जलवायु बदलाव के दौर में कृषि – भारत डोगरा

लवायु बदलाव का संकट तेज़ी से विश्व के सबसे बड़े पर्यावरणीय संकट के रूप में उभरा है। जीवन के विभिन्न महत्त्वपूर्ण पक्षों के संदर्भ में इस संकट को समझना ज़रूरी हो गया है। भारत में आजीविका का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत कृषि व इससे जुड़े विभिन्न कार्य हैं। अत: खेती-किसानी, पशुपालन, वृक्षारोपण आदि के संदर्भ में जलवायु बदलाव के संकट को समझना आवश्यक है।

पहला सवाल है कि खेती-किसानी पर जलवायु बदलाव का क्या असर पड़ सकता है? यह असर बहुत व्यापक व गंभीर हो सकता है। मौसम पहले से कहीं अधिक अप्रत्याशित व प्रतिकूल हो सकता है। प्राकृतिक आपदाएं बढ़ सकती हैं। जल संकट अधिक विकट हो सकता है। मौसम में बदलाव के साथ ऐसी कई समस्याएं पैदा हो सकती हैं जो पहले नहीं थीं। किसानों, पशुपालकों, घुमंतू समुदायों, वन-श्रमिकों आदि के लिए कुछ स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ सकती हैं।

अगला प्रश्न है कि इसके लिए कैसी तैयारी लगेगी? इसके लिए खेती-किसानी के खर्च को तेज़ी से कम किया जाए व किसान-समुदायों की आत्म-निर्भरता को तेज़ी से बढ़ाया जाए। यदि किसान रासायनिक खाद, कीटनाशकों आदि पर निर्भरता कम कर लें और विविधता भरे परंपरागत बीजों को संजो लें तो खर्च बहुत कम हो जाएगा, कर्ज़ घटेगा व विपरीत स्थिति का सामना करने में वे अधिक समर्थ हो जाएंगे। स्थानीय निशुल्क उपलब्ध संसाधनों (जैसे गोबर, पत्ती की खाद, स्थानीय पौधों या नीम जैसी वनस्पतियों से प्राप्त छिड़काव) से आत्म-निर्भरता बढ़ जाएगी। परांपरागत बीज संजोने व संग्रहण करने, उनकी जानकारी बढ़ाने, उन्हें आपस में बांटने से आत्म-निर्भरता आएगी, प्रतिकूल या बदले मौसम के अनुकूल बीज भी परंपरागत विविधता भरे बीजों में से मिल जाएंगे।

आपदा-प्रबंधन व कठिन समय में सहायता के लिए सरकारी बजट बढ़ाना चाहिए। जल व मिट्टी संरक्षण पर अधिक ध्यान देना चाहिए व यह कार्य लोगों की नज़दीकी भागीदारी से होना चाहिए। यह कार्य, हरियाली बढ़ाने व वन-रक्षा के कार्य बड़े पैमाने पर, विशेषकर भूमिहीन परिवारों को रोज़गार देते हुए, होने चाहिए ताकि सभी ग्रामीण परिवारों का आजीविका आधार मज़बूत हो सके। इसके अलावा भूमिहीन परिवारों के लिए न्यूनतम भूमि की व्यवस्था भी ज़रूरी है।

कृषि व सम्बंधित आजीविकाओं की मज़बूती के कार्य में विकेंद्रीकरण बढ़ाना चाहिए व गांव समुदायों, ग्राम सभाओं व ग्राम पंचायतों की क्षमता व संसाधनों में भरपूर वृद्धि होनी चाहिए ताकि उन्हें बाहरी मार्गदर्शन पर निर्भर न होना पड़े व बदलती स्थिति में स्थानीय ज़रूरतों के अनुकूल निर्णय वे स्वयं ले सकें। अति-केंद्रीकृत निर्णय ऊपर से लादने की प्रवृत्ति आज भी कठिनाइयां उत्पन्न करती है व जलवायु बदलाव के दौर में ये कठिनाइयां और बढ़ सकती हैं।

आदिवासी क्षेत्रों में यह और भी महत्त्वपूर्ण हैं। वन-रक्षा के प्रयासों में भी आदिवासियों व वनों के पास के समुदायों की भूमिका को तेज़ी से बढ़ाना चाहिए।

तीसरा सवाल यह है कि जलवायु बदलाव के संकट को कम करने में कृषि का योगदान कैसे व कितना हो सकता है। यह योगदान बहुत महत्वपूर्ण हो सकता है। मज़े की बात तो यह है कि जिन उपायों से कृषि को जलवायु बदलाव का सामना करने में मदद मिलेगी, कमोबेश वही उपाय ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने व इस तरह जलवायु बदलाव का संकट कम करने में भी मददगार हो सकते हैं। रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाइयों पर निर्भरता कम करने से किसानों के खर्च कम होंगे तो साथ में उनके उत्पादन, यातायात व उपयोग से जुड़ी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी कम होगा। यदि छोटे नदी-नालों व नहरों से पानी उठाने के लिए डीज़ल के स्थान पर मंगल टरबाईन का उपयोग होगा, तो इससे किसानों का खर्च भी कम होगा व ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम होगा। यदि चारागाह बचेंगे व हरियाली बढ़ेगी तथा मिट्टी संरक्षण के उपाय होंगे तो इससे किसानों की आजीविका बढ़ेगी पर साथ में इससे ग्रीनहाउस गैसों को सोखने की क्षमता भी बढ़ेगी।

अत: इस बारे में उचित समझ बनाते हुए परंपरागत ज्ञान व नई वैज्ञानिक जानकारी का समावेश करते हुए हमें ऐसी कृषि की ओर बढ़ना है जो किसान की टिकाऊ आजीविका को मज़बूत करे है, आत्म-निर्भरता को बढ़ाए, खर्च व कर्ज़ कम करे व साथ में ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम करे या उन्हें सोखने में मदद करे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.ucsusa.org/sites/default/files/styles/original/public/images/fa-sus-climate-drought-soybeans.jpg?itok=cr5QRzxd

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