जैव विकास के प्रति जागरूक चिकित्सा विज्ञान – 4 -डॉ. राघवेंद्र गडग्कर

कुछ हालिया मुद्दे

वैकासिक चिकित्सा के क्षेत्र में अपेक्षा यह है कि अधिकांश गतिविधि जिज्ञासा-प्रेरित पहेली सुलझाने पर आधारित अनुसंधान से जुड़ी होंगी और सफलता का आकलन इस आधार पर किया जाएगा कि नए निष्कर्ष कितने सुंदर और तार्किक हैं और कैसे वे अब तक असम्बंधित दिखने वाली परिघटनाओं को संतोषजनक ढंग से आपस में जोड़ते हैं। विज्ञान के फलने-फूलने के लिए यही तो चाहिए। आइए अब कुछ हालिया उदाहरणों पर गौर करते हैं।

रोगनुमा मोटापा: वैकासिक उत्पत्ति

मैरी जेन एक अत्यंत प्रतिष्ठित वैकासिक जीव विज्ञानी हैं। उनकी पुस्तक डेवलपमेंटल प्लास्टिसिटी एंड इवोल्यूशन (Developmental Plasticity and Evolution, 2003) ने उन्हें वैकासिक जीव विज्ञान में एक प्रमुख समकालीन विचारक के रूप में स्थापित कर दिया है। खुशी की बात है कि ऐसे लेखक ने अब अपना ध्यान वैकासिक चिकित्सा की समस्या पर लगाया है।

वर्ष 2019 में PNAS के एक परिप्रेक्ष्य आलेख – ‘न्यूट्रिशन, दी विसरल इम्यून सिस्टम, एंड दी इवोल्यूशनरी ओरिजिन्स ऑफ पैथोजेनिक ओबेसिटी’ – में मैरी जेन ने एक नवीन परिकल्पना प्रस्तावित की थी: ‘VAT prioritisation’। उनका मुख्य सुझाव यह था कि आमाशयी वसा और त्वचा के नीचे जमा वसा के बीच भेद किया जाना चाहिए। इन्हें एक ही श्रेणि में रखना ठीक नहीं है जैसा कि बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) के संदर्भ में किया जाता है। बीएमआई का मतलब होता है आपका कुल वज़न बटा मीटर में कद का वर्ग।

बीएमआई अति वज़न और मोटापे की स्थिति का विवऱण देने या उनका निदान करने के लिए पर्याप्त नहीं होता और न ही उनसे सम्बंधित तमाम रोगों (जैसे टाइप-2 डायबिटीज़ या रक्त संचार सम्बंधी रोग) को समझने में मददगार होता है। इसका कारण यह है कि आमाशयी वसा, जिसे तकनीकी भाषा में विसरल एडिपोज़ टिश्यू (VAT) कहते हैं, और त्वचा के नीचे जमा वसा, जिसे सबक्यूटेनियस एडिपोज़ टिश्यू (SAT) कहते हैं, इन दोनों के कार्य अलग-अलग हैं और ये पर्यावरणीय कारकों के प्रति अलग-अलग ढंग से प्रत्युत्तर देते हैं। स्वास्थ्य, सामाजिक व वैकासिक संदर्भ में इनके परिणाम भी अलग-अलग होते हैं।

लिहाज़ा, मैरी जेन का कहना है कि “इन मुख्य संरचनाओं के जैविक कार्यों को समझे बगैर, मोटापे की बीमारी का विश्लेषण करना ऐसा है जैसे हृदय के जैविक कार्य को समझे बगैर रक्त संचार सम्बंधी रोगों को समझने की कोशिश।”

VAT के प्रमुख प्रतिरक्षा सम्बंधी कार्य हैं जिनमें प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया शुरू करने के लिए ज़रूरी कुछ वसा अम्लों का भंडारण करना और ऐसे संकेतों का प्रत्युत्तर देना जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया की ज़रूरत दर्शाते हैं। लिहाज़ा, VAT आमाशयी संक्रमणों से निपटने में निर्णायक भूमिका निभाता है। दूसरी ओर, SAT संक्रमणों से निपटने में महत्वपूर्ण नहीं होता और उसके अन्य कार्य होते हैं जैसा कि हम आगे देखेंगे।

VAT प्रायोरिटाइज़ेशन परिकल्पना कहती है कि जब भ्रूण को कम पोषण मिले तो उसे SAT के मुकाबले VAT में निवेश को प्राथमिकता देनी चाहिए और उम्मीद की जानी चाहिए कि जन्म के समय बच्चे का वज़न कम होगा, जो संक्रमण के उच्च जोखिम से जुड़ा देखा गया है।

लेकिन कभी-कभी अभावग्रस्त भ्रूणीय पर्यावरण के आधार पर अभावग्रस्त वयस्क पर्यावरण की भविष्यवाणी असफल रहती है (जैसा तब होता है जब कम वज़न वाले बच्चे को बढ़िया भोजन मिलने लगता है) तो एक दिक्कत होती है, एक नए किस्म का असामंजस्य प्रकट होता है। अतिरिक्त व अनावश्यक आमाशयी वसा जमा होने लगती है, जिसका परिणाम मोटापे के रूप में सामने आता है, जिसका सम्बंध डायबिटीज़ और रक्तसंचार सम्बंधी रोगों से देखा गया है।

आमाशयी वसा के अतिरेक की समस्या तब और विकट हो जाती है जब वयस्कों को वसा व शकर से भरपूर भोजन मिलने लगता है। ऐसा भोजन शरीर को सूजननुमा (शोथनुमा) प्रतिक्रिया शुरू करने को उकसाता है। और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अतिरिक्त वसा व शकर आंतों के बैक्टीरिया को प्रभावित करते हैं, जिसके कारण संभवत: विसरल रोगजनकों के लिए पारगम्यता और बढ़ जाती है।

शरीर के विभिन्न कार्यिकीय घटकों की जटिल परस्पर क्रियाओं की जानकारी के बगैर चिकित्सकीय हस्तक्षेपों को लेकर सचेत हो जाना चाहिए।

मुझे खास तौर से मैरी जेन द्वारा उद्धरित एक शोध पत्र ने प्रभावित किया था जिसमें नीना मोदी और इम्पीरियल कॉलेज लंदन और किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल, पुणे के उनके साथियों ने भारतीय व युरोपीय शिशुओं की तुलना की थी। इसमें कहा गया था, “वयस्क एशियाई भारतीय फीनोटाइप में कमतर बॉडी मास इंडेक्स के बावजूद कमर वाले हिस्से में मोटापा पाया जाता है।”

उनका निष्कर्ष गौरतलब है। युरोपीय शिशुओं की तुलना में एशियाई भारतीय नवजातों में VAT वसा-संग्रह कहीं ज़्यादा था, जबकि पूरे शरीर के स्तर पर वसा संग्रह लगभग बराबर था। उनका निष्कर्ष था कि “वसा ऊतकों का विभाजन जन्म के समय ही अस्तित्व में होता है” और उन्होंने सलाह दी थी कि “खोजबीन, स्क्रीनिंग तथा रोकथाम के उपायों में मां के स्वास्थ्य, गर्भाशय में रहने की अवधि और शैशवावस्था को शामिल किया जाना चाहिए।”

SAT के ऊपर VAT को प्राथमिकता देना शरीर का एक उपयोगी प्रत्युत्तर हो सकता है – लेकिन गर्भावस्था के दौरान घटिया पोषण की भरपाई ज़्यादा वसा और शकर युक्त आहार देकर करना शायद मामले को और बिगाड़ सकता है। कहने का मतलब यह है कि जीवन में खराब परिस्थितियों के कारण हुए असर को किसी अन्य समय पर परिस्थिति में सुधार करके संभाला नहीं जा सकता। दरअसल, यह बात को बिगाड़ सकता है।

यह एक बार फिर दर्शाता है कि चिकित्सा और स्वास्थ्य देखभाल में शरीर की उन क्रियाविधियों का ध्यान रखना होगा, जो प्रतिकूलताओं से निपटने के लिए विकसित हुई हैं। कोशिश इन प्रक्रियाओं को सुदृढ़ बनाने की होनी चाहिए, न कि उनको अनदेखा करके कुछ एकदम नया करने की।

दूसरी ओर, SAT का अतिरेक स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है। इसीलिए अधिक SAT वाले लोगों पर ‘चयापचयी रूप से स्वस्थ मोटा’ का लेबल चस्पा कर दिया जाता है। VAT प्रायोरिटाइज़ेशन परिकल्पना का एक प्रमुख तत्व यह है कि VAT-SAT संतुलन फीनोटायपिक लचीलेपन से आकार पाता है – कहने का मतलब कि एक ही जीन समुच्चय पर्यावरण के अनुसार अलग-अलग प्रकट रूपों को जन्म दे सकता है: यदि परिस्थितियां खराब हों तो VAT ज़्यादा और यदि बाहर सब कुछ ठीक-ठाक लगे तो SAT ज़्यादा। तो आखिर ज़्यादा SAT क्यों अच्छा है?

विविध साहित्य के आधार पर, मैरी जेन का तर्क है कि SAT व्यक्ति को स्तनों और कूल्हों जैसे क्षेत्रों में वसा संग्रह की अनुमति देता है, जिनसे शरीर का शेप तथा सौंदर्य व उर्वरता के अन्य लक्षण परिलक्षित होते हैं और यौन व सामाजिक आकर्षण के ज़रिए प्रजनन में सफलता मिलती है। यौन व सामाजिक आकर्षण ऐसी परिघटना है जिसका मैरी जेन पहले काफी विस्तार में अध्ययन कर चुकी हैं और ये प्राकृतिक वरण की विविधताएं हैं जहां व्यक्ति प्रजनन या सामाजिक सहयोग के लिए साथी के रूप में वरीयता पाकर वैकासिक सफलता हासिल करता है।

कुल मिलाकर मैरी जेन का निष्कर्ष था कि “VAT–SAT संतुलन को वैकासिक दृष्टि से देखा जा सकता है जिसमें VAT की प्रतिरक्षा भूमिका और SAT की सामाजिक भूमिका (शरीर को आकार देना) के बीच लेन-देन होता है।”

निसंदेह इन विचारों को संभावित परिकल्पना के रूप में देखा जाना चाहिए, जिनकी आगे जांच करना उपयोगी होगा। कोई परिकल्पना जितने विविध व सहजबोध विरुद्ध अवलोकनों को जोड़ सके वह उतनी ही आकर्षक होनी चाहिए।

अलबत्ता, परिकल्पना के उच्चतर आकर्षण का मतलब ज़रूरी नहीं कि वह सही हो, लेकिन इतना तो है कि ऐसी परिकल्पना को परीक्षण में प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

टाइप-2 डायबिटीज़ पर पुनर्विचार

मेरे मित्र व सहकर्मी मिलिंद वाटवे ने पिछले दो दशक टाइप-2 डायबिटीज़ के बारे में हमारी समझ को चुनौती देते व्यतीत किए हैं और एक संभव नया मान्यता-आधार सुझाने की कोशिश की है। एक पुस्तक डव्स, डिप्लोमैट्स एंड डायबिटीज़ में वाटवे पहले तो टाइप-2 डायबिटीज़ की हमारी पारंपरिक समझ का सार प्रस्तुत करते हैं:

1. मोटापा धनात्मक ऊर्जा संतुलन का परिणाम है – यानी हम जितना जलाते हैं, उससे ज़्यादा खाते हैं।

2. मोटापा इंसुलिन प्रतिरोध का प्रमुख कारण है।

3. इंसुलिन प्रतिरोध से निपटने के लिए शरीर ज़्यादा इंसुलिन बनाने लगता है।

4. इंसुलिन निर्माण की क्षमता में क्रमिक गिरावट और इंसुलिन प्रतिरोध का विकास मिलकर रक्त शर्करा में वृद्धि का कारण बनते हैं।

5. बढ़ी हुई रक्त शर्करा डायबिटीज़ के रोग परिणामों के लिए उत्तरदायी होती है।

दूसरे भाग में तमाम शोध साहित्य की मदद से वे इनमें से प्रत्येक वक्तव्य पर सवाल खड़े करते हैं:

1. धनात्मक ऊर्जा संतुलन का कारण अस्पष्ट है; क्या यह इसलिए होता है कि हम ज़्यादा खाते हैं या कमजलाते हैं? यदि हम नहीं जानते कि कौन-सी बात सही है, तो धनात्मक ऊर्जा संतुलन का विचार उपयोगी नहीं रह जाता। दूसरे शब्दों में, हम आजकल के मोटापे के कारणों को नहीं समझते।

2. मोटापा और इंसुलिन प्रतिरोध में सह-सम्बंध तो है लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कौन-सा कारण है और कौन-सा उसका परिणाम। यदि इनके बीच कार्य-कारण सम्बंध मान लिया जाए, तो भी यह स्पष्ट नहीं है कि मोटापा किस क्रियाविधि से इंसुलिन प्रतिरोध को जन्म देता है।

3. यह भी सही है कि इंसुलिन प्रतिरोध और इंसुलिन के उत्पादन के बीच सह-सम्बंध है लेकिन यहां भी कार्य-कारण सम्बंध अस्पष्ट है। यदि ऐसा हो कि इंसुलिन का अति-उत्पादन इंसुलिन प्रतिरोध को जन्म देता हो, तो कहानी पलट जाएगी और खुराक व मोटापे की भूमिकाओं पर सवाल खड़े हो जाएंगे।

4. शोध-साहित्य में सारे प्रमाण संकेत देते हैं कि इंसुलिन की कमी और इंसुलिन प्रतिरोध, दोनों ही महत्वपूर्ण हैं, लेकिन ये रक्त शर्करा में वृद्धि पैदा करने के लिए न तो आवश्यक हैं और न ही पर्याप्त।

5. उच्च रक्त शर्करा और डायबिटीज़ के रोगनुमा प्रभावों के बीच प्रस्तावित कड़ी सबसे कमज़ोर है और इसके चलते पूरा मामला प्रमाणित तथ्य की बजाय एक विश्वास ज़्यादा लगता है।

प्रचलित मान्यता-आधार से असंतुष्ट होकर, वाटवे ने एक नया मान्यता-आधार प्रस्तुत करने की कोशिश की। संक्षेप में, वाटवे का नया मान्यता-आधार यह है कि हमारी व्यवहारगत रणनीतियां स्वास्थ्य और बीमारी, खास तौर से चयापचय-सम्बंधी बीमारियों, के संदर्भ में महत्वपूर्ण तत्व हैं।

व्यापक शोध साहित्य के आधार पर वाटवे ने अपनी परिकल्पना और वर्तमान मान्यता-आधार का अंतर संक्षेप में इन शब्दों में प्रस्तुत किया था:

“क्लासिकल सिद्धांत की दलील है कि सुस्त जीवन शैली मोटापे को जन्म देती है, मोटापा इंसुलिन-प्रतिरोध पैदा करता है। [मेरी] नई परिकल्पना कहती है कि शारीरिक गतिविधियां और खास तौर से आक्रामक गतिविधियां, मोटापे से स्वतंत्र, अपने-आप में इंसुलिन के प्रति संवेदनशील बनाती हैं…।”

अर्थात, वाटवे द्वारा प्रस्तावित कार्य-कारण दिशा ‘जीवन शैली से इंसुलिन प्रतिरोध से मोटापे’ की ओर जाती है, न कि पूर्व में बताई गई ‘जीवन शैली से मोटापा से इंसुलिन प्रतिरोध’ की ओर। ज़ाहिर है कि यह प्रस्तावित नया कार्य-कारण सम्बंध बहुत अलग किस्म के नीतिगत नुस्खे का रास्ता खोलता है।

वाटवे ने दीनानाथ मंगेशकर हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर (पुणे) में हाल ही में स्थापित बिहेवियोरल इंटरवेंशन फॉर लाइफस्टाइल डिस-ऑर्डर्स (BILD) में चिकित्सकों के साथ काम शुरू भी कर दिया है। एक हालिया प्रकाशन में उन्होंने और उनके साथियों ने दर्शाया है कि “कामकाजी फिटनेस के एक बहुआयामी स्कोर का टाइप-2 डायबिटीज़ के साथ ज़्यादा सशक्त सह-सम्बंध है बनिस्बत मोटापे के।”

अलबत्ता, मान्यता-आधारों को बदलना बहुत मुश्किल काम है। एक हालिया ईमेल में वाटवे ने मुझे बताया था:

“मैं डायबिटीज़ के सम्बंध में शोध कार्य प्रकाशित करता रहा हूं (अब तक 20 शोध पत्र और 2 पुस्तकें)। लेकिन मैं डायबिटीज़ अनुसंधान समुदाय की प्रतिक्रिया से हैरान हूं। किसी ने विरोध में तर्क नहीं दिए, जो कुछ मैं कह रहा हूं, किसी ने उस पर सवाल नहीं उठाए और संदेह व्यक्त नहीं किए। मैंने हारवर्ड मेडिकल स्कूल के जोसलिन डायबिटीज़ सेंटर जैसी जगहों पर व्याख्यान दिए। लोगों ने मुझे रुचिपूर्वक सुना और व्यक्ति की हैसियत से सकारात्मक प्रतिक्रिया दी। लेकिन विज्ञान के स्तर पर कुछ नहीं हुआ। प्रचलित मान्यता-आधार में कोई परिवर्तन नहीं दिखा जबकि अनगिनत प्रयोग उसका खंडन कर रहे हैं। मेरे शोध पत्रों को बहुत कम उद्धरित किया जाता है। चिकित्सकीय कामकाज में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।”

वाटवे के साथ न्याय करते हुए, कहना होगा कि उनके दावे और अपेक्षाएं बहुत अधिक नहीं हैं। अपनी पुस्तक का समापन करते हुए उन्होंने लिखा है कि हो सकता है कि वे गलत हों और उन्हें खुशी होगी कि कोई उनकी गलतियां बताए या उनकी भविष्यवाणियों को परखने के लिए प्रयोग करे।

वैकासिक सोच, डॉक्टर और मरीज़

बदकिस्मती से, वैकासिक जीव विज्ञान में वैकासिक चिकित्सा के विचार से प्रेरित गतिविधियों का अंबार अपने आप चिकित्सा के कामकाज में, डॉक्टरों के पेशेवर जीवन में या मरीज़ों के अनुभव में कोई ठोस परिवर्तन नहीं लाएगा। 

नए अनुसंधान का डॉक्टरों व मरीज़ों पर कोई असर हो, इसके लिए ज़रूरी होगा कि वैकासिक जीव विज्ञान का उतना ही लाभदायक असर चिकित्सा विज्ञान तथा चिकित्सकीय कामकाज पर हो। यह तभी होगा जब डॉक्टर और चिकित्सा शोधकर्ता वैकासिक जीव विज्ञान को मुख्य सिद्धांत के रूप में स्वीकार करें।

इसके लिए ज़रूरी होगा कि वैकासिक जीव विज्ञान चिकित्सा शिक्षा का अभिन्न हिस्सा बने ताकि चिकित्सा शोधकर्ता और चिकित्सक स्वयं चिकित्सा का एक जैव विकास प्रेरित अजेंडा विकसित कर सकें। यहां जॉर्ज विलियम्स और रैडॉल्फ नेसे की वह टिप्पणी दोहराना मुनासिब है जो उन्होंने अपने महत्वपूर्ण शोध पत्र दी डॉन ऑफ डार्विनियन मेडिसिन (1991) में व्यक्त की थी:

“चिकित्सा सम्बंधी समस्याओं में जैव विकास के सिद्धांतों के नए अनुप्रयोग दर्शाते हैं कि यदि चिकित्सा व्यवसायी डार्विन से उसी तरह प्रेरित हों, जिस तरह से वे पाश्चर से हुए हैं, तो प्रगति और भी तेज़ होगी।”

जैव विकास और चिकित्सा पाठ्यक्रम

चिकित्सा विद्यालयों को यह समझाने के काफी प्रयास किए गए हैं कि वे चिकित्सा विज्ञान के पाठ्यक्रम में वैकासिक जीव विज्ञान को शामिल करें लेकिन ज़्यादा सफलता नहीं मिली है। रैडॉल्फ नेसे ने एक हालिया ईमेल में मुझे बताया था:

“कोई चिकित्सा विद्यालय यह विषय नहीं पढ़ाता, हालांकि एक व्याख्यान होता है। क्यों नहीं पढ़ाता? एक वास्तविक तहकीकात ज़रूरी है लेकिन मुख्य बात यह है कि डॉक्टर्स वैकासिक जीव विज्ञान जानते ही नहीं, और चिकित्सा विद्यालयों की फैकल्टी में कोई वैकासिक जीव वैज्ञानिक नहीं होता…और चिकित्सा एक ऐसा व्यवसाय है जो सिर्फ ठीक करने (फिक्सिंग) पर ध्यान देता है और मात्र उस समझ को बढ़ावा देता है जो ठीक करने में या स्थापित चिकित्सा वैज्ञानिकों के कैरियर में मदद करे…। PNAS में मेरे आलेख (कि क्यों चिकित्सा पाठ्यक्रम में जैव विकास ज़रूरी है) में हारवर्ड और येल विश्वविद्यालय के डीन्स सहलेखक थे किंतु उसका लगभग कोई असर नहीं हुआ।”

पाठ्यक्रम सुधार प्राय: विभिन्न विषयों के संरक्षकों के बीच दंगल-सा होता है। जैव विकास के मामले में एक अतिरिक्त समस्या है – जैव विकास को लेकर धार्मिक आपत्तियां और कतिपय समाजों में हित-सम्बंधी समूहों के तुष्टिकरण की राजनैतिक मजबूरी। डॉक्टरों और चिकित्सा विज्ञान शोधकर्ताओं को वैकासिक सोच आत्मसात करवाना पाठ्यक्रम सुधार के बिना संभव नहीं है। लेकिन यह वह क्षेत्र है जिसमें प्रगति बहुत कम हुई है और भविष्य भी बहुत आशाजनक नहीं लगता।

इस बात की तत्काल ज़रूरत है कि शिक्षाविद और प्रशासक इस बाधा को पार करने के उपाय निकालें, क्योंकि दांव पर काफी कुछ लगा है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://iiif.elifesciences.org/journal-cms/collection%2F2021-07%2Felife-evolutionary-medicine-2.jpg/0,1,10738,3576/2000,/0/default.jpg

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