नाभिकीय संलयन क्रिया बच्चों का खेल है

12 वर्ष की उम्र में जैकसन ओस्वाल्ट ने अपने घर के एक कमरे में नाभिकीय अभिक्रिया सम्पन्न की। वह सबसे कम उम्र में नाभिकीय अभिक्रिया करने वाला बच्चा बन गया है। ओसवाल्ट ने एक ऐसी मशीन तैयार की है जिसमें प्लाज़्मा बनता है जिसके अंदर नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया होती है।

जनवरी 2018 में दी गार्जियन में ओस्वाल्ट के काम के बारे में बताया गया था। और इस फरवरी को दी ओपन सोर्स फ्यूज़र रिसर्च कंसोर्टियम (शौकिया तौर पर नाभिकीय अभिक्रिया करने वालों का समूह) ने ओसवाल्ट की इस उपलब्धि को मान्यता दी है।

कुछ लोग सिर्फ मज़े के लिए नाभिकीय अभिक्रिया को अंजाम देते हैं। इनमें से ज़्यादातर लोग नाभिकीय विखंडन की जगह संलयन अभिक्रिया करते हैं। नाभिकीय विखंडन में युरेनियम जैसे भारी नाभिक की ज़रूरत होती है जो दो नाभिकों में टूटता है और ऊर्जा मुक्त होती है। दूसरी ओर, संलयन में ड्यूटेरियम जैसे हाइड्रोजन समस्थानिक की ज़रूरत होती है जो आसानी से आपस में जुड़ सकें। जब दो हल्के नाभिक आपस में जुड़ते है तो एक भारी नाभिक बनता है, जिसका द्रव्यमान दोनो नाभिकों के कुल द्रव्यमान से कम होता है। द्रव्यमान में हुई कमी ऊर्जा के रूप में मुक्त होती है।

ओस्वाल्ट या अन्य शौकिया लोगों के रिएक्टर में चुम्बक की मदद से हाइड्रोजन के समस्थानिकों को निर्वात में बंद किया जाता है। फिर इसमें उच्च विद्युत धारा (लगभग 50,000 वोल्ट) तब तक दी जाती है जब तक नाभिक अत्यधिक गर्म होकर आपस में जुड़ने लगते हैं और हीलियम का नाभिक बनाते हैं। इसके परिणाम स्वरूप न्यूट्रॉन मुक्त होते है। इस मशीन को बनाने में ओस्वाल्ट को लगभग 7 लाख रुपए का खर्च आया।

घर पर संलयन की अभिक्रया करने का मतलब यह नहीं है कि इससे प्राप्त ऊर्जा अन्य काम में उपयोग की जा सकती है। इन रिएक्टर में संलयन की प्रक्रिया में जितनी ऊर्जा मुक्त होती है उससे ज़्यादा ऊर्जा रिएक्टर में संलयन की प्रक्रिया करवाने में खर्च हो जाती है। वैसे इतनी अधिक मात्रा में ऊर्जा बनाने में अभी तक किसी ने, यहां तक कि ऊर्जा विभाग ने, भी सफलता हासिल नहीं की है। और जिस पैमाने पर यह क्रिया होती है, वह किसी खतरे को भी जन्म नहीं देती।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ई-कचरे के विरुद्ध शुरू हुआ सार्थक अभियान – प्रमोद भार्गव

दुनिया भर में उपयोग करो और फेंको संस्कृति, जो कई टन कचरे को जन्म देती है, के विरुद्ध शंखनाद हो गया है। दरअसल पूरी दुनिया में इलेक्ट्रॉनिक कचरा (ई-कचरा) बड़ी एवं घातक समस्या बन गया है। इससे निजात पाने के लिए युरोपीय संघ और अमेरिका के पर्यावरण संगठनों ने इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाने वाली कंपनियों की मनमानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। वे राइट-टु-रिपेयर यानी मरम्मत का अधिकार की मांग कर रहे हैं। इस अभियान के भारत समेत पूरी दुनिया में फैलने की उम्मीद है। भारत को तो विकसित देशों ने ई-कचरा का डंपिंग ग्राउंड माना हुआ है। इस कचरे को नष्ट करने के जैविक उपाय भी तलाशे जा रहे हैं, लेकिन इसमें अभी बड़ी सफलता नहीं मिली है।

अमेरिका एवं युरोप के कई देशों के पर्यावरण मंत्री कंपनियों को यह सुझा चुके हैं कि वे ऐसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाएं, जो लंबे समय तक चलें और खराब होने पर उनकी मरम्मत की जा सके। भारत में भी कई गैर-सरकारी संगठनों ने आवाज़ बुलंद की है।

दुनिया के विकसित देश अपना ज़्यादातर कचरा भारतीय समुद्र में खराब हो चुके जहाज़ों में लादकर बंदरगाहों के निकट छोड़ जाते हैं। इससे भारतीय तटवर्ती समुद्रों में कचरे का अंबार लग गया है। इस ई-कचरे में कंप्यूटर, टीवी स्क्रीन, स्मार्टफोन, टैबलेट, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, इंडक्शन कुकर, एसी और बैटरियां होते हैं। इस अभियान के बाद अमेरिका में 18 राज्य राइट-टु-रिपेयर कानून बनाने पर विचार कर रहे हैं।

एक शोध के मुताबिक 2004 में घरेलू कामकाज की 3.5 फीसदी इलेक्ट्रॉनिक मशीनें पांच साल बाद खराब हो रही थीं। 2012 में इनका अनुपात बढ़कर 8.3 प्रतिशत हो गया। रिसाइÏक्लग केंद्रों पर दस फीसदी से ज़्यादा ऐसे उपकरण आए, जो पांच साल से पहले ही खराब हो गए थे। कंप्यूटर, लेपटॉप, टैबलेट और मोबाइल के निरंतर नए-नए मॉडल आने और उनमें नई सुविधाएं उपलब्ध होने से भी ये उपकरण अच्छी हालत में होने के बावजूद उपयोग के लायक नहीं रह जाते। लिहाज़ा ई-कचरे की मात्रा लगातार बढ़ रही है। एक अनुमान के मुताबिक 2018 में दुनिया भर में पांच करोड़ टन ई-कचरा इकट्ठा हुआ। इस कचरे को एक जगह जमा किया जाए तो माउंट एवरेस्ट से भी ऊंचा पर्वत बन जाएगा अथवा 4500 एफिल टावर बन जाएंगे। ई-कचरा पैदा करने में भारत दुनिया का पांचवां बड़ा देश है। भारतीय शहरों में पैदा होने वाले ई-कचरे में सबसे ज़्यादा कंप्यूटर और उसके सहायक यंत्र होते हैं। ऐसे कचरे में 40 प्रतिशत सीसा और 70 प्रतिशत भारी धातुएं होती हैं। कई लोग इन्हें निकालकर आजीविका भी चला रहे हैं।       

आज ई-कचरा, जिसमें बड़ी मात्रा में प्लास्टिक के उपकरण भी शामिल हैं, नष्ट करना भारत व अन्य देशों के लिए मुश्किल हो रहा है। इसे जैविक रूप से नष्ट करने के उपाय तलाशे जा रहे हैं। इस कचरे का एक सकारात्मक पहलू सोना व अन्य उपयोगी धातुओं की उपस्थिति है। हाल ही में ऐपल कंपनी ने बेकार हो चुके कचरे को पुनर्चक्रित करके ई-कचरे से 264 करोड़ का सोना निकाला  है। इसके अलावा करीब 580 करोड़ का इस्पात, एल्यूमिनियम, ग्लास और अन्य धातुई तत्व निकालने में कामयाबी हासिल की है। ऐपल के इस रचनात्मक खुलासे के बाद अच्छा होगा कि हमारी सरकारें युवाओं को ई-कचरे से सोना एवं अन्य धातुएं निकालने का प्रशिक्षण दें और स्टार्टअप के तहत इस तरह के संयंत्र लगाने को प्रोत्साहित करें। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उत्पादन और उनके नष्ट होने की प्रक्रिया निरंतर चलने वाली है, इसलिए यदि ये संयंत्र देश के कोने-कोने में लग जाते हैं तो इनके संचालन में कठिनाई आने वाली नहीं है। बेकार हो चुके उपकरणों के रूप में कच्चा माल स्थानीय स्तर पर ही मिल जाएगा और पुनर्चक्रण के बाद जो सोना-चांदी, इस्पात, जस्ता, तांबा, पीतल, एल्यूमीनियम आदि धातुएं निकलेंगी उनके खरीददार भी स्थानीय स्तर पर ही मिल जाएंगे। वैसे भी ये धातुएं और इनसे बनी वस्तुएं रोज़मर्रा के जीवन में इतनी जरूरी हो गई हैं कि इनकी आवश्यकता बनी ही रहती है। इन संयंत्रों के लगने से धरती व जल प्रदूषित होने से बचेंगे। यदि कचरा बिना कोई उपचार किए धरती में गड्ढे खोदकर दफना दिया जाता है तो इससे खतरनाक गैसें निकलती हैं जो धरती और मानव स्वास्थ्य के लिए तो हानिकारक हैं ही, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के लिए भी हानिकारक है।

इलेक्ट्रॉनिक उपकरण विशेषज्ञों का मानना है कि औसतन एक स्मार्टफोन में 30 मिलीग्राम सोना होता है। साफ है, समस्या बने ई-कचरा पुनर्चक्रण में बड़े पैमाने पर युवाओं को रोज़गार मिलेगा और देश बड़े स्तर पर इस कचरे को नष्ट करने के झंझट से भी मुक्त होगा। इसलिए इस कचरे को रोज़गार उपलब्ध कराने वाले संसाधन के रूप में देखने की ज़रूरत है।

औसतन एक टन ई-कचरे के टुकड़े करके उसे यांत्रिक तरीके से पुनर्चक्रित किया जाए तो लगभग 40 किलो धूल या राख जैसा पदार्थ तैयार होता है। इसमें अनेक कीमती धातुएं रहती हैं। इन धातुओं के पृथक्करण की प्रक्रिया में हाथों से छंटाई, चुंबक से पृथक्करण, विद्युत-विच्छेदन, सेंट्रीफ्यूज और उलट परासरण जैसी तकनीकें शामिल हैं। लेकिन ये तरीके मानव शरीर और पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाले हैं, इसलिए इस हेतु बायो-हाइड्रो मेटलर्जिकल तकनीक कहीं बेहतर है। इस तकनीक को अमल में लाते वक्त सबसे पहले बैक्टीरियल लीचिंग प्रोसेस का प्रयोग करते हैं। इसके लिए ई-कचरे को बारीक पीसकर उसे जीवाणुओं के साथ रखा जाता है। बैक्टीरिया में मौजूद एंज़ाइम कचरे में उपस्थित धातुओं को घुलनशील यौगिकों में बदल देते हैं। बायो-लीचिंग की विधि में जीवाणु कुछ विशेष धातुओं को अलग करने में मदद करते हैं। हालांकि ऐपल द्वारा ई-कचरे से सोना निकालने की जानकारी आने के पहले से ही कई प्रकार के जीवाणुओं और फफूंद का उपयोग प्रिटेंड सर्किट बोर्ड से सीसा, तांबा और टिन को अलग करने के लिए किया जाता रहा है।

यदि ई-कचरे को छीलन में बदलकर 5-10 ग्राम प्रति लीटर की सांद्रता में घोलकर कुछ खास बैक्टीरिया के साथ रखा जाए तो कुछ तांबा, जस्ता, निकल और एल्यूमीनियम 90 प्रतिशत से अधिक निकाले जा सकते हैं। इसी प्रकार से कुछ फफूंदों की मदद से 65 प्रतिशत तक तांबा और टिन अलग किए जा सकते हैं। इसके अलावा कचरे की छीलन की सांद्रता 100 ग्राम प्रति लीटर रखी जाए तो यही फफूंदें एल्यूमीनियम, निकल, सीसा और जस्ते में से भी 95 प्रतिशत धातु को अलग करने में सक्षम सिद्ध होती हैं। ये सभी उपयोगी धातुएं हैं।

पुनर्चक्रण के लिए भौतिक-रासायनिक और ऊष्मा आधारित तकनीकें भी उपलब्ध हैं, किंतु जैविक तकनीक की तुलना में इनकी सफलता कम आंकी गई है। हालांकि भारत में ई-कचरे के पुनर्चक्रण के संयंत्र दिल्ली, मेरठ, बैंगलुरू, मुबंई, चैन्नई और फिरोज़ाबाद में लगे हुए हैं, लेकिन जिस पैमाने पर ई-कचरा पैदा होता है, उसे देखते हुए ये संयंत्र ऊंट के मुंह में ज़ीरे के समान हैं। इसलिए ई-कचरे के पुनर्चक्रण संयंत्र लगाने की जबावदेही ई-कचरा उत्पादन कंपनियों को भी सौंपने की ज़रूरत है। यदि पुनर्चक्रण के ये संयंत्र स्थान-स्थान पर स्थापित कर दिए जाते हैं तो कचरे का निपटारा तो होगा ही, कच्चे माल की कीमत कम होने से वस्तुओं के दाम भी कमोबेश सस्ते होंगे। साथ ही पृथ्वी, जल और वायु प्रदूषण मुक्त रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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सामान्य तापमान पर अतिचालकता

तिचालकता एक ऐसा गुण है जिसे सामान्य परिस्थितियों यानी सामान्य तापमान और दबाव पर पाने की जद्दोजहद वर्षों से जारी है। कारण यह है कि अतिचालकता यानी सुपर कंडक्टिविटी की स्थिति में पदार्थ विद्युत के बहने में कोई रुकावट पैदा नहीं करता और विद्युत बगैर किसी नुकसान के बहती रह सकती है। इसका मतलब होगा कि बिजली के उपयोग की दक्षता में भारी वृद्धि होगी। मगर अब तक कतिपय पदार्थों में अतिचालकता अत्यंत कम तापमान (शून्य से 83 डिग्री कम तापमान) पर ही हासिल की जा सकी थी, जो व्यावहारिक दृष्टि से बहुत उपयोगी नहीं है।

अब वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के भू-भौतिक शास्त्री रसेल हेमले ने दावा किया है कि उन्होंने अपेक्षाकृत सामान्य तापमान पर अति-चालकता का अवलोकन किया है। इस सम्बंध में उनका शोध पत्र फिजि़कल रिव्यू लेटर्स में प्रकाशित होने जा रहा है। हेमले की टीम ने घोषणा की है कि उन्होंने लेंथेनम नामक धातु का एक सुपरहाइड्राइड तैयार किया था जिसका अणु सूत्र LaH10 है। जब वे अत्यंत उच्च दबाव (लगभग 20 लाख वायुमंडलीय दाब के बराबर) पर इस पदार्थ के साथ प्रयोग कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि 7 डिग्री सेल्सियस पर अचानक उसके विद्युत प्रतिरोध में कमी आई। इस तरह की अचानक गिरावट को पदार्थ में अतिचालकता उभरने के एक लक्षण के रूप में माना जाता है।

हालांकि लेंथेनम सुपरहाइड्राइड में अतिचालकता 7 डिग्री सेल्सियस पर हासिल हुई थी किंतु दबाव अकल्पनीय रूप से अधिक था। तो आज भी यह अतिचालकता व्यावहारिक रूप से कोई मायने नहीं रखती मगर शोधकर्ताओं का कहना है कि उन्होंने तापमान सम्बंधी मनोवैज्ञानिक बाधा पार कर ली है, जो एक बड़ी उपलब्धि है। (स्रोत फीचर्स)

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सेल्फी एलर्ट ऐप देगा जानलेवा सेल्फी की चेतावनी

सेल्फी लेना अब संक्रामक बीमारी बनती जा रही है। सेल्फी के कारण काफी मौतें हो रही हैं। इससे बचाव के लिए अमेरिका व भारत के वैज्ञानिक एक सेल्फी एलर्ट ऐप तैयार कर रहे हैं, जो खतरनाक पोज़ देने वालों को चेतावनी देगा कि इससे मौत हो सकती है। पेनसिल्वेनिया, अमेरिका के पिट्सबर्ग में कारनेगी मेलन विश्वविद्यालय में शोध कर रहे हेमनाक लांबा यह ऐप बना रहे हैं। वहीं दिल्ली के इंद्रप्रस्थ सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान के प्रोफेसर पोन्नुरंगम कुमारगुरू भी कुछ इसी तरह के ऐप पर काम कर रहे हैं। सेल्फी के दौरान अब तक सबसे अधिक मौतें भारत में ही हुई हैं और यह आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है।

हेमनाक लांबा बताते हैं कि उनकी टीम ने इसके लिए एक एल्गोरिदम विकसित की है, जो आंकड़ों और तथ्यों के आधार पर लोगों को यह बता सकेगी कि कौन-सा स्थान खतरनाक है? इस ऐप के माध्यम से खतरनाक स्थानों पर सेल्फी के लिए पहुंचने वालों के मोबाइल फोन से घंटी बज जाएगी, जिससे यह पता चल जाएगा कि जहां वे पहुंचने वाले हैं वह स्थान खतरनाक है। टीम का दावा है कि देश, समय और परिस्थिति के आधार पर खतरनाक सेल्फी की पहचान और एलर्ट से सम्बंधित शोधों में 70 प्रतिशत से अधिक सफलता मिली है और शीघ्र ही वे इस ऐप को लॉन्च कर सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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सूरज को धरती पर उतारने की तैयारी – प्रदीप

मानव विकास के लिए अधिकाधिक ऊर्जा की ज़रूरत होती है। बिजली पर हमारी बढ़ती निर्भरता के कारण भविष्य में ऊर्जा की खपत और भी बढ़ेगी। मगर इतनी ऊर्जा आएगी कहां से। यह तो हम सब जानते हैं कि धरती पर कोयले और पेट्रोलियम के भंडार सीमित हैं। ये भंडार ज़्यादा दिनों तक हमारी ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा नहीं कर सकते। और इनसे प्रदूषण भी होता है। आप कह सकते हैं कि अब तो नाभिकीय रिएक्टरों का इस्तेमाल बिजली पैदा करने में किया जाने लगा है तो कोयले और पेट्रोलियम के खत्म होने की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। मगर ऐसा नहीं है, जिस युरेनियम या थोरियम से नाभिकीय रिएक्टर में परमाणु क्रिया सम्पन्न होती है, उनके भंडार भी भविष्य में हमारी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए बेहद कम हैं। और नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन में रेडियोधर्मी, रेडियोएक्टिव उत्पाद भी उत्पन्न होते हैं जो पर्यावरण और मनुष्य के लिए घातक है। 

वैज्ञानिक लंबे समय से एक ऐसे र्इंधन की खोज में हैं, जो पर्यावरण और मानव शरीर को नुकसान पहुंचाए बगैर हमारी ऊर्जा ज़रूरतों की पूर्ति करने में सक्षम हो। वैज्ञानिकों की यह तलाश नाभिकीय संलयन (न्यूक्लियर फ्यूज़न) पर समाप्त होती दिखाई दे रही है। नाभिकीय संलयन प्रक्रिया ही सूर्य तथा अन्य तारों की ऊर्जा का स्रोत है। जब दो हल्के परमाणु नाभिक जुड़कर एक भारी तत्व के नाभिक का निर्माण करते हैं तो इस प्रक्रिया को नाभिकीय संलयन कहते हैं। यदि हम हाइड्रोजन के चार नाभिकों को जोड़ें तो हीलियम के एक नाभिक का निर्माण होता है। हाइड्रोजन के चार नाभिकों की अपेक्षा हीलियम के एक नाभिक का द्रव्यमान कुछ कम होता है। इस प्रक्रिया में द्रव्यमान में हुई कमी ही ऊर्जा के रूप में निकलती है।

हाइड्रोजन के संलयन द्वारा इतनी विशाल ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है, यह बात सबसे पहले वर्ष 1938 में जर्मन वैज्ञानिक हैन्स बैथे के अनुसंधान कार्यों से पता चली। इसी नाभिकीय संलयन के सिद्धान्त पर हाइड्रोजन बम का निर्माण किया गया, जिसमें बैथे की महत्वपूर्ण भूमिका थी। वैज्ञानिक कई वर्षों से सूर्य में होने वाली संलयन अभिक्रिया को पृथ्वी पर कराने के लिए प्रयासरत हैं, जिससे बिजली पैदा की जा सके। अगर इसमें सफलता मिल जाती है तो यह सूरज को धरती पर उतारने जैसा ही होगा।

हालांकि लक्ष्य अभी दूर है, मगर चीनी वैज्ञानिकों की इस दिशा में हालिया बड़ी सफलता ने उम्मीदें जगा दी हैं। चीन के हेफई इंस्टीट्यूट ऑफ फिज़िकल साइंसेज़ के मुताबिक चीन अपने नाभिकीय विकास कार्यक्रम के तहत पृथ्वी पर नाभिकीय संलयन प्रक्रिया द्वारा सूर्य जैसा एक ऊर्जा स्रोत बनाने का प्रयास कर रहा है। चाइना डेली में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक वैज्ञानिकों ने चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ प्लाज़्मा फिज़िक्स के न्यूक्लियर फ्यूज़न रिएक्टर में सूरज की सतह के तापमान से 6 गुना ज़्यादा तापमान (तकरीबन 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस) उत्पन्न कर लिया है। इस तापमान को तकरीबन 10 सेकंड तक स्थिर रखा गया। नाभिकीय संलयन क्रिया को सम्पन्न कराने के लिए इतना उच्च ताप और दाब ज़रूरी है। अभी तक इतना अधिक तापमान पृथ्वी पर प्राप्त नहीं किया जा सका था।

चीन निर्मित इस फ्यूज़न रिएक्टर का व्यास 8 मीटर, लंबाई 11 मीटर और वज़न 400 टन है। इस रिएक्टर को दी एक्सपेरिमेंटल एडवांस्ड सुपरकंडक्टिंग टोकामैक नाम दिया गया है। चीन के अनहुई प्रांत में स्थापित रिएक्टर ईस्ट में प्लाज़्मा को टायर जैसे एक गोलाकार पात्र में गर्म किया जाता है। दरअसल प्लाज़्मा द्रव्य की चौथी अवस्था है। प्लाज़्मा बहुत गर्म भी हो सकता है और बहुत ठंडा भी। ईस्ट की दीवारों को प्लाज़्मा के उच्च ताप से बचाने के लिए चुंबकीय क्षेत्र का इस्तेमाल किया गया है जिससे प्लाज़्मा पात्र की दीवारों को बिना स्पर्श किए चक्कर काटता रहता है। ड्यूटेरियम और ट्रिटियम से बने हीलियम कण प्लाज़्मा के चुंबकीय क्षेत्र में कुछ देर तक कैद रहते हैं। बाद में इन्हें डाइवर्टर पम्प से बाहर कर दिया जाता है। चुंबकीय क्षेत्र से न्यूट्रॉन कण निरंतर दूर होते जाते हैं क्योंकि वे आवेश रहित होते हैं। भविष्य में इन्हें एक ऊर्जा संयंत्र में पकड़कर ऊर्जा बनाना संभव होगा।

नाभिकीय विखंडन पर आधारित वर्तमान रिएक्टरों की आलोचना का सबसे बड़ा कारण है इनसे ऊर्जा के साथ रेडियोएक्टिव अपशिष्ट पदार्थों का भी उत्पन्न होना। नाभिकीय विखंडन के सिद्धान्त के आधार पर ही परमाणु बम बना। विखंडन रिएक्टर मनुष्य तथा पर्यावरण के लिए बहुत घातक होते हैं। इनसे डीएनए में उत्परिवर्तन तक हो सकते हैं। इससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी आनुवंशिक दोषयुक्त संतानें पैदा हो सकती हैं। वहीं संलयन रिएक्टर से उत्पन्न होने वाले रेडियोएक्टिव कचरे बहुत कम होते हैं तथा इनसे पर्यावरण को कोई भी नुकसान नहीं होता।

तारों पर होने वाली नाभिकीय संलयन प्रक्रिया को सर्वप्रथम मार्क ओलिफेंट ने 1932 में पृथ्वी पर दोहराने में सफलता प्राप्त की थी। अभी तक वैज्ञानिकों को इस प्रक्रिया को पृथ्वी पर नियंत्रित रूप से सम्पन्न कराने में कामयाबी नहीं मिली थी। मगर चीनी वैज्ञानिकों ने रिएक्टर ईस्ट में कृत्रिम संलयन करवाने लिए हाइड्रोजन के दो भारी समस्थानिकों ड्यूटेरियम और ट्रिटियम को र्इंधन के रूप में प्रयोग किया है। धरती के समुद्रों में ड्यूटेरियम काफी मात्रा में मौजूद है। जबकि ट्रिटियम को लीथियम से प्राप्त किया जा सकता है जो धरती पर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। इसलिए नाभिकीय संलयन के लिए र्इंधन की कभी कमी नहीं होगी। ड्यूटेरियम में एक न्यूट्रॉन होता है और ट्रिटियम में दो। अगर इन दोनों में टकराव हो तो उससे हीलियम का एक नाभिक बनता है। इस प्रक्रिया में ऊर्जा मुक्त होती है। भविष्य में इसी ऊर्जा का इस्तेमाल टर्बाइन को चलाने में किया जाएगा। अनुमान है कि इसमें अभी 10-15 वर्षों का समय लगेगा। निश्चित रूप से चीन का नाभिकीय संलयन कार्यक्रम ऊर्जा संकट को दूर करने में और वैश्विक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण कदम सिद्ध होगा। (स्रोत फीचर्स)

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बिना इंजन के विमान ने भरी उड़ान

वैज्ञानिकों ने एक ऐसा हवाई जहाज़ तैयार किया है जिसमें कोई भी हिस्सा हिलताडुलता या घूमता नहीं है। आम तौर पर हवाई जहाज़ों में या तो पंखे घूमते हैं या जेट इंजिन की मोटर घूमती है। यह नए किस्म का हवाई जहाज़ जिस तकनीक से उड़ेगा उसे इलेक्ट्रोएयरोडाएनेमिक्स (ईएडी) कहते हैं।

वैसे तो इंजीनियर काफी समय से आश्वस्त थे कि ईएडी की मदद से हवाई जहाज़ उड़ाए जा सकते हैं किंतु किसी ने इसका कामकाजी मॉडल तैयार नहीं किया था। वैसे नासा अपने अंतरिक्ष यानों में इस तकनीक का उपयोग करता रहा है।

ईएडी तकनीक में किया यह जाता है कि ज़ोरदार वोल्टेज लगाकर गैस को आयन में परिवर्तित किया जाता है। इन आयनों में काफी गतिज ऊर्जा होती है और ये आसपास की हवा को पीछे की ओर धकेलते हैं। हवा की इस गति के प्रतिक्रियास्वरूप हवाई जहाज़ आगे बढ़ता है।

पूरे सात साल के प्रयासों के बाद कैम्ब्रिज स्थित मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के इंजीनियर स्टीवन बैरेट की टीम इस तकनीक से हवाई जहाज़ को उड़ाने में सफल हुई है। वैसे यह हवाई जहाज़ बहुत छोटा सा था और इसे तकनीक का प्रदर्शन मात्र माना जा सकता है किंतु कई टेक्नॉलॉजीविदों का मत है कि यह भविष्य की दिशा तय कर सकता है।

बैरेट की टीम ने जो हवाई जहाज़ बनाया वह मात्र 2.45 कि.ग्रा. का है। इसके डैने करीब 5 मीटर के हैं। डैनों के ऊपर इलेक्ट्रोड लगे हैं जिनके बीच वायु के अणुओं का आयनीकरण होता है। इलेक्ट्रोड्स के बीच वोल्टेज का मान 40,000 वोल्ट होता है। टीम ने इस हवाई जहाज़ का परीक्षण अपने संस्थान के जिम्नेशियम में किया। कई बार की कोशिशों के बाद अंतत: उनका हवाई जहाज़ ज़मीन से आधा मीटर ऊपर 6 मीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से 60 मीटर तक उड़ा।

इस पैमाने पर तकनीक को लागू कर लेने के बाद सवाल आएगा इसे बड़े हवाई जहाज़ों के साथ कर पाने का। सभी लोग सहमत हैं कि वह एक बड़ी समस्या होने वाली है क्योंकि जैसेजैसे यान का आकार बढ़ेगा, उसका वज़न भी बढ़ेगा और उसे हवा में ऊपर उठाने तथा आगे बढ़ाने के लिए जितनी शक्ति लगेगी उसके लिए इलेक्ट्रोड तथा बिजली की व्यवस्था आसान नहीं होगी। फिलहाल बैरेट और उनकी टीम इस तकनीक का इस्तेमाल ड्रोन जैसे छोटे यानों में करने पर विचार कर रही है किंतु उन्हें उम्मीद है कि एक दिन वे इसका उपयोग यातायात के क्षेत्र में कर पाएंगे। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसमें शोर बिलकुल नहीं होता। किंतु यह भी सोचने का विषय होगा कि इतने बड़े पैमाने पर वायु का आयनीकरण करना पर्यावरण को कैसे प्रभावित करेगा। (स्रोत फीचर्स)

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सावधान! ऐप चुरा रहे हैं निजी डैटा – मनीष श्रीवास्तव

एंड्रॉयड फोन में जितने भी ऐप्लीकेशंस हैं उनमें से 90 प्रतिशत ऐप हमारे निजी डैटा की जानकारी अन्य कंपनियों के साथ शेयर कर रहे हैं। अलगअलग ऐप्स यूज़र डैटा चुराकर सोशल मीडिया वेबसाइट को दे रहे हैं। हाल ही में  ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की एक रिसर्च में ये तथ्य सामने आए हैं।

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने मोबाइल ऐप्स का यूज़र सिक्योरिटी में दखल का पता लगाने के लिए गूगल प्ले स्टोर पर मौजूद 9.59 लाख एंड्रॉयड ऐप्स पर यह रिसर्च की है। इस शोध में यह पता चला कि एंड्रॉयड के 90 प्रतिशत ऐप्स यूज़र के निजी डैटा को चुराकर अपने सर्वर पर स्टोर करते हैं। इसके बाद इसे अन्य कंपनियों के साथ शेयर किया जाता है। चोरी होने वाले यूज़र डैटा का 50 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा फेसबुक, ट्विटर और गूगल के साथ शेयर होता है। इस डैटा चोरी का कारण ऐप्स की डैटा शेयरिंग का सम्बंध विज्ञापन आमदनी से होना है। ऐप कंपनियां मुख्य तौर पर यूज़र की उम्र, जेंडर, लोकेशन और कभीकभी फाइनेंशियल डिटेल्स भी स्टोर और शेयर कर रही हैं। इस तरह अनाधिकृत रूप से यूज़र की बिना जानकारी के उनका निजी डैटा बहुतसी कंपनियों के पास पहुंचा रही हैं।

इस शोध परियोजना को लीड करने वाले रिसर्चर रूबेन बिन्स ने शोध के सम्बंध में कहा है कि यह ज़रूरी नहीं कि यूज़र डैटा का इस्तेमाल करने वाला हर ऐप इसका दुरुपयोग कर रहा है लेकिन वे यूज़र डैटा को स्टोर अवश्य कर रहे हैं। समयसमय पर इसे थर्ड पार्टी के साथ शेयर भी किया जाता है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स और ईकामर्स साइट्स को जब यूज़र की निजी जानकारी मिल जाती है तो वे उनकी व्यक्तिगत रुचि के अनुसार कोई खास विज्ञापन या कंटेन्ट दिखाने लगते हैं। आज ऑनलाइन एडवरटाइज़िंग का व्यापार करीब 4.5 लाख करोड़ रुपए तक का हो चुका है। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यूज़र का निजी डैटा कंपनियों के लिए कितना महत्वपूर्ण हो गया है। रिसर्च से यह तथ्य सामने आया है कि 10 प्रतिशत ऐप्स ऐसे हैं जो एक बार में कई कंपनियों से यूज़र डैटा शेयर कर रहे हैं। गूगल की पैरेंट कंपनी एल्फाबेट की सबसे ज़्यादा 88 प्रतिशत ऐप्स तक पहुंच है। यानी 88 प्रतिशत ऐप्स ऐसे हैं जिनका स्टोर किया हुआ यूज़र डैटा एल्फाबेट को आसानी से उपलब्ध हो जाता है। दूसरे नंबर पर फेसबुक की हिस्सेदारी 43 प्रतिशत और तीसरे नंबर पर ट्विटर की हिस्सेदारी 34 प्रतिशत की है। माइक्रोसॉफ्ट को 23 प्रतिशत ऐप्स का स्टोर किया डैटा मिल जाता है, वहीं अमेज़न को 18 प्रतिशत ऐप्स के डैटा का एक्सेस मिलता है। इससे अमेज़न और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों को यूज़र डैटा की मदद से यूज़र तक ज़रूरी विज्ञापन पहुंचाने में बहुत मदद मिलती है।

इस तरह यूज़र के निजी डैटा को बिना उनकी जानकारी के कंपनियां इस्तेमाल कर रही हैं। अभी तक जब भी ऐसे तथ्य सामने आते थे तब कंपनियां अपने बचाव में आ जाती थीं और यूज़र डैटा की सुरक्षा को ही अपना महत्वपूर्ण लक्ष्य बताने लगती थीं। किन्तु इस रिसर्च के बाद यह बात और भी पुख्ता हो गई है कि कंपनियां अपने हित के लिए ही कार्य कर रही हैं।

भारत में यूज़र की डैटा सिक्योरिटी को लेकर बेहद संवेदनशीलता दिखाई गई है। सरकार द्वारा इस ओर ध्यान देते हुए जस्टिस बी.एन. कृष्ण की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई। डैटा प्रोटेक्शन पर जस्टिस बी.एन. कृष्ण समिति ने जुलाई 2018 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी है। समिति ने यूज़र डैटा प्राइवेसी को मौलिक अधिकार बताया है। इसमें उन्होंने यूजर के पर्सनल डैटा की सुरक्षा को अनिवार्य बनाने का सुझाव दिया। उन्होंने डैटा प्रोटेक्शन कानून का उल्लंघन करने वाली कंपनियों पर 15 करोड़ रुपए से लेकर उनके दुनिया भर के कारोबार के कुल टर्नओवर का चार फीसदी तक का जुर्माना लगाने का सुझाव भी दिया है। समिति के सुझावों में यह भी शामिल है कि विदेशी कंपनियां भारतीय सर्वर में ही डैटा रखें। इससे ये कंपनियां भारतीय कानून के दायरे में आ जाएंगी। केंद्रीय आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद को सौंपी गई रिपोर्ट पर जल्द से जल्द कानून बनाने की बात प्रसाद ने कही है। 

डैटा सिक्योरिटी के मुद्दे पर हर तरफ कंपनियां सतर्क हो गई हैं। उन्होंने यकीन दिलाया है कि वे यूज़र के डैटा की सिक्योरिटी के प्रति प्रतिबद्ध हैं। सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक के संस्थापक ज़करबर्ग ने यूज़र के डैटा को सिक्योर करने के लिए कुछ घोषणाएं की हैं

1. फेसबुक पर उन सभी ऐप की जांच जिन्होंने 2014 में डैटा एक्सेस को सीमित किए जाने से पहले ही बड़ी मात्रा में जानकारियां हासिल कर ली थी।

2. फेसबुक पर संदिग्ध गतिविधियों वाले सभी ऐप की पड़ताल।

3. पड़ताल के लिए सहमत न होने वाले डेवलेपर पर प्रतिबंध।

4. निजी जानकारियों का दुरुपयोग करने वाले डेवलेपर्स पर प्रतिबंध और प्रभावित लोगों को इसकी सूचना देना।

5. किसी भी तरह का दुरुपयोग रोकने के लिए डेवलेपर्स का डैटा एक्सेस सीमित करना।

6. अगर यूज़र तीन महीने तक ऐप का इस्तेमाल न करे तो उसके डैटा का एक्सेस डेवलेपर से वापस लेना।

7. किसी ऐप पर साइनइन करते समय यूज़र की तरफ से दिए जाने वाले डैटा को नाम, प्रोफाइल, फोटो और ईमेल एड्रेस तक सीमित करना।

8. डेवलपर्स द्वारा यूज़र्स की पोस्ट या अन्य निजी डैटा का एक्सेस लेने से पहले इस बाबत अनुमति के अनुबंध पर हस्ताक्षर करना।

फेसबुक को ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय इसलिए लेने पड़े क्योंकि इससे पहले फेसबुक के दुनिया भर के 1.4 करोड़ यूज़र्स की निजी जानकारी सार्वजनिक हो चुकी है। फेसबुक ने इस पर खेद भी जताया था। उस समय फेसबुक के प्रायवेसी ऑफिसर ईरिन इग्न ने एक बयान देकर कहा था कि एक तकनीकी समस्या के कारण कई यूज़र्स के निजी पोस्ट सार्वजनिक हो गए थे। इसी तरह, ट्विटर के सॉफ्टवेयर में भी तकनीकी समस्या आई थी और उस दौरान ट्विटर ने डाटा चोरी रोकने और कई अन्य सुरक्षा कारणों को ध्यान में रखते हुए दुनिया भर के अपने 33 करोड़ यूज़र्स से अपना पासवर्ड बदलने को कहा था।

भविष्य में ऐसी समस्याओं से बचने और यूज़र के डैटा की सुरक्षा बढ़ाने के लिए हर देश की सरकार जागरूक होकर कार्य कर रही है। भारत सरकार ने भी इस ओर ठोस कदम उठाए हैं। भविष्य में तकनीकी उन्नति के साथ यूज़र डैटा को सिक्योर करना एक बड़ी चुनौती होगी। इसके लिए अभी से ठोस प्रयास करने होंगे ताकि कंपनियां यूज़र के निजी डैटा को चुराकर अनाधिकृत रूप से लाभ न कमा सकें।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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