प्रतिरक्षा तंत्र और शरीर की हिफाज़त – 6 – विनीता बाल, सत्यजीत रथ

प्रतिरक्षा तंत्र बेतरतीबी से निर्मित खजाने से कैसे काम चलाता है?

प्रतिरक्षा तंत्र यह कैसे सुनिश्चित करता है कि पहचान के लिए जो चाभियां वह बना रहा है, वे किसी गलत ताले को नहीं खोलेंगी और खुद ही बीमारी का कारण नहीं बन जाएंगी?

ज़ाहिर है कि यदि प्रतिरक्षा तंत्र को इस तरह तैयार किया गया है कि वह जिन लक्ष्यों को पहचाने उनके खिलाफ ज़ोरदार कार्रवाई करे, तो हम यह तो नहीं चाहेंगे कि वह किसी ऐसी चीज़ को लक्ष्य के रूप में पहचान ले जिसकी हमें ज़रूरत है, जैसे हमारी लिवर की कोशिकाएं। लेकिन हमने कहा था कि विकसित होता प्रतिरक्षा खजाना तो मूलत: बेतरतीब होता है। इसलिए यह संभावना रहती ही है कि उसमें ऐसे ग्राही तैयार हो जाएंगे जो हमारे अपने शरीर के सामान्य हिस्सों यानी ‘स्व’ को लक्ष्य के रूप में पहचान लेंगे।

अब चूंकि हम ग्राही-निर्माण प्रणाली की बेतरतीब व्यवस्था को गंवाना नहीं चाहते, इसलिए हम इस समस्या में उलझ जाते हैं कि ऐसी बी तथा टी कोशिकाएं बन जाएंगी जो स्व-पहचान ग्राहियों से लैस होंगी। यदि हम ऐसी कोशिकाओं को बनने से रोक नहीं सकते, तो हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि बनने के बाद उन्हें ठप कर दिया जाएगा। इसके लिए पहली ज़रूरी बात यह होगी कि उन कोशिकाओं को पहचाना जाए जिन पर ऐसे ग्राही हैं, जो अपने शरीर के किसी घटक को पहचानते हों। इसके बाद किसी युक्ति से उन्हें ठप करना होगा। प्रतिरक्षा विज्ञान की अत्यंत प्रतिष्ठित ‘मूलभूत मान्यता’ यह है कि प्रतिरक्षा तंत्र ‘अपने’ और ‘पराए’ में भेद करता है। यह काम छंटाई जैसी साधारण प्रक्रियाओं पर टिका है हालांकि प्रतिरक्षा वैज्ञानिक इसे ‘नकारात्मक चयन’ कहकर महिमामंडित करते हैं।

इसका मतलब है कि ‘अपने-पराए’ का भेद संरचना के किसी सामान्य नियम के तहत नहीं किया जाता। प्रतिरक्षा तंत्र में ऐसा कोई पूर्व निर्धारित मापदंड नहीं है जो उसे बताए कि वे अणु कौन-से हैं जो शरीर में ‘सामान्यत:’ बनते हैं। इनकी परिभाषा शुद्ध रूप से अनुभव-आधारित है: यदि कोई चीज़ लगातार आसपास नज़र आती है, शरीर में सब जगह मिलती है और किसी घुसपैठिए के कामकाज से जुड़ा कोई चिंह नहीं है तो बहुत संभावना है कि यह ‘अपना’ अणु होगा। अन्यथा इसके पराया होने की संभावना ज़्यादा है।

प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा ‘अपने’ की पहचान

सवाल यह है कि प्रतिरक्षा तंत्र ऐसे अनुभव-आधारित फैसले कैसे करता है? एक तरीका यह है कि यदि कोई अणु लगातार उपस्थित हो तो काफी संभावना है कि उसका सामना ‘नवनिर्मित’ बी या टी कोशिका से जन्म लेते ही हो जाएगा। तो एक नियम यह है कि यदि कोई बी या टी कोशिका लड़कपन (यानी बनने के कुछ ही समय बाद) में ही किसी लक्ष्य को पहचान ले, तो वह बी या टी कोशिका हानिकारक है और उसे खामोश हो जाना चाहिए। यदि उसे (बी या टी कोशिका को) अपना लक्ष्य प्रौढ़ होने के बाद नज़र आए तो संभावना यह है कि वह लक्ष्य पराया होगा और ऐसी कोशिकाओं को उस लक्ष्य के विरुद्ध पूरी ताकत से प्रतिक्रिया देना चाहिए। दूसरे शब्दों में बी व टी कोशिकाओं के विकास के दौरान एक अवधि ऐसी होती है (कोशिका की सतह पर ग्राही के अभिव्यक्त होने के तुरंत बाद) जब किसी एंटीजन से सामना होने पर वे सक्रिय होने की बजाय निष्क्रिय हो जाएंगी।

ज़ाहिर है, इसमें कई भूल-चूक की संभावना है। यदि शरीर में कोई संक्रमण चल रहा है, जिसके अणु (एंटीजन) नवजात प्रतिरक्षा कोशिकाओं को नज़र आ जाते हैं, तो ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाओं को छांटकर अलग कर दिया जाएगा। वे उस एंटीजन के विरुद्ध कार्रवाई करने की बजाय निष्क्रिय हो जाएंगी। ऐसा गर्भाशय में पल रहे बच्चे के मामले में होता है जो अपनी मां से कोई संक्रमण (जैसे हिपैटाइटिस बी वायरस) हासिल कर लेता है।

दूसरा, शरीर के सारे अणु लगातार अस्थि मज्जा या थायमस ग्रंथि में आते-जाते तो नहीं रह सकते। शरीर के कई अणु कोशिकांतर्गत प्रोटीन के रूप में होते हैं। या कुछ अणु मात्र कुछ विशिष्ट ऊतकों में प्रकट होते हैं। इसलिए संभावना है कि अस्थि मज्जा या थायमस ग्रंथि में रहते हुए बी या टी कोशिकाएं इनके संपर्क में न आएं। लेकिन जब वे अपनी जन्मस्थली से निकलकर व्यापक शरीर में पहुंचेंगी तो उनका सामना इन अणुओं से होगा। यदि ऐसा हुआ, तो चाहे ये अणु शरीर के दृष्टिकोण से ‘अपने’ हों, लेकिन प्रतिरक्षा तंत्र इन्हें ‘पराया’ मानेगा और हमला कर देगा। यह तो स्वास्थ्य व खुशहाली के लिए नुकसानदायक होगा। तो एक और पहचान व्यवस्था की ज़रूरत है। क्या किया जाए?

प्रतिरक्षा तंत्र कैसे तय करे कि किस पर हमला करे और किसे छोड़ दे?

हमने ऊपर कहा था कि ‘अपने’ को पहचानने का एक और तरीका यह है कि ‘अपने’ पर सामान्यत: किसी घुसपैठिए के कामकाज का कोई चिंह नहीं होगा। यह चीज़ एक अन्य समस्या से जुड़ी है जिसका ज़िक्र हम पहले कर चुके हैं। इसका सम्बंध प्रतिरक्षा तंत्र के पहचान मॉडल से है। यदि किसी चीज़ पर कोई ‘बिल्ला’ चिपका है, तो ज़रूरी नहीं कि वह चीज़ हानिकारक ही हो। लिहाज़ा, हर ‘बिल्ले’ पर टूट पड़ना संसाधन और श्रम की बरबादी होगी। तो प्रतिरक्षा तंत्र कैसे तय करे कि कब प्रतिक्रिया दे और कब अनदेखा करे?

दरअसल, यह दिक्कत एक अन्य वजह से और मुश्किल हो जाती है – ध्यान रखें कि प्रतिरक्षा तंत्र को अलग-अलग रोगजनकों के बारे में यह भी फैसला करना होता है कि कार्रवाई के किस मार्ग का उपयोग करे। वायरस को थामने के लिए उसे संक्रमित कोशिका को मारना होता है; कोशिका से बाहर मौजूद संक्रमण के लिए विशिष्ट किस्म की एंटीबॉडी बनानी होती हैं; और विकल्पी परजीवियों के लिए उन भक्षी-कोशिकाओं को सक्रिय करना होता है जिनके अंदर ये परजीवी बैठे हैं।

इनमें से कोई भी प्रतिक्रिया हर किस्म के संक्रमण के विरुद्ध कारगर नहीं होंगी। तो प्रतिरक्षा तंत्र कैसे तय करेगा कि कब क्या करना है? और इसके साथ टीकों की बात जोड़ लें, तो हम प्रतिरक्षा तंत्र को कैसे तैयार करेंगे कि वह सही किस्म की शक्तिशाली प्रतिक्रिया दे? आप देख ही सकते हैं कि प्रतिरक्षा खज़ाने की छंटाई करना टी और बी कोशिकाओं के संदर्भ में सही निर्णय करने की सामान्य समस्या का ही हिस्सा है।

इस समस्या से निपटने का एक ही वास्तविक तरीका है – कि किसी लक्ष्य की पहचान के बाद प्रतिरक्षा तंत्र की प्रतिक्रिया को संदर्भ के भरोसे छोड़ दिया जाए। यानी यह संदर्भ ऐसे संकेतों से बना होगा जो यह नहीं बताएंगे कि लक्ष्य क्या है, बल्कि यह बताएंगे कि वह लक्ष्य ‘खतरे’ का द्योतक है या नहीं ऐसा होने पर प्रतिरक्षा कोशिका को चुप बैठने की बजाय कुछ करना चाहिए। ज़ाहिर है, सबसे सरल संदर्भ संकेत वे होंगे जिनका उपयोग जन्मजात प्रतिरक्षा तंत्र करता है – जैसे कि भक्षी कोशिकाएं अपने ढंग से परजीवियों से निपटने में करती हैं। कोशिकाओं की सतह पर उपस्थित अणु तथा रुाावित प्रोटीन दोनों का स्तर संक्रमण से प्रेरित होता है, ऐसे संदर्भ जनित संकेत होते हैं और यदि लक्ष्य की पहचान ऐसे संकेतों की अनुपस्थिति में हो तो बी और टी कोशिकाएं कोई प्रतिक्रिया नहीं देंगी बल्कि खामोश कर दी जाएंगी। यह एक सफल नकारात्मक चयन होगा।

बहरहाल, नकारात्मक चयन की ये सारी शैलियां लगभग ही ठीक बैठती हैं, और अपेक्षा की जानी चाहिए कि इनमें कई खामियां होंगी। दरअसल, सामान्य व्यक्तियों में भी स्व-सक्रिय प्रतिरक्षा कोशिकाएं बहुत दुर्लभ नहीं होतीं। तो सवाल उठता है कि ऐसी स्व-सक्रिय प्रतिरक्षा कोशिकाएं बार-बार आत्म-प्रतिरक्षा बीमारियां पैदा क्यों नहीं करतीं। इस सवाल का जवाब इस बात में छिपा है कि संदर्भ-जनित संकेत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया का सूक्ष्म प्रबंधन करते हैं।

ठप कर दी गई बी और टी कोशिकाओं का क्या होता है?

यह कहना तो ठीक है कि आप बी या टी कोशिका को ठप कर देंगे। लेकिन ठप करने का ठीक-ठीक मतलब क्या है? मोटे तौर पर प्रतिरक्षा तंत्र के सामने दो विकल्प हैं। एक तो यह है कि जिस कोशिका को ठप किया जाना है उसे उकसाया जाए कि वह अपने मारक जीन्स को सक्रिय करके खुदकुशी कर ले। इसका मतलब होगा कि वह स्व-सक्रिय कोशिका भौतिक रूप से मिटा दी जाएगी और फिर कभी समस्या पैदा नहीं करेगी। नवजात बी व टी कोशिकाओं द्वारा स्व-लक्ष्य की कुशलतापूर्व पहचान और साथ में खतरे के सशक्त संदर्भ-जनित संकेत मौजूद हों, तो सफाए का यही तरीका अपनाया जाता है।

दूसरी ओर, यदि संकेत (खास तौर से संदर्भ-जनित संकेत) इतने सशक्त न हों कि वे कोशिका को खुदकुशी तक खींच लाएं, तो उस कोशिका को कोल्ड स्टोरेज में डालकर खामोश रखा जा सकता है। कहने का मतलब कि उसके साथ ऐसी छेड़छाड़ की जाती है कि वह काफी समय तक किसी चीज़ के प्रति प्रतिक्रिया नहीं दे पाएगी। यह एक ऐसा उपचार है जो सिर्फ नवजात कोशिकाओं पर नहीं बल्कि सारी बी व टी कोशिकाओं पर किया जा सकता है। तो यह छंटाई का एक सामान्य तरीका है।

लेकिन यह उपचार बार-बार करते रहना होगा, और इसलिए ये संभावित स्व-सक्रिय बी व टी कोशिकाएं शरीर के लिए हमेशा एक खतरे के रूप में उपस्थित रहेंगी। बहरहाल, प्रतिरक्षा तंत्र के पास इनसे निपटने के उपाय हैं जो इन कोशिकाओं के ग्राहियों में फेरबदल कर सकते हैं। ऐसा फेरबदल करने पर ये स्व की बजाय पराए लक्ष्यों को पहचानने लगती हैं। यानी कोल्ड स्टोरेज विकल्प का कुछ फायदा तो है। ज़ाहिर है, यदि ग्राही को ही बदल दिया गया तो इस कोशिका को ठप करने का उपचार फिर शायद काम न करे क्योंकि यह उपचार इस बात पर निर्भर है कि कोई ग्राही शरीर में सदा उपस्थित किसी चीज़ को पहचाने। यदि ग्राही बदल गया तो ये कोशिकाएं फिर से सक्रिय हो जाएंगी और संभावना है कि किसी काम आएं।

तो हमने देखा कि विभिन्न सम्बंधित तंत्रों से कोशिकाएं और प्रक्रियाएं उधार लेकर प्रतिरक्षा तंत्र अपने लिए ऐसे जुगाड़ करता है कि उसे काम करने में मदद मिलती है – किसी भी बाहरी घुसपैठिए के खिलाफ काफी लक्ष्योन्मुखी ढंग से। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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