प्रदूषण से विशाल सीप तेज़ी से वृद्धि कर रही है

हाल ही में देखा गया है कि प्रदूषण के कारण विशाल सीप (क्लैम) अपने पूर्वजों की अपेक्षा तेज़ी से वृद्धि करती हैं।

प्रदूषण और समुद्र के बढ़ते तापमान के कारण कोरल रीफ का पारिस्थितिकी तंत्र तबाह हो रहा है। लेकिन कोरल को तबाह करने वाली स्थितियां उत्तरी लाल सागर में पाई जाने वाली विशाल सीप को बढ़ने में मदद कर रही हैं।

विशाल सीप पश्चिमी प्रशांत महासागर और हिंद महासागर की उथली चट्टानों में पाई जाती हैं। वृद्धि के दौरान उनकी खोल पर पट्टियां बनती जाती हैं जो उनकी वार्षिक वृद्धि, यहां तक कि दैनिक वृद्धि, को दर्शाती हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के डैनियल किलम और उनके साथियों ने लाल सागर के उत्तरी छोर से एकत्रित विशाल सीप की आधुनिक और जीवाश्मित तीन प्रजातियों (ट्राइडेकना स्क्वामोसा, टी. मैक्सिमा और टी. स्क्वामोसिना) के कवच में विकास पट्टियों का विश्लेषण किया।

पाया गया कि आधुनिक विशाल सीप प्राचीन विशाल सीप की तुलना में तेज़ी से बढ़ती हैं। सीप के कवच के कार्बनिक पदार्थों के विश्लेषण से पता चला कि आधुनिक सीप प्रदूषण कारक नाइट्रेट को खाती है, जो सीप की कोशिकाओं पर रहने वाली सहजीवी शैवाल को भी बढ़ने में मदद करती है जिससे उन्हें अतिरिक्त र्इंधन मिल जाता है। इसके अलावा, ठंड कम होने और मौसमी तूफानों में कमी भी सीप के विकास में मदद करती है। लेकिन सीप की तेज़तर वृद्धि उनके समग्र स्वास्थ्य में सुधार को प्रतिबिंबित नहीं करती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पर्यावरण संकट और महात्मा गांधी – भारत डोगरा

लवायु बदलाव के संकट पर चर्चा चरम पर है। इस समस्या की गंभीरता के बारे में आंकड़े और अध्ययन तो निरंतर बढ़ रहे हैं, किंतु दुख व चिंता की बात है कि समाधान की राह स्पष्ट नहीं हो रही है।

इस अनिश्चय की स्थिति में महात्मा गांधी के विचारों को नए सिरे से टटोलना ज़रूरी है। उनके विचारों में मूलत: सादगी को बहुत महत्त्व दिया गया है, अत: ये विचार हमें जलवायु बदलाव तथा अन्य गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान की ओर भी ले जाते हैं।

जानी-मानी बात है कि जलवायु बदलाव के संकट को समय रहते नियंत्रित करने के लिए ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करना बहुत ज़रूरी है। यह अपने में सही बात है, पर इसके साथ एक अधिक व्यापक सच्चाई है कि केवल तकनीकी उपायों से ही पर्यावरण का संकट हल नहीं हो सकता है।

यदि कुछ तकनीकी उपाय अपना लिए जाएं, जीवाश्म र्इंधन को कम कर नवीकरणीय ऊर्जा को अधिक अपनाया जाए तो यह अपने आप में बहुत अच्छा व ज़रूरी बदलाव होगा। पर यदि साथ में सादगी व समता के सिद्धांत को न अपनाया गया, विलासिता व विषमता को बढ़ाया गया, छीना-छपटी व उपभोगवाद को बढ़ाया गया, तो आज नहीं तो कल, किसी न किसी रूप में पर्यावरण समस्या बहुत गंभीर रूप ले लेगी।

महात्मा गांधी के समय में ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कम करने की ज़रूरत तो नहीं महसूस की जा रही थी, पर उन्होंने उस समय ही पर्यावरण की समस्या का मर्म पकड़ लिया था जब उन्होंने कहा था कि धरती के पास सबकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए तो पर्याप्त संसाधन हैं, पर लालच को पूरा करने के लिए नहीं।

उन्होंने अन्याय व विषमता के विरुद्ध लड़ते हुए विकल्प के रूप में ऐसे सब्ज़बाग नहीं दिखाए कि सफलता मिलने पर तुम भी मौज-मस्ती से रहना। उन्होंने मौज-मस्ती और विलासिता को नहीं, मेहनत और सादगी को प्रतिष्ठित किया। सभी लोग मेहनत करें और इसके आधार पर किसी को कष्ट पहुंचाए बिना अपनी सभी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सकें व मिल-जुल कर रहें, सार्थक जीवन का यह बहुत सीधा-सरल रूप उन्होंने प्रस्तुत किया।

दूसरी ओर, आज अंतहीन आर्थिक विकास की ही बात हो रही है जबकि विषमता व विलासिता के विरुद्ध कुछ नहीं कहा जा रहा है। विकास के इस मॉडल में कुछ लोगों के विलासितपूर्ण जीवन के लिए दूसरों के संसाधन छिनते हैं व पर्यावरण का संकट विकट होता है। इसके बावजूद इस मॉडल पर ही अधिक तेज़ी से आगे बढ़ने को महत्व मिल रहा है। इस कारण विषमता बढ़ रही है, अभाव बढ़ रहे हैं, असंतोष बढ़ रहा है और हिंसा व युद्ध के बुनियादी कारण बढ़ रहे हैं।

जबकि गांधी की सोच में अहिंसा, सादगी, समता, पर्यावरण की रक्षा का बेहद सार्थक मिलन है। अत: धरती पर आज जब जीवन के अस्तित्व मात्र का संकट मौजूद है, मौजूदा विकास मॉडल के विकल्प तलाशने में महात्मा गांधी के जीवन व विचार से बहुत सहायता व प्रेरणा मिल सकती है।

जलवायु बदलाव व ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए कभी-कभी कहा जाता है कि ऊर्जा आवश्यकता को पूरा करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाए जाएं। पर खनन से लेकर अवशेष ठिकाने लगाने तक परमाणु ऊर्जा में भी खतरे ही खतरे हैं, गंभीर समस्याएं हैं। साथ में परमाणु बिजली उत्पादन के साथ परमाणु हथियारों के उत्पादन की संभावना का मुद्दा भी जुड़ा हुआ है। अत: जलवायु बदलाव के नियंत्रण के नाम पर परमाणु बिजली के उत्पादन में तेज़ी से वृद्धि करना उचित नहीं है।

इसी तरह कुछ लोग पनबिजली परियोजनाओं के बड़े बांध बनाने पर ज़ोर दे रहे हैं। लेकिन बांध-निर्माण से जुड़ी अनेक गंभीर सामाजिक व पर्यावरणीय समस्याएं पहले ही सामने आ चुकी हैं। कृत्रिम जलाशयों में बहुत मीथेन गैस का उत्सर्जन भी होता है जो कि एक ग्रीनहाऊस गैस है। अत: जलवायु बदलाव के नियंत्रण के नाम पर बांध निर्माण में तेज़ी लाना किसी तरह उचित नहीं है।

जलवायु बदलाव के नियंत्रण को प्राय: एक तकनीकी मुद्दे के रूप में देखा जाता है, ऐसे तकनीकी उपायों के रूप में जिनसे ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कम हो सके। यह सच है कि तकनीकी बदलाव ज़रूरी हैं पर जलवायु बदलाव का मुद्दा केवल इन तक सीमित नहीं है।

जलवायु बदलाव को नियंत्रित करने के लिए जीवन-शैली में बदलाव ज़रूरी है, व इसके साथ जीवन-मूल्यों में बदलाव ज़रूरी है। उपभोगवाद का विरोध ज़रूरी है, विलासिता, नशे, युद्ध व हथियारों की दौड़ व होड़ का विरोध बहुत ज़रूरी है। पर्यावरण पर अधिक बोझ डाले बिना सबकी ज़रूरतें पूरी करनी है तो न्याय व साझेदारी की सोच ज़रूरी है।

अत: जलवायु बदलाव नियंत्रण का सामाजिक पक्ष बहुत महत्वपूर्ण है। आज विश्व के अनेक बड़े मंचों से बार-बार कहा जा रहा है कि जलवायु बदलाव को समय रहते नियंत्रण करना बहुत ज़रूरी है, पर क्या मात्र कह देने से या आह्वान करने से समस्या हल हो जाएगी। वास्तव में लोग तभी बड़ी संख्या में इसके लिए आगे आएंगे जब आम लोगों में, युवाओं व छात्रों में, किसानों व मज़दूरों के बीच न्यायसंगत व असरदार समाधानों के लिए तीन-चार वर्षों तक धैर्य से, निरंतरता व प्रतिबद्धता से कार्य किया जाए। तकनीकी पक्ष के साथ सामाजिक पक्ष को समुचित महत्व देना बहुत ज़रूरी है।

एक अन्य सवाल यह है कि क्या मौजूदा आर्थिक विकास व संवृद्धि के दायरे में जलवायु बदलाव जैसी गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान हो सकता है? मौजूदा विकास की गंभीर विसंगतियां और विकृतियां ऐसी ही बनी रहीं तो क्या जलवायु बदलाव जैसी गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं नियंत्रित हो सकेंगी? इस प्रश्न का उत्तर है ‘नहीं’। वजह यह है कि मौजूदा विकास की राह में बहुत विषमता और अन्याय व प्रकृति का निर्मम दोहन है।

पहले यह कहा जाता था कि संसाधन सीमित है उनका सही वितरण करो। पर अब तो ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन से जुड़ी कार्बन की सीमा है। इस सीमा के अंदर ही हमें सब लोगों की ज़रूरतों को टिकाऊ आधार पर पूरा करना है। अत: अब विषमता को दूर करना, विलासिता व अपव्यय को दूर करना, समता व न्याय को ध्यान में रखना, भावी पीढ़ी के हितों को ध्यान में रखना पहले से भी कहीं अधिक ज़रूरी हो गया है।

सही व विस्तृत योजना बनाना इस कारण और ज़रूरी हो गया है कि ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को तेज़ी से कम करते हुए सब लोगों की बुनियादी ज़रूरतों को न्यायसंगत व टिकाऊ ढंग से पूरा करना है। यह एक बहुत बड़ी चुनौती है जिसके लिए बहुत रचनात्मक समाधान ढूंढने होंगे। जैसे, युद्ध व हथियारों की होड़ को समाप्त किया जाए या न्यूनतम किया जाए, बहुत बरबादीपूर्ण उत्पादन व उपभोग को समाप्त किया जाए या बहुत नियंत्रित किया जाए। पर्यावरण के प्रति समग्र दृष्टिकोण अपनाने से इन सभी प्रक्रियाओं में बहुत सहायता मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चंद्रमा के डगमगाने से बाढ़ों की संभावना – सुदर्शन सोलंकी

पिछली शताब्दी में वैश्विक समुद्र स्तर में वृद्धि हुई है और हाल के दशकों में इसकी दर तेज़ी से बढ़ रही है। यूएस नेशनल ओशेनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएएस) के अनुसार वर्ष 1880 और 2015 के बीच औसत वैश्विक समुद्र स्तर लगभग 22 से.मी. बढ़ा है। इसमें से एक-तिहाई वृद्धि तो पिछले 25 साल में ही हुई।

विश्व के वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन को लेकर अध्ययन करके संभावित नुकसान से बचने के लिए चेतावनियां भी जारी करते हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण ही प्राकृतिक आपदाओं की दुर्घटनाएं एवं विनाशकारिता बढ़ी है। वर्तमान में पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रही है। परंतु अब इसमें एक नया कारक जुड़ गया है।

नेचर क्लाइमेट चेंज में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी के साथ-साथ चंद्रमा की कक्षा डगमगाने से भी पृथ्वी पर विनाशकारी बाढ़ें आ सकती है। इस अध्ययन में यह पूर्वानुमान लगाया गया है कि अमेरिकी तटीय इलाकों में 2030 के दशक में उच्च ज्वार के कारण बाढ़ के स्तर में बढ़ोतरी होगी। नासा के अनुसार ये विनाशकारी बाढ़ें लगातार और अनियमित रूप से जनजीवन को प्रभावित करेगी। अमेरिका में तटीय क्षेत्र जो अभी महीने में सिर्फ दो या तीन बाढ़ का सामना करते हैं, वे अब एक दर्जन या उससे भी अधिक का सामना कर सकते हैं। अध्ययन में यह चेतावनी भी दी गई है कि यह बाढ़ पूरे साल प्रभावित नहीं करेगी बल्कि कुछ ही महीनों में बड़े पैमाने पर अपना असर दिखाएगी।

ज्वार आने में चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण की भूमिका होती है। गुरुत्वाकर्षण में उथल-पुथल उसकी कक्षा के डगमगाने से होता है। चंद्रमा की कक्षा में होने वाली इस तरह की डगमग को मून वॉबल कहते हैं, जिसे सन 1728 में खोजा गया था। एनओएएस के अनुसार वर्ष 2019 में अटलांटिक और खाड़ी तटों पर बाढ़ की 600 से ज़्यादा इस तरह की घटनाएं देखी गई थीं।

समुद्र के स्तर के साथ चंद्रमा की कक्षा के डगमगाने का जुड़ना अत्यधिक खतरनाक है। शोधकर्ताओं के अनुसार, चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण खिंचाव, समुद्र के बढ़ते स्तर और जलवायु परिवर्तन का संयोजन पृथ्वी पर समुद्र तटों और दुनिया भर में तटीय बाढ़ को बढ़ाता है। इस अध्ययन के प्रमुख लेखक और हवाई विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर फिल थॉम्पसन ने कहा है कि चंद्रमा की कक्षा में इस डगमग को एक चक्र पूरा करने में 18.6 वर्ष लगते हैं। नासा के अनुसार 18.6 सालों की आधी अवधि में पृथ्वी पर नियमित दैनिक ज्वार कम ऊंचे हो जाते हैं और बाकी आधी अवधि में ठीक इसका उलटा होता है।

नासा ने यह भी कहा कि जलवायु चक्र में अल-नीनो जैसी घटनाएं भी बाढ़ को बढ़ावा देंगी। नासा की जेट प्रपल्शन लेबोरेटरी के वैज्ञानिक बेन हैमलिंगटन ने कहा कि इस तरह की घटनाएं पूरे महीने होंगी। यह भी संभावना है कि साल के किसी एक हिस्से में बहुत ज़्यादा बाढ़ें आ जाएंगी। यह सबसे ज़्यादा अमेरिका को प्रभावित करेगा क्योंकि इस देश में तटीय पर्यटन स्थल बहुत ज़्यादा हैं। शोधकर्ताओं ने आगाह किया कि अगर देशों ने अभी से इससे निपटने की योजना शुरू नहीं की, तो तटीय बाढ़ से लंबे समय तक जीवन और आजीविका बुरी तरह प्रभावित होगी। (स्रोत फीचर्स)

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शिपिंग नियम: हवा तो स्वच्छ लेकिन जल प्रदूषण

हाल ही में हुआ अध्ययन बताता है कि जहाज़ों के ईंधन से होने वाले वायु प्रदूषण को कम करने के उद्देश्य से शिपिंग नियम में किए गए बदलावों के कारण जल प्रदूषण बढ़ा है। दरअसल नए नियमों के बाद अधिकांश जहाज़ मालिकों ने जहाज़ में स्क्रबिंग उपकरण लगा लिए हैं जो प्रदूषकों को पानी में रोक लेते हैं। फिर यह पानी समुद्र में फेंक दिया जाता है, जो प्रदूषण का कारण बन रहा है।

अध्ययन के अनुसार स्क्रबर से लैस लगभग 4300 जहाज़ हर साल कम से कम 10 गीगाटन अपशिष्ट जल समुद्र में, अक्सर बंदरगाहों और कोरल चट्टानों के पास छोड़ रहे हैं। लेकिन शिपिंग उद्योग का कहना है कि इस पानी में प्रदूषकों का स्तर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सीमा से अधिक नहीं हैं, और इससे नुकसान के भी कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। लेकिन कुछ शोधकर्ता अपशिष्ट जल इस तरह बहाए जाने से चिंतित हैं क्योंकि इसमें तांबा जैसी विषैली धातुएं और पॉलीसाइक्लिक एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन जैसे कैंसरजनक यौगिक होते हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक इस तरह की प्रणालियों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।

दरअसल, अंतर्राष्ट्रीय सामुद्रिक संगठन (आईएमओ) ने वर्ष 2020 में अम्लीय वर्षा और स्मॉग के लिए ज़िम्मेदार प्रदूषकों के उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य से जहाज़ों में अति सल्फर युक्त ईंधन के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया था। अनुमान था कि इससे सल्फर उत्सर्जन में 77 प्रतिशत तक की कमी आएगी, और बंदरगाहों व तटीय इलाकों के नज़दीक रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य को हानि से बचाया जा सकेगा।

लेकिन स्वच्छ ईंधन की लागत सल्फर-युक्त ईंधन से 50 प्रतिशत अधिक है। और नया नियम छूट देता है कि जहाज़ों में स्क्रबर लगा कर सल्फर-युक्त सस्ता ईंधन उपयोग किया जा सकता है। जहाज़रानी उद्योग के अनुसार वर्ष 2015 तक ढाई सौ से भी कम जहाज़ों में स्क्रबर लगे थे और वर्ष 2020 में इनकी संख्या बढ़कर 4300 से भी अधिक हो गई।

स्क्रबर पानी का छिड़काव कर प्रदूषकों को आगे जाने से रोक देता है। सबसे प्रचलित ओपन लूप स्क्रबर में प्रदूषक युक्त अपशिष्ट जल को बहुत कम उपचारित करके या बिना कोई उपचार किए वापस समुद्र में छोड़ दिया जाता है। अन्य तरह के स्क्रबर अपशिष्ट को कीचड़ के रूप में जमा करते जाते हैं और अंतत: भूमि पर फेंक देते हैं। अपशिष्ट जल की तुलना में इस दलदली अपशिष्ट की मात्रा कम होती है लेकिन इसमें प्रदूषक अधिक मात्रा में होते हैं।

इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्लीन ट्रांसपोर्टेशन के पर्यावरण नीति शोधकर्ता ब्रायन कॉमर और उनके दल ने स्क्रबर से लैस लगभग 3600 जहाज़ों का विश्लेषण करके पाया कि एक वर्ष में 10 गीगाटन से कहीं अधिक अपशिष्ट समुद्र में छोड़ा जा रहा है। यह अनुमान से बहुत अधिक है क्योंकि एक तो अनुमान से अधिक जहाज़ स्क्रबर लगा रहे हैं, और प्रत्येक जहाज़ का अपशिष्ट भी अनुमान से कहीं अधिक है।

2019 में जहाज़ों के मार्गों के एक अध्ययन में पता चला है कि व्यस्त मार्गों पर अधिक प्रदूषक अपशिष्ट बहाया जा रहा है, जैसे उत्तरी सागर और मलक्का जलडमरूमध्य। साथ ही यह प्रदूषण कई देशों के अपने एकाधिकार वाले आर्थिक मार्गों में भी दिखा।

पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में प्रदूषण मिलना चिंता का विषय है – जैसे ग्रेट बैरियर रीफ, जिसके नज़दीक से कोयला शिपिंग का मुख्य मार्ग है और यहां प्रति वर्ष लगभग 3.2 करोड़ टन अपशिष्ट बहाया जा रहा है।

समुद्री मार्गों पर ही नहीं, बंदरगाहों के पास भी काफी प्रदूषित अपशिष्ट बहाया जाता है, जिसमें सबसे अधिक योगदान पर्यटन जहाज़ों का है। 10 सबसे अधिक प्रदूषित बंदरगाहों में से सात बंदरगाहों में लगभग 96 प्रतिशत स्क्रबर-प्रदूषण पर्यटन जहाज़ों के कारण होता है क्योंकि इन जहाज़ों को किनारे पर भी अपने कैसीनो, गर्म पानी के पूल, एयर कंडीशनिंग और अन्य सुविधाओं को संचालित करने के लिए र्इंधन जलाना पड़ता है। बंदरगाहों पर पानी उथला होने के कारण समस्या और विकट हो जाती है।

इस पर क्लीन शिपिंग एलायंस 2020 सहित उद्योग संगठनों का कहना है कि अपशिष्ट जल के आंकड़े भ्रामक हैं। उनका तर्क है कि महत्व इस बात का है कि कचरे की विषाक्तता कितनी है, उसकी मात्रा का नहीं।

इस सम्बंध में कुछ शोधकर्ताओं ने स्क्रबर निष्कासित अपशिष्ट जल के समुद्री जीवन पर प्रभाव का परीक्षण किया। एनवायरमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि उत्तरी सागर में चलने वाले तीन जहाज़ों से निकलने वाले अपशिष्ट जल ने कोपेपॉड (कैलेनस हेल्गोलैंडिकस) के विकास को नुकसान पहुंचाया है। कोपेपॉड एक सूक्ष्म क्रस्टेशियन है जो अटलांटिक महासागर के खाद्य जाल का एक महत्वपूर्ण अंग है। बहुत कम प्रदूषण से भी कोपेपॉड की निर्मोचन प्रक्रिया बाधित हुई, और इनकी मृत्यु दर भी जंगली कोपेपॉड से तीन गुना अधिक देखी गई। ऐसे प्रभाव खाद्य संजाल को बुरी तरह प्रभावित कर सकते हैं।

अब शोधकर्ता स्क्रबर अपशिष्ट का प्रभाव मछलियों के लार्वा पर देखना चाहते हैं, क्योंकि वे कोपेपॉड की तुलना में अधिक संवेदनशील हैं। लेकिन शिपर्स वैज्ञानिकों के साथ नमूने और डैटा साझा करने में झिझक रहे हैं। क्लीन शिपिंग एलायंस 2020 के अध्यक्ष माइक कैज़मारेक का कहना है कि हम नमूने और डैटा उन संगठनों को देने के अनिच्छुक हैं जिनकी पहले से ही एक स्थापित धारणा है। हम सिर्फ उन समूहों के साथ डैटा साझा करेंगे जो तटस्थ रहकर काम करें। समाधान तो यही है कि जहाज़ों में स्वच्छ र्इंधन (मरीन गैस ऑइल) का उपयोग किया जाए। 16 देशों और कुछ क्षेत्रों ने सबसे प्रचलित स्क्रबर्स पर प्रतिबंध लगाया है, जिसके चलते स्क्रबर अपशिष्ट में चार प्रतिशत की कमी आई है। ऐसे कदम वैश्विक स्तर पर उठाने की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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अमेरिका में चार बांधों को हटाने का अभियान – भारत डोगरा

र्ष 2020 में संयुक्त राज्य अमेरिका में स्नेक नदी को यहां की सबसे अधिक संकटग्रस्त नदी घोषित किया गया। इसकी मुख्य वजह यह बताई गई है कि चार बांध बनने से इस नदी से जुड़े समस्त जीव संकटग्रस्त हो गए हैं।

इस नदी के इकोसिस्टम के केंद्र में साल्मन मछली है व इसके साथ 130 अन्य जीवों का जीवन जुड़ा है। आज से लगभग 100 वर्ष पहले इस नदी में साल्मन मछली की संख्या आज से लगभग 40-50 गुना अधिक थी। इसका जीवन-चक्र बहुत खूबसूरत व रोचक था। अंडों से मछली निकलने का स्थान पहाड़ों की सहायक नदियों के अधिक ठंडे व साफ क्षेत्र में तय रहा है। वहां से साल्मन की शिशु मछली तेज़ी से नीचे की ओर तैर कर मुख्य स्नेक नदी में आती है और फिर आगे बढ़ते हुए समुद्र में जाती रही है। मीठे पानी से खारे पानी में जाना इस मछली की वृद्धि से जुड़ा है। समुद्र में भरपूर जीवन बिताने के बाद लगभग 1500 किलोमीटर के इसी मार्ग से मछली पहले स्नेक नदी में व फिर उसी पर्वतीय ठंडे पानी वाली सहायक नदी में पहुंचती है जहां उसका जन्म हुआ था। यहां अंडे देने के बाद नया जीवन-चक्र शुरू होता है। कुछ समय बाद वह मछली मर जाती है।

लेकिन वर्ष 1955-75 के दो दशकों के दौरान स्नेक नदी के निचले हिस्से में चार बांध बना दिए गए जिनसे साल्मन मछली का यह मार्ग व इस पर आधारित जीवन-चक्र बुरी तरह प्रभावित हो गया। मार्ग अवरुद्ध कर रहे बांधों में फंसकर नदी से समुद्र की ओर जाने वाले लाखों साल्मन शिशु मरने लगे। वर्ष-दर-वर्ष यह जारी रहने से साल्मन की अनेक प्रजातियां बुरी तरह संकटग्रस्त हो गर्इं व इनके साथ इस इकोसिस्टम के अन्य जीव भी संकटग्रस्त हो गए।

कुछ समय पहले यहां के मूल निवासियों ने सबसे पहले साल्मन की रक्षा व इकोसिस्टम संरक्षण की मांग अधिक संजीदगी से उठानी आरंभ की व इसके लिए चारों बांधों को हटाने की मांग रखी। इन मूल निवासियों ने कहा कि उनका अपना जीवन भी नदी व इस मछली की रक्षा से जुड़ा है।

इस मांग को कुछ पर्यावरण संगठनों व स्थानीय नेताओं का समर्थन भी मिला तो इसने ज़ोर पकड़ा। इससे पहले इसी देश की एलव्हा नदी पर साल्मन व नदी की इकोसिस्टम की रक्षा के लिए दो बांध हटाए गए थे व इसी आधार पर स्नेक नदी से भी चारों बांध हटाने की मांग रखी गई।

दूसरी ओर कुछ लोगों ने कहा है कि उनके लिए बांधों से मिलने वाली बिजली अधिक ज़रूरी है। इसके जवाब में बांध हटाने की मांग रखने वालों ने ऊर्जा व कृषि विकास की वैकल्पिक राह सुझाई है।

आगे व्यापक सवाल यह है कि नदियों के इकोसिस्टम, उनमें रहने वाले जीवों की रक्षा के लिए पहले से बने बांधों को हटाने की मांग विश्व के अन्य देशों में कितना आगे बढ़ सकती है। कई वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों का मानना है कि यदि बांध से गंभीर क्षति होती है तो इसे हटाना उचित है। पर अभी अधिकांश सरकारें इस पर समुचित ध्यान नहीं दे रही है। उम्मीद है कि भविष्य में इस प्रश्न पर अधिक खुले माहौल में विचार हो सकेगा व जिस तरह के प्रयास आज स्नेक नदी के संदर्भ में हो रहे हैं उनसे ऐसा खुला माहौल बनाने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

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समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण पर बढ़ती चिंता

प्लास्टिक माउंट एवरेस्ट से लेकर अंटार्कटिका तक पहुंच चुका है। हर वर्ष, लाखों टन प्लास्टिक कचरा समुद्र में बहा दिया जाता है। इनमें से कुछ बड़े टुकड़े तो समुद्र में तैरते रहते हैं, कुछ छोटे कण समुद्र के पेंदे में पहुंच जाते हैं तो कुछ का ठिकाना समुद्र की गहरी खाइयों के क्रस्टेशियन जीवों तक में होता है।

पिछले कुछ वर्षों में समुद्री प्लास्टिक पर प्रकाशित शोध पत्रों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। राष्ट्र संघ की विज्ञान की स्थिति सम्बंधी एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 में यह संख्या 46 थी जो 2019 में बढ़कर 853 हो गई।

युनिवर्सिटी ऑफ काडिज़ के कारमेन मोराल्स कहते हैं कि धातुओं या कार्बन यौगिकों जैसे प्रदूषकों की तुलना में प्लास्टिक ज़्यादा नज़र आता है जिसके चलते यह जनता और नीति निर्माताओं का अधिक ध्यान आकर्षित करता है। वैज्ञानिक यह पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं कि यह प्लास्टिक कहां से आता है, कहां जाता है और पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करता है।

इन शोध प्रकाशनों में अभी भी ज़्यादा ध्यान समुद्र तटों, समुद्र के पेंदे या जंतुओं में प्लास्टिक की उपस्थिति पर दिया जा रहा है जबकि प्लास्टिक के रुाोतों और समाधानों पर काफी कम शोध पत्र प्रकाशित हो रहे हैं। हाल ही में मोराल्स और उनकी टीम ने विभिन्न अध्ययनों के डैटा के आधार पर कचरे से 1.2 करोड़ वस्तुओं की सूची तैयार की है जिनका आकार दो सेंटीमीटर से अधिक है। भोजन और पेय पदार्थों के पैकिंग में उपयोग होने वाली बोतलें, कंटेनर, रैपर और बैग्स कुल पर्यावरणीय कचरे का लगभग 44 प्रतिशत है।

प्लास्टिक प्रदूषण के पारिस्थितिकी प्रभाव को समझने के प्रयास भी चल रहे हैं। प्लास्टिक स्वयं तो अक्रिय पदार्थ हैं लेकिन इनमें अग्निरोधी पदार्थों और रंजकों के अलावा इन्हें लचीला और टिकाऊ बनाने के लिए योजक मिलाए जाते हैं। यही चिंता का कारण हैं। हानिकारक पॉलीसाइक्लिक एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन भी बहते प्लास्टिक से चिपककर पर्यावरण में प्रवेश कर सकते हैं।

इसके अलावा, माइक्रोप्लास्टिक कण प्लवकों के आकार के होते हैं जिन्हें समुद्री जंतु भोजन समझकर निगल लेते हैं। छोटे नैनोप्लास्टिक तो और अधिक हानिकारक हो सकते हैं जो ऊतकों में प्रवेश कर जाते हैं और सूजन का कारण बन सकते हैं। अभी तक प्लास्टिक के विषैले प्रभावों को ठीक तरह से समझा नहीं जा सका है और पर्यावरण में पाए जाने वाले प्लास्टिक जैसा सम्मिश्रण प्रयोगशाला में बनाना कठिन कार्य है।

एक समाधान के तौर पर 2018 से लेकर अब तक 127 देशों ने प्लास्टिक बैग का उपयोग नियंत्रित करने के लिए कानून पारित किए हैं। लेकिन कुछ रिपोर्ट के अनुसार प्लास्टिक पुनर्चक्रण की धीमी गति को देखते हुए ऐसे प्रतिबंध लगाना पर्याप्त नहीं है। इसके लिए जैव-विघटनशील विकल्प ज़रूरी हैं।

ऐसे में वनस्पति-आधारित हाइड्रोकार्बन से प्राप्त सामग्री पर अनुसंधान में काफी तेज़ी आई है। लेकिन इसकी रफ्तार अभी भी समस्या की विकरालता के सामने काफी धीमी है। प्लास्टिक के पर्यावरण विकल्पों पर प्रकाशन 2011 में 404 से बढ़कर 2019 में 1111 हो गए हैं। युनिवर्सिटी ऑफ साओ पाउलो के रासायनिक इंजीनियर इन दिनों कसावा स्टार्च से बायोडीग्रेडेबल प्लास्टिक विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं।       

कुछ वैज्ञानिक प्लास्टिक प्रदूषण और परमाणु कचरे की समस्या में समानता देखते हैं। कहा जाता था कि विज्ञान के विकास के साथ नाभिकीय अपशिष्ट निपटान की तकनीकें विकसित होती जाएंगी। लेकिन आज भी परमाणु कचरे के निपटान की तकनीकें समस्या से काफी पीछे ही हैं। (स्रोत फीचर्स)

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युरोपीय लोगों के आगमन से पर्यावरण को नुकसान

गभग पांच सौ वर्ष पूर्व युरोपीय खोजकर्ताओं ने न केवल कैरेबिया के मूल निवासियों के जीवन को तहस-नहस किया बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को भी काफी नुकसान पहुंचाया था। एक नए अध्ययन से पता चला है कि इस द्वीप पर रहने वाले लगभग 70 प्रतिशत सांप और छिपकलियां खत्म हो चुके हैं। इसके पीछे उपनिवेशकों के साथ आए बिल्ली, चूहों और रैकून को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार कमज़ोर प्रजातियों के लिए समस्याएं मनुष्यों के कारण नहीं बल्कि मनुष्यों की पर्यावरण से परस्पर क्रिया से उत्पन्न हुई हैं।

गौरतलब है कि पांडा जैसे लोकप्रिय जीवों की तुलना में छिपकली, सांप और अन्य सरिसृपों और उनके इतिहास के बारे में हम कम ही जानते हैं। फिर भी ऐसा माना जाता है कि ये प्रजातियां पारिस्थितिकी तंत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये जीव पौधों का परागण करते हैं, बीजों को फैलाते हैं, छोटे जीवों को खाते हैं और स्वयं भी बड़े जीवों द्वारा खाए जाते हैं। इनमें से कुछ तो धरती के नीचे बिलों में रहते हुए पूरे भूपटल को ही बदल देते हैं।

ऐसे में मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर साइंस ऑफ ह्यूमन हिस्ट्री के पुराजंतु वैज्ञानिक कोरंतन बुशातों ने कैरेबिया की संवेदनशील जैव विविधता के अध्ययन हेतु अपने सहयोगियों के साथ पूर्वी कैरेबिया स्थित गुआदेलूप के छह द्वीपों पर पहले से खुदाई की गई गुफाओं का अध्ययन किया। ये छह द्वीप पूर्व में फ्रांस के अधीन थे। टीम ने गुफाओं के फर्श की विभिन्न परतों को हटाते हुए हड्डियों के हज़ारों टुकड़े एकत्रित किए जिनमें से कुछ तो तीन मिलीमीटर से भी छोटे थे।  

खोजे गए 43,000 जीवाश्मों में से शोधकर्ताओं ने 16 विभिन्न प्रकार की छिपकलियों और सांपों की पहचान की। जीवाश्मों को चार समूहों में विभाजित किया गया: 32,000 से 11,000 वर्ष पुराने, 11,650 से 2540 वर्ष पुराने, 2450 से 458 वर्ष पुराने (वह अवधि जब मूल निवासी बस चुके थे लेकिन युरोपीय नहीं पहुंचे थे) और 458 से वर्तमान समय तक।

साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक द्वीप पर 11,000 वर्ष पूर्व चार प्रकार के सांप और पांच प्रकार की छिपकलियां पाई जाती थीं जो अब नहीं पाई जातीं। इनकी जगह छिपकलियों की चार अन्य प्रजातियों ने ली, जिनमें से दो प्रजातियां लगभग 2000 वर्ष पूर्व प्रकट हुई थीं जबकि अन्य दो युरोपियों के आगमन के बाद। संभावना है कि ये कैरेबिया के अन्य हिस्सों से आई हैं। बुशातों और उनकी टीम ने गुआदेलूप में छिपकलियों और सांपों के 40,000 वर्ष के जैव विकास इतिहास पर ध्यान दिया। उन्होंने पाया कि 1493 में क्रिस्टोफर कोलंबस के आने से पूर्व कैरेबिया में 13 सरिसृप प्रजातियां उपस्थित थीं। जलवायु परिवर्तन और मूल निवासियों की उपस्थिति उनके लिए कोई समस्या नहीं रही।

लेकिन इनकी लगभग आधी आबादी युरोपीय लोगों के आने के बाद गायब हो गई, जिनमें सांप की तीन और छिपकलियों की पांच प्रजातियां थीं। कुछ द्वीपों पर तो 70 प्रतिशत तक सरिसृप प्रजातियां खत्म हो गर्इं। ऐसी आशंका है कि छिपकलियां या तो युरोपीय लोगों द्वारा लाए गए आक्रामक जीवों का शिकार हो गर्इं या फिर गन्ने की खेती के कारण उन्होंने अपना प्राकृतवास खो दिया।

हालांकि, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि इस तरह की क्षति का पारिस्थितिकी तंत्र पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। इस निष्कर्ष से वैज्ञानिकों के बीच प्रचलित एक आम सिद्धांत को बल मिलता है कि जब तक देशज लोगों ने अपनी पारंपरिक प्रथाओं के साथ भूमि प्रबंधन किया है, तब तक जैव विविधता भी मनुष्यों के साथ-साथ सहजता से उपस्थित रह सकी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अमेरिकी शहद में परमाणु बमों के अवशेष

हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार लगभग पांच दशक पूर्व किए परमाणु बम परीक्षणों के अवशेष आज भी दिखाई दे रहे हैं। शोधकर्ताओं ने शहद में रेडियोधर्मी तत्व मौजूद पाया है। हालांकि शहद में रेडियोधर्मी तत्व का स्तर खतरनाक नहीं है, लेकिन अंदाज़ है कि 1970-80 के दशक में यह स्तर काफी अधिक रहा होगा।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका, पूर्व सोवियत संघ और अन्य कई देशों ने सैकड़ों परमाणु बम परीक्षण धरती की सतह पर किए थे। इन बमों से रेडियोधर्मी सीज़ियम निकला और ऊपरी वायुमंडल में पहुंचा। हवाओं ने इसे दुनिया भर में फैलाया, हालांकि हर जगह यह एक समान मात्रा में नहीं फैला था। उदाहरण के लिए, क्षेत्रीय हवाओं और वर्षा के पैटर्न के कारण अमेरिका के पूर्वी तट पर बहुत अधिक रेडियोधर्मी कण पहुंचे।

रेडियोधर्मी सीज़ियम पानी में घुलनशील है, और चूंकि इसके रासायनिक गुण पोटेशियम के समान हैं इसलिए पौधे इसे पोटेशियम मानकर उपयोग कर लेते हैं। यह देखने के लिए कि क्या अब भी पौधों में यह परमाणु संदूषण पहुंच रहा है, विलियम एंड मैरी कॉलेज के भूविज्ञानी जेम्स कास्ट ने विभिन्न स्थानों के स्थानीय खाद्य पदार्थों में रेडियोधर्मी सीज़ियम की जांच की।

उत्तरी कैरोलिना से लिए गए शहद के नमूनों के परिणाम आश्चर्यजनक थे। उन्हें इस शहद में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर अन्य खाद्य पदार्थों की तुलना में 100 गुना अधिक मिला। यह जानने के लिए कि क्या पूर्वी यूएस में मधुमक्खियां पौधों से मकरंद लेकर शहद बना रही हैं, और सीज़ियम का सांद्रण कर रही हैं, उनकी टीम ने पूर्वी यूएस के विभिन्न स्थानों से शहद के 122 नमूने एकत्रित किए और उनमें रेडियोधर्मी सीज़ियम का मापन किया। उन्हें 68 नमूनों में प्रति किलोग्राम 0.03 बेकरेल से अधिक रेडियोधर्मी सीज़ियम मिला (यानी लगभग एक चम्मच शहद में 8,70,000 रेडियोधर्मी सीज़ियम परमाणु)। सबसे अधिक (19.1 बेकरेल प्रति किलोग्राम) रेडियोधर्मी सीज़ियम फ्लोरिडा से प्राप्त नमूने में मिला।

नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक परमाणु बम परीक्षण स्थल से हज़ारों किलोमीटर दूर और बम परीक्षण के 50 साल बाद तक रेडियोधर्मी तत्व पौधों और जानवरों के माध्यम से पर्यावरण में घूम रहा है। हालांकि अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने स्पष्ट किया है यह स्तर चिंताजनक नहीं है। यह सुरक्षित स्तर (1200 बेकरेल प्रति किलोग्राम) से बहुत कम है।

समय के साथ रेडियोधर्मी तत्वों की मात्रा कम होती जाती है। इसलिए भले ही वर्तमान में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर कम है, लेकिन पूर्व में यह स्तर काफी अधिक रहा होगा। पूर्व में यह मात्रा कितनी होगी यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने दूध के नमूनों में सीज़ियम का स्तर मापा, और संग्रहालय में रखे पौधों के नमूनों का विश्लेषण किया। शोधकर्ताओं ने पाया कि 1960 के दशक के बाद से दोनों तरह के नमूनों में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर बहुत कम हुआ है, और कमी आने की यही प्रवृत्ति शहद में भी रही होगी। अनुमान है कि 1970 के दशक में शहद में सीज़ियम का स्तर मौजूदा स्तर से 10 गुना अधिक रहा होगा। सवाल उठता है कि पिछले 50 सालों में रेडियोधर्मी सीज़ियम ने मधुमक्खियों को किस तरह प्रभावित किया होगा? कीटनाशकों के अलावा अन्य मानव जनित प्रभाव भी इनके अस्तित्व को खतरे में डाल सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तीन अरब साल पहले आए थे एरोबिक सूक्ष्मजीव

हाल ही में विभिन्न कुलों के सूक्ष्मजीवों के आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला है कि ऑक्सीजन में सांस लेने वाले या कम से कम इसका उपयोग करने वाले सबसे पहले जीव 3.1 अरब साल पहले अस्तित्व में आए थे। यह खोज इसलिए चौंकाती है क्योंकि पृथ्वी को ऑक्सीजनमय करने वाली महान ऑक्सीकरण घटना तो इसके लगभग 50 करोड़ वर्ष बाद शुरू हुई थी।

ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले प्रोटीनों का अस्तित्व में आना, ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले सूक्ष्मजीवों के उद्भव में एक महत्वपूर्ण कदम था। और अनॉक्सी जीवों से लदी पृथ्वी का अधिकांशत: ऑक्सी जीवों वाली पृथ्वी में परिवर्तित होना जीवन का एक अहम नवाचार था।

वैज्ञानिक इस बात से तो सहमत हैं कि पृथ्वी का प्रारंभिक वायुमंडल और महासागर ऑक्सीजन रहित थे। लेकिन ऐसे संकेत मिले हैं जो बताते हैं कि इस समय भी पृथ्वी पर कुछ मात्रा में तो ऑक्सीजन मौजूद थी। जैसे वैज्ञानिकों ने लगभग 3 अरब साल पहले के ऐसे खनिज भंडार खोजे हैं जो सिर्फ ऑक्सीजन की उपस्थिति में बन सकते थे। इसके अलावा कुछ साक्ष्य बताते हैं कि अपशिष्ट उत्पाद के रूप में ऑक्सीजन छोड़ने वाले सबसे पहले प्रकाश संश्लेषक जीव, सायनोबैक्टीरिया, भी 3.5 अरब साल पहले अस्तित्व में आए थे। वे इस ऑक्सीजन का उपयोग नहीं करते थे।

लेकिन इस पर आपत्ति यह है कि यदि ऑक्सीजन उत्पादक और उपयोगकर्ता इतनी जल्दी आए होते तो वे पूरी पृथ्वी पर तेज़ी से फैल गए होते, क्योंकि ऑक्सीजन का उपयोग भोजन से अधिक ऊर्जा प्राप्त करने में मदद करता है। लेकिन महान ऑक्सीकरण की घटना 2.4 अरब साल पूर्व से पहले शुरू नहीं हुई थी।

ताज़ा अध्ययन में वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के जैव-रसायनज्ञ डैन तौफीक और उनके साथियों ने केंद्रक-पूर्व जीवों के 130 कुलों के जीनोम का विश्लेषण किया। उन्होंने एक वंश वृक्ष बनाया जो लगभग 700 ऑक्सीजन निर्माता या उपयोगकर्ता एंज़ाइम्स पर आधारित था। इससे उन्होंने प्रोटीन में उत्परिवर्तन दर पता की और इसकी मदद से एक आणविक घड़ी तैयार की ताकि यह देखा जा सके कि प्रत्येक एंज़ाइम कब विकसित हुआ था। 130 कुलों में से सिर्फ 36 कुलों के विकसित होने का समय निर्धारित किया जा सका।

नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में शोधकर्ता बताते हैं कि 3 अरब से 3.1 अरब साल पहले ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले सूक्ष्मजीव कुलों में अचानक उछाल आया था। इस समय 36 कुल में से 22 कुल के सूक्ष्मजीव विकसित हुए जबकि 12 कुल के सूक्ष्मजीव इसके बाद और दो कुल के सूक्ष्मजीव इसके पहले अस्तित्व में आए थे। और इन्हीं सूक्ष्मजीवों से ऐसे सूक्ष्मजीव विकसित हुए जो ऑक्सीजन का उपयोग कर भोजन से अधिक ऊर्जा हासिल करने में सक्षम थे।

यदि यह बदलाव लगभग 3 अरब साल पहले आया था तो स्पष्ट है कि ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले जीव तुरंत ही पूरी पृथ्वी पर नहीं फैले थे, बल्कि ऑक्सीजन के उपयोग की क्षमता छोटे-छोटे इलाकों में विकसित हुई थी जो धीरे-धीरे करोड़ों सालों के दरम्यान फैलती गई।

फिर भी कुछ लोगों का कहना है कि आणविक घड़ी से काल निर्धारण का विज्ञान अभी विकसित ही हो रहा है इसलिए घटनाओं का क्रम शायद सही हो सकता है, लेकिन घटनाओं का वास्तविक समय भिन्न हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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पर्यावरण अनुकूल प्लास्टिक बनाने का प्रयास

प्लास्टिक एक बड़ी पर्यावरण समस्या है। सामान्य प्लास्टिक बनाने में एथीलीन और कार्बन मोनोऑक्साइड जैसे जिन शुरुआती पदार्थों का उपयोग होता है उन्हें बनाने में जीवाश्म र्इंधन की काफी खपत होती है और काफी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन भी होता है। हालिया वर्षों में रसायनज्ञों ने ऐसे विद्युत रासायनिक सेल तैयार किए हैं जो नवीकरणीय बिजली का उपयोग करते हुए पानी और औद्योगिक प्रक्रियाओं से प्राप्त अपशिष्ट कार्बन डाईऑक्साइड से प्लास्टिक के लिए कच्चा माल प्रदान कर सकते हैं। लेकिन इसे पर्यावरण अनुकूल बनाने में अभी भी काफी समस्याएं हैं। आम तौर पर ये सेल काफी मात्रा में क्षारीय पदार्थों की खपत करते हैं जिन्हें बनाने में काफी उर्जा खर्च होती है।

इसके लिए युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के रसायनज्ञ पायडोंग यैंग की टीम और एक अन्य समूह ने इस क्षारीय बाधा को हल करने के प्रयास किए। एक टीम ने दो विद्युत रासायनिक सेल को जोड़कर समस्या को हल किया है, वहीं दूसरे समूह ने क्षारों के बिना वांछित रसायन प्राप्त करने के लिए एंज़ाइमनुमा उत्प्रेरक प्रयुक्त किया है।

वर्तमान में कंपनियां पेट्रोलियम के बड़े हाइड्रोकार्बन से उच्च दाब में अत्यधिक गर्म भाप का उपयोग करके मीठी-महक वाली एथीलीन गैस का उत्पादन करती हैं। इस प्रक्रिया का उपयोग कई दशकों से किया जा रहा है जिससे एथीलीन का उत्पादन लगभग 72,000 रुपए प्रति टन के हिसाब से होता है। लेकिन इससे प्रति वर्ष 20 करोड़ टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन भी होता है जो वैश्विक उत्सर्जन का लगभग 0.6 प्रतिशत है। विद्युत-रासायनिक सेल अधिक पर्यावरण अनुकूल विकल्प प्रदान करते हैं। ये उत्प्रेरकों को बिजली प्रदान करते हैं जो वांछित रसायनों का निर्माण करते हैं।

दोनों सेल में दो इलेक्ट्रोड और उनके बीच इलेक्ट्रोलाइट भरा होता है जो आवेशित आयनों को एक से दूसरे इलेक्ट्रोड तक पहुंचाता है। विद्युत-रासायनिक सेल में कार्बन डाईऑक्साइड और पानी कैथोड पर प्रतिक्रिया करके एथीलीन और अन्य हाइड्रोकार्बन बनाते हैं। सेल के इलेक्ट्रोलाइट में पोटेशियम हाइड्रॉक्साइड मिलाया जाता है ताकि कम वोल्टेज पर ही रसायनिक परिवर्तन हो सके और ऊर्जा दक्षता बढ़ सके। इससे अधिकांश बिजली का उपयोग हाइड्रोकार्बन निर्माण में हो पाता है।

लेकिन स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के इलेक्ट्रोकेमिस्ट मैथ्यू कानन ने पोटेशियम हाइड्रॉक्साइड के उपयोग को लेकर एक समस्या की ओर ध्यान खींचा है। वास्तव में कैथोड पर हाइड्रॉक्साइड आयन कार्बन डाईऑक्साइड के साथ क्रिया करके कार्बोनेट का निर्माण करता है। यह कार्बोनेट ठोस पदार्थ के रूप में जमा होता रहता है। इस कारण हाइड्रॉक्साइड की निरंतर पूर्ति करना पड़ती है। दिक्कत यह है कि हाइड्रॉक्साइड के निर्माण में काफी उर्जा खर्च होती है।     

इसके समाधान के लिए कानन और उनके सहयोगियों ने कार्बन डाईऑक्साइड की जगह कार्बन मोनोऑक्साइड का उपयोग किया जो हाइड्रॉक्साइड से क्रिया करके कार्बोनेट में परिवर्तित नहीं होती है। उन्होंने इस सेल को अधिक कुशल पाया। इसमें उत्प्रेरक को प्रदत्त 75 प्रतिशत इलेक्ट्रॉन ने एक कार्बनिक यौगिक एसीटेट का निर्माण किया जिसे औद्योगिक सूक्ष्मजीवों के आहार के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इसमें बस एक समस्या है कि कार्बन मोनोऑक्साइड के लिए जीवाश्म र्इंधन की आवश्यकता होती है जो पर्यावरण के लिए हानिकारक है।

इसके बाद युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के रसायनयज्ञ और उनकी टीम ने कुछ प्रयास किए हैं। उन्होंने बाज़ार में उपलब्ध ठोस ऑक्साइड विद्युत-रासायनिक सेल का उपयोग किया जो उच्च तापमान पर कार्बन डाईऑक्साइड को कार्बन मोनोऑक्साइड में परिवर्तित करती है और नवीकरणीय बिजली का उपयोग करती है। इस प्रक्रिया में विद्युत-रासायनिक सेल के उत्प्रेरक को इस तरह तैयार किया जाता है कि वे कार्बन मोनोऑक्साइड के संपर्क में आने पर एथीलीन का निर्माण करें। यह एसीटेट से अधिक उपयोगी रसायन है। जूल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह सेल हाइड्रॉक्साइड का उपयोग नहीं करती और एथीलीन का निर्माण होता है।

इसके अलावा यैंग और उनके सहयोगियों ने क्षारीयता की समस्या को सुलझाने का एक और तरीका खोजा है। उन्होंने क्षारीय विद्युत-रासायनिक सेल के उत्प्रेरक को इस तरह से डिज़ाइन किया है कि पानी और हाइड्रॉक्साइड कार्बन डाईऑक्साइड के टूटने के स्थान पर नहीं पहुंच पाते। तो कार्बोनेट भी नहीं बनता। लेकिन ये सेल अभी भी कार्बन मोनोऑक्साइड और पानी से प्राप्त हाइड्रोजन को एथीलीन व अन्य हाइड्रोकार्बन में परिवर्तित नहीं करती।

लेकिन इस शोध का पूरा दारोमदार सिर्फ विद्युत रासायनिक सेल पर नहीं है। जैसे-जैसे पवन/सौर उर्जा का उत्पादन बढ़ रहा है, नवीकरणीय ऊर्जा सस्ती होती जा रही है। सस्ती ऊर्जा से विद्युत रासायनिक सेल की दक्षता में सुधार होगा और यह एथीलीन उत्पादन के मामले में जीवाश्म र्इंधन के समकक्ष आ जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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