गरीबों को महामारी के खिलाफ तैयार करना – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कोविड-19 महामारी के इस दौर में वैज्ञानिकों के बीच विटामिन डी की महत्ता पर काफी चर्चाएं हुर्इं। इसी साल युरोपियन जर्नल ऑफ क्लीनिकल न्यूट्रिशन में मरियम एदाबी और एल्डो मोंटाना-लोज़ा का एक शोध पत्र प्रकाशित हुआ था जिसका शीर्षक है दृष्टिकोण: कोविड-19 के प्रबंधन में विटामिन डी के स्तर में सुधार की भूमिका। इसमें बताया गया है कि कैसे विटामिन डी की कमी कोविड-19 के गंभीर-जोखिम वाले मरीज़ों को प्रभावित कर सकती है। खासकर उन मरीज़ों को जो मधुमेह, ह्रदय की समस्या, निमोनिया, मोटापे के शिकार हैं और धूम्रपान करते हैं। विटामिन डी की कमी श्वांस मार्ग और फेफड़ों की क्षति से भी जुड़ी है। (लिंक: https://doi.org/10.1038/s41430-0200661)

इसके इतर, विटामिन डी हड्डियों में कैल्शियम की सही मात्रा बनाए रखता है, कोशिका झिल्ली को क्षतिग्रस्त होने से बचाने की प्रक्रिया को उत्प्रेरित करता है, ऊतकों में सूजन पैदा होने से रोकता है, ऊतकों को फाइबर बनाने से रोकता है और हड्डियों को भुरभुरी होकर कमज़ोर होने से बचाता है। इसलिए मनुष्यों (और जानवरों) में विटामिन डी (और कैल्शियम) के स्तर की जांच करते रहना ज़रूरी है। और आवश्यकता पड़ने पर चिकित्सक द्वारा इसकी उचित खुराक, उचित समय तक दी जानी चाहिए।

विटामिन डी की कमी

एक वेबसाइट (https://ods.od.nih.gov/factsheets/VitaminD-Consumer/) आसान शब्दों में विटामिन डी के बारे में विस्तारपूर्वक बताती है। विटामिन डी शरीर में तब बनता है जब सूर्य का प्रकाश या कृत्रिम प्रकाश (खासकर 190 से 400 नैनोमीटर तरंग लंबाई का पराबैंगनी प्रकाश) त्वचा पर पड़ता है। इसके असर से कोलेस्ट्रॉल-आधारित एक अणु की रासायनिक अभिक्रिया शुरू होती है, और इसे लीवर में कैल्सीडाईओल (जिसे 2,5 (OH)Dकहते हैं) में तथा किडनी में कैल्सीट्राईओल (1,2,5 (OH)2D) में परिवर्तित कर दिया जाता है। यही वे दो अणु हैं जो क्रियात्मक रूप से सक्रिय होते हैं। माना जाता है कि स्वस्थ शरीर के लिए 2,5-(OH)D का स्तर 30-100 नैनोग्राम प्रति मि.ली. के बीच पर्याप्त होता है; 21-29 नैनोग्राम प्रति मि.ली. के बीच अपर्याप्त माना जाता है, और 20 नैनोग्राम प्रति मि.ली. से कम स्तर व्यक्ति में विटामिन की कमी दर्शाता है।

चूंकि विटामिन डी के बनने के लिए सूर्य का प्रकाश आवश्यक है इसलिए उत्तरी देशों के मुकाबले उष्णकटिबंधीय देश फायदे में हैं। भारत भी उष्णकटिबंधीय देश है, तो इस नाते लगता है कि भारत में विटामिन डी का स्तर बेहतर होगा। लेकिन ऐसा नहीं है!

इस बारे में इंडियन जर्नल ऑफ एंडोक्रायनोलॉजी एंड मेटाबॉलिज़्म में सितंबर 2017 में संध्या सेल्वराजन और उनके साथियों का एक पेपर प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक था भारत की स्वस्थ दिखने वाली आबादी में विटामिन डी के स्तर की व्यवस्थित समीक्षा और इसके कारकों का विश्लेषण (लिंक: http://www.ijem.in/text.asp?2017/21/5/7652/21/5/765/214773)। शोधकर्ताओं ने 2998 से अधिक प्रकाशित शोध पत्रों और रिपोर्टों का, और भारत के विभिन्न राज्यों में किए गए अध्ययनों के डैटा का गहन और विस्तृत विश्लेषण किया। इन 40 अध्ययनों में कुल 19,761 व्यक्तियों के नमूने शामिल थे। इन सभी अध्ययनों में शामिल लोगों में विटामिन डी का स्तर 3.15 नैनोग्राम प्रति मि.ली. से 52.9 नैनोग्राम प्रति मि.ली. के बीच था। और दक्षिण भारतीय लोगों में विटामिन डी का स्तर 20 नैनोग्राम प्रति मि.ली. से कम (15.74 नैनोग्राम प्रति मि.ली. से 19.16 नैनोग्राम प्रति मि.ली. के बीच) था। इसके अलावा, पुरुषों की तुलना महिलाओं में विटामिन डी की कमी अधिक देखी गई।

लेखक अपने निष्कर्ष में कहते हैं कि भारत सूर्य के प्रकाश से भरपूर देश है, फिर भी यहां आश्चर्यजनक रूप से लोगों में विटामिन डी की भारी कमी दिखती है। यह कमी सभी तरह के लोगों, चाहे वे शहरी हों या ग्रामीण, हर उम्र या हर लिंग, गरीब हों या अमीर, में दिखती है। इसलिए यह तो स्पष्ट है कि अधिकांश भारतीय लोगों में इस कमी को दूर करने के लिए विटामिन डी की पूरक खुराक की ज़रूरत है।

पौष्टिक भोजन

केंद्र और राज्य सरकारें, समाज के लिए समर्पित फाउंडेशन, कंपनियां और यहां तक कि सह्रदय लोग लाखों-करोड़ों गरीब लोगों, खासकर प्रवासी मज़दूरों के लिए मुफ्त भोजन मुहैया करा रहे हैं। इनमें से अधिकतर लोग बेहद गरीब भी हैं और उन्हें इसी तरह के भोजन पर निर्भर रहना पड़ा है। उनका विटामिन डी का स्तर निश्चित रूप से 10 नैनोग्राम प्रति मि.ली. से कम (बहुत कम) होगा। आम तौर पर इन लोगों को दी जाने वाली खाद्य आपूर्ति में गेहूं या चावल जैसे अनाज, दालें (जैसे चना, उड़द वगैरह) और कुछ अत्यधिक सब्सिडी वाली चीज़ें (जैसे शक्कर, दूध वगैरह) होते हैं। सब्ज़ियां किसी भी रूप में (पकी या बिना पकी) नहीं दी जाती हालांकि शहरों और कस्बों में राज्य सरकार और कुछ निजी संस्थाओं द्वारा पका भोजन लोगों को सस्ती कीमत पर उपलब्ध कराया जाता है। इसके अलावा, सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के लिए मुफ्त मध्यान्ह भोजन की योजना है और एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम के तहत आंगनवाड़ी में आने वाले बच्चों और गर्भवती महिलाओं को भोजन दिया जाता है। ये सभी उपयोगी रहे हैं।

विटामिन डी की (वास्तव में कई अन्य विटामिनों और कैल्शियम की भी) कमी को देखते हुए सरकार को चाहिए कि (1) वह पोषण विशेषज्ञों और संस्थानों से सलाह और सुझाव ले कि वर्तमान में गरीबों को उपलब्ध कराए जा रहे राशन में और स्कूली बच्चों को दिए जा रहे भोजन में किस तरह के अन्य पोषक तत्व शामिल किए जा सकते हैं, (2) नि:शुल्क मुहैया कराए जा रहे विटामिन डी, अन्य विटामिन और कैल्शियम की आपूर्ति में इनकी उचित खुराक, दिए जाने की अवधि और अन्य जानकारी चिकित्सा और जन स्वास्थ्य विशेषज्ञों के परामर्श के मुताबिक हो। कई उत्कृष्ट भारतीय कंपनियां हैं जो इनका निर्माण करती हैं। इस तरह के कदम उठाकर, भारत अपने मुल्क के गरीब लोगों को न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य की महामारियों के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार कर सकेगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/cvaiwg/article32125403.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_1200/19TH-SCISUNSHINEjpg

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