हालिया अध्ययन ने गाज़ा के बच्चों पर युद्ध के विनाशकारी मनोवैज्ञानिक प्रभावों (psychological Impacts) का एक दिल दहला देने वाला खुलासा किया है। पता चला है कि 96 प्रतिशत बच्चों का मानना है कि उनकी मृत्यु अवश्यंभावी है। वॉर चाइल्ड एलायंस (Child war alliance) के सहयोग से गाज़ा स्थित एक एनजीओ (NGO) द्वारा किए गए इस सर्वेक्षण में बच्चों के गहरे भावनात्मक और मानसिक संकट को उजागर किया गया है। इस अध्ययन में शामिल लगभग आधे बच्चों ने अपने ऊपर होने वाले भारी आघात के कारण मरने की इच्छा व्यक्त की है।
यह रिपोर्ट गाज़ा में जीवन की जो तस्वीर पेश करती है, उसमें बच्चे लगातार डर(Fear), चिंता(Anxiety) और क्षति से जूझ रहे हैं। लगभग 79 प्रतिशत बच्चे दुस्वप्न (Nightmares) देखते हैं, 73 प्रतिशत में आक्रामकता(Aggression) के लक्षण दिखाई देते हैं, और 92 प्रतिशत को अपने वर्तमान हालात को स्वीकार करने में कठिनाई महसूस होती है। ये लक्षण उस गहरे मनोवैज्ञानिक प्रभाव के संकेत हैं, जो बमबारियां(Bombardments) देखने, अपनों को खोने और घर से बेघर होने जैसी त्रासदियों का सामना करने से पड़े हैं।
इस सर्वे में 504 बच्चों के देखभालकर्ताओं से जानकारी जुटाई गई। इनमें से कई परिवारों में विकलांग, घायल या अकेले रह रहे बच्चे हैं। यह गाज़ा में 19 लाख से अधिक विस्थापित फिलिस्तीनियों(Palestinians) के मानवीय संकट को उजागर करता है, जिनमें से आधे बच्चे हैं। इनमें से कई बच्चों को बार-बार अपने मोहल्लों से भागने पर मजबूर होना पड़ा है, और अनुमान है कि लगभग 17,000 बच्चे अब अपने माता-पिता (Parents) से बिछड़ चुके हैं।
विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि इन अनुभवों के गहरे और स्थायी प्रभाव हो सकते हैं। बुरे सपने देखना, सामाजिक रूप से अलग-थलग होना, एकाग्रता में कठिनाई और यहां तक कि शारीरिक दर्द जैसी समस्याएं आम हैं। रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि ऐसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं (mental health problems) लंबे समय तक भावनात्मक और व्यवहारिक बदलाव ला सकती हैं, जिससे सदमा पीढ़ियों तक बना रह सकता है।
यह अच्छी बात है कि राहत पहुंचाने के प्रयास शुरू हो चुके हैं, जिसमें वॉर चाइल्ड (war child) और उसके साझेदारों ने 17,000 बच्चों को मानसिक स्वास्थ्य सहायता (mental health support) दी है। लेकिन संकट का पैमाना बहुत बड़ा है, और संगठन का लक्ष्य अगले तीन दशकों में अपनी सबसे बड़ी मानवीय प्रतिक्रिया के तहत 10 लाख बच्चों की मदद करना है।
वॉर चाइल्ड यूके (war child UK) की सीईओ हेलेन पैटिन्सन ने मौजूदा मानसिक स्वास्थ्य आपदा को पीढ़ी-दर-पीढ़ी संकट में बदलने से रोकने के लिए तुरंत अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई का आह्वान किया। उन्होंने गाज़ा के बच्चों पर पड़े अदृश्य घावों के साथ-साथ घरों, अस्पतालों और स्कूलों के विनाश को दूर करने के लिए वैश्विक हस्तक्षेप की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर दिया है। (स्रोत फीचर्स)
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अश्मीभूत पदचिंहों (fossilized footprints) के एक अध्ययन में रोमांचक बात सामने आई है। लगभग 15 लाख वर्ष पूर्व किसी दिन हमारे वंश होमो का सदस्य अफ्रीका की एक झील के कीचड़ भरे किनारे पर चला था और उसके चंद घंटे आगे-पीछे मानव कुल के एक और सदस्य ने उसी स्थान पर चहलकदमी की थी। वह दूसरा सदस्य संभवत: अपेक्षाकृत छोटे मस्तिष्क और बड़े जबड़े वाला पैरेन्थ्रोपस (paranthropus) था। देखने वाली बात यह है कि ये दोनों एक ही जगह पर, एक ही समय पर अस्तित्व में थे। यह रोमांचक खोज साइन्स (science)पत्रिका में प्रकाशित हुई है।
यह खोज पूर्व में प्रस्तावित इस धारणा के विपरीत है कि कोई भी दो होमिनिन प्रजातियां एक ही स्थान और एक ही समय पर साथ-साथ नहीं रही थीं। लेकिन पिछले वर्षों में खोदे गए जीवाश्म दर्शाते हैं कि हमारे पूर्वज और अन्य होमिनिन प्रजातियां सह-अस्तित्व में रही थीं। लेकिन उन जीवाश्मों के आधार पर पक्का निष्कर्ष निकालने में एक दिक्कत यह रही थी कि एक ही भूगर्भीय परत में पाए गए जीवाश्म हज़ारों या दसियों हज़ार वर्षों की अवधि में जमा हुए हो सकते हैं। इसलिए यह कहना संभव नहीं था कि विभिन्न होमिनिन वंश एक ही समय पर एक स्थान पर रहे थे।
उपरोक्त पदचिंह 2021 में रिचर्ड लोकी (Richard Lokey) द्वारा खोजे गए थे। उन्होंने केन्या के मशहूर जीवाश्म स्थल कूबी फोरा (Koobi Fora) में तुर्काना झील के निकट कई जीवाश्म खोजे थे। कूबी फोरा में कई होमिनिन जीवाश्म मिल चुके हैं और इन्हें उभारने में लुइस लीकी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्होंने यहां कम से कम पांच होमिनिन प्रजातियों की खोज की है। लेकिन ये पदचिंह खास तौर पर संरक्षित रहे हैं।
फिर 2022 में इन पदचिंहों के बारीकी से अध्ययन के लिए केविन हटाला (Kevin Hatala) और नील रोच (Neil Roach) को आमंत्रित किया गया। पदचिंहों में 13 कदम एक व्यक्ति के हैं जो तेज़ी से चलकर पूर्व की ओर गया था। इन पदचिंहों से 1 मीटर से भी कम दूरी पर अन्य तीन पदचिंह हैं जो उत्तर की ओर जा रहे हैं। आम तौर पर पदचिंह तभी भलीभांति संरक्षित रह पाते हैं जब बनने के फौरन बाद वे मिट्टी, रेत अथवा राख से ढंक जाएं। इन्हें देखकर लगता है कि ये चंद घंटों के अतंराल पर बने होंगे।
हटाला की टीम ने इन पदचिंहों की आकृति व साइज़ की तुलना 340 वर्तमान मनुष्यों के पदचिंहों और अफ्रीका के अन्य प्राचीन मानव पदचिंहों से की। हटाला की टीम यह तो पहले ही दर्शा चुकी थी कि जब हमारी प्रजाति के प्राणी कीचड़ वाली जगह पर चलते हैं तो हमारा पैर ज़मीन पर एक मेहराब छोड़ता है। लेकिन तंज़ानिया के लेटिओली (Laetoli) में करीब 36.6 लाख साल पहले कुछ होमिनिन प्राणियों ने ज़्यादा सपाट पदचिंह छोड़े थे। यह संभवत: ऑस्ट्रेलोपिथेकस (Australopithecus)वंश का होमिनिन था।
कूबी फोरा में जो अलग-थलग पदचिंह मिले हैं वे दो या तीन अलग-अलग प्राणियों के हैं और काफी हद तक आधुनिक मानव (modern humans) जैसे हैं। ये संभवत: हमारे ही वंश होमो के सदस्य हैं। लेकिन पदचिंहों की जो लंबी कतार है, उसमें चिंह बगैर मेहराब वाले यानी सपाट हैं। लगभग लैटिओली में मिले ऑस्ट्रेलोपिथेकस जैसे।
विश्लेषण से पता चला है कि इस प्राणी के पैर के अंगूठे में अधिक लचीलापन था और यह उसके पास वाली उंगली से दूर की ओर अधिक मुड़ा हुआ था। यह आधुनिक मानवों से भिन्न है और चिम्पैंज़ी (chimpanzee) में देखा जाता है और उन्हें पेड़ों पर चढ़ने में मददगार होता है।
तो लगता है कि हमारे वंश होमो के एक प्रारंभिक सदस्य और एक अन्य किस्म के होमिनिन शायद एक ही दिन वहां चले होंगे। यह इन प्रजातियों के सह-अस्तित्व का ज़्यादा मज़बूत प्रमाण है। यह तो पता ही था कि सीधे चलने वाले होमिनिन्स – होमो इरेक्टस (Homo erectus) और पैरेन्थ्रोपस बॉइसाई (Paranthropus boisei) – की काफी सारी हड्डियों और दांत के जीवाश्म उस इलाके में मिले हैं और ये लगभग पदचिंह के समय के हैं। (स्रोत फीचर्स)
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कुछ वर्ष पूर्व सीरिया की एक कब्र से मिट्टी की बेलनाकार कृतियां मिली थी, और अब विश्लेषण से निष्कर्ष निकला है कि उन पर 4400 साल पुरानी वर्णमाला के अक्षर अंकित हैं। और ये संभवत: अब तक की ज्ञात सबसे प्राचीन वर्णमाला के अक्षर हैं।
दरअसल, 2004 में अलेप्पो के पास उम्म अल-मर्रा में हुई खुदाई में 10 प्राचीन कब्रों का पता चला था। इनमें से एक कब्र से प्रारंभिक कांस्य युग (2600-2150 ईसा पूर्व) के मानव अवशेष और अन्य वस्तुएं निकली थीं। इन वस्तुओं में सोने के आभूषण, चांदी के बर्तन, हाथी-दांत की कंघी और मिट्टी के बर्तन आदि थे। और साथ में चार मिट्टी के बेलन भी थे। हर बेलन लगभग एक उंगली की साइज़ का था – एक सेंटीमीटर मोटा और 4.7 सेंटीमीटर लंबा और इनमें लंबाई में एक सुराख भी था। बेलनों पर आठ अलग-अलग प्रतीक चिन्ह उकेरे हुए थे।
हालिया अध्ययन में जॉन्स हॉपकिंस विश्वविद्यालय के पुरातत्वविज्ञानी ग्लेन श्वार्ट्ज़ ने इन मृदालेखों का विश्लेषण करके बताया है कि ये प्रतीक a, i, k, l, n, s और y के समान ध्वनियों के संकेत हैं। हालांकि ये प्रतीक अक्षर किसी ज्ञात भाषा से मेल नहीं खाते हैं और न ही उनके समान हैं, लेकिन शोधकर्ताओं ने इन्हें डिकोड करने के लिए इनकी तुलना पश्चिमी सेमिटिक भाषाओं (हिब्रू, अरामेक और अरबी के प्राचीन और आधुनिक रूप) में इस्तेमाल किए जाने वाले अक्षरों से की। विश्लेषण से ऐसा लगता है कि मृदालेखों में जो संकेताक्षर खुदे हुए हैं वे या तो व्यक्तियों के नाम हैं या कब्र में दफन वस्तुओं के नाम हैं। अमेरिकन सोसाइटी ऑफ ओवरसीज़ रिसर्च की वार्षिक बैठक में श्वार्ट्ज़ ने बताया कि यदि ये अक्षर प्रतीक नाम या वस्तुओं के लेबल हैं तो यह समाज में बढ़ते प्रशासनिक कामों के लिए लेखन की ज़रूरत की ओर इशारा करते हैं।
बेलनों पर कुल 11 बार प्रतीक दिखाई देते हैं, जिनमें कुछ प्रतीकों का दोहराव भी है – यह इस बात का प्रमाण है कि ये प्रतीक किसी वर्णमाला के अक्षर हैं, न कि किसी शब्द के लिए चित्र के रूप में निरूपण। चार बेलनों में से दो बेलन में एक ही क्रम दिखाई देता है, जो उनके अखंडित सिरों पर एक ही प्रतीकाक्षर से समाप्त होता है। श्वार्ट्ज का कहना है कि प्रतीकों का क्रम जितना लंबा होगा, उतनी ही अधिक संभावना है कि वे चित्र निरूपण की बजाय अक्षर प्रतीक होंगे।
चूंकि दो अक्षर मिस्र की कीलाक्षरी से मिलते-जुलते पाए गए हैं, इसलिए ऐसे सवाल भी उठते हैं कि क्या बेलन के निर्माता मिस्र की कीलाक्षरी से प्रभावित थे, या उन्होंने स्वतंत्र रूप से अपनी एक वर्णमाला विकसित की थी। उम्मीद है कि भविष्य के अध्ययन प्रतीकों के अर्थ को उजागर कर सकेंगे और इस गुत्थी को सुलझाने में मदद करेंगे कि पहली वर्णमाला कब विकसित हुई थी। (स्रोत फीचर्स)
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अधिकतर जीव-जंतुओं के बच्चे जन्म के कुछ ही समय की देखभाल और प्रशिक्षण के बाद परिपक्व हो जाते हैं और स्वंतत्र रूप से भोजन वगैरह तलाशने और जीवनयापन करने लगते हैं। लेकिन मनुष्य के बच्चों को माता-पिता की देखभाल की काफी सालों तक ज़रूरत पड़ती है और उन्हें स्वतंत्र रूप से हर काम करने में सक्षम होने में (या यूं कहें कि बड़ा या वयस्क होने में) काफी साल लगते हैं। तुलना की जाए तो वयस्कता तक पहुंचने में मनुष्य के बच्चों को चिम्पैंज़ियों के बच्चों की तुलना में लगभग दुगुना समय लगता है।
मानवविज्ञानी बताते हैं कि संभवत: हमारा लंबा बचपन और किशोरावस्था की शुरुआत या तो हमें तुलनात्मक रूप से बड़ा मस्तिष्क विकसित करने के लिए अधिक समय और ऊर्जा की मोहलत देने के लिए हुई होगी, या जीवन की जटिल सामाजिक अंतःक्रियाओं और वातावरण के अनुकूल होने के कौशल सीखने के लिए। लेकिन वैज्ञानिकों के सामने यह अहम सवाल हमेशा से रहा है कि हमारे पूर्वजों (होमोजीनस) में लंबे बचपन की शुरुआत आखिर हुई कब?
इस सवाल के जवाब तक पहुंचने के लिए वैज्ञानिक अक्सर दांत, खासकर दाढ़, का अध्ययन करते हैं। दांतों का अध्ययन इसलिए क्योंकि प्राचीन दांत या दाढ़ अक्सर खोपड़ी के साथ अश्मीभूत अवस्था में मिल जाते हैं, समय के साथ नष्ट नहीं होते, और सबसे बढ़कर कि उनमें पेड़ के वलयों जैसी वृद्धि रेखाएं बनती हैं। ये रेखाएं दांतों पर डेंटाइन परत चढ़ने के कारण बनती है, जो आधुनिक मनुष्यों में हर 8 दिन में चढ़ जाती है। फिर, मनुष्यों और अन्य प्राइमेट्स की दांतों की वृद्धि की दर भी मस्तिष्क और शरीर के विकास से जुड़ी है।
ज्यूरिख युनिवर्सिटी के पुरामानवविज्ञानी क्रिस्टोफ ज़ोलिकोफर, मारिका पॉन्स डी लियोन और उनका दल भी यह जानना चाहता था कि लंबा बचपन होने की शुरुआत कब हुई। इसके लिए उन्होंने 2001 में जॉर्जिया के डमेनीसी में खुदाई में प्राप्त बच्चे की जबड़े सहित खोपड़ी और दांतों का अध्ययन किया। यह खोपड़ी करीब 17.7 लाख साल पुरानी थी और होमो जीनस के सदस्य की थी। अश्मीभूत दांतों में वृद्धि रेखाओं को देखने के लिए उन्होंने सिंक्रोट्रॉन की मदद से उच्च-विभेदन वाली एक्स-रे छवियां प्राप्त कीं और रेखाओं की गणना की। रेखाओं की गिनती से पता चला कि मृत्यु के समय उसकी उम्र लगभग साढ़े ग्यारह साल रही होगी।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने दांत पर गहरी तनाव रेखाओं का अध्ययन किया। ये तनाव रेखाएं किसी बीमारी या आहार में कमी के चलते सभी दांतों पर आ जाती हैं। इन रेखाओं का अध्ययन करके उन्होंने देखा कि विभिन्न दांत कैसे बने और उभरे। फिर उन्होंने इसका एक मॉडल वीडियो बना कर देखा कि जन्म से लेकर मृत्यु तक हर 6 महीने के अंतराल पर इस प्राचीन बच्चे के दांत कैसे बढ़े।
अंत में, शोधकर्ताओं ने डमेनीसी मनुष्य के दांतों के वृद्धि पथ की तुलना आधुनिक मनुष्यों, चिम्पैंज़ी और अन्य वानरों के दांतों की वृद्धि से की। देखा गया कि डमेनीसी बच्चे के जीवन के शुरुआती 5 वर्षों तक दाढ़ धीरे-धीरे विकसित हुई, जिससे दूध के दांत लंबे समय तक बने रहे – यह चिम्पैंज़ी की बजाय आधुनिक मनुष्य के दांत आने की तरह अधिक था। फिर, 6 से 11 वर्ष की आयु में, डमेनीसी बच्चे के दांत चिम्पैंज़ी की तरह अधिक तेज़ी से विकसित हुए और उभरे।
नेचर में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि डमेनीसी बच्चे के शुरुआती सालों में धीमी गति से विकास का यह सबसे पुराना ज्ञात उदाहरण है, और धीमी वृद्धि के पिछले साक्ष्यों से करीब पांच लाख साल पहले का है। और संभवत: यह हमारे धीमे विकास की ओर पहला कदम भी हो सकता है।
डमेनीसी के निवासियों के मस्तिष्क चिम्पैंज़ियों से बस थोड़े से ही बड़े थे। इस आधार पर लेखकों का कहना है कि मस्तिष्क बड़ा होने के पहले ही हमारे पूर्वजों में दांतों का विकास धीमा हो गया था, संभवत: इसलिए कि औज़ारों के उपयोग, मांस खाने और सामाजिक संरचना में बदलाव ने बच्चों का लंबे समय तक वयस्कों पर निर्भर रहना संभव बनाया।
हालांकि, ये नतीजे सिर्फ एक बच्चे के दांत के विश्लेषण पर आधारित हैं, और चूंकि हर प्राइमेट की वृद्धि करने की गति अलग होती है इसलिए अधिक डैटा ही इन नतीजों की पुष्टि कर सकता है या इन्हें खारिज कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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चाय के पौधे लगभग तीन शताब्दी पूर्व चीन (China) और दक्षिण-पूर्वी एशिया (Southeast Asia) से भारत आए थे, और इन्हें भारत लाने वाले थे ब्रिटिश (British)। दरअसल भारत में चाय (Tea in India) उगाने के प्रयोग के दौरान उन्होंने देखा था कि असम (Assam Tea) में मोटी पत्तियों वाले चाय के पौधे उगते हैं। जब चाय के पौधों को भारत में लगाया गया तो ये बहुत अच्छी तरह से पनपे। (गौरतलब है कि कर्नाटक (Karnataka), केरल (Kerala) और तमिलनाडु (Tamil Nadu) के कुछ इलाकों में भी चाय उगाई जाती है, हालांकि इसकी पैदावार उतनी नहीं होती जितनी कि पूर्वोत्तर (North East India) में होती है)। हाल ही में, उत्तराखंड (Uttarakhand) और उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) ने भी चाय उगाना शुरू किया है। वर्तमान में भारत में चाय की कुल खपत सबसे ज़्यादा (India’s tea consumption) है (5,40,000 मीट्रिक टन है यानी प्रति व्यक्ति 620 ग्राम)। भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा चाय निर्यातक (Tea Exporter) देश है, और इससे देश प्रति वर्ष लगभग 80 करोड़ डॉलर कमाता है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (National Sample Survey Organization) के अनुसार, भारत में कॉफी (Coffee) की तुलना में चाय की खपत 15 गुना ज़्यादा होती है। उत्तर भारत (North India) में, शहरी एवं ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में चाय रोज़ाना का मुख्य पेय बन गई है। यहां एक कप चाय सिर्फ 8-10 रुपए में मिलती है, जो सभी की पहुंच में है। इसके विपरीत, दक्षिण भारत (South India) में एक कप चाय तो 10 रुपए में ही मिलती है, जबकि कॉफी 15 से 20 रुपए में मिलती है।
रासायनिक घटक
फूड केमिस्ट्री (Food Chemistry) और फूड साइंस एंड ह्यूमन वेलनेस (Food Science and Human Wellness) नामक पत्रिकाओं में प्रकाशित कई शोधपत्रों ने चाय की पत्तियों में मौजूद रासायनिक अणुओं (Chemical compounds in tea) का वर्णन किया है। वे बताते हैं कि ये पत्तियां सुगंध से भरपूर होती हैं, जो चाय को उसकी खुशबू देती हैं। फूड साइंस एंड ह्यूमन वेलनेस में 2015 में प्रकाशित एक शोधपत्र में ऐसे वाष्पशील यौगिकों (Volatile Compounds) के कुछ उदाहरण दिए गए थे। ये यौगिक गाजर, कद्दू और शकरकंद जैसे हमारे दैनिक आहार में पाए जाते हैं। हमारे आहार में गैर-वाष्पशील पदार्थ (Non-volatile substances) भी होते हैं; जैसे नमक, चीनी, कैल्शियम और फल आदि, और ये विटामिन और खनिजों से भरपूर होते हैं।
चाय की पत्तियां विटामिन (Vitamins in tea) और सुरक्षात्मक यौगिकों से भी भरपूर होती हैं जो रक्तचाप और हृदय की सेहत (Heart Health) को बेहतर बनाने, मधुमेह (Diabetes) के जोखिम को कम करने, आंतों को चंगा रखने, तनाव और चिंता को कम करने, ध्यान और एकाग्रता में सुधार करने में मदद करती हैं। इस मामले में चाय कॉफी से बेहतर है, क्योंकि चाय में कैफीन (Low caffeine in tea) कम होता है, जो तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित करता है। यही कारण है कि बच्चों को ये दोनों ही पीने की सलाह नहीं दी जाती है।
2015 के शोधपत्र के लेखकों ने पाया था कि चाय की पत्तियों की सुगंध लाइकोपीन (Lycopene), ल्यूटिन (Lutein) और जैस्मोनेट जैसे वाष्पशील यौगिकों (Carotenoids) की उपस्थिति के कारण होती है। दूसरी ओर, भोजन का स्वाद चीनी (Sugar), नमक (Salt), आयरन (Iron) और कैल्शियम (Calcium) जैसे गैर-वाष्पशील यौगिकों से होता है।
घर पर पकाए और बनाए जाने वाले भोजन में ये स्वाद एक तो आयरन, नमक, कैल्शियम और चीनी के उपयोग से आते हैं, और दूसरा गाजर, शकरकंद और ताज़ी सब्ज़ियों से आते हैं। भारत में, मैसूर (Mysore) (और अन्य जगहों पर) स्थित केंद्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान (CSIR-CFTRI) भारतीय भोजन (Indian Food) में एंटीऑक्सिडेंट (Antioxidants), पोलीफीनॉल (Polyphenols) और अन्य स्वास्थ्य-वर्धक अणुओं का अध्ययन कर रहा है।
जैसा कि ऊपर बताया गया है, कॉफी की तुलना में अधिक भारतीय चाय पीते हैं। तो फिर कॉफी की बजाय चाय पीने के क्या लाभ हैं? चाय में कॉफी की तुलना में कैफीन कम होता है और एंटीऑक्सीडेंट अधिक होते हैं। लेकिन कुछ वैज्ञानिकों का दावा है कि कॉफी मधुमेह के खिलाफ चाय की तुलना में बेहतर है। ऐसे में, सवाल आपकी पसंद-नापसंद का है। (स्रोत फीचर्स)
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वर्ष 2010 के फुटबॉल विश्व कप (FIFA World Cup) में प्रत्येक मैच के विजेता की घोषणा के लिए एक ऑक्टोपस (Octopus) का इस्तेमाल किया गया था। पॉल नामक वह ऑक्टोपस तब काफी मशहूर हुआ था। अब उसी शृंखला में एक नया प्रयोग सामने आया है। समकक्ष समीक्षा का मुंतज़िर, यह प्रकाशन पूर्व शोध पत्र (research paper) काफी मशहूर हो रहा है।
इस अध्ययन का सम्बंध यूएसए (USA) के आगामी राष्ट्रपति चुनाव (US Presidential Election) में विजेता का पूर्वानुमान (prediction) लगाने से है। कहा यह जा रहा है कि कुछ बंदरों को जब राष्ट्रपति चुनाव के प्रतिस्पर्धियों की तस्वीरें दिखाई जाती हैं तो वे उस तस्वीर को ज़्यादा देर तक तकते हैं जो पराजित उम्मीदवार की हो।
इस शोध पत्र के लेखक बंदरों में शक्लों की पसंद-नापसंद का अध्ययन करते रहे हैं। उदाहरण के लिए, कई सारे प्रयोग किए गए थे जिनमें कुछ मैकॉक बंदरों (macaque monkeys) को ऐसे बंदरों के चेहरे दिखाए गए थे जिन्हें मैकॉक्स ने पहले कभी नहीं देखा था। शोधकर्ताओं ने पाया कि मैकॉक उच्च हैसियत वाले बंदरों पर एक नज़र भर डालते थे। शायद इसलिए कि घूरना आक्रामकता का द्योतक माना जाता है। दूसरी ओर, जब वे किसी निम्न हैसियत वाले बंदर या मादा बंदर को देखते तो अधिक समय तक देखते रहते थे। तंत्रिका वैज्ञानिक (neuroscientist) युओगुआन्ग जियांग के अनुसार इसका मतलब है कि वे मात्र तस्वीरों के आधार पर कुछ पहचान पाते हैं।
तो शोधकर्ताओं ने सोचा कि क्या ये बंदर इंसानों की शक्ल देखकर भी ऐसा ही करेंगे। उन्होंने बंदरों को 1995 से 2008 के बीच हुए 273 यूएस संसद (US Congress), गवर्नर तथा राष्ट्रपति चुनावों के उम्मीदवारों की तस्वीरें जोड़े में दिखाईं। मान्यता यह थी कि बंदर उन व्यक्तियों की पहचान, दलगत जुड़ाव (political affiliation) या नीतियों के बारे में पूरी तरह अनभिज्ञ थे।
बंदरों ने हर जोड़ी के व्यक्तियों को देखा। प्रयोगों में बंदरों ने पराजित उम्मीदवार (losing candidate) को 54.4 प्रतिशत ज़्यादा देर तक देखा। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह मात्र संयोग नहीं हो सकता। इन बंदरों का प्रदर्शन डांवाडोल प्रांतों (swing states) के बारे में तो और भी बेहतर रहा जिसमें उन्होंने 58.1 प्रतिशत बार विजेता को चुना। वैसे 2000 से 2020 के दरम्यान हुए राष्ट्रपति चुनावों को लेकर उनकी टकटकी ज़्यादा कुछ नहीं बता पाईं।
प्लाट का कहना है कि इससे लगता है कि मात्र चेहरे (face) में काफी ऐसी जानकारी छिपी होती है जिसका सम्बंध इस बात से है कि लोग मतदान के समय क्या करेंगे। शोधकर्ताओं का तो यह भी मत है कि इसमें से कुछ जानकारी तो उम्मीदवार के जबड़े (jawline) के आकार से मिलती है।
कहते हैं कि पहले हुए अध्ययन भी बताते हैं कि राजनीति (politics) से सर्वथा अनजान लोग भी चेहरा देखकर चुनाव के नतीजे की भविष्यवाणी कर सकते हैं। और तो और, एक अध्ययन में पता चला था कि छोटे बच्चे (children) भी चेहरा देखकर विजेता को पहचान लेते हैं। तो शोधकर्ताओं ने यहां तक कह दिया है कि हमारे जीन्स (genes) में कुछ है जो हमारे निर्णयों को प्रभावित करता है और शायद बंदरों और इंसानों में चेहरों को लेकर पूर्वाग्रह का कुछ साझा वैकासिक आधार (evolutionary basis) है। तो नीतियां, प्रचार-प्रसार (campaign) जाने दें, पार्टियों को तो चेहरों पर ध्यान देना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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अंतरिक्ष का यात्रा का अवसर मिलना एक दुर्लभ घटना है। दुनिया के अरबों लोगों में से अब तक सिर्फ 600 व्यक्तियों को ही अंतरिक्ष यात्रा (space travel) का मौका मिला है। इसकी शुरुआत 12 अप्रैल 1961 को रूस के यूरी गागरिन की अंतरिक्ष यात्रा के साथ हुई थी। पिछले 63 सालों से कुछ ज़्यादा की अवधि में मोटे तौर पर दुनिया भर के सिर्फ 600 व्यक्तियों को ही यह मौका मिला है। ये 600 व्यक्ति भी गिने-चुने देशों के रहे हैं। अब तक दुनिया के सिर्फ तीन देश रूस, अमेरिका और चीन ही मानव सहित अंतरिक्ष यान (manned spacecraft) भेज सके हैं।
अंतरिक्ष यात्रा एक दुर्लभ क्षेत्र है और अंतरिक्ष यात्री (astronaut) के रूप में उन्हीं का चयन होता आया है जो अन्य योग्यताएं पूर्ण करने के साथ-साथ शारीरिक रूप से फिट हों। ऐसा इसलिए क्योंकि अंतरिक्ष में स्वास्थ्य सम्बंधी अनेक खतरों की संभावना रहती है। वहां सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण और भारहीनता (microgravity, weightlessness) की स्थितियों में रहना पड़ता है जिनके कारण शरीर में बदलाव आ जाते हैं। इनके प्रभाव पृथ्वी पर लौट आने के बाद भी काफी समय तक बने रहते हैं। कमज़ोर शरीर या स्वास्थ्य वाले व्यक्ति के लिए अंतरिक्ष यात्रा के स्वास्थ्य सम्बंधी खतरे घातक हो सकते हैं। अच्छी शारीरिक स्थिति और अच्छे स्वास्थ्य वाले व्यक्तियों को भी अंतरिक्ष यात्रा के लिए चुने जाने के बाद गहन परीक्षणों और अनुकूलन प्रशिक्षण (adaptation training) से गुज़रना होता है।
इन सब कारणों से अब तक किसी विकलांग व्यक्ति को अंतरिक्ष यात्रा पर भेजने पर विचार तक नहीं किया गया था।
अब युरोपियन स्पेस एजेंसी (European Space Agency) ने एक अनोखी पहल करते हुए एक ब्रिटिश डॉक्टर और पैरालिंपियन जॉन मैकफॉल का चयन दुनिया के पहले पैरा-एस्ट्रोनॉट (parastronaut) के रूप में किया है। अंतरिक्ष यात्रा के लिए वे दुनिया के पहले विकलांग उम्मीदवार (disabled astronaut) हैं।
सेना में करियर बनाने के इच्छुक जॉन मैकफॉल 19 साल की उम्र में थाईलैंड यात्रा के दौरान एक मोटरसाइकिल दुर्घटना का शिकार हो गए थे जिसके कारण उनका दायां पैर घुटने के ऊपर से काटना पड़ा। उन्हें कृत्रिम पैर (prosthetic leg) लगाया गया था।
रोहेम्पटन हॉस्पिटल की विकलांग पुनर्वास विंग में ‘अवसर’ शीर्षक से उन्होंने एक कविता लिखी थी जिसका समापन उन्होंने इन पंक्तियों के साथ किया था:
“जो आंसू इस पन्ने को भिगो रहे हैं,
वे मायूसी के नहीं हैं
और न ही हताशा या अपराधबोध के हैं,
अपितु इस बात को नज़रअंदाज़ करने का पागलपन है
कि मेरा दिल अब भी धड़क रहा है
और मैं जिस दरवाज़े की ओर कदम बढ़ा रहा हूं
उसके पीछे एक अवसर (opportunity) खुलने को है।”
जॉन मैकफॉल अपनी कविता में आपदा में अवसर की बात कर रहे थे। लेकिन सामान्य तौर पर भी विकलांग व्यक्तियों के जीवन में यह शब्द ‘अवसर’ अत्यंत महत्वपूर्ण है। विकसित पश्चिमी देशों और पिछड़े एवं विकासशील देशों के विकलांग व्यक्तियों के जीवन की गुणवत्ता के बीच सारा अंतर सामाजिक दृष्टि से ‘अवसर’ के अंतर के कारण है। विकलांग व्यक्तियों के प्रति समाज में स्वीकार्यता और सकारात्मक रवैया हो और साथ ही समाज में उन्हें गैर-विकलांग व्यक्तियों के समान अवसर (equal opportunity) मिलें और उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो तो वे न सिर्फ अपनी क्षमताओं का उपयोग करते हुए समाज के उपयोगी सदस्य बन सकते हैं बल्कि ऐसे कार्य भी कर सकते हैं जिनसे सारे समाज को लाभ मिले। समाज में समानता और समावेशन (inclusion) उनका अधिकार है।
जॉन मैकफॉल ने अपने बुरे दौर में खेलों में भाग लेना शुरू किया था। पैर खोने के आठ साल बाद उन्होंने 2008 के बीजिंग ओलंपिक (Beijing Olympics) में भाग लिया और 100 मीटर रेस में कांस्य पदक (bronze medal) जीता। इसके बाद अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए उन्होंने कार्डिफ यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मेडिसिन (Cardiff University, School of Medicine) से एमबीबीएस (MBBS) की डिग्री हासिल की और ऑर्थोपेडिक सर्जन (orthopedic surgeon) बने। आगे उन्होंने विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान (medical science), खेल आदि कई विषयों में और पढ़ाई की। बीजिंग ओलंपिक के अलावा भी उन्होंने अनेक अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में भाग लिया और पदक जीते। दौड़ के अलावा कई साहसिक खेलों (adventure sports) में भी वे भाग लेते रहे। विज्ञान में शिक्षा और खेलों से मिली फिटनेस (fitness) ने उन्हें पैरा-एस्ट्रोनॉट के रूप में चयन का पात्र बनाया।
बीजिंग ओलंपिक के बाद क्रिसमस पर उनके पिता ने उन्हें एक एटलस भेंट किया था, जिसमें उन्होंने लिखा था: “बेटा, हमेशा अतिरिक्त प्रयास करो। जीवन तुम्हें पुरस्कृत करेगा।” यह जॉन मैकफॉल का ‘अचेतन मंत्र’ बन गया।
“पैरा-एस्ट्रोनॉट फिज़िबिलिटी प्रोग्राम” (Parastronaut Feasibility Program) में जॉन मैकफॉल को कक्षा में आपातकालीन प्रक्रियाएं पूरी करने की क्षमता और सूक्ष्म-गुरुत्व (microgravity) में अपने आप को स्थिर रखने की क्षमता के बारे में कई महीनों का कठोर प्रशिक्षण प्रदान किया गया है। यदि उन्हें अंतरिक्ष यात्रा (space mission) पर भेजा जाता है तो वे चालक दल (crew) के अन्य गैर-विकलांग सदस्यों के समान ही अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे। साथ ही अंतरिक्ष यात्रा का उनकी विकलांगता और उनके कृत्रिम अंग (prosthetic limb) पर पड़ने वाले प्रभावों का भी परीक्षण किया जाएगा। चूंकि वे चालक दल के अन्य गैर-विकलांग सदस्यों के समान ही अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे, इसीलिए वे स्वयं को “पैरा-एस्ट्रोनॉट” की बजाय “एस्ट्रोनॉट” (astronaut) संबोधित किए जाने की वकालत करते हैं। उनका तर्क है कि वे एक “पैरा-सर्जन” और “पैरा-डैड” नहीं बल्कि एक सामान्य चिकित्सक (सर्जन) और सामान्य पिता हैं।
युरोपियन स्पेस एजेंसी (ESA) ने पैरा-एस्ट्रोनॉट के रूप में जॉन मैकफॉल का चयन गहन वैज्ञानिक परीक्षण (scientific evaluation) के उद्देश्य से किया है। साथ ही ऐसा करके युरोपियन स्पेस एजेंसी ने सामाजिक दृष्टि से एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। एक ओर दुनिया के अधिकांश देशों में जहां विकलांग व्यक्ति समाज में स्वीकार्यता, समानता (equality), अवसर, भागीदारी और समावेश के लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर, विकसित यूरोपीय देश, अमेरिका और जापान समावेशी समाज निर्मित करने की दिशा में काफी आगे बढ़ चुके हैं। युरोपियन स्पेस एजेंसी में 22 सदस्य देश (member countries) हैं। एजेंसी द्वारा अंतरिक्ष यात्रा के लिए विकलांग व्यक्ति का चयन करने का अर्थ है ये 22 देश विकलांग व्यक्तियों के प्रति शेष दुनिया से ज़्यादा संवेदनशील, सकारात्मक रवैये वाले और समावेशी समाज (inclusive society) निर्मित करने के प्रति ईमानदार हैं। ये देश न सिर्फ धरती पर बल्कि अंतरिक्ष में भी समावेशन की दिशा में कदम उठा रहे हैं। वैज्ञानिक उन्नति (scientific progress) के लिए किए जा रहे प्रयासों के साथ इस सामाजिक आयाम का समावेशन इस पहल को और अधिक महत्वपूर्ण बनाता है। शेष दुनिया को इससे प्रेरणा लेते हुए कम से कम अपनी धरती पर समावेशी समाज निर्मित करने के प्रति गंभीर हो जाना चाहिए।
जॉन मैकफॉल की अंतरिक्ष की उड़ान सचमुच हौसलों की उड़ान (flight of courage) होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.moneycontrol.com/static-mcnews/2024/08/20240831152001_jpgtopngconverter-com-4.jpg?impolicy=website&width=770&height=431
भारत में आय और दौलत की विषमता (income and wealth inequality) पर हाल ही की चर्चित रिपोर्ट में कई चौंकाने वाले और चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं। ‘राईज़ ऑफ दी बिलियोनेयर राज’ (Rise of the Billionaire Raj) शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट में सन 1922 से 2023 तक भारत में आय और दौलत की विषमता के बारे यह बताया गया है कि “वर्तमान भारत में विषमता (inequality) अंग्रेज़ों और राजा-महाराजाओं के ज़माने से भी अधिक है।” यह रिपोर्ट नितिन कुमार भारती (Nitin Kumar Bharti) एवं सहयोगियों द्वारा तैयार की गई है और विस्तृत आंकड़ों के आधार पर भारत में पिछले 100 वर्षों में लोगों की आर्थिक दशा उजागर करती है।
विषमता के क्या मायने हैं?
रिपोर्ट में प्रस्तुत आंकड़े दर्शाते हैं कि हमारी विकास की योजनाएं (development plans) 10 प्रतिशत अमीरों (rich) को और अमीर कर रही हैं, जबकि बीच के लोगों को विकास का लाभ (benefits of development) नहीं मिल रहा है। बाकी 50 प्रतिशत लोगों को मुफ्त खाने (free food) का सहारा देना उनकी बेबसी की हालत दर्शाता है। विकास का यह दौर जिसमें बेरोज़गारी (unemployment), गरीबी (poverty) और बेबसी (helplessness) का मिश्रण बनता है, समाज में विकराल स्थिति (critical situation) पैदा करता है। यह स्थिति समाज में क्लेश (discord) और घृणा (hatred) को बढ़ा रही है और उम्मीद एवं भाईचारे (hope and brotherhood) को नष्ट कर रही है।
भारत में विषमता इसलिए भी बढ़ी है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में कॉर्पोरेट टैक्स (corporate tax) में बहुत छूट दी गई है। ऐसा करने के पीछे यह सोच रही है कि कंपनियां (companies) अपने बढ़े हुए मुनाफे (increased profits) से और अधिक निवेश करेंगी। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हुआ। फायदा सिर्फ कंपनियों के शेयर धारकों (shareholders) को हुआ। इससे अमीर और अमीर हो गए। इस संदर्भ में उस दौरान कई अर्थशास्त्रियों (economists) ने कहा था कि मूल समस्या बाज़ार में मांग की कमी (market demand) है। यदि मांग कमज़ोर है और कंपनियां ज़्यादा निवेश (more investment) कर भी देती हैं तो वे अपना उत्पादन (production) खपाएंगी कहां? यानी स्पष्ट है कि मांग बढ़ाने पर ही आर्थिक गतिविधियां (economic activities) पटरी पर आ सकती हैं। नोटबंदी (demonetization) और जीएसटी (GST) को बेतुके ढंग से लागू करने और उसके पश्चात कोरोना (coronavirus) के कारण हमारी अर्थव्यवस्था (economy) बहुत कमज़ोर हो गई थी।
हाल ही में ब्रिटेन की लेबर पार्टी (UK Labour Party) ने एक बहुत चर्चित वीडियो जारी करके समझाया है कि सरकार के लिए अरबपतियों (billionaires) को फायदा देने से बेहतर है आम जनता के लिए खर्च करना। इस धन को जनता आगे खर्च करती है और बाज़ारों में मांग (demand in markets) बढ़ती है। (इस वीडियो को आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं – [https://labourlist.org/2019/04/ordinary-people-vs-billionaires-labours-party-political-broadcast/](https://labourlist.org/2019/04/ordinary-people-vs-billionaires-labours-party-political-broadcast/))
हमारी सरकार का आर्थिक नज़रिया (economic perspective) अधूरा भी है। जीडीपी (GDP) बढ़ाना ज़रूरी है, लेकिन यदि इसकी व्याख्या ठीक से न की जाए, तो यह अधूरा लक्ष्य (incomplete goal) ही है। कई मुल्कों के इतिहास (history of countries) को खंगालने से यह पता चलता है कि जीडीपी बढ़ने से सरकार के खजाने में इज़ाफा (increase in government revenue) होता है। इन पैसों को यदि लोगों की शिक्षा (education), स्वास्थ्य (health), एवं रोज़गार (employment) के लिए खर्च किया जाए तो कुछ वर्षों बाद लोगों की क्षमताएं (capabilities) बढ़ती हैं, और रोज़गार से आय (income) भी बढ़ती है। जब व्यापक स्तर पर ऐसा होने लगता है तो समाज में आय और दौलत की विषमता (income and wealth inequality) घटने लगती है। केवल जीडीपी बढ़ाना और लोगों के लिए खर्च करने के तर्क (arguments) को भूल जाना, विषमता को और बढ़ाता है। भारत में ऐसा ही हुआ है और इसी कारण आज विषमता अंग्रेज़ों के राज (British Raj) से भी अधिक है।
अधिक विषमता (inequality) समाज के ताने-बाने को नष्ट करती है। जिन के पास दौलत (wealth) है यह उनके लिए भी घातक सिद्ध होती है तथा इससे विश्वास (trust) टूटता है। इसके कुछ संकेत हम भारत में देख रहे हैं – 40 प्रतिशत संपत्ति (property) के मालिक 1 प्रतिशत लोग अपनी दौलत का कुछ हिस्सा विदेशों में निवेश (foreign investments) कर रहे हैं।
इसी संदर्भ में स्वास्थ्य के क्षेत्र में दो शोधकर्ताओं (researchers) ने विकसित देशों के अनुभवों (experiences of developed countries) के प्रमाण के साथ एक पुस्तक प्रकाशित की है – **दी स्पिरिट लेवल: व्हाय मोर इक्वल सोसायटीज़ आलमोस्ट आल्वेज़ डू बेटर** (The Spirit Level: Why More Equal Societies Almost Always Do Better) (लेखक रिचर्ड विलकिन्सन और केट पिकेट) (authors Richard Wilkinson and Kate Pickett)। यह पुस्तक ज़रूर पढ़ना चाहिए, क्योंकि यह भ्रम बना हुआ है कि विषमता को दूर करना यानी एक से ले कर दूसरे को देना। विषमता को एक सीमा में रखना सब के लिए अच्छा सिद्ध होता है, जिन के पास है उनके लिए भी!
हमारे लिए ज़रूरी कदम
नितिन भारती और उनके सहयोगियों ने अपनी रपट में कुछ सुझाव (suggestions) भी रखे हैं। उनका कहना है कि अरबपति (billionaires) और बहुत अमीर करोड़पति (wealthy millionaires) पर विशेष टैक्स (special tax) लगना चाहिए। भारत में संपत्ति कर (property tax) एक समय था, पर उसे हटा दिया गया है। उसे नए स्वरुप (new form) में लागू करना चाहिए। इन कदमों से सरकार को जो आय प्राप्त हो उसे शिक्षा (education) और स्वास्थ्य (health) पर खर्च करना चाहिए। इन मुद्दों पर बहस हो सकती है पर मुख्य बात है कि हमें अपनी विकास योजनाओं (development plans) की पूर्ण समीक्षा (thorough review) करनी होगी। खासकर रोज़गार (employment) के क्षेत्र में यह समझना होगा कि लघु उद्योग (small industries) और छोटे कारोबार (small businesses) में अधिक लोगों को रोज़गार मिलने की संभावना (employment opportunities) बनती है और इसे विशेष प्रोत्साहन देना ज़रूरी है। यह असंगठित क्षेत्र (informal sector) का हिस्सा है। संगठित क्षेत्र (formal sector) वह है जो भारी मशीन (heavy machinery), उच्च तकनीकी कौशल (technical skills) और पूंजी (capital) पर आधारित होता है। यह उत्पादन की प्रक्रिया (production process) को तो मज़बूत करता है पर बहुत लोगों को रोज़गार (employment) नहीं देता। यहां यह दोहराने की ज़रूरत नहीं है कि शिक्षा (education), स्वास्थ्य (health) एवं भोजन (food) की बुनियादी ज़रूरतों और सार्वजनिक व्यवस्थाओं के ढांचों (infrastructure) को मज़बूत किए बिना हम रोजगार (employment) के नए मौके एवं कौशल-संपन्न लोग (skilled individuals) नहीं बना पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.groundxero.in/wp-content/uploads/2024/03/Inequality-in-India.jpg
सिनेमा और पॉपकॉर्न का रिश्ता तो जाना-माना है। लेकिन कभी आपने सोचा है कि पॉपकॉर्न की खोज कैसे और कब हुई?
वैसे तो भोजन से जुड़े इन रहस्यों को सुलझाना बड़ा मुश्किल होता है। क्योंकि पुरातत्ववेत्ताओं के लिए अतीत में झांकने की एकमात्र खिड़की अतीत में छूटे हुए अवशेष होते हैं, खासकर उन मामलों में जब लोगों ने चीज़ें लिखकर दर्ज नहीं की हों।
प्राचीन लोग प्राय: लकड़ी, जानवरों के अंगों से बनी सामग्री या कपड़े इस्तेमाल करते थे जो बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं और ये सब खुदाई में मिलना दुर्लभ है; सबूत के तौर पर खुदाई में अक्सर मिट्टी के बर्तन या पत्थर के औज़ार जैसी कठोर चीज़ें ही मिलती हैं। लेकिन नरम चीज़ें – जैसे भोजन के बचे हुए हिस्से – मिलना बहुत मुश्किल है। बिरले ही, कुछ शुष्क जगहों पर कोई नरम चीज़ संरक्षित मिल जाती है। या फिर किसी जली हुई चीज़ के अवशेष सलामत मिलने की संभावना रहती है।
सौभाग्य से, मक्के में कुछ कठोर भाग होते हैं जैसे कर्नेल खोल (भुट्टा या पॉपकॉर्न खाते वक्त जो आपके दांतों में फंस जाता है वह हिस्सा)। फिर, खाने के पहले हम इसे भूनते या सेंकते हैं इसलिए कभी-कभी यह जल भी जाता है। और इसका जलना पुरातत्वविदों को प्रमाण के रूप में मिलकर फायदा पहुंचा जाता है। और सबसे बड़ी बात यह है कि मक्के सहित कुछ पौधों में छोटे, सख्त हिस्से होते हैं जिन्हें फायटोलिथ कहा जाता है, जो हज़ारों सालों तक सलामत रह सकते हैं।
अब, यह तो हम जानते हैं कि मक्का पिछले 9000 साल से हमारी खेती का हिस्सा है। इसकी खेती सबसे पहले वर्तमान के मेक्सिको में शुरू हुई थी। तब के किसानों ने एक तरह की घास, टेओसिन्टे, को मक्का में विकसित किया था। खेती से पहले लोग जंगली टेओसिन्टे इकट्ठा करते थे और उसके बीज खाते थे, जिसमें बहुत सारा स्टार्च होता था। खेती के लिए उन्होंने हमेशा सबसे बड़े बीजों वाले टेओसिन्टे चुने और उगाए। इस चयन से समय के साथ टेओसिन्टे से मक्का प्राप्त हुआ।
मक्के की भी कई किस्में हैं। इनमें से ज़्यादातर किस्में गर्म करने पर पॉप हो जाती हैं या फूट जाती हैं। लेकिन इसकी एक किस्म, जिसे वास्तव में ‘पॉपकॉर्न’ कहा जाता है, सबसे अच्छे से पॉपकॉर्न बनाती है। पेरू से 6700 साल प्राचीन पॉप होने वाले मक्के के फायटोलिथ और जले हुए दानों के अवशेष मिले हैं।
ऐसा अनुमान है कि पॉपिंग मक्के की खोज दुर्घटनावश हुई होगी। खाना पकाते समय कुछ दाने आग में गिर गए होंगे, और खाना बनाने वाले ने नए व्यंजन बनाने के इस तरीके पर गौर कर लिया होगा। और फिर, नए व्यंजन के अलावा पॉपकॉर्न बना कर रखना मक्के को लंबे समय तक सहेजने में आसानी देता होगा।
दरअसल, आग में तपाकर दाने से पानी सुखाने से इसे जल्दी खराब होने से बचाया जा सकता है। गर्म करके सुखाते वक्त दाने का पानी भाप बनकर निकलता है, यही पॉपकॉर्न को पॉप करता है। तो हो सकता है कि सिनेमा हॉल का यह साथी अनाज को लंबे समय तक सुरक्षित रखने की कोशिश का परिणाम है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.natgeofe.com/n/414f26c5-33ac-48c8-933f-98222503a90d/47232.jpg
स्पेन के एक पुरातात्विक स्थल एल साल्ट पर पुरातत्वविदों को निएंडरथल मानव के लगभग 52,000 साल पुराने साक्ष्य मिले थे; पत्थर के औज़ार, जानवरों की हड्डियां, चूल्हे और मानव मल का (सबसे प्राचीन ज्ञात) जीवाश्म। ये साक्ष्य मिट्टी की एक ही परत में मिले थे। लिहाज़ा, वैज्ञानिकों का मानना था कि निएंडरथल (होमो निएंडरथलेंसिस) मानव लगभग एक ही समय पर यहां आए थे, और अपने पीछे ये निशान छोड़ गए थे।
लेकिन साक्ष्यों या घटनाओं को इस तरह मोटे तौर पर एक ही समय का कहने से वास्तविक इतिहास दबा ही रहता है। दूसरा, प्राचीन समय में संभवत: एक लंबी अवधि में या समय के साथ धीरे-धीरे घटित हुई घटना, या विकसित हुई तकनीक एक चुटकी में हुए चमत्कार की तरह लगने लगती है।
इन्हीं कारणों के चलते बर्गोस विश्वविद्यालय की पुरातत्वविद एंजेला हेरेजोन-लैगुनिला ने इस स्थल पर मिले चूल्हों का सटीक कालनिर्धारण करने का सोचा। इसके लिए उन्होंने चूल्हों में बचे चुंबकीय खनिजों (अवशेषों) का विश्लेषण किया। दरअसल, चूल्हों के बुझने पर राख या अवशेष में मौजूद चुंबकीय खनिजों में पृथ्वी के तत्कालीन चुंबकीय क्षेत्र की दिशा दर्ज हो जाती है और बनी रहती है जब तक कि उस पदार्थ को फिर से एक निश्चित तापमान से ऊपर तपाया न जाए।
विश्लेषण के लिए शोधकर्ताओं ने पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में हुए हालिया बदलावों के आधार पर लगभग 52,000 साल पहले पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में हुए सूक्ष्म परिवर्तनों का मॉडल तैयार किया। और इस जानकारी की मदद से यह अनुमान लगाया कि कौन से चूल्हे अंतिम बार कब उपयोग किए गए थे।
नेचर पत्रिका में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि इस स्थल पर सबसे पहली और सबसे आखिरी बार उपयोग किए गए चूल्हों के बीच कम से कम 200 साल का अंतर था। इसमें भी अलग-अलग चूल्हों के इस्तेमाल होने के बीच दशकों लंबा फासला था। इससे पता चलता है कि निएंडरथल मानव की कई पीढ़ियां लंबे समय तक इस जगह पर आती रहीं थीं।
ये नतीजे वैज्ञानिकों को पत्थर के औज़ारों सहित अन्य मानव साक्ष्यों को नए सिरे से समझने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। काल निर्धारण की इस तकनीक के व्यापक इस्तेमाल से प्राचीन मनुष्यों के रहने, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने और समूहों में संगठित होने एवं औज़ारों के इस्तेमाल बारे में नए सिरे से, बारीकी से जानकारी मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.nature.com/lw1200/magazine-assets/d41586-024-01688-z/d41586-024-01688-z_27177292.jpg