प्रलय टालने के लिए ज़रूरी विश्वस्तरीय कदम – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

सूर्य से आने वाले विकिरण के कारण पृथ्वी और उसके चारों ओर मौजूद वायुमंडल गर्म हो जाता है। होता यह है कि पृथ्वी की सतह से वापिस निकलने वाली ऊष्मा को वायुमंडल में मौजूद कुछ गैसें, जैसे कार्बन डाईऑक्साइड, सोख लेती हैं और इसे वापस पृथ्वी पर भेज देती हैं। इस तरह समुद्र और भूमि सहित पूरी पृथ्वी पर मनुष्यों और अन्य जीवों के रहने के लिए आरामदायक या अनुकूल तापमान बना रहता है। तो हम एक विशाल ‘ग्रीनहाउस’ में रहते हैं।

लेकिन तब क्या होगा जब ग्रीनहाउस गैसें वायुमंडल में एक निश्चित सीमा से अधिक हो जाएंगी? ऐसा होने पर तापमान में वृद्धि होगी। और यह वृद्धि मूलत: कार्बन उत्सर्जन करने वाले र्इंधन जैसे कोयला, लकड़ी, पेट्रोलियम आदि जलाने के फलस्वरूप बनने वाली कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य गैसों के वायुमंडल में बढ़ते स्तर के कारण होती है। सिर्फ पिछले सौ वर्षों में वैश्विक तापमान में लगभग 2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। और यदि हमने इन र्इंधनों का उपयोग बंद या कम करके, ऊर्जा के अन्य विकल्पों (जैसे सौर, पवन वगैरह) को नहीं अपनाया तो वैश्विक तापमान इसी तरह बढ़ता जाएगा।

पिछले कुछ समय में हम बढ़ते तापमान के परिणाम हिमच्छदों (आइस कैप्स) और ग्लेशियरों के पिघलने के रूप में देख चुके हैं, जिसके फलस्वरूप समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। समुद्रों के बढ़ते जलस्तर के चलते मालदीव और मॉरीशस जैसे द्वीप-राष्ट्र जलमग्न हो सकते हैं। बढ़ते तापमान से वैश्विक जलवायु में परिवर्तन आया है जिससे अनिश्चित मानसून, चक्रवात, सुनामी, एल-नीनो प्रभावित हुए। इसके अलावा भूमि और समुद्र दोनों ही जगह पर जीवन (मछलियां, शैवाल, मूंगा चट्टानें) भी प्रभावित हुआ है।

बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन से सिर्फ कुछ देश नहीं बल्कि पूरी धरती ही प्रभावित हो रही है। इस धरती पर मानव, जंतु, पेड़-पौधे, मछलियां, सूक्ष्मजीव सहित विभिन्न प्रजातियां रहती हैं। यदि बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण नहीं किया गया तो पृथ्वी पर मौजूद समस्त जीवन पर संकट गहराता जाएगा। जलवायु परिवर्तन के साथ निरंतर औद्योगिक खेती और मत्स्याखेट के चलते कुछ ही दशकों में पृथ्वी से लगभग दस लाख प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी।

पेरिस समझौता 2015

इस तबाही को रोकने के लिए राष्ट्र संघ ने विश्व के देशों को एकजुट किया और 2015 में पेरिस समझौता पारित किया, जिसके तहत सभी देशों को मिलकर प्रयास करना था कि वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री से अधिक की वृद्धि न हो। पेरिस समझौते पर दुनिया के लगभग 195 देशों ने हस्ताक्षर किए थे और इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ज़रूरी कदम उठाने का वादा किया था, लेकिन कुछ तेल निर्माता या निर्यात करने वाले देश जैसे टर्की, सीरिया, ईरान और अमेरिका इससे पीछे हट गए। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प का तो कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन कोरी कल्पना है।

इस बारे में हमें 2 कदम तत्काल उठाने की ज़रूरत है। पहले तो कार्बन उत्सर्जन करने वाले र्इंधन के उपयोग को समाप्त नहीं तो कम करके इनकी जगह अन्य वैकल्पिक ऊर्जा रुाोतों का उपयोग करना होगा, जो ग्रीन हाऊस गैस का उत्सर्जन नहीं करते (जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा)।

दूसरा, कार्बन डाईऑक्साइड को प्राकृतिक रूप से सोखने के तरीकों को बढ़ावा देना होगा। और यह काम जंगल और पेड़-पौधे बहुत अच्छे से करते हैं। पानी में शैवाल, तटीय इलाके के मैंग्रोव, जमीन पर उगने वाली फसलें और वन सभी तरह के पौधे प्रकाश संश्लेषण करते हैं। ये वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड लेकर ऑक्सीजन छोड़ते हैं। ऊष्णकटिबंधीय वन यह काम बेहतर करते हैं। इसलिए अमेज़न, अफ्रीका और भारत में हो रही वनों की अंधाधुंध कटाई को बंद किया जाना चाहिए। इन क्षेत्रों में वनस्पतियों, जानवरों और कवकों की 20 करोड़ से अधिक प्रजातियां रहती हैं। इसलिए इन्हें प्रमुख जैव विविधता क्षेत्र (Key Biodiversity Areas) कहा जाता है। इसी तरह समुद्री संरक्षण क्षेत्र (Marine Protection Areas) भी हैं। ये जैव विविधता को बहाल करते हैं और उसकी रक्षा करते हैं, पैदावार बढ़ाते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र के बचाव और सुरक्षा को सुदृढ़ करते हैं। केवल ये क्षेत्र 2020 तक लगभग 17 प्रतिशत भूमि और 10 प्रतिशत जलीय क्षेत्र का संरक्षण करेंगे और लाखों प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाएंगे। लेकिन आने वाले सालों में हमें इससेअधिक करने की ज़रूरत है।

वैश्विक प्रकृति समझौता

इन्ही सब बातों को ध्यान में रखते हुए विश्व के वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के समूह ने पेरिस समझौते का एक सह-समझौता प्रस्तावित  किया है जिसे उन्होंने नाम दिया है: ‘प्रकृति के लिए वैश्विक समझौता: मार्गदर्शक सिद्धांत, पड़ाव और लक्ष्य’। यह नीति दस्तावेज़ साइंस एडवांसेस पत्रिका के 19 अप्रैल 2019 के अंक में प्रकाशित हुआ है। पर्यावरण और पर्यावरणीय मुद्दों से सरोकार रखने वाले प्रत्येक नागरिक और सरकार को यह नीति दस्तावेज़ अवश्य पढ़ना चाहिए। प्रकृति के लिए समझौते के पांच मूलभूत लक्ष्य हैं: (1) स्थानीय पारिस्थितिक तंत्रों की सभी किस्मों और अवस्थाओं तथा उनमें प्राकृतिक विविधता का निरूपण; (2) ‘प्रजातियों को बचाना’ अर्थात स्थानीय प्रजातियों की आबादियों को उनके प्राकृतिक बाहुल्य और वितरण के मुताबिक बनाए रखना; (3) पारिस्थितिक कार्यों और सेवाओं को बनाए रखना; (4) प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र द्वारा कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषण को बढ़ावा देना; और (5) जलवायु परिवर्तन को संबोधित करना ताकि वैकासिक प्रक्रियाओं को बनाए रखा जा सके और जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल बनाया जा सके।

इन पांच लक्ष्यों की तीन मुख्य थीम हैं। पहली थीम है जैव विविधता को बचाना। इसके तहत विश्व के 846 पारिस्थितिकी क्षेत्रों को चुना गया है और बताया गया है कि साल 2030 तक इन क्षेत्रों को कम से कम 30 प्रतिशत तक कैसे बचाया जाए। दूसरी थीम है जलवायु परिवर्तन को रोकना। इसके अंतर्गत कार्बन संग्रहण क्षेत्र और संरक्षण के अन्य क्षेत्र-आधारित उपायों की मदद से जलवायु परिवर्तन को कम करना शामिल है। इसके तहत विश्व के मौजूदा क्षेत्रों (जैसे टुंड्रा, वर्षावन) के लगभग 18 प्रतिशत क्षेत्र को जलवायु स्थिरीकरण क्षेत्र की तरह संरक्षित करना और लगभग 37 प्रतिशत क्षेत्र (जैसे अमेज़न कछार, कॉन्गो कछार, उत्तर-पूर्वी एशिया वगैरह में देशज लोगों की ज़मीनों) को क्षेत्र-आधारित उपायों की तरह संरक्षित करना। तीसरी थीम है, पारिस्थितिकी के खतरों को कम करना और इसका मुख्य सरोकार प्रमुख खतरों जैसे अत्यधिक मत्स्याखेट, वन्यजीवों का व्यापार, नई सड़कों के लिए जंगल कटाई, बड़े बांध बनाने जैसे जोखिमों को कम करने से है।

हम कर सकते हैं

इन उदेश्यों को पूरा करने में सालाना तकरीबन सौ करोड़ डॉलर का खर्च आएगा। और यह खर्चा दुनिया के 200 देशों (साथ ही प्रायवेट सेक्टर) को मिलकर करना है। यदि हम इस धरती को आने वाली पीढ़ी, जीवों और वनस्पतियों (जो पिछले 55 करोड़ वर्ष से पृथ्वी को समृद्ध बनाए हुए हैं) के लिए रहने लायक छोड़कर जाना चाहते हैं तो यह राशि बहुत अधिक नहीं है। और यदि कोई इस कार्य में लगाई गई लागत का लाभ जानना चाहता है तो उपरोक्त पेपर में बताया गया है कि जैव-विविधता संरक्षण से समुद्री खाद्य उद्योग का सालाना लाभ 50 अरब डॉलर तक हो सकता है और बाढ़ के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई से बीमा उद्योग सालाना 52 अरब डॉलर की बचत कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नई सौर तकनीक से स्वच्छ पेयजल का उत्पादन

युनिसेफ के अनुसार, दुनिया भर में  78करोड़ से ज़्यादा लोगों (हर 10 में से एक) के पास साफ पेयजल उपलब्ध नहीं है। ये लोग प्रतिदिन कुल मिलाकर 20 करोड़ घंटे दूर-दूर से पानी लाने में खर्च करते हैं। भले ही दूषित पानी को शुद्ध करने के लिए तकनीकें मौजूद हैं, लेकिन महंगी होने के कारण ये कई समुदायों की पहुंच से परे है।

टैंकनुमा उपकरण (सोलर स्टिल) में रखे गंदे पानी को वाष्पन की मदद से साफ करने की प्रक्रिया काफी समय से उपयोग की जा रही है। सोलर स्टिल पानी से भरा एक काला बर्तन होता है जिसे कांच या प्लास्टिक से ढंक दिया जाता है। काला बर्तन धूप को सोखकर पानी को गर्म करके वाष्प में बदलता है और दूषित पदार्थों को पीछे छोड़ देता है। वाष्पित पानी को संघनित करके जमा कर लिया जाता है।

लेकिन इसका उत्पादन काफी कम है। धूप से पूरा पानी गर्म होने तक वाष्पीकरण की प्रक्रिया शुरू नहीं होती।  एक वर्ग मीटर सतह हो तो एक घंटे में 300 मिलीलीटर पानी का उत्पादन होता है। व्यक्ति को पीने के लिए एक दिन में औसतन  3 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। एक छोटे परिवार के लिए पर्याप्त पानी के लिए लगभग 5 वर्ग मीटर सतह वाला बर्तन चाहिए।

टेक्सास विश्वविद्यालय, ऑस्टिन के पदार्थ वैज्ञानिक गुहुआ यू और सहयोगियों ने हाल ही में इसके लिए एक रास्ता सुझाया है। इसमें हाइड्रोजेल और पोलीमर के मिश्रण से बना एक छिद्रमय जल-अवशोषक नेटवर्क होता है। टीम ने इस तरह का एक स्पंज तैयार किया जो दो पोलीमर से मिलकर बना है – एक पानी को बांधकर रखने वाला (पीवीए) और दूसरा प्रकाश सोखने वाला (पीपीवाय)। स्पंज को सौर स्टिल में पानी की सतह के ऊपर रखा जाता है।

स्पंज में पानी के अणुओं की एक परत पीवीए से हाइड्रोजन बांड के ज़रिए कसकर बंधी होती है। लेकिन पीवीए के साथ बंधे होने के कारण पानी के अणु आस-पास के अन्य पानी के अणुओं से शिथिल रूप से बंधे होते हैं। इन कमज़ोर रूप से जुड़े पानी के अणुओं को यू ‘मध्यवर्ती पानी’ कहते हैं। ये अपने आसपास के अणुओं के साथ कम बंधन साझा करते हैं, इसलिए वे अधिक तेज़ी से वाष्पित होते हैं। इनके वाष्पित होते ही स्टिल में मौजूद पानी के अन्य अणु इनकी जगह ले लेते हैं। नेचर नैनोटेक्नॉलॉजी में पिछले वर्ष प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इस तकनीक का उपयोग करते हुए, यू ने एक घंटे में प्रति वर्ग मीटर 3.2 लीटर पानी का उत्पादन किया था।

अब यू की टीम ने इसे और बेहतर बनाया है। उन्होंने स्पंज में चिटोसन नाम का एक तीसरा पोलीमर जोड़ा है जो पानी को और भी मज़बूती से पकड़ता करता है। इसको मिलाने से मध्यवर्ती पानी की मात्रा में वृद्धि होती है। साइंस एडवांसेज़ की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार नए स्पंज के उपयोग से 1 वर्ग मीटर से प्रतिदिन 30 लीटर स्वच्छ पेयजल मिल सकता है। हाइड्रोजेल में उपयोग किए गए तीनों पोलीमर व्यावसायिक रूप से उपलब्ध और सस्ते हैं। मतलब अब ऐसे इलाकों में भी साफ पेयजल उपलब्ध कराया जा सकता है जहां इसकी सबसे अधिक ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)  

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बेसल समझौते में प्लास्टिक को शामिल किया गया – नवनीत कुमार गुप्ता

प्लास्टिक आज पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा संकट है। प्लास्टिक प्राकृतिक रूप से सड़ता नहीं है। इस कारण यह तेज़ी से पर्यावरण को प्रदूषित कर रहा है। इंसान प्लास्टिक कचरे का समुचित निपटारा नहीं कर पा रहा है। ज़्यादातर प्लास्टिक कचरा समुद्रों में फेंक दिया जाता है जहां यह समुद्री जीवों के लिए भी संकट बनता जा रहा है। आज समुद्रों में 10 करोड़ टन प्लास्टिक मौजूद है।

अब प्लास्टिक कचरा उन्मूलन की दिशा में भारत, न्यूज़ीलैंड, ब्रााज़ील और कज़ाकिस्तान समेत दुनिया के 187 देशों की सरकारें बेसल समझौते में संशोधन करने पर सहमत हो गई हैं।

बेसल समझौता विषैले पदार्थों और कचरे को दूसरे देशों में भेजने से जुड़ा अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। इसका उद्देश्य विभिन्न देशों के बीच विषैले पदार्थों का आवागमन कम करना है। समझौते में विशेषकर विकसित देशों से विषैले पदार्थों को विकासशील देशों में भेजने पर रोक लगाई गई है। ताज़ा संशोधन के बाद विषैले पदार्थों की सूची में प्लास्टिक को भी शामिल किया गया है। इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्लास्टिक कचरे का व्यापार ज़्यादा पारदर्शी होगा और इंसानों के स्वास्थ्य और पर्यावरण को साफ रखने की दृष्टि से इसका बेहतर प्रबंधन होगा।

अमेरिका प्लास्टिक का सबसे ज़्यादा उत्पादन करने वाले देशों में एक है, लेकिन दुर्भाग्यवश वह इस संधि में शामिल नहीं है। प्लास्टिक कचरे की रोकथाम लागू करने में मदद के लिए व्यापार, सरकारों, अकादमिक जगत और नागरिक समुदाय के संसाधनों से जुड़ा एक नया सहयोग शुरू किया गया है।

इसके अलावा, विषैले पदार्थों की सूची में दो नए रसायन समूह जोड़े गए हैं: डिकोफॉल और परफ्लोरोऑक्टेनोइक एसिड। इन दो समूहों के लगभग 4000 रसायन संधि में शामिल किए गए हैं। इनमें कुछ रसायन फिलहाल औद्योगिक और घरेलू उत्पादों में भारी मात्रा में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। जैसे नॉन-स्टिक बर्तन और खाद्य प्रसंस्करण उपकरण। टेक्सटाइल, कालीन, कागज़, पेंट और अग्निशामक फोम तैयार करने में भी इन रसायनों का खूब इस्तेमाल होता है।

सालों से लाखों टन प्लास्टिक कचरा विकासशील देशों में जमा कर दिया गया है। अब तक जिन देशों में बाहर से प्लास्टिक आता था, अब वे इसके आयात पर रोक लगा सकते हैं। इससे मजबूर होकर निर्यात करने वाले देश साफ और रिसायकल करने लायक प्लास्टिक का इस्तेमाल करेंगे। कचरे का वातावरण के अनुकूल प्रबंधन करना दीर्घकालीन विकास के लिए ज़रूरी है। दूसरी ओर, आर्थिक विकास के साथ-साथ कचरे का उत्पादन भी बढ़ रहा है। उचित प्रबंधन के अभाव में इसका असर इंसानों की सेहत और पर्यावरण पर पड़ रहा है। अब 187 देशों की सहमति से तैयार कानून पर्यावरण के संरक्षण में मदद करेगा। ये संधि प्लास्टिक कचरे पर रोक लगाने और उसके असंतुलित वितरण पर नियंत्रण रखने में मददगार साबित होगी और प्लास्टिक कचरे का उचित प्रबंधन सुनिश्चित करेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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देश बन रहा है डंपिंग ग्राउंड – संध्या रायचौधरी

इंटरनेशनल टेलीकम्यूनिकेशंस यूनियन (आईटीयू) के आंकड़ों के अनुसार भारत चीन और कुछ अन्य देशों में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी को पीछे छोड़ चुकी है। सिर्फ भारत और चीन में मोबाइल फोन का आंकड़ा 8 अरब पार कर चुका है। चीन की तरह भारत में भी सस्ते से सस्ता फोन उपलब्ध है। लेकिन गंभीर और खतरनाक बात यह है कि इससे इलेक्ट्रॉनिक क्रांति में खतरे ही खतरे उत्पन्न हो जाएंगे जो इस धरती की हर चीज़ को नुकसान पहुंचाएंगे।

फिलहाल भारत में एक अरब से ज़्यादा मोबाइल ग्राहक है। मोबाइल सेवाएं शुरू होने के 20 साल बाद भारत ने यह आंकड़ा इसी साल जनवरी में पार किया है। फिलहाल चीन और भारत में एक-एक अरब से ज़्यादा लोग मोबाइल फोन से जुड़े हैं। देश में मोबाइल फोन इंडस्ट्री को अपने पहले 10 लाख ग्राहक जुटाने में करीब 5 साल लग गए थे, पर अब भारत-चीन जैसे आबादी बहुल देशों की बदौलत पूरी दुनिया में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी के आंकड़े यानी 8 अरब को भी पीछे छोड़ चुकी है। ये आंकड़े बताते हैं कि अब गरीब देशों के नागरिक भी ज़िंदगी में बेहद ज़रूरी बन गई संचार सेवाओं का लाभ उठाने की स्थिति में हैं, वहीं यह इलेक्ट्रॉनिक क्रांति दुनिया को एक ऐसे खतरे की तरफ ले जा रही है जिस पर अभी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यह खतरा है इलेक्ट्रॉनिक कचरे यानी ई-कचरे का।

सालाना 8 लाख टन

आईटीयू के मुताबिक, भारत, रूस, ब्रााज़ील समेत करीब 10 देश ऐसे हैं जहां मानव आबादी के मुकाबले मोबाइल फोनों की संख्या ज़्यादा है। रूस में 25 करोड़ से ज़्यादा मोबाइल हैं जो वहां की आबादी का 1.8 गुना है। ब्राज़ील में 24 करोड़ मोबाइल हैं, जो आबादी से 1.2 गुना हैं। इसी तरह मोबाइल फोनधारकों के मामले में अमेरिका और रूस को पीछे छोड़ चुके भारत में भी स्थिति यह बन गई है कि यहां करीब आधी आबादी के पास मोबाइल फोन हैं। भारत की विशाल आबादी और फिर बाज़ार में सस्ते से सस्ते मोबाइल हैंडसेट उपलब्ध होने की सूचनाओं के आधार पर इस दावे में कोई संदेह भी नहीं लगता। पर यह तरक्की हमें इतिहास के एक ऐसे विचित्र मोड़ पर ले आई है, जहां हमें पक्के तौर पर मालूम नहीं है कि आगे कितना खतरा है? हालांकि इस बारे में थोड़े-बहुत आकलन-अनुमान अवश्य हैं जिनसे समस्या का आभास होता है। जैसे वर्ष 2015 में इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल एजूकेशन एंड रिसर्च (आईटीईआर) द्वारा मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग ऑफ ई-वेस्ट विषय पर आयोजित सेमिनार में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के विज्ञानियों ने एक आकलन करके बताया था कि भारत हर साल 8 लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा कर रहा है। इस कचरे में देश के 65 शहरों का योगदान है पर सबसे ज़्यादा ई-वेस्ट देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई में पैदा हो रहा है। हम अभी यह कहकर संतोष जता सकते हैं कि नियंत्रण स्तर पर हमारा पड़ोसी मुल्क चीन इस मामले में हमसे मीलों आगे है।

बैटरी और पानी प्रदूषण

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन दुनिया का सबसे बड़ा ई-वेस्ट डंपिंग ग्राउंड है। उल्लेखनीय यह है कि जो टीवी, फ्रिज, एयर कंडीशनर, मोबाइल फोन, कंप्यूटर आदि चीन में बनाकर पूरी दुनिया में सप्लाई किए जाते हैं, कुछ वर्षों बाद चलन से बाहर हो जाने और कबाड़ में तब्दील हो जाने के बाद वे सारे उपकरण चीन या भारत लौट आते हैं। निसंदेह अभी पूरी दुनिया का ध्यान विकास की ओर है। टेक्नॉलॉजी की तरक्की ने हमें जो साधन और सुविधाएं मुहैया कराई हैं, उनसे हमारा जीवन पहले के मुकाबले आसान भी हुआ है। कंप्यूटर और मोबाइल फोन जैसी चीजों ने हमारा कामकाज काफी सुविधाजनक बना दिया है। हम फैक्स मशीन, फोटो कॉपियर, डिजिटल कैमरों, लैपटॉप, प्रिंटर, इलेक्ट्रॉनिक खिलौने व गैजेट, एयर कंडीशनर, माइक्रोवेव, कुकर, थर्मामीटर आदि चीजों से घिर चुके हैं। दुविधा यह है कि आधुनिक विज्ञान की देन पर सवार हमारा समाज जब इन उपकरणों के पुराना पड़ने पर उनसे पीछा छुड़ाएगा, तो ई-कचरे की विकराल समस्या से कैसे निपट पाएगा। यह चिंता भारत-चीन जैसे तीसरी दुनिया के मुल्कों के लिए ज़्यादा बड़ी है क्योंकि यह कचरा ब्रिटेन-अमेरिका जैसे विकसित देशों की सेहत पर कोई असर नहीं डाल रहा है। इसकी एक वजह यह है कि तकरीबन सभी विकसित देशों ने ई-कचरे से निपटने के प्रबंध पहले ही कर लिए हैं, और दूसरे, वे ऐसा कबाड़ हमारे जैसे गरीब मुल्कों की तरफ ठेल रहे हैं। अर्थात हमारे लिए चुनौती दोहरी है। पहले तो हमें देश के भीतर पैदा होने वाली समस्या से जूझना है और फिर विदेशी ई-कचरे से निपटना है। हमारी चिंताओं को असल में इससे मिलने वाली पूंजी ने ढांप रखा है। विकसित देशों से मिलने वाले चंद डॉलरों के बदले हम यह मुसीबत खुद ही अपने यहां बुला रहे हैं।

ई-कचरा पर्यावरण और मानव सेहत की बलि भी ले सकता है। मोबाइल फोन की ही बात करें, तो कबाड़ में फेंके गए इन फोनों में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कलपुर्जे सैकड़ों साल तक ज़मीन में स्वाभाविक रूप से घुलकर नष्ट नहीं होते। सिर्फ एक मोबाइल फोन की बैटरी 6 लाख लीटर पानी दूषित कर सकती है। इसके अलावा एक पर्सनल कंप्यूटर में 3.8 पौंड घातक सीसा तथा फास्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसे तत्व होते हैं, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं और विषैले प्रभाव उत्पन्न करते हैं। कंप्यूटरों के स्क्रीन के रूप में इस्तेमाल होने वाली कैथोड रे पिक्चर ट्यूब जिस मात्रा में सीसा (लेड) पर्यावरण में छोड़ती है, वह भी काफी नुकसानदेह होता है।

कानून

समस्या इस वजह से भी ज़्यादा विनाशकारी है क्योंकि हम सिर्फ अपने ही देश के ई-कबाड़ से काम की चीज़ें निकालने की आत्मघाती कोशिश नहीं करते, बल्कि विदेशों से भी ऐसा खतरनाक कचरा अपने स्वार्थ के लिए आयात करते हैं। पर्यावरण स्वयंसेवी संस्था ग्रीनपीस ने अपनी रिपोर्ट ‘टॉक्सिक टेक: रीसाइÏक्लग इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट्स इन चाइना एंड इंडिया’ में साफ किया है कि जिस ई-कचरे की रिसाइÏक्लग पर युरोप में 20 डॉलर का खर्च आता है, वही काम भारत-चीन जैसे मुल्कों में महज चार डॉलर में हो जाता है। वैसे तो हमारे देश में ई-कचरे पर रोक लगाने वाले कानून हैं। खतरनाक कचरा प्रबंधन और निगरानी नियम 1989 की धारा 11(1) के तहत ऐसे कबाड़ की खुले में रिसायÏक्लग और आयात पर रोक है, लेकिन कायदों को अमल में नहीं लाने की लापरवाही ही वह वजह है, जिसके कारण अकेले दिल्ली की सीलमपुर, जाफराबाद, मायापुरी, बुराड़ी आदि बस्तियों में संपूर्ण देश से आने वाले ई-कचरे का 40 फीसदी हिस्सा रिसायकिल किया जाता है।

हमारी तरक्की ही हमारे खिलाफ न हो जाए और हमारा देश दुनिया के ई-कचरे के डंपिंग ग्राउंड में तब्दील होकर नहीं रह जाए; इस बाबत सरकार और जनता, दोनों स्तरों पर जागृति की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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समुद्री सूक्ष्मजीव प्लास्टिक कचरे को खा रहे हैं

हासागरों में मौजूद कूड़े का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा प्लास्टिक है। यह प्लास्टिक अनगिनत समुद्री प्रजातियों को जोखिम में डाल रहा है। लेकिन हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक ऐसे सूक्ष्मजीवों का पता लगाया है जो प्लास्टिक को धीरे-धीरे तोड़कर को खा रहे हैं। इसके चलते कचरा विघटित हो रहा है।

अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने यूनान के चानिया के दो अलग-अलग समुद्र तटों से मौसम के कारण खराब हुए प्लास्टिक को एकत्र किया है। यह कूड़ा धूप के संपर्क में आकर रासायनिक परिवर्तनों से गुज़र चुका था जिसके कारण यह अधिक भुरभुरा हो गया था। सूक्ष्मजीवों द्वारा प्लास्टिक को कुतरने से पहले उसका भुरभुरा होना ज़रूरी है।

प्लास्टिक के टुकड़े या तो किराने के सामान में उपयोग होने वाले पोलीथीन के थे या खाद्य पैकेजिंग और इलेक्ट्रॉनिक्स में पाए जाने वाले कठोर प्लास्टिक पोलीस्टायरीन। शोधकर्ताओं ने दोनों को नमकीन पानी में डाल दिया। और साथ में या तो प्राकृतिक रूप से मौजूद समुद्री सूक्ष्मजीव डाले या विशेष रूप से तैयार किए गए कार्बन-भक्षी सूक्ष्मजीव डाल दिए। ये सूक्ष्मजीव पूरी तरह से प्लास्टिक में मौजूद कार्बन पर जीवित रह सकते थे। वैज्ञानिकों ने 5 महीनों तक सामग्री में हो रहे बदलावों का विश्लेषण किया।

जर्नल ऑफ हैज़ार्डस मटेरियल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार प्राकृतिक और तकनीकी रूप से विकसित सूक्ष्मजीवों, दोनों के संपर्क में आने के बाद प्लास्टिक के वज़न में काफी कमी देखी गई। सूक्ष्मजीवों ने सामग्री की रासायनिक संरचना को और भी बदला जिससे पोलीथीन का वज़न 7 प्रतिशत और पोलीस्टायरीन का वज़न 11 प्रतिशत कम हो गया।

ये परिणाम समुद्री प्रदूषण से निपटने में काफी मददगार सिद्ध हो सकते हैं। संभवत: प्लास्टिक कचरा खाने के लिए समुद्री सूक्ष्मजीवों को तैनात किया जा सकता है। वैसे अभी यह देखना शेष है कि इन सूक्ष्मजीवों का विश्व स्तर पर क्या असर होगा।(स्रोत फीचर्स)

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बड़े शहर अपने बादल बनाते हैं

लोग अक्सर यह कहते हैं कि बड़े शहरों का माहौल खुशनुमा नहीं लगता। हम यह भी जानते हैं कि शहरों में, कांक्रीटी निर्माण और इमारतों के कारण वहां का तापमान शहरों के आस-पास के इलाकों की तुलना में अधिक होता है। लेकिन हाल ही में पता चला है कि ये बड़े शहर अपने बादलों के आवरण को देर तक बांधे रख सकते हैं और इनके ऊपर गांवों की तुलना में अधिक बादल छाए रहते हैं।

विभिन्न मौसमों के दौरान लंदन और पेरिस के आसमान के उपग्रह चित्रों के अध्ययन से पता चला कि वसंत और गर्मी की दोपहरी व शाम में शहरों के ऊपर आसपास के छोटे इलाकों की तुलना में अधिक बादल छाए रहे। ये बादल आसपास के इलाकों की तुलना में 5 से 10 प्रतिशत तक अधिक थे। ये नतीजे हैरान करने वाले थे क्योंकि आम तौर पर बड़े शहरों में पेड़-पौधे कम होते हैं जिसके कारण वहां का मौसम काफी खुश्क रहता है। इस स्थिति में पानी कम वाष्पीकृत होगा और बादल भी कम बनना चाहिए।

मामले को समझने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग की नताली थीउवेस ने ज़मीनी आंकड़ों पर ध्यान दिया। ऐसा क्यों हुआ इसके स्पष्टीकरण में शोधकर्ता बताती हैं कि दोपहर तक इमारतें (और कांक्रीट के निर्माण) काफी गर्म हो जाती हैं, और उसके बाद ये इमारतें ऊष्मा छोड़ने लगती हैं जिसके कारण वहां की हवा ऊपर उठने लगती है जो हवा में रही-सही नमी को भी अपने साथ ऊपर ले जाती है, फलस्वरूप बादल बनते हैं। और खास बात यह है कि ये बादल आसानी से बिखरते भी नहीं हैं।

शोधकर्ताओं की यह रिपोर्ट एनपीजे क्लाइमेट एंड एटमॉस्फेरिक साइंस में प्रकाशित हुई है।(स्रोत फीचर्स)

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कयामत की घड़ी – एक घड़ी जो बड़े संकट की सूचक है – भारत डोगरा

विश्व में ‘कयामत की घड़ी’ अपने तरह की एक प्रतीकात्मक घड़ी है जिसकी सुइयों की स्थिति के माध्यम से यह दर्शाने का प्रयास किया जाता है कि विश्व किसी बहुत बड़े संकट की संभावना के कितने नज़दीक है।

इस घड़ी का संचालन बुलेटिन ऑफ एटॉमिक साइंटिस्ट्स नामक वैज्ञानिक पत्रिका द्वारा किया जाता है। इसके परामर्शदाताओं में 15 नोबल पुरस्कार विजेता भी हैं। ये सब मिलकर प्रति वर्ष तय करते हैं कि इस वर्ष घड़ी की सुइयों को कहां रखा जाए।

इस घड़ी में रात के 12 बजे को धरती पर बहुत बड़े संकट का पर्याय माना गया है। घड़ी की सुइयां रात के 12 बजे के जितने नज़दीक रखी जाएंगी, उतनी ही किसी बड़े संकट से धरती (व उसके लोगों व जीवों) की नज़दीकी की स्थिति मानी जाएगी।

साल 2018-19 में इन सुइयों को (रात के) 12 बजने में 2 मिनट के वक्त पर रखा गया है। संकट सूचक 12 बजे के समय से इन सुइयों की इतनी नज़दीकी कभी नहीं रही। दूसरे शब्दों में, यह घड़ी दर्शा रही है कि इस समय धरती किसी बहुत बड़े संकट के इतने करीब कभी नहीं थी।

‘कयामत की घड़ी’ के वार्षिक प्रतिवेदन में इस स्थिति के तीन कारण बताए गए हैं। पहली वजह यह है कि जलवायु बदलाव के लिए ज़िम्मेदार जिन ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष 2013-17 के दौरान ठहराव आया था उनमें 2018 में फिर वृद्धि दर्ज की गई है। जलवायु बदलाव नियंत्रित करने की संभावनाएं धूमिल हुई हैं।

दूसरी वजह यह है कि परमाणु हथियार नियंत्रित करने के समझौते कमज़ोर हुए हैं। मध्यम रेंज के परमाणु हथियार सम्बंधी आईएनएफ समझौते का नवीनीकरण नहीं हो सका है।

तीसरी वजह यह है कि सूचना तकनीक का बहुत दुरुपयोग हो रहा है जिसका सुरक्षा पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है।

इन तीन कारणों के मिले-जुले असर से आज विश्व बहुत बड़े संकट की संभावना के अत्यधिक नज़दीक आ गया है और इस संकट को कम करने के लिए ज़रूरी कदम तुरंत उठाना ज़रूरी है। क्या ‘कयामत की घड़ी’ के इस अति महत्वपूर्ण संदेश को विश्व नेतृत्व समय रहते समझेगा? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चुनाव से गायब रहे पर्यावरणीय मुद्दे – डॉ. ओ. पी. जोशी

देश की सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, जल की कमी एवं बढ़ता प्रदूषण, वायु प्रदूषण का विस्तार, जैव विविधता तथा सूर्य की बढ़ती तपिश सरीखे प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दों पर किसी भी राजनैतिक दल ने ध्यान नहीं दिया। एच.एस.बी.सी. ने पिछले वर्ष ही बताया था कि भारत में जलवायु परिर्वतन के खतरे काफी अधिक हैं। विज्ञान की प्रसिद्ध पत्रिका नेचर ने भी चेतावनी दी है कि जलवायु परिवर्तन से भारत, अमेरिका व सऊदी अरब सर्वाधिक प्रभावित होंगे।

इस संदर्भ में महत्वपूर्ण व चिंताजनक बात यह है कि इससे हमारा सकल घरेलू उत्पादन (जी.डी.पी.) भी प्रभावित होगा। श्री श्री इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी ट्रस्ट बैंगलूरु के अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण देश के जी.डी.पी. में 1.5 प्रतिशत की कमी संभव है। विश्व बैंक की 2018 की एक रिपोर्ट (दक्षिण एशिया हॉटस्पाट) में चेतावनी दी गई है कि वर्ष 2050 तक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से देश के जी.डी.पी. में 5.8 प्रतिशत तक की कमी होगी। हमारे देश में राजनैतिक दल एवं जनता भले ही इस समस्या के प्रति जागरूक न हो परंतु विदेशों में तो जागरूक जनता (बच्चों सहित) अपनी-अपनी सरकारों पर यह दबाब बना रही है इस समस्या को गंभीरता से लेकर रोकथाम के हर संभव प्रयास किए जाएं। इसी वर्ष 15 मार्च को एशिया के 85 देशों के 957 स्कूली विद्यार्थियों ने प्रदर्शन किया। एक अप्रैल को ब्रिटेन की संसद में पहली बार पर्यावरण प्रेमियों ने प्रदर्शन कर ब्रेक्ज़िट समझौतों में जलवायु परिवर्तन का मुद्दा जोड़ने हेतु दबाव बनाया। 15 अप्रैल को मध्य लंदन के वाटरलू पुल एवं अन्य स्थानों पर जनता ने प्रदर्शन कर इस बात पर रोष जताया कि सरकार जलवायु परिवर्तन की रोकथाम पर कोई कार्य नहीं कर रही है।

जलवायु परिवर्तन के बाद देश की एक और प्रमुख पर्यावरणीय समस्या पानी की उपलब्धता एवं गुणवत्ता की है। वर्ल्ड रिसोर्स संस्थान की रिपोर्ट अनुसार देश का लगभग 56 प्रतिशत हिस्सा पानी की समस्या से परेशान है। हमारे ही देश के नीति आयोग के अनुसार देश के करीब 60 करोड़ लोग पानी की कमी झेल रहे हैं एवं देश का 70 प्रतिशत पानी पीने योग्य नहीं है। इसी का परिणाम है कि जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 में हमारा देश 120वें स्थान पर है। केंद्रीय भूजल बोर्ड ने 2-3 वर्षों पूर्व ही अध्ययन कर बताया था कि देश के 387, 276 एवं 86 ज़िलों में क्रमश: नाइट्रेट, फ्लोराइड व आर्सेनिक की मात्रा निर्धारित स्तर से अधिक है। बाद के अध्ययन बताते हैं कि भूजल में 10 ऐसे प्रदूषक पाए जाते हैं जो जन स्वास्थ्य के लिए काफी खतरनाक हैं। इनमें युरेनियम, सेलेनियम, पारा, सीसा आदि प्रमुख हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल द्वारा 2018 में किए गए अध्ययन के अनुसार देश की 521 प्रमुख नदियों में से 302 की हालत काफी खराब है, जिनमें गंगा, यमुना, सतलज, नर्मदा तथा रावी प्रमुख हैं। आज़ादी के समय देश में 24 लाख तालाब थे। जिनमें से 19 लाख वर्ष 2000 तक समाप्त हो गए।

वायु प्रदूषण का घेरा भी बढ़ता ही जा रहा है। दुनिया के प्रदूषित शहरों की सूची में सबसे ज़्यादा शहर हमारे देश के ही हैं। वायु प्रदूषण अब महानगरों एवं नगरों से होकर छोटे शहरों तथा कस्बों तक फैल गया है। खराब आबोहवा वाले पांच देशों में भारत भी शामिल है। अमेरिकी एजेंसी नासा के अनुसार देश में 2005 से 2015 तक वायु प्रदूषण काफी बढ़ा। वर्ष 2015 में तीन लाख तथा 2017 में 12 लाख मौतों का ज़िम्मेदार वायु प्रदूषण को माना गया है। वायु प्रदूषण के ही प्रभाव से देशवासियों की उम्र औसतन तीन वर्ष कम भी हो रही है। वाराणसी सरीखे धार्मिक शहर में भी वायु गुणवत्ता सूचकांक 2017 में 490 (खतरनाक) तथा 2018 में 384 (खराब) आंका गया है।

कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हमारी वन संपदा भी लगातार घट रही है। प्राकृतिक संतुलन हेतु देश के भूभाग के 33 प्रतिशत भाग पर वन ज़रूरी है परंतु केवल 21-22 प्रतिशत पर ही जंगल है। इसमें भी सघन वन क्षेत्र केवल 2 प्रतिशत के लगभग ही है (देश के उत्तर पूर्वी राज्यों में देश के कुल वन क्षेत्र का लगभग एक चौथाई हिस्सा है परंतु यहां भी दो वर्षों में (2015 से 2017 तक) वन क्षेत्र लगभग 650 वर्ग कि.मी.  घट गया। वनों का इस क्षेत्र में कम होना इसलिए चिंताजनक है कि यह भाग विश्व के 18 प्रमुख जैव विविधता वाले स्थानों में शामिल है। सबसे अधिक जैव विविधता (80 प्रतिशत से ज़्यादा)  वनों में ही पाई जाती है परंतु वनों के विनाश से देश के 20 प्रतिशत से ज़्यादा जंगली पौधों एवं जीवों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।

देश की प्रमुख पर्वत शृंखलाओं – हिमालय, अरावली, विंध्याचल, सतपुड़ा एवं पश्चिमी घाट पर वन विनाश, अतिक्रमण, वैध-अवैध खनन जैसी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। कई स्थानों पर अरावली की पहाड़ियां समाप्त होने से रेगिस्तान की रेतीली हवाएं दिल्ली तक पहुंच रही है।

वर्षों की अनियमितता से देश में सूखा प्रभावित क्षेत्रों का भी विस्तार हो रहा है। अक्टूबर 2018 से मार्च 2019 तक आठ राज्यों में सूखे की घोषणा की गई है। सरकार की सूखा चेतावनी प्रणाली के अनुसार देश का 42 प्रतिशत भाग सूखे की चपेट में है जिससे 50 करोड़ लोग प्रभावित हो रहे हैं।

पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति राजनैतिक दलों एवं जनता की ऐसी उदासीनता भविष्य में खतरनाक साबित होगी। देश के जी.डी.पी., बेरोज़गारी, गरीबी, कुपोषण, कृषि व्यवस्था, स्वास्थ्य सेवाएं एवं बाढ़ व सूखे की समस्याएं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यावरण की समस्याओं से ही जुड़ी हैं। (स्रोत फीचर्स)   

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नए जलवायु मॉडल की भविष्यवाणी

गभग पिछले 40 वर्षों से कंप्यूटर मॉडल कार्बन उत्सर्जन के कारण धरती के तेज़ी से गर्म होने के संकेत दे रहे हैं। लेकिन 2021 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा ग्लोबल वार्मिंग का आकलन करने के लिए जो नए मॉडल विकसित किए गए हैं, वे अजीब लेकिन निश्चित रुझान दिखा रहे हैं। इन मॉडल्स के अनुसार, धरती का तापमान पूर्व के अनुमानों की अपेक्षा कहीं अधिक होगा।

पहले के मॉडल्स के अनुसार, उद्योग-पूर्व युग के मुकाबले यदि वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) दुगनी हो जाए, तो संतुलन स्थापित होने तक पृथ्वी के तापमान में 2 से 4.5 डिग्री के बीच वृद्धि का अनुमान लगाया था। लेकिन यूएस, यूके, कनाडा और फ्रांस के केंद्रों द्वारा निर्मित अगली पीढ़ी के मॉडलों ने “संतुलित परिस्थिति” में 5 डिग्री सेल्सियस या अधिक वृद्धि का अनुमान लगाया है। इन मॉडलों को बनाने वाले यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि वह क्या चीज़ है जो उनके मॉडल्स द्वारा व्यक्त इस अतिरिक्त वृद्धि की व्याख्या कर सकती है।

अलबत्ता, यदि इन परिणामों पर विश्वास किया जाए, तो हमारे पास ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस या 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए पहले की तुलना में काफी कम समय है। वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड पहले ही 408 पीपीएम हो चुकी है। इसके आधार पर पहले के मॉडल्स ने भी आगामी चंद दशकों में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि का अनुमान लगाया था। एक विशेषज्ञ के मुताबिक इन नए मॉडलों के परिणामों पर अभी चर्चा की जा रही है। ऐसे में परेशान होने की ज़रूरत नहीं है किंतु यह पक्की बात है कि हमारे सामने जो संभावनाएं हैं वे काफी निराशाजनक हैं।

कई वैज्ञानिकों को इस पर काफी संदेह है। उनके मुताबिक पूर्व में दर्ज किए गए जलवायु परिवर्तन के आंकड़े इस उच्च जलवायु संवेदनशीलता या तापमान वृद्धि की तेज़तर गति का समर्थन नहीं करते। मॉडल बनाने वाले लोग भी इस बात से सहमत हैं और मॉडलों में सुधार का काम कर रहे हैं। लेकिन मॉडल में इन सुधारों के साथ भी पृथ्वी तेज़ी से गर्म होती मालूम हो रही है।

कुल मिलाकर, मॉडल के परिणाम निराशाजनक हैं, ग्रह पहले से ही तेज़ी से गर्म हो रहा है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह मॉडल सही भी हो सकता है। अगर ऐसा रहा तो यह काफी विनाशकारी होगा। (स्रोत फीचर्स)

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वायु प्रदूषण से आंखें न चुराएं

मोटर गाड़ियों, उद्योगों आदि से निकलने वाले बारीक कण स्वास्थ के लिए हानिकारक हैं। पिछले पच्चीस सालों में वैज्ञानिकों ने यह सम्बंध स्थापित किया है और उनकी कोशिशों से वायु प्रदूषण को रोकने के कानून सख्त हुए हैं। विश्व स्वास्थ संगठन (डब्ल्यूएचओ) का अनुमान है कि हर साल बाह्र वायु प्रदूषण से 42 लाख लोगों की मृत्यु होती है। लेकिन हाल ही में कई देशों में वायु प्रदूषण को असमय मौतों से जोड़ने वाले अध्ययन हमले की चपेट में हैं।

जैसे अमेरिका में प्रशासन द्वारा विभिन्न पर्यावरणीय और स्वास्थ्य सम्बंधी नियमों को खत्म किया जा रहा है। वायु-गुणवत्ता मानकों पर अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी को सलाह देने वाले एक विज्ञान पैनल में भी वायु गुणवत्ता के मानकों और बारीक कणों के असमय मृत्यु से सम्बंध को लेकर मतभेद हो गए। यह कहा गया कि बारीक कणों का असमय मृत्यु से सम्बंध संदिग्ध है।

फ्रांस, पोलैंड और भारत सहित अन्य देशों में भी वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य पर प्रभाव की बात पर संदेह व्यक्त किए जा रहे हैं। जर्मनी में 140 फेफड़ा विशेषज्ञों ने एक वक्तव्य में वाहनों से निकलने वाले नाइट्रोजन ऑक्साइड्स तथा बारीक कणों के स्वास्थ्य पर असर को लेकर शंका ज़ाहिर की है। वक्तव्य में इस बात से तो सहमति जताई गई है कि उच्च  प्रदूषण वाले इलाकों में लोग दमा वगैरह से ज़्यादा मरते हैं किंतु साथ ही यह भी कहा गया है कि ज़रूरी नहीं कि इनके बीच कार्य-कारण सम्बंध हो।

अलबत्ता, पिछले महीने जर्मन राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी ने स्पष्ट कहा है कि नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स बीमारियों की दर में तो वृद्धि करते ही हैं, बारीक कणों के निर्माण में भी योगदान देते हैं। ये कण सांस और ह्मदय सम्बंधी रोगों और फेफड़ों के कैंसर के कारण असमय मौत का कारण बनते हैं।

ये निष्कर्ष दशकों में एकत्र किए गए साक्ष्य के आधार पर निकाले गए हैं। 1993 में हारवर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के शोधकर्ताओं ने छह अमेरिकी शहरों में प्रदूषण के प्रभावों के संदर्भ में पाया था कि साफ वायु में रहने वाले लोगों की तुलना में प्रदूषित वायु वाले शहरों के लोगों के मरने की दर अधिक होती है जिसका मुख्य कारण वायु में बारीक कण की उपस्थिति है। 2017 में 6.1 करोड़ लोगों पर किए गए एक अध्ययन तथा बाद के कई अध्ययनों ने भी यही दर्शाया है।

अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी को सलाह देने वाले एक विज्ञान पैनल के अध्यक्ष टॉनी कॉक्स और अन्य संशयवादी अक्सर तर्क देते हैं कि महामारी विज्ञान के प्रमाण यह साबित नहीं कर सकते कि वायु प्रदूषण असमय मौत का कारण है। लेकिन वे यह नहीं देख पा रहे हैं कि इन सबूतों को अन्य प्रमाणों के साथ देखने की ज़रूरत है।

वैज्ञानिकों ने उन प्रक्रियाओं की पहचान की है जिनके ज़रिए सूक्ष्म कण स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, और साथ ही उन्होंने प्रयोगशाला विधियों, चूहों और मानव अध्ययनों में इन प्रभावों का विश्लेषण भी किया है। नए-नए प्रमाणों के साथ कई देशों ने अपने प्रदूषण नियंत्रण कानूनों में सुधार भी किए हैं।

आज दुनिया की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जो डब्ल्यूएचओ द्वारा निर्धारित वायु-गुणवत्ता के दिशानिर्देश सीमाओं को तोड़ते हैं। प्रदूषण अभी भी भारत और चीन जैसे देशों में प्रमुख शहरों का दम घोंट रहा है। यह समय हवा को साफ करने के प्रयासों को कम करने का या प्रदूषण से जुड़े निष्कर्षों पर सवाल उठाने का नहीं बल्कि इनको मज़बूत करने का है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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