मलेरिया परजीवी को जल्दी पकड़ने की कोशिश

हाल ही में सैन डिएगो स्थित युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की शोधकर्ता एलिज़ाबेथ विनज़ेलर और उनकी टीम ने ऐसे रसायनों की पहचान कर ली है जो मलेरिया परजीवी का लीवर में ही सफाया कर देंगे।

होता यह है कि जब एक संक्रमित मच्छर मनुष्य को काटता है, तो मलेरिया के लिए ज़िम्मेदार प्लाज़्मोडियम परजीवी स्पोरोज़ाइट अवस्था में शरीर में प्रवेश करते हैं। लीवर में पहुंच कर ये अपनी प्रतियां बनाते और वृद्धि करते हैं। इसके बाद ये रक्तप्रवाह में प्रवेश करते हैं। मलेरिया के लक्षण तब ही दिखाई पड़ते हैं जब ये परजीवी रक्त प्रवाह में प्रवेश कर जाते है और संख्या में वृद्धि करने लगते हैं। आम तौर पर मलेरिया के लक्षणों से निपटने के लिए ही दवाएं दीं जाती हैं।

लेकिन शोधकर्ता चाहते थे कि मलेरिया के परजीवी को लीवर में ही खत्म कर दिया जाए। इसके लिए शोधकर्ताओं ने लगभग 5 लाख मच्छरों से स्पोरोज़ाइट अवस्था में प्लाज़्मोडियम परजीवी को अलग किया। हरेक परजीवी पर उन्होंने लुसीफरेज़ एंज़ाइम जोड़ा, जो जुगनू में चमक पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार होता है, ताकि परजीवी पर नज़र रखी जा सके। इसके बाद हरेक परजीवी पर एक प्रकार का रसायन डाला। और फिर उन्हें लीवर कोशिकाओं के साथ कल्चर किया। इस तरह उन्होंने लगभग 5 लाख रसायनों का अलग-अलग अध्ययन किया।

उन्होंने पाया कि लगभग 6,000 रसायनों ने परजीवियों की वृद्धि को कुशलतापूर्वक रोक कर दिया। जिसमें से ज़्यादातर रसायनों ने लीवर कोशिकाओं को कोई गंभीर क्षति नहीं पहुंचाई। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कितने रसायन दवा के रूप में काम आ सकते हैं। शोधकर्ताओं ने इन रसायनों का कोई पेटेंट नहीं लिया है ताकि अन्य लोग भी इन पर काम कर सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रकृति की तकनीकी की नकल यानी बायोनिक्स – डॉ. दीपक कोहली

प्रकृति में पाई जाने वाली प्रणालियों एवं जैव वैज्ञानिक विधियों का अध्ययन करके एवं इनका उपयोग करके इंजीनियरी तंत्रों को डिजाइन एवं विकसित करना बायोनिक्स कहलाता है।

जब हम बायोनिक्स के बारे में सोचते हैं तो साधारणत: ऐसी कृत्रिम बांह व टांग के बारे में सोचते हैं जो मानव शरीर में बाहर से लगाई जा सके। बायोनिक्स पद्धति के तहत जीवन की अनिवार्य जीवन प्रक्रियाओं को संवेदनशील उपकरणों से शक्ति मिलती है। ये मानव के क्षतिग्रस्त अंगों से कुछ संदेश मस्तिष्क को भेजते हैं ताकि मनुष्य अपने कार्य कुछ हद तक स्वयं कर सके।

दुर्भाग्यवश जब किसी व्यक्ति के शरीर का कोई हिस्सा क्षतिग्रस्त हो जाए अथवा पूरी तरह से निष्क्रिय हो जाए तो उसके पास क्या उपाय रह जाएगा? हमारे पास छिपकली या स्टार फिश जैसी क्षमताएं तो हैं नहीं कि हम दोबारा बांह, टांग आदि विकसित कर सकें तथा उसे पुराने रूप में ला सकें। स्टेम सेल के क्षेत्र में किया जा रहा अनुसंधान इसका उपाय हो सकता है। पर अभी इस पद्धति का पर्याप्त विकास नहीं हुआ है। तब सिर्फ कृत्रिम अंग ही आशा की किरण हो सकते हैं और यहीं पर बायोनिक्स का पदार्पण होता है।

बायोनिक्स का इतिहास प्राचीन है। मिस्र की पौराणिक कथाओं में उल्लेख है कि सिपाही अपने क्षतिग्रस्त अंगों के बदले लोहे के अंग लगा कर रणभूमि में युद्ध करने चले जाया करते थे। परंतु आज के परिप्रेक्ष्य में बहुत सारी विधाओं और तकनीकों का संयोजन हो गया है; जैसे कि रोबोटिक्स, बायो-इंजीनियरिंग व गणित जिससे कृत्रिम अंगों की रचना में छोटी-छोटी बातों को ध्यान में रखा जा सकता है तथा वह मानव कोशिकाओं के साथ अपना कार्य कर सकता है।

चिकित्सा और इलेक्ट्रॉनिकी दोनों ही क्षेत्रों में लघु रूप विद्युत अंगों, परिष्कृत सूक्ष्म चिप्स और विकसित कंप्यूटर योजनाओं के रूप में भी निर्बल मानव शरीर को सबल मानव शरीर में परिवर्तित करने में वैज्ञानिकों ने सफलता प्राप्त की है। इसे ‘बायोनिक शरीर’ कह सकते हैं और इसने शारीरिक अक्षमताओं वाले इंसानों के लिए कृत्रिम अंगों, कृत्रिम मांसपेशियों और दूसरे कृत्रिम अंगों द्वारा एक बेहतर ज़िंदगी जीने की संभावना उत्पन्न की है।

हारवर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका के शोधकर्ता जॉन पेजारी ने आर्गस 2 रेटिनल प्रोस्थेसिस सिस्टम नाम से बायोनिक आंख विकसित की है, जो प्रकाश के मूवमेंट और उसके आकार को समझने में मदद करेगी। आर्गस 2 में इलेक्ट्रोड लगे होते हैं। यह उन लोगों के लिए मददगार साबित होगा, जो पहले देख सकते थे, लेकिन बाद में किन्हीं कारणों से उनकी आंख की रोशनी चली गई।

मस्तिष्क के किसी हिस्से को बदलना शरीर के किसी अंग को बदलने की तरह आसान नहीं है, लेकिन भविष्य में मस्तिष्क के किसी हिस्से को बदलना मुश्किल नहीं होगा। दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थियोडोर बर्जर ने एक ऐसी चिप तैयार की है जो दिमाग के एक खास हिस्से (हिप्पोकैंपस) का स्थान लेगी। हिप्पोकैंपस दिमाग का वह हिस्सा होता है, जो कि अल्प समय की यादों और उनको पहचानने की समझ को नियंत्रित करता है। यह कृत्रिम दिमाग अल्ज़ाइमर और पक्षाघात से ग्रसित लोगों के लिए वरदान होगा। इसे कुछ वैज्ञानिकों द्वारा ‘सुपर ब्रेन’ की संज्ञा दी गई है।

किडनी फेल होने के बाद उस समस्या से निपटने के लिए सामान्यत: दो ही विकल्प अपनाए जाते हैं। एक तो किसी अन्य व्यक्ति से किडनी ली जाए या लंबे समय तक डायलिसिस पर रखा जाए। दोनों ही प्रक्रियाएं खासी जटिल हैं। जहां किडनी मिलना आसान नहीं होता, वहां डायलिसिस प्रक्रिया भी जटिल होती है। शोधकर्ताओं ने इस समस्या का हल ढूंढ लिया है। मार्टिन रॉबर्टस और डेविड ली ने ऐसी किडनी डिज़ाइन की है जो डायलिसिस से काफी बेहतर होगी, क्योंकि इसे 24 घंटे, सातों दिन इस्तेमाल किया जा सकेगा। यह असली किडनी की तरह काम करेगी। यह किडनी पोर्टेबल होगी और हल्की इतनी कि आपके बेल्ट में आराम से फिट हो जाए। इसे बदला भी जा सकेगा। इसके छोटे आकार और ऑटोमेटिक होने के कारण इसे ‘ऑटोमेटेड वेयरेबल आर्टिफिशियल किडनी’ नाम दिया गया है।

कई कारणों से लोगों को घुटने बदलने की सलाह दी जाती है। लेकिन यह आसान काम नहीं है। वर्तमान में बायोनिक शोधकर्ताओं हैरी और वाइकेनफेल्ड ने ऐसे घुटने बनाए हैं, जो बिल्कुल असली घुटनों की तरह काम करेंगे। इन घुटनों में लगे सेंसर इस बात की जांच करेंगे और सीखेंगे कि इन्हें इस्तेमाल करने वाला कैसे चलता है और चलते वक्त वह अपने शरीर का इस्तेमाल कैसे करता है जिससे इन कृत्रिम घुटनों के सहारे चलना बेहद आसान होगा।

बांह रहित लोग अपनी कृत्रिम बांह का इस्तेमाल बिल्कुल असली बांह की तरह अपने विचारों की शक्ति द्वारा कर सकेंगे। रिहेबिलिटेशन इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो के डॉ. टॉड कुकिन ने यह कारनामा संभव कर दिखाया है। उन्होंने बायोनिक बांह को दिमाग से स्वस्थ मोटर कोशिकाओं द्वारा जोड़ दिया, जिनका इस्तेमाल रोगी के बेकार हो चुके अंग के लिए किया जाता था।

कुछ वैज्ञानिक कृत्रिम पैंक्रियाज़ बनाने में लगे हैं। कुछ ही वर्षों में ऐसे पैंक्रियाज़ तैयार हो जाएंगे, जो व्यक्ति के खून की मात्रा को नापने और साथ ही उसके शरीर के अनुरूप इंसुलिन की मात्रा में बदलाव करने में सक्षम होंगे। जुवेनाइल डाइबिटीज़ रिसर्च फांउडेशन के स्टे्रटेजिक रिसर्च प्रोजेक्ट के निदेशक ऑरीन कोवालस्की ने ऐसी डिवाइस तैयार की है जो वर्तमान में तकनीकों का मिश्रण है। इसमें एक इंसुलिन पंप और एक ग्लूकोज़ मीटर है। इसकी सहायता से डायबिटीज़ को नियंत्रण में लाया जा सकेगा और ब्लड शुगर के साइड इफेक्ट कम किए जा सकेंगे।

अक्सर ऐसा होता है कि आपके शरीर के जिस हिस्से में दर्द हो रहा होता है, उसे सही करने के लिए उस पूरे हिस्से के लिए दवाई दी जाती है। लेकिन कभी-कभी वह उस हिस्से के इंफेक्शन को पूर्ण तौर से सही कर पाने में सक्षम नहीं होती है। पेनसिलवेनिया विश्वविद्यालय, अमेरिका के बायोइंजीनियरिंग प्रोफेसर डेनियल हैमर ने इसके लिए बेहतर तरीका खोज निकाला है। पॉलीमर से बनी कृत्रिम कोशिकाओं को सफेद रक्त कोशिकाओं से मिला दिया जाएगा। इन कृत्रिम कोशिकाओं को ‘सी’ नाम दिया गया है। ये कृत्रिम कोशिकाएं दवाई को सीधे उस हिस्से में ले जाएंगी, जहां उसकी आवश्यकता है। यह बेहद आसान और सुरिक्षत तरीका होगा। इससे कैंसर सहित कई भयावह बीमारियों का मुकाबला किया जा सकेगा। दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में शोधकर्ता  डॉ. जेराल्ड लीएब अपनी टीम के साथ बायोन नामक एक ऐसी तकनीक पर कार्य कर रहे हैं, जिसका उद्देश्य लकवाग्रस्त मांसपेशियों में जान फूंकना है। बायोन ऐसे विद्युत उपकरण हैं जिन्हें मानव शरीर में उसी जगह एक सुई की मदद से इंजेक्ट किया जा सकता है जहां पर इसकी ज़रूरत हो। इसकी शक्ति का स्रोत रेडियो तरंगें हैं।

मानव मस्तिष्क एक बहुत ही जटिल यंत्र है जिसे समझने के लिए शोध चल रहे हैं। अगर किसी अपंग व्यक्ति के कुछ अंग कार्य करना बंद कर दें, परन्तु दिमाग कार्यशील रहे तो यह यंत्र उस मनुष्य को तंत्रिका संकेतों द्वारा मदद कर सकता है। ब्रेनगेट एक ऐसी तकनीक है जिसके द्वारा एक लघु चिप दिमाग में लगा दी जाती है जो मनुष्य के विचार एक कंप्यूटर पर भेज देती है और उन्हीं वैचारिक संकेतों द्वारा कंप्यूटर पर ई-मेल भेजा जा सकता है और कंप्यूटर पर गेम भी खेले जा सकते हैं, सिर्फ सोचने मात्र से ही।

शोधकर्ताओं ने सौर ऊर्जा को तरल र्इंधन में परिवर्तित करने के क्रम में सूरज की रोशनी का उपयोग करने वाली बायोनिक पत्ती का आविष्कार किया है। जीवाणु रैल्सटोनिया यूट्रोफा इस काम को अंजाम देता है और कार्बन डाईऑक्साइड के साथ-साथ हाइड्रोजन का रूपांतरण सीधे उपयोग में आने वाले तरल र्इंधन (आइसोप्रोपेनॉल) में कर देता है। शोधकर्ताओं का यह कदम ऊर्जा से भरपूर दुनिया बनाने की दिशा में मील का पत्थर है।

बायोनिक्स पर काम करने वाले लोग जीव विज्ञानियों, इंजीनियरों, आर्किटेक्ट्स, रसायन शास्त्रियों, भौतिक विज्ञानियों से लेकर धातु विज्ञानियों के साथ मिलकर काम करते हैं। जर्मन वैज्ञानिक इस समय बीटल नाम के कीड़े के पंखों से प्रेरणा लेकर बेहद हल्की निर्माण सामग्री बना रहे हैं। प्रकृति अभी भी सबसे अच्छी इंजीनियर है। वह हड्डियों और सींग जैसी हल्की लेकिन ठोस संरचना बनाती है और भौंरे के जैसे हल्के पंख भी।

बायोनिक वैज्ञानिक प्रकृति से प्रेरणा लेकर हल्के विमान बनाने की तैयारी में लगे हैं। विक्टोरिया वॉटर लिली की पत्ती जितनी नाज़ुक दिखती है उतनी ही मज़बूत भी होती है। उदाहरण के तौर पर, विक्टोरिया वॉटल लिली की पत्ती बड़ी आसानी से एक छोटे बच्चे का भार उठा सकती है। इससे बड़े आकार की पत्ती व्यस्क का भार भी उठा सकती है। एरोस्पेस इंजीनियरों ने पहले त्रि-आयामी स्कैनर की सहायता से इस पत्ती की नाज़ुक संरचना को स्कैन किया। फिर इस डाटा को कंप्यूटर प्रोग्राम में डाला। कंप्यूटर इसका आकलन करता है कि भार को संभालने के लिए संरचना कैसी होनी चाहिए। वॉटर लिली की पत्तियों की निचली सतह पर तना मोटा और सघन होता है। यह वह हिस्सा है जहां वाटर लिली पर ज़्यादा दबाव पड़ता है। जिन हिस्सों पर कम दबाव होता है वहां तनों के बीच ज़्यादा दूरी होती है और तने पतले भी होते हैं। इस सिद्धांत से प्रेरणा लेकर हल्के विमान का एयरप्लेन स्पॉयलर तैयार किया गया है। यह बेहद हल्की लेकिन बड़े काम की संरचना है जिसे किसी और तरीके से बनाना शायद संभव न होता। बायोनिक्स की तकनीक अपनाकर वैज्ञानिकों ने इसे संभव कर दिखाया है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि बायोनिक्स प्रकृति की तकनीक को आम जिंदगी में अमल में लाने की विधा है। जिसके उपयोग से मानव ज़िंदगी को और बेहतर एवं सुविधाजनक बनाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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कैंसर को चुनौती के नए आयाम – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कैंसर, आनुवंशिक या किसी बाहरी कारक (जैसे धूम्रपान, हानिकारक विकिरण वगैरह) के कारण क्षतिग्रस्त हुई कोशिकाओं की अनियंत्रित वृद्धि और विभाजन है। समान्यतः कोशिकाएं एक निश्चित संख्या तक विभाजित होती हैं और वृद्धि करती हैं। किंतु कैंसर कोशिकाएं, जिनका डीएनए किन्हीं कारणों से क्षतिग्रस्त होकर परिवर्तित हो गया है, वे लगातार वृद्धि करती रहती हैं। जिसके कारण गठान (ट्यूमर) बन जाती है, जो शरीर कमज़ोर करती है और मौत तक हो सकती है।

कैंसर का उपचार और उसे ठीक करना एक बड़ी चुनौती रही है। कैंसर चिकित्सा विज्ञानी और लेखक सिद्धार्थ मुखर्जी ने इसे एकदम सही उपमा दी है बिमारियों का शहंशाह।

बीमारियों के शहंशाह कैंसर पर विजय पाने के कई तरीके रहे हैं। एक तरीका है कैंसर गठानों को सर्जरी करके निकाल देना। मगर इस तरीके में कैंसर के दोबारा होने की सम्भावना रहती है क्योंकि सर्जरी में इस बात की गारंटी नहीं रहती कि सभी कैंसर कोशिकाएं निकाल दी गई हैं। यदि चंद कैंसर कोशिकाएं भी छूट जाएं तो कैंसर दोबारा सिर उठा सकता है। यदि कैंसर होने के असल कारण से नहीं निपटा जाए, तो भी कैंसर दोबारा उभर सकता है। इसके अलावा अति शक्तिशाली गामा किरणों की रेडिएशन थेरपी से भी उपचार में सीमित सफलता ही मिली है।

सिसप्लेटिन या कार्बोप्लेटिन,5-फ्लोरोयूरेसिल, डॉक्सीरोबिसिन जैसी कई कैंसररोधी दवाएं भी उपयोग की गई हैं। कई चिकित्सकों ने दवा के साथ गामा रेडिएशन से उपचार का तरीका भी अपनाया, मगर इस उपचार के साथ मुश्किल यह है कि इसे लंबे समय तक जारी रखना होता है।

प्रतिरक्षा का तरीका

इसी संदर्भ में कुछ तरह के कैंसर का उपचार प्रतिरक्षा के तरीके से करने की कोशिश हुई है। इसमें शरीर प्रतिरक्षा तंत्र की मदद ली जाती है। इस तरीके में मुख्य भूमिका श्वेत रक्त कोशिकाओं की होती है। श्वेत रक्त कोशिकाओं का एक प्रकार होता है बीकोशिकाएं। ये बीकोशिकाएं हमलावर कोशिकाओं (चाहे वह किसी सूक्ष्मजीव की कोशिका हो या कैंसर कोशिका) की बाहरी सतह पर उपस्थित कुछ उभारों की आकृति (जिन्हें बॉयोमैट्रिक आईडी कह सकते हैं) की पहचान करती हैं, और इम्यूनोग्लोबुलिन नामक प्रोटीन संश्लेषित करती हैं जो हमलावर कोशिकाओं की सतह पर फिट हो जाता है और इस तरह हमलावर कोशिकाओं को हटाती हैं। खास बात यह है कि हमलावरों की आकृति को पहचान कर यादरखा जाता है ताकि यदि वही हमलावर दोबारा हमला करे तो बीकोशिकाएं उससे निपटने के लिए तैयार रहें। आत्मरक्षा का यही तरीका बचपन में किए जाने वाले टीकाकरण का आधार भी है।

सतह की पहचान से सम्बंधित टैगएंटीजन कहलाता है और उससे लड़ने वाला प्रोटीन एंटीबॉडी। कैंसर कोशिकाओं की भी बॉयोमैट्रिक आईडी (पहचान) होती है, जिसे नियोएंटीजन कहते हैं। कैंसररोधी वैक्सीन इन नियोएंटीजन के खिलाफ तैयार की गई एंटीबॉडीज़ के सिद्धांत पर आधारित है। कैंसर के खिलाफ कुछ जानीमानी दवाएं जैसे बिवेसिज़ुमेब और रिटक्सीमेब व अन्य एंटीबॉडीज़ काफी इस्तेमाल की जाती हैं। (इन दवाओं के नाम के अंत में मेब का मतलब है मोनोक्लोनल एंटीबॉडी।)

कैंसर उपचार के एक और नए तरीके में, कैंसर चिकित्सक रोगी के शरीर से कैंसर ऊतक को अलग करके आणविक जैव विश्लेषकों की मदद से कैंसर कोशिका के नियोएंटीजन की पहचान करते हैं। फिर प्रतिरक्षा विज्ञानियों की मदद से इन नियोएंटीजन के लिए एंटीबॉडी तैयार करते हैं, जिसे रोगी के शरीर में प्रवेश कराया जाता है ताकि कैंसर दोबारा ना उभर सके। इस मायने में यह वैक्सीन उपचार के लिए है, ना कि अन्य वैक्सीन (हैपेटाइटिस या खसरा वगैरह) की तरह रोकथाम के लिए। इस तरह के कुछ कैंसर वैक्सीन बाज़ार में उपलब्ध भी हो चुके हैं। जैसे ब्रोस्ट कैंसर के लिए HER-2, कैंसर के लिए रेवेंज और मेलोनेमा के लिए T-VEC

कैंसर उपचार में नोबेल

इस साल का चिकित्सा नोबेल पुरस्कार कैंसर उपचार के लिए मिला है। इस उपचार में जो तरीका अपनाया है वो इन तरीकों से अलग है। इसमें शोधकर्ताओं ने बीलिम्फोसाइट पर ध्यान देने की बजाय टीकोशिकाओं पर ध्यान दिया। टीकोशिकाएं ऐसे रसायन छोड़ती हैं जो हमलावर कोशिकाओं को खुदकुशी के लिए मजबूर करते हैं। इस प्रक्रिया को एपोप्टोसिस कहते हैं। प्रत्येक टीकोशिका की सतह पर पंजानुमा ग्राही होते हैं जो बाहरी या असामान्य एंटीजन के साथ जुड़ जाते हैं। मगर इसके लिए इन्हें एक प्रोटीन द्वारा सक्रिय करने की ज़रूरत होती है। साथ ही कुछ अन्य प्रोटीन भी होते हैं जो टीकोशिकाओं द्वारा सर्वनाश मचाने पर अंकुश रखते हैं। इन प्रोटीन को ब्रेकया चेक पाइंट प्रोटीनकहते हैं।

टेक्सास युनिवर्सिटी के एंडरसन कैंसर सेंटर के एमडी डॉ. जेम्स एलिसन ऐसे एक ब्रोक या चेक पॉइंट, CTLA-4, प्रोटीन पर साल 1990 से काम कर रहे थे। CTLA-4 प्रोटीन टीकोशिकाओं की प्रतिरक्षा प्रक्रिया को नियंत्रित करने का काम करता है। वे ऐसे प्रोटीन का पता लगाना चाहते थे जो CTLA-4 के इस अंकुश को हटा सके। 1994-95 तक उनके साथियों ने antiCTLA4 नामक एक ऐसे रसायन का पता लगा लिया जो कैंसर ग्रस्त चूहों को देने पर  ट्यूमर रोधी गतिविधी शुरू कर देता था और चूहों के कैंसर का इलाज कर देता था। नोबेल समिति के मुताबिक दवा कंपनियों की अनिच्छा के बावजूद, एलिसन ने इस तरीके पर काम जारी रखा। साल 2010 में उम्मीद के मुताबिक नतीजे मिले, जिसमें एक तरह के त्वचा कैंसर, मेलानोमा में रोगी में काफी सुधार दिखा। कई रोगियो में बचेखुचे कैंसर के संकेत भी गायब हो गए। ऐसे रोगियों में इससे पहले कभी इतना सुधार नहीं देखा गया था।

यहीं दूसरे नोबेल विजेता तासुकु होन्जो के काम का पदार्पण होता है। तासुकु होन्जो वर्तमान में क्योतो युनिवर्सिटी जापान में काम कर रहे हैं। उन्होंने एलिसन से भी पहले 1992 में यह पता लगा लिया था कि प्रोटीन पीडी-1, टीकोशिकाओं की सतह पर अभिव्यक्त होता है। लगातार इस पर काम करते रहने पर उन्होंने पाया कि पीडी-1 एक चेकपॉइंट प्रोटीन भी है। यदि हम इसे प्रविष्ट कराएं, तो टीकोशिकाएं ट्यूमररोधी गतिविधी शुरु कर देती हैं। इससे उन्होंने एंटीबॉडी anti-PD1 बनाई जिसे किसी भी तरह के कैंसर से ग्रस्त रोगी के शरीर में देने पर नतीजे काफी नाटकीय मिले। एलिसन और होन्जो, दोनों के ही तरीकों में उन्होंने ऐसे रसायन पहचाने जो ब्रोक या चेकपॉइंट को हटा देते हैं, और कैंसर रोधी गतिविधि को अंजाम देते हैं। उम्मीद के मुताबिक चेकपॉइंट अवरोधकों पर अब कई शोध किए जा रहे हैं। लगभग 1100 से ज़्यादा PD1से सम्बंधित ट्रायल किए जा रहे हैं। ट्यूमर के इलाज में आज इम्यूनोथेरपी काफी चर्चित और लोकप्रिय है। अगले 5 से 10 सालों में इससे कैंसर उपचार किए जाएंगे। एलिसन और होन्जो के काम से लगता है कि बीमारियों के शहंशाह का अंत नज़दीक है। (स्रोत फीचर्स)

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डेढ़ सौ साल जी सकते हैं मनुष्य – संध्या राय चौधरी

लंबी उम्र सभी चाहते हैं। महात्मा गांधी ने 125 साल तक जीने की कामना की थी। उनकी इस कामना के पीछे उनके अनगिनत उद्देश्य थे, जिन्हें वे जीते जी पूरा करना चाहते थे। अब औसत आयु लगातार बढ़ रही है और वैज्ञानिक भी उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा करने के प्रयास में जुटे हैं। विज्ञान की एक नई शाखा के तौर पर उभरा है जरा विज्ञान यानी जेरोंटोलॉजी। इसके तहत करोड़ों डॉलर खर्च कर ऐसे जीन तलाशे जा रहे हैं, जो उम्र को नियंत्रित करते हैं।

वैज्ञानिकों ने एज-1, एज-2, क्लोफ-2 जैसे जींस का पता भी लगा लिया है। वैज्ञानिकों ने युवा और अधेड़ लोगों के लाखों जीनोम को स्कैन कर पता लगाने की कोशिश की है कि शरीर पर कब उम्र का असर दिखने लगता है। सेल्फिश जीन किताब के लेखक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिचर्ड डॉकिंस कहते हैं कि 2050 तक उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा करने का सूत्र हमारे पास होगा। स्टेम सेल, दी ह्यूमन बॉडी शॉप और जीन थेरपी के ज़रिए इंसान की उम्र को 150 साल से भी अधिक बढ़ाना संभव होगा। एस्टेलास ग्लोबल रीजनरेटिव मेडिसिन के अमेरिकी वैज्ञानिक रॉबर्ट लेंज़ा भी ऐसा मानने वालों में से हैं।        

अपना देश आयुष्मान भव, चिरंजीवी भव, जीते रहो जैसे आशीर्वादों से भरा पड़ा है। पता नहीं ऐसे आशीर्वादों के कारण या किसी और कारण से औसत आयु लगातार बढ़ रही है। 1990 में दुनिया की औसत आयु 65.33 साल थी जो आज बढ़कर 71.5 साल हो गई है। इस दौरान पुरुषों की औसत आयु 5.8 जबकि महिलाओं की 6.6 साल बढ़ी। जब औसत आयु बढ़ रही है तो  100 पार लोगों की संख्या भी बढ़ रही है। शतायु होना अब अपवाद नहीं है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट की मानें तो भारत में 12 हज़ार से अधिक ऐसे लोग हैं जिनकी उम्र 100 के पार है और 2050 तक ऐसे लोगों की तादाद छह लाख तक हो जाएगी। जापान इस मोर्चे पर दुनिया का सबसे अव्वल देश है। वहां के गांवों में दोचार शतायु लोगों का मिलना आम बात है। जापान के सरकारी स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक 2014 में 58,820 लोग 100 से अधिक उम्र वाले थे। ऐसा नहीं कि जापान पहले से ही ऐसे बूढ़ों का देश रहा है। 1963 में जब वहां इस तरह की गणना शुरू हुई थी, केवल 153 लोग ही ऐसे मिले थे।

दुनिया भर में बढ़ रही औसत आयु और 100 पार के बूढ़ों की तादाद साफसाफ इशारा करती है कि जीवन प्रत्याशा के मोर्चे पर हम आगे बढ़ रहे हैं। इसका सर्वाधिक श्रेय जाता है स्वास्थ्य़ सुविधाओं में बढ़ोतरी और सेहत के प्रति लोगों की बढ़ती जागरूकता को। अभी अपने देश में पुरुषों की औसत उम्र 64 और महिलाओं की 68 वर्ष है। पिछले 40 सालों में पुरुषों और महिलाओं की औसत उम्र क्रमश: 15 18 साल बढ़ी है। जीवन प्रत्याशा को लेकर गौरतलब बात है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं ज़्यादा साल तक जीती हैं। यह रुझान बना रहा तो 2050 तक 100 के पार जीने वालों में महिलापुरुष अनुपात 54:46 का होगा। यकीनन जीने के मोर्चे पर महिलाओं की जैविक क्षमता पुरुषों से अधिक है।

ढलती उम्र में सक्रियता

रिटायरमेंट की उम्र के बाद ज़्यादातर लोगों की शारीरिक क्षमता का ग्राफ तेज़ी से नीचे गिरता है। वैसे अब देखने को मिल रहा है कि रिटायरमेंट के बाद लोगों ने नए सिरे से खुद को किसी काम से जोड़ा। दरअसल रिटायर होने के बाद भी करीब 20-25 साल का जीवन लोगों के पास होता है। इस दौरान खुद को काम से जोड़े रखना जीवन के प्रति न्याय ही है। ऑस्ट्रेलिया जैसे देश ने तो बढ़ती उम्र की सक्रियता को समझकर मई 2014 में एक कानून पारित कर दिया जिसके मुताबिक 2035 से रिटायरमेंट की उम्र 70 साल हो जाएगी। वहां की सरकार बुज़ुर्गों को काम पर रखने के लिए प्रोत्साहन और आर्थिक लाभ देती है। भारत और चीन जैसे देश को अभी से इस दिशा में सोचना होगा, क्योंकि आज ये युवाओं के देश हैं, लेकिन 20-25 साल के बाद ये बूढ़ों के देश होंगे।

कुछ अनुमानित नुस्खे

उम्र को बढ़ाने वाले खाद्य पदार्थ पर अगर सबसे ज्यादा गंभीरता से रिसर्च हो रहा है तो वह है गेटो नामक पौधा। जापान के ओकिनावा क्षेत्र में सबसे ज़्यादा शतकवीर रहते हैं। यही इस रिसर्च का आधार बना है। ओकिनावा के रियूक्यूस विश्वविद्यालय में कृषि विज्ञान के प्रोफेसर शिंकिची तवाडा ने दक्षिणी जापान के लोगों की अधिक उम्र का राज़ एक खास पौधे गेटो (AlphiniaZerumbet) को बताया है। गहरे पीलेभूरे रंग के इस पौधे के अर्क से इंसान की उम्र 20 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। तवाडा पिछले 20 साल से अदरक वंश के इस पौधे पर अध्ययन कर रहे हैं। तवाडा ने कीड़ों पर एक प्रयोग में पाया कि गेटो के अर्क की खुराक से उनकी उम्र 22 प्रतिशत बढ़ गई। बड़ी हरी पत्तियों, लाल फलों और सफेद फूलों वाला गेटो का पौधा सदियों से ओकिनावा के लोगों के भोजन का आधार रहा है। अन्य एंटी ऑक्सीडेंट की तुलना में गेटो ज़्यादा प्रभावी पाया गया। अब यह जानने की कोशिश की जा रही है कि क्या गेटो का प्रयोग दुनिया के अन्य हिस्सों के भिन्न परिस्थितियों के लोगों पर करने पर भी इसका परिणाम पहले जैसा रहेगा।

कहां सबसे अधिक बुज़ुर्ग

चीन के हैनान प्रांत के चेंगमाई गांव में दुनिया के सबसे ज्यादा बुज़ुर्ग रहते हैं। यहां 200 लोग ऐसे हैं जो उम्र का शतक लगा चुके हैं। यहां संतरों की खेती खूब होती है। गांव सामान्य गांवों से बड़ा है। यहां की 5,60,00 की आबादी में 200 लोगों ने पूरी सदी देखी है। यहां तीन सुपर बुज़ुर्ग भी हैं। सुपर बुज़ुर्ग यानी 110 वर्ष से अधिक उम्र वाले। दुनिया भर में ऐसे सिर्फ 400 लोग हैं। ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय मूल के पतिपत्नी ने अपनी शादी की 90वीं सालगिरह मनाई है। उनके आठ बच्चे, 27 पोतेपोतियां और 23 परपोतेपोतियां हैं। यह बुज़ुर्ग जोड़ा अपने सबसे छोटे बेटे पाल व उसकी पत्नी के साथ रहता है। पाल की मानें तो उनकी इतनी लंबी उम्र का प्रमुख राज़ तनाव मुक्त रहना है। वे कहते हैं कि मैंने उन्हें कभी बहस करते हुए नहीं देखा है। गौर करने वाली बात है कि वे दोनों खानेपीने की बंदिशों पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते। वे हर चीज खाते हैं। बस मात्रा थोड़ी कम होती है। रेड वाइन पतिपत्नी ज़रूर रोज़ाना पीते हैं।

औसत उम्र के मामले में सबसे अव्वल देश के तौर पर जेहन में जापान का नाम आता है। लेकिन इससे भी आगे है मोनैको। यहां की औसत आयु 89.63 साल है। यहां के लोगों की सबसे खास बात यह है कि वे खानपान के प्रति लापरवाह नहीं होते और तनाव बिलकुल नहीं पालते। हरी सब्ज़ी, सूखे मेवे और रेड वाइन का सेवन यहां सबसे ज़्यादा होता है।

जापान में युवा से अधिक बुज़ुर्ग हैं। यहां की औसत आयु 85 के आसपास है। यहां मछली और खास तरह के कंद का सेवन बहुत ही आम है। तेल का प्रयोग बहुत कम है। स्टीम्ड फूड प्रचलन में है। ग्रीन टी के बिना जापानियों की सुबह नहीं होती। रेड मीट, मक्खन, डेयरी उत्पाद के सेवन से बचते हैं।

सिंगापुर दुनिया के सबसे बड़े पर्यटन स्थलों में से है। पर्यटक वहां की चमक दमक देख दंग रह जाते हैं। वहां का खानपान और ज़िंदादिली और पर्यावरणीय चिंता भी ध्यान देने लायक है। वहां के लोग स्वच्छ और स्वस्थ रहने में विश्वास करते हैं। तनावमुक्त जीवन और अच्छे खानपान के कारण ही यहां के लोगों की औसत आयु 84.07 साल है।

फ्रांस के लोग बहुत तंदुरुस्त होते हैं, औसत आयु 81.56 साल है। यहां के लोग कम मात्रा में रेड वाइन का सेवन करते हैं जो कथित रूप से दिल के लिए अच्छी होती है। साथ ही यहां के लोग नियमित रूप से पैदल चलते हैं और तनाव से दूर रहते हैं। इस फैशनपरस्त देश के लोगों की ज़िंदादिली भी मशहूर है। इटली की तरह यहां के आहार में भी ऑलिव ऑयल का भरपूर प्रयोग होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हंसने से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है – नरेंद्र देवांगन

नुष्य को जब किसी चीज की ज़रूरत होती है तो उसे प्राप्त करने के लिए तनाव पैदा होता है और उस वस्तु को प्राप्त करने की दिशा में काम करने से वह तनाव घटता है। इसे इस तरह समझ लीजिए कि बच्चा जब भूखा होता है तो वह रोता है। यह बच्चे का तनाव है। मां जब बच्चे को दूध पिला देती है तो उसका तनाव घट जाता है।

हमारा व्यवहार अधिकतर हमारी आंतरिक ज़रूरतों पर आधारित रहता है। शरीर में जब रोग पैदा होते हैं तो उनसे लड़ने की ज़रूरत पड़ती है। इसके लिए जब तक शरीर को हंसी का टॉनिक नहीं दिया जाएगा तब तक वह तनावरहित स्थिति में होकर संघर्ष करने की मनोस्थिति नहीं बना पाएगा। इसलिए सदा हंसते रहिए, डॉक्टरी सलाह पर ही सही।

न्यूयार्क के एक बाल चिकित्सालय में बच्चों को खुश रखने के लिए टमाटर जैसी नाक लगाए एक मसखरा सर्कस के जोकर की तरह अपने करतब दिखाता रहता है। बच्चों को अपने रोग से लड़ने की शक्ति प्रदान करने का यह एक मनोवैज्ञानिक तरीका है। इससे उनके निरोग होने के अलावा उनकी शारीरिक दशाओं पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है। लेखक नार्मिन कज़िंस को जब गठिया रोग ने जकड़ा तो उन्होंने विटामिन सी की खुराकों के साथ गुदगुदाने वाले साहित्य का अनुशीलन भी किया और उनका मंचन भी जी भरकर देखा। कज़िंस के अधिकतर हास्य साहित्य की रचना भी उसी कालावधि की बताई जाती है।

इस मान्यता ने कि शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली को मस्तिष्क प्रभावित कर सकता है, चिकित्सा जगत के उस भारीभरकम नाम वाले विज्ञान को जन्म दिया है जिसे साइकोन्यूरोइम्यूनोलॉजीकहते हैं। हिंदी में इसे मनोतंत्रिकारोध क्षमता विज्ञानके उतने ही विशालकाय नाम से जानते हैं।

इस क्षेत्र में हुए अधिकतर अनुसंधान ने न्यूरोट्रांसमीटर्स की कार्यप्रणाली को अपना केंद्र बनाया है। मस्तिष्क, इम्यून सिस्टम और कुछ तंत्रिका कोशिकाओं से स्रावित रसायन शरीर के अंदर संदेशों को इधर से उधर पहुंचाते हैं। इन्हें न्यूरोट्रांसमीटर या तंत्रिका संदेशवाहक कहते हैं। इसमें हंसी ने अपना दखल कहां जमाया है, इसे समझना कोई मुश्किल काम नहीं।

अगर किसी बात से हंसतेहंसते आपके पेट में बल पड़ जाएं तो वह हंसी मस्तिष्क को ऐसे पदार्थ न बनाने देने के लिए प्रोत्साहित करती है जो रोग प्रतिरोधक प्रणाली को शिथिल करते हैं जैसे कॉर्टिसोन। तो हंसी ऐसा पदार्थ बनाने के लिए प्रेरित करती होगी, जिससे रोग प्रतिरक्षा प्रणाली को ताकत मिलती है। शक्ति प्रदान करने वाले इस पदार्थ को बीटाएन्डॉर्फिन कहते हैं।

यह एक परिकल्पना है लेकिन इसे समर्थन देने वाले अधिक आंकड़े या आधार सामग्री अभी नहीं मिली है। इसके लिए हंसी का मायावी स्वभाव भी उतना ही ज़िम्मेदार है जितनी कि रोग प्रतिरक्षा तंत्र की जटिलता। इसके साथ ही एक बात यह भी है कि रोग प्रतिरक्षा कोशिकाओं में होने वाले क्षणिक और अस्थायी परिवर्तनों को पहचानना मुश्किल है। अब तक इस बात का पता नहीं लग पाया है कि थोड़े समय के लिए, कभीकभी होने वाले रोग प्रतिरक्षात्मक परिवर्तनों से कोई स्थायी स्वास्थ्य लाभ होता है।

कुछ अनुसंधानकर्ता और मनोवैज्ञानिक इसका समर्थन करते हैं। बोस्टन विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैकक्लीलैंड के अनुसार हंसी और शरीर को निरोग रखने वाले तत्वों के बीच का सम्बंध बड़ा स्थूल है, क्योंकि आपके रोग प्रतिरक्षा तत्व, मनोवैज्ञानिक तत्व, हार्मोन सम्बंधी तत्व और उसके ऊपर आपकी बीमारी इनको प्रभावित करती रहती है। अमरीका स्थित लोमा लिंडा युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के प्रोफेसर ली. बर्क ने हंसी के दौरान मनुष्य के हार्मोन तथा श्वेत रक्त कोशिकाओं में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया। उन्होंने इस सिद्धांत का समर्थन किया कि मधुर मुस्कान, हल्की हंसी या अट्टहास शरीर के लिए लाभदायक है, क्योंकि इससे रोग प्रतिरक्षा क्रिया को शिथिल करने वाले तत्व (जैसे एपिनेफ्रीन और कॉर्टिसोन) मार खाते हैं। पेनसिल्वेनिया स्थित पाओली स्मारक अस्पताल ने एक उदाहरण पेश किया था। जिसमें बताया गया था कि जिन रोगियों के कमरों की खिड़कियों से वृक्ष और हरीभरी घाटियां दिखाई देती हैं उन्हें पीड़ा कम महसूस होती है। उनके रोग में पेचीदगियां भी उतनी नहीं आतीं और वे चंगे भी जल्दी होते हैं बनिस्बत उनके जो सिर्फ र्इंट और पत्थर के ढांचे देखते रहते हैं।

कुछ कैंसर रोगियों के अनुभवों से भी यही पता चलता है कि जिन लोगों ने अपने रोग से लड़ने की इच्छाशक्ति जाग्रत कर ली, वे अधिक दिन जीवित रहे और बेहतर तरीके से जिए। इस प्रकार के अध्ययनों के परिणाम से कुछ कैंसर अस्पतालों ने अपनी चिकित्सा पद्धति में इस प्रकार की व्यवस्था की है जिससे मरीज़ों में संघर्ष करने का माद्दा पैदा किया जा सके।

स्टैनफर्ड मेडिकल स्कूल के मनोचिकित्सक विलियम फ्राई के अनुसार दिन में 100 से 200 बार हंसना 10 मिनट नाव चलाने के बराबर है। खुलकर हंसने से शरीर में जो हलचल होती है उससे दिल की गति बढ़ती है, रक्तचाप में वृद्धि होती है, श्वसन क्रिया में तेज़ी आती है तथा ऑक्सीजन के उपभोग में बढ़ोतरी होती है। योग की एक क्रिया में मुंह खोलकर ज़ोर से हंसने को भी शामिल किया गया है जिससे चेहरे, कंधों, पेट और नितम्बों की मांसपेशियां हरकत में आती हैं। इसी प्रकार जिसे हंसतेहंसते दोहरा हो जाना कहते हैं, उससे पैरों और हाथों की मांसपेशियों की भी कसरत हो जाती है।

हंसी का दौर जब शांत हो जाता है तो विश्रांति की एक संक्षिप्त अवधि आ जाती है जिसमें सांस तथा दिल की धड़कन की गति धीमी पड़ जाती है। कभीकभी तो सामान्य स्तर से भी नीचे पहुंच जाती हैं। रक्तचाप भी गिर जाता है। फ्राई का कहना है कि हंसी की पर्याप्त मात्रा से दिल के रोग, अवसाद और उससे सम्बंधित अन्य खतरे दूर नहीं तो कम ज़रूर हो जाते हैं।

मनुष्य की तंत्रिकाओं को शांत करने में हंसी का योगदान किस सीमा तक होता है, उसका अध्ययन कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की सबीना वाइट ने किया है। उन्होंने 87 विद्यार्थियों को प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति में रखकर उनको गणित के जटिल सवाल हल करने को दिए। जब इन विद्यार्थियों के मस्तिष्क पर दबाव काफी बढ़ गया तो उन्हें रोमांचकारी और मनोरंजक दृश्य दिखाए गए और टेप सुनाए गए। फिर उन्होंने उनकी मनोदशा में परिवर्तन और चिंता के स्तर के मापन के साथ ही त्वचा के तापमान, त्वचा की चालकता और दिल की धड़कन की गति में हुए परिवर्तनों का भी जायज़ा लिया।

टेप सुनने और मनोरंजक दृश्य देखने से विद्यार्थियों के अवसाद की स्थिति में कमी तो ज़रूर आई लेकिन इससे हर विद्यार्थी को समान लाभ नहीं हुआ। सबीना वाइट के अनुसार तनाव की स्थिति को कम करने के लिए शिथिलन तकनीक का इस्तेमाल कोई भी कर सकता है, लेकिन इसमें हास्य की भूमिका बिलकुल निराली है। कामेडी टेप से जिन लोगों को लाभ हुआ वे वही लोग थे जो ऐसी परिस्थितियों से निपटने के लिए नियमित रूप से हास्य का सहारा लेते हैं।

फुलर्टन स्थित कैलिफोर्निया स्टेट युनिवर्सिटी में नर्सिंग विभाग की पीठासीन अधिकारी वेटा रॉबिंसन हास्य के क्षेत्र में काम करती हैं। वे अपने अध्ययन के आधार पर कहती हैं कि जब आप हंसते हैं तो आप चिंता, भय, संकोच, विद्वैष, और क्रोध से मुक्त हो जाते हैं। वेटा रॉबिंसन ने अपना एक अनुभव बताया कि ऑपरेशन के बाद हास्य से स्वास्थ्य लाभ की गति बेहतर हो जाती हैं।

आंकड़े चाहे जो कहें, लेकिन यह सच है कि ऐसे अस्पतालों की संख्या बढ़ रही है, कम से कम विदेशों में तो निश्चित रूप से ही, जिन्होंने हास्य को अपना व्यवसाय बनाया है। टमाटर जैसी नाक वाले जोकर, हास्य से भरपूर पुस्तकें, बच्चों के लिए चाबी वाले खिलौने तथा विनोद पैदा करने वाले अन्य साज़ोसामान अब अस्पतालों में भरे पड़े हैं।

अपने मन में यह आशा जगा लेना कि आप स्वस्थ हो जाएंगे का मतलब यह नहीं है कि आपकी बीमारी आईगई हो गई। लेकिन इसका मतलब यह ज़रूर है कि आपके स्वस्थ होने की संभावनाएं अब भी हैं। (स्रोत फीचर्स)

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बिल्लियां साफ-सुथरी कैसे बनी रहती हैं

बिल्लियों के मालिक जानते हैं कि वे जितने समय जागती हैं, उसमें वे या तो अपने मालिक को खुश करके प्यार पाने की कोशिश करती रहती हैं या उछल-कूद मचाती रहती हैं। शेष समय वे खुद को चाटती रहती हैं। और अब 3-डी स्कैन तकनीक की मदद से वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि ऐसा करते समय बिल्लियां सिर्फ अपना थूक शरीर पर नहीं फैलातीं बल्कि स्वयं की गहराई से सफाई भी करती हैं।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (यूएस) में प्रकाशित शोध पत्र में इस प्रक्रिया का विवरण प्रस्तुत हुआ है। अध्ययन के लिए तरह-तरह की बिल्लियों की जीभों के नमूने लिए गए थे। ये नमूने पोस्ट मॉर्टम के बाद  प्राप्त हुए थे। इनमें एक घरेलू बिल्ली, एक बॉबकैट, एक प्यूमा, एक हिम तंदुआ और एक शेर शामिल था। चौंकिए मत, तेंदुए, शेर, बाघ वगैरह बिल्लियों की ही विभिन्न प्रजातियां हैं।

इन सब बिल्लियों की जीभ पर शंक्वाकार उभार थे जिन्हें पैपिला कहते हैं। और सभी के पैपिला के सिरे पर एक नली नुमा एक गर्त थी। बिल्लियां पानी के गुणों का फायदा उठाकर अपनी लार को बालों के नीचे त्वचा तक पहुंचाने में सफल होती है। पानी के ये दो गुण हैं पृष्ठ तनाव और आसंजन। पृष्ठ तनाव पानी के अणुओं के बीच लगने वाला बल है जिसकी वजह से वे एक-दूसरे से चिपके रहते हैं। दूसरी ओर, आसंजन वह बल है जो पानी के अणुओं को पैपिला से चिपकाए रखता है।

जब बिल्लियों की खुद को चाटने की प्रक्रिया को स्लो मोशन में देखा गया तो पता चला कि चाटते समय उनकी जीभ के पैपिला लंबवत स्थिति में रहते हैं। इस वजह से वे बालों के बीच में से अंदर तक जाकर त्वचा की सफाई कर पाते हैं। वैज्ञानिकों ने पैपिला की इस क्रिया का उपयोग करके एक कंघी भी बना ली है जिसे वे ‘जीभ-प्रेरित कंघी’ कहते हैं। इसका उपयोग करने पर पता चला कि यह मनुष्यों के बालों की बेहतर सफाई कर सकती है।

बिल्ली द्वारा खुद को चाटने का एकमात्र फायदा सफाई के रूप में नहीं होता। लार को फैलाकर वे खुद को शीतलता भी प्रदान करती है। गौरतलब है कि बिल्लियों में पसीना ग्रंथियां पूरे शरीर पर नहीं पाई जातीं बल्कि सिर्फ उनके पंजों की गद्दियों पर होती हैं। मनुष्यों में पूरे शरीर पर पाई जाने वाली पसीना ग्रंथियों से निकलने वाला पसीना शरीर को ठंडा रखने में मदद करता है। इन पसीना ग्रंथियों के अभाव में बिल्लियां अपनी लार की मदद लेती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मलेरिया का बढ़ता प्रकोप – नवनीत कुमार गुप्ता

लवायु परिवर्तन के साथ कई रोग तेज़ी से फैल रहे हैं। ऐसे ही रोगों में से एक है मलेरिया। मलेरिया मच्छरों में पाए जाने वाले प्लाज़्मोडियम परजीवी के कारण फैलता है, जो मच्छरों के काटने से इंसानों के खून में पहुंच जाता है। मलेरिया वैसे तो मात्र बुखार होता है लेकिन उचित इलाज न किया जाए तो इसका असर लंबे समय तक तथा गंभीर होता है।

प्लाज़्मोडियम परजीवी की पांच प्रजातियों में से फाल्सिपेरम अब तक की सबसे आम प्रजाति मानी जाती है, उसके बाद वाइवैक्स का नंबर आता है। अधिकांश मौतें फाल्सिपेरम के कारण हुई हैं, लेकिन हाल में इस बात के भी सबूत मिले हैं कि वाइवैक्स प्रजाति भी जानलेवा हो सकती है।

प्लाज़्मोडियम की जांच के लिए विभिन्न प्रकार के उपकरण उपलब्ध हैं। फिर भी मलेरिया की मानक जांच के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन, मूलभूत माइक्रोस्कोपिक जांच तथा रैपिड डाइग्नोस्टिक टेस्ट (आरटीडी) को प्रामाणिक मानता है। लेकिन इन जांचों की सीमाएं हैं। ये मलेरिया संक्रमण के बारे में बताती हैं, लेकिन विभिन्न परजीवियों में भेद नहीं कर पातीं। इसके कारण इलाज में देरी होती है।

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के अंतर्गत जबलपुर में कार्यरत राष्ट्रीय जनजाति स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान के निदेशक प्रोफेसर अपरूप दास तथा उनकी टीम ने सामान्य जांच विधि तथा आधुनिक पीसीआर तकनीक के द्वारा भारत के 9 राज्यों में 2000 से अधिक रक्त नमूनों की जांच की। उनका निष्कर्ष है कि मलेरिया की सटीक जांच के लिए डीएनए आधारित जांच विधि पोलीमरेज़ चेन रिएक्शन या पीसीआर  का विस्तृत इस्तेमाल किया जाना चाहिए। डॉ. दास तथा उनकी टीम ने पाया कि मलेरिया संक्रमण के 13 प्रतिशत मामलों में फाल्सिपेरम तथा वाइवैक्स दोनों प्रकार के परजीवी पाए गए हैं। जांच से यह भी पता चला कि है कि मलेरिया परजीवी की पी. मलेरिए नामक प्रजाति खतरनाक होती जा रही है।

गंभीर बात यह है कि एकाधिक प्रजातियों से होने वाले मलेरिया के लिए अब तक कोई सटीक जांच या उपचार विधि उपलब्ध नहीं है। आम तौर पर तकनीशियन एक प्रकार के परजीवी के के बाद दूसरे प्रकार की जांच नहीं करते।

इस सर्वेक्षण का निष्कर्ष यह निकला है कि वाइवैक्स की तुलना में फाल्सिपेरम की अधिकता है। इन दोनों परजीवियों के संयुक्त संक्रमण में वृद्धि हो रही है, जैसा पहले नहीं था। मलेरिए पहले ओड़िशा में ही सीमित था, लेकिन अब पाया गया है कि यह देश के दूसरे भागों में भी फैल रहा है। मच्छरों में कीटनाशकों तथा मलेरिया परजीवियों में दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध विकसित होना भी भारत में मलेरिया उन्मूलन की दिशा में सबसे बड़ी बाधा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार 2016 में दुनिया भर में मलेरिया के मामलों में 50 लाख की वृद्धि हुई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2030 तक मलेरिया के पूर्ण उन्मूलन की एक रणनीति तैयार की है। भारत स्वयं भी मलेरिया से छुटकारा पाना चाहता है। मलेरिया के मरीज़ों की संख्या के लिहाज़ से भारत पूरी दुनिया में तीसरे नंबर पर है। आशा है कि प्रोफेसर अपरूप दास तथा उनकी टीम के महत्वपूर्ण शोध तथा उचित समय पर सामने आए नतीजे 2030 तक मलेरिया उन्मूलन के लक्ष्य को प्राप्त करने में मददगार साबित होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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दिमाग की कोशिकाएं अपने जीन बदलती रहती हैं

हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि दिमाग की तंत्रिका कोशिकाओं में मूल जेनेटिक बनावट को लगातार बदला जाता है और तमाम किस्म के नए-नए संस्करण बनते रहते हैं। इस अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों का मत है कि संभवत: यह प्रक्रिया अल्ज़ाइमर रोग के मूल में हो सकती है।

यह बात तो 1970 के दशक में पता चल गई थी कि कुछ कोशिकाएं अपने डीएनए को उलट-पलट कर सकती हैं, उसमें परिवर्तन कर सकती हैं। जैसे, प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं उन जीन्स को हटा देती हैं जो किसी रोगजनक को पहचानकर उससे लड़ने के लिए प्रोटीन बनाने का काम करते हैं। इन जीन्स को हटाने के बाद शेष डीएनए को जोड़कर वापिस साबुत कर दिया जाता है। जीन्स के इस तरह के पुनर्मिश्रण को कायिक पुनर्मिश्रण कहते हैं।

इस बात के कई सुराग मिले हैं कि ऐसा कायिक पुनर्मिश्रण दिमाग में चलता रहता है। देखा गया है कि तंत्रिकाएं प्राय: एक-दूसरे से काफी अलग-अलग जेनेटिक बनावट रखती हैं। लेकिन इस प्रक्रिया के प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं थे। अब सैनफोर्ड बर्नहैम प्रीबाइस मेडिकल डिस्कवरी इंस्टीट्यूट के तंत्रिका वैज्ञानिक जेरॉल्ड चुन और उनके साथियों ने छ: स्वस्थ बुज़ुर्ग व्यक्तियों द्वारा दान किए गए दिमागों तथा सात अल्ज़ाइमर रोगियों के दिमागों की तंत्रिकाओं का विश्लेषण करके उक्त प्रक्रिया का प्रमाण जुटाने का प्रयास किया है। अल्ज़ाइमर रोगी गैर-वंशानुगत अल्ज़ाइमर से पीड़ित थे।

शोधकर्ताओं ने उक्त व्यक्तियों के मस्तिष्क में एक खास जीन में परिवर्तनों का अध्ययन किया। यह जीन एमिलॉइड पूर्ववर्ती प्रोटीन (एपीपी) बनाने का निर्देश देता है। यही प्रोटीन अल्ज़ाइमर रोगियों में प्लाक बनने का कारण होता है। शोधकर्ता देखना चाहते थे कि क्या अल्ज़ाइमर रोगियों में एपीपी जीन के विभिन्न संस्करण पाए जाते हैं।

नेचर नामक शोध पत्रिका में उन्होंने रिपोर्ट किया है कि तंत्रिकाओं में एपीपी जीन के एक-दो नहीं बल्कि हज़ारों परिवर्तित रूप मौजूद थे। कुछ रूपांतरण तो डीएनए में मात्र एक क्षार इकाई में परिवर्तन के फलस्वरूप हुए थे जबकि कुछ मामलों में डीएनए के बड़े-बड़े खंडों को हटा दिया गया था और शेष बचे डीएनए को सिल दिया गया था। चुन व उनके साथियों ने पाया कि अल्ज़ाइमर रोगियों में रूपांतरित जीन्स की संख्या सामान्य लोगों से छ: गुना ज़्यादा थी। वैसे शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि एपीपी जीन के इतने संस्करणों का होना कुछ मामलों में लाभप्रद भी हो सकता है। मगर कुछ लोगों में इस प्रक्रिया से एपीपी जीन के हानिकारक रूप बन जाते हैं जो अल्ज़ाइमर जैसे रोगों के लिए ज़िम्मेदार होते हैं।

शोधकर्ताओं ने इस तरह के रूपांतरण की क्रियाविधि का भी अनुमान लगाने की कोशिश की है। कोशिकाओं में डीएनए के किसी खंड (जीन) से प्रोटीन बनाने के लिए उस हिस्से की आरएनए प्रतिलिपि बनाई जाती है। कभी-कभी एक एंज़ाइम की सक्रियता के चलते इस आरएनए की पुन: प्रतिलिपि बनाई जाती है जो डीएनए के रूप में होती है। यह डीएनए जाकर जीनोम में जुड़ जाता है। आरएनए से डीएनए बनाने की प्रक्रिया में ज़्यादा त्रुटियां होती हैं, इसलिए जो नया डीएनए बनता है वह प्राय: मूल डीएनए से भिन्न होता है। ऐसे डीएनए के जुड़ने से नए-नए संस्करण प्रकट होते रहते हैं।

एक सुझाव यह है कि आरएनए से वापिस डीएनए बनने की प्रक्रिया को रोककर अल्ज़ाइमर की रोकथाम संभव है। एड्स वायरस पर नियंत्रण के लिए इस तकनीक का सहारा लिया जाता है। बहरहाल, यह तकनीक अपनाने से पहले काफी सावधानीपूर्वक पूरे मामले का अध्ययन ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)

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गर्भाशय में भ्रूण की सुरक्षा

र्भावस्था जीव विज्ञान की एक पेचीदा पहेली रही है। गर्भावस्था के दौरान आश्चर्यजनक बात यह होती है कि मां का प्रतिरक्षा तंत्र भ्रूण को नष्ट नहीं करता जबकि भ्रूण में तमाम पराए पदार्थ भरे होते हैं। आम तौर पर प्रतिरक्षा तंत्र किसी भी पराई वस्तु पर हमला करके उसे नष्ट करने की कोशिश करता ही है। तो गर्भावस्था में ऐसा क्या होता है कि प्रतिरक्षा तंत्र शिथिल हो जाता है और प्रसव तक शिथिल रहता है?

कैम्ब्रिज के वेलकम सैंगर इंस्टीट्यूट की सारा टाइचमैन इसी पहलू का अध्ययन करती रही हैं। उनका कहना है कि जच्चाबच्चा का संपर्क काफी पेचीदा होता है और हम इसे भलीभांति समझते भी नहीं हैं किंतु एक सफल गर्भावस्था के लिए यह निर्णायक होता है।

इसी संपर्क की क्रियाविधि को समझने के लिए टाइचमैन और उनके साथियों मां और भ्रूण की एकएक कोशिका के बीच परस्पर क्रिया को समझने का रास्ता अपनाया। उन्होंने 70,000 सफेद रक्त कोशिकाओं तथा आंवल और गर्भाशय में बने अस्तर की कोशिकाओं को देखा। ये कोशिकाएं उन्हें ऐसी महिलाओं से प्राप्त हुई थीं जिन्होंने अपना गर्भ 6-14 सप्ताह में समाप्त कर दिया था। आधुनिक तकनीक का उपयोग करते हुए उन्होंने प्रत्येक कोशिका की जीनसक्रियता का आकलन किया और पता लगाया कि उसमें कौनकौन से प्रोटीन उपस्थित हैं और इसके आधार पर तय किया कि वह कोशिका किस किस्म की है।

इस तरह से उन्हें 35 किस्म की कोशिकाओं का पता चला। इनमें से कुछ पहले से ज्ञात थीं। इनमें से कुछ ऐसी भ्रूणीय कोशिकाएं थीं जो मां के ऊतकों में प्रवेश करके रक्त नलियों का विकास शुरू करवाती हैं जिनके माध्यम से मां और भ्रूण का सम्बंध बनता है। उन्हें अपनी खोज में कुछ ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाएं भी मिली जिन्हें नेचुरल किलर सेल कहते हैं। ये आम तौर पर संक्रमित कोशिकाओं और कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करती हैं।

जब इन अलगअलग कोशिकाओं की परस्पर क्रिया को देखा गया तो पता चला कि कुछ घुसपैठी भ्रूणीय कोशिकाएं मां की कोशिकाओं को ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाएं बनाने को उकसाती हैं जो प्रतिरक्षा तंत्र की शेष कोशिकाओं पर अंकुश का काम करती हैं। टाइचमैन की टीम ने नेचर शोध पत्रिका में रिपोर्ट किया है कि मां की कुछ नेचुरल किलर सेल शांति सेना का काम करती हैं और अन्य प्रतिरक्षा कोशिकाओं को भ्रूण पर हमला करने से रोकती हैं। ये ऐसे रसायन भी बनाती हैं जो भ्रूण के विकास में मदद करते हैं और रक्त नलिकाओं के जुड़ाव बनवाते हैं।

शोधकर्ताओं का मत है कि अभी उन्होंने मां और भ्रूण की कोशिकाओं की सारी अंतर्क्रियाओं का अध्ययन नहीं किया है और न ही यह एक टीम के बस की बात है। लिहाज़ा उन्होंने एक ऑनलाइन डैटाबेस स्थापित किया है ताकि समस्त शोधकर्ता इस दिशा में काम को आगे बढ़ा सकें। (स्रोत फीचर्स)

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मस्तिष्क को भी प्रभावित करता है वायु प्रदूषण – डॉ. विजय कुमार उपाध्याय

मारे जीवन के लिए वायु की उपलब्धता अत्यन्त आवश्यक है। इसके बिना हम कुछ क्षण से अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकते। परन्तु यह भी ज़रूरी है कि जिस हवा को हम सांस द्वारा ग्रहण करते हैं वह शुद्ध हो। विभिन्न प्रकार के प्रदूषकों से युक्त हवा हमारे स्वास्थ्य के लिए कई तरह से हानिकारक साबित होती है। आज औद्योगिक विकास के दौर में समयसमय पर नएनए कारखाने स्थापित किए जा रहे हैं जिनकी चिमनियों से निकलने वाले धुएं से हमारा वायुमंडल निरन्तर प्रदूषित होता जा रहा है। साथ ही स्वचालित वाहनों की बढ़ती संख्या ने वायुमंडल को प्रदूषित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इस प्रकार से प्रदूषित वायु में रहने के कारण लोग कई रोगों से ग्रस्त हो रहे हैं।

पहले लोगों की धारणा थी वायु प्रदूषण के कारण सिर्फ हमारे फेफड़ों और हृदय को ही नुकसान पहुंचता है। परन्तु हाल में किए गए अध्ययनों एवं अनुसंधानों का निष्कर्ष है कि वायु प्रदूषण फेफड़ों और हृदय के अतिरिक्त हमारे मस्तिष्क को भी बुरी तरह प्रभावित करता है। ऐसा ही एक अध्ययन संयुक्त राज्य अमेरिका के येल विश्वविद्यालय तथा चीन के बेजिंग विश्वविद्यालय में कार्यरत शोधकर्ताओं द्वारा हाल ही में किया गया है। इस अध्ययन से सम्बंधित एक शोध पत्र कुछ ही समय पूर्व नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस के जर्नल में प्रकाशित हुआ था। इसमें बताया गया है कि यदि कोई व्यक्ति लंबे समय तक प्रदूषित वायु में रहता है तो उसके संज्ञान या अनुभूति ग्रहण करने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है। विशेष कर बुज़ुर्ग लोग वायु प्रदूषण से ज़्यादा प्रभावित होते हैं। बहुत से बुज़ुर्ग तो बोलने में काफी कठिनाई अनुभव करते हैं।

वॉशिंगटन स्थित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टिट्यूट में कार्यरत वैज्ञानिकों के अनुसार जो लोग बहुत लंबे समय तक वायु प्रदूषण की चपेट में रहते हैं उनकी बोलने और गणितीय आकलन की क्षमता बहुत अधिक घट जाती है। इस प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों पर अधिक देखा गया है। इस अध्ययन में चीन में सन 2010 से 2014 के बीच 32,000 लोगों पर सर्वेक्षण किया गया था। उन पर अल्पकालीन और दीर्घकालीन प्रभावों का अध्ययन किया गया।

अब एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि उपरोक्त अध्ययन से निकाला गया निष्कर्ष क्या सिर्फ चीन पर लागू होता है? ग्रीनपीस इंडिया में कार्यरत सुनील दहिया के मुताबिक उपरोक्त अध्ययन से निकाला गया निष्कर्ष भारत पर भी पूरी तरह लागू होता है क्योंकि चीन और भारत दोनों ही देशों में वायुप्रदूषण का स्तर लगभग एक समान है। भारत में सन 2015 में लगभग 25 लाख लोगों की मृत्यु वायु प्रदूषण के कारण उत्पन्न समस्याओं की वजह से हुई थी। भारत में 14 वर्ष से कम उम्र के लगभग 28 प्रतिशत बच्चे वायु प्रदूषण से प्रभावित हैं। गर्भ में पल रहे बच्चों पर भी वायु प्रदूषण  का काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार विश्व स्तर पर लगभग 90 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में वायु प्रदूषण से उत्पन्न गम्भीर समस्याओं से जूझ रहे हैं।

भारत के विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (सीएसई) ने नवम्बर 2017 में एक अध्ययन के आघार पर निष्कर्ष निकाला था कि अपने देश में रोगों के कारण होने वाली 30 प्रतिशत असमय मौतों का मुख्य कारण वायु प्रदूषण ही है। भारत में वायु प्रदूषण की समस्या काफी चिंताजनक स्थिति में पहुंच चुकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा किए गए एक आकलन के अनुसार संसार के सर्वाधिक वायु प्रदूषित 15 शहरो में से 14 शहर सिर्फ भारत में हैं तथा देश के अधिकांश क्षेत्रों में वायु की गुणवत्ता निरंतर घटती जा रही है, वायु प्रदूषण में वृद्धि लगातार जारी है। यह समस्या अब सिर्फ नगरों या उद्योग प्रधान शहरों तक ही सीमित नहीं रह गई है। महानगरों से बहुत पीछे माने जाने वाले नगरों में भी वायु प्रदूषण का स्तर साल के अधिकांश समय खतरे की सीमा को पार कर जाता है। उदाहरण के तौर पर पटना में सन 2017 में हवा में लंबित घातक सूक्ष्म कणों (पीएम 2.5) की मात्रा निगरानी के कुल 311 दिनों में से सिर्फ 81 दिन ही स्वास्थ्य सुरक्षा की निर्धारित सीमा के भीतर पाई गई। पटना में पिछले वर्ष कुछ दिन तो ऐसे रहे जब पीएम 2.5 की हवा में उपस्थिति 600 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ज़्यादा थी। प्रदूषण का यह स्तर भारत सरकार द्वारा निर्धारित सुरक्षा मानक से 15 गुना अधिक है।

बढ़ती बीमारियों पर होने वाले खर्च को कम करने के दृष्टिकोण से वायु प्रदूषण को रोकने के लिए सरकार को कुछ प्रभावी कदम उठाने पड़ेंगे। विज्ञान व पर्यावरण केंद्र ने सन 2017 में तैयार किए गए अपने प्रतिवेदन में ध्यान दिलाया था कि पर्यावरणीय कारणों से उत्पन्न होने वाले खतरों की पहचान और उससे निपटने के उपाय किए बिना भारत गैर संक्रामक रोगों (जैसे हृदय रोग, सांस रोग, मधुमेह और कैंसर इत्यादि) की वृद्धि पर अंकुश लगाने में बिलकुल कामयाब नहीं हो सकता। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने गैर संक्रामक रोगों की वृद्धि के मुख्य कारक के तौर पर शराब, तम्बाकू, कम गुणवत्ता वाले आहार तथा शारीरिक परिश्रम की कमी की पहचान की है और इसके लिए प्रति व्यक्ति 1-3 डॉलर के खर्च को आवश्यक माना है। परन्तु विज्ञान व पर्यावरण केंद्र ने अपने प्रतिवेदन में कहा था कि भारत में गैर संक्रामक रोगों की वृद्धि के कारकों में पर्यावरणीय जोखिम (जैसे वायु प्रदूषण) का भी आकलन आवश्यक है। साथ ही, स्वास्थ्य सुरक्षा और आर्थिक विकास की नीतियां भी पर्यावरणीय जोखिम को ध्यान में रखकर बनाई जानी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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