दाल की खाली होती कटोरी – भारत डोगरा

भारत में सदियों से दालें जनसाधारण के लिए प्रोटीन का सबसे सामान्य व महत्त्वपूर्ण रुाोत रही हैं। अत: यह गहरी चिंता का विषय है कि दाल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में बहुत गिरावट आई है। इस स्थिति को तालिका से समझा जा सकता है।

भारत में प्रति व्यक्ति दाल उपलब्धता
वर्ष मात्रा (ग्राम में)
1951 60.7
1961 69.0
1971 51.2
1981 37.5
1991 41.6
2001 30.0
2003 29.1
2007 35.5
2011 43.0
2016 43.6
रुाोत: आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18

तालिका से स्पष्ट है कि वर्ष 1961 में हमारे देश में प्रति व्यक्ति 70 ग्राम दाल उपलब्ध थी, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के 80 ग्राम के सुझाव के बहुत पास थी। पर इसके बाद इसमें तेज़ी से गिरावट आई व एक समय यह उपलब्धता 29 ग्राम तक गिर गई। इसके बाद इसमें कुछ वृद्धि तो लाई गई पर यह वृद्धि काफी हद तक दाल के आयात द्वारा प्राप्त की गई जिसका हिस्सा कुछ वर्षों तक 14 प्रतिशत के आसपास रहा।

इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि वर्ष 1966 के बाद जो हरित क्रांति आई उसमें दलहन की उपेक्षा हुई व विशेषकर मिश्रित फसल में दलहन को उगाने की उपेक्षा भी हुई। पंजाब में तो इसके बाद के 16 वर्षों में दलहन का क्षेत्रफल कुल कृषि क्षेत्रफल में 13 प्रतिशत से घटकर 3 प्रतिशत रह गया।

इसके बाद आयात से दलहन उपलब्धता बढ़ाने के प्रयास हुए। आयात की गई बहुत सी दालों पर खतरनाक रसायनों, विशेषकर ग्लायफोसेट का छिड़काव होता रहा है।

दलहन की फसलों को अधिक उगाने से मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन बनाए रखने में मदद मिलती है क्योंकि इनकी जड़ें वायुमंडल से स्वयं नाइट्रोजन ग्रहण कर धरती को दे सकती हैं।

अत: देश में दलहन का उत्पादन बढ़ाने पर व इसकी मिश्रित खेती बढ़ाने पर विशेष ध्यान देना चाहिए। हमारे देश की धरती अनेक तरह की दालों के लिए उपयुक्त है व हमारे किसानों के पास दलहन के उत्पादन का समृद्ध परंपरागत ज्ञान है। उन्हें सरकार की ओर से अधिक प्रोत्साहन मिलना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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