माइक्रोप्लास्टिक्स: इकॉलॉजी व जीवों पर नया संकट – सुदर्शन सोलंकी

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि हर साल लगभग 80 लाख टन प्लास्टिक कूड़ा-कचरा समुद्रों में फेंका जाता है। समुद्री किनारों, उनकी सतहों और पेंदे में जो कूड़ा-कचरा इकट्ठा होता है उसमें से 60 से 90 फीसदी हिस्सा प्लास्टिक होता है। यह समुद्री कूड़ा-कचरा 800 से भी ज़्यादा समुद्री प्रजातियों के लिए खतरा है। इनमें से 15 प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं। पिछले 20 वर्षों से तो प्लास्टिक के बारीक कणों (माइक्रोप्लास्टिक) और सिर्फ एक बार ही इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक को फेंके जाने से समस्या और भी ज़्यादा गंभीर हो गई है। प्लास्टिक के बारीक कण बहुत बड़ा खतरा पैदा करते हैं। चूंकि ये आंखों से दिखाई नहीं देते, इसलिए इनकी तरफ किसी का ध्यान भी नहीं जाता है।

समुद्र व समुद्री जीवों को प्लास्टिक प्रदूषण से बचाने के लिए विश्व भर के कई संगठन प्रयासरत हैं लेकिन समुद्र में मौजूद प्लास्टिक कचरा कम होने की बजाय लगातार बढ़ता जा रहा है। इसी संदर्भ में हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि गहरे समुद्र में अनुमानित 1.4 करोड़ टन माइक्रोप्लास्टिक मौजूद है। प्रति वर्ष महासागरों में बड़ी मात्रा में कचरा एकत्रित होता है। ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय विज्ञान एजेंसी ने अध्ययन में बताया है कि समुद्र में मौजूद छोटे प्रदूषकों की मात्रा पिछले साल किए गए एक स्थानीय अध्ययन की तुलना में 25 गुना अधिक थी।

माइक्रोप्लास्टिक 5 मिलीमीटर से छोटे प्लास्टिक के कण होते हैं जो जीवों के लिए हानिकारक हैं। प्लास्टिक सूक्ष्म कणों में टूटता है जो सरलता से एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंच सकता है। माइक्रोप्लास्टिक बनने का मुख्य स्रोत ओपन डंपिंग, लैंडफिल साइट और विनिर्माण इकाइयां है। माइक्रोप्लास्टिक जल प्रवाह के साथ भूजल प्रणाली में भी पहुंच जाता है।

सामान्यत: घरेलू अपशिष्ट जल में फाइबर/सिंथेटिक ऊन के कपड़े धोने से छोटे-छोटे कणों का प्रवाह होता है। विशेष रूप से ऐसे एक्वीफर्स में जहां सतह का पानी और भूजल संपर्क में होते हैं। माइक्रोब्लेड्स एक प्रकार का माइक्रोप्लास्टिक है, जो पॉलीएथिलीन प्लास्टिक के बहुत छोटे टुकड़े होते हैं, जिन्हें स्वास्थ्यवर्धक और सौंदर्य उत्पादों (जैसे कुछ क्लींज़र और टूथपेस्ट) में मिलाया जाता है। ये छोटे कण आसानी से जल फिल्टरेशन प्रणालियों से गुजर जाते हैं। कुछ सफाई और सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों के उपयोग के बाद ये अपशिष्ट जल के साथ मिल सकते हैं, जो कुछ समय बाद मिट्टी-भूजल प्रणाली में मिल जाते हैं और पर्यावरण प्रदूषित करते हैं।

ऑस्ट्रेलिया में वैज्ञानिक शोध की सरकारी एजेंसी – कॉमनवेल्थ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च ऑर्गनाइज़ेशन – के शोधकर्ताओं ने दक्षिण ऑस्ट्रेलियाई तट से 380 कि.मी. की दूरी तक 3,000 मीटर गहराई तक के नमूने इकट्ठे किए। इस कार्य के लिए लिए उन्होंने एक रोबोटिक पनडुब्बी का उपयोग किया। नमूनों में, एक ग्राम सूखी समुद्री तलछट में 14 प्लास्टिक कण तक देखे गए। इसके आधार पर वैज्ञानिकों ने गणना की कि समुद्र तल पर माइक्रोप्लास्टिक्स की कुल वैश्विक मात्रा 1.4 करोड़ टन है। एजेंसी ने इसे सी-फ्लोर माइक्रोप्लास्टिक्स का पहला वैश्विक अनुमान माना है।

फ्रंटियर इन मरीन साइंस पत्रिका में प्रकाशित इस शोध के वैज्ञानिकों ने कहा है कि जहां तैरते हुए कचरे की मात्रा ज़्यादा थी, उस क्षेत्र में समुद्र के पेंदे में माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े अधिक पाए गए। अध्ययन का नेतृत्व करने वाले जस्टिन बैरेट ने कहा, जो प्लास्टिक कचरा समुद्र में जाता है उसी से माइक्रोप्लास्टिक बनता है। समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के लिए तत्काल समाधान खोजने की ज़रूरत है क्योंकि इससे पारिस्थितिकी तंत्र, वन्य जीव और वन्य जीवन के साथ मानव स्वास्थ्य भी बुरी तरह प्रभावित होता है।

प्लास्टिक से समुद्री जीवों के शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। क्वीन्स युनिवर्सिटी, बेलफास्ट और लिवरपूल जॉन मूर्स युनिवर्सिटी द्वारा किया गया शोध जर्नल बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित हुआ है, जिसमें हर्मिट केंकड़ों पर प्लास्टिक के प्रभाव का अध्ययन किया गया है। ये केंकड़े समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र का एक अहम हिस्सा होते हैं।

ये केंकड़े स्वयं के लिए कवच विकसित नहीं करते, बल्कि अपने शरीर को बचाने के लिए घोंघे की कवच का उपयोग करते हैं। एक हर्मिट केंकड़े को बढ़ने में सालों लग जाते हैं। जैसे-जैसे यह बढ़ता जाता है, उसे अपने लिए नए बड़े कवच की आवश्यकता होती है। यह कवच इन केंकड़ों को बढ़ने, प्रजनन करने और सुरक्षा देने में मदद करते हैं। पर इस नए अध्ययन से पता चला है कि जैसे ही ये केंकड़े माइक्रोप्लास्टिक के संपर्क में आते हैं, उनके द्वारा शैलों को पहचानने और उनमें घुसने की क्षमता कमज़ोर होती जाती है।

इससे स्पष्ट है कि माइक्रोप्लास्टिक जैव विवधता को हमारे अनुमान से कहीं ज़्यादा नुकसान पहुंचा रहा है। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक हो गया है कि माइक्रोप्लास्टिक से हो रहे प्रदूषण पर रोक लगाई जाए।

एक शोध से ज्ञात हुआ है कि पानी और नमक में माइक्रोप्लास्टिक्स मौजूद होते हैं। शायद आप सिर्फ नमक के साथ ही हर साल 100 माइक्रोग्राम से अधिक माइक्रोप्लास्टिक्स खा रहे हों। यह जानकारी हाल ही में आईआईटी, मुंबई के शोध में सामने आई है।

आईआईटी, मुंबई के सेंटर फॉर एन्वॉयरमेंट साइंस एंड इंजीनियरिंग के दो सदस्यों द्वारा किए गए शोध में नमक के शीर्ष 8 ब्रांड्स की जांच की गई। जांच के नमूनों में प्रति किलोग्राम नमक में 63.76 माइक्रोग्राम माइक्रोप्लास्टिक पाया गया। लोकप्रिय नमक ब्रांड्स के सैंपल में जो कण निकले, उनमें 63 फीसदी प्लास्टिक और 37 फीसदी प्लास्टिक फाइबर्स थे। विशेषज्ञों के अनुसार माइक्रोप्लास्टिक के कुछ कण 5 माइक्रॉन से भी छोटे होते हैं जो नमक उत्पादकों के ट्रीटमेंट से भी आसानी से पार निकल जाते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देशों के आधार पर एक व्यस्क आदमी को प्रतिदिन कम से कम 5 ग्राम नमक खाना चाहिए। इस आधार पर साल भर में सिर्फ नमक के ज़रिए हम करीब 100 माइक्रोग्राम माइक्रोप्लास्टिक्स खा रहे हैं। और तो और, हमारे शरीर में माइक्रोप्लास्टिक्स पहुंचने का यह एकमात्र रास्ता नहीं है।

माइक्रोप्लास्टिक से बचने का कोई रास्ता नहीं है। कॉन्टेमिनेशन ऑफ इंडियन सी साल्ट्स विद माइक्रोप्लास्टिक्स एंड ए पोटेंशियल प्रिवेंशन स्ट्रेटजी में पाया गया कि यह वैश्विक परिघटना है एवं सूचना के अभाव के कारण अभी इससे बचाव की कोई रणनीति उपलब्ध नहीं है। सभी समुद्री जल स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं। जब इस प्रदूषित जल को किसी भी सामग्री के उत्पादन में प्रयोग किया जाता है, तब ये माइक्रोप्लास्टिक उसमें आ जाते हैं। परंतु यदि हम प्लास्टिक का उपयोग कम से कम से करें और कम कचरा पैदा करें और साथ ही इसे समुद्र में न फेंका जाए, तो काफी हद तक इससे बचा जा सकता है। इसके अतिरिक्त सामान्य रेत फिल्टरेशन के ज़रिए समुद्री नमक में माइक्रोप्लास्टिक्स के ट्रांसफर को कम किया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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