अनैतिकता के निर्यात पर रोक का प्रयास

नैतिकता का निर्यात यानी एथिकल डंपिंग शब्द युरोपीय आयोग ने 2013 में गढ़ा था। इसका आशय यह है कि कई देशों के शोधकर्ता नैतिक मापदंडों के चलते जो शोध अपने देश में नहीं कर सकते उसे किसी अन्य देश में जाकर करते हैं जहां के नैतिक मापदंड उतने सख्त नहीं हैं। यह स्थिति प्राय: विकसित सम्पन्न देशों और निर्धन देशों के बीच उत्पन्न होती है। अब युरोपीय संघ ने इस तरह के अनैतिकता के निर्यात पर रोक लगाने का फैसला किया है।

वैसे युरोपीय संघ द्वारा वित्तपोषित शोध के संदर्भ में अनैतिकता के निर्यात की बात 2013 में ही शुरू हो गई थी किंतु उस समय इस संदर्भ में स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं होने के कारण प्रतिबंध को लागू नहीं किया जा सका था। अब आयोग ने दिशानिर्देश तैयार कर लिए हैं और युरोपीय संघ द्वारा वित्तपोषित सारे अनुसंधान प्रोजेक्ट्स में इन्हें लागू किया जाएगा।

युरोपीय आयोग के नैतिकता समीक्षा विभाग का कहना है कि इस तरह से अन्य देशों में जाकर शोध के ढीलेढाले मापदंडों का उपयोग करने से वैज्ञानिक अनुसंधान की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। खास तौर से यह स्थिति जंतुओं पर किए जाने वाले अनुसंधान के संदर्भ में सामने आती है। इसके अलावा, कई मर्तबा यह भी देखा गया है कि जिन देशों में अनुसंधान किया जाता है, वहां के लोगों को पर्याप्त जानकारी देने के मामले में भी लापरवाही बरती जाती है। अनुसंधान में भागीदारी के जो मापदंड युरोप में लागू हैं, उनका पालन प्राय: नहीं किया जाता। दिशानिर्देशों में यह भी कहा गया है कि शोध परियोजनाओं में इस वजह से जानकारी छिपाना या कम जानकारी देना उचित नहीं कहा जा सकता कि वहां के लोग या स्थानीय शोधकर्ता उसे समझ नहीं पाएंगे। इसके अलावा एक मुद्दा यह भी है कि अन्य देशों में शोध करते समय वहां के नियमकानूनों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।

अलबत्ता, कई लोगों का कहना है कि इस तरह की सख्ती से अन्य देशों में अनुसंधान करना मुश्किल हो जाएगा और इससे न सिर्फ वैज्ञानिक अनुसंधान का बल्कि उन देशों का भी नुकसान होगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

Photo Credit: The Conversation

चीन में जच्चा-बच्चा का विशाल अध्ययन

चीन में 6 वर्ष पूर्व एक महत्वाकांक्षी शोध परियोजना शुरू की गई थी। इस परियोजना के अंतर्गत लक्ष्य यह है कि 50,000 नवजात शिशुओं और उनकी मांओं को शामिल किया जाएगा और इनका अध्ययन बच्चों की उम्र 18 वर्ष होने तक निरंतर किया जाएगा। इस तरह एक ही समूह का लंबे समय तक अध्ययन करना कोहर्ट अध्ययन कहलाता है और ऐसे समूह को कोहर्ट कहते हैं।

वर्ष 2012 तक इस कोहर्ट में 33,000 बच्चे और उनकी मांओं को शामिल किया जा चुका था। और 2020 तक 50,000 जच्चा-बच्चा का लक्ष्य हासिल करने की योजना है। इसके अलावा अब अध्ययन में पांच हज़ार नानियों को शामिल किया जाएगा। इन सारे बच्चों का जन्म गुआंगज़ाउ महिला व बाल चिकित्सा केंद्र में हुआ है। इस बात का ध्यान रखा जा रहा है कि उन्हीं बच्चों और माओं को शामिल किया जाए जो आने वाले कई वर्षों तक गुआंगज़ाउ में रहने का इरादा रखते हैं।

अध्ययन के दौरान अब तक कोई 16 लाख जैविक नमूने एकत्र किए जा चुके हैं। इनमें मल, रक्त, आंवल के ऊतक और गर्भनाल वगैरह शामिल हैं। शोधकर्ता इन बच्चों और उनकी मांओं में कई बातों की जांच करेंगे। जैसे एक प्रमुख जांच बच्चों के शरीर के सूक्ष्मजीव जगत की होगी और यह देखने की कोशिश की जाएगी कि उम्र के साथ प्रत्येक बच्चे का सूक्ष्मजीव जगत कैसे विकसित होता है। यह देखने की भी कोशिश की जा रही है कि शरीर में सूक्ष्मजीव जगत पर किन बातों का असर पड़ता है, जैसे बचपन में दी गई दवाइयां, या यह कि प्रसव सामान्य ढंग से हुआ था या ऑपरेशन से वगैरह। इन आंकड़ों के आधार पर बीमारियों के बारे में समझ बनने की उम्मीद है। इसके साथ ही इन परिवारों की जीवन शैली से जुड़ी बातों पर भी ध्यान दिया जाएगा।

कुछ निष्कर्ष तो उभरने भी लगे हैं और शोधकर्ता दल ने इन्हें प्रकाशित भी किया है। जैसे आम तौर पर गर्भवती स्त्री को प्रोजेस्टरोन नामक दवा दी जाती है ताकि समय-पूर्व प्रसव को टाला जा सके। इस अध्ययन से पता चला है कि शुरुआती गर्भावस्था (14 सप्ताह तक) में यह दवा देने से कोई फायदा नहीं होता बल्कि नुकसान ही हो सकता है। प्रोजेस्टरोन देने से इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि प्रसव सिज़ेरियन ऑपरेशन से करना होगा। इसके अलावा प्रसव-उपरांत अवसाद की आशंका में भी वृद्धि होती है।

यह देखा गया है कि बच्चे में कुछ कोशिकाएं मां से आती हैं और ये अनिश्चित समय तक जीवित रह पाती हैं। अध्ययन में यह देखने की कोशिश की जाएगी कि ये कोशिकाएं कैसे लंबे समय तक जीवित रहती हैं और क्या भूमिका अदा करती हैं। चूहों पर अध्ययन में देखा गया है कि ये उनके बच्चों को संतानोत्पत्ति के समय कुछ सुरक्षा प्रदान करती हैं।

वैसे तो ऐसे कोहर्ट अध्ययन पहले भी किए गए हैं किंतु इतने विशाल पैमाने पर पहली बार किया जा रहा है। गुआंगज़ाउ महिला एवं बाल चिकित्सा केंद्र में वैज्ञानिक और प्रोजेक्ट के निदेशक, ज़िउ किउ का कहना है कि इस अध्ययन से आंकड़ों का एक अकूत भंडार तैयार होगा जो दुनिया भर के वैज्ञानिकों के लिए खुला रहेगा। इस तरह के आंकड़ों से स्वास्थ्य और बीमारी को समझने की ज़बर्दस्त संभावनाएं हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

Photo Credit: GB Times

 

क्या मनुष्यों की ऊपरी आयु की सीमा आ चुकी है?

हाल ही में किया गया एक सांख्यिकीय अध्ययन बताता है कि मनुष्यों की आयु की ऊपरी सीमा अभी नहीं आई है हालांकि आज तक का रिकॉर्ड 112 वर्ष है। साइन्स शोध पत्रिका में प्रकाशित यह अध्ययन इटली के राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान द्वारा संग्रहित आंकड़ों के आधार पर किया गया है।

सेपिएन्ज़ा विश्वविद्यालय की एलिसाबेटा बार्बी और उनके साथियों ने पाया कि इटली की नगर पालिकाएं अपने बाशिंदों के काफी व्यवस्थित रिकॉर्ड रखती हैं। इसलिए उन्होंने अपने अध्ययन में इन्हीं आंकड़ों का उपयोग किया।

पूर्व के अध्ययनों में देखा जा चुका है कि उम्र बढ़ने के साथ व्यक्ति की अगले एक वर्ष में मृत्यु की संभावना बढ़ती जाती है। उदाहरण के लिए 50 वर्ष की उम्र में अगले एक साल में व्यक्ति की मृत्यु होने की संभावना 30 वर्ष की उम्र के मुकाबले तीन गुनी हो जाती है। उम्र के सातवें और आठवें दशक के बाद अगले एक वर्ष में मृत्यु की संभावना हर 8 वर्षों में दुगनी हो जाती है। और यदि आप 100 वर्ष की उम्र पर पहुंच गए हैं तो मात्र 60 प्रतिशत संभावना रहती है कि आप अपना अगला जन्म दिन देख पाएंगे।

इस तरह के रुझानों के बावजूद कम से कम मक्खियों और कृमियों में एक और बात देखी गई है। इन जंतुओं में एक उम्र पार करने के बाद मृत्यु की संभावना बढ़ना रुक जाती है। अब तक मनुष्यों में इस बात की जांच नहीं की जा सकी थी। बार्बी व उनके साथियों ने इटली के राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान के आंकड़ों में से उन लोगों के आंकड़े लिए जो 2009 से 2015 के बीच कम से कम 105 वर्ष के थे। इनकी कुल संख्या 3836 थी। आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर देखा गया कि 105 वर्ष की उम्र के बाद मत्यु की संभावना नहीं बढ़ती। कहने का मतलब है कि 106 वर्ष के किसी व्यक्ति की 107 की उम्र में मरने की संभावना उतनी ही होती है जितनी 111 वर्षीय व्यक्ति के 112 वर्ष की उम्र में मरने की।

आंकड़ों से एक बात और पता चली जन्म के वर्ष के आधार पर देखें तो सालदरसाल 105 साल जीने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह इस बात का संकेत है कि यदि मनुष्यों की आयु की कोई उच्चतम सीमा है तो हम उस सीमा तक अभी नहीं पहुंचे हैं। वैसे कई अन्य वैज्ञानिकों का ख्याल है कि यह निष्कर्ष उतना पक्का नहीं है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

Photo Credit: The Guardian

पोलियो ने फिर सिर उठाया

बात भारत की नहीं, कॉन्गो प्रजातांत्रिक गणतंत्र की है। अलबत्ता, कहीं की भी हो मगर यह बात अंतर्राष्ट्रीय चिंता का विषय है कि पोलियो ने फिर से बच्चों को लकवाग्रस्त किया है।

कॉन्गो प्रजातांत्रिक गणतंत्र (संक्षेप में कॉन्गो) में पोलियो के कारण 29 बच्चे लकवाग्रस्त हो चुके हैं और गत 21 जून को एक और मामला सामने आया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के वैश्विक पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम ने इसे अत्यंत चिंताजनक घटना घोषित किया है जो पोलियो उन्मूलन के हमारे प्रयासों को वर्षों पीछे धकेल सकती है।

कॉन्गो में उभरे नए मामले पोलियो उन्मूलन के प्रयासों के सबसे कठिन हिस्से की ओर संकेत करते हैं। कॉन्गो में पोलियो के ये मामले उस कुदरती वायरस के कारण नहीं हुए हैं, जो अफगानिस्तान, पाकिस्तान और शायद नाइजीरिया में अभी भी मौजूद है। कॉन्गो में लकवे के नए मामले ओरल पोलियो वैक्सीन (दो बूंद ज़िंदगी की) में इस्तेमाल किए गए दुर्बलीकृत वायरस के परिवर्तित रूप के कारण सामने आए हैं। वैक्सीन का यह दुर्बलीकृत वायरस प्रवाहित होता रहा और इसमें विभिन्न उत्परिवर्तन हुए और अंतत: इसने फिर से संक्रमण करने और लकवा पैदा करने की क्षमता अर्जित कर ली है।

वास्तव में मुंह से पिलाया जाने वाला पोलियो का टीका काफी सुरक्षित और कारगर माना जाता है और यही पोलियो उन्मूलन के प्रयासों का केंद्र बिंदु रहा है। इसकी एक खूबी है जो अब परेशानी का कारण बन रही है। टीकाकरण के बाद कुछ समय तक यह दुर्बलीकृत वायरस मनुष्य से मनुष्य में फैलता रहता है। इसके चलते उन लोगों को भी सुरक्षा मिल जाती है जिन्हें सीधे-सीधे टीका नहीं पिलाया गया था। मगर कई बार यह वायरस इस तरह से बरसों तक पर्यावरण में मौजूद रहकर उत्परिवर्तित होता रहता है और फिर से संक्रामक रूप में आ जाता है।

टीके से उत्पन्न पोलियो वायरस सबसे पहले वर्ष 2000 में खोजा गया था। इसकी खोज होते ही, विश्व स्वास्थ्य सभा ने घोषित किया था कि कुदरती वायरस के समाप्त होते ही मुंह से पिलाए जाने वाले टीके को बंद कर देना चाहिए। फिर 2016 में पता चला कि टीका-जनित पोलियो वायरस अब कहीं अधिक घातक हो चला है और यह कुदरती वायरस की अपेक्षा ज़्यादा लोगों को लकवाग्रस्त बना रहा है। उसके बाद से इसे एक वैश्विक समस्या मानते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन के पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम ने पोलियो उन्मूलन की रणनीति में कई बदलाव किए हैं और देशों को प्रसारित किए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि बदली हुई रणनीतियां कामयाब होंगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

Photo Credit: Pakistan today

 

बैक्टीरिया का इलाज बैक्टीरिया से – डॉ. अरविंद गुप्ते

तपेदिक यानी टीबी की बीमारी सदियों से अनगिनत इंसानों की मृत्यु का कारण बन चुकी है। किसी रोग का इलाज तभी हो सकता है जब उसके कारण का पता हो। उन्नीसवीं शताब्दी में पता चला कि टीबी का रोग फेफड़ों में रहने वाले एक बैक्टीरिया, म्युको­बैक्टीरियम टयुबरकूलोसिस, के कारण होता है। बीसवीं शताब्दी के मध्य में एन्टीबायोटिक दवाओं का आविष्कार हुआ और इनके कारण टीबी का इलाज आसान हो गया। 

इलाज तो संभव हुआ किंतु अब एक नई समस्या सामने गई है। इस बैक्टीरिया की कुछ किस्मों पर दवाओें का असर होना बंद हो गया है और मरीज़ फिर इस रोग के शिकार होने लगे हैं। संसार में वर्तमान में लगभग एक करोड़ टीबी मरीज़ों में से लगभग 5 लाख मरीज़ों पर टीबी उपचार के परम्परागत दवा मिश्रण रिफेम्पिसिन और आइसो­नियाज़िड का असर नहीं हो रहा है। डॉक्टरों और वैज्ञानिकों को यह डर सताने लगा है कि आने वाले दिनों में ये दवाप्रतिरोधी बैक्टीरिया महामारी का रूप धारण कर लेंगे और बड़ी संख्या में मौतें फिर होने लगेंगी। अतः टीबी की अधिक कारगर दवाओं की खोज तेज़ी से की जा रही है। हाल में इस खोज में आशा की एक धुंधलीसी किरण दिखाई दी है। इसे समझने के लिए थोड़ा विषयांतर करना होगा।

सिस्टिक फाइब्रोसिसनामक रोग के मरीज़ों के फेफड़ों और श्वसन तंत्र तथा शरीर के अन्य भागों में सामान्य से अधिक चिपचिपा पदार्थ श्लेष्मा भरा होता है। इस चिपचिपे पदार्थ की अधिकता के कारण मरीज़ों को केवल सांस लेने में बहुत तकलीफ होती है, बल्कि पाचन अन्य क्रियाओं में भी परेशानी होती है। इस श्लेष्मा में बर्खोल्डेरिया ग्लैडिओली नामक एक बैक्टीरिया बहुतायत से पाया जाता है। ब्रिटेन के कार्डिफ विश्वविद्यालय के डॉ. ईश्वर महेन्तिरालिंगम और ब्रिटेन के ही वॉरिक विश्वविद्यालय के डॉ. ग्रेग चैलिस ने इस बैक्टीरिया द्वारा बनाया जाने वाला एक रसायन खोजा है जिसे उन्होंने ग्लॅडिओलिन नाम दिया है। इस पदार्थ की विशेषता यह है कि यह अन्य बैक्टीरिया के जीवित रहने के लिए आवश्यक एक एंज़ाइम को निष्क्रिय करके उन्हें मार देता है। यह एंज़ाइम एक आरएनए पॉलीमरेज़ होता है। इससे टीबी के बैक्टीरिया की दवा प्रतिरोधक किस्में भी मारी जाती हैं। जाहिर है, ग्लैडिओलिन का असर स्वयं बर्खोल्डेरिया पर नहीं होता जो इसे बनाता है।

ग्लैडिओलिन के परीक्षण के दौरान एक रोचक तथ्य सामने आया। टीबी की परम्परागत दवा रिफेम्पिसिन और आइसोनियाज़िड ऐसे बैक्टीरिया के खिलाफकारगर होती हैं जिनमें इनके खिलाफ प्रतिरोध क्षमता विकसित नहीं हुई है। ग्लैडिओलिन इन बैक्टीरिया के खिलाफ कारगर नहीं होता। किंतु रिफेम्पिसिन और आइसोनियाज़िड जिन प्रतिरोधी बैक्टीरिया का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते, ग्लैडिओलिन उनके खिलाफ काफी असरकारक होता है।

इस शोध कार्यसे यह उम्मीद जागी है कि दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध क्षमता वाले बैक्टीरिया जनित टीबी का इलाज संभव हो सकेगा, किंतु इसका अंतिम परिणाम तभी सामने आएगा जब इस दवा का पर्याप्त परीक्षण हो जाएगा। सन 2007 में इसी प्रकार की एटान्जिन नामक एक दवा खोजी गई थी जो बैक्टीरिया के जीवन के लिए आवश्यक एंज़ाइम आरएनए पॉलिमरेज को निष्क्रिय कर देती है। किंतु बाद में किए गए परीक्षणों में यह पाया गया कि एटान्जिन रासायनिक रूप से अस्थायी होती है और इसी कारण इसे दवा के रूप में बाज़ार में नहीं लाया जा सकता। तो अभी इन्तज़ार करें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

फोटो क्रेडिट : BBC

मुश्किल इलाकों में वैज्ञानिक विचारों का प्रसार

सेक्स विश्वविद्यालय की एक भौतिक विज्ञानी केट शॉ मूलभूत कणों की खोज जैसे अग्रणी शोध से जुड़ी हैं। इसके साथ ही वे फिज़िक्स विदाउट फ्रंटियर (सरहदों से मुक्त भौतिकी) की संस्थापक भी हैं। यह युनेस्को द्वारा प्रायोजित एक संगठन है जो युद्धरत देशों में व्याख्यान, कार्यशालाएं और स्कूल चलाने का काम करता है ताकि दुनिया भर में विज्ञान में लोगों की रुचि बढ़े।

कार्यक्रम की शुरुआत वर्ष 2012 में हुई थी। शुरुआत में शॉ ने रामल्ला के नज़दीक बिर्ज़ाइट विश्विद्यालय के छात्रों को लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर से परिचित कराया। लगभग एक साल बाद एटलस एक्सपेरिमेंट पर काम कर रहे अपने दो फिलिस्तीनी साथियों के साथ वहां के छात्रों का प्रक्षिशण शुरू किया। छात्रों का स्तर काफी अच्छा था, प्रक्षिशण फला-फूला और अलग अलग कोर्स चलाए जाने लगे।

शॉ बताती हैं कि समय-समय पर होने वाली कार्यशालाओं और कार्यक्रमों के लिए इंटरनेशनल सेंटर फॉर थेओरिटिकल फिज़िक्स से वित्तीय सहायता मिलती है।

शॉ का कहना है कि क्या पता अगला महान वैज्ञानिक, अगला अब्दुस्सलाम या अगला एलन ट्यूरिंग कहां से आएगा, इसलिए हमारा काम यह सुनिश्चित करना है कि सबको बढ़िया शिक्षा मिले और सबको अनुसंधान में शामिल होने का अवसर मिले; यह मात्र पश्चिमी, रईस देशों की बपौती न हो। फिज़िक्स विदाउट फ्रंटियर्स मुख्य रूप से नेपाल, अफगानिस्तान और फिलिस्तीन में काम करता है लेकिन लैटिन अमेरिकी देशों (वेनेज़ुएला, कोलंबिया, पेरू और उरुग्वे) और अब लेबनान, ट्यूनिशिया, अल्जीरिया, ज़िम्बाब्वे तथा बांग्लादेश में भी काम चलता है।

इनमें से फिलिस्तीन में काम करना सबसे कठिन है। वेस्ट बैंक में कुछ कम लेकिन गाज़ा पट्टी में राजनीतिक समस्याएं काफी अधिक हैं। देखा जाए तो वहां स्थित तीन विश्वविद्यालयों में भौतिकी को लेकर बढ़िया काम हो रहा है लेकिन फैकल्टी एकदम अलग-थलग है। वे बाहर यात्रा नहीं कर सकते और इस वजह से कई बार उन्हें अच्छे मौके भी गंवाने पड़ जाते हैं।

गाज़ा के छात्रों को वैज्ञानिक सम्मेलनों में जाने के लिए एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है जिससे वे उनमें देर से शामिल हो पाते हैं या कभी कभी तो इस्राइल सरकार से अनुमति ही नहीं मिलती। उपकरण ले जाने में भी काफी परेशानियां होती हैं। बिजली की कमी के कारण नियमित शोध कार्य नहीं हो पाता है। शायद इसी कारण अच्छे छात्र होने के बाद भी वहां कई संस्थाएं शोध में पूंजी लगाने से कतराती हैं।

हाल में शॉ और उनके साथियों ने अफगानिस्तान में भी काम शुरू किया है, जहां सुरक्षा सम्बंधी गंभीर समस्याएं हैं। अच्छी बात यह है कि वहां अद्भुत युवा पीढ़ी है जो अपने देश को आगे ले जाना चाहती है। वे अपने विषयों में काफी मज़बूत हैं और भौतिकी के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं।

अनुदार/रुढ़िवादी सोच वाले स्थानों में काम करने को लेकर शुरुआत में उन्होंने सावधानी से काम लिया लेकिन जैसे-जैसे काम आगे बढ़ा, शॉ को समझ में आया कि वहां भी लोग बिग बैंग और ब्राहृांड की उत्पत्ति के बारे में वही सवाल पूछते हैं। यह बात काफी आश्वस्त करने वाली है कि ऐसे इलाकों में भी वैज्ञानिक विचारों को लेकर किसी प्रकार का कोई टकराव नहीं है।

शॉ और उनकी टीम को उम्मीद है कि प्रत्येक विश्वविद्यालय इस कार्यक्रम से जुड़े और फिर वहां भौतिकी के लिए कुछ और धन लाया जाए। लक्ष्य दुनिया भर में एक जीवंत वैज्ञानिक समुदाय का निर्माण करना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

फोटो क्रेडिट :Physics without frontiers

 

 

ब्रिटेन का युरोप से अलगाव पहले भी हुआ है – एस. अनंतनारायण

ब्रिटेन के अधिकांश टापू चूने (चॉक) के टीले हैं। यह चूना प्राचीन ठोस चट्टानों पर जमा होता गया है और इसके ऊपर मिट्टी की परत है। सिर्फ सेलिसबरी और डॉवर में ही चूने की इस परत पर मिट्टी की परत नहीं है और यहां इन चट्टानों की सफेदी दिखाई पड़ती है। चॉक की यह दीवार इंग्लिश चैनल के नीचे-नीचे पूर्व की ओर फैली हुई है और फ्रांस के तट पर कैप ग्रिस नेज़ में एक बार फिर ऊपर उभरती है। माना जाता है कि कभी डॉवर से लेकर कैप ग्रिस नेज़ तक यह एक पूरी पर्वत श्रृंखला रही होगी। इस पर्वत  श्रृंखला में दरार कैसे पड़ी, इसको लेकर अटकलें ही रही हैं।

जिस सप्ताह प्रधान मंत्री टेरेसा मे ने युरोपीय संघ से ब्रिटेन के आर्थिक अलगाव का प्रस्ताव रखा था, उसी सप्ताह संजीव गुप्ता और उनके साथी शोधकर्ताओं ने नेचर कम्युनिकेशंस पत्रिका में रिपोर्ट किया था कि इस मामले में हमारी समझ बेहतर हुई है कि कैसे भौतिक चॉक कनेक्शन में टूटन हुई और यूरोप और ब्रिटेन के बीच इंगलिश चैनल के लिए जगह तैयार हुई थी। गुप्ता व साथियों के अनुसार, यह ब्रेक्सिट 1.0 था जिस पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया था।

उत्तर-पूर्वी फ्रांस तक फैली हुई डॉवर की सफेद क्लिफ लगभग दस करोड़ वर्ष पूर्व नीचे की चट्टानों पर जमना शुरु हुई थी। उस वक्त दुनिया अपेक्षाकृत गर्म थी और यह इलाका समुद्र में डूबा हुआ था। एक-कोशिकीय समुद्री शैवाल की कैल्शियम कार्बोनेट से बनी खोल (कोकोलिथ) समुद्र की तलछटी में जमने लगी और धीरे-धीरे चॉक के बड़े-बड़े टीले बन गए जो आज ब्रिटेन के अधिकांश हिस्से में पाए जाते हैं। जब पृथ्वी की ऊपरी परत (भू-पर्पटी) ऊपर उठने लगी और तापमान में गिरावट की वजह से समुद्र का पानी उतरने लगा तो ये टीले दिखाई देने लगे। इस तरह ब्रिटेन द्वीप चॉक की पर्वत श्रृंखला से युरोप से जुड़ गया। और लगभग साढ़े चार लाख वर्ष पूर्व हिमयुग के दौरान पानी और भी कम होता गया और इंग्लिश चैनल सूख-सी गई और बर्फीली ज़मीन पर झाड़ियां पनपने लगीं।

चॉक की पर्वत श्रृंखला और इंग्लिश चैनल कैसे बनी, इसके बारे में वर्तमान समझ यह है कि आइसबर्ग (हिमपर्वतों) के पिघलने के कारण उत्तरी सागर में विशाल तालाब बन गया होगा और चूने की दीवार ने पानी को दक्षिण की ओर, युरोप व ब्रिटेन के बीच पहुंचने से रोक दिया होगा। बर्फ के लगातार पिघलने और नदियों के बहाव के कारण पानी छलकने लगा होगा और दीवार टूट गई होगी। दीवार के टूटने से ढेर सारा पानी बहने लगा होगा, जिसे महाबाढ़ कहते हैं। गुप्ता व साथियों के उक्त शोध पत्र के अनुसार इंग्लिश चैनल की तलछटी में बनी कई घाटियां इस ओर इशारा करती हैं कि वे पानी के तेज़ बहाव के कारण बनी होंगी। शोध पत्र के अनुसार पूर्व में इन घाटियों की व्याख्या पिघलते हिमनदों से उत्पन्न पानी की वजह से आई ‘विनाशकारी बाढ़’ के परिणाम के आधार पर की गई थी।

इस बारे में कुछ अन्य मॉडल भी हैं जो कम विनाशकारी हैं और अचानक चूने की दीवार टूटने पर आधारित नहीं हैं। इन मॉडल्स में चूने की चट्टान के उत्तर में किसी झील बनने का विचार नहीं है। या इन मॉडल्स में निचले इलाके में बनी घाटियों की भी अन्य व्याख्याएं हैं। अलबत्ता, इन मॉडल का परीक्षण नहीं हो पाया है क्योंकि जिन जगहों पर चूने की पर्वत श्रृंखला फूटने की बात कही जा रही है, वहां के समुद्री पेंदे के बारे में भूगर्भीय जानकारी बहुत कम है।

इंग्लिश चैनल के समुद्री पेंदे के बारे में पहली महत्वपूर्ण जानकारी तब पता चली जब इंग्लैंड और फ्रांस के बीच समुद्र के अंदर से रेल सुरंग बनाने के लिए सर्वेक्षण किया जा रहा था। इंग्लैड और फ्रांस को जोड़ती हुई इंग्लिश चैनल में यह सुरंग समुद्र के पेंदे से 75 मीटर नीचे है। सर्वेक्षण के दौरान चट्टान में कई किलोमीटर लंबे-लंबे गड्ढों के बारे में पता चला। ये गड्ढे रेत और बजरी से भरे हुए थे। इन गड्ढों को फोसे डेनगीयर्ड (फोसे का मतलब होता है गहरा) नाम दिया गया। ये गड्ढे कैसे पड़े यह तो समझ में नहीं आया लेकिन सुरंग के मार्ग में बदलाव करना पड़ा। चट्टान में इन गड्ढों के होने के पीछे एक कारण जल प्रपातों को बताया गया। यह विचार लगभग सही था किंतु उस समय ज़्यादा प्रमाण या जानकारी ना होने की वजह से इस विचार को छोड़ दिया गया था।

 

जानकारी की राह

नेचर कम्युनिकेशंस में लेखकों ने अब किया यह है कि समुद्री पेंदे के मानचित्रों, भूभौतिकी सूचनाओं और चट्टानी धरातल के मानचित्र से प्राप्त सारी नवीनतम जानकारियों को एक साथ रखकर देखा है। ये जानकारियां समुद्र के पेंदे पर शॉक तरंगें भेजकर परावर्तित होकर आई तरंगों के आधार पर प्राप्त की गई हैं। शोधकर्ताओं ने इन सारी जानकारियों को जोड़कर एक व्याख्या विकसित करने का प्रयास किया है।

विभिन्न स्थानों पर समुद्र की गहराइयों का नक्शा समुद्र के पेंदे का सोनार सर्वेक्षण करके बनाया गया था। दूसरी ओर, धरातल की चट्टानों का नक्शा परावर्तित भूकंपीय तरंगों का उपयोग करके बनाया गया था। समुद्री पेंदे से होकर गुज़रने वाला कम्पन्न जब धरातल की चट्टानों से टकराता है तो आंशिक रूप से परावर्तित होता है। परावर्तित तरंगों की मदद से परावर्तन करने वाली सतह की संरचना बना ली जाती है।

समुद्र पेंदे की गहराई के मानचित्र से बहाव के पथ – लोबोर्ग चैनल  – पता चलता है। लोबोर्ग चैनल डॉवर जलडमरुमध्य से होती हुई घाटियों का एक नेटवर्क कुरेदते हुए आगे दक्षिण-पश्चिम में जाती है। लोबोर्ग चैनल और घाटियों के नेटवर्क से लगता है कि वे एक ही ड्रेनेज सिस्टम का हिस्सा हैं। इसके आगे डॉवर जलडमरुमध्य के बीच में 1 कि.मी. से 4 कि.मी. चौड़े रहस्यमय गड्ढे हैं। फोसे डेनगीयर्ड नामक इस समूह में सात मुख्य गड्ढे हैं जो लगभग 140 मीटर गहरे हैं और इनकी ढ़लान 15 डिग्री की है।

लंदन स्थित बैडफोर्ड कॉलेज के प्रोफेसर एलेक स्मिथ का कहना है कि इन गड्ढों में जमी तलछट की जमावट और संघटन से पता चलता है कि वे कई कि.मी. लंबे जलप्रपात के कारण बने होंगे। इतने गहरे गड्ढों का बनना पानी के बहाव या लहरों के कारण अपरदन से संभव नहीं है। शोध पत्र के अनुसार, इन गड्ढों की गहराई को देखते हुए लगता है कि जल-प्रपात काफी ऊंचाई से नीचे गिरता होगा।

तो तस्वीर कुछ इस तरह है – चूने की एक पर्वत श्रृंखला थी जो ब्रिाटेन को फ्रांस से जोड़ती थी। यह पर्वत श्रृंखला साइबेरिया के बर्फीले टुंड्रा प्रदेश की तरह दिखती थी जबकि आज यह काफी हरी-भरी है। यह एक ठंडी दुनिया थी जिसमें जगह-जगह ऊंचाई से डॉवर की सफेद चॉक चट्टान पर जलप्रपात गिरते थे। गिरते जलप्रपात की यह धारणा चट्टान में गड्ढों की व्याख्या कर देता है। मगर यह शायद पहला चरण मात्र था। इसके बाद दूसरा चरण आया जब दीवार टूटी और बाढ़ आई। इसके कारण उत्पन्न तेज़ बहाव के कारण घाटियों का नेटवर्क बना। ऐसा प्रतीत होता है कि शायद बर्फ की चादर का एक बड़ा हिस्सा टूटकर झील में गिर गया था जिसकी वजह से पानी में तेज़ हिलोरें उठी होगी जिससे चूने की पर्वत  श्रृंखला के ऊपर से पानी के गिरने का रास्ता बना होगा… भूकंप ने पर्वत श्रृंखला को कमज़ोर कर दिया… और वह टूट गई होगी।

डॉवर जलडमरुमध्य के बनने की बेहतर समझ से यह समझने में मदद मिली है कि उत्तर पश्चिमी युरोप से पिघला हुआ पानी उत्तरी अटलांटिक में कैसे पहुंचा होगा। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह समझना भी मददगार होगा कि ब्रिटेन युरोप के मुख्य भूभाग से कब अलग हुआ और इंसानों ने यहां कब बसना शुरू किया। ((स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

फोटो क्रेडिट :ERP group

 

 

मानव भ्रूण में संयोजक कोशिकाएं पहचानी गई

प्रत्येक स्तनधारी, पक्षी और सरीसृप के भ्रूण की प्रारंभिक अवस्था में कोशिकाओं का एक ऐसा समूह होता है जिनमें कुछ खास क्षमता होती है। कोशिकाओं का यह समूह अन्य कोशिकाओं को संकेत देता है कि उन्हें कौन-सा अंग बनना है। ये ‘संयोजक’ कोशिकाएं कहलाती   हैं। जीव विज्ञानियों ने अब तक मेंढक, पक्षियों और चूहों के भ्रूण में इन संयोजक कोशिकाओं का पता कर लिया था किंतु नैतिकता सम्बंधी नियमों के चलते मानव भ्रूण में इन संयोजक कोशिकाओं को देख पाना संभव नहीं हुआ था। हाल ही में प्रयोगशाला में मानव स्टेम कोशिकाओं में इन संयोजकों को देखा गया है।

1920 की शुरुआत में जर्मन भ्रूण विज्ञानी हैंस स्पैमैन और उनके स्नातक छात्र हिल्डे मैंगोल्ड इस पर अध्ययन कर रहे थे कि कैसे कशेरुकी जानवरों के भ्रूण, कोशिकाओं की खोखली गेंद से हाथ-पैर-सिर बनने वाली संरचना में परिवर्तित हो जाते हैं। परिवर्तन के दौरान भ्रूण एक संकरी नाली नुमा लकीर बनाता है जिसे प्रारंभिक लकीर कहते हैं। स्पैमैन और मैंगोल्ड को सेलेमैंडर के भ्रूण में प्रारंभिक लकीर के एक छोर पर कोशिकाओं का एक खास समूह दिखा। उन्होंने इन्हें जब सैलेमेंडर की एक अन्य प्रजाति के भ्रूण पर आरोपित किया तो इन कोशिकाओं ने अपने आसपास की अन्य कोशिकाओं को मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी बनने के संकेत दिए। यह अध्ययन वैकासिक जीव विज्ञान में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। इसके लिए स्पैमैन को 1935 में कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार मिला था।

इसके बाद वैज्ञानिकों ने इसी तरह की संयोजक कोशिकाएं, जिन्हें ‘स्पैमैन संयोजक’ भी कहते हैं, मेंढक, पक्षियों और चूहों के भ्रूण में देखीं। लेकिन मानवों में इन्हें देखने के लिए भ्रूण को 14 दिन से ज़्यादा जीवित रखना होता है। यू.के. में नियमों के मुताबिक भ्रूण को 14 दिन तक ही रखा जा सकता है।

उक्त नियम से बचने के लिए न्यूयार्क स्थित रॉकफेलर विश्वविद्यालय के स्टेम कोशिका जीव विज्ञानी ब्रिवनलो की टीम ने प्रयोगशाला में मानव भ्रूण से ली गई स्टेम कोशिकाओं को कल्चर किया है। इस प्रयोग में शोधकर्ताओं ने कोशिकाओं का संपर्क भ्रूण विकास में महत्वपूर्ण दो प्रोटीन्स से कराया। इससे कुछ ऐसी कोशिकाएं विकसित हुर्इं जिनमें संयोजक कोशिका के आनुवंशिक लक्षण थे। इसके बाद उन्होंने इन संयोजक कोशिकाओं को चूज़े के भ्रूण पर आरोपित किया। ऐसा करने पर पाया गया कि चूज़े के अपने तंत्रिका तंत्र के साथ ही साथ तंत्रिका ऊतकों की एक और लकीर उभर रही थी। इसे शोधकर्ताओं ने नेचर पत्रिका में रिपोर्ट किया है। अध्ययन के वरिष्ठ लेखक ब्रिवनलो का कहना है कि यह काफी अश्चर्यजनक है कि दो अलग-अलग प्रजातियों की कोशिकाएं विकास सम्बंधी संकेतों या निर्देशों को साझा कर सकती है।

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के विकास जीव विज्ञानी क्लॉडियो स्टर्न ने इसे  ‘एक अच्छी तकनीकी पहल’ की संज्ञा दी है। मानव भ्रूण के बाहर संयोजक कोशिकाओं को बनाने में मिली सफलता यह समझने में मदद कर सकती है कि इनमें अन्य कोशिकाओं को संकेत देने की क्षमता कहां से आती है। इससे भ्रूण विकास के समय कोशिकाओं की संकेत प्रणाली को समझने में भी मदद मिल सकती है। शोधकर्ता प्रयोगशाला में तैयार की गई भ्रूण कोशिकाओं के उपयोग से प्रारंभिक विकास के चरणों को समझने की तैयारी कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

फोटो क्रेडिट : Futura Science

 

इटली में तीन हज़ार वर्ष पूर्व वाइन उद्योग – एस. अनंतनारायण

हा जा रहा है कि वाइन बनाने की शुरुआत संगठित खेती से पहले हो गई थी। यह संभव भी लगता है क्योंकि कुछ किस्मों के फल भंडारण के दौरान सड़ जाते हैं या पिलपिला जाते हैं तो उनमें किण्वन की प्रक्रिया होने लगती है, जिसके परिणामस्वरूप वाइन बनती है। किंतु अनाजों से वाइन या बीयर बनाना अलग बात है। इसके लिए काफी मात्रा में अनाज चाहिए और एक पूरी प्रक्रिया चाहिए। फलों के सड़ने-गलने से संयोगवश वाइन बनती भी है तो इतनी-सी वाइन से एक पूरा उद्योग पनपना संभव नहीं है। वह तो तभी होगा जब उत्पादन काफी मात्रा में हो और इसे संग्रहित करके बाद में उपयोग के लिए रखा जा सके।

दक्षिण फ्लोरिडा और इटली स्थित विश्वविद्यालयों व संस्थानों के शोधकर्ताओं ने माइक्रोकेमिकल जर्नल में रिपोर्ट किया है कि साक्ष्यों से पता चला है कि पहली सहत्राब्दी ईसा पूर्व से ही इटली में शराब (वाइन) का उत्पादन और संग्रहण होता रहा है। सिसली के दक्षिण-पश्चिमी तट पर चूने के पहाड़ मॉन्टे क्रोनियो की खुदाई में सिरेमिक (चीनी मिट्टी) पात्रों के हिस्से मिले हैं। इन पात्रों पर जैविक पदार्थ के अवशेष मिले हैं। शोधकर्ताओं ने पुरातात्विक अन्वेषण में प्रयोगशाला विधियों के उपयोग का एक नया दृष्टिकोण दिया है जिससे प्राचीन सभ्यताओं की पाक कला और आहार सम्बंधी व्यवहार को समझने में मदद मिल सकती है ।

निश्चित तौर पर प्राचीन काल में शराब उत्पादन के और भी प्रमाण मिलते हैं। मसलन फ्रांस स्थित रॉकप्रट्यूस में 6ठी शताब्दी ईसा पूर्व बीयर बनाई जाती थी। इससे भी कई वर्ष पूर्व, लगभग 3000 ईसा पूर्व, चीन के शान्क्सी ज़िले में बीयर उत्पादन के साक्ष्य मिले हैं। 2011 में ह्यूमन बायोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सीएनआरएस, मॉन्टपेलियर के वैज्ञानिकों को सेल्टिक मठ के पुरातात्विक स्थल की खुदाई में बीयर बनाने में प्रयुक्त कच्चा माल और उपकरण मिले हैं। एक निवास स्थान के फर्श से अधजले जौं के दाने मिले हैं जिससे पता चलता है कि ये बीयर बनाते हुए दानों को सुखाने की प्रक्रिया में भट्टी में अधजले छूट गए होंगे।

उसी जगह पर ऐसे बर्तन मिले हैं जिनमें जौं को अंकुरित करने से पहले भिगोया जाता होगा। साथ ही भट्टी के अवशेष मिले हैं जो अंकुरित जौं सुखाने के काम आती होगी। वहां चक्की के पाट, भट्टी और संग्रहण के पात्रों की मौजूदगी से लगता है कि यहां बीयर बनाई जाती थी जो उनकी परंपरा का हिस्सा होगी। साथ ही साथ, अन्य समुदाय के लोगों के साथ व्यापार की वस्तु और संचार का ज़रिया होगी।

चीन में येलो रिवर घाटी में मिले अवशेष और भी प्राचीन हैं। माना जाता है कि चीनी सभ्यता की शुरुआत येलो रिवर के किनारे ही हुई थी। इस घाटी में कई पुरातात्विक खोजें हुई हैं। 2013 में पीएनएएस में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक दो गड्ढों से कुछ कलाकृतियां मिली हैं, जिनकी कार्बन डेटिंग से पता चला है कि ये 3400 से 2900 ईसा पूर्व की हैं। कलाकृतियों में चौड़े मुंह वाली कीप सही-सलामत मिली है। इसके अलावा चौड़े मुंह वाले घड़े, सकरे मुंह वाले लंबे घड़े (एम्फोरा) और चूल्हे के हिस्से मिले हैं। इन्हें देख कर लगता है कि ये विशेष रूप से मदिरा बनाने, छानने और उसके भंडारण के लिए और गर्म करने एवं तापमान नियंत्रण के लिए उपयोग किए जाते होंगे।

इन बर्तनों पर जो अवशेष मिले हैं वे मंड के कण हैं, जो अनाजों के कारण पड़े होंगे। साथ ही फाइटोलिथ जैसे खनिजों के कण भी इन बर्तनों पर मिले हैं जो आम तौर पर विघटित पौधों के अवशषों में पाए जाते हैं। मंड की जांच से पता चला है कि यह मोटे अनाज, कुछ किस्म के गेहूं, जौं या यैम जैसे कुछ कंदों से आया होगा। ये इस क्षेत्र में पाए भी जाते हैं। प्राप्त मंड के अवशेष एक तो शक्तिशाली, टिकाऊ और खुशबूदार बीयर बनाने की विधि का संकेत देते हैं वहीं मंड के कणों में क्षति के प्रमाण भी मिले हैं। इस तरह की क्षति अनाज को अंकुरित करने, भिगोने, सुखाने की प्रक्रिया में हुई होगी। अंकुरित अनाज को गर्म हवा से सुखाने (माल्टिंग) के दौरान एंज़ाइम मंड को शर्करा में तोड़ते हैं जिसके कारण मंडयुक्त अनाज में छेद हो जाते हैं। फिर जब कचूमर बनाने के लिए अनाज के दानों को गर्म पानी में डालते हैं तो वे फूलते हैं और उनका आकार बिगड़ जाता है।

पीएनएएस पेपर के मुताबिक “इस प्रकार, पुरातात्विक खोज में मिले विकृत आकार के मंडयुक्त अनाज को देखकर कहा जा सकता है कि ये अनाज मदिरा बनाने की प्रक्रिया के अवशेष हैं।” अवशेष के रासायनिक विश्लेषण में कैल्शियम ऑक्ज़लेट के अवशेष भी दिखे। कैल्शियम ऑक्ज़लेट बीयर बनाने के पात्र में बीयरस्टोन के रूप में नीचे बैठ जाता है। यह बीयर बनाने की प्रक्रिया का द्योतक है। अवशेषों में कैल्शियम ऑक्ज़लेट की उपस्थिति से इस बात की पुष्टि होती है कि प्रागैतिहासिक पात्रों का उपयोग बीयर बनाने में किया जाता था।

इटली के सिसली के दो प्रागैतिहासिक स्थलों से प्राप्त बर्तनों पर कार्बनिक अवशेष पाए गए थे। खुदाई में मिले इन बर्तनों के अध्ययन के दौरान कार्बनिक अवशेषों की विस्तृत प्रयोगशाला जांच की गई। यह अध्ययन माइक्रोकेमिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ है। अध्ययन का उद्देश्य “कुछ विशेष आकार के सिरेमिक पात्रों के उपयोग को समझना और प्राचीन आहार सम्बंधी आदतों के बारे में कुछ अनुमान लगाना” था। अध्ययन में मध्य कांस्य युग (1550-1250 ईसा पूर्व) से प्रारंभिक लौह युग (1050-950 ईसा पूर्व) तक के अवशेष शामिल थे।

शोधकर्ताओं के समूह ने उपलब्ध पारंपरिक तरीकों और नवीनतम तरीकों का उपयोग करके पुरातात्विक सामग्री का विस्तृत विश्लेषण किया। उन्होंने नए सिरे से कार्बन डेटिंग, पशु कंकाल के अवशेषों के संरचनात्मक अध्ययन और सिरेमिक पात्रों और कार्बनिक अवशेषों के रासायनिक और अन्य विश्लेषण किए। बाद में अपना अध्ययन उन्होंने प्रारंभिक लौह युग के खाना पकाने के मर्तबान तक सीमित रखा। इसके लिए उन्होंने एनएमआर, इंफ्रारेड वर्णक्रम तथा स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप जैसी कई आधुनिक विधियों का उपयोग किया।

इन विधियों से प्राचीन लोगों के भोजन और आहार सम्बंधी आदतों के बारे में काफी जानकारी पता लगी है। लेकिन इस अध्ययन से एक जो महत्वपूर्ण चीज़ मिली वह है टारटरिक एसिड। मॉन्टे क्रोनियो की खुदाई में पाए गए पात्रों में से एक पात्र में टारटेरिक एसिड और इसके सोडियम लवण के निशान मिले हैं। टारटेरिक एसिड वाइन का एक महत्वपूर्ण घटक है और वाइन की रासायनिक स्थिरता सुनिश्चित करने में भूमिका निभाता है। टारटरिक एसिड ज़्यादातर फलों और पौधों में नहीं पाया जाता लेकिन अंगूर में विशेष रूप से पाया जाता है। निश्चित रूप इसी कारण से वाइन अक्सर अंगूर से ही बनाई जाती है।

मॉन्टे क्रोनियो के पात्रों पर अवशेष में टारटेरिक एसिड और इसके लवण की उपस्थिति इस बात का संकेत देते हैं कि लगभग 1000 ईसा पूर्व के सिरेमिक पात्र अंगूर से बनी वाइन के भंडारण के काम आते थे। इटली आज दुनिया का सबसे बड़ा वाइन निर्यातक है। लगता है, उन्होंने इसकी शुरुआत काफी पहले कर ली थी। (स्रोत फीचर्स)

नोट : यह लेख वेबसाइट पर 7 जून 2018 तक ही उपलब्ध रहेगा|

चिकित्सीय यंत्र हानिकारक हो सकते हैं

हाल में यूएसए में यह मुद्दा काफी ज़ोर से उठा है कि चिकित्सकीय उपकरणों (पेसमेकर, स्टेंट आदि) को लेकर मानक बहुत कमज़ोर हैं और इन्हें बगैर पर्याप्त प्रमाण के मंज़ूरी मिल जाती है।

अमेरिका के लगभग 30 लाख से 60 लाख लोग एट्रियल फिब्रिालेशन की दिक्कत से प्रभावित हैं। हमारे ह्रदय में चार प्रकोष्ठ होते हैं – दो आलिंद (एट्रिया) और दो निलय (वेंट्रिकल)। पूरे शरीर से खून आकर आलिंद में भर जाता है। तब आलिंद में संकुचन होता है और खून निलय में पहुंचता है। इसके बाद निलय में संकुचन होता है और खून को शरीर में भेजा जाता है। यह क्रिया काफी लयबद्ध ढंग से चलती है। मगर कभी-कभी आलिंद अनियमित ढंग से फड़कने लगता है। इसे एट्रियल फिब्रिालेशन कहते हैं। ऐसा होने पर ह्रदयाघात और मृत्यु का खतरा बढ़ जाता है। पिछले दो दशकों से डॉक्टर इसका इलाज कैथेटर एब्लेशन से कर रहे हैं। इस तरीके में कैथेटर की मदद से ह्मदय के क्षतिग्रस्त ऊतकों को इस तरह उपचारित किया जाता है कि वहां घाव के निशान जैसा ऊतक (स्कार) बन जाए। इससे गड़बड़ विद्युत संकेतों को फैलने से रोका जा सकता है जो मांसपेशियों के फड़कने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। इस उपचार में लगभग 20,000 डॉलर का खर्चा आता है। किंतु हाल ही में एक अध्ययन में पाया गया कि कैथेटर एब्लेशन अन्य सस्ते उपचारों से बेहतर नहीं हैं। किंतु कुछ लोगों का मत है कि अध्ययन के आंकड़े बताते हैं कि कैथेटर एब्लेशन से कुछ लोगों को तो फायदा हुआ है। लिहाज़ा, ज़्यादा गहन अध्ययन की ज़रुरत है।

इसी तरह, एक अध्ययन में पता चला था कि सीने में जीर्ण दर्द के मरीज़ों में दवाइयों की बजाय स्टेंट उपयोग करने से कोई अतिरिक्त लाभ नहीं मिलता।

दिल की खून पंप करने की क्षमता बढ़ाने के लिए इंपेला नामक यंत्र दिल में लगाया जाता है। इसे लगवाने में 25,000 डॉलर का खर्च आता है। इसे अब तक 50,000 से भी अधिक रोगियों में लगाया जा चुका है जबकि इसके परिणामों के बारे में कोई डाटा नहीं है।

कई लोग मांग कर रहे हैं कि दवाइयों के समान ऐसे चिकित्सा उपकरणों के लिए भी सख्त मापदंड होने चाहिए, किंतु यूएसए जल्द ही ऐसे चिकित्सा यंत्रों की मंज़ूरी और आसान कर सकता है। खाद्य व औषधि प्रशासन का मत है कि यंत्र को मंज़ूरी देने से पहले ज़्यादा छानबीन करने की बजाय बाज़ार में आने के बाद उसके परिणामों को देखा जाए। तर्क है कि इससे तकनीकी नवाचार को बढ़ावा मिलेगा और मरीज़ों को मदद। हालांकि, ऐसे ढीले-ढाले नियमों के चलते युरोप में वज़न घटाने के लिए पेट में लगाए जाने वाले गुब्बारे व स्तन प्रत्यारोपण जैसे उपचारों के दुष्परिणाम देखकर वहां नियमों में बदलाव किए गए।

एफ.डी.ए. ने ह्रदय के ब्लॉकेज से निजात पाने के लिए एक नए प्रकार के स्टेंट को अनुमति दी थी जो लगभग तीन साल में घुल जाता है। तर्क यह था कि मरीज़ धातु के यंत्र की बजाय घुलने वाले यंत्र लगवाना बेहतर समझेंगे। और हुआ भी वही, बाज़ार में इसकी मांग बढ़ गई। लेकिन दीर्घावधि अध्ययनों से पता चला कि कई स्टेंट रक्त के थक्के में तबदील हो रहे थे जिनसे दिल के दौरे का खतरा और बढ़ गया था।

चिकित्सीय यंत्रों की मंज़ूरी के लिए सख्त मानकों की ज़रूरत है। दवाओं की तुलना में यंत्रों के असर का अध्ययन करना मुश्किल है। कुछ रोगियों को एक झूठी गोली (प्लेसिबो) देना आसान है। पर स्टेंट या अन्य यंत्र के प्रत्यारोपण करने का नाटक करना मुश्किल है। किंतु वास्तविक लाभ का आकलन करने के लिए यह ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट : यह लेख वेबसाइट पर 7 जून 2018 तक ही उपलब्ध रहेगा|