खतरनाक डॉयाक्सीन के बढ़ते खतरे – डॉ. ओ. पी. जोशी

डॉयाक्सीन अत्यंत विषैले रसायनों का समूह है। इन्हें उन खतरनाक मानव निर्मित रसायनों में शामिल किया गया है जिनकी सक्रियता रेडियो सक्रिय पदार्थ के बाद दूसरे नंबर पर आती है।

डॉयाक्सीन पर हमारा ध्यान इटली के सेवासो कस्बे में 10 जुलाई 1976 को एक कारखाने में हुए विस्फोट ने आकर्षित किया था। इससे डॉयाक्सीन आसपास के वातावरण में फैल गया था। इसके विषैले प्रभाव से हज़ारों पशु-पक्षी मारे गए थे। मनुष्यों में भी एक चर्म रोग फैला था जो लंबे समय तक उपचार के बाद ठीक हुआ। बाद में कैंसर एवं ह्रदय रोग के भी कई प्रकरण सामने आए। प्रारंभ में गर्भवती महिलाओं एवं बच्चों पर कोई विशेष प्रभाव तो नहीं देखा गया था परंतु बाद में नर बच्चों की जन्म दर काफी घट गई थी। अमरीका की पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी ने वहां की ज़्यादातर जनता को डॉयाक्सीन से प्रभावित बताया था। डॉयाक्सीन के प्रभावों में कैंसर, चर्म रोग, प्रतिरोध क्षमता में कमी, तंत्रिका तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव एवं मृत शिशुओं का जन्म प्रमुख हैं।

रासायनिक दृष्टि से डॉयाक्सीन क्लोरीन युक्त हाइड्रोकार्बन हैं जो काफी टिकाऊ होते हैं तथा कीटनाशी डीडीटी के समान वसा में घुलनशील होते हैं। इस घुलनशीलता के कारण ये भोजन शृंखला में प्रवेश कर वसायुक्त अंगों में एकत्र होते रहते हैं।

अभी तक इनकी कोई सुरक्षित सीमा निर्धारित नहीं है परंतु स्वास्थ्य पर इनका प्रभाव चंद अंश प्रति ट्रिलियन (यानी 10 खरब अंशों में एक अंश) सांद्रता पर ही देखा गया है। हमारे वायुमंडल में 95 प्रतिशत डॉयाक्सीन उन भस्मकों (इंसीनरेटर्स) से आते हैं जिनमें क्लोरीन युक्त कचरा जलाया जाता है। कागज़ के उन कारखानों से भी इनका प्रसार होता है जो ब्लीचिंग कार्य में क्लोरीन का उपयोग करते हैं। कई शहरों में सफाई के नाम पर अवैध रूप से कचरा जलाने में भी डॉयाक्सीन पैदा होते हैं, क्योंकि कचरे में प्लास्टिक एवं पीवीसी के अपशिष्ट भी होते हैं।

पिछले 50 वर्षों में क्लोरीन युक्त रसायनों व प्लास्टिक का निर्माण एवं उपयोग काफी बढ़ा है। रसायनों में कीटनाशी व शाकनाशी तथा प्लास्टिक में पीवीसी की वस्तुएं प्रमुख हैं। वाहनों के सीटकवर, टेलीफोन-बिजली के तार, शैम्पू की बॉटल, बैग, पर्स, सेनेटरी पाइप, वॉलपेपर एवं कई अन्य वस्तुएं पीवीसी से ही बनती हैं। इन सभी के निर्माण के समय एवं उपयोग के बाद कचरा जलाने से डॉयाक्सीन का ज़हर फैलता है।

जलने के दौरान पैदा डॉयाक्सीन वायुमंडल में उपस्थित महीन कणीय पदार्थों के साथ सैकड़ों किलोमीटर दूर तक फैल जाते हैं। फसलों एवं अन्य पौधों की पत्तियों तथा भूमि पर जमा होकर फिर ये शाकाहारी एवं मांसाहारी प्राणियों से होते हुए अंत में मानव शरीर में एकत्र होने लगते हैं। मानव शरीर में ज़्यादातर डॉयाक्सीन दूध, मांस व अन्य डेयरी पदार्थों के ज़रिए पहुंचते हैं।

जापान के स्वास्थ्य व कल्याण मंत्रालय ने कुछ वर्ष पूर्व महिलाओं के दूध का अध्ययन कर बतलाया था कि महिलाएं जैसे-जैसे दूध व अन्य डेयरी पदार्थों का उपयोग बढ़ाती हैं वैसे-वैसे उनके दूध में डॉयाक्सीन की मात्रा बढ़ती जाती है। भस्मकों के आसपास के क्षेत्र में रहने वाली महिलाओं में इनकी मात्रा ज़्यादा आंकी गई। ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार नगरीय निकायों का कचरा जलाने वाले भस्मकों के आसपास सात किलोमीटर के क्षेत्र में बसे रहवासियों में डॉयाक्सीन के कारण कई प्रकार के कैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है। भस्मकों की चिमनी से निकले धुंए में कैंसरजन्य रसायनों के साथ भारी धातुएं, अम्लीय गैसें, अधजले कार्बनिक पदार्थ, पॉलीसायक्लिक हाइड्रोकार्बन्स तथा फ्यूरॉन एवं डॉयाक्सीन की उपस्थिति भी वैज्ञानिकों ने दर्ज की है। दुनिया में कई स्थानों पर, डॉयाक्सीन की मात्रा बढ़ने से गांव व शहर खाली भी कराए गए हैं। इनमें लवकेनाल (नियाग्रा फॉल),टाइम्स बीच (मिसोरी), पैंसाकोला (फ्लोरिडा) व मिडलैंड शहर प्रमुख हैं।

वर्ष 2002 में एंवायरमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया था कि डॉयाक्सीन का प्रदूषण भारत में भी बहुत है। मनुष्य, डॉल्फिन, मुर्गा, मछली, बकरी एवं मांसाहारी पशुओं में इसकी उपस्थिति आंकी गई थी। पक्षियों में सर्वाधिक 1800 तथा गंगा की डॉल्फिन में 20-120 पीपीजी (पिकोग्राम प्रति ग्राम) का आकलन किया गया था। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के तत्कालीन सचिव ने भी इसे स्वीकारते हुए कहा था कि देश में डॉयाक्सीन की व्यापकता अनुमान से अधिक है। कम्यूनिटी एंवायरमेंटल मॉनीटरिंग ने स्मोक स्कैन नाम से एक रिपोर्ट लगभग 15 वर्ष पूर्व जारी की थी। इसमें देश के 13 स्थानों पर हवा के नमूनों में 45 ज़हरीले रसायनों की उपस्थिति बतलाई थी। केरल के एक औद्योगिक क्षेत्र में एक रसायन हेक्साक्लोरो ब्यूटाडाइन की पहचान की गई थी जो डॉयाक्सीन का निर्माण करता है।

देश में डॉयाक्सीन की मात्रा पश्चिमी देशों द्वारा दिए गए घटिया तकनीक के भस्मकों तथा क्लोरीन आधारित उद्योगों के कारण बढ़ी है जिनमें पीवीसी, पल्प व कागज़ तथा कीटनाशी कारखाने प्रमुख हैं। खुलेआम प्लास्टिक युक्त कचरा जलाना भी इसकी मात्रा बढ़ा रहा है। डॉयाक्सीन से पैदा प्रदूषण पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है, अन्यथा यह स्वास्थ्य का नया संकट पैदा करेगा। केंद्र सरकार ने 2009 में कई प्रदूषणकारी पदार्थों की मात्रा व स्तर में संशोधन कर कुछ नए प्रदूषणकारी पदार्थं शामिल किए हैं परंतु इसमें डॉयाक्सीन नहीं हैं।

भस्मकों में कचरा जलाए जाने से पैदा डॉयाक्सीन के प्रदूषण के कारण अब दुनिया के कई देशों में इसके विरुद्ध ना केवल आवाज़ उठाई जा रही है अपितु ये बंद भी किए जा रहे हैं। वर्ष 2002 में ज़्यादा डॉयाक्सीन उत्सर्जन के कारण जापान में लगभग 500 भस्मक बंद किए गए थे। यू.के में 28 में से 23 भस्मक बंद किए गए एवं यू.एस.ए. में 1985 से 1994 के मध्य 250 भस्मकों की प्रस्तावित योजनाएं निरस्त की गर्इं।  फिलीपाइंस में भस्मक लगाना प्रतिबंधित किया गया है। हमारे देश में भी इस संदर्भ में ध्यान देकर सावधानी बरतना ज़रूरी है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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