एक फफूंद मच्छरों और मलेरिया से बचाएगी

1980 के दशक में बुर्किना फासो के गांव सूमोसो ने मलेरिया के खिलाफ एक ज़ोरदार हथियार मुहैया करया था। यह था कीटनाशक-उपचारित मच्छरदानी। इसने लाखों लोगों को मलेरिया से बचाने में मदद की थी। मगर मच्छरों में इन कीटनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध विकसित हो गया और इन मच्छरदानियों का असर कम हो गया। अब यही गांव एक बार फिर मलेरिया के खिलाफ एक और हथियार उपलब्ध कराने जा रहा है।

इस बार एक फफूंद में जेनेटिक फेरबदल करके एक ऐसी फफूंद तैयार की गई है जो मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों को मारती है। इसके परीक्षण सूमोसो में 600 वर्ग मीटर के एक ढांचे में किए गए हैं जिसे मॉस्किटोस्फीयर नाम दिया गया है। यह एक ग्रीनहाउस जैसा है, फर्क सिर्फ इतना है कि कांच के स्थान पर यह मच्छरदानी के कपड़े से बना है। परीक्षण में पता चला है कि यह फफूंद एक महीने में 90 फीसदी मच्छरों का सफाया कर देती है।

व्यापक उपयोग से पहले इसे कई नियम कानूनों से गुज़रना होगा क्योंकि फफूंद जेनेटिक रूप से परिवर्तित है। इसकी एक खूबी यह है कि यह मच्छरों के अलावा बाकी कीटों को बख्श देती है। तेज़ धूप में यह बहुत देर तक जीवित नहीं रह पाती। इसलिए इसके दूर-दूर तक फैलने की आशंका भी नहीं है।

फफूंदें कई कीटों को संक्रमित करती हैं और उनके आंतरिक अंगों को चट कर जाती है। इनका उपयोग कीट नियंत्रण में किया जाता रहा है। 2005 में शोधकर्ताओं ने पाया था कि मेटाराइज़ियम नामक फफूंद मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों का सफाया कर देती है। किंतु उसकी क्रिया बहुत धीमी होती है और संक्रमण के बाद भी मच्छर काफी समय तक जीवित रहकर मलेरिया फैलाते रहते हैं। इसके बाद कई फफूंदों पर शोध किए गए और अंतत: शोधकर्ताओं ने इसी फफूंद की एक किस्म मेटाराइज़ियम पिंगशेंस में एक मकड़ी से प्राप्त जीन जोड़ दिया। यह जीन एक विष का निर्माण करता है और तभी सक्रिय होता है जब यह कीटों के रक्त (हीमोलिम्फ) के संपर्क में आता है। प्रयोगशाला में तो यह कामयाब रहा। इससे प्रेरित होकर बुर्किना फासो में मॉस्किटोस्फीयर स्थापित किया गया।

स्थानीय बाशिंदों की मदद से आसपास के डबरों से कीटनाशक प्रतिरोधी लार्वा इकट्ठे किए गए और इन्हें मॉस्किटोस्फीयर के अंदर मच्छर बनने दिया गया। यह देखा गया है कि मनुष्य को काटने के बाद मादा मच्छर आम तौर पर किसी गहरे रंग की सतह पर आराम फरमाना पसंद करती है। लिहाज़ा, मॉस्किटोस्फीयर टीम ने फफूंद को तिल के तेल में घोलकर काली चादरों पर पोत दिया और चादरों को स्फीयर के अंदर लटका दिया।

शोधकर्ताओं ने स्फीयर के अंदर अलग-अलग कक्षों में 500 मादा और 1000 नर मच्छर छोड़े। विभिन्न कक्षों में चादरों पर कुदरती फफूंद, जेनेटिक रूप से परिवर्तित फफूंद और बगैर फफूंद वाला तेल पोता गया था। मच्छरों को काटने के लिए बछड़े रखे गए थे। यह देखा गया कि मात्र 2 पीढ़ी के अंदर (यानी 45 दिनों में) जेनेटिक रूप से परिवर्तित फफूंद वाले कक्ष में मात्र 13 मच्छर बचे थे जबकि अन्य दो कक्षों में ढाई हज़ार और सात सौ मच्छर थे।

यह तो स्पष्ट है कि यह टेक्नॉलॉजी मलेरिया वाले इलाकों में महत्वपूर्ण होगी किंतु इसे एक व्यावहारिक रूप देने में समय लगेगा।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.nih.gov/sites/default/files/styles/floated_media_breakpoint-medium/public/news-events/research-matters/2011/20110307-malaria.png?itok=85cRHokD&timestamp=1433336418

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