स्पेन के एक पुरातात्विक स्थल एल साल्ट पर पुरातत्वविदों को निएंडरथल मानव के लगभग 52,000 साल पुराने साक्ष्य मिले थे; पत्थर के औज़ार, जानवरों की हड्डियां, चूल्हे और मानव मल का (सबसे प्राचीन ज्ञात) जीवाश्म। ये साक्ष्य मिट्टी की एक ही परत में मिले थे। लिहाज़ा, वैज्ञानिकों का मानना था कि निएंडरथल (होमो निएंडरथलेंसिस) मानव लगभग एक ही समय पर यहां आए थे, और अपने पीछे ये निशान छोड़ गए थे।
लेकिन साक्ष्यों या घटनाओं को इस तरह मोटे तौर पर एक ही समय का कहने से वास्तविक इतिहास दबा ही रहता है। दूसरा, प्राचीन समय में संभवत: एक लंबी अवधि में या समय के साथ धीरे-धीरे घटित हुई घटना, या विकसित हुई तकनीक एक चुटकी में हुए चमत्कार की तरह लगने लगती है।
इन्हीं कारणों के चलते बर्गोस विश्वविद्यालय की पुरातत्वविद एंजेला हेरेजोन-लैगुनिला ने इस स्थल पर मिले चूल्हों का सटीक कालनिर्धारण करने का सोचा। इसके लिए उन्होंने चूल्हों में बचे चुंबकीय खनिजों (अवशेषों) का विश्लेषण किया। दरअसल, चूल्हों के बुझने पर राख या अवशेष में मौजूद चुंबकीय खनिजों में पृथ्वी के तत्कालीन चुंबकीय क्षेत्र की दिशा दर्ज हो जाती है और बनी रहती है जब तक कि उस पदार्थ को फिर से एक निश्चित तापमान से ऊपर तपाया न जाए।
विश्लेषण के लिए शोधकर्ताओं ने पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में हुए हालिया बदलावों के आधार पर लगभग 52,000 साल पहले पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में हुए सूक्ष्म परिवर्तनों का मॉडल तैयार किया। और इस जानकारी की मदद से यह अनुमान लगाया कि कौन से चूल्हे अंतिम बार कब उपयोग किए गए थे।
नेचर पत्रिका में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि इस स्थल पर सबसे पहली और सबसे आखिरी बार उपयोग किए गए चूल्हों के बीच कम से कम 200 साल का अंतर था। इसमें भी अलग-अलग चूल्हों के इस्तेमाल होने के बीच दशकों लंबा फासला था। इससे पता चलता है कि निएंडरथल मानव की कई पीढ़ियां लंबे समय तक इस जगह पर आती रहीं थीं।
ये नतीजे वैज्ञानिकों को पत्थर के औज़ारों सहित अन्य मानव साक्ष्यों को नए सिरे से समझने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। काल निर्धारण की इस तकनीक के व्यापक इस्तेमाल से प्राचीन मनुष्यों के रहने, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने और समूहों में संगठित होने एवं औज़ारों के इस्तेमाल बारे में नए सिरे से, बारीकी से जानकारी मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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यह कैसे तय होता है कि हम अपनी सुबह की चाय या कॉफी का कप किस हाथ से उठाएंगे या मंजन किस हाथ से करेंगे? हाल ही में शोधकर्ताओं ने नेचर कम्युनिकेशंस में 3,50,000 से अधिक व्यक्तियों के जेनेटिक डैटा की पड़ताल के नतीजे प्रकाशित किए हैं, जो इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करते हैं कि वह क्या है जो यह तय करता है कि हम दाएं हाथ से काम करने में सहज होंगे या बाएं हाथ से। इस पड़ताल में उन्हें ट्यूबुलिन प्रोटीन की भूमिका का पता चला है जो कोशिकाओं के आंतरिक कंकाल की रचना करता है। दरअसल मानव विकास में भ्रूणावस्था के दौरान मस्तिष्क के दाएं और बाएं हिस्से की वायरिंग अलग-अलग तरह से होती है, जो आंशिक रूप से जन्मजात व्यवहारों को निर्धारित करती है। जैसे कि हम मुंह में किस ओर रखकर खाना चबाएंगे, आलिंगन किस ओर से करेंगे, और हमारा कौन-सा हाथ लगभग सभी कामों को करेगा या प्रमुख होगा। अधितकर लोगों का दायां हाथ प्रमुख हाथ होता है। लेकिन लगभग 10 प्रतिशत मनुष्यों का बायां हाथ प्रमुख होता है। चूंकि अधिकांश लोगों में एक हाथ की तुलना में दूसरे हाथ के लिए स्पष्ट रूप से प्राथमिकता होती है, प्रमुख हाथ से सम्बंधित जीन का पता लगने से मस्तिष्क में दाएं-बाएं विषमता का जेनेटिक सुराग मिल सकता है। पूर्व में हुए अध्ययनों में यूके बायोबैंक में सहेजे गए जीनोम डैटा की पड़ताल कर 48 ऐसे जेनेटिक रूपांतर खोजे गए थे जो बाएं हाथ के प्रधान होने से सम्बंधित थे। ये ज़्यादातर डीएनए के गैर-कोडिंग हिस्सों, यानी उन हिस्सों में पाए गए थे जो किसी प्रोटीन के निर्माण का कोड नहीं हैं। इनमें वे हिस्से भी थे जो ट्यूबुलिन से सम्बंधित जीन की अभिव्यक्ति को नियंत्रित कर सकते थे। ट्यूबलिन प्रोटीन लंबे, ट्यूब जैसे तंतुओं में संगठित होते हैं जिन्हें सूक्ष्मनलिकाएं कहा जाता है, जो कोशिकाओं के आकार और आंतरिक गतियों को नियंत्रित करती हैं। लेकिन अब नेदरलैंड के मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर साइकोलिंग्विस्टिक्स के आनुवंशिकीविद और तंत्रिका वैज्ञानिक क्लाइड फ्रैंक्स और उनकी टीम ने यूके बायोबैंक में संग्रहित जीनोम डैटा में प्रोटीन-कोडिंग हिस्से में जेनेटिक रूपांतर खोजे हैं। इसमें 3,13,271 दाएं हाथ प्रधान और 38,043 बाएं हाथ प्रधान लोगों का डैटा था। विश्लेषण में उन्हें TUBB4B ट्यूबुलिन जीन में एक रूपांतर मिला, जो दाएं हाथ प्रधान लोगों की अपेक्षा बाएं हाथ प्रधान लोगों में 2.7 गुना अधिक था। माइक्रोट्यूब्यूल्स हाथ की वरीयता को प्रभावित कर सकते हैं क्योंकि वे सिलिया – कोशिका झिल्ली में रोमिल संरचना – बनाते हैं जो विकास के दौरान एक असममित तरीके से द्रव प्रवाह को दिशा दे सकती है। ये निष्कर्ष यह पता करने में मदद कर सकते हैं कि कैसे सूक्ष्मनलिकाएं प्रारंभिक मस्तिष्क विकास को ‘असममित मोड़’ दे सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)
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न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय (जहां से मैंने उच्च शिक्षा प्राप्त की) के महामारी विज्ञानी डॉ. डेनियल बेल्स्की ने एक नया शब्द गढ़ा है ‘जेरोसाइंस’, जिसका अर्थ है बुढ़ापा या बढ़ती उम्र सम्बंधी विज्ञान। इसके तहत, उन्होंने एक अनोखा रक्त परीक्षण तैयार किया है जो यह बताता है कि कोई व्यक्ति किस रफ्तार से बूढ़ा हो रहा है। उनके दल ने एक विधि विकसित की है जिसमें वरिष्ठजनों के डीएनए में एक एंज़ाइम के ज़रिए मिथाइल समूहों के निर्माण का अध्ययन किया जाता है। उन्होंने पाया है कि डीएनए पर मिथाइल समूहों का जुड़ना (मिथाइलेशन) उम्र बढ़ने के प्रति संवेदनशील है। इस एंज़ाइम को अक्सर ‘जेरोज़ाइम’ कहा जाता है। (मिथाइलेशन डीएनए और अन्य अणुओं का रासायनिक संशोधन है जो तब होता है जब कोशिकाएं विभाजित होकर नई कोशिका बनाती हैं।) जेरोज़ाइम को नियंत्रित करने के लिए कई शोध समूह औषधियों और अन्य तरीकों पर काम कर रहे हैं। ये प्रयास किसी भी व्यक्ति की बढ़ती उम्र को कैसे प्रभावित करते हैं? एक शोध समूह ने बताया है कि मेटफॉर्मिन नामक औषधि बढ़ती उम्र को लक्षित करने का एक साधन है (सेल मेटाबॉलिज़्म, जून 2016)। एक अन्य समूह ने पाया है कि यदि हम TORC1 एंजाइम को बाधित कर देते हैं, तो यह बुज़ुर्गों में प्रतिरक्षा को बढ़ा सकता है और संक्रमणों को कम कर सकता। हाल ही में, जोन बी. मेनिक और उनके दल ने नेचर एजिंग पत्रिका में प्रकाशित अपने शोध पत्र में मानव रोगों के पशु मॉडल्स की उम्र व जीवित रहने पर रैपामाइसिन औषधि के प्रभावों की समीक्षा की है। उन्होंने बताया है कि कैसे हम इस औषधि के अवरोधकों को वृद्धावस्था के रोगों की मानक देखभाल में शामिल कर सकते हैं। डॉ. बेल्स्की के समूह ने विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि (अमीर-गरीब, ग्रामीण-शहरी) के लोगों में डीएनए मिथाइलेशन के स्तर का भी अध्ययन किया और पाया कि सामाजिक-आर्थिक स्तर की प्रतिकूल परिस्थितियां भी इसमें भूमिका निभाती हैं। कोलंबिया एजिंग सेंटर ने पाया है कि संतुलित आहार शोथ को कम करके मस्तिष्क के स्वास्थ्य की देखभाल करता है, आवश्यक पोषक तत्वों की आपूर्ति करके उचित रक्त प्रवाह बनाए रखता है जो संज्ञानात्मक कार्य में सहायक होता है। वेबसाइट healthline.com बात को आगे बढ़ाते हुए बताती है कि प्रोटीन के स्वास्थ्यवर्धक स्रोत, स्वास्थ्यकर वसा और एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर खाद्य पदार्थ, जैसे सब्ज़ियां, तेल से भरपूर खाद्य पदार्थ और बहुत सारे फल स्वस्थ बुढ़ाने में मदद करते हैं। भारत में हमारे लिए यह और भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे यहां (143 करोड़ की कुल जनसंख्या में से) 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की कुल संख्या लगभग 10 करोड़ है। healthline.com का सुझाव है कि (जंतु और वनस्पति) प्रोटीन, पौष्टिक अनाज (गेहूं, चावल, रागी, बाजरा), तेल, फल और सॉफ्ट ड्रिंक्स स्वस्थ बुढ़ाने में मदद करते हैं। ये मांसाहारियों और शाकाहारियों दोनों के लिए आसानी से उपलब्ध हैं। व्यायाम से रोकथाम स्टैनफर्ड युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया है कि घायल या बूढ़े चूहों की शक्ति बढ़ाने वाली एक औषधि तंत्रिकाओं और मांसपेशीय तंतुओं के बीच कड़ियों को बहाल करती है। यह औषधि उम्र बढ़ने से जुड़े जेरोज़ाइम, 15-PGDH, की गतिविधि को अवरुद्ध करती है। यह जेरोज़ाइम उम्र बढ़ने के साथ और न्यूरोमस्कुलर रोग के चलते मांसपेशियों में कुदरती रूप से बढ़ता है। लेकिन यह औषधि देने पर उम्रदराज़ चूहों की शारीरिक गतिविधि फिर से बढ़ गई थी। मिनेसोटा का मेयो क्लीनिक नियमित शारीरिक गतिविधि के सात लाभ बताता है। ये लाभ हैं: वज़न पर नियंत्रण; स्ट्रोक, उच्च रक्तचाप, टाइप-2 डायबिटीज़ और कैंसर जैसी स्थितियों और बीमारियों से लड़ता है; मूड में सुधार; ऊर्जा देता है; अच्छी नींद लाता है; यौन जीवन बेहतर करता है; और कहना न होगा कि यह मज़ेदार और सामाजिक हो सकता है। जैसे दूसरों से मेल-जोल होना, घूमना या खेलना। हम सभी, विशेष रूप से वरिष्ठ नागरिकों को, व्यायाम से बहुत लाभ होगा, और इस प्रकार जेरोज़ाइम बाधित होगा। संगीत भी जेरोज़ाइम को नियंत्रित कर सकता है और यह डिमेंशिया (स्मृतिभ्रंश) का इलाज भी हो सकता है! 2020 में, स्पेन के टोलेडो के एक समूह ने एक शोध पत्र प्रकाशित किया था, जिसका निष्कर्ष था – संगीत डिमेंशिया के उपचार का एक सशक्त तरीका हो सकता है। और हाल ही में, स्पेन के ही एक अन्य समूह द्वारा प्रकाशित पेपर का शीर्षक है: संगीत बढ़ती उम्र से सम्बंधित संज्ञानात्मक विकारों में परिवर्तित जीन अभिव्यक्ति की भरपाई कर देता है (Music compensates for altered gene expression in age-related cognitive disorders)। यह पेपर बताता है कि संगीत हमारे जेरोज़ाइम को नियंत्रित कर सकता है। तो दोस्तों! गाना गाएं या गा नहीं सकते तो कम से कम सुनें ज़रूर! (स्रोत फीचर्स)
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मानव आबादी का अस्तिस्व बनाए रखने के लिए ज़रूरी है कि प्रति प्रजननक्षम व्यक्ति के 2.1 बच्चे पैदा हों। इसे प्रतिस्थापन दर कहते हैं। काफी समय से जननांकिकीविदों का अनुमान था कि कुछ सालों के बाद प्रजनन दर इस जादुई संख्या (2.1) से कम रह जाएगी।
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग (UNPD) की 2022 की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि यह पड़ाव वर्ष 2056 में आएगा। 2021 में विट्गेन्स्टाइन सेंटर फॉर डेमोग्राफी एंड ग्लोबल ह्यूमन कैपिटल ने इस पड़ाव के 2040 में आने की भविष्यवाणी की थी। लेकिन दी लैंसेट में प्रकाशित हालिया अध्ययन थोड़ा चौंकाता है और बताता है कि यह मुकाम ज़्यादा दूर नहीं, बल्कि वर्ष 2030 में ही आने वाला है।
देखा जाए तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जनसंख्या नियंत्रण पर जागरूकता लाने के प्रयास, लोगों के शिक्षित होने, बढ़ती आय, गर्भ निरोधकों तक बढ़ती पहुंच जैसे कई सारे कारकों की वजह से कई देशों में प्रजनन दर में काफी गिरावट आई है, और यह प्रतिस्थापन दर से भी नीचे पहुंच गई है। मसलन, संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रजनन दर 1.6 है, चीन की दर 1.2 है और ताइवान की 1.0 है। लेकिन कई देशों, खासकर उप-सहारा अफ्रीका के गरीब देशों, में यह दर अभी भी काफी अधिक है: नाइजर की 6.7, सोमालिया की 6.1 और नाइजीरिया की 5.1।
चूंकि हर देश की प्रजनन दर बहुत अलग-अलग हो सकती है, ये रुझान विश्व को दो हिस्सों में बांट सकते हैं: कम प्रजनन वाले देश, जहां युवाओं की घटती संख्या के मुकाबले वरिष्ठ नागरिकों की आबादी अधिक होगी; और उच्च-प्रजनन वाले देश, जहां निरंतर बढ़ती जनसंख्या विकास में बाधा पहुंचा सकती है। यहां यह स्पष्ट करते चलें कि प्रजनन दर का प्रतिस्थापन दर से नीचे पहुंच जाने का यह कतई मतलब नहीं है कि वैश्विक जनसंख्या तुरंत कम हो जाएगी। ऐसा होने में लगभग 30 और साल लगेंगे।
इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (IHME) के शोधकर्ताओं ने अपने मॉडल में प्रजनन दर कब प्रतिस्थापन दर से नीचे जाएगी, इस समय का अनुमान इस आधार पर लगाया है कि प्रत्येक जनसंख्या ‘समूह’ (यानी एक विशिष्ट वर्ष में पैदा हुए लोग) अपने जीवनकाल में कितने बच्चों को जन्म देंगे। इस तरीके से अनुमान लगाने में लोगों के अपने जीवनकाल में देरी से बच्चे जनने के निर्णय लेने जैसे परिवर्तन पता चलते हैं। इसके अलावा IHME के इस मॉडल ने अनुमान लगाने में लोगों की गर्भ निरोधकों और शिक्षा तक पहुंच जैसे चार कारकों को भी ध्यान में रखा है जो प्रजनन दर को प्रभावित कर सकते हैं।
विशेषज्ञों का कहना है यह पड़ाव चाहे कभी भी आए, देशों की प्रजनन दर में बढ़ती असमानता (अन्य) असमानताओं को बढ़ाने में योगदान दे सकती है। मध्यम व उच्च आय के साथ निम्न प्रजनन दर वाले देशों में प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर से कम होने से वहां काम करने वाले लोगों की कमी पड़ सकती है और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों, राष्ट्रीयकृत स्वास्थ्य बीमा और सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों पर दबाव पड़ सकता है। वहीं, निम्न आय के साथ उच्च प्रजनन दर वाले देशों के आर्थिक रूप से और अधिक पिछड़ने की संभावना बनती है। साथ ही, बहुत कम संसाधनों के साथ ये देश बढ़ती आबादी को बेहतर स्वास्थ्य, कल्याण और शिक्षा मुहैया नहीं करा पाएंगे। बहरहाल, इस तरह की समस्याओं को संभालने के लिए हमें समाधान खोजने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में इंटरनेशन कौंसिल ऑफ स्ट्रेटीग्राफी ने वह प्रस्ताव नामंज़ूर कर दिया है जिसमें पृथ्वी के वर्तमान काल को एंथ्रोपोसीन काल घोषित करने का आग्रह किया गया था। गौरतलब है कि पृथ्वी के इतिहास को विभिन्न कालों और युगों में बांटा गया है। वर्तमान युग को होलोसीन कहा जाता है और इसकी शुरुआत पिछले हिमयुग की समाप्ति के बाद करीब 11,700 वर्ष पहले हुई मानी जाती है। प्रस्ताव यह था कि इस युग को अब समाप्त माना जाए और 1950 से एक नए युग की शुरुआत मानकर इसे एंथ्रोपोसीन नाम दिया जाए।
प्रस्ताव के मूल में बात यह थी कि वर्तमान युग ज़बर्दस्त मानव प्रभाव का युग है जिसमें इंसानी क्रियाकलाप ने पृथ्वी के हर पक्ष को कुछ इस तरह प्रभावित किया है कि अब लौटकर जाना मुश्किल है। इस प्रभाव को हर आम-ओ-खास अपने आसपास देख सकता है। लेकिन इंटरनेशनल स्ट्रेटीग्राफी आयोग ने इस नामकरण को अस्वीकार कर दिया है।
आयोग की सबसे प्रमुख आपत्ति यह थी कि इस नए युग की शुरुआत की कोई तारीख निर्धारित करना मुश्किल है क्योंकि इसका कोई भौतिक चिंह नहीं है। प्रस्ताव के समर्थकों का मत है कि इस युग को 1950 के दशक से शुरू माना जाना चाहिए। भौतिक प्रमाण के रूप में उन्होंने कनाडा की क्रॉफोर्ड झील में जमा कीचड़़ की लगभग 10 से.मी. की परत को सामने रखा था जिसमें जीवाश्म ईंधन और उर्वरकों के उपयोग तथा परमाणु विस्फोटों के चिंह मिलते हैं। लेकिन आयोग को यह कोई पुख्ता प्रमाण नहीं लगा।
वैसे प्रस्ताव के संदर्भ में कई भूवैज्ञानिकों का भी सवाल है कि क्यों जीवाश्म ईंधन, उर्वरकों के उपयोग और परमाणु परीक्षणों को ही मानव प्रभाव का लक्षण माना जाए। हज़ारों वर्ष पहले शुरू हुई खेती को या करीब 400 वर्ष युरोपीय लोगों के नई दुनिया में प्रवास के बाद आए व्यापक परिवर्तनों को क्यों नहीं?
प्रस्ताव के विरोधियों की एक आपत्ति यह रही है कि प्रस्ताव देने वाले समूह (एंथ्रोपोसीन वर्किंग ग्रुप) ने शुरू से ही मीडिया का उपयोग किया जबकि तकनीकी रूप से उन्होंने प्रस्ताव बहुत देर से दिया। कई वैज्ञानिकों का मत है कि वर्किंग ग्रुप का यह हठ था कि वे एंथ्रोपोसीन को एक युग के रूप में ही परिभाषित करवाना चाहते हैं। कई वैज्ञानिकों का सुझाव है कि इसे युग की बजाय एक घटना के रूप में दर्शाना बेहतर होगा। उदाहरण के लिए जब पृथ्वी पर सायनोबैक्टीरिया पनपे तो उन्होंने प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से वातावरण को ऑक्सीजन प्रचुर बना दिया था जिसने पृथ्वी के जीवन को गहराई में प्रभावित किया था। इसे ग्रेट ऑक्सीकरण घटना कहते हैं। इसी की तर्ज पर एंथ्रोपोसीन घटना कहा जा सकता था।
बहरहाल, अब वर्किंग ग्रुप को फिर से प्रस्ताव देने के लिए 10 साल की प्रतीक्षा करनी है क्योंकि आयोग का यही नियम है। अलबत्ता, कई वैज्ञानिकों तथा समाज शास्त्रियों, मानव वैज्ञानिकों वगैरह को लगता है कि चाहे आयोग ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया हो लेकिन यह एक महत्वपूर्ण नज़रिया पेश करता है जो हमें आजकल की दुनिया के बारे में सोचने की एक दिशा देता है। (स्रोत फीचर्स)
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आधुनिक युरोप के इतिहास में जाने-माने ट्यूलिप उन्माद और रियल एस्टेट का जुनून सवार होने के बाद 19वीं सदी में जोंक चिकित्सा की एक नई सनक सवार हुई थी। लेकिन खून चूसने वाले ये अकशेरुकी प्राणि, युरोपीय चिकित्सकीय जोंक (Hirudo medicinalis), चिकित्सा सम्बंधित उन्माद के चलते विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए थे। वैसे इन नन्हें जंतुओं ने मौसम की भविष्यवाणी में भी अपना नाम दर्ज कराया था।
वास्तव में चिकित्सीय उपचार के लिए जोंक का उपयोग सबसे पहले मिस्र में किया गया और आगे चलकर यूनान, रोम और भारत में भी इनका उपयोग होने लगा। जोंक को मुख्य रूप से शरीर के विभिन्न द्रवों को संतुलित करने के उद्देश्य से खून चुसवाने के लिए उपयोग किया जाता था। जबकि यूनानी चिकित्सक, विभिन्न अन्य रोगों, जैसे गठिया, बुखार और बहरेपन, के इलाज में भी जोंक का उपयोग किया करते थे। ये नन्हें जीव बड़ी आसानी से अपने तीन बड़े जबड़ों से त्वचा पर चिपक जाते थे और लार में प्राकृतिक निश्चेतक और थक्कारोधी गुण की मदद से रक्त चूसने लगते थे। इस तरह से रोगी को बिलकुल दर्द नहीं होता था और उपचार के बाद बस एक हल्का निशान रह जाता था जो समय के साथ ठीक हो जाता था।
लंबे समय से चली आ रही यह पद्धति उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में तब काफी सुर्खियों में रही जब पेरिस स्थित वाल-डी-ग्रे के प्रमुख चिकित्सक डॉ. फ्रांस्वा-जोसेफ-विक्टर ब्रूसे ने युरोपीय चिकित्सकीय जोंक उपचार को एक रामबाण उपचार के रूप में प्रचारित किया। ब्रूसे का मानना था कि सभी बीमारियों का मूल कारण है सूजन, और इसके इलाज के लिए रक्तस्राव सबसे उचित उपचार है। चूंकि यह सुरक्षित था और इसके लिए किसी विशेष कौशल की आवश्यकता भी नहीं थी, इसलिए जोंक की मांग में निरंतर वृद्धि होती गई। यहां तक कि कैंसर से लेकर मानसिक बीमारी सहित विभिन्न बीमारियों के इलाज में जोंक का खूब उपयोग किया जाने लगा।
इनकी मांग इतनी अधिक थी कि 1830 से 1836 तक फ्रांस्वा ब्रूसे के अस्पताल में ही 20 लाख से अधिक जोंकों का उपयोग किया गया जबकि फ्रांस के अन्य अस्पतालों में चरम लोकप्रियता के वर्षों में सालाना 5,000 से 60,000 जोंकों का उपयोग किया गया।
जोंक को रक्त निकालने के लिए एक बार में 20 से 45 मिनट तक चिपकाया जाता था। चूंकि एक जोंक केवल 10 से 15 मिलीलीटर तक ही खून चूस सकती है, इसलिए विभिन्न प्रकार के उपचार के लिए अलग-अलग डोज़ भी तय किए जाते थे – जैसे निमोनिया के लिए 80 जोंक और पेट की सूजन के लिए 20 से 40 जोंक।
यह काफी दिलचस्प बात है कि विक्टोरिया युग में जोंक ने चिकित्सा के साथ फैशन और कला को भी प्रभावित किया था। महिलाओं की पोशाकों पर जोंक के चित्र काढ़े जाते थे और औषधालय बड़े-बड़े पात्रों में जोंक का प्रदर्शन करते थे। और तो और, ब्रिटेन के सर्वोच्च अधिकारी लॉर्ड चांसलर थॉमस एर्स्किन जोंक को अपने सबसे प्रिय पालतू जानवर के रूप में पालने लगे थे।
जोंक के प्रति यह दीवानगी जोंक की आबादी को गंभीर रूप से प्रभावित करने लगी। कुछ सरकारों ने इन्हें विलुप्ति से बचाने के लिए वन्यजीव संरक्षण कानून लागू किया और जोंक के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के साथ इनके संग्रहण को भी नियंत्रित किया। 1848 में, रूस ने जोंक के प्रजनन काल के दौरान जोंक संग्रह पर प्रतिबंध लगाया था। जोंक को कृत्रिम रूप से पालने व संवर्धन की भी कोशिशें की गईं।
लेकिन इनके संवर्धन तथा व्यावसायीकरण में कई चुनौतियां थीं। आम तौर पर उपयोग की गई जोंक को खाइयों या तालाबों में फेंक दिया जाता था, जिससे प्रजातियों का अत्यधिक दोहन होता था। इसी के साथ कृषि के लिए जल निकासी और दलदली भूमि के पुनर्विकास ने उनकी आबादी को और कम कर दिया। कई प्रयासों के बावजूद, 20वीं सदी की शुरुआत तक कई स्थानों पर चिकित्सीय जोंक लुप्तप्राय हो गए थे।
दरअसल, जोंक उपचार से कुछ फायदे थे तो कुछ नुकसान भी थे। जहां इस उपचार के बाद रोगी दर्द से राहत, सूजन में कमी और रक्त परिसंचरण में सुधार महसूस करते थे, थ्रम्बोसिस जैसी समस्याओं में राहत पाते थे, वहीं इससे खून की कमी, एनीमिया, संक्रमण और एलर्जी जैसी समस्याओं की संभावना रहती थी। इससे सिफिलस, तपेदिक और मलेरिया जैसी बीमारियां भी फैल सकती थी। इसके अलावा, कई रोगियों ने जोंक के प्रति भय और घृणा के कारण मनोवैज्ञानिक समस्याओं का अनुभव किया।
जोंक के लुप्तप्राय होने को छोड़ भी दिया जाए तो इनके उपयोग में कमी का एक कारण चिकित्सा विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास है जिसने कई बीमारियों के लिए अधिक प्रभावी उपचार प्रदान किए। इसके अलावा रोगाणु सिद्धांत तथा चिकित्सा विज्ञान में सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छता के उदय होने से संक्रामक रोगों की घटनाओं और प्रसार में कमी आई। हालांकि 20वीं सदी के मध्य तक जोंक उपचार को काफी हद तक छोड़ दिया गया था लेकिन कुछ देशों में वैज्ञानिक अनुसंधान और विनियमन के साथ जोंक उपचार को एक मूल्यवान पूरक चिकित्सा के रूप में देखा जा रहा है। आजकल जोंक का प्रजनन युरोप और यूएसए की कुछ प्रयोगशालाओं में किया जा रहा है।
मौसम भविष्यवाणी
दरअसल, जेनर ने अपनी कविता में बारिश के आगमन कई ऐसे कुदरती संकेतों का ज़िक्र किया था – जैसे मोर का शोर मचाना, सूर्यास्त का पीला पड़ जाना वगैरह। लेकिन मेरीवेदर का ध्यान कविता के उस हिस्से पर गया जहां जेनर ने कहा था, “जोंक परेशान हो जाती है, अपने पिंजड़े के शिखर पर चढ़ जाती है।”
जॉर्ज मेरीवेदर नामक एक ब्रिटिश चिकित्सक और आविष्कारक ने जोंक को औषधीय उपयोग से परे देखा। एडवर्ड जेनर की कविता से प्रेरित होकर उन्होंने एक ऐसा उपकरण (टेम्पेस्ट प्रोग्नॉस्टिकेटर) बनाया जो जोंक की कथित रहस्यमयी क्षमता का उपयोग कर तूफानों की भविष्यवाणी करता था।
मेरीवेदर द्वारा तैयार किए गए तूफान-सूचक में बारह बोतलों को एक घेरे में जमाया गया था। प्रत्येक बोतल में कुछ इंच बारिश का पानी भरा गया था और प्रत्येक बोतल में एक-एक जोंक रखी गई थी। जोंक को इस तरह रखा गया था कि वे एक-दूसरे को देख सकती थीं और एकांत कारावास की पीड़ा से मुक्त रहती थीं।
सामान्य परिस्थितियों में सभी जोंक बोतल में नीचे पड़ी रहती थीं लेकिन बारिश आने से पहले वे ऊपर चढ़ने लगती थीं। और ऊपर चढ़कर जब वे बोतल के मुंह तक पहुंच जाती थीं, तब वहां लगी एक छोटी व्हेलबोन पिन सरक जाती थी और उपकरण के केंद्र में लगी घंटी बजने लगती थी। जितनी अधिक जोंकें ऊपर की ओर बढ़ती थीं उतनी ही अधिक बार घंटी बजती थी। वैसे मेरीवेदर ने यह भी देखा कि कुछ जोंक बढ़िया संकेत देती थीं जबकि अन्य निठल्ली पड़ी रहती थीं और अपनी जगह से टस से मस नहीं होती थीं।
मेरीवेदर ने महीने भर अपने उपकरण का परीक्षण किया और व्हिटबाय फिलॉसॉफिकल सोसाइटी को आसन्न तूफानों की सूचना भेजते रहे। हालांकि उन्होंने अपनी असफलताओं की सूचना नहीं दी थी। एक अखबार के मुताबिक इस उपकरण ने अक्टूबर 1850 के विनाशकारी तूफान की सटीक भविष्यवाणी की थी, जिसके बाद इसे मान्यता मिली और 1851 में हाइड पार्क में इसे सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया गया।
हालांकि, मेरीवेदर का यह तूफान सूचक उतना व्यावहारिक नहीं था जितना वे सरकार को विश्वास दिला रहे थे। यह उपकरण न तो तूफान की दिशा बताता था और न ही इससे तूफान आने का सटीक समय पता चलता था। इसके अलावा, उपकरण की सबसे बड़ी कमी थी जोंक के लिए मासिक आहार की व्यवस्था और हर पांचवे दिन इसके पानी को बदलना। ऐसे में इसका नियमित रखरखाव थोड़ा मुश्किल काम था और विशेष रूप से जहाज़ों पर मौसम पूर्वानुमान के लिए यह अव्यावहारिक था। इसकी तुलना में स्टॉर्म ग्लास अधिक व्यावहारिक विकल्प के रूप में उभरा।
स्टॉर्म ग्लास एक कांच का उपकरण है जिसमें आम तौर पर कपूर, कुछ रसायन, पानी, एथेनॉल और हवा का मिश्रण होता है। ऐसा माना जाता था कि तरल में क्रिस्टल और बादल के बनने से मौसम में आगामी बदलावों का संकेत मिलता है। हालांकि, यह जोंक की तुलना में कम प्रभावी था लेकिन उपयोग में अधिक व्यवहारिक होने के कारण इसे दशकों तक उपयोग किया जाता रहा। मेरीवेदर का मूल तूफान भविष्यवक्ता तो शायद कहीं खो गया है, लेकिन लगभग एक सदी बाद 1951 में प्रदर्शनी के लिए इसकी कई प्रतिकृतियां बनाई गई थीं।
युरोपीय औषधीय जोंक और तूफान सूचक की आकर्षक कथाएं 19वीं सदी के विज्ञान और सामाजिक विचित्रताओं को एक बहुआयामी दृष्टिकोण प्रदान करती हैं। विलुप्त होने की कगार से लेकर मौसम के भविष्यवक्ता के एक संक्षिप्त कार्यकाल तक, जोंक ने उन क्षेत्रों का भ्रमण किया जिन्होंने इतिहास को आकार दिया। (स्रोत फीचर्स)
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मानवविज्ञानियों के बीच यह बहस का विषय रहा है कि क्या मनुष्य सदा से इतना ही क्रूर और हिंसक था, या पहले कम हिंसक था और अब अधिक हो गया है। और इस मामले में दो मत रहे हैं: पहला, खेती की शुरुआत होने के पहले तक मानव सभ्यताएं शांत-स्वभावी थीं और मैत्रीपूर्ण माहौल था; दूसरा, कृषि के पहले मानव बस्तियां क्रूर थीं और लड़ने को तत्पर थीं, और जब उन्होंने मिल-जुल कर खेती करना शुरू किया तो शांतिपूर्ण हो गईं।
लेकिन इनमें से किसी भी मत के पक्ष में ठोस सबूत नहीं मिले थे, और दोनों ही मतों पर संदेह बना रहा। हालिया अध्ययन इसी सवाल पर कोई मत बनाने का प्रयास है, और निष्कर्ष है कि इतिहास में मनुष्य की प्रवृत्ति को किसी एक खांचे, अधिक शांत या अधिक हिंसक, में नहीं रखा जा सकता। कोई मानव समाज कब-कितना हिंसक रहा इसे एक सीधी ऊपर जाती या सीधी नीचे उतरती रेखा से नहीं दर्शाया जा सकता है।
बार्सिलोना विश्वविद्यालय के आर्थिक इतिहासकार जियोकोमो बेनाटी और उनके साथियों द्वारा नेचर ह्यूमन बिहेवियर में प्रकाशित नतीजों के अनुसार, दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग कारणों से कई बार हिंसा भड़की और शांति बनी।
इन निष्कर्षों तक पहुंचने के लिए शोधकर्ताओं ने वर्तमान तुर्की, ईरान, इराक, सीरिया, लेबनान, इस्राइल और जॉर्डन में खुदाई में पाए गए कंकालों का विश्लेषण किया। अध्ययन में इन स्थानों पर 12,000 ईसा पूर्व से 400 ईसा पूर्व काल तक के 3500 से अधिक मानव कंकालों को देखा गया। उन्होंने पाया कि मानव समाज में सामाजिक-आर्थिक उथल-पुथल और बदलती जलवायु के दौर में पारस्परिक हिंसा अधिक दिखती है – मुख्य रूप से सिर पर आघात के मामले काफी मिलते हैं।
फिर शोधकर्ताओं ने उन खोपड़ियों को ध्यान से देखा जो ‘टोपी-किनारे की रेखा’ के ऊपर क्षतिग्रस्त हुई थीं। टोपी-किनारे की रेखा कपाल पर एक ऐसी काल्पनिक रेखा है जिसके आधार पर मानवविज्ञानी बताते हैं कि चोट किसी दुर्घटना के कारण लगी है या इरादतन प्रहार किया गया था। मसलन गिरने के कारण लगने वाली चोटें आंख, नाक और भौंह के आसपास लगती हैं, जबकि खोपड़ी के ऊपरी हिस्से पर चोट किसी प्रहार के कारण लगती है।
इसके अलावा उन्होंने हथियार से सम्बंधी चोटों की पुष्टि के लिए कंकाल के अन्य हिस्सों की भी जांच की, जैसे कि घोंपने के निशान या बचाव करते समय हड्डी में आया फ्रैक्चर वगैरह। हालांकि, शोधकर्ताओं ने चोट के इन निशानों पर कम भरोसा किया, क्योंकि इनमें यह पहचानना मुश्किल है कि ये निशान प्रहार के नतीजे हैं या दुर्घटना के। फिर भी विश्लेषण से यह पता चलता है कि प्राचीन मध्य पूर्व में हिंसा 6500 से 5300 साल पहले तक ताम्रपाषाण युग के दौरान चरम पर थी। इसके बाद प्रारंभिक और मध्य कांस्य युग के दौरान यह बहुत कम हो गई क्योंकि समूहों ने आक्रामक व्यवहार को नियंत्रित करने की अपनी क्षमता को मज़बूत कर लिया था। लौह युग की शुरुआत में, करीब 3000 साल पहले, फिर से बढ़ गई थी।
मध्य पूर्वी क्षेत्र में ताम्रपाषाण काल एक संक्रमणकाल था। बस्तियां फैल रही थीं, राज्य बनने लगे थे, और लकड़ी व पत्थर के औज़ारों की जगह धातु के औज़ार लेते जा रहे थे। बढ़ती आबादी, अधिक हकदारी तथा बेहतर हथियारों के चलते हिंसा बढ़ने लगी।
इसी तरह, लौह युग में हथियारों की गुणवत्ता कांस्य युग से बेहतर हो गई थी और असीरियन साम्राज्य के सत्ता में आने के साथ ही राजनैतिक पुनर्गठन भी हुआ था। और तो और, राजनैतिक और तकनीकी उथल-पुथल के अलावा यह क्षेत्र एक बड़े जलवायु परिवर्तन से भी गुज़रा – करीब 300 साल लंबा सूखा पड़ा, जिसने हज़ारों लोगों को विस्थापित कर दिया और भीषण अकाल पड़ा।
ये निष्कर्ष वर्तमान जलवायु परिवर्तन सम्बंधी चुनौती के लिए एक कड़ी चेतावनी देते हैं। कई विशेषज्ञों की चिंता है कि जैसे-जैसे पृथ्वी का तापमान बढ़ेगा, वैसे-वैसे मनुष्यों में हिंसक संघर्ष भी बढ़ेगा। लेकिन साथ ही शोधकर्ता अपने नतीजों के बारे मे आगाह भी करते हैं कि ये नतीजे समूह के व्यवहार को दर्शाते हैं, ये एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति से बर्ताव के बारे में नहीं हैं। अलबत्ता, इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि चरम जलवायु घटनाओं से संघर्ष उपज सकता है। लेकिन इस बात के भी प्रमाण हैं कि जब ऐसी संस्थाएं मौजूद होती हैं जो हिंसा को कम कर सकती हैं तो संघर्ष को कम किया जा सकता है।
बहरहाल, इतिहास से सबक लेकर ऐहतियात बरतने और संघर्षों को टालने की योजना बनाने में कोई बुराई नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
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वैज्ञानिकों को 1960 के दशक में उत्तरी इस्राइल के 14 लाख साल पुराने एक पुरातात्विक स्थल ‘उबेदिया’ की खुदाई में पत्थरों के औज़ारों (जैसे कुल्हाड़ी वगैरह) के साथ कंचे जितने बड़े करीब 600 पत्थर के गोले भी मिले थे। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि ये गोले कैसे और किसलिए बनाए गए थे। कुछ लोगों का अनुमान था कि ये गोले औज़ार बनाते वक्त बचे हुए पत्थर हैं। कुछ का विचार था कि, हो न हो, ये जानबूझकर बनाए गए होंगे।
इस गुत्थी को सुलझाने के लिए हिब्रू युनिवर्सिटी ऑफ जेरूसलम के कंप्यूटेशनल पुरातत्वविदों के एक दल ने इन ‘गोलाभों’ की त्रि-आयामी आकृति का विश्लेषण किया। इसके लिए उन्होंने एक नया, परिष्कृत सॉफ्टवेयर विकसित किया। यह सॉफ्टवेयर गोलाभ की सतह की कटानों के ढलानों (कोण) को माप सकता था, सतह की वक्रता की गणना कर सकता था, और संहति केंद्र पता कर सकता था। इस सॉफ्टवेयर की मदद से उन्होंने उबेदिया से प्राप्त 150 गोलाभों का विश्लेषण किया। इस आधार पर शोधकर्ता रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में लिखते हैं कि उबेदिया से प्राप्त गोलाभ इरादतन की गई शिल्पकला हैं, ना कि औज़ार बनाने के सहत्पाद। उन्हें प्रत्येक कंचे में एक बड़ी ‘प्राथमिक सतह’ मिली है जो आसपास से कई छोटे कटानों से घिरी है, इससे समझ आता है कि पहले किसी चट्टान से एक टुकड़ा काटकर अलग किया गया और फिर उस टुकड़े को चारों ओर से तराशकर गोल स्वरूप दिया गया।
शोधकर्ता बताते हैं कि इस बात की संभावना बहुत कम है कि ये कंचे प्राकृतिक क्रियाओं द्वारा बने होंगे। प्राकृतिक क्रियाओं से बनी संरचनाओं की सतह काफी चिकनी होती है। उदाहरण के लिए, नदियों में पाए जाने वाले पत्थर पानी द्वारा कटाव के कारण अत्यधिक चिकने हो जाते हैं, और वे पूर्ण गोलाकार भी नहीं होते। उबेदिया में पाए जाने वाले गोलाभों की सतह वैसी खुरदरी है जैसे किसी पत्थर को तराशने में होती है। और उनमें से कई कंचे तो एकदम गोल हैं, जो केवल कोई सोच-समझकर ही बना सकता है।
शोध के प्रमुख लेखक एंटोनी मुलर बताते हैं कि ऐसा लगता है कि 14 लाख साल पहले होमिनिन्स के पास अपने मन (दिमाग) में एक गोले की कल्पना करने और उस कल्पना को तराशकर आकार देने की क्षमता थी। ऐसा करने के लिए एक योजना और दूरदर्शिता के साथ-साथ मानवीय निपुणता और कौशल लगते हैं। इसके अलावा यह उनमें सुंदरता और सममिति की सराहना के उदाहरण भी पेश करता है।
अपने सॉफ्टवेयर से शोधकर्ता यह तो पता कर पाए कि प्राचीन मनुष्यों ने इन्हें कैसे बनाया लेकिन वे यह गुत्थी नहीं सुलाझा पाए कि इन्हें क्यों बनाया। लेकिन उनका अनुमान है कि उन्होंने ये गोले महज़ मज़े के लिए बनाए होंगे।
अन्य वैज्ञानिकों की टिप्पणी है इन गोलाभ की सतह पर बने कई निशानों से यह जानना असंभव हो जाता है कि निर्माण के शुरुआती चरणों में गोलाभ कैसे दिखते होंगे। उनका सुझाव है कि शोधकर्ता यदि अंतिम रूप ले चुके गोलाभों की आपस में तुलना करने की बजाय उन गोलाभों से करते जिन्हें गोलाभ बनाने की प्रक्रिया में अधूरा छोड़ दिया गया था तो अधिक स्पष्ट तस्वीर बन सकती थी।
इसके अलावा इस नई तकनीक की विश्वसनीयता परखने के लिए इसे अन्य पुरानी कलाकृतियों, जैसे अफ्रीका के खुदाई स्थलों से प्राप्त 20 लाख साल पुराने गोलाभों पर लागू करके देखना फायदेमंद होगा। (स्रोत फीचर्स)
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लगभग पांच लाख साल पहले मध्य अफ्रीका के प्राचीन मनुष्यों ने पेड़ों को काटकर खुदाई के औज़ार, फच्चर और अन्य चीज़ें बनाई थीं। 1950-60 के दशक में ज़ाम्बिया के कलाम्बो फॉल्स नामक पुरातात्विक स्थल पर खुदाई के दौरान लकड़ी की ऐसी वस्तु मिली थी जो किसी बड़े ढांचे का हिस्सा लगती थी। लेकिन तब यह पता नहीं चल पाया था कि यह कितनी पुरानी है, इसे किसने बनाया था, और ना ही यह समझ आया था कि वह पूरा ढांचा क्या रहा होगा। लेकिन हो सकता है कि यह एक चौपाल था, या आश्रय था, या कुछ और।
ढांचा चाहे जो रहा हो लेकिन नेचर पत्रिका की एक रिपोर्ट बताती है कि हमसे बहुत पहले अस्तित्व में रहे होमिनिन लोग लकड़ी का काम कर रहे थे, शायद होमो सेपिएन्स के आगमन से एक लाख साल पहले।
युनिवर्सिटी ऑफ लिवरपूल के पुरातत्वविद लैरी बरहैम और उनकी टीम ने 2000 के दशक में आधुनिक तकनीकों के साथ पुन: इस स्थल पर खुदाई शुरू की। हालांकि वे लकड़ी के औज़ारों का विश्लेषण करने की मंशा से नहीं बल्कि पत्थर के औज़ार खोजने गए थे। बहरहाल, खुदाई में उन्हें लकड़ी के कई ऐसे टुकड़े मिले जिन्हें, लगता था कि तराशा गया है। साथ ही उन्हें लकड़ी का एक 1.4 मीटर लंबा लट्ठा भी मिला, जिसके सिरे संकरे थे और सिरों को एक ओर से काट-छील कर एक खांचा बनाया गया था, जिस पर एक अन्य बड़ी लकड़ी टिकी हुई थी।
वहां मिली कई लकड़ी की वस्तुओं पर इरादतन तराशने के निशान मिले थे (जैसे खुरचने के)। ये निशान वैसे ही थे जैसे होमो सेपियन्स द्वारा उपयोग किए जाने वाले अन्य जल-जमाव वाले स्थानों पर मिली लकड़ी की वस्तुओं पर मिले थे। इनमें से एक छोटी लकड़ी ऐसी लग रही थी जैसे वह खुदाई के लिए हो; दूसरी फच्चरनुमा आकृति लग रही थी।
लेकिन खुदाई में मिलीं लकड़ी की दो बड़ी वस्तुएं क्या होंगी यह अस्पष्ट था। ये काष्ठकृतियां कुछ लिंकन लॉग्स खिलौने जैसी थीं जिनके सिरों पर चौड़े खांचे होते हैं, जिनके ज़रिए उन्हें एक-दूसरे में लंबवत फंसाया जा सकता है। बरहैम का कहना है कि खुदाई में मिली लकड़ियों पर खांचे भी शायद इसी उद्देश्य से बनाए गए होंगे। शायद वे मछली पकड़ने के लिए मचान बना रहे होंगे या कोई ऊंचा रास्ता या आश्रय स्थल बना रहे होंगे। फिलहाल ये सिर्फ अनुमान हैं, और सामग्री मिले तो बेहतर अनुमान लगाए जा सकेंगे।
ल्यूमिनिसेंस डेटिंग से पता चलता है कि ये बड़ी लकड़ियां कम से कम 4,76,000 वर्ष पुरानी हैं, और कुछ छोटे औज़ार इनसे थोड़ बाद के हैं। हालांकि कलाम्बो फॉल्स में होमिनिन के कोई अवशेष नहीं मिले हैं, लेकिन एक अन्य स्थल से तीन लाख साल पुरानी एक खोपड़ी मिली है जिसकी पहचान होमो हाईडलबरजेंसिस के रूप में की गई है।
वैसे अन्य पुरातत्वविदों को होमिनिन द्वारा काष्ठकारी पर अचरज नहीं हुआ है। इसी समय के आसपास, अफ्रीका और दुनिया के अन्य हिस्सों से लकड़ी पर जुड़े पत्थर के औज़ार मिले हैं। इस स्थल की और अधिक खुदाई से यह भी पता चल सकता है कि क्या लकड़ी का परिरक्षण किया जाता था।(स्रोत फीचर्स)
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लगभग 9 लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका में रहने वाले मनुष्यों के पूर्वजों को एक खतरनाक दौर का सामना करना पड़ा था। साइंस में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार हमारी प्रजाति (होमो सेपियन्स) के उद्भव से काफी पहले प्राचीन होमो पूर्वजों की जनसंख्या में इतनी गंभीर गिरावट हुई थी कि उनकी विलुप्ति का संकट पैदा हो गया था। उस समय जनसंख्या घटकर मात्र 1280 रह गई थी जो लगभग 1 लाख 17 हज़ार वर्षों तक स्थिर रही।
युनिवर्सिटी ऑफ चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के जनसंख्या आनुवंशिकीविद और इस अध्ययन के सह-लेखक हैपेंग ली के अनुसार इतिहास में एक लंबा दौर रहा जब 98.7 प्रतिशत मानव पूर्वजों की आबादी का खात्मा हो चुका था। उनका कहना है कि अफ्रीका और युरेशिया में 9.5 लाख से 6.5 लाख वर्ष के बीच जीवाश्मों की बहुत कमी दिखती है। उक्त खोज इस कमी की व्याख्या कर सकती है।
3 लाख साल के इस अंतराल में जनसंख्या तो काफी कम थी ही लेकिन आश्चर्यजनक बात यह है कि इतनी छोटी-सी आबादी इतने लंबे समय तक जीवित रही। अनुमान है कि इस समूह में सामाजिक बंधन मज़बूत रहे होंगे और यह पर्याप्त संसाधनों और न्यूनतम तनाव वाले एक छोटे क्षेत्र में रहती होगी।
मानव इतिहास के इस छिपे हुए अध्याय को उजागर करने के लिए शोधकर्ताओं ने नई आनुवंशिक विधियां विकसित कीं। जीनोम अनुक्रमण की आधुनिक तकनीकों ने हालिया मानव आबादियों के आकार के अध्ययन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है लेकिन प्रारंभिक पूर्वजों के बारे पद्धतिगत सीमाएं और प्राचीन डीएनए की कमी बाधा रही हैं। इस नई तकनीक ने शोधकर्ताओं को आधुनिक मनुष्यों के जीन्स के डैटा की मदद से प्राचीन जनसंख्या के उतार-चढ़ाव को समझने का मौका दिया। टीम ने जीन्स के एक विस्तृत वंशवृक्ष का निर्माण करते हुए 8 से 10 लाख साल पहले की अवधि पर ध्यान केंद्रित किया और महत्वपूर्ण वैकासिक घटनाओं का निर्धारण करने में सफल रहे।
यह काल प्रारंभिक-मध्य प्लायस्टोसिन संक्रमण का हिस्सा था जब पृथ्वी गंभीर जलवायु परिवर्तन से गुज़र रही थी और हिमनद चक्र लंबे-लंबे व भीषण हो रहे थे। ऐसा अनुमान है कि इस अवधि में अफ्रीकी क्षेत्र में काफी समय तक सूखा रहा होगा जिसने संभवतः हमारे पूर्वजों के पतन और नई मानव प्रजातियों के उद्भव में प्रमुख भूमिका निभाई होगी। ये नई प्रजातियां अंततः आधुनिक मानव, निएंडरथल और डेनिसोवन्स में विकसित हुई।
लगभग 8,13,000 साल पहले मानव-पूर्वज जनसंख्या में फिर से वृद्धि शुरू हुई। हालांकि इस पुनरुत्थान के कारण तो स्पष्ट नहीं हैं लेकिन इस लंबे अंतराल ने मनुष्यों की आनुवंशिक विविधता पर गहरा प्रभाव डाला होगा जिसका असर कई लक्षणों (जैसे मस्तिष्क का आकार) पर पड़ा होगा। ऐसा अनुमान है कि इस अवधि में दो-तिहाई आनुवंशिक विविधता नष्ट हो गई थी।
इस शोध अध्ययन से लगता है कि यह मानव विकास में एक महत्वपूर्ण चरण रहा होगा और यह कई सवाल उठाता है। लेकिन कई पुरातत्वविद इन निष्कर्षों की पुष्टि के लिए अतिरिक्त पुरातात्विक और जीवाश्म साक्ष्य की अपेक्षा करते हैं। जैसे, इस अध्ययन में वैश्विक जनसंख्या में भारी कमी की जानकारी दी गई है लेकिन अफ्रीका के बाहर स्थित पुरातात्विक स्थलों की प्रचुर संख्या इस निष्कर्ष की पुष्टि नहीं करती। अन्य विशेषज्ञों के अनुसार यह कोई विश्वव्यापी परिघटना न होकर मात्र एक छोटे से क्षेत्र में सीमित थी। (स्रोत फीचर्स)
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