेकित तरीके की आवश्यकता है जिसमें खाद्य शृंखला में आर्सेनिक की उपस्थिति और पेयजल में आर्सेनिक सुरक्षित मात्रा की सीमा में रखने के मिलेजुले प्रयास करने होंगे।

सुधार के उपाय

चावल समेत कई उपज में आर्सेनिक की उपस्थिति को कम करने में कुछ उपाय काफी प्रभावी पाए गए हैं।

1. कम वर्षा वाली अवधि में आर्सेनिक युक्त पानी से सिंचाई कम करने के लिए सतही जल स्रोतों और भूमिगत जल का मिलाजुला इस्तेमाल हो। साथ ही वर्षा के आर्सेनिकमुक्त पानी को ज़मीन में पहुंचाने की व्यवस्था हो।

2. आर्सेनिक युक्त इलाकों में कम पानी में ज़्यादा फसल देने वाली और आर्सेनिक का कम संग्रह करने वाली किस्मों की पहचान/विकास हो। इन इलाकों में खास तौर से जनवरी से मई के कम वर्षा वाले दिनों में अनुकूल फसल चक्र अपनाया जाए। जैसे जूटचावलचावल या हरी खादचावलचावल की जगह जमीकंदसरसोंतिल, मूंगधानसरसों जैसे फसल चक्र।

3. भूजल को तालाब में भरकर उस संग्रहित पानी से सिंचाई करना। इस तरह अवसादन और वर्षा का पानी मिलने से संग्रहित पानी में आर्सेनिक की मात्रा कम की जा सकती है।

4. धान की सिचांई के लिए भूमिगत जल की दक्षता को बढ़ाना, खास तौर पर गर्मियों की धान में। उदाहरण के लिए फसल की वृद्धि के दौरान कुछकुछ समय खेतों में पानी भरा जाए और पकने के दौरान लगातार पानी भरकर रखा जाए। ऐसा करने से फसल की पैदावार पर कोई असर नहीं पड़ेगा और भूजल का उपयोग कम होने से आर्सेनिक की मात्रा में कमी आएगी।

5. कंपोस्ट और अन्य जैविक व हरी खाद का उपयोग बढ़ाएं। साथ ही अकार्बनिक लवणों का उपयुक्त उपयोग  किया जाए।

6. ऐसी फसलों की पहचान और विकास हो जो फसल के खाद्य हिस्सों में कम से कम आर्सेनिक जमा करती हों और जिनमें आर्सेनिक के अकार्बनिक रूपों का अनुपात कम हो।

7. सस्ते वनस्पति और जैविक उपचार विकल्प विकसित करना चाहिए।

8. बड़े पैमाने पर प्रचारप्रसार।

9. लोगों की भगीदारी से खतरे के बारे में जागरूकता बढ़ाएं और स्थानीय स्तर पर समस्या के समाधान के उपायों को अपनाया और लोकप्रिय बनाया जाए।

नीतिगत हस्तक्षेप

देश के कुछ हिस्सों के भूमिगत जल में आर्सेनिक प्रदूषण का मुद्दा और मानव स्वास्थ्य पर इसके प्रतिकूल प्रभाव वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, सामुदायिक शोधकर्ताओं, कानून बनाने वालों और आम जनता के लिए बड़ी चिंता का विषय है। आर्सेनिक प्रदूषण के संदर्भ में मुख्य रूप से पेयजल आपूर्ति की समस्या को दूर करने पर ज़ोर दिया गया है। पेयजल की समस्या अपने आप में एक बहुत बड़ी चुनौती है। इन इलाकों में पेयजल के अधिकतर विकल्प या तो सतही जल स्रोत या 150-200 मीटर से अधिक गहराई के जलस्रोत के उपयोग पर आधारित हैं। इस गहराई में पानी में विषैले पदार्थ नहीं होते। इन पेयजल स्रोतों की गुणवत्ता की समयसमय पर जांच भी काफी अच्छे से होती है।

खाद्य शृंखला का मुद्दा अनछुआ रह जाता है। आर्सेनिकप्रदूषित भूजल से सिंचाई के माध्यम से आर्सेनिक खाद्य पदार्थों में पहुंचता है। वैसे इस बारे में काफी समझ बनी है कि खाद्य शृंखला द्वारा ग्रामीण इलाकों में आर्सेनिक लोगों के शरीर में पहुंच रहा है। इसलिए बड़े स्तर पर आर्सेनिक विषाक्तता को दूर करने के लिए पेयजल में आर्सेनिक की मात्रा को कम करने के साथसाथ खाद्य शृंखला से आर्सेनिक को दूर करने के लिए समेकित तरीके अपनाने की ज़रूरत है। जब तक यह प्रयास सफल नहीं होता तब तक सुरक्षित खाद्य की चिंता बनी रहेगी। वैज्ञानिकों के बीच इस मुद्दे की गंभीरता के एहसास के बावजूद अभी तक ठोस योजना बनाने की दरकार है। शुरू में छोटे स्तर पर प्रायोगिक कार्यक्रम लागू करके फिर इसे प्रभावित क्षेत्रों में बड़े स्तर पर लागू किया जा सकता है।

इस तरह के एकीकृत तरीकों की सफलता विभिन्न हितधारकों की प्रकृति, शोधकर्ताओं, तकनीशियनों और योजनाकारों को जोड़कर ही संभव है जिसमें वास्तविक लाभार्थियों पर ध्यान केंद्रित किया जाए। लाभार्थी इस कार्यक्रम को समझ सकें और उसमें अपना योगदान दे सकें इसके लिए उन्हें जागरूक और प्रशिक्षित करने की ज़रूरत है। खालिस तकनीकी तरीकों की जगह समेकित तरीके अपनाने के लिए तकनीकी व्यावहारिकता, सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय रूप से मज़बूत कार्य योजना की ज़रूरत है।

निष्कर्ष

लोगो को पेयजल की गुणवत्ता जांचने के मामले में जागरूक करना और परीक्षण करने के लिए प्रेरित करना महत्वपूर्ण है। गंभीर त्वचाघाव से प्रभावित लोगों के स्वास्थ्य खतरे और परेशानी को ध्यान में रखते हुए आर्सेनिक मुक्त पेयजल की आपूर्ति के साथ राज्य अस्पतालों में इन रोगियों के निशुल्क उपचार की व्यवस्था बीमारी को कम करने में मदद कर सकती है। यह ध्यान रखने की ज़रूरत है कि आर्सेनिक से प्रभावित लोग बहुत गरीब हैं व दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में रहते हैं।

जैसा कि पहले बताया गया है, बंगाल और अन्यत्र सिंचाई और पीने के लिए आर्सेनिक प्रदूषित भूजल ही समस्या की जड़ है। आर्सेनिक प्रदूषित भूमिगत जल के अत्यधिक उपयोग के कारण मिट्टी और खाद्य शृंखला में काफी आर्सेनिक प्रदूषण हुआ है। आर्सेनिक प्रदूषित जल का उपयोग कम करने और इसके उपायों के बारे में किसानों को जागरूक बनाने में काफी समय लगेगा। इसके अलावा समेकित तरीके की सफलता के लिए सिर्फ कृषि वैज्ञानिकों को नहीं बल्कि चिकित्सकों, सामाजिक वैज्ञानिकों और योजनाकारों को भी साथ लाना होगा।

फौरी तौर पर बड़े पैमाने पर आर्सेनिक की मात्रा पता करने के लिए खेतों और प्रयोगशाला प्रोटोकॉल में सुधार की ज़रूरत है ताकि भूमिगत जल में विभिन्न आर्सेनिक रूपों का मापन किया जा सके। खाद्य शृंखला में कुल आर्सेनिक के कारण कितनी विषाक्तता है इसे पहचानने की ज़रूरत है। इसके अलावा विविध संस्थाओं और विविध विषयों को जोड़कर कार्यक्रमों को मज़बूत करना होगा, तभी आर्सेनिकदूषित संसाधनों पर निर्भरता को कम करने के लिए दीर्घकालिक तकनीकी विकल्प विकसित हो सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मुंबई की आर्ट-डेको इमारतें विश्व धरोहर – जाहिद खान

किसी भी देश की पहचान उसकी संस्कृति तथा सांस्कृतिक, प्राकृतिक व ऐतिहासिक धरोहर से होती है। यह धरोहर न सिर्फ उसे विशिष्टता प्रदान करती है बल्कि दूसरे देशों से उसे अलग भी दिखलाती है। हमारे देश में हर तरफ ऐसी सांस्कृतिक, प्राकृतिक और ऐतिहासिक छटाएं बिखरी पड़ी हैं। प्राचीन स्मारक, मूर्ति शिल्प, पेंटिंग, शिलालेख, प्राचीन गुफाएं, वास्तुशिल्प, ऐतिहासिक इमारतें, राष्ट्रीय उद्यान, प्राचीन मंदिर, अछूते वन, पहाड़, विशाल रेगिस्तान, खूबसूरत समुद्र तट, शांत द्वीप समूह और आलीशान किले।

इनमें से कुछ धरोहर ऐसी हैं, जिनका दुनिया में कोई मुकाबला नहीं। ऐसी ही अनमोल धरोहर दक्षिण मुंबई की विशेष शैली में बनीं 19वीं सदी की दर्जनों विक्टोरिया गॉथिक और 20वीं सदी की आर्ट डेको इमारतें हैं जिन्हें अब विश्व विरासत का दर्जा मिल गया है। युनेस्को की विश्व विरासत समिति ने हाल ही में बाहरीन की राजधानी मनामा में हुई अपनी 42वीं बैठक में विक्टोरिया गॉथिक और आर्ट डेको इमारतों को अपनी विश्व धरोहर सूची में शामिल कर लिया है। एलिफेंटा और छत्रपति शिवाजी टर्मिनस स्टेशन के बाद मुंबई को यह तीसरा विश्व गौरव मिला है। इस घोषणा के साथ ही भारत में विश्व धरोहर स्थलों की सूची में 37 स्थान हो जाएंगे। यही नहीं, सबसे अधिक 5 धरोहर स्थलों के साथ महाराष्ट्र पहला राज्य हो जाएगा। ओवल ग्राउंड के साथ यह परिसर मियामी (अमेरिका) के बाद विश्व का एकमात्र ऐसा इलाका है, जहां समुद्र तट पर अन्य विक्टोरियन गॉथिक इमारतों के साथ बड़ी तादाद में बेहतरीन आर्ट डेको इमारतें मौजूद हैं। इनकी संख्या तकरीबन 39 होगी। युनेस्को के इस फैसले के साथ ही मुंबई की पहचान अंतर्राष्ट्रीय फलक पर और भी मज़बूती के साथ दर्ज हो गई है।

विक्टोरिया गॉथिक और आर्ट डेको इमारतों को विश्व धरोहर की फेहरिस्त में शामिल करने के लिए केंद्र और राज्य सरकार बीते चार साल से लगातार कोशिश कर रही थीं। युनेस्को को प्रस्ताव तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने साल 2012 में ही भेज दिया था। कोशिश अकेली सरकार की नहीं थी, बल्कि इसमें मुंबई के नागरिक भी जुड़े हुए थे। सही बात तो यह है कि उन्होंने ही इसकी सर्वप्रथम पहल की थी। यूडीआरआई, काला घोड़ा एसोसिएशन, ओवल कूपरेज रेसिडेंट्स एसोसिएशन, ओवल ट्रस्ट, नरीमन पॉइंट चर्चगेट सिटिज़न एसोसिएशन, हेरिटेज माइल एसोसिएशन, फेडरेशन ऑफ रेसिडेंट्स ट्रस्ट, आब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन और एमएमआर हेरिटेज कंज़र्वेशन सोसायटी जैसे संगठनों ने इसके लिए जमकर मेहनत की और बाकायदा एक अभियान चलाया। युनेस्को की समिति जब इन स्थलों का दौरा करने मुंबई आई तो जानीमानी वास्तु रचनाकार आभा नारायण लांबा और नगर विकास विभाग के प्रधान सचिव नितिन करीर ने मुंबई का पक्ष मज़बूती से रखा। आभा नारायण लांबा ने मुंबई के दावे का शानदार डोज़ियर बनाया और चौदह साल तक लगातार कोशिश करती रहीं कि ये इमारतें विश्व धरोहर में शामिल हो जाएं। अंतत: ये कोशिशें रंग लार्इं और अंतर्राष्ट्रीय स्मारक और स्थल परिषद की सिफारिश पर विक्टोरिया गॉथिक और आर्ट डेको इमारतों को विश्व विरासत की फेहरिस्त में शामिल कर लिया।

विश्व धरोहर सूची में किसी जगह का शामिल होना ही ये बताता है कि उस जगह की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कितनी कीमत होगी। युनेस्को की सूची में शामिल होने के बाद निश्चित तौर पर मुंबई में पर्यटकों की संख्या और बढ़ेगी।

आर्ट डेको इमारतों की बात करें, तो ये इमारतें मुंबई के वास्तुकला का अलंकार हैं। आर्ट डेको इमारतें (बॉम्बे डेको) दरअसल, युरोप और अमेरिका में 1920 और 1930 के दशक में फैले स्थापत्य आंदोलन की देन हैं। दक्षिण मुंबई में चर्चगेट स्टेशन और मंत्रालय के बीच स्थित अंडाकार क्रिकेट ग्राउंड ओवल मैदान के नाम से मशहूर है। ओवल मैदान के दाहिनी ओर करीब एक ही शैली में कतार से आर्ट डेको या मुंबई डेको शैली में बनी 125 से अधिक इमारतें हैं। इनका निर्माण प्रथम विश्व युद्ध खत्म होने के बाद साल 1920 से 1935 के बीच हुआ। उस समय मुंबई के नवधनाढ्यों द्वारा बनवाई गई इन इमारतों की शृंखला ओवल मैदान के किनारे तक ही सीमित नहीं रही। समुद्री ज़मीन पाटकर एक ही शैली की ये आर्ट डेको इमारतें मरीन ड्राइव पर भी बनाई गर्इं। ये आज भी नरीमन पॉइंट से गिरगांव चौपाटी तक खड़ी दिखाई देती हैं। इस शैली की इमारतों को विभिन्न वास्तुकारों ने डिज़ाइन किया था। आर्ट डेको इमारतों में रीगल सिनेमा, रजब महल, इंडिया इंश्योरेंस बिल्डिंग, न्यू एम्पायर सिनेमा, क्रिकेट क्लब ऑफ इंडिया, इंप्रेस कोर्ट, सूना महल, ओशियाना, इरोस सिनेमा और मरीन ड्राइव की कई रिहाइशी इमारतें शामिल हैं। कुछ आर्ट डेको इमारतें मुंबई के उत्तरी क्षेत्र में भी हैं।

ओवल मैदान के बार्इं ओर विक्टोरियन गॉथिक शैली की पुरानी बेहद खूबसूरत इमारतें हैं। इन इमारतों को सर गिल्बर्ट स्कॉट, जेम्स टिबशॉ और ले. कर्नल जेम्स फुलर जैसी हस्तियों ने डिज़ाइन किया था। इनका निर्माण ज़्यादातर 19वीं सदी के उत्तरार्ध में हुआ था। फोर्ट क्षेत्र की विक्टोरियन शैली की इमारतों का वैभव चमत्कृत कर देने वाला है। इन इमारतों में मुंबई हाई कोर्ट, मुंबई विश्वविद्यालय, एलफिंस्टन कॉलेज, डेविड ससून लाइब्रोरी, छत्रपति शिवाजी वास्तु संग्रहालय, पुराना सचिवालय, नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, पश्चिम रेल मुख्यालय, क्रॉफर्ड मार्केट, सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज व एशियाटिक लाइब्रोरी और महाराष्ट्र पुलिस मुख्यालय प्रमुख हैं। 19वीं सदी की ये इमारतें ओल्ड बांबे फोर्ट की दीवारों से घिरी हुई थीं। बाद में दीवारें गिरा दी गर्इं, लेकिन इलाके के नाम के साथ फोर्ट शब्द जुडा रह गया। 11वीं सदी में विकसित युरोपियन शैली की इन इमारतों में गॉथिक शैली का वास्तुशिल्प है। इमारतों में लेसेंट खिड़कियां और दागे हुए कांच का भरपूर इस्तेमाल किया गया है, जो इन्हें बेहद आकर्षक बनाता है। मुंबई में हर साल आने वाले लाखों पर्यटक इन्हें देखकर कहीं खो से जाते हैं। 

युनेस्को द्वारा विश्व विरासत में शामिल कर लिए जाने के बाद कोई भी जगह या स्मारक पूरी दुनिया की धरोहर बन जाता है। इन विश्व स्मारकों का संरक्षण युनेस्को के इंटरनेशनल वर्ल्ड हेरिटेज प्रोग्राम के तहत किया जाता है। वह इनका प्रचारप्रसार करती है, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा पर्यटक इन स्मारकों के इतिहास, स्थापत्य कला, वास्तु कला और प्राकृतिक खूबसूरती से वाकिफ हों। विश्व विरासत की सूची में शामिल होने का एक फायदा यह भी होता है कि उससे दुनिया भर के पर्यटक उस तरफ आकर्षित होते हैं। अब केंद्र सरकार और महाराष्ट्र सरकार की सामूहिक ज़िम्मेदारी बनती है कि वे दक्षिण मुंबई की इन शानदार इमारतों को सहेजने और संवारने के लिए एक व्यापक कार्य योजना बनाए। न सिर्फ सरकार बल्कि हर भारतीय नागरिक की भी यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वह अपनी अनमोल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर को सहेज कर रखे। इनके महत्व को खुद समझे और आने वाली पीढ़ियों को भी इनकी अहमियत समझाए। एक महत्वपूर्ण बात और, जो भी विदेशी पर्यटक इन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों को देखने आए, उन्हें यहां सुरक्षा, अपनत्व और विश्वास का माहौल मिले। वे जब अपने देश वापिस लौटकर जाएं, तो भारत की एक अच्छी छवि और यादें उनके संग हों। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जापान: युग की समाप्ति और कंप्यूटर की दशा

ताया जा रहा है कि जापान में कंप्यूटर प्रणाली पर एक बड़ा संकट आने वाला है। दिक्कत कंप्यूटर की तारीखों के साथ है और लगभग वैसी ही है जैसी वर्ष 2000 में दुनिया भर के कंप्यूटरों के साथ पेश आई थी। उसे वाय-टू-के (Y2K) समस्या कहा गया था।

जापान में नए सम्राट के राज्याभिषेक के साथ नया युग शुरू होता है। वर्तमान सम्राट अकिहितो ने 1989 में गद्दी संभाली थी। उस समय जो युग जापान में शुरु हुआ था उसका नाम है हाईसाई (यानी सर्वत्र शांति)। यही वह समय था जब कंप्यूटरों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर शुरू हुआ था।

अब स्वास्थ्य सम्बंधी कारणों के चलते सम्राट अकिहितो सिंहासन छोड़ना चाहते हैं। उन्होंने यह ऐलान किया है कि वे 30 अप्रैल 2019 के दिन सिंहासन छोड़ देंगे और उनके उत्तराधिकारी पुत्र 57-वर्षीय नारुहितो की ताज़पोशी हो जाएगी। अकिहितो के सिंहासन छोड़ने के निर्णय के अनुरूप जापान की केंद्र सरकार ने घोषणा की है कि वहां 24 फरवरी 2019 के दिन सम्राट के 30 साल के राज का जश्न मनाया जाएगा।

चूंकि अकिहितो का शासन और कंप्यूटर क्रांति लगभग साथ-साथ शुरू हुए थे इसलिए कंप्यूटर की तारीखों में कोई समस्या नहीं आई थी। लेकिन अब जापान में नए युग की शुरुआत होगी और तब कंप्यूटरों की तारीख और नए युग की तारीख के बीच अंतर के चलते समस्याओं की आशंका है। और सरकार नए युग की शुरुआत की घोषणा जल्दी नहीं करना चाहती क्योंकि उससे गलत संदेश जाने का डर है।

जापान के घरेलू व अंतर्राष्ट्रीय मामलों के स्वतंत्र विश्लेषक एन-लिओनोर डार्डेने का कहना है कि खास तौर से डाक विभाग, बैंक और स्थानीय सरकारों द्वारा रखे जाने वाले आवासीय पतों के रजिस्टर के रख-रखाव का काम प्रभावित होगा क्योंकि इनके कंप्यूटर अपने कामकाज के लिए जापानी युग की तारीखों पर निर्भर हैं। लिहाज़ा कंप्यूटर तकनीशियनों को ओव्हरटाइम काम करके समस्या का हल निकालना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जैव-विकास को दिशा देकर संरक्षण के प्रयास

स्ट्रेलिया वह महाद्वीप है जहां स्तनधारियों की आबादी में सबसे तेज़ गिरावट दर्ज की जा रही है। यहां जो स्तनधारी निवास करते हैं उनमें मार्सुपियल बड़ी तादाद में हैं। मार्सुपियल प्राणियों की विशेषता यह होती है कि इनकी संतानें पैदाइश के समय पूर्ण विकसित नहीं होतीं और उन्हें शरीर से बाहर एक थैली में पाला जाता है। इस थैली को मार्सुपियम कहते हैं।

ऐसा एक जोखिमग्रस्त मार्सुपियल प्राणि उत्तरी क्वोल (Dasyurus hallucatus) है। यह गिलहरी के बराबर होता है। इसके साथ दिक्कत यह हुई है कि यह ज़हरीले मेंढकों को पहचान नहीं पाता और उन्हें खा जाता है। यह मेंढक एक टोड (Rhinella marina) है जिसे ऑस्ट्रेलिया के कृषि अधिकारियों ने करीब 80 वर्ष पहले यहां छोड़ा था। इस टोड को वहां एक अन्य जीव – गुबरैलों – पर नियंत्रण पाने के मकसद से छोड़ा गया था। ये गुबरैले ऑस्ट्रेलिया की गन्ने की फसल को बहुत नुकसान पहुंचा रहे थे।

उत्तरी क्वोल को लगा कि यह बढ़िया भोजन है लेकिन यह टोड ज़हरीला था। अपने भोजन को न पहचान पाने के चक्कर में क्वोल की आबादी आज मात्र 25 प्रतिशत रह गई है। मेलबोर्न विश्वविद्यालय के शोधकर्ता एला केली और बेन फिलिप्स को अपने अनुभव से यह पता था कि क्वोल आबादी में कुछ क्वोल ऐसे भी हैं जो इस ज़हरीले टोड को नहीं खाते। तो केली और फिलिप्स ने सोचा कि क्यों न इन होशियार क्वोल का यह प्राणरक्षक गुण सभी क्वोल में पहुंचा दिया जाए ताकि वे इस ज़हरीले भोजन से बचने की क्षमता से लैस होकर अपनी रक्षा कर सकें।

अपने विचार को परखने के लिए उक्त वैज्ञानिकों ने टोड-प्रभावित क्षेत्रों से कुछ ऐसे क्वोल लिए जो ज़हरीले टोड से बचकर रहते थे। फिर वे एक टोड-मुक्त टापू से कुछ क्वोल लेकर आए और इन दो आबादियों के बीच प्रजनन होने दिया। इनकी संतानों को भोजन के रूप में उसी ज़हरीले टोड की टांगें दी गर्इं तो पता चला कि अधिकांश शिशु क्वोल टोड की टांग से दूर ही रहे।

केली और फिलिप्स का मत है कि इस प्रयोग से स्पष्ट हो जाता है कि टोड से कतराने का गुण जेनेटिक है और उसे संकरण के ज़रिए अन्य क्वोलों में भी पहुंचाया जा सकता है। अब वे बड़े पैमाने पर इस परीक्षण को प्राकृतिक परिस्थिति में करने की योजना बना रहे हैं।(स्रोत फीचर्स)

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टेस्ट ट्यूब शिशु के चालीस साल

लुईस ब्राउन वह पहली बच्ची थी जिसका जन्म टेस्ट ट्य़ूब बेबी नाम से लोकप्रिय टेक्नॉलॉजी के ज़रिए हुआ था। आज वह 40 वर्ष की है और उसके अपने बच्चे हैं। एक मोटेमोटे अनुमान के मुताबिक इन 40 वर्षों में दुनिया भर में 60 लाख से अधिक टेस्ट ट¬ूब बच्चेपैदा हो चुके हैं और कहा जा रहा है कि वर्ष 2100 तक दुनिया की 3.5 प्रतिशत आबादी टेस्ट ट्यूब तकनीक से पैदा हुए लोगों की होगी। इनकी कुल संख्या 40 करोड़ के आसपास होगी।

वैसे इस तकनीक का नाम टेस्ट ट्यूबबेबी प्रचलित हो गया है किंतु इसमें टेस्ट ट्यूब का उपयोग नहीं होता। किया यह जाता है कि स्त्री के अंडे को शरीर से बाहर एक तश्तरी में पुरुष के शुक्राणु से निषेचित किया जाता है और इस प्रकार निर्मित भ्रूण को कुछ दिनों तक शरीर से बाहर ही विकसित किया जाता है। इसके बाद इसे स्त्री के गर्भाशय में आरोपित कर दिया जाता है और बच्चे का विकास मां की कोख में ही होता है।

इस तकनीक को सफलता तक पहुंचाने में ब्रिटिश शोधकर्ताओं को काफी मेहनत करनी पड़ी थी। भ्रूण वैज्ञानिक रॉबर्ट एडवड्र्स ने अंडे का निषेचन शरीर से बाहर करवाया, जीन पर्डी ने इस भ्रूण के विकास की देखरेख की और स्त्री रोग विशेषज्ञ पैट्रिक स्टेपटो ने मां की कोख में बच्चे की देखभाल की थी। लेकिन प्रथम शिशु के जन्म से पहले इस टीम ने 282 स्त्रियों से 457 बार अंडे प्राप्त किए, इनसे निर्मित 112 भ्रूणों को गर्भाशय में डाला, जिनमें से 5 गर्भधारण के चरण तक पहुंचे। आज यह एक ऐसी तकनीक बन चुकी है जो सामान्य अस्पतालों में संभव है।

बहरहाल, इस तरह प्रजनन में मदद की तकनीकों को लेकर नैतिकता के सवाल 40 साल पहले भी थे और आज भी हैं। इन 40 सालों में प्रजनन तकनीकों में बहुत तरक्की हुई है। हम मानव क्लोनिंग के काफी नज़दीक पहुंचे हैं, भ्रूण की जेनेटिक इंजीनियरिंग की दिशा में कई कदम आगे बढ़े हैं, तीन पालकों वाली संतानें पैदा करना संभव हो गया है। सवाल यह है कि क्या इस तरह की तकनीकों को स्वीकार किया जाना चाहिए जो ऐसे परिवर्तन करती है जो कई पीढ़ियों तक बरकरार रहेंगे। कहीं ऐसी तकनीकें लोगों को डिज़ायनर शिशु (यानी मनचाही बनावट वाले शिशु) पैदा करने को तो प्रेरित नहीं करेंगी?(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पेड़ों के अनगिनत लाभ – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

सौ पेड़, हर साल 53 टन कार्बन डाईऑक्साइड और 200 कि.ग्रा. अन्य प्रदूषकों का वातावरण से निपटान करते हैं। हर साल ये 5,30,000 लीटर वर्षा जल को थामते हैं।

पेड़ों के अनेक फायदे

दिल्ली के अधिकारी इमारतें बनाने के लिए दिल्ली के कुछ इलाकों में 17,000 बड़ेबड़े पेड़ काटने की फिराक में हैं। इन पेड़ों को काटे जाने का विरोध कर रहे लोगों को यह दिलासा दिया जा रहा है कि हर एक काटे गए पेड़ पर 10 नए पौधे लगाए जाएंगे। मंत्री से लेकर नेशनल बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कार्पोरेशन तक और हम सब ये अच्छी तरह से जानते हैं कि यह वादा मूर्खतापूर्ण है: आज जो खोएंगे, उसकी भरपाई कल कर दी जाएगी” (पर कब? आज से 20 साल बाद? और यदि पौधे बच पाए तो?)। और यह सिर्फ दिल्ली में नहीं चल रहा है। हर राज्य, हर शहर के योजनाकार यही कर रहे हैं। यह रवैया पेड़ों और उनके महत्व के प्रति ना सिर्फ अज्ञानता बल्कि अहंकार और उपेक्षा का द्योतक है। लेकिन वक्त आ गया है कि योजनाकार पेड़ों के आर्थिक, पारिस्थितिक, स्वास्थ सम्बंधी और सामाजिक महत्व के प्रति सचेत हो जाएं।

पेड़ों का महत्व

1979 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के डॉ. टी. एम. दासगुप्ता ने गणना करके बताया था कि 50 साल की अवधि में एक पेड़ का आर्थिक मूल्य 2,00,000 डॉलर (उस समय की कीमत के आधार पर) होता है। यह मूल्य इस अवधि में पेड़ों से प्राप्त ऑक्सीजन, फल या बायोमास और लकड़ी वगैरह की कीमत के आधार पर है। पेड़ के वज़न में एक ग्राम की वृद्धि हो, तो उस प्रक्रिया में पेड़ 2.66 ग्राम ऑक्सीजन बनाता है। ऑस्ट्रेलिया की नैन्सी बेकहम अपने शोध पत्र पेड़ों का वास्तविक मूल्य (https://www.uow.edu.au/~sharonb/STS300/valuing/price/pricingarticles.html>) में कहती हैं: पेड़पौधे सालदरसाल अपना दैनिक काम करते रहते हैं। ये मिट्टी को रोके रखते हैं, पोषक तत्वों का नवीनीकरण करते हैं, हवा को ठंडा करते हैं, हवा के वेग की उग्रता में बदलाव करते हैं, बारिश कराते हैं, विषैले पदार्र्थों को अवशोषित करते हैं, र्इंधन की लागत कम करते हैं, सीवेज को बेअसर करते हैं, संपत्ति की कीमत बढ़ाते हैं, पर्यटन बढ़ाते हैं, मनोरंजन को बढ़ावा देते हैं, तनाव कम करते हैं, स्वास्थ्य बेहतर करते हैं, खाद्य सामग्री उपलब्ध कराते हैं, औषधि और अन्य जीवों के लिए आवास देते हैं।

इसी कड़ी में न्यूयॉर्क के पर्यावरण संरक्षण विभाग ने कुछ आंकड़े प्रस्तुत किए हैं। इन्हें आप इस लिंक पर देख सकते हैं: http://www.dec.ny.gov/lands/40243.html ये बताते हैं:

(1) स्वस्थ पेड़ यानी स्वस्थ लोग: 100 पेड़ प्रति वर्ष 53 टन कार्बन डाईऑक्साइड और 200 कि.ग्रा. अन्य वायु प्रदूषकों को हटाते हैं।

(2) स्वस्थ पेड़ यानी स्वस्थ समुदाय: पेड़ों से भरा परिवेश घरेलू हिंसा कम करता है, ये ज़्यादा सुरक्षित और मिलनसार समुदाय होते हैं।

(3) स्वस्थ पेड़ यानी स्वस्थ वातावरण: 100 बड़े पेड़ प्रति वर्ष 5,30,000 लीटर वर्षा जल थामते हैं।

(4) स्वस्थ पेड़ यानी घर में बचत: सुनियोजित तरीके से लगाए गए पेड़ एयर कंडीशनिंग लागत में 56 प्रतिशत तक बचत करते हैं। सर्दियों की ठंडी हवाओं को रोकते हैं जिससे कमरे में गर्माहट रखने के खर्च में 3 प्रतिशत तक बचत हो सकती है।

(5) स्वस्थ पेड़ यानी बेहतर व्यवसाय: पेड़ों से ढंके व्यापारिक क्षेत्रों में, दुकानों में ज़्यादा खरीदार आते हैं और 12 प्रतिशत अधिक खरीदारी करते हैं।

(6) स्वस्थ पेड़ यानी संपत्ति का उच्चतर मूल्य।

मंत्रीजन और एनबीसीसी अधिकारी समझदार लोग हैं। निश्चित रूप से वे ये सारे तथ्य जानते होंगे। फिर भी उनके लिए एक परिपक्व पेड़ शहर की जगह को खाताहै। 17,000 पेड़ों का सफाया करना यानी साफ हवा को तरसते किसी शहर में मकान, कॉलोनी और शॉपिंग मॉल बनाने का व्यापार। (दिल्ली ग्रीन्स नामक एक एनजीओ ने 2013 में बताया था कि एक स्वस्थ पेड़ की सालाना कीमत मात्र उससे प्राप्त ऑक्सीजन की कीमत के लिहाज़ से 24 लाख रुपए होती है)। मगर अधिकारियों के मुताबिक काटे गए पेड़ों द्वारा घेरी गई जगह की तुलना में नए रोपे जाने वाले पौधे सौंवा हिस्सा या उससे भी कम जगह घेरेंगे। लेकिन पौधे लगाएंगे कहां जहां पेड़ थे? निर्माण कार्य शुरू होने पर क्या ये पौधे जीवित रह पाएंगे? अधिकारियों का रवैया है कि हम तो ट्रांसफर या रिटायर होकर यहां रहेंगे नहीं, तो इन सवालों का जवाब हमें तो नहीं देना होगा। किंतु बात को समझने के लिए यह देखा जा सकता है कि पहले गुड़गांव क्या था और आज क्या है।

पेड़ों की कीमत पहचानें

वृक्षों के प्रति क्रूर व्यवहार के विपरीत कई अनुकरणीय उदाहरण हैं। सुंदरलाल बहुगुणा द्वारा प्रवर्तित चिपको आंदोलन, कर्नाटक की सलामुरादा थिम्मक्का द्वारा लगाए गए 398 बरगद के पेड़ जिन्हें वे अपने बच्चे मानती हैं और मजीद खान और जीव विज्ञानियों व बागवानों का समूह, जो तेलंगाना के महबूबनगर में 700 साल पुराने पिल्लालमर्री नामक बरगद के पेड़ की बखूबी देखभाल कर रहे हैं। 4 एकड़ में फैले बरगद के इस पेड़ को दीमक खाने लगी थी। इस समूह ने हर शाखा के फ्लोएम में कीटनाशक का इंजेक्शन देकर, देखभाल करके इसे फिर से हराभरा कर दिया है (https://www.thehindu.com/news/national/telangana/a-tree-in-intensive-care/article24241462.ece)। क्या इस पेड़ को काटकर 4 एकड़ ज़मीन का उपयोग रियल एस्टेट में कर लेना चाहिए था?

पेड़ भावनात्मक, आध्यात्मिक शान्ति प्रदान करते हैं। भारतीय इतिहास इसके उदाहरणों से भरा पड़ा है भगवान बुद्ध, सम्राट अशोक और तमिल राजा पारि वल्लल जिन्होंने अपने रथ को एक पौधे के पास छोड़ दिया था ताकि वह इससे सहारा पाकर फैल सके।

क्या दिल्ली के 17,000 पेड़ बचाने और उपनगरों में कहीं और कॉलोनियां बनाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए? और यदि वहीं बनाना है तो ऐसे तरीके निकाले जाएं जिसमें पेड़ों की बलि ना चढ़े। और यदि पेड़ काटने भी पड़े तो बहुत ही कम संख्या में। असंभवसी लगने वाली इस योजना के बारे में सोचना वास्तुकारों के लिए चुनौती है। दरअसल कई स्थानों पर गगनचुंबी इमारतें बनाई गई हैं और पेड़ों को बचाया गया है। कई जगह तो पेड़ों को इमारतों का हिस्सा ही बना दिया गया है। ऐसे कुछ उदाहरण इटली, तुर्की और ब्राज़ील की इमारतों में देखे जा सकते हैं।

भारत में भारतीय और विदेशी दोनों तरह के वास्तुकार हैं जिन्होने पर्यावरण से सामंजस्य बैठाते हुए घरों और परिसरों का निर्माण किया है। भारत में लगभग 80 संस्थान हैं जो वास्तुकला की शिक्षा प्रदान करते हैं। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ आर्किटेक्ट्स में लगभग 20,000 सदस्य हैं। क्यों ना उन लोगों के सामने इस तरह के डिज़ाइन की चुनौती रखी जाए और सर्वश्रेष्ठ योजना को पुरस्कृत किया जाए और उसे घर, कॉलोनी बनाने के लिए अपनाया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्यों ऊंटनी के दूध से दही नहीं जमता? – कालू राम शर्मा

हाल ही में एक स्कूली बच्ची ने सवाल पूछा था कि क्या यह सही है कि ऊंटनी के दूध से दही नहीं बनता? बातचीत के दौरान यह बात भी उठी कि ऊंटनी का दूध काफी मीठा होता है इसलिए उसमें कीड़े पड़ जाते हैं। सवाल पश्चिम निमाड़ के एक स्कूल की बच्ची ने पूछा था जहां राजस्थान से लाए गए ऊंट सिर्फ ठंड की शुरुआत में दिखाई देते हैं।

ऊंट शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में पाया जाने वाला स्तनधारी पालतू पशु है। इसका इस्तेमाल प्राचीन काल से खेती और बोझा ढोने में किया जाता रहा है। वैसे इन इलाकों में ऊंट के मांस, बाल और खाल के अलावा ऊंटनी के दूध का इस्तेमाल भी आम है जहां ये बहुतायत से मिलते हैं। कई देशों, खासकर अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्रों के समुदायों के जीवन में ऊंट अहम भूमिका अदा करते हैं। शुष्क क्षेत्र की प्रतिकूल जलवायु के प्रति अनुकूलन के चलते ऊंटों का इस्तेमाल परिवहन में तो किया ही जाता है साथ ही जब ऊंटनी बच्चे जनती है उस दौरान इनका दूध भी मिल जाता है। ऊंटों का मांस बड़ी मात्रा में खाया जाता है। बहरहाल ऊंटनी के दूध की बात करते हैं।

यह तो हम जानते हैं कि दूध एक कोलायडल विलयन है जिसमें वसा, लेक्टोस शर्करा, कैसीन (एक प्रकार का प्रोटीन), पानी, खनिज तत्व (कैल्शियम, फास्फोरस) प्रमुख हैं।

ऊंटनी का दूध

ऊंटनी का दूध सफेद, अल्पपारदर्शक, सामान्य गंध लिए स्वाद में थोड़ा नमकीन और हल्का-सा तीखापन लिए होता है। बताया जाता है कि रेगिस्तानी इलाकों में इसके दूध का इस्तेमाल ऊंट-पालक चाय, खीर, घेवर बनाने में करते हैं। गड़रियों से यह पूछने पर कि क्या ऊंटनी का दूध जल्दी खराब हो जाता है और इसमें कीड़े पड़ जाते हैं, उन्होंने बताया कि यह सही नहीं है। राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र बीकानेर ने भी इस बात का उल्लेख किया है कि ऊंटनी का दूध 9 से 10 घंटे तक बिना उबाले रखने पर खराब नहीं होता। अगर बराबर मात्रा में पानी मिला दिया जाए तो यह 12-13 घंटे तक खराब नहीं होता।

दुनिया भर में सालाना 53 लाख टन और भारत में लगभग 21 हज़ार टन ऊंट के दूध का उत्पादन होता है। एक ऊंटनी प्रतिदिन लगभग ढाई से दस लीटर तक दूध देती है। बेहतर पोषण और प्रबंधन के चलते इसे 20 लीटर तब बढ़ाया जा सकता है।

पदार्थ गाय बकरी भेड़ उंटनी भैंस मनुष्य
पानी(ग्राम) 87.8 88.9 83.0 88.8 83.3 88.2
ऊर्जा (किलोजूल) 76 253 396 264 385 289
प्रोटीन (ग्राम) 3.2 3.1 5.4 2.0 4.1 1.3
वसा (ग्राम) 3.9 3.5 6.4 4.1 5.9 4.1
लैक्टोस (ग्राम) 4.6 4.4 5.1 4.7 5.9 7.2
कैल्सियम (मि. ग्रा.) 115 100 170 94 175 34

यह सही है कि ऊंटनी के दूध का दही आम तौर पर उन इलाकों में भी नहीं बनाया जाता जहां ऊंट का दूध आसानी से उपलब्ध होता है। बाड़मेर में स्कूली शिक्षा में कार्यरत शोभन सिंह नेगी के अनुसार ऊंटनी के दूध का इस्तेमाल दही बनाने में नहीं होता। उन्होंने बताया कि रेगिस्तानी इलाके में गाय-भैंस के दूध, दही, छांछ और घी का इस्तेमाल आम बात है। मगर ऊंटनी के दूध से दही बनाने का रिवाज़ नहीं है। कारण कि गाय-भैंस के दूध के माफिक ऊंटनी के दूध का दही नहीं जमता।

वैसे, राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र में ऊंटनी के दूध से दही तो 2002 में ही बना लिया गया था लेकिन ऊंटनी के दूध से दही पतला बनता है। इसीलिए इसे ड्रिंकिंग कर्ड कहा गया है। केंद्र के वैज्ञानिक डॉ. राघवेंद्र सिंह के अनुसार दही बनाने में दूध में मौजूद कुल ठोस पदार्थ, खनिज एवं कैसीन की माइसेलर संरचना की अहम भूमिका होती है जिसके कारण दही ठोस रूप धारण करता है।

तो पहले माइसेलर सरंचना को समझा जाए। दूध में एक प्रमुख प्रोटीन कैसीन होता है। कैसीन एक बड़ा अणु होता है और इसकी एक विशेषता होती है। इसके कुछ हिस्से पानी के संपर्क में रहने को तत्पर रहते हैं जबकि अन्य हिस्से पानी से दूर भागने की कोशिश करते हैं। इन्हें क्रमश: जलस्नेही और जलद्वैषी हिस्से कहते हैं। तो पानी में डालने पर कैसीन के अणु गेंद की तरह व्यवस्थित हो जाते हैं। इन गेंदों में जलस्नेही हिस्से बाहर की ओर (गेंद की सतह पर) और जलद्वैषी हिस्से गेंद के अंदर की ओर जमे होते हैं। दूध में कैसीन इसी रूप में पाया जाता है। इस तरह बनी सूक्ष्म गेंदों को माइसेल कहते हैं। दूध में कैसीन के ये माइसेल पानी में तैरते रहते हैं। वैज्ञानिक भाषा में कहें तो निलंबित रहते हैं। इसी के चलते अन्यथा अघुलनशील कैसीन पानी में घुला रहता है।

कैसीन माइसेल की एक और विशेषता है। इनकी सतह पर थोड़ा ऋणावेश होता है। समान आवेश एक-दूसरे को विकर्षित करते हैं। इसलिए ये माइसेल एक-दूसरे से दूर-दूर रहते हैं, आपस में चिपकते नहीं।

दही बनने की प्रक्रिया में इन केसीन माइसेल की अहम भूमिका है। केसीन के ये गेंदाकार माइसेल तापमान, अम्लीयता और दबाव के प्रति संवेदनशील होते हैं। आम तौर पर दूध से दही जमाने के लिए हम जामन का इस्तेमाल करते हैं। जामन में मौजूद बैक्टीरिया, लैक्टोस शर्करा को लैक्टिक अम्ल में बदलते हैं। जामन मिले दूध में ये बैक्टीरिया बढ़ते जाते हैं और दूध की अम्लीयता बढ़ने लगती है। अम्लीयता बढ़ने के कारण दूध खट्टा होने लगता है। इसके अलावा, अम्लीयता में यह परिवर्तन कैसीन माइसेल को प्रभावित करता है। अम्लीयता बढ़ने पर कैसीन माइसेल की बाहरी सतह का ऋणावेश कम होने लगता है। अम्लीयता का एक ऐसा स्तर आता है जब माइसेल की बाहरी सतह पर मौजूद ऋणावेश पूरी तरह समाप्त हो जाता है और माइसेल्स को एक-दूसरे से दूर रखने वाला बल समाप्त हो जाता है और ये आपस में चिपकने लगते हैं। कैसीन माइसेल्स का आपस में चिपककर ठोस रूप धारण करने को ही दही जमना कहते हैं। वैसे दूध में केसीन के माइसेल्स को इस तरह परस्पर चिपकाने के लिए पशुओं, वनस्पतियों व सूक्ष्मजीवीस्रोतों से प्राप्त विभिन्न एंज़ाइम भी कारगर होते हैं।

अब देखते हैं कि क्या कारण है कि ऊंटनी के दूध से दही नहीं बन सकता? ऊंटनी के दूध के एंज़ाइम संघटन को लेकर बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि ऊंटनी के दूध से दही तब तक नहीं बनाया जा सकता जब तक कि इसमें बकरी, भेड़ या भैंस का दूध नहीं मिलाया जाता। ज़ाहिर है कि गाय, भैंस या बकरी के दूध में ऐसा कुछ है जो दही जमने के लिए ज़िम्मेदार है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि  दि इसमें बछड़े से प्राप्त रेनेट अधिक मात्रा में मिलाया जाए तो ऊंटनी के दूध से भी दही जमाया जा सकता है। (रेनेट बछड़े के पेट में मौजूद थक्केदार दूध को कहते हैं। इसका उपयोग चीज़ बनाने में किया जाता है। इसमें रेनिन नामक एंज़ाइम काफी मात्रा में पाया जाता है।) ऊंटनी के दूध से दही जमाने के सारे अध्ययन ऐसे ही एंज़ाइमों की मदद से किए गए हैं।

एक प्रयोग में उत्तरी केन्या से ऊंटनी के दूध के 10 नमूने लेकर उनमें बाज़ार में मिलने वाले बछड़े का रेनेट पावडर मिलाया गया। देखा गया कि गाय के दूध की बनिस्बत ऊंटनी के दूध का दही जमने में दो से तीन गुना अधिक समय लगता है। ऊंटनी और गाय के दूध से दही बनने की प्रक्रिया का अध्ययन इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप द्वारा भी किया गया। पता चला कि गाय और ऊंटनी दोनों के कैसीन माइसेल गोलाकार ही होते हैं। किंतु गाय के कैसीन माइसेल पूरे क्षेत्र में फैले हुए थे जबकि ऊंटनी के दूध के माइसेल अपेक्षाकृत एक ही जगह पर समूहित रूप में दिखाई देते हैं।ऊंटनी के कैसीन कण तुलनात्मक रूप से साइज़ में बड़े भी थे। दही जमते दूध के इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप में अवलोकन से पता चला कि गाय के दूध में कैसीन माइसेल्स का एकत्रीकरण लगभग 60 से 80 फीसदी तक हुआ।ऊंटनी के दूध में उतने ही समय में बहुत कम माइसेल का एकत्रीकरण दिखाई दिया। एक मत है कि माइसेल के शीघ्र एकत्रीकरण की वजह से ही गाय/भैंस के दूध से दही जम पाता है।

कुछ अन्य वैज्ञानिकों ने दूध की अम्लीयता के स्तर और कैल्शियम आयनों के प्रभाव का अध्ययन भी किया। देखा गया कि ऊंटनी के दूध के अम्लीयता-स्तर और तापमान बढ़ाकर उसमें कैल्शियम आयन मिलाने पर जमने के समय में कमी तो आती है मगर अंतर फिर भी बना रहता है। कैल्शियम आयन के असर को देखते हुए यह सिफारिश की गई है कि दही जमाने के लिए ऊंटनी के दूध में कैल्शियम की अतिरिक्त मात्रा मिलाई जा सकती है। लेकिन यहां यह जोड़ना आवश्यक है कि कैल्शियम लवण मिलाने के साथ-साथ रेनेट का उपयोग तो करना ही होगा और कैल्शियम लवण भी काफी अधिक मात्रा में मिलाने पर ही वांछित परिणाम मिलने की उम्मीद की जा सकती है।

वैसे एक मत यह भी बना है कि गाय-भैंस के दूध और ऊंटनी के दूध में उपस्थित कैसीन की माइसेलर संरचना में कुछ अंतर हैं जिनकी वजह से अम्लीयता बढ़ने पर भी ऊंटनी का दूध ठोस रूप में जम नहीं पाता।

संक्षेप में, दुनिया भर की कई प्रयोगशालाओं में किए गए कई प्रयोगों के परिणामों से स्पष्ट है कि ऊंटनी के दूध से दही जमाना असंभव नहीं तो मुश्किल ज़रूर है। वैज्ञानिक यह जानने की कोशिश करते रहे हैं कि क्यों ऊंटनी के दूध से दही नहीं जमता। कोई एक स्पष्ट जवाब तो नहीं मिला है किंतु प्रयोगों के आधार पर कुछ परिकल्पनाएं ज़रूर प्रस्तुत की गई हैं।

जैसे एक परिकल्पना ऊंटनी के दूध में कैसीन के माइसेल्स की संरचना पर आधारित है। जैसा कि ऊपर बताया गया था, गाय/भैंस के दूध की तुलना में ऊंटनी के दूध में कैसीन के माइसेल्स बड़े होते हैं। एक मत यह है कि जब बड़े मायसेल्स के समूहीकरण की बारी आती है तो वे आपस में उतनी निकटता से नहीं जुड़ पाते और इसलिए दही ठोस नहीं बन पाता। कुछ प्रयोगों से माइसेल की साइज़ और जमने के समय में सम्बंध देखा गया है।

एक अवलोकन यह है कि दूध में कैसीन की मात्रा का भी दही जमने की क्रिया पर असर होता है। ऊंटनी के दूध में कैसीन की मात्रा 1.9-2.3 प्रतिशत के बीच होती है जबकि गाय के दूध में 2.4-2.8 प्रतिशत। एक संभावना यह है कि कैसीन की कम मात्रा के कारण ऊंटनी के दूध से दही नहीं जम पाता।

कुछ रोचक प्रयोग इस बात को लेकर भी किए गए हैं कि दही जमने की प्रक्रिया पर इस बात का भी असर पड़ता है कि दही जमाने के लिए एंज़ाइम किस प्रजाति के प्राणि से लिए गए हैं। जैसे भेड़ से प्राप्त एंज़ाइम ऊंटनी के दूध को जमाने में ज़्यादा कारगर पाया गया, बनिस्बत गाय से प्राप्त एंज़ाइम के। इन प्रयोगों से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला तो यह है कि अलग-अलग प्रजातियों में इन एंज़ाइम की संरचना व क्रिया में अंतर होता है। लेकिन यह भी हो सकता है कि ऊंटनी के दूध में कैसीन ही अलग प्रकार का होता हो या उसकी माइसेलर संरचना भिन्न होती हो।

दही जमने की क्रिया के पहले चरण में कैसीन माइसेल की सतह पर उपस्थित कैसीन के अणुओं का जल-अपघटन होता है। यह देखा गया है कि 80 प्रतिशत अणुओं का जल-अपघटन होने के बाद ही माइसेल्स के एकत्रीकरण और दही जमने की क्रिया शुरू होती है। ऊंटनी के दूध में यह स्थिति आ ही नहीं पाती। इसका कारण यह हो सकता है कि ऊंटनी के दूध में कैसीन की संरचना कुछ ऐसी है कि उनका जल-अपघटन मुश्किल से होता है।

ऊंटनी के दूध से दही जमने में समस्याएं हैं, मगर हम अभी यह नहीं जानते कि इसका ठीक-ठीक कारण क्या है। तब तक ऊंटनी के दूध के अन्य व्यंजनों का लुत्फ उठाने में क्या बुराई है? आजकल ऊंटनी के दूध से बने उत्पादों का पुष्कर और रेगिस्तानी इलाके में जोधपुर, बीकानेर में काफी चलन है। ऊंटनी के दूध से पनीर बनाया जाने लगा है। इसके दूध की चाय और आइस्क्रीम भी आकर्षण के केंद्र हैं। राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र में इस दूध से आइस्क्रीम, रबड़ी और दही भी बनाए जा रहे हैं। ऊंटनी के दूध में मुल्तानी मिट्टी और नारियल का तेल मिलाकर साबुन भी राजस्थान में मिलते हैं। विदेशी पर्यटक इनका खूब इस्तेमाल करते हैं। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि ऊंटनी का दूध डायबिटीज़ के रोगियों के लिए काफी काम का है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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घाव की निगरानी और ज़रूरी होने पर दवा देती पट्टी

जीर्ण (पुराने) घावों को भरने में बहुत वक्त लगता है। घाव भरने के दौरान इनकी नियमित देखभाल करनी पड़ती है वरना संक्रमण की आशंका होती है। कभी-कभी तो नौबत यहां तक पहुंच जाती है कि व्यक्ति का वह अंग ही काटना पड़ जाता है। डायबिटीज़ और मोटापे की समस्या से ग्रस्त लोगों में जीर्ण घाव होने की संभावना और भी बढ़ जाती है।

इस समस्या से राहत पाने के लिए टफ्ट्स विश्वविद्यालय के समीर सोनकुसाले और उनकी टीम ने ऐसा बैंडेज विकसित किया है जो घावों की देखभाल करेगा और ज़रूरत के हिसाब से घाव पर दवा भी लगा देगा।

इस बैंडेज में लगे सेंसर घाव से रिसने वाले जैविक अणुओं का जायज़ा लेते रहते हैं और इनके आधार पर घाव की हालत भांपते हैं। उदाहरण के लिए, सेंसर देखते हैं कि घाव को ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में मिल रही है या नहीं; घाव का ph (यानी अम्लीयता) का स्तर ठीक है या नहीं; घाव असामान्य स्थिति में तो नहीं है; घाव के आसपास का तापमान क्या है; कोई सूजन तो नहीं है। इस जानकारी को एक माइक्रोप्रोसेसर में पढ़ा जाता है। फिर घाव की स्थिति एक मोबाइल डिवाइस को भेजी जाती है। यदि दवा देने की ज़रूरत लगती है तो वह डिवाइस बैंडेज को दवा, एंटीबायोटिक देने के निर्देश देती है।

पिछले कुछ सालों में वैज्ञानिकों ने ऐसे आधुनिक बैंडेज विकसित किए हैं जो घाव में संक्रमण का पता कर सकते हैं और यह अंदाज़ लगा सकते हैं कि वह कितनी तेज़ी से ठीक हो रहा है। किंतु घाव की स्थिति भांपकर उपचार करने वाला यह पहला बैंडेज है हालांकि यह बैंडेज अभी बाज़ारों में उपलब्ध नहीं हैं। शोधकर्ताओं का कहना है अलग-अलग तरह के जीर्ण घावों की देखभाल और उपचार के लिए अभी इस पर और काम किया जाना बाकी है। उम्मीद है कि यह बैंडेज बेड सोर, जलने के घाव और सर्जरी के घावों को भरने में मददगार होगा। इस तरह का बैंडेज संक्रमण को कम करेगा। शायद अंग को काटे जाने की नौबत ना आए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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थोड़ा ही सही, सूरज भी सिकुड़ता है

क नए अध्ययन से पता चला है कि सूरज की त्रिज्या एक अवधि में चुटकी भर छोटी होती है। यह वह समय होता है जब सूरज सबसे अधिक सक्रिय होता है। सूरज के सक्रियता का चक्र लगभग 11 साल का होता है। इसे सौर चक्र भी कहते हैं। इन 11 सालों में उच्च और निम्न चुंबकीय गतिविधि देखने को मिलती है।

एस्ट्रोफिज़िकल जर्नल में दो शोधकर्ताओं ने यह दावा किया है कि सूरज की इस सक्रिय अवस्था में उसकी त्रिज्या में 1 से 2 किलोमीटर की कमी होती है। देखा जाए तो यह 1-2 किलोमीटर की कमी सूरज की 7 लाख किलोमीटर त्रिज्या के सामने कुछ भी नहीं है।

सूरज कि सतह ठोस नहीं है इसलिए इसके आकार को परिभाषित करना आसान नहीं है। वर्ष 2010 में हवाई विश्वविद्यालय के खगोलज्ञ जेफ कुन ने इसकी जांच करने की कोशिश की थी। सूर्य के केंद्र से बाहर की उसकी चमक कम होने के आधार पर उसकी चौड़ाई पता की जा सकती है। कुन और सहयोगियों ने जब इस आधार को सामने रखकर अध्ययन किया तब उनको कोई ऐसा संकेत नहीं मिला जिससे यह कहा जा सके कि सौर चक्र के दौरान सूरज की त्रिज्या में किसी प्रकार का परिवर्तन होता है।

लेकिन हाल ही में एक नए अध्ययन से मालूम चला है सूरज की त्रिज्या नापने का एक और तरीका है जिसे कंपन त्रिज्या कहा जाता है। इसे सूरज के भीतर चलने वाले कंपनों की मदद से मापा जाता है। सूरज के सिकुड़ने या फैलने पर इन कंपनों की आवृत्ति में बदलाव होता है।

न्यू जर्सी इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी, न्यूयॉर्क के एलेक्ज़ेंडर कोसोविचेव और कोट डीअज़ूर युनिवर्सिटी, फ्रांस के ज़्यांपियरे रोज़ेलॉट अपने पेपर में कहते हैं कि कंपन तरंगों के उपयोग से अधिक सटीकता से त्रिज्या का पता लगाया जा सकता है। कंपन त्रिज्या का पता लगाने के लिए ताराभौतिकविदों ने दो अंतरिक्ष यानों से 21 साल में जमा किए गए कीमती डैटा का उपयोग किया। सूरज की अलगअलग परतों में विस्तार या संकुचन की मात्रा अलग होती है। लेकिन सूर्य की सक्रिय अवस्था में कंपन त्रिज्या में कुल मिलाकर कमी आती है।

हालांकि यह नया मापने का तरीका सूर्य की चमक आधारित त्रिज्या को मापने का विकल्प नहीं है। ये दोनों तरीके अलगअलग तकनीकों पर आधारित हैं, जो सूर्य के व्यवहार के अलगअसग पहलुओं का पता करते हैं।

येल विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त खगोलशास्त्री सबातिनो सोफिया के अनुसार सूरज की कंपन त्रिज्या सूरज के भीतर विभिन्न गहराई पर चुंबकीय तीव्रता में उतारचढ़ाव को समझने में मदद कर सकती है। पहले मात्र अनुमान थे लेकिन अब इस बात की पुष्टि हुई है कि सौर चक्र के दौरान सूर्य की कंपन त्रिज्या बदलती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्मार्टफोन के क्लिक से रंग बदलते कपड़े – डॉ. डी बालसुब्रमण्यन

पी.जी. वुडहाउस के प्रशंसकों को याद होगा कि ऑन्ट डहलिया कहानी के नायक बर्टी वूस्टर को उनकी अपनी साप्ताहिक पत्रिका मिलेडीज़ बुडवारके लिए  “what the well dressed man is wearing” (बनेठने आदमी ने क्या पहना है?) विषय पर लेख लिखने को राज़ी कर लेती हैं। यह बात 1920 के दशक की है और तब लोगों के पास फुरसत के पल भी थे। पर आज, लगभग 100 साल बाद, भागदौड़ भरा समय है। और हाल ही में साइंस न्यूज़ नामक पाक्षिक पत्रिका ने फैशन फॉरवर्ड आधुनिक वस्त्र उद्योग परिधानों में गैजेट्स लगा सकेगानामक एक लेख प्रकाशित किया है। इसकी लेखक मारिया टेमिंग और मारियाह क्वांटानिला हैं।

मारिया और मारियाह ने अपने इस लेख में आने वाले समय में गैजेट से लैस स्मार्टकपड़ों के बारे में लिखा है। उन्होंने अमेरिका में हुई तकनीकी बैठक में कई डेवलपर्स और अन्वेषकों द्वारा प्रस्तुत कुछ उदाहरण दिए हैं। लेख के कुछ अंश प्रस्तुत हैं।

रंग बदलते कपड़े

साठसत्तर साल पहले ब्लीडिंग मद्रासकहलाने वाली शर्ट बिकती थी। यह हर धुलाई पर रंग बदलती थी (और रंग हल्का पड़ता जाता था)। पर यहां जिन कपड़ों के बारे में बात की जा रही है वे धोने पर नहीं बल्कि रोशनी (सूरज वगैरह की रोशनी) पड़ने पर रंग बदलते हैं और यह बदलाव पलटा जा सकता है। इसके लिए पहनने वाले को अपने स्मार्टफोन के स्क्रीन को क्लिक करना होता है। पर यह रंग बदलता कैसे है?

दरअसल इन कपड़ों को बनाने के लिए ऐसे धागों का उपयोग किया जाता है जिनमें तांबे के अत्यंत पतले तार पॉलीस्टर (या नायलॉन) में लिपटे होते हैं। पॉलीस्टर के रेशों पर रंजक (पिगमेंट) होते हैं, ठीक उसी तरह जैसे सामान्य कपड़ों पर होते हैं। परिधान इन्हीं रंजक युक्त धागों से बनाए जाते हैं, और इन परिधानों पर छोटी बैटरी भी लगी होती है। यह बैटरी धागे में लिपटे तांबे के तार को गर्म करती है। परिधान पहना व्यक्ति अपने स्मार्टफोन से एक वाईफाई सिग्नल भेजता है, तो बैटरी चालू हो जाती है और तांबे का तार गर्म होने लगता है। इसके चलते कपड़े का रंग बदल जाता है या कपड़े पर नया पैटर्न (धारियां, चौखाने वगैरह) उभर आता है। अमेरिका स्थित सेंट्रल फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के डॉ. जोशुआ कॉफमैन और डॉ. अयमान अबॉरेड्डी द्वारा बनाए ये कपड़े, बैग और अन्य चीज़ें जल्द ही बाज़ार में पहुंच जाएंगी।

गुजरात और राजस्थान की महिलाएं वहां की पारंपरिक पोशाक लहंगा या घाघरा पहनती हैं, इनमें छोटेछोटे कांच जड़े होते हैं। जब इन कांच के टुकड़ों पर रोशनी पड़ती है तो ये चमकते हैं। पर अब जल्द ही इन कपड़ों का हाईटेक संस्करण आएगा जिनमें कपड़ों पर पारंपरिक निर्जीव कांच की जगह जलतेबुझते एलईडी लगे होंगे जो प्रकाश उत्सर्जित करेंगे। इन एलईडी को शोधकर्ताओं ने ओएलईडी का नाम दिया है। ये ओएलईडी पॉलीस्टर कपड़े पर ही बनाए जाते हैं और परंपरागत एलईडी की तुलना में कहीं अधिक लचीले होते हैं। इसे दक्षिण कोरिया के डीजॉन में कोरिया एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के डॉ. एस. क्वोन और उनके सहयोगियों ने विकसित किया है। स्मार्टफोन से विद्युत सिग्नल भेजकर इन ओएलईडी को चालू करके कपड़ों को रोशन किया जा सकता है। इस तरह कपड़ों पर पैटर्न, संदेश वगैरह बनाए जा सकते है या रात में पैदल चलने वाले राहगीरों के लिए रोशनी की जा सकती है।

तेज़ चाल से चलने या दौड़ने के बाद हमें गर्मी लगती है चलनेफिरने से ऊष्मीय ऊर्जा उत्पन्न होती है। इसी तरह कुछ देर धूप में खड़े रहने पर भी हमें गर्मी लगती है, उर्जा उत्पन्न होती है। यह ऊर्जा गर्मी के रूप में खो जाती है। इस तरह गर्मी के माध्यम से ऊर्जा खोने की बजाय क्या हम इस गर्मी या शरीर की गति को विद्युत उर्जा में परिवर्तित कर सकते हैं? इस सवाल पर स्टैनफोर्ड और जॉर्जिया टेक विश्वविद्यालय के डॉ. जून चेन और डॉ. झोंग लिन वांग ने काम किया है। उन्होंने कपडों में फोटोवोल्टेइक तार गूंथ दिए। इन तारों पर सूर्य का प्रकाश पड़ने पर वे सोलर सेल की तरह, कुछ मात्रा में बिजली उत्पन्न कर सकते हैं। इस बिजली को कपड़ों में लगी बैटरी में स्टोर किया जा सकता है। डॉ. चेन का कहना है कि आपकी टीशर्ट पर सौर सेल कपड़े का 4 सेमी × 5 सेमी टुकड़ा सिल दिया जाए, और आप सूर्य की रोशनी में दौड़ें तो एक सेलफोन चार्ज करने लायक बिजली उत्पन्न की जा सकती है। सोचिए अगर आपने पूरी तरह इस कपड़े से बनी शर्ट या जैकेट पहनी हो तब!

डॉ. चेन ने एक और विशेष प्रकार के पॉलीमर या बहुलक (जिसे पीटीएफई कहा जाता है) से कपड़ा तैयार किया है। यह शरीर की गति से उत्पन्न उर्जा को सोखता है और इसे विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करता है। मारिया और मारियाह लिखती हैं: इस तरह के ऊर्जा उत्पन्न करने वाले यंत्र तंबुओं में भी लगाए जा सकते हैं। इन पर सूरज की रोशनी पड़ने या हवा के चलने पर ये शिविर में रहने वाले लोगों के उपकरणों को चार्ज कर सकते हैं।

मारिया और मारियाह का यह लेख इंटरनेट पर (https://www.sciencenews.org/article/future-smart-clothes-could-pack-serious-gadgetry) मुफ्त में उपलब्ध है और अत्यंत पठनीय है। लेख में और भी ऐसे अध्ययनों का उल्लेख किया गया है जो इस तरह के उपकरणों के माध्यम से पर्यावरण की ऊर्जा को विद्युत उर्जा में परिवर्तित करके संग्रहित कर उसका उपयोग करते हैं।

हल्केफुल्के सेल फोन

कुछ लोग भारी भरकम सेलफोन संभालने के बजाए कलाई में पहने जाने वाले फोन उपयोग करना पसंद कर रहे हैं। कुछ लोग लैपटॉप की जगह स्मार्टफोन का उपयोग करने लगे हैं। (हाल ही में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. मार्टिन चाफी ने हैदराबाद में तीन अलगअलग व्याख्यान दिए। व्याख्यान से जुड़ी स्लाइड, फिल्में वगैरह लैपटाप में नहीं स्मार्टफोन में थीं। पहनने योग्य उपकरण (कम्प्यूटर तक) तेज़ी से लोकप्रिय और सुविधाजनक हो जाएंगे। इन्हें अब आपके कपड़ों में लगे उपकरणों की मदद से चार्ज किया जा सकेगा। तो देखते हैं, अगले साल का फैशन क्या होगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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