शोध में लिंग और जेंडर को शामिल करने का संघर्ष

सुरक्षित दवाएं, उत्पाद और यहां तक कि पर्यावरण में उथल-पुथल उन शोधों का परिणाम हैं जिनमें सेक्स और जेंडर को शामिल नहीं किया गया था। इसी के मद्देनज़र युरोपीय आयोग, उसके द्वारा होराइज़न युरोप नामक कार्यक्रम के तहत वित्तपोषित समस्त अनुसंधान के लिए, साल 2021 से सेक्स और जेंडर विश्लेषण अनिवार्य कर देगा। अनुसंधान कार्यक्रमों से उम्मीद होगी कि वे अध्ययन की रूपरेखा तैयार करने से लेकर डैटा संग्रह और विश्लेषण तक के हर चरण में इन कारकों को ध्यान में रखें। यह नीति विशुद्ध गणित जैसे विषयों के अलावा सभी विषयों पर लागू होगी।

स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी की लोन्डा शीबिंजर की अध्यक्षता में 25 सदस्यीय समिति द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट शोधकर्ताओं का मार्गदर्शन करती है कि आर्थिक प्रबंधन से लेकर कृषि अनुसंधान तक सभी विषयों में इन कारकों को किस तरह शामिल किया जा सकता है। शीबिंजर बताती है कि सेक्स और जेंडर कारकों को शोध में ना शामिल होने के कारण हुई विफलताओं के परिणाम हमारे सामने हैं। जैसे, 1997 से 2001 के बीच अमरीकी बाज़ार से लगभग 10 दवाओं को वापस लिया गया था, जिनमें से आठ दवाएं पुरुषों की तुलना में महिलाओं के लिए अधिक हानिकारक थीं। जब दवाएं नाकाम होती हैं तो धन की बरबादी के अलावा लोग पीड़ा झेलते है और जान तक गंवा देते हैं। इसलिए, शिबिंजर को लगता है कि कोशिका और जानवरों पर होने वाले परीक्षणों से लेकर मनुष्यों पर होने वाले क्लीनिकल परीक्षण तक, सभी में पुरुषों और महिलाओं का डैटा अलग-अलग लेना चाहिए और उनका अलग-अलग विश्लेषण करना चाहिए। शोध में उम्र और आनुवंशिक वंशावली देखना भी महत्वपूर्ण है, और गर्भवती महिलाओं पर असर को भी अलग से देखने की ज़रूरत है।

और उनके मुताबिक यह सिर्फ महिलाओं की बात नहीं है – इसका सम्बंध शोध के सही होने से भी है। उदाहरण के लिए, ऑस्टियोपोरोसिस (अस्थि-छिद्रता) की समस्या को अक्सर रजोनिवृत्त (मीनोपॉज़) होती महिलाओं की समस्या के रूप में देखा जाता है और पुरुष उपेक्षित रह जाते हैं।

शोध में इन कारकों को अपनाने में देरी को लेकर वे कहती हैं कि जागरूकता तो धीरे-धीरे बढ़ रही है लेकिन अधिकतर शोधकर्ता इस तरह का विश्लेषण करना अच्छी तरह नहीं जानते। इस सम्बंध में उनकी पहली रिपोर्ट 2013 में आई थी और अब यह दूसरी रिपोर्ट है। इस रिपोर्ट का ज़ोर ना सिर्फ सेक्स और जेंडर पर है बल्कि उम्र, भौगोलिक स्थिति और सामाजिक-आर्थिक स्थिति के प्रभाव भी शामिल किए गए हैं। दूसरा, जेंडर को सिर्फ स्त्री और पुरुष के रूप में न देखकर जेंडर-विविधता के पूरे परास को ध्यान में रखा गया है।

उनका कहना है कि शोधकर्ता इन विश्लेषणों में कई गलतियां करते हैं। सबसे बड़ी गलती तो यही है कि वे सेक्स, जेंडर और तबकों के आपसी सम्बंधों को अनदेखा करते हैं। दूसरी आम गलती यह है कि शोधकर्ता जन्मजात लिंग और सामाजिक जेंडर के बीच अंतर नहीं करते। यह समझना ज़रूरी है कि जेंडर पर जातीयता, आयु और संस्कृति का असर होता है। शोध में सही परिवर्ती चुनने, सही ढंग से डैटा जुटाने और अच्छी तरह विश्लेषण करना ज़रूरी है।

शीबिंजर का कहना है कि कुछ समकक्ष-समीक्षित पत्रिकाओं में सेक्स और जेंडर विश्लेषण की नीतियां हैं। लेकिन इंजीनियरिंग के जर्नलों में भी इस तरह की नीतियां होना चाहिए। एक बड़ी समस्या यह है कि विज्ञान और इंजीनियरिंग, और यहां तक कि चिकित्सा की कक्षाओं में भी इस तरह के विश्लेषण नहीं सिखाए जाते। इंजीनियरिंग में इस बात पर विचार ही नहीं किया जाता कि वृद्ध लोगों, खासकर महिलाओं की कमज़ोर हड्डियों के अध्ययन के लिए ‘क्रैश-टेस्ट डमी’ (मानव डमी) बनाई जाएं।

वैसे कुछ सकारात्मक उदाहरण भी सामने आए हैं। जैसे हारवर्ड विश्वविद्यालय और स्टैनफोर्ड में अब कंप्यूटर विज्ञान में एक कोर्स पढ़ाया जा रहा है। इसमें छात्रों को एल्गोरिद्म के साथ-साथ सामाजिक मुद्दों और परिणामों के बारे में सोचने के लिए भी प्रशिक्षित किया जाता है। जैसे, कोर्स में इस बात पर चर्चा की जाती है कि किसी एक समूह के लोगों को नज़रअंदाज़ करने पर कृत्रिम बुद्धि क्या और कितनी समस्याएं पैदा कर सकती है।

वर्तमान संदर्भ में वे बताती हैं कि कोरोनावायरस महामारी में लिंग और जेंडर के प्रभाव का विश्लेषण करना बहुत ज़रूरी है। कोविड-19 की एक केस स्टडी में उन्होंने पाया था कि वायरस के प्रति अलग-अलग लिंग के लोगों की प्रतिक्रिया में अंतर था, लेकिन इसमें जेंडर भी बहुत महत्वपूर्ण है। जैसा कि दिख रहा है, कोविड-19 से पुरुष अधिक मर रहे हैं, और ऐसा जेंडर सम्बंधी कायदों और व्यवहार के कारण है। उदाहरण के लिए, अधिक पुरुष धूम्रपान करते हैं और सामान्यत: हाथ कम धोते हैं। दूसरी ओर, स्वास्थ्य कार्यकर्ता अधिकतर महिलाएं होती हैं, वे वायरस के संपर्क में अधिक आ सकती हैं।

उन्होंने कुछ ऐसे अनुसंधान विषयों के बारे में भी बताया है जिनके बारे में जानकर लोगों को शायद आश्चर्य होगा कि इनमें भी सेक्स और जेंडर का विश्लेषण आवश्यक है? ये विषय सीधे-सीधे मनुष्यों से सम्बंध नहीं रखते। जैसे कुछ समुद्री जीवों का लिंग विश्लेषण करना बहुत महत्वपूर्ण है। कुछ जीवों में लिंग निर्धारण तापमान से होता है। यदि नर-मादा के अनुपात या उभयलिंगी में बहुत अंतर आएगा तो ये जीव विलुप्त हो जाएंगे। जैसे, एक अध्ययन में देखा गया कि ग्रेट बैरियर रीफ के उत्तरी भाग में 99 प्रतिशत कछुए मादा थे, जबकि अपेक्षाकृत ठंडे दक्षिणी भाग में सिर्फ 67 प्रतिशत कछुए मादा थे। इसलिए यह समझना महत्वपूर्ण होगा कि वैश्विक तापमान में वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) किस तरह से लिंग अनुपात को बदल रही है, ताकि हम पारिस्थितिक तंत्रों का बेहतर प्रबंधन कर सकें।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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